समस्त लोक ब्रह्मांड का कल्याण करने हेतु सगुण मूर्त्तिशिरोमणि आनन्दकन्द षोडशकलापूर्ण पूर्णावतारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रूप का जन्म हुआ जो साक्षात परब्रह्म श्री हरि का अंश रूप है। श्री हरि, जिनकी पूजा सभी ब्रह्मा, शिव और इंद्र करते हैं, सभी ज्ञान के सर्वोच्च स्रोत हैं। निराकार ब्रह्म सुंदर भगवान श्री श्री राधाकांत का शारीरिक तेज है। ब्रह्मांड के निर्माता भगवान विष्णु, जो दुग्ध के पारलौकिक सागर पर लेटे हैं, श्री हरि का केवल एक अंश हैं। श्री हरि स्वयं कोई और नहीं बल्कि हमारे गुणश्रेष्ठ श्री राधावल्लभ भगवान् कृष्ण चंद्र हैं। जिनका समस्त जीवन असीमित गुणों रसों का सागर है। शाब्दिक रूप में भगवान् के भग शब्द में 6 गुण हैं। ऐश्वर्य, जप, बल, श्री, वैराग्य और यश। इनमें ज्ञान और बल प्रधान है। अन्य गुण इन्हीं दो से सम्बंधित है। ज्ञान में ऐश्वर्य और वैराग्य निहित है। बल में श्री और यश आ जाते हैं। ब्रह्म और क्षत्र इन्हीं दोनों का अपर नाम हैं। इन सभी गुणों का कृष्ण में समन्वय था इसलिए हम उन्हें भगवान् कहकर पुकारते हैं ना की ईश्वर शब्द कहा गया है। एक प्रकार से भगवान् के ये सभी गुण अनन्त हैं। उनका कोई थाह नहीं लगा सकता। कहते हैं, शेष और शारदा तथा ब्रह्मा, रुद्र इत्यादि भी उनके गुणों का वर्णन नहीं कर सकते, फिर मनुष्य की तो बात ही क्या है।
श्रीमद्भागवत में भी लिखा है-
गुणात्मनस्तेऽपि गुणान् विमातुं
हितावतीर्णस्य क ईशिरेऽस्य।
कालेन यैर्वा विमिताः सुकल्पै-
र्मूपांशवः खे मिहिकाद्युभासः ॥
अर्थात् हे भगवन्! संसार के हितके लिये अवतार धारण करने वाले आपके गुणों की थाह कौन लगा सकता है? क्योंकि आप गुणरूप ही हैं। पृथिवी के रजःकणों को अथवा आकाश के नक्षत्रों को और नीहारके कणों को कोई भले ही गिन सके, परन्तु आपके गुणों की गणना कदापि नहीं हो सकती। फिर भी भक्त जनों ने अपनी-अपनी भावना के अनुसार अपने मनस्तोष के लिये तथा अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये जो गुण जिसकी समझ में आये, उन्हीं का वर्णन किया है
भगवान कृष्ण भिन्न गुण रूपों का एक अथाह भंडार थे, महाभारत में श्री कृष्ण जी के विषय में लिखा है-
वेद वेदांग विज्ञानं बलं चाप्यधिकं तथा।
नृणां हि लोके कोऽन्योऽस्ति विशिष्टः
अर्थात आज के समुदाय में वेद वेदांग के ज्ञान तथा शारीरिक शक्ति एवं सामरिक अस्त्र-शस्त्र की कुशलता में श्री कृष्ण सबसे उत्कृष्ट हैं। कोई भी दूसरा कृष्ण के तुल्य नहीं हैं। भीष्म पितामह के मुख से कहे गए यह शब्द अक्षरतः श्री कृष्ण जी के गुणों को सिद्ध करते हैं।
श्री कृष्ण के विषय में वेदव्यास जी कहते है कि श्री कृष्ण लोभ रहित तथा स्थिर बुद्धि हैं। उन्हें सांसारिक लोगों को विचलित करने वाली कामना, भय, लोभ या स्वार्थ आदि कोई भी विचलित नहीं कर सकता, अतएव श्री कृष्ण कदापि अन्याय का अनुसरण नहीं कर सकते। इस पृथ्वी पर समस्त मनुष्यों में श्री कृष्ण ही धर्म के ज्ञाता, परम धैर्यवान और परम बुद्धिमान हैं।
यो वै कामान्न भयान्न लोभान्नार्थकारणात्।
अन्यायमनुवत्र्तेत स्थिरबुद्धिरलोलुपः ।
धर्मज्ञो धृतिमान् प्राज्ञः सर्वभूतेषु केशवः ।।
(महाभारत उद्योग. अ. 83)
श्रीमद्भागवत में उनकी द्वारका-लीला के संबंध में उनके छिपे हुए व्यक्तिगत स्वरूप का एक उदाहरण है । कभी-कभी भगवान कृष्ण स्त्री की तरह वस्त्र पहनकर खेलने लगते थे। इस रूप को देखकर उद्धव ने कहा, "यह कितना अद्भुत है कि यह स्त्री ठीक उसी तरह मेरे आनंदमय प्रेम को आकर्षित कर रही है, जैसे भगवान कृष्ण करते हैं। मुझे लगता है कि यह स्त्री के वस्त्र से ढकी हुई कृष्ण ही होंगी!"
15 वीं शताब्दी में वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक चैतन्य महाप्रभु के शिष्य श्रीरूप गोस्वामी द्वारा रचित श्रीहरि भक्ति रसामृत सिन्धु में भगवान् श्रीकृष्ण के समस्त चौंसठ गुणों का बड़ा ही मधुर वर्णन किया गया है -
अयं नेता सुरम्याङ्गः सर्वसल्लक्षणान्वितः ॥
रुचिरस्तेजसायुक्तो बलीयान् वयसाऽन्वितः ।
विविधाद्भुतभाषावित् सत्यवाक्यः प्रियंवदेः ॥
वावटूकः सुपाण्डित्यो बुद्धिमान् प्रतिभान्वितः ।
विदग्धश्चतुरो दक्षः कुनैज्ञः सुदृढ़वतः ॥
देशकोलसुपात्रज्ञः शास्त्रचक्षुः शुचिवंशी ।
स्थिरी दान्तः क्षमोशीलो गंभीरो धृतिमान् सम:॥
बदोन्यो धार्मिकः शूरः करुणो मान्यमानकृत् ।
दक्षिणो विनयी ह्नीमान् शरणागतपालकः ॥
सुखी भक्त सुहृत् प्रेमवैश्यः सर्वशुभेङ्करः।
प्रतापी कीर्तिमान् रक्तलोकः साधुसमाश्रयः ॥
नारीगणमनोहारी सर्वाराध्यः समृद्धिमान् ।
वरीयर्यानीश्वरेश्चेति गुणास्तस्याऽनुकीर्तिताः ॥
सदास्वरूपसम्प्राप्तः सर्वज्ञो नित्यनूतनः ।
सच्चिदानन्दसान्द्राङ्गः सर्वसिद्धिनिषेवितः ॥
अविचिन्त्यमहाशक्तिः कोटिब्रह्याण्डविग्रहः ॥
अवतारावलीबीजं हतारिगतिदायकः।
आत्मारामगणाकर्षीत्यमी कृष्णे किलाद्भुताः ॥
सर्वाद्भुतचमत्कारलीलाकल्लोलवारिधिः ।
अतुल्यमधुरप्रेमैमण्डितप्रियमण्डलः ॥
त्रिजगन्मानसाकर्षी मुरलीकलकूजितैः ।
असमानोध्वंरूपश्रीविस्मापितचराचरः ॥
ग्रन्थकार ने लिखा है कि उपर्युक्त चौंसठ गुणों में से पहले पचास गुण अंशरूप से मनुष्यों में भी रह सकते हैं, यद्यपि पूर्ण रूप से उनका विकास पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण में ही हुआ था।
समुद्रा इव पञ्चाशद् दुर्विगाहा हरेरमी।
जीवेष्वेते वसन्तोऽपि विन्दुविन्दुतया कृचित् ॥
परिपूर्णतया भान्ति तत्रैव पुरुषोत्तमे।
पद्मपुराण में शिवजी ने पार्वतीजी से इन्हीं गुणों का वर्णन किया है और श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध में पृथिवी ने धर्म को भगवान् के ये ही गुण बतलाये है।
इनके अतिरिक्त ५१ से लेकर ५५ तक के गुण श्री शिव आदि देवताओं में भी अंश रूप से पाये जाते हैं और ५६ से ६० तक के गुण भगवान् श्रीलक्ष्मीश्वर आदि में भी होते हैं। शेष चार गुण तो असाधारण रूप से केवल भगवान् श्रीकृष्ण में ही थे। इनमें से सारे गुणों का विकास भगवान् में कहाँ-कहाँ हुआ है निम्न प्रकार से संक्षेप में समझा जा सकता है —
(१) सुरम्याङ्ग: - अर्थात् भगवान् के अवयवों की रचना बड़ी सुन्दर थी।
(२) सर्वसत्लक्षणान्वितः - अर्थात् भगवान् समस्त शुभ लक्षणों से युक्त थे।
(३) रुचिरः - अर्थात् भगवान् अपने शरीर की कान्ति से दर्शकों के नेत्रों को आनन्द देने वाले थे।
(४) तेजसायुक्तः - अर्थात् भगवान् का विग्रह प्रकाश-पुञ्ज से परिवेष्टित था।
(५) बलीयान् - अर्थात् भगवान् महती प्राणशक्ति से समन्वित थे।
(६) वयसाऽन्वितः - अर्थात् भगवान् सर्वदा किशोरावस्थापन्न ही रहते थे।
(७) विविधाद्भुतभाषावित् - अर्थात् भगवान् अनेक अद्भुत भाषाओंका ज्ञान रखते थे।
(८) सत्यवाक्यः - अर्थात् भगवान् कभी झूठ नहीं बोलते थे।
(९) प्रियंवदः - अर्थात् भगवान् अपराधी से भी मधुर वचन बोलते थे।
(१०) वावदूकः - अर्थात् भगवान् वक्तृत्व कला में बड़े निपुण थे।
(११) सुपाण्डित्यः - अर्थात् भगवान् चौदहों विद्याओं के निधान एवं नीति-विचक्षण थे।
(१२) बुद्धिमान् - अर्थात् भगवान् मेधावी (अद्भुत धारणा-शक्ति-सम्पन्न) और सूक्ष्म बुद्धियुक्त थे।
(१३) प्रतिभान्वितः अर्थात् भगवान् प्रतिभा (चमत्कारपूर्ण बुद्धि) अथवा मौलिकता से युक्त थे।
(१४) विदग्धः - अर्थात् भगवान् चौंसठ कलाओं में प्रवीण थे।
(१५) चतुरः- अर्थात् भगवान् एक ही काल में अनेकों का समाधान कर देते थे।
(१६) दक्षः - अर्थात् भगवान् दुष्कर कार्यों को भी थोड़े ही समय में सम्पन्न कर दिया करते थे।
(१७) कृतज्ञः - अर्थात् भगवान् की हुई सेवा इत्यादि को कभी नहीं भूलते थे।
(१८) सुदृढव्रतः - अर्थात् भगवान् सत्यसन्ध एवं अपने व्रत के पक्के थे।
(१९) देशकालसुपात्रज्ञः - अर्थात् भगवान् देश, काल एवं पात्र का सदा विचार रखते थे।
(२०) शास्त्रचक्षुः - अर्थात् भगवान् का आचरण शास्त्रविहित होता था।
(२१) शुचिः अर्थात् भगवान् स्वयं निर्दोष तथा दूसरोंके पापोंका नाश करनेवाले थे।
(२२) वशी- अर्थात् भगवान् जितेन्द्रिय थे।
(२३) स्थिरः अर्थात् भगवान् जिस काम को हाथमें लेते थे, उसे पूरा करके छोड़ते थे और जबतक वह पूरा न हो जाता, विश्राम नहीं लेते थे।
(२४) दान्तः - अर्थात् भगवान् योग्यता प्राप्त होने पर असहा कष्ट को भी सहन करने में पीछे नहीं हटते थे।
(२५) क्षमाशीलः - अर्थात् भगवान् अपराधियों के अपराध को सह लिया करते थे।
(२६) गम्भीरः अर्थात् भगवान् इतने गम्भीर थे कि उनकी आकृति अथवा व्यवहारसे उनके हृदयगत भावको कोई नहीं जान सकता था।
(२७) धृतिमान् अर्थात् भगवान् पूर्णकाम थे और क्षोभ का कारण उपस्थित होने पर भी चलायमान न होकर सर्वदा प्रशान्तचित्त बने रहते थे।
(२८) समः - अर्थात् भगवान् का किसी के प्रति रागद्वेष नहीं था, शत्रु और मित्र में उनकी समबुद्धि थी।
(२९) वदान्यः - अर्थात् भगवान् बड़े दानवीर थे।
(३०) धार्मिकः - अर्थात् भगवान् स्वयं धर्मानुकूल आचरण करते थे और दूसरों से भी वैसा ही आचरण करवाते थे।
(३१) शूरः - अर्थात् भगवान् युद्धमें बड़ी शूरवीरता दिखलाते थे और अस्त्र-शस्त्रों के चलाने में बड़े कुशल थे।
(३२) करुणः - अर्थात् भगवान् बड़े पर दुःखकातर दयालु थे।
(३३) मान्यमानकृत् - अर्थात् भगवान् गुरु, ब्राह्मण और अपने बड़ों का बड़ा आदर करते थे ।
(३४) दक्षिणः - अर्थात् भगवान् बड़े सुशील एवं सौम्य आचरण वाले थे।
(३५) विनयी अर्थात् भगवान् बड़े नम्र तथा औद्धत्यशून्य थे।
(३६) ह्रीमान् - अर्थात् भगवान् को अपने मुँह पर अपनी प्रशंसा सुनकर बड़ा संकोच होता था।
(३७) शरणागतपालकः - अर्थात् भगवान् शरण में आये हुए की सदा रक्षा करते थे ।
(३८) सुखी - अर्थात् भगवान् कभी लेशमात्र दुःखका अनुभव नहीं करते थे और उन्हें सब प्रकारके भोग प्राप्त थे।
(३९) भक्तसुहत् - अर्थात् भगवान् भक्तों के अकारण प्रेमी थे और थोड़ी सेवा से ही सन्तुष्ट हो जाते थे।
(४०) प्रेमवश्यः- अर्थात् भगवान् केवल प्रेम से प्रेमी के वश में हो जाते थे।
(४१) सर्वशुभंकरः - अर्थात् भगवान् सर्व हितकारी थे।
(४२) प्रतापी - अर्थात् भगवान् की शूरता, पराक्रम तथा दुर्जेयता को सुनकर शत्रु कम्पायमान होते थे।
(४३) कीर्तिमान् - अर्थात् भगवान् के उत्तम सद्गुणों से उनका निर्मल यश दसों दिशाओं में फैल गया था।
(४४) रक्तलोकः- अर्थात् भगवान्के प्रति सबका स्वाभाविक अनुराग था।
(४५) साधुसमाश्रयः - अर्थात् भगवान् सदा सत्पुरुषों का पक्षपात करते थे और उनकी सहायता करते थे।
(४६) नारीगणमनोहारी - अर्थात् सुन्दरियाँ उनके अलौकिक रूप लावण्य को देखकर उन पर मुग्ध हो जाया करती थीं।
(४७) सर्वांराध्यः - अर्थात् भगवान् का सब लोग मान एवं पूजा करते थे।
(४८) समृद्धिमान् - अर्थात् भगवान् सब प्रकार की समृद्धियों से सम्पन्न थे।
(४९) वरीयान् - अर्थात् भगवान् सुर-मुनि सबसे श्रेष्ठ थे और इनके द्वार पर ब्रह्मादि देवताओं तथा महर्षियों की भीड़ लगी रहती थी।
(५०) ईश्वरः - अर्थात् भगवान् को इच्छामें कोई बाधा नहीं डाल सकता था और न उनकी आज्ञा को ही टाल सकता था।
(५१) सदास्वरूपसम्प्राप्तः - अर्थात् भगवान् मायाके वश में नहीं थे। सदा अपने स्वरूप में स्थित थे।
(५२) सर्वज्ञः - अर्थात् भगवान् घट-घट की बात जानते थे और उनका ज्ञान देश, काल से अबाधित था, कोई वस्तु ऐसी नहीं थी, जिसका उन्हें ज्ञान न हो।
(५३) नित्यनूतनः - अर्थात् यद्यपि उनके प्रेमीजन उनके माधुर्य-रस का सदा आस्वादन करते थे फिर भी उन्हें उसमें नित्य नया स्वाद मिलता था।
(५४) सच्चिदानन्दसान्द्रांगः - अर्थात् उनका विग्रह सच्चिदानन्दमय ही था, साधारण मनुष्यों की भाँति पञ्च भूतों का बना हुआ नहीं था।
(५५) सर्वसिद्धिनिषेवितः - अर्थात् सारी सिद्धियाँ उनके वश में थीं।
(५६) अविचिन्त्यमहाशक्तिः - अर्थात् भगवान् अचिन्त्य महाशक्तियों से युक्त थे। वे अपने संकल्प मात्र से ही स्वर्गादि दिव्य लोकों की रचना कर सकते थे, ब्रह्मा एवं शिव आदि देवताओं को भी मोहित कर सकते थे और भक्तों के प्रारब्ध का भी नाश कर सकते थे।
(५७) कोटिब्रह्याण्डविग्रहः- अर्थात् उनका विग्रह असंख्य ब्रह्माण्ड-व्यापी था।
(५८) अवतारावलीबीजम् - अर्थात् सारे अवतारों को धारण करने वाले अवतारी वे ही थे।
(५९) हतारिगतिदायकः - अर्थात् जो शत्रु उनके हाथ से मारे जाते थे, वे मोक्ष को प्राप्त होते थे।
(६०) आत्मारामगणाकर्षी - अर्थात् उनकी ओर आत्माराम-पुरुषोंका भी मन हठात् आकृष्ट हो जाता था।
(६१) सर्वाद्भुतचमत्कारलीलाकल्लोलवारिधिः - अर्थात् उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक अद्भुत एवं चमत्कारपूर्ण लीलाएँ कीं।
(६२) अतुल्यमधुरप्रेममण्डितप्रियमण्डलः - अर्थात् भगवान्के प्रेमीजन उनके असाधारण माधुर्ययुक्त प्रेम से सर्वदा परिपूर्ण रहते थे।
(६३) त्रिजगन्मानसाकर्षी मुरलीकलकूजितैः - अर्थात् उनको मुरली के मधुर स्वर से तीनों लोकों के निवासियोंका मन आकर्षित हो जाता था।
(६४) असमानोर्ध्वरूपश्रीविस्मापितचराचरः - अर्थात् भगवान् के असाधारण रूप लावण्य को देखकर चराचर जगत् विस्मयाविष्ट हो जाता था।
🙏🏼 कृष्णम् वन्दे जगद्गुरू 🙏🏼
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