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अयोध्याकाण्ड/रामविधुरा अयोध्या ।।

              ॥ श्रीसीतारामाभ्यां नमः॥

                   🪷 गीतावली 🪷

                   🌞 पद - ८५ 🌞
          
हौं तो समुझि रही अपनो सो ।
राम-लषन - सियको सुख मोकहँ भयो, सखी! सपनो सो ॥१॥
जिनके बिरह - बिषाद बँटावन खग-मृग जीव दुखारी ।
मोहि कहा सजनी समुझावति, हौं तिन्हकी महतारी ॥२॥
भरत - दसा सुनि, सुमिरि भूपगति, देखि दीन पुरबासी ।
तुलसी 'राम' कहति हौं सकुचति, वैहै जग उपहाँसी ॥३॥

       भावार्थ - 'सखि ! मैं तो अपनी सी बात समझती हूँ। अरी! मेरे लिये तो राम, लक्ष्मण और सीता का सुख स्वप्न के समान हो गया ।१। जिनकी विरह व्यथा को बँटाने के लिये आज पशु-पक्षी आदि सभी जीव दुखी हो रहे हैं, अरी सजनी! 'उनके विषय में मुझे क्या समझाती है ? मैं तो उनकी माता हूँ ।२। भरत की दशा सुनकर, महाराज की गति स्मरण कर और पुरवासियों को दीन देखकर मैं तो 'राम' कहने में भी सकुचाती हूँ, क्योंकि इससे संसार में मेरी हँसी होगी (कि देखो, इन दूर के सम्बन्धियों की तो ऐसी दुर्दशा है और स्वयं माता होकर यह जीवन धारण कर रही है )' ।३।


            ।।  जय जय सियाराम ।।

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