लक्ष्मी से संबंधित समस्त स्तोत्रों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह स्तोत्र भौतिक कामनाओं की पूर्ति तथा यश सौभाग्य प्राप्त करने का अमोघ साधन है।
पूर्ण तन्मयता से किया गया इसका नियमित पाठ निश्चय ही फलदायक होता है।
इस लेख में इस सूक्त की पाठ-विधि तथा संबंधित अनुष्ठान विधियाँ स्पष्ट की गई हैं। आशा है गृहस्थ साधक इस ज्ञान का लाभ उठायेंगे ।
विश्व में लक्ष्मी से संबंधित जितने भी स्तोत्र हैं, उनमें यह स्तोत्र सर्वश्रेष्ठ एवं विश्व विख्यात है। यह स्तोत्र स्वयं मंत्रमय है अतः सम्पुट देकर भी इस स्तोत्र का पाठ होता है। जो साधक लक्ष्मी को प्रसन्न करना चाहते हैं, जो अपने जीवन में पूर्ण भौतिक सुख प्राप्त करना चाहते हैं, उनके लिये यह स्तोत्र आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य भी है।
यह स्तोत्र स्वयं विश्व विख्यात है। कहते हैं कि इस स्तोत्र के प्रथम तीन पदों में स्वर्ण बनाने की विधि स्पष्ट की गई है वस्तुतः साधक को चाहिए कि वह इस स्तोत्र का पूर्ण तन्मयता के साथ पाठ करे और अपने जीवन में इसको महत्व दे अनुभव यह रहा है कि जो साधक इस स्तोत्र का नित्य एक बार पाठ करता है, उसे जीवन में भौतिक दृष्टि से किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं रहता ।
नीचे मूल श्री सूक्त, उसका विनियोग और ध्यान स्पष्ट किया जा रहा है। साधक को सर्वप्रथम लक्ष्मी का ध्यान करके हाथ में जल लेकर विनियोग करने के बाद मूल श्री सूक्त का पाठ करना चाहिए ।
ध्यान
या सा पद्मासनस्था विपुल कटि तटि पद्म पत्रायताक्षी । गम्भीरा वर्तनाभिः स्तनभरनमितांशुभ्र वस्त्रोत्तरिया । लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्दै मणिगण खचितैः स्रापिता हेमकुम्भै । नित्यं सा पद्हस्ता मम वसतु गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता ॥१॥
हिमगिरि कान्त्या कांचनसन्निभां प्रख्येश्चतुतुर्भिर्गजैर्हस्तौत्क्षिप्त हिरण्मयामृतघटैरा सिच्यमानां श्रियम् । बिभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तं किरीटोज्ज्वलं क्षौमा बद्धनितम्बबिम्बलसितां वन्दे रविन्द स्थिताम् ॥२॥
विनियोग:-
ॐ हिरण्यवर्णामिति पंचदशर्चस्य श्री सूक्तस्य श्री आनन्द कर्दमचिक्लीतेन्दिरा सूता महर्षयः श्रीरग्निर्देवता, आद्यास्तिस्त्रोऽनुष्टुभः । चतुर्थी बृहती पंचमी षष्ठ्यो त्रिष्टुभौ ततौष्टावनुष्टुभः अन्त्या प्रस्तारपक्तिः । हिरण्य वर्णामिति बीजम ताम आवह जातवेद इति शक्तिः । 'कीर्तिमृद्धिं,ददातु में इति कीलकम् । मम श्री महालक्ष्मी प्रसीद सिद्धयर्थे, न्यासे जपे च विनियोगः ।
प्राचीन ग्रन्थों में श्री सूक्त के मूल पाठ के पहले दो श्लोक या दो सूक्त हैं जो कि मूल पाठ का ही भाग है। ये दोनों सूक्त अब तक गोपनीय रहे हैं। साधकों को चाहिए कि इन सूक्तों के पाठ से ही श्री सूक्त का प्रारम्भ करें ।
ये दोनों श्री सूक्त इस प्रकार है -
त्वं श्रीरूपेन्द्रसदने मदनैकमाता ज्योत्स्रासि चन्द्रमसि चन्द्रमनाहरास्ये । सूर्ये प्रभासितजगत्रितथै प्रभासि लक्ष्मीं प्रसीद सततं नमतां शरण्ये ॥
अर्थ हे लक्ष्मी ! आप इन्द्र के घर में रहने वाली श्री उपेन्द्र के घर में लक्ष्मी स्वरूप से स्थिर हैं। हे मदन जननी ! आप चन्द्रमण्डल में चांदनी स्वरूप हैं। हे विधुवदने ! आप सूर्य मण्डल में प्रभास्वरूप और त्रिभुवन में प्रभास्वरूपिणी हैं। हे शरण्ये ।। मैं आपको प्रणाम करता हूं, आप मुझ पर प्रसन्न हों।
त्वं जातवेदसि सदा दहनात्मशक्ति- र्वेधास्त्वया जगदिदं विविधं विदध्यात् ।
विश्वम्भरौऽपि विभृयादखिल भवत्या लक्ष्मी प्रसीद सततं नमतां शरण्ये ॥
अर्थ- हे भगवती। आप अग्नि में जलाने वाली शक्ति स्वरूपिणी हो। आपकी सहायता के बल से ही ब्रह्मा संसार की समस्त बातों को लिखने में समर्थ हैं। स्वयं विष्णु भी आपकी ही सहायता से जगत की रक्षा करते हैं। हे देवी हम आपके चरणों में प्रणाम करते हैं, आप हम पर प्रसन्न हों।
जो भक्ति भावना से श्री सूक्त का पाठ करना चाहते हैं, उन्हें अग्रलिखित सूक्त से ही श्री सूक्त पाठ प्रारम्भ करना चाहिए ।
हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो ममावह ॥१॥
अर्थ हे लक्ष्मी ! हे अग्ने! जिनका वर्ण सोने के समान उज्जवल हैं, जो हरिणी के समान नेत्रों वाली सुन्दर रूप वाली है, जिनके कंठ में सुवर्ण और चांदी के फूलों की माला शोभा पाती है, जो चन्द्रमा के समान प्रकाशवान है, जिनकी माला देह स्वर्णमय हैं, उन्हीं लक्ष्मी देवी का हमारे लिए आह्वान करो । हे जातवेद ! आप ही देवताओं के होता हो, लक्ष्मी देवी को आह्वान करके बुलाने में केवल आप ही सामर्थ्यवान हैं।
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥
अर्थ हे अग्रे ! जिनके प्रसन्न हो जाने से स्वर्ण, भूमि, अश्व, पुत्र, पौत्र, सब कुछ अनायास ही प्राप्त हो जाता है, उन्हीं महालक्ष्मी को आप हमारे लिये आह्वान करें।
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥३॥
अर्थ घोड़े जिसके आगे चलते हैं जिसके मध्य में सम्पूर्ण रथ सुशोभित हैं, जो हाथियों की चिंग्घाड़ से सबको जगाती है, जो एक मात्र लक्ष्मी, धन और ऐश्वर्य की आश्रयस्थली है उन्हीं लक्ष्मी का मैं आह्वान करता हूं, वह आकर हमारी सेवा को स्वीकार करे ।
कांसोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्दा ज्वलन्तीं तृप्तांतर्पयन्तीम् ।
पद्म स्थितां पदमवर्णा तामिहोपह्वये श्रियम् ॥४॥
अर्थ- जिनका शरीर विकसित कमल के समान सुन्दर और सुरम्य हैं, जिनका वर्ण सुवर्ण के समान दैदीप्यवान है, जो क्षीरसागर में से निकलने से सर्वदा आप्लावित हैं, जिनकी कांति सर्वदा उज्ज्वल रहती है, जो हमेशा परितृप्त और प्रसन्न होकर अपने आश्रित भक्तजनों के मनोरथ पूर्ण करती है, जो कमल के आसन पर विराजमान है और कमल के समान ही वर्ण वाली है, मैं उन्हीं श्री लक्ष्मी देवी का आवाहन करता हूं।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मनेमीं शरणमहं प्रपद्येऽ लक्ष्मीम्र्मे नश्य- ता त्वां वृणोमि ॥५॥
अर्थ जो चन्द्रमा के समान प्रभाव युक्त हैं, जिसका शरीर दीप्तिवान है, जो यश से प्रकाशवान हैं, देवलोक में जिसकी हमेशा देवता आराधना करते हैं, जो उदारचित्त वाली है, जो कमल के समान रूप वाली और ईकार स्वरूपिणी हैं, मैं उन्हीं लक्ष्मी देवी की शरण में हूं। हे देवी! मैं आपको प्रणाम करता हुआ प्रार्थना करता हूं कि शीघ्रातिशीघ्र मेरी दरिद्रता दूर करो ।
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः । तस्य फलानि तपसा नुदन्तुमायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥६॥
अर्थ- हे देवी। आपका वर्ण सूर्य के समान उज्ज्वल है। आपकी तपस्या के प्रभाव से ही समस्त वृक्ष, फल, बिल्व वृक्ष, आदि उत्पन्न होते हैं। हे शरण्ये ! उन्हीं बिल्व वृक्षों के पके हुए फल समूह के साथ आप हमारे अन्दर और बाहर की दरिद्रता को दूर करें ।
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भुतः सुराष्ट्र स्मिन्कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥७॥
अर्थ- हे देवी। आपकी कृपा से ही शिव का मित्र कुबेर और कीर्ति देवी मणिरत्नों के साथ मेरे घर में हमेशा-हमेशा के लिए उपस्थित हों। मैंने इस संसार मैं देह धारण किया है अतः आप आकर हमें हमेशा के लिये कीर्ति और समृद्धि प्रदान करें ।
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठाअलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वा निर्णद मे गृहात् ॥८ ॥
अर्थ हे देवी। मैं आपकी कृपा से ही क्षुधा और तृष्णा के मल से परिपूर्ण अलक्ष्मी का विनाश करने में समर्थ हो सकूंगा। हे देवी! आप हमारे घर से दरिद्रता, अभूति और समृद्धि को दूर करो।
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम ।
ईश्वरीं सव्वभूतानां त्वामिहोपह्वये श्रियम् ॥९॥
अर्थ गन्ध ही जिसका लक्षण है अर्थात् जिसकी उपस्थिति से ही सर्वत्र सुगन्ध व्याप्त हो जाती है जिसको कोई भी परास्त करने में समर्थ नहीं है, जो नित्य गौ इत्यादि पशुओं से युक्त है, जो समस्त जीवों की आधार है, मैं उन्हीं लक्ष्मी देवी का आह्वान करता हूं।
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥१०॥
अर्थ- हे देवी, आप प्रसन्न होकर मुझे आशीर्वाद दो। आपकी कृपा से ही मेरा मनोरथ पूर्ण हो सकेगा। आपकी कृपा से ही मेरा संकल्प सिद्ध हो सकेगा। मेरी बुद्धि हमेशा सत्य वचन बोलने में रहे। मुझे पशुओं से प्राप्त अमृत मिलता रहे। मेरे घर में चारों और धन-धान्य की समृद्धि बनी रहे व आपकी कृपा से ही मेरा यश विश्व में व्याप्त हो ।
कर्द्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भ्रम कर्द्दम ।
श्रियं वासय मे कुले मातर- पद्ममालिनीम् ॥११॥
अर्थ- संसार की समस्त प्रजा कर्द्दम से ही उत्पन्न हुई है, इस कारण हे कर्द्दम। आप हमारे स्थान में स्थित हों और अपनी जननी पद्ममालिनी लक्ष्मी देवी को हमारे वंश में स्थापित करें जिससे मेरी आगे की सारी पीढ़ियां सुख-समृद्धि से युक्त बनी रहें।
आपः सृजन्तु सिग्धानि चिक्लित वस में गृहे ।
निजदेवीं मातरं श्रियं वासय में कुले ॥१२॥
अर्थ- हे कर्दम ! जल देवता नित्य चिकनाई पूर्ण द्रव्य उत्पन्न करें। आप हमारे स्थान में स्थित हों और अपनी जननी लक्ष्मी देवी को हमारे कुल में स्थापित करें।
आर्द्रायः करणीं यष्टिपिंगलांपद्ममालिनीम्
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मींजातवेदोम आवह ॥ १३॥
अर्थ- हे अग्रे ! जो क्षीरसागर से उत्पन्न महालक्ष्मी हैं जिनके हाथ में शोभायमान यष्टि है, जो पुष्टियुक्त है, जो पीले वर्णवाली है, जो पद्मचारिणी, पद्ममालिनी, और जिसका निवास स्थान पद्म पर ही है, जो सुवर्ण के समान देदीप्यमान है, उन्हीं लक्ष्मी देवी का हमारे लिये आप आह्वान करें।
आर्द्रायः करणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् ।
सूर्या हिरण्यमयीं लक्ष्मी जातवेदो म आवह ॥१४॥
अर्थ हे अनल ! जो गीले देह वाली, है, जिनके हाथ में सुन्दर शोभायमान यष्टि है, जिनकी देह सोने के समान चमकने वाली है, जिनकी कांति सूर्य के समान दैदीप्यमान है, उन्हीं लक्ष्मी देवी का हमारे निमित्त आह्वान करें।
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्य प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ॥१५॥
अर्थ- हे अग्ने ! जिसकी कृपा से बहुत सा स्वर्ण गौ, अश्व, दास-दासी, पुत्र-पौत्र इत्यादि प्राप्त हो सकते हैं, जिसकी कृपा से संसार में यश, और सम्मान प्राप्त हो सकता है, आप उन्हीं लक्ष्मी देवी का हमारे लिये आह्वान करें ।
फल- यः शुचिप्रः यतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् ।
सूक्तं पन्चदशर्च च श्रीकामः सततं जपेत् ॥१६॥
अर्थ यह लक्ष्मी से संबंधित सूक्त अत्यन्त उच्च कोटि का और महत्वपूर्ण है इसलिये जो पूर्ण भौतिक सुख सम्पत्ति और उन्नति चाहते हैं जो यश, सम्मान और जीवन में अग्रगण्यता चाहते हैं, उन्हें श्रीसूक्त के उपरोक्त पन्द्रह श्लोकों का पाठ नित्य करना चाहिए ।
इस प्रकार श्री सूक्त के पाठ करने वाले साधकों को चाहिए कि वे उपरोक्त सोलह श्लोकों का पाठ नियम पूर्वक करे। इसमें श्री सूक्त से संबंधित पन्द्रह श्लोक हैं और एक श्लोक फल से संबंधित है, इस प्रकार कुल सोलह श्लोक मिलकर पूर्ण श्री सूक्त माना जाता है।
श्री सूक्त से संबंधित कई अनुष्ठान हैं। जानकारी के लिये कुछ अनुष्ठान विधियां स्पष्ट कर रहा हूं।
१- यदि नित्य १०८ पाठ श्री सूक्त के करे, तो चालीस दिनों में अनुष्ठान सम्पन्न होता है और उसकी भौतिक मनोकामना पूर्ण होती है।
२- लक्ष्मी बीज का सम्पुट देकर भी श्री सूक्त पाठ किया जाता है। लक्ष्मी बीज सम्पुट इस प्रकार है -
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्यै नमः ।
सबसे पहले उपरोक्त बीज मन्त्र पढ़कर फिर श्री सूक्त के १६ श्लोक पढ़े और बाद में पुनः इसी बीज मन्त्र को पढ़ने से एक पाठ माना जाना चाहिए, इस प्रकार नित्य १०८ पाठ किये जा सकते हैं।
३- धनदा लक्ष्मी प्रयोग के लिये एक अलग सम्पुट है जिसको श्री सूक्त के प्रारम्भ और अन्त में पढ़ा जाता है। यह धनदा लक्ष्मी सम्पुट इस प्रकार है-
ॐ आं ह्रीं श्रीं क्लीं व ऐं ब्लू रंॐ महालक्ष्म्यै नमो नमः स्वाहा ॥
४- दारिद्र्य विनाशक प्रयोग के लिये प्रत्येक सूक्त के पहले और बाद में दरिद्र विनाशक मन्त्र उच्चारण होता है। मैं एक श्लोक का प्रयोग समझा देता हूं। बाकी सभी श्लोकों में इसी प्रकार मन्त्र का सम्पुट प्रयोग किया जायेगा ।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः
ॐ दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेष जन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
ॐ हिरण्य वरर्णा हरिणीं सुवर्ण रजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो ममावह ॥
दाद्ररिय दुःख भय हारिणी कात्वदन्या ।
सर्वोपकार करणाय सदार्द्रचित्ता ॥
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः ॥१॥
इस प्रकार यह एक श्लोक पूर्ण हुआ । इसी प्रकार सम्पुट सोलह श्लोकों के साथ देने से श्रीसूक्त का एक पाठ पूरा माना जाता है। इस प्रकार भी दिन भर में १०१ पाठ करने का विधान है।
इसके अलावा भी श्री सूक्त से संबंधित कई प्रयोग और अनुष्ठान हैं। साधक किसी योग्य गुरू से ज्ञान प्राप्त कर इससे संबधित प्रयोग सम्पन्न कर सकता है।
पर यह मेरा अनुभव है कि किसी भी प्रकार से श्री सूक्त का पाठ किया जाय वह निश्चय ही फलदायक है और इसका प्रभाव तुरन्त अनुभव होता है।
श्री सूक्त का अनुष्ठान पूर्ण होने के बाद निम्न श्लोक से क्षमा याचना करे-
अपराध सहस्र भाजन पतितं भोम भवार्णबोदरे । अगति शरणागतं देवी कृपया केवलमात्मसात्कुरु ॥
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