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तीसरा शरीर (सूक्ष्म शरीर) ।।

संदेह से श्रद्धा/विचार से विवेक की यात्रा 

(SOLAR PLEXUS CHAKRA)

तीसरा शरीर अर्थात एस्ट्रल बॉडी , सूक्ष्म शरीर । 
इस सूक्ष्म शरीर के भी दो हिस्से हैं। प्राथमिक रूप से सूक्ष्म शरीर संदेह, विचार, इनके आसपास रुका रहता है। और अगर ये रूपांतरित हो जाएं— तो संदेह श्रद्धा बन जाता है; और विचार अगर रूपांतरित हो तो विवेक बन जाता है।

संदेह को किसी ने दबाया तो वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा। हालांकि सभी तरफ ऐसा समझाया जाता है कि संदेह को दबा डालो, विश्वास कर लो। जिसने संदेह को दबाया और विश्वास किया, वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा; उसके भीतर संदेह मौजूद ही रहेगा— दबा हुआ; भीतर कीड़े की तरह सरकता रहेगा और काम करता रहेगा। उसका विश्वास संदेह के भय से ही थोपा हुआ होगा।

न केवल संदेह को समझना पड़ेगा, संदेह को जीना पड़ेगा, संदेह के साथ चलना पड़ेगा,और संदेह एक दिन उस जगह पहुंचा देता है, जहां संदेह पर भी संदेह हो जाता है। और जिस दिन संदेह पर संदेह होता है उसी दिन श्रद्धा की शुरुआत हो जाती है। विचार को छोड्कर भी कोई विवेक को उपलब्ध नहीं हो सकता। विचार को छोड़नेवाले लोग हैं, छुड़ानेवाले लोग हैं; वे कहते हैं—विचार मत करो, विचार छोड़ ही दो। अगर कोई विचार छोड़ेगा, तो विश्वास और अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। वह विवेक नहीं है। विचार की सूक्ष्मतम प्रक्रिया से गुजरकर ही कोई विवेक को उपलब्ध होता है।

विवेक का क्या मतलब है?

विचार में सदा ही संदेह मौजूद है। विचार सदा इनडिसीसिव है। इसलिए बहुत विचार करनेवाले लोग कभी कुछ तय नहीं कर पाते। और जब भी कोई कुछ तय करता है, वह तभी तय कर पाता है जब विचार के चक्कर के बाहर होता है। डिसीजन जो है वह हमेशा विचार के बाहर से आता है। अगर कोई विचार में पड़ा रहे तो वह कभी निश्चय नहीं कर पाता। विचार के साथ निश्चय का कोई संबंध नहीं है।

इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि विचारहीन बड़े निश्चयात्मक होते हैं, और विचारवान बड़े निश्चयहीन होते हैं। दोनों से खतरा होता है। क्योंकि विचारहीन बहुत डिसीसिव होते हैं। वे जो करते हैं, पूरी ताकत से करते हैं। क्योंकि उनमें विचार होता ही नहीं जो जरा भी संदेह पैदा कर दे। दुनिया भर के डाग्मेटिक, अंधे जितने लोग हैं, फेनेटिक जितने लोग हैं, ये बड़े कर्मठ होते हैं; क्योंकि इनमें शक का तो सवाल ही नहीं है, ये कभी विचार तो करते नहीं। अगर इनको ऐसा लगता है कि एक हजार आदमी मारने से स्वर्ग मिलेगा, तो एक हजार एक मारकर ही फिर रुकते हैं, उसके पहले वे नहीं रुकते। एक दफा उनको खयाल नहीं आता कि यह ऐसा— ऐसा होगा? उनमें कोई इनडिसीजन नहीं है। विचारवान तो सोचता ही चला जाता है, सोचता ही चला जाता है।

तो विचार के भय से अगर कोई विचार का द्वार ही बंद कर दे, तो सिर्फ अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। अंधा विश्वास खतरनाक है और साधक के मार्ग में बड़ी बाधा है। चाहिए आंखवाला विवेक, चाहिए ऐसा विचार जिसमें डिसीजन हो। विवेक का मतलब इतना ही होता है। विवेक का मतलब है कि विचार पूरा है, लेकिन विचार से हम इतने गुजरे हैं कि अब विचार की जो भी संदेह की, शक की बातें थीं, वे विदा हो गई हैं; अब धीरे— धीरे निष्कर्ष में शुद्ध निश्चय साथ रह गया है।

तो तीसरे शरीर का केंद्र है मणिपुर, चक्र है मणिपुर। उस मणिपुर चक्र के ये दो रूप हैं. संदेह और श्रद्धा। संदेह रूपांतरित होगा तो श्रद्धा बनेगी।

लेकिन ध्यान रखें श्रद्धा संदेह के विपरीत नहीं है, शत्रु नहीं है, श्रद्धा संदेह का ही शुद्धतम विकास है, चरम विकास है; वह आखिरी छोर है जहां संदेह का सब खो जाता है, क्योंकि संदेह स्वयं पर संदेह बन जाता है और स्युसाइडल हो जाता है, आत्मघात कर लेता है और श्रद्धा उपलब्ध होती है।

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