गजेन्द्र मोक्ष स्तुति सभी स्तुतियों से अधिक श्रेष्ठ एवं प्रभावकारी मानी गई है। महामना मालवीय इस के परम भक्त थे। एक बार उन्होंने बताया था कि जब-जब भी मेरे जीवन पर समस्याएँ आई हैं, हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के समय आर्थिक संकट से मैं परेशान हुआ हूं तब-तब गजेन्द्र मोक्ष का मैंने पाठ किया है और मैंने विपत्तियों से छुटकारा पाया है।
एक बार मालवीय जी का पुत्र अत्यन्त बीमार पड़ा । उसने तार द्वारा मालवीय जी को सूचना दी। उन दिनों मालवीय जी किसी ऐसे कार्य में उलझे हुए थे कि चाह कर भी उधर नहीं जा सकते थे। उन्होंने पुनः अपने पुत्र को एक लम्बा पत्र लिखते हुए कहा कि तुम्हें अपने स्वास्थ्य के बारे में चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैंने तुम्हें गजेन्द्र मोक्ष के समान अद्भुत औषधि दी है, तुम उस औषधि का सेवन क्यों नहीं करते ?
पुत्र ने गजेन्द्र मोक्ष का पाठ किया और कुछ ही दिनों में वह उस भयानक रोग से बच गया ।
एक बार जब मालवीय जी वाराणसी में थे तो एक महात्मा उनसे मिलने के लिये उनके घर आये और पूछा कि आप गृहस्थ होते हुए भी परम तपस्वी कैसे हैं ? आपके पास वह कौन सा मंत्र है जिससे कि आप इस गृहस्थी रूपी कीचड़ में भी कमलवत् खिले रहते हैं।
मालवीय जी ने उत्तर दिया आज मैं पहली बार आपको इस रहस्य की बात बताता हूं। मेरी माता ने मुझे इस अद्भुत मंत्र की शिक्षा दी थी और कहा था कि जब भी तुझ पर संकट आए या किसी प्रकार की परेशानी महसूस हो तब तुम इसी मंत्र- राज का उपयोग करना। यह मंत्र अपने आप में अद्भुत है। मेरा जीवन बाधाओं और समस्याओं का घर हैं, शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता होगा जिस दिन मेरे सामने नई समस्या न आती हो मगर जब भी समस्या मेरे सामने आती है तो मैं एक क्षण के लिये भी हिचकिचाता नहीं हूं। मैं जानता हूं कि मेरे पास मेरी पूज्य माताजी द्वारा दिया हुआ एक ऐसा अमोघ मंत्र है जो इस विपत्ति को चुटकी बजाते ही दूर कर देगा। मेरे जीवन में जब-जब भी विपत्ति या कोई समस्या आई है, तभी मैंने इस मंत्र का स्मरण किया है और आज तक भी इस मंत्र का प्रताप व्यर्थ नहीं गया।
महात्मा जी बोले- मालवीय जी मैं वह अद्भुत मंत्र आपसे सीखना चाहूंगा। मुझे विश्वास है कि आप मेरी इस प्रार्थना को ठुकराएंगे नहीं।
मालवीय जी ने अन्दर से गजेन्द्र मोक्ष की पुस्तक लाकर उन्हें दी और कहा-यही वह अद्भुत एवं अमोघ मंत्र है, जिसकी वजह से मै आज तक अपने प्रत्येक कार्य में सफल होता आया हूं, यद्यपि अपने जीवन में अन्य कई स्तोत्रों का पाठ किया है, उनका प्रभाव देखा है, परन्तु गजेन्द्र मोक्ष में एक विशेषता है, कि इसका प्रभाव तुरन्त होता है और अपने आप से अद्भुत एवं पूर्ण होता है। मेरी मां ने मुझे जो अमोघ मंत्र दिया था, वही मैंने आपके सामने रखा है, और आप भी श्रद्धा से यदि इसका पाठ करेंगे तो निश्चय ही आप अपने प्रत्येक कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकेंगे ।
दो प्रकार के गजेन्द्र मोक्ष पाठ उपलब्ध हैं। एक पाठ वामन पुराण के अन्तर्गत गजेन्द्र मोक्ष अध्याय से लिया गया है। दूसरा पाठ श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध के द्वितीय अध्याय से लिया हुआ है। यद्यपि दोनों ही पाठ अपने आप में पूर्णतः अनुकूल हैं, पर महामना मालवीय श्रीमद्भागवत् के पाठ को ही फलप्रद समझते थे ।
मेरी भी ऐसी धारणा है कि श्रीमद्भागवन्तान्तर्गत गजेन्द्र मोक्ष पाठ ज्यादा अनुकूल तथा सिद्धिप्रद है।
मुझे इस स्तोत्र के प्रभाव से संबंधित कई आख्यान सुनने को मिले हैं, और कई व्यक्तियों से इसकी सिद्धि के बारे में भी जानने का अवसर प्राप्त हुआ है। जयपुर में एक बार इस स्तोत्र की परीक्षा करने का अवसर आया। मेरे परिचित बन्धु श्री हरिराम जी के पुत्र आई. ए. एस. की परीक्षा दे रहे थे । जिस दिन सुबह उनका पेपर था उससे एक दिन पहले ही उन्हें तेज बुखार चढ़ आया। बुखार के साथ-साथ तेज सिर दर्द तथा खांसी भी थी । ऐसी स्थिति में परीक्षा देना संभव ही नहीं था, और यदि परीक्षा दी भी जाती तो उसके लिये भली प्रकार तैयारी नहीं हो सकती थी।
श्री हरीराम जी ने मेरे सामने इस समस्या को रखा। उन्होंने बताया कि डाक्टरों का इन्जेक्शन देने से बुखार तो टूट जायगा पर इससे कमजोरी इतनी अधिक बढ़ जायगी कि यह शान्त चित्त से परीक्षा नहीं दे पाएगा। मैंने उन्हें बताया कि इस समय और कोई उपाय नहीं है, यदि वह लड़का शान्त चित्त से मात्र गजेन्द्र मोक्ष के ११ पाठ कर ले तो मुझे विश्वास है कि वह परीक्षा में अवश्य ही सफलता प्राप्त कर सकेगा। मै हरीराम जी के साथ उनके घर गया और उनके पुत्र को सारी बात बताई तथा गजेन्द्र मोक्ष के पाठ की विधि भी समझाई।
उसने मेरी बात तुरन्त स्वीकार कर ली। वह उसी समय हाथ पैर धोकर पूजा-कक्ष में आसन पर बैठ गया, तथा गजेन्द्र मोक्ष का पाठ करने लग गया ।
शाम को लगभग सात-आठ बजे उसने ऐसा अनुभव किया जैसे वह पूर्णतः स्वस्थ है तथा बुखार व खांसी का नाम तक नहीं है। रात भर उसने परीक्षा की तैयारी की और दूसरे दिन प्रसन्न चित्त से आई. ए. एस. की परीक्षा दी। इस परीक्षा में वह पूर्णतः सफल भी रहा।
वस्तुतः गजेन्द्र मोक्ष अपने आप में एक अद्भुत स्तुति है। मैंने अपने स्वयं के जीवन में सैकड़ों बार इसका प्रयोग किया है और जब-जब इसका प्रयोग किया है मुझे आशातीत सफलता प्राप्त हुई । विशेषकर नौकरी के संबंध में, ऋण से संबंधित मामलों में, तथा अन्य किसी भी तरह की परेशानियों में यदि इसका प्रयोग किया जाता है, तो कुछ पाठ करने के बाद ही आशाजनक सफलता मिलती दिखाई देती है। कुछ समय के बाद तो पूरी तरह से समस्या से मुक्ति मिल जाती है। मेरी स्वयं की नित्य की पूजा में यह पाठ सम्मिलित है।
मुझे विश्वास है कि यदि व्यक्ति कोई अन्य पाठ या स्तुति न करे तब भी उसे चाहिए कि नित्य उठकर एक बार अवश्य गजेन्द्र मोक्ष का पाठ कर ले। ऐसा करने से उसके जीवन में किसी भी प्रकार की समस्या रह ही नहीं सकती। वस्तुतः कलियुग में इसे एक आश्चर्यजनक स्तुति कह सकते हैं।
गजेन्द्र मोक्ष
एवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥१॥
ॐ नमो भगवते तस्मै, यत एतच्चिदात्मकम् । पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥२॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम् ।
योऽस्मात्परस्माच्च परस्तै प्रपद्ये स्वयम्भुवम् ॥३॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व चतत्तिरोहितम् ।
अविद्धद्दक् साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ॥४॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्रशो लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु । तमस्तदाऽऽसीद् गहनं गभीरं यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः
॥ ५॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम् । यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
दिदृक्षवी यस्य पदं सुमंगलं विमुक्तसंगा मुनयः सुसाधवः । चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लो काप्ययसम्भवाय यः स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥८॥
तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नमः आश्चर्यकर्मणे ॥९॥
नमः आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्येण विपश्चिता ।
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाण सुखसंविदे ॥११॥
नमः शान्ताय घोराय मढ़ाय गुणधर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलाय मूल प्रकृतये नमः ॥१३॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्टे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥१४॥
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय ।
सर्वागमाम्नाय महार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय ॥१५॥
गुणारणिच्छन्नचिदूष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागमस्वयम्प्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीतप्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेष सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंग क्विर्जिताय ।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नमः ईश्वराय ॥ १८ ॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम् ॥१९॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थं वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः ॥२०॥
तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम् ।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फलव्या च कलया कृताः ॥२२॥
यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः ।
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो बुद्धिर्मनः खा नि शरीरसर्गाः ॥२३॥
सवै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ् न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन् निषेध शेषो जयतादशेषः ॥२४॥
जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतये भयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम् ॥२५॥
सोऽहं विश्वसृजंविश्वमविश्व विश्ववेदसम् ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम् ॥२६॥
योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ॥२७॥
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवत्र्मने ॥२८॥
नायंवेद स्वमात्मनं यच्छक्त्या हंधिया हतम् ।
तं दुरत्यय महात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम् ॥२९॥
एवं गजेन्द्रमुपवर्णित निर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात् तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ॥३०॥
तं तद्वदार्त्तमुपलश्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्ती दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम् ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान्नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते ॥३२॥
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
प्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्रियाणाम् ॥३३॥
--श्रीमद्भागवत
0 comments:
Post a Comment