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सरस्वती कवच ।।

      ज्ञान की चोरी बहुतायत में होती है। ज्ञान अत्यंत ही संवेदनशील तत्व है न जाने कब मस्तिष्क से विस्मृत या उड़ जाये। कवच के दो कार्य हैं, सर्वप्रथम जो ज्ञान हमने अर्जित किया है वह हमारे पास मौजूद रह सकें उसका क्षय न हो एवं हमारे ज्ञान का उच्चाटन, कीलन, बंधन या हरण कोई दूसरा व्यक्ति तांत्रोक्त या मांत्रोक्त विधान से सम्पन्न न कर पाये। यह पक्ष अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। वाद विवाद प्रतियोगिता के समय मुख का स्तम्भन कर दिया जाता है, परीक्षा की जगह बांध दी जाती है। अचानक कुछ समय के लिए परीक्षार्थी अर्जित ज्ञान भूल जाते हैं या उनकी एकाग्रता भी भंग की जा सकती है। उपरोक्त वर्णित विषम परिस्थितियों से बचने के लिए सरस्वती कवच का पाठ किया जाता है। अनेकों बार भोज पत्र के ऊपर सरस्वती यंत्र को निर्मित कर उसे महासरस्वती मंत्र से अभिमंत्रित कर धारण भी किया जाता है विशेषकर 13 मुखी रुद्राक्ष में सरस्वती की स्थापना सबसे उपयुक्त तरीके से की जा सकती है। कवच पाठ की विधि नीचे लिखी हुई है सरस्वती कवच का पाठ प्रातःकाल ही करना चाहिए। पाठ करते समय प्रत्येक अंग का ध्यान कर लेना चाहिए। 

सरस्वती कवच-
शृणु शिष्य ! प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम् । 
घृत्वा सततं सर्वैः प्रपाठ्योऽयं स्तवः शुभः ॥

विनियोग - (दाएं हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र बोले)
अस्य श्रीसरस्वतीस्तोत्रकवचस्य प्रजापतिर्ऋषिः, अनुष्टप्छन्दः, शारदादेवता, सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थसाधनेषु च । कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ इति पठित्वा, विनियोगं कुर्यात् ।
(जल भूमि पर छोड़ दे)

ॐ श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः । 
ॐ श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदाऽवतु ।
ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रे पातु निरन्तरम् । 
ॐ ह्रीं श्रीं भगवत्यै सरस्वत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सर्वदाऽवतु।
ॐ ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं विद्याऽधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा चोष्ठं सदाऽवतु।
ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपङ्क्तिं सदाऽवतु ।
ॐ ऐं इत्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदाऽवतु । 
ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रोः सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं विद्याऽधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु।
ॐ ह्रीं विद्याऽधिस्वरूपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम् ।
ॐ ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तौ सदाऽवतु । 
ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदाऽवतु । 
ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा सवं सदाऽवतु । 
तत्पश्चादाशाबन्धं कुर्यात् -
ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदाऽवतु । ॐ सर्वजिह्वाऽग्रवासिन्यै स्वाहाऽग्निदिशि रक्षतु । 
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा । 
ॐ सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदाऽवतु ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्ये सर्वदाऽवतु । 
ॐ ऐं ह्रीं जिह्वाऽग्रवासिन्यै स्वाहा प्रतीच्यां मां सर्वदाऽवतु ।
ॐ सर्वाऽम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदाऽवतु । 
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं गद्य-पद्य वासिन्यै स्वाहा मामुत्तरे सदाऽवतु ।
ॐ ऐं सर्वशास्त्रवादिन्यै स्वाहैशान्ये सदाऽवतु । 
ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदाऽवतु । 
ॐ ह्रीं पुस्तकवासिन्यै सदाऽधो मां सदाऽवतु । 
ॐ ग्रन्थबीजस्वरूपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु । 
इति ते कथितं शिष्य ! ब्रह्म-मन्त्रौघ-विग्रहम् । इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरूपकम्॥ 

      ॥ इति श्रीसरस्वतीकवचं समाप्तम् ॥

                          शिव शासनत: शिव शासनत:

भगवान को प्रिय कपूर - सिन्दूर ।।

कपूर -
      मोम की तरह कोमल, मिश्री की भांति सफेद, सुगंध में प्रिय और तीव्र पतली पत्तों में जमा हुआ, लगभग सभी जातियों धर्मों में पूजा पाठ मंगल कार्य, आरती हवन आदि में प्रयुक्त होने वाला कपूर लगभग सर्वत्र उपलब्ध होता है। कपूर अपने सामान्य उपयोग के अलावा विभिन्न तांत्रिक प्रयोगों में आने वाला विशेष पदार्थ भी माना जाता है। कपूर के प्रयोग से इनकी तीव्रता में वृद्धि होती है।

        धनवृद्धि के लिए श्रीयंत्र, हाथाजोड़ी, दक्षिणावर्ती शंख दत्तात्रेय यंत्र, जम्बुकी, श्रीफल, एकाक्षी नारियल या जो भी अन्य वस्तुएं सिद्ध की जाती है उनकी पूजा में कपूर को शामिल कर लेने से न केवल सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है वरन् उसका प्रभाव भी बढ़ता है। कपूर विभिन्न शारीरिक व्याधियों में भी उपयोगी साबित हुआ है। जैसे मस्तिष्क पीड़ा में कपूर को सूंघने तथा गाय के घी या तेल में घिसकर मस्तक पर लेप करने से तीव्र लाभ होता है।
          दुर्गन्ध तथा कीटाणुओं के नाश के लिए कपूर का चूर्ण तैयार कर प्रभावित स्थल पर छिड़क देने से लाभ होता है। कपूर का धुंआ वायु सम्बन्धी दोषों को दूर करने वाला होता है। मृत आत्माओं के आवाहन में कपूर का धुंआ और प्रकाश विशेष असरकारक होता है। विभिन्न यंत्रों के निर्माण में अनेकों जगह काली स्याही का उल्लेख मिलता है। यह काली स्याही वास्तव में कपूर के काजल को गीला कर बनाई जाती है। शनि यंत्र निर्माण तथा यक्षिणी भैरवी आदि की साधना में कपूर के काजल को विशेष महत्व दिया जाता है। 

सिन्दूर -
          सिन्दूर नाम से हम सभी परिचित हैं विशेषकर भारतीय समाज में प्रत्येक घर में पूजा पाठ के साथ ही महिलायें इसे सौभाग्य चिन्ह के रूप में मस्तक पर तिलक के रूप में प्रयोग में लाती हैं। सिन्दूर अनेकों तांत्रिक प्रयोगों में भी लाभदायक होता है। मंगलवार के दिन शुद्ध घी में यदि सिन्दूर मिलाकर हनुमान जी को लगाया जावे तो विशेष लाभदायक होता है। सिन्दूर धनदायक होता है अतः हाथाजोड़ी, सियार सिंगी सिद्ध करने हेतु तांत्रिक पूजाओं में सिन्दूर का प्रयोग अवश्यक रूप से होता हैं । हनुमान जी के शरीर पर लेपा गया सिन्दूर तथा माता गौरी के शरीर पर लेपा गया सिन्दूर यदि क्रमशः पुरुष तथा महिलाएं तिलक के रूप में प्रयोग करें तो विशेष लाभदायक होता है। उचित विधि से शोधित सिन्दूर अनेकों व्याधियों दूर हटाने में भी लाभदायक होता है।

श्री नरसिंह ।।

         पभु श्री कृष्ण के रूप में श्रीहरि का पूर्णांश अवतार हुआ है। पूर्णांश अवतार का तात्पर्य है कि श्रीहरि अपनी समस्त 64 कलाओं के साथ मनुष्य रूप में उदित हुए और उन्होंने वह प्रत्येक कर्म सम्पन्न किया जो कि एक साधारण मानव अपने जीवनकाल में करता है अर्थात माता के गर्भ से उत्पन्न होना,खेलना, भोजन करना, प्रेम करना, विवाह करना, युद्ध करना, धनोपार्जन करना और अंत में शरीर का त्याग करना इत्यादि-इत्यादि परन्तु इन सब क्रियाओं के बीच प्रभु श्रीकृष्ण ने प्रतिक्षण दिव्य कर्म भी सम्पन्न किए जो कि मानव स्मृति में किसी भी मनुष्य की सोच से भी परे हैं ।
         यही दिव्य कर्म उन्हें लीलाधारी बनाते हैं, उन्हें शर्वेश्वर बनाते हैं। पूर्णांश अवतार श्रीकृष्ण ने असंख्य मानवों से उन्हीं की वाणी में, उन्हीं के क्रियाकलापों अनुसार, उन्हीं के नियम धर्मों के हिसाब से, उन्हीं के चिंतन- बुद्धि के हिसाब से सम्प्रेषण किया। पूर्णांश, पूर्णता के साथ सभी को प्राप्त हुआ इसलिए प्रभु श्रीकृष्ण के रूप में श्रीहरि उपासना संसार में सबसे ज्यादा प्रचलित है। पूर्णांश अवतार की एक विशेषता और है कि इसमें अनंत कल्पों में श्रीहरि के अगणित अवतारों की झलक भी स्पष्ट देखने को मिलती है।
           नरसिंह अवतार सतयुग से पूर्व हुआ एवं यह श्रीहरि के कुछ गिने चुने आदि अवतारों में से एक है इसमें श्रीहरि विशेषांश के साथ अवतरित हुए। उनका यह अवतार क्षणिक था परन्तु प्रचण्डात्मकता अत्यधिक थी। विशेष अवतारों की उपासना विशेष परिस्थितियों में, विशेष कार्यों के लिए नियुक्त विशेष साधकों के द्वारा ही सम्पन्न हो पाती है। नरसिंहोपासना विशेष साधकों का विषय है, सबके लिए नरसिंहोपासना नहीं बनी है अतः यह सर्व और सुलभ भी नहीं है फिर भी परा ज्ञान के क्षेत्र में तंत्राचार्य या तंत्रज्ञ बनने हेतु नरसिंहोपासना अत्यंत आवश्यक है। इसके माध्यम से कठिन से भी कठिन नकारात्मक शक्ति से ग्रसित जातक को, नितांत घोर शत्रुओं के बीच निवास करने वाले जातक को भी एक विशेष सुरक्षा कवच प्राप्त होता है। 
        इस उपासना को गुरुदीक्षा के अभाव में, गुरु सानिध्य के अभाव में, सम्पन्न नहीं करना चाहिए। नरसिंहोपासना दो मार्गों से सम्पन्न होती है सात्विक मार्ग एवं तामसिक मार्ग । वाम मार्ग में यह साधना अत्यंत ही तीक्ष्ण हो जाती है और यह गुरु मुख का विषय है। इसलिए इसका विधि विधान पुस्तकों में प्राप्त नहीं होता। किसी भी प्रकार के अभिचार कर्म यहाँ तक कि महाविद्याओं के द्वारा सम्पन्न अभिचार कर्म से भी नरसिंहोपासना के माध्यम से जातक मुक्त हो सकता है। पूर्ण अभय प्रदान करने वाली यह उपासना वास्तव में दर्शनीय है ।                

लक्ष्मीनरसिंह स्तोत्र
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        लक्ष्मी प्राप्ति के कई विधान हैं छीनकर, झपटकर, बल के द्वारा भी लक्ष्मी प्राप्त की जा सकती है। लक्ष्मी नरसिंह स्तोत्र आदि शंकराचार्य ने अत्यंत ही संकटकालीन समय में रचित किया है, यह तांत्रोक्त स्तोत्र अंतिम विकल्प हैं लक्ष्मी प्राप्ति का । मान लीजिए किसी ने हमारा धन ले लिया एवं वह हमें वापस नहीं कर रहा। कोई जबरन में हमारी सम्पत्ति पर कब्जा जमाकर बैठा है, कोई बल के द्वारा हमें हमारे अधिकार से वंचित कर रहा है, कोई षडयंत्र कर हमारे धन को हड़प बैठा है। उपरोक्त परिस्थितियों में या फिर घोर दरिद्रता के कारण धन के अभाव में जब जीवन पर ही बन आये तब त्वरित लक्ष्मी प्राप्ति हेतु, पुनः खोया हुआ धन प्राप्ति हेतु प्रचण्डता के साथ अन्यायी का ध्यान करते हुए लक्ष्मी नरसिंह स्तोत्र का प्रतिदिन प्रयोग किया जाता है और इसके माध्यम से नरसिंह रूपी महाभैरव को जागृत कर न्याय प्राप्त किया जाता है। नरसिंह रूपी महाभैरव शीघ्रता का प्रतीक हैं, शीघ्र लक्ष्मी प्रदान करते हैं परन्तु प्रयोग अनाहत से करें, हृदय से करें दिमाग से नहीं। सफलता सौ प्रतिशत मिलेगी।

लक्ष्मीनरसिंह स्तोत्र

श्रीमत् पयॊनिधिनिकॆतन चक्रपाणॆ भॊगीन्द्रभॊगमणिरञ्जितपुण्यमूर्तॆ ।
 यॊगीश शाश्वत शरण्य भवाब्धिपॊत लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ १ ॥
 
 ब्रह्मॆन्द्ररुद्रमरुदर्ककिरीटकॊटि- सङ्घट्टिताङ्घ्रिकमलामलकान्तिकान्त ।
 लक्ष्मीलसत्कुच्सरॊरुहराजहंस लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ २ ॥
 
 संसारघॊरगहनॆ चरतॊ मुरारॆ मारॊग्रभीकरमृगप्रवरार्दितस्य ।
 आर्तस्यमत्सरनिदाघनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ३ ॥
 
 संसारकूपमतिघॊरमगाधमूलम् संप्राप्य दुःखशतसर्पसमाकुलस्य ।
 दीनस्य दॆव कृपणापदमागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ४ ॥
 
 संसारसागरविशालकरालकाल- नक्रग्रहग्रसननिग्रह विग्रहस्य ।
 व्यग्रस्य रागरसनॊर्मिनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ५ ॥
 
 संसारवृक्षमघबीजमनन्तकर्म- शाखाशतं करणपत्रमनङ्गपुष्पम् ।
 आरुह्यदुःखफलितं पततॊ दयालॊ लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ६ ॥
 
 संसारसर्पघनवक्त्रभयॊग्रतीव्र- दंष्ट्राकरालविषदग्द्धविनष्टमूर्तॆः ।
 नागारिवाहन सुधाब्धिनिवास शौरॆ लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ७ ॥
 
 संसारदावदहनातुरभीकरॊरु- ज्वालावलीभिरतिदग्धतनूरुहस्य ।
त्वत्पादपद्मसरसीशरणागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ८ ॥
 
 संसारजालपतितस्य जगन्निवास सर्वॆन्द्रियार्थबडिशार्थझषॊपमस्य ।
 प्रॊत्खण्डितप्रचुरतालुकमस्तकस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ९ ॥
 
 संसारभीकरकरीन्द्रकराभिघात- निष्पिष्टमर्म वपुषः सकलार्तिनाश ।
 प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ १० ॥
 
 अन्धस्य मॆ हृतविवॆकमहाधनस्य चॊरैः प्रभॊ बलिभिरिन्द्रियनामधॆयैः ।
 मॊहांधकारकुहरॆ विनिपातितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ११ ॥
 
 लक्ष्मीपतॆ कमलनाभ सुरॆश विष्णॊ वैकुण्ठ कृष्ण मधुसूदन पुष्कराक्ष ।
 ब्रह्मण्य कॆशव जनार्दन वासुदॆव दॆवॆश दॆहि कृपणस्य करावलम्बम् ॥ १२ ॥
 
 यन्माययॊजितवपुः प्रचुरप्रवाह- मग्नार्थमत्र निवहॊरुकरावलम्बम् ।
 लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुव्रतॆन स्तॊत्रं कृतं सुखकरं भुवि शंकरॆण ॥ १३ ॥

।। इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं श्रीलक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रं सम्पूर्णम्।। 

                   शिव शासनत: शिव शासनत:

देवर्षि नारद ।।

नर - नारायण की संप्रदाय - परंपरा से प्राप्त ज्ञान का नाम 'नार 'है ,उस ज्ञान का जो दान करे उसका नाम है नारद।

अथवा नर के हृदय में जो अज्ञानता है उसका जो नाश कर दे उसे, नारद कहते है।
      "नरस्य सम्बन्धि अज्ञानं द्युति"
अथवा माता के नार माने नाल नाली जन्म मरण ही गन्दी नाली है,नार या नाली से जो छुड़ा दे उसका नाम नारद है।

नार--       आत्मज्ञान√दा (देना)+क। 

'द' अक्षर का अर्थ होता है देना, दिलवाना, प्रदान करना। 

'नार' कहते हैं पानी को। 
     इसी से 'नारायण' और 'नारद' दोनों बने हैं। 

नार + अयन = नारायण
            नार यानी पानी हो अयन (निवास) जिसका , वही नारायण अर्थात् विष्णु है। 
क्षीरसागर में वास करने के कारण विष्णु को नारायण कहा जाता है।

नार + द = नारद
         नार को जो प्रदान करे अर्थात् नार में जो किसी मनुष्य को पहुँचा सके , विष्णु से मिलवा सके ,वही नारद है।

कुछ लोग कहते हैं कि नारद मुनि लड़ाई करवाते रहते हैं, इनका काम बस एक दूसरे के खिलाफ भड़काना है, जबकि ये बात एकदम गलत है। नारद जी जिनको भी मिले उन्हें भगवान जरूर मिले हैं,और नारद जी को भगवान का मन कहा गया है।

नारद के जन्म की कथा--
                 ब्रह्मवैवर्तपुराण में आया है कि नारद जी ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं,और ब्रह्माजी के कंठ से पैदा हुए हैं।
ब्रह्माजी ने इन्हें उत्पन्न किया और कहा की बेटा जाओ, और जाकर सृष्टि को आगे बढाओ , सृष्टि कार्य में सहयोग करो। लेकिन नारद जी ने साफ -साफ मना कर दिया।
नारद जी सोचते हैं- 
          ऐसा कौन मूर्ख होगा जो भगवान के नाम रूपी अमृत को छोड़कर विषय नामक विष का भक्षण करेगा?
जब इन्होंने मना किया तो ब्रह्मा जी ने शाप दिया- 
                   तुम अपने पिता की बात को नहीं मानते हो, जाओ मेरे शाप से तुम्हारा ज्ञान नष्ट हो जायेगा और तुम गन्धर्व योनि को प्राप्तकर कामविलास रत स्त्रियों के वशीभूत हो जाओगे।

नारद जी ने विचार किया- 
            जो बुरे मार्ग पर चले ऐसे कुमार्गी को शाप देना ठीक है लेकिन मुझे अकारण ही शाप दे दिया गया ये गलत है। 
फिर भी अपने पिता से नारद जी कहते हैं- इतनी कृपा कीजिए जिन-जिन योनियों में मेरा जन्म हो, वहां भगवान की भक्ति मुझे कभी न छोड़े।
ऐसा आग्रह करके नारद जी ने अपने पिता को भी शाप दे डाला हे पिताजी ! आपने मुझे बिना अपराध के शाप दिया है अत: मैं भी आपको यह शाप देता हूँ कि तीन कल्पों तक लोक में आपकी पूजा नहीं होगी और आपके मन्त्र, स्त्रोत, कवच आदि का लोप हो जायेगा।’

पिता के शाप के कारण ये गंधर्व योनि में पैदा हुए,इनका नाम था उपबर्हण,इन्हें अपने रूप का बड़ा अभिमान था।
एक बार ब्रह्माजी की सभा में सभी देवता और गंधर्व भगवन्नाम का संकीर्तन करने के लिए आए, उपबर्हण (नारदजी) भी अपनी पत्नियों के साथ श्रृंगार भाव से उस सभा में गए। "उपबर्हण" का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गये और उन्होंने उसे ‘शूद्र योनि’ में जन्म लेने का श्राप दे दिया।

महर्षि नारद के पूर्वजन्म की कथा
             इनके इस जन्म की कथा का श्रीमद भागवत पुराण में विस्तार से वर्णन है जो इस प्रकार है—
     श्री वेदव्यास जी ने वेदों की रचना की फिर उन्होंने एक ही वेद के चार विभाग कर दिये---
                                 1. ऋग्वेद
                                  2. यजुर्वेद 
                                  3. सामवेद 
                                  4. अथर्ववेद

पुराण लिखे, महाभारत लिखा,इतना सब लिखने के बाद भी इनके हृदय को सन्तोष नहीं हुआ।
उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया,सरस्वती नदी के पवित्र तट पर एकान्त में बैठकर धर्मवेत्ता व्यासजी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे—
             मैंने इतना सब लिखा लेकिन मेरा हृदय कुछ अपूर्ण काम-सा जान पड़ता है,जरूर कुछ न कुछ रह गया है तभी देवर्षि नारदजी वहां आ पहुँचे, उन्हें आया देख व्यासजी तुरन्त खड़े हो गये और देवर्षि नारद की विधि पूर्वक पूजा की ।
नारदजी कहते हैं—
             व्यास जी! आपने इतना सब कुछ लिख दिया आप संतुष्ट तो हैं न?

व्यासजी कहते हैं— 
             इतना सब लिखने के बाद भी मुझे संतोष नही हो रहा है। मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है। पता नहीं, इसका क्या कारण है। आपका ज्ञान अगाध है। 
आप कृपा करके इसका कारण बताइये?

नारदजी ने कहा—
              व्यासजी! मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा है,आपने धर्म का वर्णन किया, अर्थ का वर्णन किया।

लेकिन भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वैसा निरूपण नहीं किया जैसा आपको करना चाहिए था,आप भगवान की लीलाओं का वर्णन कीजिये,आप ऐसे ग्रन्थ का निर्माण कीजिये जो भक्ति, ज्ञान और वैरागय से परिपूर्ण हो।
मैं आपको अपने पूर्वजन्म का वर्तान्त सुनाता हूँ--
                   पिछले कल्प में अपने पूर्वजीवन में मैं वेदवादी ब्राह्मणों की दासी का लड़का था। एक बार कुछ संत चातुर्मास करने हमारे गाँव में आये,वे प्रतिदिन सत्संग करते थे और मेरी माँ मुझे उस सत्संग में साथ ले जाती थी। एक दिन सत्संग के बाद विशाल भंडारे का आयोजन हुआ।

मेरी माँ उस भंडारे में बर्तन मांज रही थी,और मैं वहां पर खेल रहा था तभी कुछ संत आये और बोले बेटा! तेरी माँ कितनी संत देवी है तू भी कुछ सेवा कर,मैं छोटा सा पांच वर्ष का बालक था। मुझे संतों ने कहा की जब संत भोजन कर लें तब तू झूठी पत्तलों को बाहर फेंक कर आ जा।
मैं संतों की सेवा में लग गया और मुझे पत्तल फेंकते-फेंकते सुबह से शाम हो गई लेकिन किसी ने मुझे भोजन के लिए नही पूछा। मुझे बहुत भूख लगी थी मैंने एक बरतनों में लगा हुआ संत का झूठा प्रसाद खा लिया। आपको क्या बताऊं की मेरे इस प्रसाद को खाने से आत्मा तृप्त हो गई।
इससे मेरे सारे पाप धुल गये, इस प्रकार उनकी सेवा करते-करते मेरा हृदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन-पूजन करते थे, उसी में मेरी भी रुचि हो गयी,और मुझे ऐसा करते हुए एक संत ने अपने पास बुलाया, और खाने के लिए भोजन दिया।
जब उनका चातुर्मास पूरा हुआ और वो जाने लगे तो उन्होंने मुझे एक मन्त्र दिया। 

जिसे वासुदेव गायत्री मन्त्र कहा जाता है--
         "ॐ नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि। 
           प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः सङ्कर्षणाय च॥"

‘प्रभो! आप भगवान श्रीवासुदेव को नमस्कार है,हम आपका ध्यान करते हैं। प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण को भी नमस्कार है’।
मैं दिन रात इस मन्त्र का जप करता और भगवान का ध्यान करता रहता था, लेकिन मेरी माँ मुझे ध्यान नहीं करने देती थी। जब भी मैं ध्यान में बैठ जाता था तो कभी मुझे कहती की बेटा, तेरे दोस्त तुझे खेलने के लिए बुला रहे हैं, कभी कहती दूध पी लो, कभी कहती भोजन कर लो, उसने अपने को मेरे स्नेहपाश से जकड़ रखा था।

एक दिन की बात है, मेरी माँ गौ दुहने के लिये रात के समय घर से बाहर निकली, रास्ते में उसके पैर से साँप छू गया, उसने उस बेचारी को डस लिया,उस साँप का क्या दोष, काल की ऐसी ही प्रेरणा थी, मैंने समझा, भक्तों का मंगल चाहने वाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है।
इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा,फिर मैं एक वन में गया वहां पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया,और उन संत-महात्माओं द्वारा दिए हुए मन्त्र का जप करने लगा।
भगवान के चरण - कमलों का ध्यान करते ही भगवत-प्राप्ति की उत्कट लालसा से मेरे नेत्रों में आँसू छलछला आये और हृदय में धीरे-धीरे भगवान प्रकट हो गये। 
फिर कुछ समय बाद भगवान की आकाशवाणी हुई कि –
          ‘खेद है कि इस जन्म में तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे। जिनकी वासनाएँ पूर्णतया शान्त नहीं हो गयीं हैं, उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है, लेकिन अगले जन्म में तुम्हें मेरे दर्शन जरूर होंगे,और अब मैं भगवान की भक्ति और कृपा के कारण नारद हूँ।
मैं भगवान की कृपा से वैकुण्ठादि में और तीनों लोकों में बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करता हूँ,मेरे जीवन का व्रत भगवद्भजन अखण्ड रूप से चलता रहता है ।
मुझे भगवान ने एक वीणा दी है,जिसमे मैं सिर्फ भगवान की लीलाओं का गुणगान करता हूँ--
           "देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम्।
            मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम्॥"

भगवान की दी हुई इस स्वर ब्रह्म से विभूषित वीणा पर तान छेड़कर मैं उनकी लीलाओं का गान करता हुआ सारे संसार में विचरता हूँ,जब मैं उनकी लीलाओं का गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु,जिनके चरण कमल समस्त तीर्थों के उद्गम स्थान हैं और जिनका यशोगान मुझे बहुत ही प्रिय लगता है, बुलाये हुए की भाँति तुरन्त मेरे हृदय में आकर दर्शन दे देते हैं।
जिन लोगों का चित्त निरन्तर विषय भोगों की कामना से आतुर हो रहा है, उनके लिये भगवान की लीलाओं का कीर्तन संसार सागर से पार जाने का जहाज है, यह मेरा अपना अनुभव है।
व्यासजी! आप निष्पाप हैं, आपने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब अपने जन्म और साधना का रहस्य तथा आपकी आत्मतुष्टि का उपाय मैंने बतला दिया,आप श्रीमद भागवत ग्रन्थ का निर्माण कीजिये, इस प्रकार नारद जी ने अपना पुर्जन्म सुनाया और व्यास जी का असंतोष दूर किया। 
व्यास जी ने श्रीमदभागवत पुराण का निर्माण किया।

योग ( हनुमंत शक्ति के सन्दर्भ में )

     योग के साधक इस बात को याद रखें कि उद्देश्यहीन यौगिक क्रियाएँ पतन का मार्ग हैं। योग मार्ग पर चल कर आप अनेकों प्रकार की साधनाएँ, सिद्धियाँ और दुर्लभ शक्तियाँ प्राप्त कर लेगे। योग मार्ग आपको स्वस्थ एवं दीर्घायु जीवन भी प्रदान कर देगा। आपकी युवावस्था अन्य व्यक्तियों की तुलना में चार गुना बढ़ जायेगी। एक योग का साधक व्यक्ति अगर अपनी क्षमताओं को भोग के लिये इस्तेमाल करेगा तो फिर अंत अत्यंत ही भयावह होगा। साधक अगर सब क्षमताओं को प्राप्त कर एकांतवास करता है, तो कहीं न कहीं वह सत्य से भाग रहा है। एक कहावत है "जंगल में मोर नाचा किसने देखा" अधिकांशतः सिद्ध साधकों द्वारा इस कहावत को आत्मसात् कर देने के कारण ही समाज में अध्यात्म के प्रति संशय की स्थिति निर्मित होती है। 
           जन साधारण साधनाओं और सिद्धियों के पथ से विमुख होते हैं क्यों ? उनके सामने जो व्यक्तित्व बचते हैं वे अध्यात्म का प्रारंभिक ज्ञान भी नही रखते और तो और उनके अधकचरे प्रदर्शन से जन साधारण के बीच सिद्धियों का ह्रास होता है। हनुमान को आठ सिद्धियाँ एवं नौ निधियाँ प्राप्त हैं उनका शरीर अखण्ड ब्रह्मचर्य की दिव्य एवं पवित्र मंगलमूर्ति है। बल, बुद्धि, विद्या एवं प्रेम का अद्भुत समिश्रण है हनुमान का चरित्र । योग के साधकों को हनुमान के समान ही चरित्रवान बनना चाहिये और उन्हीं के समान अपनी साधनाओं, शक्ति और सिद्धियों से कल्याणकारी कार्यों को संपन्न करना चाहिये। हनुमान रक्षक देव हैं अतः जब तक अध्यात्म के साधक समाज की हर प्रकार की बुराईयों से रक्षा नहीं करेंगे अध्यात्म जन साधारण मे लोकप्रिय नहीं हो पायेगा। हनुमान भगवान श्री राम के द्वारा स्थापित मर्यादित आर्य संस्कृति के ही अंश हैं। उन्होंने श्री राम के साथ इस पृथ्वी को मर्यादा का पाठ पढ़ाया है। 
           रोग, क्लेश, कुविचार, हिंसा, भ्रष्टाचार, महामारियाँ, विपत्तियाँ, मद्यपान, नाना प्रकार के कुकर्म एवं प्राकृतिक प्रकोप अमर्यादित व्यवस्थाओं के कारण ही उत्पन्न होते हैं। जब तक मन, शरीर, विचार और इन्द्रियाँ मर्यादित नहीं होगी शरीर का रक्षा कवच पूर्ण नहीं हो पाता है। योग मर्यादा का ही दूसरा नाम है। मर्यादित व्यक्तित्व ही कायरता का परित्याग कर वास्तविक वीर बन सकता है। ऐसे ही व्यक्तियों से परिवार, समाज और राष्ट्र की वास्तविक रक्षा संभव है। योग केवल आत्मकल्याण का विषय नहीं है। जब हम समाज, परिवार, राष्ट्र एवं विश्व और ब्रह्माण्ड से ही सब कुछ ग्रहण करते है तो फिर इन्हें भी रक्षा और मर्यादित व्यवहार प्रदान करना हमारा प्रमुख धर्म है। हम अपने शरीर की पवित्रता एवं बल तभी तक बना सकते है जब हम पंचभूतों के निरंतर सानिध्य में रहें। 
         जल में तैरना, पहाड़ी पर भ्रमण करना, शुद्ध वायु के लिये वनों में जाना, खुली धूप में घूमना एक योग के साधक के लिये नितांत आवश्यक है इन सब से शरीर का पवित्रिकरण अति तीव्र हो जाता है। योग मात्र बंद कमरे की प्रक्रिया नहीं है यह तो मनुष्य को इस पृथ्वी पर स्वस्थ एवं गतिशील बनाए रखने की विद्या है। योग का साधक भोजन भी अत्यन्त प्रेम से करता है और उसे अच्छी तरह पचाने की भी क्षमता रखता है। आपने अनेकों ऐसे लोगों को देखा होगा कि वे प्रतिदिन उच्चतम भोजन करते हैं फिर भी शरीर पूर्ण विकसित नहीं होता और न ही चेहरे पर तेज होता है। थोड़ा सा भी मौसम के परिवर्तन होने की स्थिति में वे खाट पकड़ लेते हैं, परंतु योग का साधक अल्प भोजन से भी समग्रता के साथ सभी तत्व ग्रहण करता है और जीवन में आने वाले परिवर्तनों में वह अपरिवर्तनीय रहता है।

हनुमान- आसन

          एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न बार-बार उठता है कि ब्रह्मचर्य क्या है ? सामान्य व्यक्ति इसका मतलब सिर्फ काम क्रिया को रोकने से सम्बन्धित समझते हैं परन्तु वास्तव में काम क्रिया तो मात्र मस्तिष्क में उठ रहे काम संवेगों का परिणाम है। अगर मस्तिष्क में काम संवेग निरन्तर निर्मित हो रहे हों और व्यक्ति काम क्रिया को रोक दे तो सिर्फ दो ही बातें हो पायेंगी। नंबर एक मस्तिष्क के अंदर प्रचण्ड रूप से ऊर्जा एकत्रित हो जायेगी और व्यक्ति अपना सामान्य संतुलन खो बैठेगा या फिर वह कुछ समय पश्चात् पथभ्रष्ट होकर अनैतिक कार्य कर बैठेगा। अतः ब्रह्मचर्य से तात्पर्य है कि सर्वप्रथम काम सम्बन्धित ऊर्जा के सम्पूर्ण आयामों को समझा जाये और फिर उसके पश्चात इस ऊर्जा हो हम किस तरह से रचनात्मक एवं अन्य किसी दिशा में परिवर्तित कर पाते हैं। बिना परिवर्तन किये काम ऊर्जा को रोकना अत्यंत ही घातक एवं मूर्खता है।

          सवाल उठता है कि परिवर्तन कैसे किया जाय और कौन परिवर्तन करेगा। बस इसी बिंदु पर साधक को एक योग्य सदगुरु एवं ईश्वरीय कृपा की परम आवश्यकता पड़ती है। कुण्डलिनी शक्ति एवं काम ऊर्जा दोनों का आपस में बहुत ही गहरा एवं परस्पर सम्बन्ध है। आंतरिक रूप से कामेच्छा जब तक पूरी तरह परिवर्तित नहीं होती तब तक कुण्डलिनी जागरण की बात करना बेमतलब है। जिस बिंदु पर कामेच्छा से साधक निवृत्त होता है वहीं पर अध्यात्म की वास्तविक डगर शुरू होती है इससे पहले की सभी अवस्थाऐं मात्र आगे बढ़ने की तैयारी होती हैं। ब्रह्मचर्य के बारे में ये बातें नितांत रूप से इसलिए आवश्यक थी क्योंकि रामभक्त हनुमान पूर्ण रूप से बाल ब्रह्मचारी थे और जीवन पर्यन्त उन्हें कभी किसी भी प्रकार का वासना मय प्रेम लिप्त नहीं कर पाया। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में एक विशेष भिन्नता लिए हुए है अत: किसी की किसी से तुलना करना बेमानी है। कोई भी एक नियम सभी व्यक्तियों पर लागू नहीं होता है। ब्रह्मचर्य की बात करते समय भी हमें यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि काम ऊर्जा का सीधा सम्बन्ध हमारे अस्तित्व से है एवं एक जैविक रचना होने के नाते कोई भी इस ऊर्जा से मुक्त नहीं है परन्तु लम्बे समय से हठयोग के मार्ग पर चलते-चलते एक समय ऐसा आ जाता है कि आंतरिक रूप से बिना किसी दबाव या महत्वकांक्षा के यह रासायनिक क्रिया स्वयं ही सुप्त हो जाती है और ब्रह्मचर्य हमारे हाव-भाव, आचार-व्यवहार एवं दृष्टि में आ जाता है।

विधि -

         सर्वप्रथम सावधान की मुद्रा में खड़े हो जायें, इसके पश्चात् धीरे-धीरे दोनों टांगों को विपरीत दिशा में फैलायें । दोनो टांगों के बीच तीन फिट की दूरी स्थापित करें। लगभग पाँच सेकेण्ड तक रुकें और फिर दूरी को बढ़ाकर पांच से छ: फिट कर दें और पुन: पांच सेकेण्ड तक रुकें। ऐसा करते समय पांव के पंजे भूमि से सटे हुए हों एवं घुटने से पांव मुड़ने न पायें | इसके पश्चात् दाहिने पंजे को 90 अंश पर घुमा लें और धड़ को दाहिनी तरफ घुमाते हुए दोनों हाथों की हथेलियों को भूमि से लगा लें। इसके पश्चात् बायें पैर को इस तरीके से घुमायें रखता है। कि पंजे का आपरी हिस्सा भूमि से स्पर्श करने लगे। आसन की पूर्ण स्थिति में दोनों टांगों को एवं नितम्बों को भूमि से सटा दें। इसके पश्चात् दोनों हाथों को छाती के सामने सटाते हुए प्रणाम की मुद्रा में स्थापित कीजिए ।

           लगभग दस सेकेण्ड तक इस स्थिति में रुकें फिर धीरे धीरे सामान्य अवस्था में वापस आ जायें। इसके पश्चात् पांव की दिशा बदलते हुए पुन: एक बार इस क्रिया को सम्पन्न करें। उपरोक्त आसन में कमर से ऊपर का हिस्सा आसन करते वक्त सीधा रखना है।

लाभ

    यह आसन खिलाड़ियों विशेषकर धावकों के लिए अत्यंत ही लाभदायक है। इस आसन को करने से पांव स्फूर्तिवान बनते हैं एवं उनमें चपलता बढ़ जाती है। विशेषकर लंबी कूद एवं धावकों के लिए यह आसन बहुत ही लाभदायक है। फुटबाल खेलने वाले इस आसन को अवश्य ही करते हैं जिसके कारण वे मंदिर शिरा की अकड़न एवं छोटी-छोटी मोचों से बचे रहते हैं।
           रामभक्त हनुमान को वायु पुत्र भी कहा जाता है अतः इस आसन को करने से व्यक्ति अपने आपको शारीरिक रूप से हल्का महसूस करता है एवं उसके अंदर तैरने, हवाईजहाज से छलांग लगाने, कूदने की क्षमता का विकास होता है। इस आसन को नियमित रूप से करने वाले व्यक्ति को परम शांति का अनुभव होता है एवं उसके अंदर विकट परिस्थितियों में भी मानसिक संतुलन बनाये रखने की क्षमता का विकास होता है। जिमनास्टिक से सम्बन्धित अभ्यासी इस आसन का अत्यधिक लाभ उठा सकते हैं। सम्पूर्ण टांगों को सुडौल बनाने के लिए यह सर्वश्रेष्ठ आसन है। इसके साथ ही यह आसन उदर शक्ति का विकास करता है, मल एवं मूत्र निकास की क्रिया को सुलभ बनाता है और गृहस्थों में काम शक्ति को लम्बे समय तक बनाये रखता हैं।
                   शिव शासनत: शिव शासनत: