....वक्ताओं पर बड़ी भारी जिम्मेदारी है। शास्त्रोक्त सदाचार, परोपकारपरायणता तथा समताका अनुष्ठान और प्रचार अधिक मात्रामें करना चाहिए। ध्यान रहे; यदि इस व्याजसे कुछ कीर्तिलिप्सा या वित्तलिप्सा होगी तो यह सब निरर्थक हो जायगा। कारण यह कि चाहे लोकोपकारार्थ कितना ही ऊँचा प्रयत्न करनेवाला हो; पर उसमें यदि धन, मान, कामकी लिप्सा होती है तो लोकमें उसका अनादर हो जाता है। विशेषकर ब्राह्मणका तो तुरन्त अनादर और अपकर्ष होता है; दुरभिसन्धिपूर्वक ब्राह्मणोंको लाञ्छित करनेका पूर्ण प्रयास किये जानेके कारण उनके प्रति लोगोंमें नाममात्र विश्वास रह गया है।
अतः धर्मप्रचारके लिए भेजे हुए द्रव्यकी भी जब उपेक्षा की जायगी तभी संसार तथा अपने कल्याणके लिए प्रयत्न सफल हो सकता है, अन्यथा नहीं। साथ ही विद्वदभिमत शास्त्रीय सिद्धान्तको नागरिक तथा ग्रामीण संस्कृत विद्यालयोंके अध्यापकों और विद्यार्थियोंमें भी प्रचारित करने का सुदृढ़ आयोजन किया जाना अत्यावश्यक है। अनन्तर ग्रामोंके संघटनके कार्यक्रमका तथा वहाँ भी धर्मप्रचारके कार्यका भार तत्तत्क्षेत्रीय मनीषियोंको देना चाहिए।
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