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शिव के व्रतों का वर्णन व विधान ।।

          भारत को जनता धर्मप्रिय है, और भगवान शंकर भारतवासियों के लिये सर्वोच्च एवं सर्वप्रिय देवता रहे हैं।
इस लेख में भगवान शंकर से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण व्रतों का परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है।

१- सोमवार व्रत :-
        इस व्रत में साधक किसी भी सोमवार से व्रत प्रारम्भ कर सकता है। उसे कम से कम सोलह सोमवार का व्रत-संकल्प अवश्य लेना चाहिए।

प्रातः काल उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर साधक भगवान शंकर की विधि-विधान से पूजन करे और संकल्प लेकर प्रण करे कि मैं अमुक कार्य की सफलता के लिये आपका व्रत कर रहा हूं।

इसके बाद "नमः शिवाय" पंचाक्षरी मन्त्र की एक माला फेरे और उस दिन एक समय एक आसन पर बैठकर उतना ही भोजन करे जितना कि नित्य करता है, इसके अलावा दिन में किसी भी प्रकार का फलाहार या अन्न ग्रहण न करे ।
साधक को चाहिए कि व्रत के दिन असत्य न बोले, स्त्री-गमन न करे और यथा सम्भव शुद्ध सात्विक रूप से दिन व्यतीत करे। 

२- मन्छा महादेव व्रत :
          यह अत्यन्त महत्वपूर्ण व्रत है। किसी भी वर्ष से यह व्रत प्रारम्भ किया जा सकता है। श्रावण शुक्ल पक्ष प्रथम सोमवार से इस व्रत को प्रारम्भ किया जाता है तथा कार्तिक शुक्ला प्रथम सोमवार को इस व्रत का समापन होता है, इस प्रकार चार वर्ष तक इस को करने से पूर्णता मानी जाती है।

श्रावण शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार को साधक (पुरुष या स्त्री) स्नान कर शिव का पूजन करे और संकल्प में अपनी इच्छा व्यक्त करे, इसके बाद उस दिन मंछा महादेव कथा का पाठ करे या श्रवण करें । उस दिन साधक को एक बार ही भोजन करना चाहिए, इसके अलावा उस दिन किसी भी प्रकार का अन्न या भक्ष्य स्वीकार नहीं करना चाहिए।

इस प्रकार प्रत्येक सोमवार को व्रत रखना चाहिए और मंछामहादेव की कथा सुननी चाहिए, यह कथा बाजार में सहज ही प्राप्य है।

कार्तिक शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार को सवा किलो आटा, सवा किलो घी, गुड़ आदि लेकर भगवान शिव के लिये प्रसाद बनाया जाता है और कथा के अनुसार उसके भाग कर वितरण किया जाता है। इस प्रकार एक वर्ष का विधान सम्पन्न होता हैं, कार्य की सफलता के लिये इस प्रकार चार वर्ष तक व्रत करना चाहिए, ऐसा करने पर निश्चय ही मनोवांछित सफलता प्राप्त होती है।

३- शिवरात्रि व्रत :-
           यह व्रत पूरे वर्ष में सर्वश्रेष्ठ और शिव को अत्यन्त प्रिय व्रत है। इस दिन साधक दिन भर भूखा रहता है और सूर्यास्त के बाद प्रथम प्रहर में भगवान शिव की षोडशोपचार पूजा करता है। यदि संभव हो तो साधक को रुद्राष्टाध्यायी का पाठ भी करना चाहि- ए। इसी प्रकार रात्रि के चार प्रहरों में चार बार शिव पूजा की जाती है तथा प्रातः काल भगवान शिव का श्रृंगार कर उसकी आरती की जाती है। साधक को रात्रि भर जागरण करना चाहिए, प्रातः काल आर- ती के बाद ही भोजन करने का विधान है।

रात्रि को शिव पूजन करते समय संस्कृत का ज्ञान न हो तो "नमः शिवाय' मन्त्र से भी पूजा की जा सकती है और सारी रात इसी पंचाक्षरी मन्त्र का जप किया जा सकता है।

४- षोडश सोमवार व्रत :-
           शास्त्रों में लिखा है कि शिवजी के प्रिय चन्द्र हैं जिन्हें वे हमेशा अपने ललाट में स्थापित किये रहते हैं। अतः शिव को प्रसन्न करने के लिये सोमवार का व्रत किया जाता है। शिव पूजन उत्तर की ओर मुंह करके किया जाना चाहिए ।

साधक को किसी भी सोमवार को स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण कर भगवान शंकर की पूजा करके संकल्प के द्वारा अपनी इच्छा व्यक्त करनी चाहिए। उसके बाद "नमः शिवाय" मन्त्र की एक माला फेरी जाती है, साधक को उस दिन एक समय भोजन करना चाहिए और अन्य सभी नियमों का पालन करना चाहिए । इस प्रकार सोलह सोमवारों को व्रत किया जाता है। अन्तिम सोमवार को व्रत की समाप्ति पर पुनः शंकर की पूजा कर साधुओं को भोजन कराया जाता है, और सोमवार व्रत कथा सुनकर व्रत समाप्ति की जाती है।

५- श्रावण व्रत :-
           श्रावण का महीना शंकर को सर्वाधिक प्रिय है। इस महीने में चार या पांच सोमवार आते हैं । साधक को पहले सोमवार को प्रातः उठकर स्नान कर पूर्ण विधि- विधान के साथ भगवान शंकर की पूजा करनी चाहिए । फिर शुद्ध स्थान से मिट्टी लाकर उसके लिंगाकार ११०० शिवलिंग बनाये जाते हैं और लिंग के ऊपर बिना टूटा हुआ चावल का दाना लगाया जाता है। साथ ही साथ मां पार्वती, नन्दी, गणेश और कार्तिकेय की मूर्तियां मिट्टी से ही बनाई जाती हैं।
फिर इन सब का पूर्ण विधि-विधान के साथ पूजन किया जाता है और पूजन के बाद तालाब में या नदी में उन शिवलिंगों का विसर्जन कर दिया जाता है।

श्रावण महीने में प्रत्येक दिन या प्रत्येक सोमवार इसी प्रकार पूजा करने का विधान है। इससे साधक की निश्चित रूप से इच्छा पूर्ण होती है और वह जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर पाता है।

६- श्रावण शिव व्रत :-
          श्रावण महीने में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तक यह व्रत किया जाता है। सर्व प्रथम साधक चांदी या पत्थर के शिवलिंग स्थापित कर उसकी पूजा करता है तथा उस पर अनवरत जलधार देता है। शिवलिंग पर ऐसी व्यवस्था की जाती है कि उस पर तिपाई ऊपर रखे हुए कलश या घड़े के नीचे छोटा-सा छेद करके उसमें से जल की एक-एक बूंद शिवलिंग पर पड़ती रहती है। यह जलधार चौबीसो घंटे चलती रहती है तथा नित्य प्रातः काल साधक शिव की पूर्ण विधि- विधान के साथ पूजन करता है।

पूर्णिमा की रात्रि को यह व्रत समाप्त होता है। इस एक महीने में साधक को चाहिए कि वह नित्य एक समय भोजन करे, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे, सिगरेट आदि का सेवन न करे, दिन में न सोये, व्यर्थ की बकवास न करे, और अपने शरीर तथा मन को यथासम्भव शुद्ध और पवित्र बनाये रखे ।

७- प्रदोष व्रत :
            सामान्यतः प्रत्येक महीने की त्रयोदशी को प्रदोष व्रत किया जाता है। पर कभी-कभी एक दिन पहले या एक दिन बाद भी यह व्रत आ जाता है अतः योग्य ब्राह्मण से इसके बारे में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए।

प्रदोष के दिन साधक को प्रातः स्नान आदि से निवृत्त होकर भगवान शंकर की पूर्ण विधि-विधान के साथ पूजा करनी चाहिए और प्रदोष कथा सुनकर ही एक समय भोजन करना चाहिए । इस प्रकार प्रत्येक महीने में दो प्रदोष व्रत किये जाते हैं। एक साल भर तक इस प्रकार व्रत करने से साधक की मनोकामना निश्चय ही पूर्ण होती है।

वस्तुतः ये व्रत शिव भक्तों के लिये आवश्यक हैं और उन्हें अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस प्रकार के व्रतों को करना चाहिए। ऐसा करने से वे इस जीवन में पूर्ण सुख प्राप्त करते हुये अन्त में मोक्ष पद प्राप्त करते हैं।

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