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पूजा, साधना, उपासना ।।

तीन शब्द प्रचलित हैं- पूजा, साधना, उपासना।

            'पूजा' का तात्पर्य जो हमारे पूज्य हैं, जो माननीय हैं, जो वन्दनीयं हैं उनको सम्मान देने की क्रिया पूजा है, और हम किसी भी तरीके से उनका वन्दन, उनकी अभ्यर्थना कर सकते हैं। उनको बुला कर, उनको बिठा कर, उनको स्नान करा कर, स्वच्छ-सुन्दर वस्त्र पहिना कर, कुंकुम, चन्दन, अक्षत लगा कर, पुष्पों का हार पहना कर, अगरबत्ती, दीपक लगा कर जो कुछ अभ्यर्थना करते हैं, वह पूजा है।

           हम यह स्पष्ट करते हैं कि जिनकी हम आराधना, जिनका हम चिन्तन, जिनका हम विचार कर रहे हैं वे पूज्य हैं, हमसे श्रेष्ठ हैं, उनको सम्मान देना हमारा कर्त्तव्य और धर्म है। इस प्रकार के सम्मान देने की क्रिया को पूंजा कहा जाता है। पूजा में कोई भावना या भाव नहीं होता, यह तो 'मन की एक अभिव्यक्ति होती है।

          पूजा में किसी प्रकार की याचना और इच्छा भी नहीं होती। पूजा इसलिए नहीं की जाती कि कुछ प्राप्त हो, कुछ प्राप्त करने के लिए पूजा का विधान है ही नहीं। पूजा तो अपने पिता की भी की जा सकती है, मांँ की भी की जा सकती है, आने वाले मेहमान की भी की जा सकती है, ब्राह्मण या योग्य व्यक्ति की भी की जा सकती है, पितर या देवताओं की भी की जा सकती है। जिनके प्रति भी हमारा पूज्य भाव है, जिनको भी हम आदर या सम्मान देते हैं, उनको सम्मान देने, अभिव्यक्ति देने का नाम पूजा है।

          और जहां सम्मान दिया जाता है, वहां प्राप्त करने की तो कोई इच्छा होती ही नहीं। इसलिए तो पूजा करते ही नहीं कि हमें कुछ प्राप्त हो, वह तो मन का एक भाव है, मन का एक चिन्तन है, मन की एक धारणा है जो उनके प्रति अभिव्यक्त होती है, जो पूज्य हैं, जिनको हम सम्मान या आदर देते हैं। पूजा के लिए कोई सर्वमान्य नियम नहीं है, जिस तरीके से भी, जिस प्रकार से भी हम उन्हें सम्मान दे सकें, वही पूजा है।

           गोपियां कृष्ण से ठिठोली करके उनकी पूजा ही तो करती थीं। राधा आंसुओं का अर्घ्य अर्पित करके कृष्ण की पूजा ही तो करती थी। भीष्म पितामह उनको नमन करके उनकी पूजा ही तो करते थे। देवताओं को हम अक्षत, धूप, नैवेद्य चढ़ाकर पूजा ही तो करते हैं। पूजा का कोई एक प्रकार नहीं है, कोई एक नियम नहीं है, कोई एक तरीका नहीं है, जिससे भी आप अपने मन की अभिव्यक्ति को स्पष्ट कर सकें, वही पूजा है। जिससे भी सामने वाला प्रसन्नता पूर्वक आपकी अभ्यर्थना को स्वीकार कर सके, वही पूजा है। यह तो आपसी लेन-देन है, आपसी विचार-भावना है, आपसी हित चिन्तन है कि आप किस प्रकार से उसको दे रहे हैं और वह किस प्रकार से आपको स्वीकार कर रहा है? यह जरूरी नहीं है कि पूजा में कुंकुम हो ही, अक्षत हो ही, नैवेद्य हो ही, अगरबत्ती या दीपक हो ही, वह तो मन के पुष्पों से भी पूजा की जा सकती है, हास्य और ठिठोली करके भी पूजा की जा सकती है, लिपट करके, प्रेम करके, अपने आप को समर्पित करके भी पूजा की जा सकती है। यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि आप से उसका किस प्रकार का नाता है? किस प्रकार का सम्बन्ध है? किस प्रकार से आप उनको सम्मान देने में समर्थ हैं? किस प्रकार से वह आपका सम्मान प्राप्त करने में समर्थ है... और आपस में जो चिन्तन बनता है, जो आधार बनता है, वही पूजा है।
                         (फिर दूर कहीं पायल खनकी)

         'साधना' एक बिलकुल अलग प्रकार है। साधना का तात्पर्य है कि सन्नद्ध हो जाना, तैयार हो जाना, स्पष्ट हो जाना। साधना का तात्पर्य है कि मैं प्राप्त करने के लिए सभी प्रकार से सक्षम हूं, तैयार हूं, मैं प्राप्त करना चाहता हूं, और जो यह भाव मन में ले लेता है, वह साधना पथ पर पहला पग रखता है। जिसको भी प्राप्त करने की इच्छा या आकांक्षा रखते हैं, उसके प्रति तीव्र वेग से बढ़ने की क्रिया को साधना कहा जाता है, उसका लक्ष्य केवल यही होता है कि उसे प्राप्त करके ही रहूं, वह चाहे महालक्ष्मी हो, वह चाहे महाकाली हो, वह चाहे तारा हो, छिन्नमस्ता हो, शंकर हो, ब्रह्मा हो, विष्णु हो, रुद्र हो, कोई देवी हो, कोई देवता हो, कोई पितर हो, कोई मनुष्य हो। जिसको भी आप प्राप्त करने के लिए पूर्णता के साथ प्रयत्नशील हैं, उसे साधना कहा जाता है।

            और साधना विचारों से नहीं होती, साधना तो तन और मन से जीवन के साथ तीव्र वेग से आगे बढ़ने की क्रिया है। तीर की गति से मन आगे बढ़ता है, अपने लक्ष्य पर पहुंचने के लिए झपटता है, किसी भी प्रकार से उसको प्राप्त करने की आकांक्षा रखता है। मन की इस गति को चेतना देने का काम शरीर करता है, शरीर अपने-आप में कमजोर है... भाव नहीं हैं, उद्वेग नहीं है, आकांक्षा नहीं है, तो मन उतनी द्रुत गति से आगे नहीं बढ़ सकेगा।

              मन को तो आधार चाहिए आगे बढ़ने के लिए, तीर तभी तो अपने लक्ष्य पर पहुंचेगा जब धनुष होगा, जब धनुष ही नहीं है तो तीर चल भी नहीं सकता । यदि लक्ष्य पर तीर को पहुंचना ही है तो फिर धनुष की प्रत्यंचा तनी हुई, कसी हुई होनी चाहिए। यदि मन को पूर्णता के साथ आगे बढ़ाना है लक्ष्य की ओर तीर की गति से, तो शरीर संतुलित, निश्चिंत और स्पष्ट होना ही चाहिए। इस प्रकार शरीर को साधने की क्रिया का नाम साधना है। इस प्रकार मन को साधने की क्रिया का नाम साधना है। इस जीवन को पूर्णता के साथ अपने नियंत्रण में लेने की क्रिया का नाम साधना है।

           साधना के प्रकार क्या हैं? तरीका क्या है? मंत्र जप क्या है? देवता क्या है? अनुष्ठान क्या है? यह सब तो आगे की बात है। पहली और प्रधान बात तो यह है कि हम पूर्णरूप से साधक हों, और पूर्णरूप से साधक होने के लिए जरूरी है कि यह शरीर अपने-आप में सधा हुआ हो। "शरीरं साधयति सः साधकः" जो 'शरीर पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है वह साधक है। जो मन पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है वह साधक है। शरीर पर नियंत्रण प्राप्त करने का तात्पर्य, आसन पर स्थिर चित्त से बैठना है, स्थिरता से बैठना है। एक घंटा, दो घंटा, चार घंटा, छः घंटा, आठ घंटा, बिना हिले-डुले, निश्चिंत, निर्भीक, निष्कंप और साधना की जो विधि हो, जो तरीका हो उसका पालन करने के लिए शरीर सक्षम हो, जितना मंत्र-जप करने का विधान हो, उतना मंत्र-जंप करे ही, उससे पहले शरीर शिथिल न हो, थकावट से न भर जाए, आलस्य से न भर जाए, प्रमाद से न भर जाए, जब ऐसी स्थिति आती है तो शरीर सधता है, और जब शरीर सधता है तो उसके साथ ही साथ मन को भी साधना चाहिए, क्योंकि शरीर को तो हठ पूर्वक नियंत्रण में कर सकते हैं, कष्ट या पीड़ा को भी भोग सकते हैं, इसके लिए मन पर नियंत्रण पाना तो बहुत जरूरी है।

            मन को साधना तो बहुत ही कठिन है, और जो मन को साध लेता है, मन को डांवाडोल नहीं होने देता, मन को विचलित नहीं होने देता, एक ही बिंदु पर केन्द्रित कर लेता है, मन को भटकने नहीं देता, उसे साधक कहते हैं। जब तन और मन दोनों का सामंजस्य हो जाता है तो तन वही कार्य करता है जो मन कहता है। जब दोनों का परस्पर सामंजस्थ बन जाता है, जब दोनों का परस्पर सम्बन्ध बन जाता है, और जब इस सामंजस्यता का, इस संतुलन का आधार मनुष्य बनता है, जब उसके हाथ में यह नियंत्रण आता है, तो उसे "साधक" कहते हैं। साधक बनने के बाद वह जो भी क्रिया करता है और जिस तरीके से भी क्रिया करता है, जिस प्रकार से भी वह प्रयोग या अनुष्ठान करता है, उसको साधना कहते हैं।

                         (फिर दूर कहीं पायल खनकी)

       साधना से पूर्वे यह आवश्यक है कि साधक, स्थिर चित्त हो, दृढ़ चित्त हो, मन एक बिन्दु पर केन्द्रित हो, जो भयभीत न हो, जो अपने-आप में दृढ़ प्रतिज्ञ हो, जिसका मन पर पूर्ण नियंत्रण हो, जिसका अपने शरीर पर अधिकार हो, जो शरीर को विचलित नहीं होने देता है, वही साधक है और उसके द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य साधना है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति हड़बड़ाहट में कुछ नहीं करता, ऐसा व्यक्ति तो धीर-गम्भीर, समुद्र की तरह से हो जाता है। उसको पूरा विश्वास होता है कि मैं जो प्राप्त करना चाहता हूं वह प्राप्त करूंगा ही... होगा ही। लक्ष्य मुझसें चूक नहीं सकता, मैं लक्ष्य से पथ भ्रष्ट नहीं हो सकता, जब इतनी दृढ़ता आ जाती है, जब इतना विश्वास उसके मन में आ जाता है, तब वह सही अर्थों में साधक, बन जाता है, फिर उसका प्रत्येक क्रियाकलाप साधना कहलाती है।


       साधना - कुंकुम, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, माला या मंत्र-जप को नहीं कहते, बल्कि प्राप्त करने की आकांक्षा और प्राप्त करने की क्रिया के समन्वित स्वरूप को साधना कहते हैं।

           यदि कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका को प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है तन से, मन से, तो वह साधक है और उसे प्राप्त करना साधना है। यदि कोई विद्यार्थी परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है, और एकाग्रचित्त होकर अध्ययन करता है, तो वह भी साधक है और एकाग्रचित्त होकर अध्ययन करना, साधना कहलाती है।

            इन कार्यों में कुंकुम, अक्षत की जरूरत नहीं पड़ती, न प्रेमिका को प्राप्त करने के लिए अगरबत्ती या धूप लगाने की आवश्यकता हुई, न प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के लिए दीपक या घृत जलाने की जरूरत पड़ी।

            ये सब तो गौण वस्तुएं हैं, केवल उपकरण हैं, मन को स्थिर करने के लिए, मूल आधार तो तन और मन का पारस्परिक सामंजस्य है... और जो इस सामंजस्यता को प्राप्त कर लेता है, वही साधक है। जो दोनों पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है, वही साधक है, और फिर साधक जो भी कार्य करता है, वही साधना है। जिस तरीके से भी, जिस युक्ति से, जिस प्रकार से वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, उसे ही साधना कहा जाता है। इसके अलावा साधना का कोई प्रकार नहीं होता। साधना का कोई मार्ग संकेत नहीं होता। साधना का कोई अन्य चिन्तन नहीं होता।

              साधना में तो एक लक्ष्य होता है, एक केन्द्र बिन्दु होता है। उसकी आंखों के सामने केवल एक भाव होता है कि मुझे यह प्राप्त करना ही है, चाहे इसके लिए मुझे अपने जीवन को भी क्यों न समर्पित करना पड़े या समाप्त करना पड़े। जो ऐसा दृढ़ चित्त होकर, शरीर को साध कर, मन की युक्ति के द्वारा लक्ष्य पर पहुंचने का प्रयत्न करता है, वही साधक है और यही उसकी साधना है। वह चाहे लौकिक जीवन को प्राप्त करने की आकांक्षा रखने वाला हो, चाहे धन प्राप्त करने की आकांक्षा रखने वाला हो, चाहे प्रेम प्राप्त करने की आकांक्षा रखने वाला हो, चाहे देवी-देवताओं को अपने आधीन रखने की इच्छा-आकाक्षा रखने वाला हो। अर्थ एक ही है, भाव एक ही है, पर उसका लक्ष्य स्पष्ट हो, मन में किसी भी प्रकार का विचलन नहीं हो। मन में ऊहापोह नहीं हो, मन में कोई इतर भाव नहीं हो, जो कुछ हो वह स्पष्ट हो और लक्ष्य भी केवल एक ही हो कि मुझे अमुक कार्य ही करना है... और जब ऐसा दृढ़ प्रतिज्ञ और दृढ़ चित्त होकर उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए वह जो कुछ प्रयत्न करता है, उस प्रयत्न को साधना कहा जाता है।

                         (फिर दूर कहीं पायल खनकी)

        'उपासना' साधना से आगे की स्थिति है। एक बहुत सुन्दर शब्द है उपासना, यह बहुत मधुर शब्द है, क्योंकि इसमें पूजा और साधना का बहुत ही सुन्दर समन्वय है। उपासना का अर्थ है- इष्ट के पास बैठना और उसके साथ घुल-मिल जाना, एक हो जाना, एकरस हो जाना, निमग्न हो जाना।

              पूजा में तो पूजा करने वाला और पूज्य दोनों अलग-अलग होते हैं। साधना में भी साधक और जिसको प्राप्त करने की कामना हो, वह लक्ष्य दोनों अलग-अलग होते हैं, पर उपासना में ऐसा नहीं होता। उपासना में दो भेद होते ही नहीं, दो तथ्य होते ही नहीं। इन दोनों का समन्वय ही उपासना है, जहां न साधक होता है और न साधना होती है, वहां तो साधना स्वयं साधक में समाहित हो जाती है, साधक स्वयं साधना में समाहित हो जाता है, एक-दूसरे के प्रति समर्पित हो जाते हैं, एक-दूसरे के प्रति अपने-आप में सम्बन्धित हो जाते हैं।

           जब दोनों के बीच भेद करना ही कठिन हो जाता है, तब वहीं से उपासना प्रारम्भ होती है। इसलिए उपासना को अत्यन्त सुन्दर कहा गया है, मधुर कहा गया है, श्रेष्ठ कहा गया है, क्योंकि उपासना में कोई कारण, कोई भेद नहीं होता, उपासना में कोई दूरी नहीं होती, कोई अंतर नहीं होता। जब साधक खुद चलकर अपने लक्ष्य के पास पहुंच जाता है, अपने लक्ष्य के पास बैठ जाता है, उस लक्ष्य से किसी प्रकार की दूरी नहीं होती, किसी प्रकार का अन्तर नहीं होता, तब उपासना प्रारम्भ होती है। उपासना करने वाला ऐसा अनुभव करता है कि सामने वाला तो मैं ही हूं, वह तो मेरे पास बैठा है, मैं तो उसके इतना पास हूं कि बीच में से हवा भी नहीं गुजर सकती। जब भक्त और भगवान के बीच कुछ भी दूरी नहीं रहती, तब 'उपासना' कहलाती है।

            'मीरा' तन्मय होकर नाचती है और उसके होठों से निकलता है कि- "मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई,जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई" तो यह नृत्य उपासना है, क्योंकि मीरा के और उस कृष्ण के बीच में कोई दूसरा नहीं होता।

           'सूर' अपना इकतारा बजाते हुए कृष्ण को माखन खिला रहा हो, हंसा रहा हो, पुलकित कर रहा हो उसकी आवाज सुन रहा हो तो यह सूर की उपासना है। 
'कबीर' कहते हैं कि-
"लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल, लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल"
         जब कबीर स्वयं पूर्णरूप से लाल होकर राम, उस लाल, उस ब्रह्म में लीन हो जाते हैं, एकरस हो जाते हैं तब यह कबीर की उपासना है। जब बूंद, समुद्र में विसर्जित हो जाती है, तो यह बूंद की उपासना है।

         जब पुष्पों की सुगन्ध हवा में विलीन हो जाती है, वसन्त ऋतु बन जाती है, तो यह सुगन्ध की हवा के प्रति उपासना है। जब एक-दूसरे के प्रति पूर्ण तादात्म्यता स्थापित हो जाती है, तो उसे उपासना कहते हैं।

          इसलिए तो उपासना को अत्यन्त आनन्ददायक शब्द कहा गया है, क्योंकि यह जीवन का सार है, यह साधना और पूजा से बहुत ऊंचे प्रकार की चीज है। जब शिष्य पूरी तरह से गुरु के चरणों में समर्पित हो जाता है, जब उसका सारा ध्यान, उसका सारा चिन्तन, उसके विचार, उसकी भावना गुरुमय हो जाती है, जब उसके मन में एक ही आकांक्षा, एक ही इच्छा होती है कि किस प्रकार से, किस तरीके से गुरु को सुख पहुंचाया जाए? गुरु को सुविधा दी जाए? इसके लिए वह जो भी प्रयत्न करता है, वह 'उपासना' है, क्योंकि ऐसा करके वह गुरु के निकट बैठने की क्रिया करता है और निकट बैठने के क्रिया को ही उपासना कहा गया है।

            दूर खड़े रह कर के प्रार्थना करने से, स्तुति करने से कुछ प्राप्त नहीं हो सकता। अक्षत, धूप, पुष्प, दीप चढ़ाना तो ठीक वैसा ही कार्य है जैसे पहली कक्षा का बालक पेंसिल लेकर स्लेट पर अ-आ, इ-ई लिख रहा हो, यह तो प्रारम्भिक बात है, साधना इससे थोड़ा-सा आगे है, पर उपासना में कोई भेद रहता ही नहीं। उसमें अन्दर और बाहर, उपासक और उपास्य के बीच में कोई अन्तर नहीं रहता है।

            दूर रह कर कोई शिष्य कुछ सीख भी नहीं सकता, कुछ समझ भी नहीं सकता, क्योंकि उसके और गुरु के बीच में एक शून्यता है, एक अन्तर है। इस शून्यता को तो शिष्य ही भर सकता है सेवा के द्वारा, समीप जाकर, उनके बताए हुए कार्यों को सम्पन्न कर, उन को तनाव मुक्त करके, उनको सुविधाएं देकर के, क्योंकि ऐसा करके वह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य करता है।

              गुरु जब तनाव मुक्त होता है, तब वह एक नवीन ज्ञान की सृष्टि करता है, एक नवीन प्रवचन देता है, एक नवीन पुस्तक लिखता है। यह प्रवचन या पुस्तक लेखन या यह नवीन ज्ञान गुरु ने नहीं कियां, यह तो शिष्य ने किया। शिष्य ने ही गुरु को इतनी सुविधा प्रदान की, उसको तनाव मुक्त किया।

        और जब गुरु को तनाव मुक्त किया, तो गुरु के अन्दर जो ज्ञान है वह कागज पर उतरा, वह किसी के चित्त पर अंकित हुआ, सृष्टि में कुछ नया निर्माण हुआ। इस निर्माण की प्रक्रिया को गुरु ने नहीं किया, इस निर्माण की प्रक्रिया को शिष्य ने ही किया है, शिष्य की वजह से ही ऐसा ही हुआ।

           और ऐसा होना, सृष्टि में चेतना का एक और अगला कदम बढ़ाना है, सृष्टि में ज्ञान का विस्तार करना है और इस ज्ञान के विस्तार को, इस प्रयोग को, गुरु को तानाव मुक्त करने के चिन्तन को और उनको सुख-सुविधाएं प्रदान कर, उनसे ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया को उपासना कहा है।

            जो साधक, जो शिष्य इस तथ्य को समझ लेता है वह निश्चय ही गुरुमय हो जाता है। गुरु कोई ऐसी वस्तु नहीं है कि उनके पास बैठकर के, कागज, कलम लेकर सीखा जाए। वह तो एक सृष्टि का नियामक है, जो चलते-फिरते, उठते-बैठते ज्ञान विकीर्ण कर सकता है। यह अलग बात है कि हम उन्हें ज्ञान विकीर्ण करने का अवसर प्रदान करें.. यह शिष्य कर सकता है. जो शिष्य ऐसा कर लेता है, जो शिष्य सेवा को, साधना, पूजा, अर्चना समझ लेता है, वह और एक-दो कदम गुरु के निकट पहुंच जाता है।

          और जब उसका चित्त गुरुमय हो जाता है, तो वह दो कदम और आगे बढ़ जाता है। जब गुरु के दर्द को, शिष्य अपना दर्द अहसास करने लग जाता है, तो शिष्य द्वारा की गई साधना, उपासना बन जाती है और उपासना से ही गुरुमय बना जा सकता है, गुरु के ज्ञान को अपने अन्दर समाहित किया जा सकता है।

           यह अवस्था भक्त और भगवान की है, जब भक्त अपना अस्तित्व. भूल जाता है, जब उसे हर क्षण अपनी आंखों के सामने भगवान ही नाचते-कूदते दिखलाई देते हैं, तो यह उसकी उपासना ही होती है। जब प्रेम में अपने-आपको डूबा देने की प्रक्रिया होती है, जब उसे अपने शरीर का, मन का भान भी नहीं रहता, जब अपने-आप में उन्मनी अवस्था आ जाती है, तब इसको उपासना कहते हैं। उपासना के लिए कोई पूजा, कोई मंत्र-जप, कोई अनुष्ठान, कुंकुम, अक्षत, पुष्पमाला तो आवश्यक नहीं होते, ये सब तो लौकिक और गौण वस्तुएं हैं, यह अपने मन को झूठी संतुष्टि देने का प्रयास है कि हमने हार पहिनाया, हमने कुंकुम लगाई, हमने इत्र छिड़का, हमने पूजा की, यह तो केवल अपने-आप को भुलावा देना है। हमारा मूलभूत तथ्य तो उसके पास जाना है, वह चाहे भगवान हो, वह चाहे प्रेमी हो, वह चाहे गुरु हो।

       आप जिस तरीके से भी उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखते हुए, उनके मन के अनुकूल, अपने को ढाल देने की जो क्रिया करते हैं, उसको उपासना कहते हैं, और ऐसी उपासना से वह सब कुछ प्राप्त हो जाता है, जो उसकी इच्छा-आकांक्षा होती है।

भक्त है, तो वह भगवानमय बन जाता है।

शिष्य होता है, तो वह गुरुमय बन जाता है।

प्रेमिका होती है, तो वह प्रियमय बन जाती है।

फिर कोई भेद नहीं रहता, फिर कोई अन्तर नहीं रहता और इस भेद, इस अन्तर को दूर करने के लिए सर्वोत्तम उपाय है, "ध्यान"। उपासना का प्रारम्भ ध्यान से ही तो होता है, जब हम शांत, स्थिर चित्त से बैठ जाएं और अपने मन में, अपने अन्दर उस लक्ष्य की, उस इष्ट की मूर्ति गढ़ें, निर्मित करें, उसको अपने अन्दर ही देखें, आंख बंद करें तो वह अन्दर ही दिखाई दे -

"अंखियन की करि कोठरी पुतली पलंग बिछाय,
पलकन की चिक डारि के पिय को लिया रिझाय"

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