मांसं मत्स्यं नु सर्वेषा लवणाद्रकमीरितम् ।
अर्थात् जहाँ पर भी शास्त्रों में मांस खाने या देवताओं को चढ़ाने का विधान आया है, वहाँ पर नमक और अदरक को मिला कर चढ़ाना ही मांस का भोग लगाना है। 'कुलार्णव तन्त्र' में भी मांस के स्थान पर नमक और अदरक का ही विधान बताया है-
मा शब्दाद् रसना ज्ञेया संदशान् रसनाप्रियान्। एतद यो भक्षये देवि सएंवा धक ।।
अर्थात् मांस का तात्पर्य रसना प्रिय इन्द्रियाँ हैं। इसका तात्पर्य उन पर नियंत्रण प्राप्त करना है। अर्थात् रसना प्रिय इन्द्रियों का परित्याग कर जो संयमित जीवन व्यतीत करता है, वही वास्तव में मांस साधक योगी है। पापी रूपी पशु को ज्ञान रूपी खड्ग से मार कर जो योगी मन को चित्त में लीन कर लेता है, वही सही अर्थों में मांसाहारी है।
कुलार्णव तन्त्र' में मद्य की सही व्याख्या की गई है। वहाँ पर नारियल के पानी को मद्य कहा गया है।
ब्रह्मस्थानसरोजपात्रलसिता ब्रह्माण्डतृप्तिप्रदा या शुभ्रांशुकलासुधाविगलिता सापान योग्यासुरा ।।
सा हाला पिबतामनर्थफलदा श्रीदिव्यभावाश्रिताः।
वापीत्वा मुनयः परार्थकुशला निर्वाण मुक्तिगताः ।।
अर्थात् सिर के मध्य में जो सहस्रार पद्मदल कमल हैं, उसमें अमृत रूपी चन्द्रमा की कला के समान मधुर अमृतमय शराब या हाला भरी हुई है। इसको पीने से अर्थात् सहस्रार को जाग्रत करने से साधक की सारी इच्छाएं फलदायक हो जाती हैं, वह दिव्य हो जाता है और मृत्युभय से मुक्त होकर पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
तन्त्र शास्त्र में मत्स्य का विधान कई स्थानों पर आया है, भ्रष्ट तांत्रिकों ने इसका तात्पर्य मछली भक्षण कहा है। जबकि सम्पूर्ण तन्त्र साहित्य में ऐसा विधान नहीं है। योगिनी तन्त्र' में कहा है कि मत्स्य का तात्पर्य मूली और बैंगन को प्रसाद के रूप में चढ़ाना या भक्षण करना ही मत्स्य भक्षण है। इसी योगिनी तन्त्र में आगे कहा है नमक का सेवन करना ही मत्स्य सेवन है।
अहंकारो दम्भो मदपिशुनतामत्सरद्विषः ।
षडेतान् मीनान वै विषयहरजालेनविवृतान् ।।
पचन् सिव्दिवानो नियमितकृतिर्थीवरकृतिः ।
सदा खादेत् सर्वांन्न च जलचराणां कुपिशितम् ।।
अर्थात् अहंकार, दम्भ, मद, पिशुनता, मत्सर, द्वेष-ये छः मछलियाँ हैं। साधक बुद्धिमत्तापूर्वक वैराग्य के जाल में इनको पकड़े और सद्विद्या रूपी अग्नि पर पका कर खावे तो निश्चित रूप से मुक्ति होती है।
कलार्णव तन्त्र में कहा गया है। पंच मुद्राओं का ज्ञान गुरु मुख से ही समझना चाहिए। मुद्रा का तात्पर्य है कच्चा चावल या धान। उपासना और साधना में अपने आन्तरिक भावों को व्यक्त करने के लिए बाह्य शरीर से जो भाव भंगिमाएं दिखाते हैं, उन्हीं ही 'मुद्रा' कहते हैं, वे मुद्राएं आन्तरिक भावों की अभिव्यक्ति है, इसके माध्यम से ही साधक अपने इष्ट देवता से बात-चीत करता है।
मैथुन का तात्पर्य देवताओं को सुन्दर पुष्पों का समर्पण है। सामान्य भाषा में स्त्री और पुरुष के मिलन को मैथुन कहा गया है, पर तन्त्र की परिभाषा में इसका तत्पर्य हाड़-मांस वाले स्त्री-पुरुष नहीं हैं। यहां स्त्री से तात्पर्य कुण्डलिनी शक्ति है, जो मूलाधार में सोयी हुई रहती है और जो शक्ति स्वरूपा है। सहस्रार में शिव का स्थान है, इस शिव और शक्ति का मिलन ही वास्तविक मिलन अथवा मैथुन कहा गया है।
0 comments:
Post a Comment