प्रसिद्ध संत स्वामी महेशानन्दजी भारत की दिव्य विभूति हैं। उनसे इस जीवन में कई बार मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वे उच्च कोटि के साधक एवं योगी हैं। एक बार जब 'राम रक्षा स्तोत्र' की बात चल पड़ी तो उन्होंने अपने अनुभव बताते हुए कहा कि 'रामरक्षा स्तोत्र' इस युग का सर्वश्रेष्ठ स्तोत्र है। मैंने अपने जीवन में इस स्तोत्र का विभिन्न अवसरों पर विभिन्न स्थितियों में प्रयोग किया है और वे सभी प्रयोग शत-प्रतिशत सही रहे हैं। बिच्छु काटने से लेकर भयंकर विष का सेवन कर लेने की परिस्थितियों तक में इस स्तोत्र के पाठ से लाभ पहुंचा है। घोर आर्थिक सकट से ग्रस्त व्यक्ति इसका पाठ करके कुछ ही समय में ऋण से उबर जाते हैं। नौकरी छूटना, बुखार आना, जी मिचलाना, मुसीबत, व्यर्थ की परेशानी तथा संकटकालीन परिस्थितियों में मात्र एक दो पाठ से ही व्यक्ति परेशानी से मुक्त हो जाता है और उसे उसी समय नई राह सूझने लग जाती है।
मंत्र में शब्दों का गुंफन ही अपने आप में महत्वपूर्ण है। स्तोत्र का प्रभाव या किसी मंत्र का प्रभाव इसलिये होता है कि उसके शब्दों का संयोजन अपने आप में विलक्षण होता है। उन्होंने बताया कि ध्वनि के माध्यम से कई असंभव कार्यों को संभव किया जा सकता है। युद्ध में बम के धमाके से आदमी बहरा हो जाता है, मकान की खिड़कियाँ टूट जाती है, तथा कई मकान नीचे गिर जाते हैं। अमेरिका में ध्वनि के प्रयोग से बड़े-बड़े तालाब खोद लिये जाते हैं तथा केवल मात्र, ध्वनि से बड़े-बड़े बांध तथा पहाड़ को इधर-उधर खिसकाया जाता है। कई बार युद्ध में केवल बम की ध्वनि के आघात से व्यक्तियों को लकवा हो जाता है, उनके मुँह टेढ़े हो जाते हैं, नाड़ी-संस्थान कार्य करना बन्द कर देता है, गर्भवती स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं, तथा हृदय रोग से पीड़ित व्यक्तियों का देहान्त हो जाता है। तेज आवाज से वायु मण्डल में तीव्र कम्पन्न पैदा होते हैं और जब वे कम्पन हमारे मस्तिष्क को स्पर्श करते हैं तो उसके दुष्प्रभाव से व्यक्ति पागल हो जाता है।
मंत्रों के प्रभाव के मूल में यही ध्वनि-विज्ञान कार्य करता है। मंत्रों के प्रत्येक अक्षरों का आपस में संबंध रहता है और उन अक्षरों के संयोग से एक विशेष ध्वनि का प्रादुर्भाव होता है और यही ध्वनि वायुमण्डल में फैलकर इच्छित कार्य करने में सफल होती है।
"राम रक्षा स्तोत्र" के प्रभाव के मूल में भी यही ध्वनि कार्य करती है। इस स्तोत्र में शब्दों का संयोजन अपने आप में विलक्षण एवं अप्रतिम है, जिसकी वजह से एक विशेष ध्वनि का निर्माण होता है और उस ध्वनि के कम्पन, बीमार के अचेतन मन में जाकर उसे साहस एवं दृढ़ता प्रदान करते हैं। इस आत्म बल से ही रोग दूर होते हैं तथा उसे आरोग्य, बल एवं शान्ति मिलती है। जो व्यक्ति जितनी ही पुष्टता तथा विश्वास से इस स्तोत्र का पाठ करता है उसे उतनी ही जल्दी सफलता प्राप्त होती है। यह अपने आप में एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, और यह प्रक्रिया लाखों लोगों ने लाखों बार आजमाई है तथा उन्हें अपने कार्यों में सफलता मिली है।
कई पुस्तकों तथा पत्र पत्रिकाओं में राम रक्षा स्तोत्र के फल के बारे में समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। सैकड़ों लोगों ने मुझे राम रक्षा स्तोत्र की सफलता के बारे में बताया है।
राम रक्षा स्तोत्रम्
विनियोगः- अस्य श्रीराम रक्षा स्तोत्रमन्त्रस्य बुधकौशिक ऋषिः श्रीसीतारामचन्द्रो देवता अनुष्टुप् छन्दः सीता शक्तिः श्रीमान् हनुमान् कीलकं श्रीरामचन्द्रप्रीत्यर्थे रामरक्षास्तोत्रजपे विनियोगः ।
चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥१॥
ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् । जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम् ॥२॥
सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तंचरान्तकम् ।
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ॥३॥
रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम् ।
शिरो मे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः ॥४॥
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियः श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः ॥५॥
जिह्वां विद्यानिधिः पातु कण्ठं भरतवन्दितः ।
स्कन्धौ दिव्यायुधः पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः ॥६॥
करौ सीतापतिः पातु हृदयं जामदग्र्यजित् ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयः ॥७॥
सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः ।
ऊरू रघूत्तमः पातु रक्षः कुलविनाशकृत ॥८॥
जानुनी सेतुकृत्पातु जंघे दशमुखान्तकः ।
पादौ विभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलं वपुः ॥९॥
एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ॥१०॥
पाताल भूतलव्योमचारिणश्छद्मचारिणः ।
न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः ॥११॥
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रामेति रामभद्रेति रामचन्द्रेति वा स्मरन्।
नरो न लिप्यते पापैर्मुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
जगज्जैत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम् ।
यः कण्ठेधारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिद्धयः ॥१३॥
वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्।
अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमंगलम् ॥१४॥
आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः ।
तथा लिखितवान्प्रातः प्रबुद्धो बुधकौशिकः ॥१५॥
आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम् । अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान्सः नः प्रभुः ॥१६॥
तरुणौ रूपसम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥
फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ।
पुत्रौ दशरथस्यतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥
शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्।
रक्षः कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ ॥१९॥
आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषंगसंगिनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ॥२०॥
संनद्धः कवची खंगी चापबाणधरो युवा।
गच्छन्मनोरथान्नश्च रामः पातु सलक्ष्मणः ॥२१॥
रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली।
काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो रघूत्तमः ॥२२॥
वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः ।
जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः ॥२३॥
इत्येतानि जपन्नित्यं मुद्भक्तः श्रद्धयान्वितः।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं सम्प्राप्नोति न संशय ॥ २४॥
रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्नते संसारिणो नराः ॥२५॥
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापति सुन्दरं ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् ।
राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथतनयं श्यामलं शान्तमूर्ति ।
वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् ॥२६॥
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥२७॥
श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम,श्रीराम राम भरताग्रज राम राम।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥
श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥
माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालुर्नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम् ॥३१॥
लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥
कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥३४॥
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥३५॥
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसम्पदाम् ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ॥३६॥
रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहं।
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राममामुद्धर ॥ ३७॥
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥
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