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तो आइए, अब जानते है कि,कितने देवी देवता है ? 33 कोटि या 33 करोड़ ?

चलिए, गणना करें।

• त्रिदेव : ब्रह्मा, विष्णु, महेश

• त्रिदेवी : सरस्वती, लक्ष्मी, काली

इनमे से भी भगवान विष्णु के असीमित रूपों में से कुछ रूप हैं,

• 3 विष्णु पुरुष :
कारणोदक्षायी विष्णु
गर्भोदक्षायी विष्णु
क्षीरोदक्षायी विष्णु

• 24 विष्णुरूप :
वासुदेव, केशव, नारायण, माधव, पुरुषोत्तम, अधोक्षजा, संकर्षण, गोविंदा, विष्णु, मधुसूदन, अच्युत, उपेंद्र, प्रद्युम्न, त्रिविक्रम, नरसिंह, जनार्दन, वामन, श्रीधर, अनिरुद्ध, हृषिकेश, पद्मनाभ, दामोदर, हरि और कृष्ण।

हालांकि ये रूप आध्यात्मिक दुनिया तथा हमारे ब्रह्मांड से बाहर स्थित हैं, इसलिए हम इनकी गणना देवताओं में नहीं करेंगे।

इनके उपरांत,
त्रिदेवियों के असंख्य रूपों में से, कुछ हैं ...

• 12 सरस्वती : 
महाविद्या, महावाणी,भारती, सरस्वती, ब्राह्मी, महाधेनु, वेदगर्भ, ईश्वरी, महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती।

• 8 लक्ष्मी : 
आदि लक्ष्मी, धन लक्ष्मी, धान्य लक्ष्मी, गज लक्ष्मी, संताना लक्ष्मी, वीर लक्ष्मी, विजय लक्ष्मी और विद्या लक्ष्मी।

• 12 गौरी : 
उमा, पार्वती, ललिता, श्रोत्तमा, कृष्णा, हेमवंती, रंभा, सावित्री, श्रीखंड, तोता और त्रिपुरा।

• साथ ही 200+ क्षेत्रीय देवीयां जिनकी आज भी पूरे भारत में ग्रामीण तथा अर्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में पूजा की जाती है।

अभी, आगे बढ़ते है,

आदित्य-विश्व-वसवस् तुषिताभास्वरानिलाः महाराजिक-साध्याश् च रुद्राश् च गणदेवताः ॥10॥ - नामलिङ्गानुशासनम्

33 प्रमुख देवता + 
36 तुशिता + 
10 विश्वदेव + 
12 साध्यदेव + 
64 आभास्वर + 
49 मारुत + 
220 महाराजिक = 424 देवता और देवगणः


• गण : सेना, सेवक, घनिष्ट सहयोगी या विशेष देवता की सेवा करने वाला देवताओं का व्यक्तिगत सेवक समुदाय।

जैसे कि भगवान शिव के गणों को शिवगण कहा जाता है। इन्द्र के गण को इन्द्रगण कहते हैं। इसी प्रकार अधिक रूप से प्रमुख देवताओं में ऐसे गण समुदाय हैं और वे असंख्य हैं।

तथा, जैसे सभी देवों के देव देवाधिदेव महादेव हैं, वैसे ही सभी गणों के नेता गणाधिपति, गणपति गणेश हैं। उनकी पूजा करना अर्थात सभी गणों की पूजा करना।

इनके उपरांत, वेदों में भी 10 आंगिरसदेव एवं 9 प्रकार के देवगण का भी उल्लेख है।

• 33 प्रमुख देवता :
12 आदित्य + 8 वसु + 11 रुद्र + 1 इंद्र + 1 प्रजापति (कुछ शास्त्रों में इंद्र और प्रजापति के स्थान पर 2 अश्विनी कुमार स्थित होते हैं।)

• 12 आदित्य :
1. अंशुमान, 2. आर्यमन, 3. इंद्र, 4. त्वष्टा, 5. धातु, 6. परजंन्य, 7. पूषा, 8. भगा, 9. मित्रा, 10. वरुण, 11. विवस्वान और 12. विष्णु।

• 8 वसु :
1. आप, 2. ध्रुव, 3. सोम, 4. धार, 5. अनिल, 6. अनल, 7. प्रत्यूष और 8. प्रभास।

• 11 रुद्र :
1. शंभू, 2. पिनाकी, 3. गिरीश, 4. स्थानु, 5. भरगा, 6. भाव, 7. सदाशिव, 8. शिव, 9. हर, 10. शर्वाः और 11. कपाली।

ये 11 रुद्र, यक्षों और दस्युजन के भी देवता हैं तथा कल्प बदलने पर रुद्र और उनके नाम भी बदल जाते हैं।

- उदहारणः
ये अन्य कल्प के अन्य शास्त्रों में उल्लिखित अन्य रुद्रों के नाम हैं। 1. मनु, 2. मन्यु, 3. शिव, 4. महत, 5. ऋतुध्वज, 6. महिनस, 7. उमतेरस, 8. काल, 9. वामदेव, 10. भव तथा 11. धृत-ध्वज।

• 2 अश्विनी कुमार :
1. नस्तास्या तथा 2. दस्ता।

जो की आयुर्वेद के आदि आचार्य हैं तथा सूर्य देव के पुत्र हैं।

• 36 तुषित :
36 तुषित देवताओं का वो समूह है जो विभिन्न मन्वंतर में जन्म लेते हैं। उनका एक भिन्न स्वर्ग है तथा उनके नाम पर एक भिन्न ब्रह्मांड भी है।

• 10 विश्वदेव :
1. वासु 2. सत्य 3. क्रतु 4. दक्ष, 5. कला 6. काम 7. धृति 8. कुरु 9. पुरुरवा 10. मद्राव, तथा बाद में 2 और जोड़े गए 11. रोचक या लोचन, 12. ध्वनि धुरी

इनमे से पाँच विश्वदेव एक बार ऋषि विश्वामित्र के श्राप के कारण द्रौपदी के पाँच पुत्र पाँच उपपांडव के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। रात में अश्वत्थामा द्वारा मारे जाने के बाद वे अपने मूल स्वरूप में पुनः आ गए थे।

• 12 साध्यदेव :
1. अनुमन्ता 2. प्राण 3. नर 4. वीर्य 5. यान 6. चिट्टी 7. हय 8. नय 9. हंसा 10. नारायणः 11. प्रभव और 12. विभुः

• 64 अभास्वर :
तमोलोक में ये 3 देवनिकाय हैं।
1. भावेश्वरः
2. महाभास्वर और
3. सत्यमहाभास्वर । अभास्वर देवता का काम भूतों, इन्द्रियों और बुद्धि को नियंत्रण में रखना हैं।

• 12 यमदेव :
यदु, ययाति, देव, ऋतु और प्रजापति आदि को यमदेव कहा जाता हैं।

• 49 मारुतगण :
मारुत देवताओं के सैनिक हैं। वेदों में इन्हें रुद्र और वृष्णि के पुत्र बताया गया है, जबकि पुराणों में इन्हें कश्यप और दिति के पुत्र बताया गया है। कल्पभेद।

• 7 मारुत : और उनके 7-7 मरुदगण तथा उनके आंदोलन क्षेत्र :
1. आवाह, ब्रह्मलोक
2. प्रवाह, इंद्रलोक
3. संवाद, अंतरिक्ष
4. उदवा, पृथ्वी के पूर्व
5. विवाह, भुलोक के पश्चिम में
6. परिवाह, भुलोक के उत्तर में
7. परवाह, पृथ्वी के दक्षिण में

इस प्रकार कुल 49 प्रमुख मरुत हैं। कुल संख्या को कभी-कभी 180 कही जाती है। वे अंतरिक्ष में और फूलों में रहते हैं। वे अपने देवता के लिए देवों के रूप में विचरण करते हैं

• 220 महाराजिक :
एक प्रकार के देवता है जिनकी संख्या 226 या 236 और कहीं पर 4000 भी बताई जाती है। महाराजिकाओं के संदर्भ में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।

• 9 ग्रह देवता :
1. सूर्यदेव
2. सोमदेव (चंद्र देव)
3. मंगल / कुज
4. बुध
5. गुरु / बृहस्पति
6. शुक्र
7. शनिदेव
8. राहु
9. केतु

• मुख्य श्रेणियों के अतिरिक्त अन्य देवता :

गणाधीपति गणेश, कार्तिकेय, धर्मराज, चित्रगुप्त, आर्यमा, हनुमान, भैरव, वन, अग्निदेव, कामदेव, चंद्र, यम, शनि, सोम, रिभुः, द्युः सूर्य, बृहस्पति, वाक, काल, अन्ना, वनस्पति, पर्वत, धेनु, सनकादि गरुड़, अनंत शेष, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, पिंगला, जय, विजय एवं बहुत सारे...

• मुख्य श्रेणियों के अतिरिक्त अन्य देवियाँ :

भैरवी, यामी, पृथ्वी, पूषा, आप, सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु, त्वष्टा, सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शची, दिति, अदिति एवं बहुत सारी...

• स्थानीय देवता :

1. द्यु-स्थानीयः : आकाश और स्वर्ग :
सूर्य (प्रमुख), वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, उषा, अपानपत, सविता, त्रिपा, विवस्ववत, आदित्यगण, अश्विनीकुमार आदि।

2. मध्य-स्थानीय : अंतरिक्ष :
पर्जन्य, वायु (प्रमुख), इंद्र, मारुत, रुद्र, मातरिश्वन, त्रिप्रपत्य, अज एकपाद, आप, अहितबुधन्य आदि।

3 . पृथ्वी-स्थानीय : पृथ्वी पर :
पृथ्वी, उषा, अग्नि (प्रमुख), सोम, बृहस्पति, नदियाँ आदि।

4. पाताल-लोकीय :
शेष नाग और वासुकी आदि।

5. पितृ लोकीय :
समस्त मानवता के नौ दिव्य पित्रो को अग्रिसवत्ता, बरहीशद अजयप, सोमेप, रश्मिपा, उपदूत, अयंतुन, श्राद्धभुक और नंदीमुख के रूप में जाना जाता है। समस्त पित्रुओं के देवता आर्यमा हैं।

6. नक्षत्र के अधिपति :
- चैत्र मास में धात,
- वैशाख में आर्यमा,
- ज्येष्ठ में मित्र,
- आषाढ़ में वरुण,
- श्रावण में इंद्र,
- भाद्रपद में विवस्वान,
- अश्विन में पूष,
- कार्तिक में पर्जन्या,
- मार्गशीर्ष में अंशु,
- पौष में भाग,
- माघ में त्वष्टा और
- फाल्गुन में विष्णु है।

सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हुए इनको याद करना चाहिए।

7. दस दिशाओं के 10 दिग्पाल :
- ऊपर के ब्रह्मा,
- उत्तर के शिव और ईश,
- पूर्व के इंद्र,
- अज्ञेय की अग्नि या वाहरी,
- दक्षिण के यम,
- नैरुत्य की नारुति,
- पश्चिम के वरुण,
- वायव्य के वायु और मारुत,
- उत्तर के कुबेर और
- नीचे के अनंत शेष।

इनके अतिरिक्त,

1. ऋग्वेद के केवल दो सूक्तों (3.9.9 और 10.52.6) में ही 3339 देवताओं का उल्लेख किया गया है।

2. मत्स्य पुराण में कई सौ देवियों की सूची भी है।

3. केवल अप्सराओं की संख्या भी 60 करोड़ को पार करती है, जो की समुद्र मंथन से निकलकर गंधर्व-लोक को चली गई थी।

4. हमने अभी यक्ष, किन्नर, गंधर्व, किमपुरूस आदि असंख्य अर्ध-देवताओं की गणना नहि की है, जो की सभी स्वर्गीय ग्रहों के निवासी हैं और देवताओं की तुलना में कम शक्तिशाली हैं परंतु पृथ्वी वासियों की तुलना में अधिक।

तो क्या मिला आपको हमारे लोकप्रिय प्रश्न का उत्तर,

कितने देवी-देवता है? 33 कोटि? या 33 करोड़?

ना तो 33 कोटि, ना ही 33 करोड़।

उत्तर है कि, वे बदलते रहते हैं। जैसे पृथ्वी पर मनुष्यों की कोई स्थिर संख्या नहीं है, वैसे ही स्वर्ग में देवताओं की भी कोई स्थिर संख्या नहीं है।

मनुष्य की तरह ही वे भी जन्म लेते हैं, उनका जीवन काल भी समाप्त होता है और फिर एक और बार नए देवताओं के साथ ये चक्र फिरसे चलने लगता है।

• क्रेडिट :
सनातन संस्कृति का मूलज्ञान
by प्रतीक प्रजापति

भावधारा से लंका सींचने वाली मैथिली सीता ।।

मिथिला की ही नहीं विश्व की नारियों में सीता जी का स्थान सर्वोच्च है। यद्यपि सीता जी परब्रह्मस्वरूपिणी जगज्जननी भगवती ही हैं, तथापि नारी रूप में आने के कारण उन्होंने भी परब्रह्म राम के तरह मानव लीलायें की। वे मिथिला की थीं इसीलिए उन्हें मैथिली कहा जाता है। मिथिला के आध्यात्मिक दर्शन का पूरा प्रभाव इनके जीवन में दिखता है। भारतीय मान्यता में क्षमा बहुत बड़े परमावश्यक मानव गुणों में लिया जाता है। भगवान् राम की अपेक्षा भी सीता में यह क्षमा गुण अत्यधिक है। इसकी सिद्धि लिए हम वाल्मीकीय रामायण के युद्धकाण्ड के ११४वें अध्याय के प्रसंग पर जायेंगे।'

लडकाविजय के बाद रामाज्ञा से सीता को आश्वस्त करने गये हनुमान् ने पहले रावण की अनुकूल न बनने के कारण सीता को विविध मानसिक कष्ट देने वाली सीतारक्षिका राक्षसियों को दण्ड देने की बात कहने पर निम्नलिखित तीन श्लोकरत्नों के द्वारा सीता ने अपने मैथिल अध्यात्मवादी क्षमाप्रधान विचारधारा को स्पष्ट किया है। श्लोक इस प्रकार है-

पापानां वा शुभानां वा वयार्हाणां प्लवङ्गम। 
कार्य करुणमार्येण न कश्विन्नापराध्यति ।। 
न नरः पापमादत्ते परेषां पापकर्मणाम्।
समयो रक्षितव्यस्तु सन्तश्चारित्रभूषणाः ।।
लोकहिंसाविहाराणां क्रूराणां पापकर्मणाम्। 
कुर्वतामपि पापानि नैव कार्यमशोभनम् ।।

( वाल्मीकीय रामायण, काण्ड ६, अध्याय ११४, श्लोक- ४३-४५)

इन श्लोकों का सारांश यह है कि "आत्मतत्त्व को जानने वाले आर्यजन को कभी भी अज्ञानी दूसरे की आज्ञा पर चलने वालों पर क्रोध नहीं करना चाहिये। ठीक से ढूँढा जाये तो कोई भी ऐसा नहीं मिलेगा जो किसी न किसी के प्रति कुछ न कुछ अपराध न किया हो, अतः छोड़ दो इन बेचारियों को। सामर्थ्य के आने पर भी अपराधियों को बचाना ही क्षमा है। सज्जनों को हमेशा क्षमाशील रहना चाहिए। जो कुछ हमने इन लोगों के द्वारा कष्ट भोगे वे तो हमारे ही प्रारब्ध के फल के अलावा और कुछ नहीं थे। हम आर्यों को किसी भी स्थिति में अपनी क्षमाशीलता को गवाँकर क्रूर राक्षसपन के वश में नहीं होना है। ऐसा हो तो हमारी जातीय विशेषता ही क्या रही ? फिर तो हम भी वही दुनिया को कष्ट देकर आनन्द लूटने वाले राक्षस ही तो हुए। यद्यपि पिछली मेरी कष्टमयी स्थिति को इन लोगों ने अनावश्यक ढंग से और गहराया था, मेरे को कहीं भागने या किसी से विशेष बात करने से रोकना मात्र उनका राजकीय कर्त्तव्य था, इससे काफी आगे बढ़कर रावण की सेज बनने के लिए हम जैसी सती महिला को विवध प्रकार से फुसलाना तथा न मानने पर भयावह धमकी देना अवश्य ही इन लोगों का घोर अपराध था। इस प्रकरण को आपने पिछले दिनों अपने आँखों से ही देखा, अतः आज इन लोगों को दण्डित करना चाहते हैं। हे हनुमन् ! यह नीतिशास्त्र के अनुरूप भी है। आप श्रीराम के परम आराधक हैं, आप में अतुल रामभक्ति है। उन अत्यन्त विषम परिस्थिति के दिनों में आपने मेरे साथ रावण के बर्ताव को देखा और हमको परखा, साथ ही हमारे आँखों एवं चेहरे से छलकने वाली राम के प्रति अनन्य प्रीति एवं परतन्त्रता को भी गौर किया। आप तो उसी समय भी इन लोगों को दण्डित करना चाहे, पर कुछ सोचकर सहम गये, अब रावण इस लोक में नहीं है, अतः उचित दण्ड देने का अवसर आप को दिखायी दे रहा है। तीव्र प्रतिकार की भावना उबल रही है। ठीक है एक रामभक्त दूसरे रामभक्त के कष्ट को समझे, पर हम हिमालय की तलहटी की मैथिली हैं, हमारे हिमालय जितनी भी क्रूर हिमपात या वर्षा अनवरत होती रहे वे कभी डिगने वाले नहीं। उनमें कोई अन्तर आने वाला नहीं। इस व्यवहार से वे हमें सहनशीलता व क्षमा का पाठ पढ़ाते रहते हैं। हमें उबलना नहीं, सहम जाना चाहिए। क्षमा ही सबसे बड़ी साधुता है। यही असली आत्मवादियों की पहचान है हमें अपना पहचान कभी गवाँना नहीं है। हनुमन् ! मैं आपकी रामभक्ति एवं मेरे प्रति श्रद्धा खूब समझ रहीं हूँ, पर मेरे कहने से आप इनको क्षमा कर दीजिए।

इस प्रकार मैथिली सीता ने अपने अध्यात्मवादी दर्शन का परिचय देकर अपनी क्षमा- प्रधान विचारधारा से क्रूर राक्षसों की नगरी लंका में निरपराध पर जघन्य अपराध करने वाली राक्षसियों को विना शर्त पूरी क्षमा प्रदान कर अपने मैथिलदार्शनिक चरित्र को स्पष्ट किया है।

॥ चौंसठ गुणी भगवान् श्री कृष्ण ॥

समस्त लोक ब्रह्मांड का कल्याण करने हेतु सगुण मूर्त्तिशिरोमणि आनन्दकन्द षोडशकलापूर्ण पूर्णावतारी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र रूप का जन्म हुआ जो साक्षात परब्रह्म श्री हरि का अंश रूप है। श्री हरि, जिनकी पूजा सभी ब्रह्मा, शिव और इंद्र करते हैं, सभी ज्ञान के सर्वोच्च स्रोत हैं। निराकार ब्रह्म सुंदर भगवान श्री श्री राधाकांत का शारीरिक तेज है। ब्रह्मांड के निर्माता भगवान विष्णु, जो दुग्ध के पारलौकिक सागर पर लेटे हैं, श्री हरि का केवल एक अंश हैं। श्री हरि स्वयं कोई और नहीं बल्कि हमारे गुणश्रेष्ठ श्री राधावल्लभ भगवान् कृष्ण चंद्र हैं। जिनका समस्त जीवन असीमित गुणों रसों का सागर है। शाब्दिक रूप में भगवान् के भग शब्द में 6 गुण हैं। ऐश्वर्य, जप, बल, श्री, वैराग्य और यश। इनमें ज्ञान और बल प्रधान है। अन्य गुण इन्हीं दो से सम्बंधित है। ज्ञान में ऐश्वर्य और वैराग्य निहित है। बल में श्री और यश आ जाते हैं। ब्रह्म और क्षत्र इन्हीं दोनों का अपर नाम हैं। इन सभी गुणों का कृष्ण में समन्वय था इसलिए हम उन्हें भगवान् कहकर पुकारते हैं ना की ईश्वर शब्द कहा गया है। एक प्रकार से भगवान्‌ के ये सभी गुण अनन्त हैं। उनका कोई थाह नहीं लगा सकता। कहते हैं, शेष और शारदा तथा ब्रह्मा, रुद्र इत्यादि भी उनके गुणों का वर्णन नहीं कर सकते, फिर मनुष्य की तो बात ही क्या है। 

श्रीमद्भागवत में भी लिखा है-

गुणात्मनस्तेऽपि गुणान् विमातुं 
हितावतीर्णस्य क ईशिरेऽस्य। 
कालेन यैर्वा विमिताः सुकल्पै-
र्मूपांशवः खे मिहिकाद्युभासः ॥ 

अर्थात् हे भगवन्! संसार के हितके लिये अवतार धारण करने वाले आपके गुणों की थाह कौन लगा सकता है? क्योंकि आप गुणरूप ही हैं। पृथिवी के रजःकणों को अथवा आकाश के नक्षत्रों को और नीहारके कणों को कोई भले ही गिन सके, परन्तु आपके गुणों की गणना कदापि नहीं हो सकती। फिर भी भक्त जनों ने अपनी-अपनी भावना के अनुसार अपने मनस्तोष के लिये तथा अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये जो गुण जिसकी समझ में आये, उन्हीं का वर्णन किया है

भगवान कृष्ण भिन्न गुण रूपों का एक अथाह भंडार थे, महाभारत में श्री कृष्ण जी के विषय में लिखा है-

वेद वेदांग विज्ञानं बलं चाप्यधिकं तथा। 
नृणां हि लोके कोऽन्योऽस्ति विशिष्टः

अर्थात आज के समुदाय में वेद वेदांग के ज्ञान तथा शारीरिक शक्ति एवं सामरिक अस्त्र-शस्त्र की कुशलता में श्री कृष्ण सबसे उत्कृष्ट हैं। कोई भी दूसरा कृष्ण के तुल्य नहीं हैं। भीष्म पितामह के मुख से कहे गए यह शब्द अक्षरतः श्री कृष्ण जी के गुणों को सिद्ध करते हैं।

श्री कृष्ण के विषय में वेदव्यास जी कहते है कि श्री कृष्ण लोभ रहित तथा स्थिर बुद्धि हैं। उन्हें सांसारिक लोगों को विचलित करने वाली कामना, भय, लोभ या स्वार्थ आदि कोई भी विचलित नहीं कर सकता, अतएव श्री कृष्ण कदापि अन्याय का अनुसरण नहीं कर सकते। इस पृथ्वी पर समस्त मनुष्यों में श्री कृष्ण ही धर्म के ज्ञाता, परम धैर्यवान और परम बुद्धिमान हैं। 

यो वै कामान्न भयान्न लोभान्नार्थकारणात्। 
अन्यायमनुवत्र्तेत स्थिरबुद्धिरलोलुपः ।
धर्मज्ञो धृतिमान् प्राज्ञः सर्वभूतेषु केशवः ।। 
(महाभारत उद्योग. अ. 83)

श्रीमद्भागवत में उनकी द्वारका-लीला के संबंध में उनके छिपे हुए व्यक्तिगत स्वरूप का एक उदाहरण है । कभी-कभी भगवान कृष्ण स्त्री की तरह वस्त्र पहनकर खेलने लगते थे। इस रूप को देखकर उद्धव ने कहा, "यह कितना अद्भुत है कि यह स्त्री ठीक उसी तरह मेरे आनंदमय प्रेम को आकर्षित कर रही है, जैसे भगवान कृष्ण करते हैं। मुझे लगता है कि यह स्त्री के वस्त्र से ढकी हुई कृष्ण ही होंगी!"

15 वीं शताब्दी में वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक चैतन्य महाप्रभु के शिष्य श्रीरूप गोस्वामी द्वारा रचित श्रीहरि भक्ति रसामृत सिन्धु में भगवान् श्रीकृष्ण के समस्त चौंसठ गुणों का बड़ा ही मधुर वर्णन किया गया है -

अयं नेता सुरम्याङ्गः सर्वसल्लक्षणान्वितः ॥ 
रुचिरस्तेजसायुक्तो बलीयान् वयसाऽन्वितः ।
विविधा‌द्भुतभाषावित् सत्यवाक्यः प्रियंवदेः ॥
वावटूकः सुपाण्डित्यो बुद्धिमान् प्रतिभान्वितः । 
विदग्धश्चतुरो दक्षः कुनैज्ञः सुदृढ़वतः ॥
देशकोलसुपात्रज्ञः शास्त्रचक्षुः शुचिवंशी ।
स्थिरी दान्तः क्षमोशीलो गंभीरो धृतिमान् सम:॥
बदोन्यो धार्मिकः शूरः करुणो मान्यमानकृत् । 
दक्षिणो विनयी ह्नीमान् शरणागतपालकः ॥
सुखी भक्त सुहृत् प्रेमवैश्यः सर्वशुभेङ्करः। 
प्रतापी कीर्तिमान् रक्तलोकः साधुसमाश्रयः ॥ 
नारीगणमनोहारी सर्वाराध्यः समृद्धिमान् । 
वरीयर्यानीश्वरेश्चेति गुणास्तस्याऽनुकीर्तिताः ॥ 
सदास्वरूपसम्प्राप्तः सर्वज्ञो नित्यनूतनः । 
सच्चिदानन्दसान्द्राङ्गः सर्वसिद्धिनिषेवितः ॥ 
अविचिन्त्यमहाशक्तिः कोटिब्रह्याण्डविग्रहः ॥ 
अवतारावलीबीजं हतारिगतिदायकः। 
आत्मारामगणाकर्षीत्यमी कृष्णे किलाद्भुताः ॥

सर्वाद्भुतचमत्कारलीलाकल्लोलवारिधिः ।
अतुल्यमधुरप्रेमैमण्डितप्रियमण्डलः ॥ 
त्रिजगन्मानसाकर्षी मुरलीकलकूजितैः ।
असमानोध्वंरूपश्रीविस्मापितचराचरः ॥

ग्रन्थकार ने लिखा है कि उपर्युक्त चौंसठ गुणों में से पहले पचास गुण अंशरूप से मनुष्यों में भी रह सकते हैं, यद्यपि पूर्ण रूप से उनका विकास पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण में ही हुआ था। 

समुद्रा इव पञ्चाशद् दुर्विगाहा हरेरमी। 
जीवेष्वेते वसन्तोऽपि विन्दुविन्दुतया कृचित् ॥
परिपूर्णतया भान्ति तत्रैव पुरुषोत्तमे।

पद्मपुराण में शिवजी ने पार्वतीजी से इन्हीं गुणों का वर्णन किया है और श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध में पृथिवी ने धर्म को भगवान्‌ के ये ही गुण बतलाये है।

इनके अतिरिक्त ५१ से लेकर ५५ तक के गुण श्री शिव आदि देवताओं में भी अंश रूप से पाये जाते हैं और ५६ से ६० तक के गुण भगवान् श्रीलक्ष्मीश्वर आदि में भी होते हैं। शेष चार गुण तो असाधारण रूप से केवल भगवान् श्रीकृष्ण में ही थे। इनमें से सारे गुणों का विकास भगवान् में कहाँ-कहाँ हुआ है निम्न प्रकार से संक्षेप में समझा जा सकता है —

(१) सुरम्याङ्ग: - अर्थात् भगवान्‌ के अवयवों की रचना बड़ी सुन्दर थी।

(२) सर्वसत्लक्षणान्वितः - अर्थात् भगवान् समस्त शुभ लक्षणों से युक्त थे।

(३) रुचिरः - अर्थात् भगवान् अपने शरीर की कान्ति से दर्शकों के नेत्रों को आनन्द देने वाले थे।

(४) तेजसायुक्तः - अर्थात् भगवान्‌ का विग्रह प्रकाश-पुञ्ज से परिवेष्टित था।

(५) बलीयान् - अर्थात् भगवान् महती प्राणशक्ति से समन्वित थे।

(६) वयसाऽन्वितः - अर्थात् भगवान् सर्वदा किशोरावस्थापन्न ही रहते थे।

(७) विविधाद्भुतभाषावित् - अर्थात् भगवान् अनेक अद्भुत भाषाओंका ज्ञान रखते थे। 

(८) सत्यवाक्यः - अर्थात् भगवान् कभी झूठ नहीं बोलते थे।

(९) प्रियंवदः - अर्थात् भगवान् अपराधी से भी मधुर वचन बोलते थे।

(१०) वावदूकः - अर्थात् भगवान् वक्तृत्व कला में बड़े निपुण थे।

(११) सुपाण्डित्यः - अर्थात् भगवान् चौदहों विद्याओं के निधान एवं नीति-विचक्षण थे।

(१२) बुद्धिमान् - अर्थात् भगवान् मेधावी (अद्भुत धारणा-शक्ति-सम्पन्न) और सूक्ष्म बुद्धियुक्त थे।

(१३) प्रतिभान्वितः अर्थात् भगवान् प्रतिभा (चमत्कारपूर्ण बुद्धि) अथवा मौलिकता से युक्त थे।

(१४) विदग्धः - अर्थात् भगवान् चौंसठ कलाओं में प्रवीण थे।

(१५) चतुरः- अर्थात् भगवान् एक ही काल में अनेकों का समाधान कर देते थे।

(१६) दक्षः - अर्थात् भगवान् दुष्कर कार्यों को भी थोड़े ही समय में सम्पन्न कर दिया करते थे।

(१७) कृतज्ञः - अर्थात् भगवान्‌ की हुई सेवा इत्यादि को कभी नहीं भूलते थे।

(१८) सुदृढव्रतः - अर्थात् भगवान् सत्यसन्ध एवं अपने व्रत के पक्के थे।

(१९) देशकालसुपात्रज्ञः - अर्थात् भगवान् देश, काल एवं पात्र का सदा विचार रखते थे।

(२०) शास्त्रचक्षुः - अर्थात् भगवान्‌ का आचरण शास्त्रविहित होता था।

(२१) शुचिः अर्थात् भगवान् स्वयं निर्दोष तथा दूसरोंके पापोंका नाश करनेवाले थे।

(२२) वशी- अर्थात् भगवान् जितेन्द्रिय थे। 

(२३) स्थिरः अर्थात् भगवान् जिस काम को हाथमें लेते थे, उसे पूरा करके छोड़ते थे और जबतक वह पूरा न हो जाता, विश्राम नहीं लेते थे।

(२४) दान्तः - अर्थात् भगवान् योग्यता प्राप्त होने पर असहा कष्ट को भी सहन करने में पीछे नहीं हटते थे।

(२५) क्षमाशीलः - अर्थात् भगवान् अपराधियों के अपराध को सह लिया करते थे।

(२६) गम्भीरः अर्थात् भगवान् इतने गम्भीर थे कि उनकी आकृति अथवा व्यवहारसे उनके हृदयगत भावको कोई नहीं जान सकता था।

(२७) धृतिमान् अर्थात् भगवान् पूर्णकाम थे और क्षोभ का कारण उपस्थित होने पर भी चलायमान न होकर सर्वदा प्रशान्तचित्त बने रहते थे।

(२८) समः - अर्थात् भगवान्‌ का किसी के प्रति रागद्वेष नहीं था, शत्रु और मित्र में उनकी समबुद्धि थी।

(२९) वदान्यः - अर्थात् भगवान् बड़े दानवीर थे।

(३०) धार्मिकः - अर्थात् भगवान् स्वयं धर्मानुकूल आचरण करते थे और दूसरों से भी वैसा ही आचरण करवाते थे।

(३१) शूरः - अर्थात् भगवान् युद्धमें बड़ी शूरवीरता दिखलाते थे और अस्त्र-शस्त्रों के चलाने में बड़े कुशल थे।

(३२) करुणः - अर्थात् भगवान् बड़े पर दुःखकातर दयालु थे।

(३३) मान्यमानकृत् - अर्थात् भगवान् गुरु, ब्राह्मण और अपने बड़ों का बड़ा आदर करते थे ।

(३४) दक्षिणः - अर्थात् भगवान् बड़े सुशील एवं सौम्य आचरण वाले थे।

(३५) विनयी अर्थात् भगवान् बड़े नम्र तथा औद्धत्यशून्य थे।

(३६) ह्रीमान् - अर्थात् भगवान्‌ को अपने मुँह पर अपनी प्रशंसा सुनकर बड़ा संकोच होता था।

(३७) शरणागतपालकः - अर्थात् भगवान् शरण में आये हुए की सदा रक्षा करते थे ।

(३८) सुखी - अर्थात् भगवान् कभी लेशमात्र दुःखका अनुभव नहीं करते थे और उन्हें सब प्रकारके भोग प्राप्त थे।

(३९) भक्तसुहत् - अर्थात् भगवान् भक्तों के अकारण प्रेमी थे और थोड़ी सेवा से ही सन्तुष्ट हो जाते थे।

(४०) प्रेमवश्यः- अर्थात् भगवान् केवल प्रेम से प्रेमी के वश में हो जाते थे।

(४१) सर्वशुभंकरः - अर्थात् भगवान् सर्व हितकारी थे।

(४२) प्रतापी - अर्थात् भगवान्‌ की शूरता, पराक्रम तथा दुर्जेयता को सुनकर शत्रु कम्पायमान होते थे।

(४३) कीर्तिमान् - अर्थात् भगवान्‌ के उत्तम सद्‌गुणों से उनका निर्मल यश दसों दिशाओं में फैल गया था।

(४४) रक्तलोकः- अर्थात् भगवान्‌के प्रति सबका स्वाभाविक अनुराग था।

(४५) साधुसमाश्रयः - अर्थात् भगवान् सदा सत्पुरुषों का पक्षपात करते थे और उनकी सहायता करते थे।

(४६) नारीगणमनोहारी - अर्थात् सुन्दरियाँ उनके अलौकिक रूप लावण्य को देखकर उन पर मुग्ध हो जाया करती थीं।

(४७) सर्वांराध्यः - अर्थात् भगवान्‌ का सब लोग मान एवं पूजा करते थे।

(४८) समृद्धिमान् - अर्थात् भगवान् सब प्रकार की समृद्धियों से सम्पन्न थे।

(४९) वरीयान् - अर्थात् भगवान् सुर-मुनि सबसे श्रेष्ठ थे और इनके द्वार पर ब्रह्मादि देवताओं तथा महर्षियों की भीड़ लगी रहती थी।

(५०) ईश्वरः - अर्थात् भगवान्‌ को इच्छामें कोई बाधा नहीं डाल सकता था और न उनकी आज्ञा को ही टाल सकता था।

(५१) सदास्वरूपसम्प्राप्तः - अर्थात् भगवान् मायाके वश में नहीं थे। सदा अपने स्वरूप में स्थित थे। 

(५२) सर्वज्ञः - अर्थात् भगवान् घट-घट की बात जानते थे और उनका ज्ञान देश, काल से अबाधित था, कोई वस्तु ऐसी नहीं थी, जिसका उन्हें ज्ञान न हो।

(५३) नित्यनूतनः - अर्थात् यद्यपि उनके प्रेमीजन उनके माधुर्य-रस का सदा आस्वादन करते थे फिर भी उन्हें उसमें नित्य नया स्वाद मिलता था।

(५४) सच्चिदानन्दसान्द्रांगः - अर्थात् उनका विग्रह सच्चिदानन्दमय ही था, साधारण मनुष्यों की भाँति पञ्च भूतों का बना हुआ नहीं था।

(५५) सर्वसिद्धिनिषेवितः - अर्थात् सारी सिद्धियाँ उनके वश में थीं।

(५६) अविचिन्त्यमहाशक्तिः - अर्थात् भगवान् अचिन्त्य महाशक्तियों से युक्त थे। वे अपने संकल्प मात्र से ही स्वर्गादि दिव्य लोकों की रचना कर सकते थे, ब्रह्मा एवं शिव आदि देवताओं को भी मोहित कर सकते थे और भक्तों के प्रारब्ध का भी नाश कर सकते थे।

(५७) कोटिब्रह्याण्डविग्रहः- अर्थात् उनका विग्रह असंख्य ब्रह्माण्ड-व्यापी था।

(५८) अवतारावलीबीजम् - अर्थात् सारे अवतारों को धारण करने वाले अवतारी वे ही थे।

(५९) हतारिगतिदायकः - अर्थात् जो शत्रु उनके हाथ से मारे जाते थे, वे मोक्ष को प्राप्त होते थे।

(६०) आत्मारामगणाकर्षी - अर्थात् उनकी ओर आत्माराम-पुरुषोंका भी मन हठात् आकृष्ट हो जाता था। 

(६१) सर्वाद्भुतचमत्कारलीलाकल्लोलवारिधिः - अर्थात् उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक अद्भुत एवं चमत्कारपूर्ण लीलाएँ कीं।

(६२) अतुल्यमधुरप्रेममण्डितप्रियमण्डलः - अर्थात् भगवान्‌के प्रेमीजन उनके असाधारण माधुर्ययुक्त प्रेम से सर्वदा परिपूर्ण रहते थे।

(६३) त्रिजगन्मानसाकर्षी मुरलीकलकूजितैः - अर्थात् उनको मुरली के मधुर स्वर से तीनों लोकों के निवासियोंका मन आकर्षित हो जाता था।

(६४) असमानोर्ध्वरूपश्रीविस्मापितचराचरः - अर्थात् भगवान्‌ के असाधारण रूप लावण्य को देखकर चराचर जगत् विस्मयाविष्ट हो जाता था।


🙏🏼 कृष्णम् वन्दे जगद्गुरू 🙏🏼

तिथियों और नक्षत्रों के देवता तथा उनके पूजन का फल ।।

तिथि विभाजन के समय प्रतिपदा आदि सभी तिथियां अग्नि आदि देवताओं को तथा सप्तमी भगवान सूर्य को प्रदान की गई। जिन्हें जो तिथि दी गई, वह उसका ही स्वामी कहलाया। अत: अपने दिन पर ही अपने मंत्रों से पूजे जाने पर वे देवता अभीष्ट प्रदान करते हैं। 

सूर्य ने अग्नि को प्रतिपदा, 
ब्रह्मा को द्वितीया, 
यक्षराज कुवेर को तृतीया 
और गणेश को चतुर्थी तिथि दी है। 
नागराज को पंचमी, 
कार्तिकेय को षष्ठी, 
अपने लिए सप्तमी और 
रुद्र को अष्टमी तिथि प्रदान की है। 
दुर्गादेवी को नवमी, 
अपने पुत्र यमराज को दशमी, 
विश्वेदेवगणों को एकादशी तिथि दी गई है। विष्णु को द्वादशी, 
कामदेव को त्रयोदशी, 
शंकर को चतुर्दशी तथा 
चंद्रमा को पूर्णिमा की तिथि दी है। 
सूर्य के द्वारा पितरों को पवित्र, पुण्यशालिनी अमावास्या तिथि दी गई है। 

ये कही गई पंद्रह तिथियां चंद्रमा की हैं। कृष्ण पक्ष में देवता इन सभी तिथियों में शनै: शनै: चंद्रकलाओं का पान कर लेते हैं। वे शुक्ल पक्ष में पुन: सोलहवीं कला के साथ उदित होती हैं। वह अकेली षोडशी कला सदैव अक्षय रहती है। उसमें साक्षात सूर्य का निवास रहता है। इस प्रकार तिथियों का क्षय और वृद्धि स्वयं सूर्यनारायण ही करते हैं। अत: वे सबके स्वामी माने जाते हैं। ध्यानमात्र से ही सूर्यदेव अक्षय गति प्रदान करते हैं।दूसरे देवता भी जिस प्रकार उपासकों की अभीष्ट कामना पूर्ण करते हैं, संक्षेप में वह इस प्रकार है:

प्रतिपदा तिथि में अग्निदेव की पूजा करके अमृतरूपी घृत का हवन करे तो उस हवि से समस्त धान्य और अपरिमित धन की प्राप्ति होती है। 

द्वितीया को ब्रह्मा की पूजा करके ब्रह्मचारी ब्राह्मण को भोजन कराने से मनुष्य सभी विद्याओं में पारंगत हो जाता है। 

तृतीया तिथि में धन के स्वामी कुबेर का पूजन करने से मनुष्य निश्चित ही विपुल धनवान बन जाता है तथा क्रय-विक्रयादि व्यापारिक व्यवहार में उसे अत्यधिक लाभ होता है। 

चतुर्थी तिथि में भगवान गणेश का पूजन करना चाहिए। इससे सभी विघ्नों का नाश हो जाता है। 

पंचमी तिथि में नागों की पूजा करने से विष का भय नहीं रहता, स्त्री और पुत्र प्राप्त होते हैं और श्रेष्ठ लक्ष्मी भी प्राप्त होती है। 

षष्ठी तिथि में कार्तिकेय की पूजा करने से मनुष्य श्रेष्ठ मेधावी, रूपसंपन्न, दीर्घायु और कीर्ति को बढ़ानेवाला हो जाता है। 

सप्तमी तिथि को चित्रभानु नामवाले भगवान सूर्यनारायण का पूजन करना चाहिए, ये सबके स्वामी एवं रक्षक हैं। 

अष्टमी तिथि को वृषभ से सुशोभित भगवान सदाशिव की पूजा करनी चाहिए, वे प्रचुर ज्ञान तथा अत्यधिक कांति प्रदान करते हैं। भगवान शंकर मृत्य्हरण करनेवाले, ज्ञान देने वाले और बंधनमुक्त करने वाले हैं। 

नवमी तिथि में दुर्गा की पूजा करके मनुष्य इच्छापूर्वक संसार-सागर को पार कर लेता है तथा संग्राम और लोकव्यवहार में वह सदा विजय प्राप्त करता है। 

दशमी तिथि को यह की पूजा करनी चाहिए, वे निश्चित ही सभी रोगों को नष्ट करने वाले और नरक तथा मृत्यु से मानव का उद्धार करने वाले हैं। 

एकादशी तिथि को विश्वेदेवों की भली प्रकार से पूजा करनी चाहिए। वे भक्त को संतान, धन-धान्य और पृथ्वी प्रदान करते हैं। 

द्वादशी तिथि को भगवान विष्णु की पूजा करके मनुष्य सदा विजयी होकर समस्त लोक में वैसे ही पूज्य हो जाता है, जैसे किरणमालौ भगवान सूर्य पूज्य हैं। 

त्रयोदशी में कामदेव की पूजा करने से मनुष्य उत्तम भार्या प्राप्त करता है तथा उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। 

चतुर्दशी तिथि में भगवान देवदेवेश्वर सदाशिव की पूजा करके मनुष्य समस्त ऐश्वर्यों से समन्वित हो जाता है तथा बहुत से पुत्रों एवं प्रभूत धन से संपन्न हो जाता है। 

पूर्णमा तिथि में जो भक्तिमान मनुष्य चंद्रमा की पूजा करता है, उसका संपूर्ण संसार पर अपना आधिपत्य हो जाता है और वह कभी नष्ट नहीं होता। अपने दिन में अर्थात् अमावास्या में पितृगण पूजित होने पर सदैव प्रसन्न होकर प्रजावृद्धि, धन-रक्षा, आयु तथा बल-शक्ति प्रदान करते हैं। उपवास के बिना भी ये पितृगण उक्त फल को देनेवाले होते हैं। अत: मानव को चाहिए कि पितरों को भक्तिपूर्वक पूजा के द्वारा सदा प्रसन्न रखे। मूलमंत्र, नाम-संकीर्तन और अंश मंत्रों से कमल के मध्य में स्थित तिथियों के स्वामी देवताओं की विविध उपचारों से भक्तिपूर्वक यथाविधि पूजा करनी चाहिए तथा जप-होमादि कार्य संपन्न करने चाहिए। इसके प्रभाव से मानव इस लोक में और परलोक में सदा सुखी रहता है। उन-उन देवों के लोकों को प्राप्त करता है और मनुष्य उस देवता के अनुरूप हो जाता है। उसके सारे अरिष्ट नष्ट हो जाते हैं तथा वह उत्तम रूपवान, धार्मिक, शत्रुओं का नाश करनेवाला राजा होता है।

इसी प्रकार सभी नक्षत्र-देवता जो नक्षत्रों में ही व्यवस्थित हैं, वे पूजित होने पर समस्त अभीष्ट कामनाओं को प्रदान करते हैं।

अश्विनी नक्षत्र में अश्विनीकुमारों की पूजा करने से मनुष्य दीर्घायु एवं व्याधिमुक्त होता है। 

भरणी नक्षरे में कृष्णवर्ण के सुंदर पुष्पों से बनी हुई मान्यादि और होम के द्वारा पूजा करने से अग्निदेव निश्चित ही यथेष्ट फल देते हैं। 

कृतिका नक्षत्र में शिव पुत्र कार्तिकेय की पूजा एवं कृतिका नक्षत्र के सवा लाख वैदिक मंत्रों का जाप किया जाता है।

रोहिणी नक्षत्र में ब्रह्मा की पूजा करने से वह साधका की अभिलाषा पूरी कर देते हैं। 

मृगशिरा नक्षत्र में पूजित होने पर उसके स्वामी चंद्रदेव उसे ज्ञान और आरोग्य प्रदान करते हैं। 

आर्द्रा नक्षत्र में शिव के अर्चन से विजय प्राप्त होती है। सुंदर कमल आदि पुष्पों से पूजे गए भगवान शिव सदा कल्याण करते हैं।

पुनर्वसु नक्षत्र में अदिति की पूजा करनी चाहिए। पूजा से संतृप्त होकर वे माता के सदृश रक्षा करती हैं। 

पुष्य नक्षत्र में उसके स्वामी बृहस्पति अपनी पूजा से प्रसन्न होकर प्रचुत सद्बुद्धि प्रदान करते हैं। 

आश्लेषा नक्षत्र में नागों की पूजा करने से नागदेव निर्भय कर देते हैं, काटते नहीं। 

मघा नक्षत्र में हव्य-कव्य के द्वारा पूजे गए सभी पितृगण धन-धान्य, भृत्य, पुत्र तथा पशु प्रदान करते हैं। 

पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में पूषा की पूजा करने पर विजय प्राप्त हो जाती है और 

उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भग नामक सूर्यदेव की पुष्पादि से पूजा करने पर वे विजय कन्या को अभीप्सित पति और पुरुष को अभीष्ट पत्नी प्रदान करते हैं तथा उन्हें रूप एवं द्रव्य-संपदा से संपन्न बना देते हैं। 

हस्त नक्षत्र में भगवान सूर्य गंध-पुष्पादि से पूजित होने पर सभी प्रकार की धन-संपत्तियां प्रदान करते हैं।

चित्रा नक्षत्र में पूजे गए भगवान त्वष्टा शत्रुरहित राज्य प्रदान करते हैं। 

स्वाती नक्षत्र में वायुदेव पूजित होने पर संतुष्ट जो परम शक्ति प्रदान करते हैं। 

विशाखा नक्षत्र में लाल पुष्पों से इंद्राग्नि का पूजन करके मनुष्य इस लोक में धन-धान्य प्राप्त कर सदा तेजस्वी रहता है।

अनुराधा नक्षत्र में लाल पुष्पों से भगवान मित्रदेव की भक्तिपूर्वक विधिवत पूजा करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है और वह इस लोक में चिरकाल तक जीवित रहता है।

ज्येष्ठा नक्षत्र में देवराज इंद्र की पूजा करने से मनुष्य पुष्टि बल प्राप्त करता है तथा गुणों में, धन में एवं कर्म में सबसे श्रेष्ठ हो जाता है।

मूल नक्षत्र में सभी देवताओं और पितरों की भक्तिपूर्वक पूजा करने से मानव स्वर्ग में अचलरूप से निवास करता है और पूर्वोक्त फलों को प्राप्त करता है। 

पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में अप्-देवता (जल) की पूजा और हवन करके मनुष्य शारीरिक तथा मानसिक संतापों से मुक्त हो जाता है।

उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में विश्वेदेवों और भगवान विश्वेश्वर कि पुष्पादि द्वारा पूजा करने से मनुष्य सभी कुछ प्राप्त कर लेता है।

श्रवण नक्षत्र में श्वेत, पीत और नीलवर्ण के पुष्पों द्वारा भक्तिभाव से भगवान विष्णु की पूजा कर मनुष्य उत्तम लक्ष्मी और विजय को प्राप्त करता है। 

धनिष्ठा नक्षत्र में गन्ध-पुष्पादि से वसुओं के पूजन से मनुष्य बहुत बड़े भय से भी मुक्त हो जाता है। उसे कहीं भी कुछ भी भय नहीं रहता। 

शतभिषा नक्षत्र में इन्द्र की पूजा करने से मनुष्य व्याधियों से मुक्त हो जाता है और आतुर व्यक्ति पुष्टि, स्वास्थ्य और ऐश्वर्य को प्राप्त करता है। 

पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में शुद्ध स्फटिक मणि के समान कांतिमान अजन्मा प्रभु की पूजा करने से उत्तम भक्ति और विजय प्राप्त होती है।

उत्तराभाद्रपद नक्षत्र मेँ अहिर्बुध्न्य की पूजा करने से परम शांति की प्राप्ति होती है। 

रेवती नक्षत्र श्वेत पुष्प से पूजे गए भगवान पूषा सदैव मंगल प्रदान करते हैं और अचल धृति तथा विजय भी देते हैं। 

अपनी सामर्थ्य के अनुसार भक्ति से किए गए पूजन से ये सभी सदा फल देने वाले होते हैं। यात्रा करने की इच्छा हो अथवा किसी कार्य को प्रारंभ करने की इच्छा हो तो नक्षत्र-देवता की पूजा आदि करके ही वह सब कार्य करना उचित है। इस प्रकार करने पर यात्रा में तथा क्रिया में सफलता होती है - ऐसा स्वयं भगवान सूर्य ने कहा है। 


कैसे शुरू हुए कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष ।।

🙏पंचांग के अनुसार हर माह में तीस दिन होते हैं और इन महीनों की गणना सूरज और चंद्रमा की गति के अनुसार की जाती है। चन्द्रमा की कलाओं के ज्यादा या कम होने के अनुसार ही महीने को दो पक्षों में बांटा गया है जिन्हे कृष्ण पक्ष या शुक्ल पक्ष कहा जाता है। पूर्णिमा से अमावस्या तक बीच के दिनों को कृष्णपक्ष कहा जाता है, वहीं इसके उलट अमावस्या से पूर्णिमा तक का समय शुक्लपक्ष कहलाता है। दोनों पक्ष कैसे शुरू हुए उनसे जुड़ी पौराणिक कथाएं भी हैं।

शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष से जुड़ी कथा
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इस तरह हुई कृष्णपक्ष की शुरुआत
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पौराणिक ग्रंथों के अनुसार दक्ष प्रजापति ने अपनी सत्ताईस बेटियों का विवाह चंद्रमा से कर दिया। ये सत्ताईस बेटियां सत्ताईस स्त्री नक्षत्र हैं और अभिजीत नामक एक पुरुष नक्षत्र भी है। लेकिन चंद्र केवल रोहिणी से प्यार करते थे। ऐसे में बाकी स्त्री नक्षत्रों ने अपने पिता से शिकायत की कि चंद्र उनके साथ पति का कर्तव्य नहीं निभाते। दक्ष प्रजापति के डांटने के बाद भी चंद्र ने रोहिणी का साथ नहीं छोड़ा और बाकी पत्नियों की अवहेलना करते गए। तब चंद्र पर क्रोधित होकर दक्ष प्रजापति ने उन्हें क्षय रोग का शाप दिया। क्षय रोग के कारण सोम या चंद्रमा का तेज धीरे-धीरे कम होता गया। कृष्ण पक्ष की शुरुआत यहीं से हुई। 

ऐसे शुरू हुआ शुक्लपक्ष
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कहते हैं कि क्षय रोग से चंद्र का अंत निकट आता गया। वे ब्रह्मा के पास गए और उनसे मदद मांगी। तब ब्रह्मा और इंद्र ने चंद्र से शिवजी की आराधना करने को कहा। शिवजी की आराधना करने के बाद शिवजी ने चंद्र को अपनी जटा में जगह दी। ऐसा करने से चंद्र का तेज फिर से लौटने लगा। इससे शुक्ल पक्ष का निर्माण हुआ। चूंकि दक्ष ‘प्रजापति’ थे। चंद्र उनके शाप से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सकते थे। शाप में केवल बदलाव आ सकता था। इसलिए चंद्र को बारी-बारी से कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में जाना पड़ता है। दक्ष ने कृष्ण पक्ष का निर्माण किया और शिवजी ने शुक्ल पक्ष का।

कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के बीच अंतर
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जब हम संस्कृत शब्दों शुक्ल और कृष्ण का अर्थ समझते हैं, तो हम स्पष्ट रूप से दो पक्षों के बीच अंतर कर सकते हैं। शुक्ल उज्ज्वल व्यक्त करते हैं, जबकि कृष्ण का अर्थ है अंधेरा।

जैसा कि हमने पहले ही देखा, शुक्ल पक्ष अमावस्या से पूर्णिमा तक है, और कृष्ण पक्ष, शुक्ल पक्ष के विपरीत, पूर्णिमा से अमावस्या तक शुरू होता है।

कौन सा पक्ष शुभ है?
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धार्मिक मान्यता के अनुसार, लोग शुक्ल पक्ष को आशाजनक और कृष्ण पक्ष को प्रतिकूल मानते हैं। यह विचार चंद्रमा की जीवन शक्ति और रोशनी के संबंध में है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष की दशमी से लेकर कृष्ण पक्ष की पंचम तिथि तक की अवधि ज्योतिषीय दृष्टि से शुभ मानी जाती है। इस समय के दौरान चंद्रमा की ऊर्जा अधिकतम या लगभग अधिकतम होती है - जिसे ज्योतिष में शुभ और अशुभ समय तय करने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।

🔆 रक्षाबंधन विशेष 🔆

꧁ वैदिक रक्षा-सूत्र बंधन ꧂

रक्षाबन्धन एक हिन्दू त्योहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है, भारत के विभिन्न हिस्सों में, रक्षा बंधन को अलग-अलग नामों से मनाया जाता है, हालांकि महत्व समान रहता है। भारत के उत्तरी और पश्चिमी भाग में रक्षा बंधन को "राखी पूर्णिमा" तथा पश्चिमी घाट और आसपास के क्षेत्रों में राखी को नारियल की तरह पूर्णिमा का संकेत देने के लिए "नारियाल पूर्णिमा" कहा जाता है। भारत के दक्षिणी भाग में रक्षाबंधन को "अवनि अवित्तम/उपाकर्मम्" के रूप में मनाया जाता है, मध्य भारत में "कजरी पूर्णिमा", पश्चिमी भागों में पवित्रपना के नाम से मनाया जाता है।

इस श्रावणी उपाकर्म के शुभ दिन पर, लोग अपना जनेऊ (पवित्र धागा) बदलते हैं, जो आमतौर पर समुदाय के ब्राह्मणों द्वारा पहना जाता है। (श्रावणी उपाकर्म) ।

भविष्यपुराण मे रक्षाबंधन का पर्व वर्णन आया है। स्वयं भगवान कृष्ण महात्म्य सुना रहे है।

युधिष्ठिर उवाच-
सर्वरोगोपशमनं सर्वाशुभविनाशनम् । 
सकृत्कृतेनाब्दमेकं येन रक्षाकृतो भवेत् ॥ 

श्रीभगवानुवाच-
शृणु पाण्डवशार्दूल इतिहासं पुरातनम्। 
इन्द्राण्या यत्कृतं पूर्वं शक्रस्य जयवृद्धये॥ 
देवासुरमभूद्युद्धं पुरा द्वादशवार्षिकम् ।
तत्रासुरैर्जितः शक्रः सह सर्वैः सुरोत्तमैः॥

युधिष्ठिर जी ने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा "हे भगवन्! सभी रोगों का शमन करने वाला एवं सभी अशुभों का भी नाश करने वाला कोई ऐसा उपाय बताइये जिसे करने से एक वर्ष पर्यंत की रक्षा हो जाए।

भगवान् कहते हैं "हे पाण्डवश्रेष्ठ इस संबंध में एक इतिहास सुनो! पूर्वकाल मे इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी ने इंद्र के विजय के लिए यह उपाय किया था। देव और असुरों में बारह वर्षांतक युद्ध चल जिसमें इन्द्र की सभी देवताओं सहित पराजय हुई। तब इन्द्र अपने गुरु बृहस्पति जी से कह रहे थे " मैं लडने के लिए समर्थ नहीं हूं और भाग भी नही सकता हूं अतः अब लडना ही पड़ेगा।" यह बात इन्द्राणी ने सुनी और कहा कि चिंता न करें मैं ऐसा उपाय करूँगी की आपकी विजय होगी, और तब इन्द्राणी ने ब्राह्मणों के द्वारा स्वस्तिवाचन कराकर इन्द्र के हाथ मे रक्षासूत्र बांधा था और वो दिन श्रावण पूर्णिमा का था। उस सूत्र के प्रभाव से इन्द्र के बल की वृद्धि हुई एवं इन्द्र के आक्रमण से भयभीत होकर असुर युद्धभूमि छोडकर भाग गए।

अर्थात इस प्रकार यह स्पष्ट है की  रक्षासूत्र बांधना सिर्फ बहन भाई का पर्व नही है। पति पत्नी, गुरु शिष्य, माता पुत्र, ब्राह्मण यजमान का भी पर्व है। जिसमें मुहूर्त व तिथि का पूर्ण विधान है।

आजकल रक्षा बंधन का त्यौहार में दिखावा ज्यादा होने लगा है। जबकि यह त्यौहार सादगी, प्रेम, उल्लास के साथ मनाना चाहिए। हमारे हिन्दू धर्म में हर पर्व के बारे में बताया गया है की पर्व कैसे मनाने चाहिए। यह रक्षाबंधन यदि वैदिक रीति मनाया जाए तो शास्त्रों में उसका बड़ा महत्व अर्पित होता है । 
वस्तुतः पूर्णिमा पर्व पर श्रीहरि विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना परम महाफलदाई है।

इस पवित्र त्यौहार का  सबसे आवश्यक तत्व वैदिक रक्षा सूत्र है इसे बनाने के लिए 5 वस्तुओं की आवश्यकता होती है –

1.दूर्वा (घास), 
2. अक्षत (चावल), 
3. केसर, 
4. चन्दन, 
5. सरसों के दाने ।

वैदिक रक्षा सूत्र बनाने की विधि – 
इन 5 वस्तुओं को रेशम के कपड़े में लेकर उसे बांध दें या सिलाई कर दें, फिर उसे कलावा में पिरो दें, इस प्रकार वैदिक राखी तैयार हो जाएगी।

वैदिक रक्षा सूत्र की पांचों वस्तुओं का महत्त्व -

1. दूर्वा – जिस प्रकार दूर्वा का एक अंकुर बो देने पर तेज़ी से फैलता है और हज़ारों की संख्या में उग जाता है, उसी प्रकार मेरे भाई का वंश और उसमे सदगुणों का विकास तेज़ी से हो। सदाचार, मन की पवित्रता तीव्रता से बढ़ता जाए। दूर्वा गणेश जी को प्रिय है अर्थात हम जिसे राखी बाँध रहे हैं, उनके जीवन में विघ्नों का नाश हो जाए।

2. अक्षत – यह शुद्ध अन्न का प्रतीक है मन की शुद्धता तथा हमारी गुरुदेव के प्रति श्रद्धा कभी क्षत-विक्षत ना हो सदा अक्षत रहे।

3. केसर – केसर की प्रकृति तेज़ होती है अर्थात हम जिसे राखी बाँध रहे हैं, वह तेजस्वी हो । उनके जीवन में आध्यात्मिकता का तेज, भक्ति का तेज कभी कम ना हो।

4. चन्दन – चन्दन की प्रकृति तेज होती है और यह सुगंध देता है । उसी प्रकार उनके जीवन में शीतलता बनी रहे, कभी मानसिक तनाव ना हो। साथ ही उनके जीवन में परोपकार, सदाचार और संयम की सुगंध फैलती रहे।

5. सरसों के दाने – सरसों की प्रकृति तीक्ष्ण होती है अर्थात इससे यह संकेत मिलता है कि समाज के दुर्गुणों को, कंटकों को समाप्त करने में हम तीक्ष्ण बनें ।

इन पांच पदार्थों के अलावा कुछ राखियों में हल्दी, कोड़ी व गोमती चक्र भी रखा जाता है। रेशमी कपड़े में लपेट कर बांधने या सिलाई करने के पश्चात इसे कलावे (मौली) में पिरो दें। आपकी राखी तैयार हो जायेगी।

इसके साथ ही एक राखी कच्चे सूत से भी बनाई जाती है। ब्राह्मण अपने जजमान को यही रक्षासूत्र बांधते थे। इसमें कच्चे सूत के धागे को हल्दीयुक्त जल में भिगोकर उसे सुखाया जाता है। इस तरह कच्चे सूत की राखी तैयार हो जाती है

इस प्रकार इन पांच वस्तुओं से बनी हुई एक राखी को सर्वप्रथम भगवान श्री गणेश जी को बांधना चाहिए, उसके बाद अन्य देवों को जैसे भगवान विष्णु, भगवान शिव,भगवान श्री कृष्ण, भगवान श्री राम, भगवान हनुमान और अपने ईष्ट देव को उसके उपरांत अपने गुरुदेव के श्री-चित्र पर अर्पित करें। फिर बहनें अपने भाई को, माता अपने बच्चों को, दादी अपने पोते के लिए शुभ संकल्प करके थाली में रोली, चंदन, अक्षत, दही, मिठाई, शुद्ध घी का दीपक और साथ ही वैदिक राखी या फिर रेशम या सूत से बनी राखी रखें। इसके बाद अपने भाई को पूर्व या उत्तर दिशा में खड़ा कर दें। फिर भाई के कान के ऊपर कजली या कजरियाँ (गेंहू की हरी दूब) लगाएं, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीका करके अक्षत को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है,
अंततः दाहिने हाथ की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधते समय ये श्लोक बोलें –

येन बद्धो बलिराजा दानवेंद्रो महाबलः। 
तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामिरक्षे माचल माचलः।।

इसके बाद मिठाई खिलाकर उसके उज्जवल भविष्य और दीर्घायु की कामना करें।

इस मंत्र का अभिप्राय है कि जिस रक्षासूत्र से महाबली, महादानी राजा बली को बांधा गया था उसी से मैं तुम्हें बांध रहा/रही हूं। हे रक्षासूत्र आप चलायमान न हों यही पर स्थिर रहें।

इस रक्षासूत्र को पुरोहित द्वारा राजा को, ब्राह्मण द्वारा यजमान को, बहन द्वारा भाई को, माता द्वारा पुत्र को तथा पत्नी द्वारा पति को दाहिनी कलाई पर बांधा जा सकता है।
इस विधि द्वारा जो भी रक्षासूत्र को बांधता है वह समस्त दोषों से दूर रहकर वर्ष भर सुखी जीवन व्यतीत करता है–

जनेन विधिना यस्तु रक्षाबंधनमाचरेत।
स सर्वदोष रहित, सुखी संवतसरे भवेत्।।
 
महाभारत में यह रक्षा सूत्र माता कुंती ने अपने पोते अभिमन्यु को बाँधी थी । जब तक यह धागा अभिमन्यु के हाथ में था तब तक उसकी रक्षा हुई, धागा टूटने पर अभिमन्यु की मृत्यु हुई। इस प्रकार इन पांच वस्तुओं से बनी हुई वैदिक राखी को शास्त्रोक्त नियमानुसार बांधते हैं हम पुत्र-पौत्र एवं बंधुजनों सहित वर्ष भर सुखी रहते हैं ।

परम्परा यह है कि शादी-शुदा बहने जब मायके आती हैं तो भाई के लिये नारियल और भाभी के लिये सूखा-गोला लाती है जिसे उनकी झोली में डालती हैं। कालांतर में इस सूखे गोले से कुछ बहनों ने गलती करते हुए भाईयों को राखी बांधना शुरु कर दी। जबकि यह सूखा गोला सिर्फ भाभी के लिये होता है। भाई के हाथ में श्रीफल ही रखा जाता है । इसलिए भाई को श्री फल/नारियल अवश्य दें।

बहन को क्या उपहार दे –

रक्षाबंधन भाई और बहन के प्यार का प्रतीक माना जाता है। इस दिन भाई अपनी बहन को प्यार के साथ-साथ कई तरह के उपहार भी देता है। मनु स्मृति में तीन ऐसी चीजों के बारे में बताया गया है, जो घर की महिलाओं को देने से घर में शांति और उन्नति बनी रहती है।

1. वस्त्र – वस्त्र यानी कपड़े। सजना-सवरना, श्रृंगार करना ये सब महिलाओं को सबसे प्रिय होता है। मनुस्मृति के अनुसार, जिस घर के पुरुष अपनी पत्नी, माता या बहन को अच्छे वस्त्र प्रदान करते हैं, उस घर पर भगवान हमेशा प्रसन्न रहते हैं। ऐसे घर में हमेशा सुख-शांति लक्ष्मी बनी रहती है।

2. आभूषण – आभूषण यानी गहने। गहने महिलाओं की सबसे प्रिय वस्तुओं में से एक है। जिस घर की महिलाएं खुश रहती हैं, वहां देवताओं का निवास माना जाता है। हर मनुष्य को अपने घर की महिलाओं को सुंदर गहने उपहार में देना चाहिए। जिस घर की महिलाएं अच्छे कपड़े और गहनों से श्रृंगार करती है, वहां कभी दरिद्रता नहीं रहती। ऐसे घर में हमेशा खुशहाली और मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है।

3. मधुर वचन- महिलाओं को पूजनीय माना जाता है। कई ग्रंथों और पुराणों में महिलाओं का सम्मान करने की बात कही गई है। मनुस्मृति के अनुसार, जिस घर में महिलाओं से बुरी तरह से बात की जाती है या उनका सम्मान नहीं किया जाता, ऐसे घर में भगवान भी नहीं रहते, अपने घर की स्त्रियों के साथ हर समय प्रेम और आदर से ही व्यवहार करना चाहिए।

वैदिक रक्षाबंधन के प्रमुख महत्वपूर्ण बिंदु -

1- राखी श्रीफल नारियल से ही बंधवानी है, सूखे गोले से नहीं। 

2- नारियल नहीं है तो सिर्फ धन अर्थात कुछ रुपये हाथ में रखकर भी राखी बंधवा सकते हैं लेकिन इसके अलावा कुछ नहीं रखना चाहिये। परिस्थितिजन्य अक्षत मतलब बिना टूटे साबूत चावल भी रखे जा सकते हैं। 

3- एक ही श्रीफल से पूरे परिवार के लोग राखी बंधवा सकते हैं, इसलिये अलग-अलग श्रीफल नही खरीदना चाहिये ।

4- भाई को बहनों से कुछ लेना नहीं चाहिऐ इस मान्यता के अनुसार श्रीफल भी भाई अपने पास नहीं रखते सिर्फ हाथ में रखकर राखी बंधवाते हैं। वह श्रीफल बहन का ही होता है। 

5- बहनों को प्रयास करना चाहिऐ कि वह अपने हाथ से वैदिक राखी या रेशमी धागे की राखी बनाकर अपने भाई को बांधे। रेशम के धागा आसानी से बाजार में मिल जाता है। राखी कोई दिखावे की वस्तु नहीं है, वह मर्यादा और शक्ति का प्रतीक है, इसलिये इसमें तडक़-भडक़-चमक की जरुरत नहीं है। हॉ बाजारु राखी सिर्फ बच्चों का मन बहलाने का माध्यम है। यदि आप भाई को चाहती हैं तो रेशम की डोर ही बांधे। 

6- बहन, अपने भाई को स्पष्ट कहे कि सिर्फ स्नेह और प्यार दे रुपये से राखी को ना तौले।
प्रतिपल रक्षा का वचन भी लें।

7- मिठाई को लेकर भी सावधान रहे – पहला प्रयास बहने अपने हाथ से कोई मिठाई बनाये नहीं बना सके तो हलुवा बना ले। बहुत मजबूरी में ही बाजार से मिठाई लायें क्योंकि यह प्यार का पर्व है । 

👉 वैदिक रूप से इस बार सुबह 5:53 से दोपहर 1:32 तक के भद्रा काल की वजह से रक्षाबंधन का पावन पर्व 19 अगस्त 2024 को उदया तिथि में सर्वार्थ सिद्ध योग के सानिध्य में मनाया जायेगा। जिसका सर्वोत्तम मुहूर्त दोपहर 01:32 के बाद से लेकर रात 9:07 तक है।

👉 रक्षाबंधन पर कई शुभ योग बन रहे हैं, रवि और सर्वार्थ सिद्ध योग का भी नाम शामिल है। वहीं इस दिन सूर्य देव भी अपनी स्वराशि में संचरण कर रहे हैं। साथ ही कर्मफल दाता शनि देव भी शश राजयोग बनाकर विराजमान हैं। इसके साथ ही बुध और शुक्र भी इस राशि में होंगे, जिससे बुधादित्य और शुक्रादित्य राजयोग का बन रहा है।

समस्त जगत को एक रक्षा सूत्र में पिरोते इस पावन उत्सव की सभी सनातनियों को हार्दिक शुभकामनाएं।
आप सब भी वैदिक रीति से रक्षाबंधन मनाये। तथा आने वाली पीढ़ी को भी इससे अवगत कराए।

॥सर्वेभ्यः रक्षाबन्धनमहोत्सवस्य शुभकामनाः॥

       ।। राधे कृष्णा ।।

कौन सा रत्न किस राशि या ग्रह के लिए लाभदायक या किस परिस्थिति में हानिकारक है?

 प्राचीन ग्रंथों में 84 से अधिक प्रकार के रत्नों का उल्लेख किया गया है। इनमें से कई अब उपलब्ध नहीं हैं। मुख्य रूप से 9 रत्न ही अधिक प्रचलित हैं ! 

जानिए इन 9 रत्नों का व्यक्ति के जीवन में क्या प्रभाव पड़ता हैं !

🔹 1. मूंगा (Coral) - मंगल की राशि मेष और वृश्चिक वाले लोगों को मूंगा पहनने की सलाह दी जाती है। मूंगा पहनने से साहस और आत्मविश्वास बढ़ता है। पुलिस, सेना, डॉक्टर, प्रॉपर्टी डीलर, हथियार निर्माता, सर्जन, कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर इंजीनियर आदि को मूंगा पहनने से विशेष लाभ मिलता है। रक्त संबंधी रोग, मिर्गी और पीलिया में भी इसे लाभकारी माना जाता है।

❗️कौन सी स्थिति में मूंगा पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

अगर कुंडली के अनुसार मूंगा नहीं पहना जाए तो यह नुकसान भी पहुंचा सकता है। इससे दुर्घटना भी हो सकती है। कहा जाता है कि इसका भार जीवनसाथी पर रहता है। इससे पारिवारिक विवाद, परिजनों से मनमुटाव और वाणी दोष भी हो सकता है। अगर कहीं भी शनि और मंगल की युति हो तो मूंगा नहीं पहनना चाहिए!

2. हीरा(Diamond)- शुक्र की राशि वृषभ और तुला वालों को हीरा पहनने की सलाह दी जाती है। हीरा उन्हें अमीर भी बना सकता है और गरीब भी। इसे पहनने से सुंदरता, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा मिलती है। कहा जाता है कि यह मधुमेह में लाभकारी होता है। 

❗️कौन सी स्थिति में हीरा पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

लाल किताब के अनुसार, यदि शुक्र तीसरे, पांचवें और आठवें स्थान पर हो तो हीरा नहीं पहनना चाहिए। इसके अलावा टूटा हुआ हीरा भी नुकसानदायक होता है। यदि कुंडली में शुक्र मंगल या बृहस्पति की राशि में हो या इनमें से किसी एक से दृष्ट हो या इनकी राशियों से स्थान परिवर्तन हो रहा हो तो हीरा मारकेश की तरह व्यवहार करता है और व्यक्ति को आत्महत्या या पाप की ओर ले जाता है।

3. पन्ना(Emerald)- बुध की राशि मिथुन और कन्या के लोगों को पन्ना पहनने की सलाह दी जाती है। पन्ना पहनने से याददाश्त बढ़ती है। पाचन क्रिया को बेहतर बनाने के लिए भी इसे पहना जाता है। नौकरी और व्यापार में तरक्की के लिए भी इसे पहनने की सलाह दी जाती है।

❗️कौन सी स्थिति में पन्ना पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

 लाल किताब के अनुसार अगर बुध तीसरे या 12वें भाव में हो तो पन्ना नहीं पहनना चाहिए। ज्योतिष के अनुसार अगर बुध 6वें, 8वें, 12वें भाव का स्वामी हो तो पन्ना पहनने से अचानक नुकसान हो सकता है। अगर बुध की महादशा चल रही हो और बुध 8वें या 12वें भाव में बैठा हो तो भी पन्ना पहनने से परेशानी हो सकती है।

4. मोती(Pearl)- जिन लोगों की राशि कर्क है और बृहस्पति की राशि मीन है, उनके लिए मोती पहनना उचित है। इसे पहनने से मन में सकारात्मक विचार उत्पन्न होते हैं। मन की बेचैनी दूर होती है। इसे पहनने से सर्दी-खांसी से राहत मिलती है, भयमुक्त जीवन मिलता है और सुख-समृद्धि बढ़ती है।

❗️कौन सी स्थिति में मोती पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

 लाल किताब के अनुसार, अगर कुंडली में चंद्रमा 12वें या 10वें भाव में हो तो मोती नहीं पहनना चाहिए। यह भी कहा जाता है कि जिन लोगों की राशि शुक्र, बुध, शनि है, उन्हें भी मोती नहीं पहनना चाहिए। अत्यधिक भावुक लोगों और गुस्सैल लोगों को मोती नहीं पहनना चाहिए।

5. माणिक(Ruby) - सूर्य की राशि सिंह के लोगों के लिए माणिक धारण करना उचित है। माणिक सरकारी और प्रशासनिक कार्यों में सफलता दिलाता है। अगर आपको इसका लाभ मिल रहा है तो आपके चेहरे पर चमक रहेगी, अन्यथा आपको सिर दर्द रहेगा और पारिवारिक परेशानियां भी बढ़ेंगी। आपको बदनामी का सामना करना पड़ सकता है।

6. पुखराज( Topaz)- बृहस्पति या गुरु की राशि धनु और मीन वालों के लिए पुखराज पहनना उचित रहता है। पुखराज पहनने से यश मिलता है। यश से मान-सम्मान बढ़ता है। शिक्षा और करियर में यह लाभकारी होता है। मेष, कर्क, सिंह, वृश्चिक, धनु और मीन राशि के लोग यदि पुखराज धारण करें तो इन्हें संतान, शिक्षा, धन और यश में सफलता मिलती है। 

❗️कौन सी स्थिति में पुखराज पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

लाल किताब के अनुसार यदि धनु लग्न में गुरु हो तो पुखराज या सोना केवल गले में ही पहनना चाहिए, हाथों में नहीं। यदि हाथों में पहना जाए तो ये ग्रह कुंडली के तीसरे भाव में स्थित होंगे। लेकिन ज्योतिष के अनुसार यदि कुंडली की जांच न कराई जाए और मन से पुखराज धारण किया जाए तो यह नुकसान भी पहुंचा सकता है। वृष, मिथुन, कन्या, तुला और मकर राशि वालों को पुखराज धारण नहीं करना चाहिए।

7. नीलम(Blue Sapphire)- शनि की राशि कुंभ और मकर राशि वालों के लिए नीलम धारण करने की सलाह दी जाती है। शनि लग्न, पंचम या 11वें स्थान पर हो तो नीलम नहीं धारण करना चाहिए। नीलम आसमान पर उठाता है और खाक में मिला भी देता है। इसीलिए कुंडली की जांच करने के बाद नीलाम धारण करे !

यह व्यक्ति में दूरदृष्टि, कार्यकुशलता और ज्ञान को बढ़ाता है। यह बहुत जल्दी से व्यक्ति को प्रसिद्ध कर देता है। परन्तु यदि नीलम सूट नहीं हो रहा है तो इसके प्रारंभिक लक्षणों में अकारण ही हाथ-पैरों में जबर्दस्त दर्द रहेगा, बुद्धि विपरीत हो जाएगी, धीरे-धीरे संघर्ष बढ़ेगा और व्यक्ति जीवन में खुद के ही बुने हुए जाल में उलझ जाएगा।


8. गोमेद(Hassonite)- राहु के लिए गोमेद पहनने की सलाह दी जाती है। गोमेद पहनने से नेतृत्व क्षमता बढ़ती है। ऐसा कहा जाता है कि गोमेद काले जादू से बचाता है। यह अचानक लाभ दिलाता है और अचानक होने वाले नुकसान से भी बचाता है। 

❗️कौन सी स्थिति में गोमेद पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

लाल किताब के अनुसार, अगर राहु 12वें, 11वें, 5वें, 8वें या 9वें स्थान पर हो तो गोमेद नहीं पहनना चाहिए अन्यथा नुकसान होगा। लेकिन ज्योतिष के अनुसार, दोषपूर्ण गोमेद नुकसान पहुंचा सकता है। पेट के रोग, आर्थिक नुकसान, पुत्र की हानि, व्यापार में नुकसान, रक्त विकार के अलावा यह भी कहा जाता है कि यह अचानक मृत्यु का कारण भी बन सकता है।

9. लहसुनिया( Cat’s eye stone)- केतु के लिए लहसुनिया पहनने की सलाह दी जाती है। इसे संस्कृत में वैदुर्य कहते हैं। व्यापार और कार्य में लहसुनिया पहनने से फायदा मिलता है। यह किसी की नजर नहीं लगने देता है।
 
 ❗️कौन सी स्थिति में लहसुनिया पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

लाल किताब के अनुसार तीसरे और छठे भाव में केतु है तो लहसुनिया नहीं पहनना चाहिए वर्ना नुकसान होगा। ज्योतिष के अनुसार दोषयुक्त लहसुनिया वैसा ही नुकसान पहुंचाता है, जैसा कि गोमेद।

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- व्यावहारिक संस्कृत शब्दावली -

  खराब मनुष्य - दुर्जन: / खलः / कापुरूष: 

परस्त्री के साथ संबंध रखनेवाला – पारदारिक

आगे रहनेवाला – पुरश्चर: / अग्रेसर: / पुरोग: / पुरोगमः / नायक: / नेतृ / पुरोगामीन्

शिष्य का शिष्य - प्रशिष्य 

दारू नशाखोर - मद्यपः

व्यभिचारी पुरुष – लम्पट: / लुब्धकः

परदेशी - वैदेशिक: 

नया छात्र – शैक्षः

कदर करनेवाला - रसज्ञ: / सहृदय: 

आग बुझानेवाला - अग्निशामक: 

स्टेनोग्राफर – आशुलिपिक: 

फासी देनेवाला - वधकः 

इलाका = क्षेत्रम् / विस्तार: 

इकाई – घटक:

अजब - विचित्रम् 

मरनेवाला - मरणासन्न:

मरम्मत – समीकरणम्

जंजाल – व्यामोह:

मरीज – रोगी 

बापदादा - पूर्वजा:

बालिग - वयस्क: 

नाबालिग – किशोरावस्था 

दिक्कत - काठिन्यम्

कुर्बानी - त्याग 

कुली – भारिक:

कैदी - बंधक:

                ।। संस्कृत - हिन्दी शब्दकोश: ।।

एतदीयः - इसका,
 तदीयः - उसका, 
यदीयः - जिसका,
 परकीयः (अन्यदीयः) - दूसरे का,
 आत्मीयः (स्वकीयः, स्वीयः) - अपना।

महत् - महान्, 
यावत् - जितना
 तावत् - उतना,
 कियत् - कितना, 
एतावत् (इयत्) - इतना।

तत्र - वहाँ, 
अत्र - यहाँ,
 कुत्र - कहाँ,
 यत्र - जहाँ, 
कुत्रापि - कहीं भी, 
अन्यत्र - दूसरे स्थान पर,
 सर्वत्र - सब स्थानों पर,
उभयत्र - दोनों स्थानों पर,
 अत्रैव - यहीं पर
तत्रैव - वहीं पर,
यत्र-कुत्रापि - जहाँ कहीं भी,

इतः - यहाँ से,
 ततः - वहाँ से,
 कुतः - कहाँ से,
 कुतश्चित् - कहीं से, 
यतः - जहाँ से,
 इतस्ततः - इधर-उधर, 
सर्वतः - सब ओर से,
 उभयतः - दोनों ओर से,

उपरि - ऊपर, 
अधः - नीचे,
अग्रे, (पुरः, पुरस्तात्) - आगे, 
पश्चात् - पीछे, 
बहिः - बाहर,
 अन्तः - भीतर
उपरि-अधः - ऊपर-नीचे,

इदानीम् (सम्प्रति, अधुना) - अब / इस समय,
 तदा / तदानीम् - तब / उस समय, 
कदा - कब
यदा - जब,
 सदा (सर्वदा) - हमेशा, 
एकदा - एक समय
कदाचित् - कभी,
 क्व - कब
 क्वापि - कभी भी,
सद्यः - तत्काल (अतिशीघ्र)
 पुनः - फिर
 अद्य - आज
 अद्यैव - आज ही, 
अद्यापि - आज भी,

श्वः - आने वाला कल
 ह्यः - बीता हुआ कल,
 परश्वः - आने वाला परसों
 परह्य: - बीता हुआ परसों
 प्रपरश्वः - आने वाला नरसों
प्रपरह्य: - बीता हुआ नरसों,

शीघ्रम् - जल्दी, 
शनैः शनैः - धीरे-धीरे,
 पुनः पुनः - बार-बार,
 युगपत् - एक ही समय में, 
सकृत् - एक बार
असकृत् - अनेक बार, 
अनन्तरम् - इसके बाद, 
कियत् कालम् - कब तक, 
एतावत् कालम् - अब तक,
 तावत् कालम् - तब तक,
 यावत् कालम् - जब तक, 
अद्यावधि - आज तक,

कथम् - कैसे / किस प्रकार
 इत्थम् - ऐसे / इस प्रकार,
यथा - जैसे,
 तथा - वैसे / उस प्रकार,
सर्वथा - सब तरह से, 
अन्यथा - नहीं तो / अन्य प्रकार से,
 कथञ्चित्, कथमपि - किसी भी प्रकार से,
 यथा यथा - जैसे-जैसे,
 तथा-तथा - वैसे-वैसे, 
यथा-कथञ्चित् - जिस किसी प्रकार से,
 तथैव - उसी प्रकार,
बहुधा / प्रायः - अक्सर।

स्वयम् - खुद,
 वस्तुतः - असल में,
कदाचित् (सम्भवतः) - शायद
, सम्यक् - अच्छी तरह, 
सहसा (अकस्मात्) - अचानक, 
वृथा - व्यर्थ, 
समक्षम् (प्रत्यक्षम्) - सामने
, मन्दम् - धीरे,
 च - और,
 अपि - भी
, वा / अथवा - या
, किम् - क्या, 
प्रत्युत (अपितु) - बल्कि,
 यतः - चूँकि,
यत् - कि, 
यदि - अगर, 
तथापि - तो भी / फिर भी, 

हि - क्योंकि,
 विना - बिना, 
ऋते - सिवाय / के बिना,
कृते - के लिए / वास्त
सह - साथ,
 प्रभृति - से लेकर,
पर्यन्तम् - तक, (यहाँ से यहाँ तक), 
ईषत् - थोडा,

न - नहीं, 
मा - मत, 
अलम् - बस,
 आम् - हाँ, 
बाढम् - बहुत अच्छा,
 अथ किम् - और क्या ?

शंख -

🔹शंख की उत्पति
🔹शंख के प्रकार
🔹शंखनाद का हमारे जीवन में प्रभाव
🔹शंख पर प्रसिद्ध वैज्ञानिक वैज्ञानिक आचार्य जगदीश चन्द्र बोस का मत 🧵 

शंख सदैव से ही सनातन संस्कृति के अनेक प्रतीकों में से एक प्रतीक रहा हैं । प्राचीन काल में शंख सब घरों में होता था। इसे दैनिक पूजा-अर्चना में स्थान दिया गया था। साधु समाज ही नहीं, गृहस्थों के घरों में भी शंख अनिवार्य रूप से रहता था। 

♦️शंखध्वनि मानव के लिए श्रवणोपयोगी है। इसमें वायु प्रदूषण दूर करने की अद्भुत क्षमता है। यही कारण है कि कथा-पूजा-आरती व प्रवचन के समय एकत्रित सदस्य समुदाय की श्वास-प्रश्वास क्रिया द्वारा फैलने वाले प्रदूषण को दूर करने के लिये सर्व प्रथम शंख-ध्वनि करने की प्रथा है। इससे एकत्रित जन समुदाय का ध्यान भी एक ओर आकृष्ट कर केंद्रित किया जाता है। प्राचीन काल में शंख सब घरों में होता था। इसे दैनिक पूजा-अर्चना में स्थान दिया गया था। l आज भी सभी साधु समाज और देवताओं में शंख को प्रमुख स्थान प्राप्त है। 

♦️शंख की उत्पति

शंख की उत्पति देवासुरों द्वारा किये गये समुद्र मंथन के दौरान चौदह रत्नों में से प्राप्त एक रत्न के रूप में हुई। पांचजन्य नामक शंख समुद्र मंथन के क्रम में प्राप्त हुआ था जो अद्भुत स्वर, रूप और गुणों से सम्पन्न था। उसे भगवान् विष्णु ने स्वयं ही धारण कर लिया। तब से विष्णु के आयुध के रूप में शंख की पूजा होने लगी। शंख समुद्र की घोंघा जाति का एक प्राणिज द्रव्य है। 


♦️शंख के प्रकार:

यह मुख्यतः दो प्रकार का-दक्षिणावर्ती तथा वामवर्ती होता है।

▪️ दक्षिणावर्ती शंख का पेट दक्षिण की ओर खुला होता है। यह बजाने के काम में नहीं आता क्योंकि इसका मुंह बन्द होता है। इसका बजना अशुभ माना जाता है। इसका प्रयोग अघ्य देने के लिए विशेषतः किया जाता है।

▪️वामवर्ती शंख का पेट बायीं ओर खुला होता है। इसको बजाने के लिए छिद्र होता है। इसकी ध्वनि से रोगोत्पादक कीटाणु कमजोर पड़ जाते हैं और अनेकानेक बीमारियां भाग खड़ी होती हैं। यह जिस घर में रहता है, वहां लक्ष्मी का निवास माना जाता है। 

♦️शंखनाद का हमारे जीवन में प्रभावः

अथर्ववेद के अनुसार शंख-ध्वनि व शंख जल के प्रभाव से बाधा आदि अशान्ति कारक तत्वों का पलायन हो जाता है। रणवीर भक्ति रत्नाकर में शंखनाद के विषय में लिखा गया है कि ध्वनि (नाद) से बड़ा कोई मंत्र नहीं है। ध्वनि के निस्सारण की विधि जानकर उसका यथोचित समय पर प्रयोग करने के समान कोई पूजा नहीं है। विधि विहीन स्वर हानिप्रद भी हो सकता है।

♦️ शंख पर प्रसिद्ध वैज्ञानिक वैज्ञानिक आचार्य जगदीश चन्द्र बोस का मत 

विश्वविख्यात भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु ने अपने यंत्रों द्वारा यह खोज की थी कि एकबार शंख फूंकने पर उसकी ध्वनि जहाँ तक जाती है, वहाँ तक अनेक बीमारियों के कीटाणु ध्वनि स्पंदन से वे मूर्छित हो जाते हैं। यदि निरन्तर प्रतिदिन यह क्रिया चालू रखी जाय तो फिर वहाँ का वायुमंडल ऐसे कीटाणुओं से सर्वथा मुक्त हो जाता है। शंख ध्वनि से क्षयरोग, हैजा आदि के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रति सैकेण्ड 27 घनफुट वायु शक्ति की तीव्रता से बजाये हुए शंख के प्रभाव से 1200 घनफुट दूरी तक स्थित कीटाणु समाप्त हो जाते हैं जबकि 260 घनफुट दूर तक के कीटाणु का नाश होता हैं।

🔺 रुद्र पाठ अभिषेक के भेद —

शास्त्रों और पुराणों में शिव पूजन के कई प्रकार बताए गए हैं, लेकिन जब हम शिवलिंग स्वरूप महादेव का अभिषेक करते हैं तो उस जैसा पुण्य अश्वमेघ जैसे यज्ञों से भी प्राप्त नहीं होता। स्वयं सृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है कि, 'जब हम अभिषेक करते हैं तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करने लगते हैं। संसार में ऐसी कोई वस्तु, कोई भी वैभव, कोई भी सुख, ऐसी कोई भी वास्तु या पदार्थ नहीं है जो हमें अभिषेक से प्राप्त न हो सके। मुख्य पांच प्रकार निम्न है - 

(1) रूपक या षडंग पाठ—रुद्र के छह अंग कहे गए हैं। इन छह अंग का यथा विधि पाठ षडंग पाठ कहा गया है।
शिव कल्प सूक्त— प्रथम हृदय रूपी अंग है 
पुरुष सूक्त — द्वितीय सिर रूपी अंग है ।
उत्तरनारायण सूक्त — शिखा है।
अप्रतिरथ सूक्त — कवचरूप चतुर्थ अंग है ।
मैत्सुक्त — नेत्र रूप पंचम अंग कहा गया है ।
शतरुद्रिय — अस्तरूप षष्ठ अंग कहा गया है।

इस प्रकार सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायी के दस अध्यायों का षडंग रूपक पाठ कहलाता है षडंग पाठ में विशेष बात है कि इसमें आठवें अध्याय के साथ पांचवें अध्याय की आवृति नहीं होती है कर्मकाण्डी भाषा में इसे ही नमक-चमक से अभिषेक करना कहा जाता है। 

(2) रुद्री या एकादशिनी - रुद्राध्याय की ग्यारह आवृति को रुद्री या एकादिशिनी कहते हैं। रुद्रों की संख्या ग्यारह होने के कारण ग्यारह अनुवाद में विभक्त किया गया है।

(3) लघुरुद्र- एकादशिनी रुद्री की ग्यारह आवृत्तियों के पाठ को लघुरुद्र पाठ कहा गया है। यह लघु रुद्र अनुष्ठान एक दिन में ग्यारह ब्राह्मणों का वरण करके एक साथ संपन्न किया जा सकता है तथा एक ब्राह्मण द्वारा अथवा स्वयं ग्यारह दिनों तक एक एकादशिनी पाठ नित्य करने पर भी लघु रुद्र अनुष्ठान संपन्न होते हैं।

(4) महारुद्र- लघु रुद्र की ग्यारह आवृति अर्थात एकादशिनी रुद्री की 121 आवृति पाठ होने पर महारुद्र अनुष्ठान होता है । यह पाठ ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा 11 दिन तक कराया जाता है।

(5) अतिरुद्र - महारुद्र की 11 आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री की 1331 आवृति पाठ होने से अतिरुद्र अनुष्ठान संपन्न होता है ये 

(1)अनुष्ठात्मक 
(2) अभिषेकात्मक 
(3) हवनात्मक , 

तीनो प्रकार से किये जा सकते हैं। शास्त्रों में इन अनुष्ठानों का अत्यधिक फल है व तीनोंं का फल समान है। 

रुद्राष्टाध्यायी के प्रत्येक अध्याय मे - प्रथमाध्याय का प्रथम मन्त्र "गणानां त्वा गणपति गुम हवामहे " बहुत ही प्रसिद्ध है । यह मन्त्र ब्रह्मणस्पति के लिए भी प्रयुक्त होता है।

द्वितीय एवं तृतीय मन्त्र मे गायत्री आदि वैदिक छन्दो तथा छन्दों में प्रयुक्त चरणों का उल्लेख है। पाँचवें मन्त्र "यज्जाग्रतो से सुषारथि" पर्यन्त का मन्त्रसमूह शिवसंकल्पसूक्त कहलाता है। इन मन्त्रो का देवता "मन" है। इन मन्त्रों में मन की विशेषताएँ वर्णित हैँ। परम्परानुसार यह अध्याय गणेश जी का है।

द्वितीयाध्याय में सहस्रशीर्षा पुरुषः से यज्ञेन यज्ञमय तक 16 मन्त्र पुरुषसूक्त से हैं, इनके नारायण ऋषि एवं विराट पुरुष देवता हैं। 17 वें मन्त्र अद्भ्यः सम्भृतः से श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च ये छह मन्त्र उत्तरनारायणसूक्त रूप में प्रसिद्ध है। द्वितीयाध्याय भगवान विष्णु का माना गया है।

तृतीयाध्याय के देवता देवराज इन्द्र हैं तथा अप्रतिरथ सूक्त के रूप मे प्रसिद्ध है। कुछ विद्वान आशुः शिशानः से अमीषाज्चित्तम् पर्यन्त द्वादश मन्त्रों को स्वीकारते हैं तो कुछ विद्वान अवसृष्टा से मर्माणि ते पर्यन्त 5 मन्त्रों का भी समावेश करते हैं। इन मन्त्रों के ऋषि अप्रतिरथ है। इन मन्त्रों द्वारा इन्द्र की उपासना द्वारा शत्रुओं, स्पर्शाधकों का नाश होता है।

प्रथम मन्त्र "ऊँ आशुः शिशानो .... त्वरा से गति करके शत्रुओं का नाश करने वाला, भयंकर वृषभ की तरह, सामना करने वाले प्राणियोँ को क्षुब्ध करके नाश करने वाला। मेघ की तरह गर्जना करने वाला। शत्रुओं का आवाहन करने वाला, अति सावधान, अद्वितीय वीर, एकाकी पराक्रमी, देवराज इन्द्र शतशः सेनाओ पर विजय प्राप्त करता है।

चतुर्थाध्याय में सप्तदश मन्त्र हैं, जो मैत्रसूक्त के रूप मे प्रसिद्ध है। इन मन्त्रों में भगवान सूर्य की स्तुति है " ऊँ आकृष्णेन रजसा " में भुवनभास्कर का मनोरम वर्णन है। यह अध्याय सूर्यनारायण का है ।

पंचमाध्याय मे 66 मन्त्र हैं। यह अध्याय प्रधान है, इसे शतरुद्रिय कहते हैं।
"शतसंख्यात रुद्रदेवता अस्येति शतरुद्रियम्। इन मन्त्रों में रुद्र के शतशः रूप वर्णित है। कैवल्योपनिषद मे कहा गया है कि शतरुद्रिय का अध्ययन से मनुष्य अनेक पातकों से मुक्त होकर पवित्र होता है। इसके देवता महारुद्र शिव है। 

षष्ठाध्याय को महच्छिर के रूप मेँ माना जाता है। प्रथम मन्त्र में सोम देवता का वर्णन है। प्रसिद्ध महामृत्युञ्जय मन्त्र "ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे" इसी अध्याय में है। इसके देवता चन्द्रदेव हैं।

सप्तमाध्याय को जटा कहा जाता है । उग्रश्चभीमश्च मन्त्र मे मरुत् देवता का वर्णन है। इसके देवता वायुदेव हैं।

अष्टमाध्याय को चमकाध्याय कहा जाता है । इसमे 29 मन्त्र है। प्रत्येक मन्त्र मे "च "कार एवं "मे" का बाहुल्य होने से कदाचित चमकाध्याय अभिधान रखा गया है । इसके ऋषि "देव"स्वयं है तथा देवता अग्नि है। प्रत्येक मन्त्र के अन्त मे यज्ञेन कल्पन्ताम् पद आता है।

रुद्री के उपसंहार मे "ऋचं वाचं प्रपद्ये " इत्यादि 24 मन्त्र शान्तयाध्याय के रुप मे एवं "स्वस्ति न इन्द्रो " इत्यादि 12 मन्त्र स्वस्ति प्रार्थना के रुप मे प्रसिद्ध है।


सर्वेभ्यः अद्य श्री श्रावण पर्वणः हार्दिक्यः शुभकामनाः।
ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव