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भावधारा से लंका सींचने वाली मैथिली सीता ।।

मिथिला की ही नहीं विश्व की नारियों में सीता जी का स्थान सर्वोच्च है। यद्यपि सीता जी परब्रह्मस्वरूपिणी जगज्जननी भगवती ही हैं, तथापि नारी रूप में आने के कारण उन्होंने भी परब्रह्म राम के तरह मानव लीलायें की। वे मिथिला की थीं इसीलिए उन्हें मैथिली कहा जाता है। मिथिला के आध्यात्मिक दर्शन का पूरा प्रभाव इनके जीवन में दिखता है। भारतीय मान्यता में क्षमा बहुत बड़े परमावश्यक मानव गुणों में लिया जाता है। भगवान् राम की अपेक्षा भी सीता में यह क्षमा गुण अत्यधिक है। इसकी सिद्धि लिए हम वाल्मीकीय रामायण के युद्धकाण्ड के ११४वें अध्याय के प्रसंग पर जायेंगे।'

लडकाविजय के बाद रामाज्ञा से सीता को आश्वस्त करने गये हनुमान् ने पहले रावण की अनुकूल न बनने के कारण सीता को विविध मानसिक कष्ट देने वाली सीतारक्षिका राक्षसियों को दण्ड देने की बात कहने पर निम्नलिखित तीन श्लोकरत्नों के द्वारा सीता ने अपने मैथिल अध्यात्मवादी क्षमाप्रधान विचारधारा को स्पष्ट किया है। श्लोक इस प्रकार है-

पापानां वा शुभानां वा वयार्हाणां प्लवङ्गम। 
कार्य करुणमार्येण न कश्विन्नापराध्यति ।। 
न नरः पापमादत्ते परेषां पापकर्मणाम्।
समयो रक्षितव्यस्तु सन्तश्चारित्रभूषणाः ।।
लोकहिंसाविहाराणां क्रूराणां पापकर्मणाम्। 
कुर्वतामपि पापानि नैव कार्यमशोभनम् ।।

( वाल्मीकीय रामायण, काण्ड ६, अध्याय ११४, श्लोक- ४३-४५)

इन श्लोकों का सारांश यह है कि "आत्मतत्त्व को जानने वाले आर्यजन को कभी भी अज्ञानी दूसरे की आज्ञा पर चलने वालों पर क्रोध नहीं करना चाहिये। ठीक से ढूँढा जाये तो कोई भी ऐसा नहीं मिलेगा जो किसी न किसी के प्रति कुछ न कुछ अपराध न किया हो, अतः छोड़ दो इन बेचारियों को। सामर्थ्य के आने पर भी अपराधियों को बचाना ही क्षमा है। सज्जनों को हमेशा क्षमाशील रहना चाहिए। जो कुछ हमने इन लोगों के द्वारा कष्ट भोगे वे तो हमारे ही प्रारब्ध के फल के अलावा और कुछ नहीं थे। हम आर्यों को किसी भी स्थिति में अपनी क्षमाशीलता को गवाँकर क्रूर राक्षसपन के वश में नहीं होना है। ऐसा हो तो हमारी जातीय विशेषता ही क्या रही ? फिर तो हम भी वही दुनिया को कष्ट देकर आनन्द लूटने वाले राक्षस ही तो हुए। यद्यपि पिछली मेरी कष्टमयी स्थिति को इन लोगों ने अनावश्यक ढंग से और गहराया था, मेरे को कहीं भागने या किसी से विशेष बात करने से रोकना मात्र उनका राजकीय कर्त्तव्य था, इससे काफी आगे बढ़कर रावण की सेज बनने के लिए हम जैसी सती महिला को विवध प्रकार से फुसलाना तथा न मानने पर भयावह धमकी देना अवश्य ही इन लोगों का घोर अपराध था। इस प्रकरण को आपने पिछले दिनों अपने आँखों से ही देखा, अतः आज इन लोगों को दण्डित करना चाहते हैं। हे हनुमन् ! यह नीतिशास्त्र के अनुरूप भी है। आप श्रीराम के परम आराधक हैं, आप में अतुल रामभक्ति है। उन अत्यन्त विषम परिस्थिति के दिनों में आपने मेरे साथ रावण के बर्ताव को देखा और हमको परखा, साथ ही हमारे आँखों एवं चेहरे से छलकने वाली राम के प्रति अनन्य प्रीति एवं परतन्त्रता को भी गौर किया। आप तो उसी समय भी इन लोगों को दण्डित करना चाहे, पर कुछ सोचकर सहम गये, अब रावण इस लोक में नहीं है, अतः उचित दण्ड देने का अवसर आप को दिखायी दे रहा है। तीव्र प्रतिकार की भावना उबल रही है। ठीक है एक रामभक्त दूसरे रामभक्त के कष्ट को समझे, पर हम हिमालय की तलहटी की मैथिली हैं, हमारे हिमालय जितनी भी क्रूर हिमपात या वर्षा अनवरत होती रहे वे कभी डिगने वाले नहीं। उनमें कोई अन्तर आने वाला नहीं। इस व्यवहार से वे हमें सहनशीलता व क्षमा का पाठ पढ़ाते रहते हैं। हमें उबलना नहीं, सहम जाना चाहिए। क्षमा ही सबसे बड़ी साधुता है। यही असली आत्मवादियों की पहचान है हमें अपना पहचान कभी गवाँना नहीं है। हनुमन् ! मैं आपकी रामभक्ति एवं मेरे प्रति श्रद्धा खूब समझ रहीं हूँ, पर मेरे कहने से आप इनको क्षमा कर दीजिए।

इस प्रकार मैथिली सीता ने अपने अध्यात्मवादी दर्शन का परिचय देकर अपनी क्षमा- प्रधान विचारधारा से क्रूर राक्षसों की नगरी लंका में निरपराध पर जघन्य अपराध करने वाली राक्षसियों को विना शर्त पूरी क्षमा प्रदान कर अपने मैथिलदार्शनिक चरित्र को स्पष्ट किया है।

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