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पुनर्जन्म रहस्यम् ।।


            आदि गुरु शंकराचार्य जी ने कहा है
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥
अर्थात फिर से जन्म, फिर से मरण और पुनः माता के गर्भ में शयन । इस संसार में कष्ट ही कष्ट हैं। समस्याऐं ही समस्याऐं हैं। हे प्रभु! आप मुझे इस चक्र से मुक्त कीजिए। पृथ्वी पर जन्म लेना ही अत्यधिक कष्टप्रद है। संसारी व्यक्तियों के लिए जन्म केवल माता के गर्भ से बाहर आने पर ही माना जाता है मृत्यु शरीर त्यागने को माना जाता है यह तो एक महाचक्र की कुछ कड़ियाँ हैं। सांसारिक दृष्टिकोण अत्यंत ही सीमित होता है। माता के गर्भ में जीवन के स्पंदन से पहले अनंत कड़ियाँ हैं और मृत्यु के पश्चात् भी अनंत स्थितियाँ हैं। अतः समग्रता के साथ पुनर्जन्म को समझना है, स्वयं की खोज करना है तो सभी कड़ियों को समझना पड़ेगा। उसी के हिसाब से चिंतन को ढालना होगा, कर्मों को सम्पादित करना होगा तब कहीं जाकर हमारे जन्म लेने की वास्तविकता से हम परिचित हो सकेंगे।

            पुनर्जन्म विज्ञान महाविज्ञान है। इसको समझे बिना, इसको परखे बिना हम सामान्य व्यक्ति की श्रेणी से ऊपर नहीं उठ सकते। अध्यात्म की तो बात करना भी मुश्किल है। अतः सभी ऋषियों ने ज्ञानियों ने एवं इस पृथ्वी के सभी धर्मों ने किसी न किसी रूप में पुनर्जन्म की महत्ता स्वीकार की है। विशेषकर इस पृथ्वी के सबसे शाश्वत् एवं मूल वैदिक धर्म ने तो इसकी विस्तृत व्याख्या की है। केवल चर्वाक दर्शन ही सनातन धर्म में एक ऐसा दर्शन हुआ है जिसने कि पुनर्जन्म की व्याख्या नहीं की है। इस कलियुग में अधिकांशतः देशों में चर्वाक दर्शन की निष्कृष्टता के कारण ही मनुष्य अत्यंत भोगी हो गया है। चर्वाक का तो कथन है कि
यावज्जीवं सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबे।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥

          अर्थात घर में घी न हो तो उधार लेकर पियो। जितना हो सके मौज करो, जितना हो सके भोग करो। जो दिल चाहे वह स्वच्छंदतापूर्वक करो। सिर्फ अपने बारे में सोचो। स्वयं स्वार्थ सिद्धि करो एवं सभी रिश्तों को एक ताक पर रख दो जीवन का उद्देश्य भोग एवं केवल भोग है।

          यह है चर्वाक दर्शन जो कि द्वापर में युधिष्ठिर के समक्ष चर्वाक ने रखा था। उस युग के अनुसार इन्हें जीवित चिता पर जला दिया गया था। वह प्रभु श्रीकृष्ण का युग था अधर्म के सम्पूर्ण नाश का युग था। उस युग में सभी अधर्मियों का युधिष्ठिर के नेतृत्व में प्रभु श्रीकृष्ण के द्वारा सर्वनाश हुआ था। चर्वाक का भी सर्वनाश हुआ। इसके पश्चात आज भी अनंत लोग इस पृथ्वी पर चर्वाक के सिद्धांत का अनुसरण जाने अनजाने में करते ही हैं। अंत क्या होता है? यह सबको मालुम है। भोगियों का अंत अत्यंत ही हृदय विदारक होता है। चर्वाक ने वास्तव में जो परम्परा स्थापित करने की कोशिश की उसका दण्ड तो उसे उसके जीवन में मिल ही गया। प्रभु श्रीकृष्ण ने यह दिखा दिया कि जो भी व्यक्ति चर्वाक के सिद्धांतों पर चलेगा उसका अंत उसके तथाकथित गुरु चर्वाक के समान ही होगा।

        इसीलिए इस पृथ्वी पर रुदन है शोक है, धोखा है, रोग है, क्योंकि यह सब चर्वाक सिद्धान्त के फल हैं। कर्म के सार्वभौमिक सिद्धान्त को झुठलाने की प्रक्रिया ही चर्वाक सिद्धान्त है। चर्वाक को समझना अत्यधिक आवश्यक था अन्यथा पुनर्जन्म की व्याख्या संभव नहीं है। जिनके मस्तिष्क में चर्वाक घुसा हुआ हो वे पुर्नजन्म की बात न करें तो अच्छा है। चर्वाक रूपी मस्तिष्क ही इस संसार की समस्त वेदनाओं और समस्याओं की जड़ है। आजकल लोग कहते हैं कि साधु संतों की अत्यधिक भीड़ हो गई है। इसमें क्या बुराई है, यह क्यों हुआ ? इसे आपको समझना होगा। लोगों के दृष्टिकोण अत्यधिक सांसारिक हो गये हैं। इन्द्रियों की गहराई कम हो गई है। इन्द्रियाँ सिकुड़ एवं संकीर्ण हो गई हैं। लोच का हर जगह अभाव मिल रहा है। यंत्रवत जीवन शैली ही हर तरफ दिखाई पड़ती है। साधु संतों में प्रज्ञा का विकास सामान्य लोगों की अपेक्षा अधिक होता है। इसीलिए वे सत्य को अधिकतम सीमा तक पहचानते हैं। मनुष्य के अंदर समझने की शक्ति है। समझने की शक्ति ही ज्ञान प्राप्ति में अत्यधिक सहायक है। जैसे-जैसे समझने की शक्ति विस्तृत एवं सूक्ष्म से सूक्ष्म होती जाती है वैसे- वैसे मनुष्य गूढ़ ज्ञान, गुह्य ज्ञान, तत्व् ज्ञान, महाज्ञान एवं दिव्य ज्ञान और अंत में ब्रह्म ज्ञान की आवृत्तियों में प्रवेश करता जाता है।

         ज्ञान प्राप्ति के अभाव में मुक्ति असम्भव है। साधु-संत अपनी स्थितिनुसार विभिन्न माध्यमों से ज्ञान को सामान्य जनों के सामने उपस्थित करते हैं। मानना न मानना अलग बात है। यह भी ईश्वर का एक विधान है।

जिस प्रकार बरसात से पहले आकाश अचानक मेघमय हो जाता है और समझदार प्राणी अपने आपको सुरक्षित जगहों पर छिपा लेते हैं उसी प्रकार ईश्वर भी ज्ञानी पुरुषों के माध्यम से चेतावनी प्रकट करता है। आपके माता पिता आपको समझाते हैं कि आप पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दो,व्यापार व्यवसाय पर ध्यान दो आप नहीं मानते हैं तो फिर उसका नतीजा भुगतते हैं। नतीजा भोगने वाले भी एक प्रकार से जीते जागते उदाहरण हैं सभी जनमानस के लिए जो कि ईश्वर द्वारा रचित परम सूक्ष्म कर्म व्यवस्था का पालन नहीं करते हैं। चोरी करना महापाप है सभी को मालुम है फिर भी लोग चोरी करते हैं। उन्हें राज्य की तरफ से दण्ड मिलता है वे जीते जागते उदाहरण बन जाते हैं अन्य लोगों के लिए।

          निरपेक्ष भाव से देखें तो इस संसार में दो स्थितियां सामने उभर कर आती हैं। प्रथम जिसमें ईश्वर एक ऐसी व्यवस्था निर्मित करता है जो कि सृष्टि संचालन के लिए अत्यधिक उपयुक्त हो। दूसरी तरफ ईश्वर मनुष्य के साथ-साथ प्रत्येक प्राणी को उसके कर्म सम्पादित करने के लिए एक विस्तृत सीमा तक छूट भी देता है। मनुष्य को पूर्ण स्वतन्त्रता है कर्म सम्पादित करने के लिए। सभी को मालुम है कि भोगवाद उचित नहीं है फिर भी इस पृथ्वी पर ईश्वर ने भोगवादी संस्कृति की भी पूरी छूट दे रखी है। यह प्रमाणीकरण का सबसे उपयुक्त तरीका है। भोग करके भी देख लो। अति में भी भोग करके देख लो। पाश्चात्य मुल्कों में भोग की इतनी अति भी निर्मित कर दी गई है कि वह परम विकृति के अंतिम बिन्दु तक पहुंच गई है।वहां पर भी पहुँचकर मनुष्य को संतुष्टि प्राप्त नहीं होती। यही ईश्वर की मार है। उसकी लाठी जब चलती है। तो दिखाई भी नहीं देती है और न ही आवाज होती है फिर भी चोट तगड़ी लगती है।

         पुनर्जन्म की व्याख्या से पहले वर्तमान की भोग व्याख्या अत्यधिक आवश्यक थी।अब बात करते हैं पुनर्जन्म के कुछ अंतरंग पहलुओं की । पूर्वजन्म क्या है? कुछ भी नहीं सिर्फ जो वर्तमान चल रहा है बस उसी का भूतकाल। वर्तमान की प्राप्ति पूर्वजन्म आधारित है। सामान्य मनुष्य से ऊपर उठने की जैसे ही हम कोशिश करते हैं हमें तुरंत ही पूर्वजन्म की स्थितियों को जानना होगा। वर्तमान का विशेषण ही पूर्वजन्म की व्याख्या है। एक व्यक्ति जैसे अध्यात्म की तरफ बढ़ता है, स्वयं का निरीक्षण शुरू करता है, ध्यानस्थ होने के लिए बैठता है तो उसे क्रोध आने लगता है। कभी-कभी आँखों से आँसू भी आ जाते हैं, बचपन की यादें ताजा हो उठती हैं,उसे अपना अपमान याद आने लगता है। वह घबरा उठता है और तुंरत ही ध्यान से उठकर भागने लगता है। भागने से क्या होगा?अभी तो इसी शरीर से सम्पन्न किए गये कर्मों के अवशेष बाकी हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति निरपेक्ष भाव से अपने मानस पर जमी धूल साफ करता जायेगा उसे अपना पूर्वजन्म दिखलाई पड़ने लगेगा।पूर्व जन्म कुछ भी नहीं है बस सिर्फ कर्मों की श्रंखला है।

         कर्मों से मुक्ति किसी को भी नहीं है। कर्म सभी को सभी योनियों में, सभी लोकों में सम्पन्न करने पड़ते हैं। देवलोक में भी कर्म हैं, नर्क में भी कर्म हैं। श्रंखला सम्पन्न करने के लिए ही आत्मा को शरीर धारण करना पड़ता है। सूर्य के प्रकाश से भोजन बनाने के लिए वृक्ष योनि में ही जाना पड़ेगा। नृत्य कर्म सम्पादित करने के लिए नर्तकी ही बनना पड़ेगा। दिव्य भोगों को भोगने के लिए स्वर्ग लोक में जाकर स्वर्गानुसार दिव्य देह ही धारण करती होगी। जैसा लोक होगा उसी के अनुसार देह की प्राप्ति होगी और उस लोक में लोकानुसार कर्मों को ही सम्पादित करना होगा। स्वर्ग में संतानोत्पत्ति नहीं की जाती।देव लोक में असुरी कर्म सम्पादित नहीं कर सकते।पितृलोक में रहकर अपने वंशजो द्वारा प्रदत्त तर्पण और श्राद्ध रूपी भोजन से ही स्वयं को तृप्त करना पड़ेगा। पूजन का दशांश प्रभु ने केवल देवताओं के लिए ही निश्चित किया है। यज्ञानुष्ठान की आहुतियां केवल देवता ही ग्रहण कर सकते हैं। यही तो मूल कारण है देवताओं और असुरों के बीच युद्ध का।

           देवता और असुर दोनों एक ही पिता से उत्पन्न हुए हैं परन्तु प्रजापति ने असुरों को दिव्यनुष्ठानों एवं पूजन इत्यादि के दशांश से वंचित कर दिया और इसी कारण से असुर शक्तियाँ देवताओं पर कुपित हो उठीं। अनंत काल से बस यही बात युद्ध का कारण बनी हुई है। यही है पुनर्जन्म का मूल कर्म सिद्धान्त इसी कर्म सिद्धान्त की प्रभु श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवत गीता में व्याख्या की है।असुर अपना कर्म सम्पन्न करेंगे, देवता अपना कर्म एवं परम परमेश्वर को भी अपना कर्म सम्पादित करना पड़ता है। जितनी भी दिव्य महा शक्तियां हैं वे सबकी सब अपने मूल कर्मों के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं। महादेव भी प्रतिबद्ध है वरदान देने के लिए, विष्णु भी प्रतिबद्ध है ब्रह्माण्ड के पालन के लिए एवं दुष्टों के दलन के लिए ब्रह्मा भी प्रतिबद्ध हैं सृष्टि की रचना के लिए।

         जब भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि जब-जब इस पृथ्वी पर अधर्म बढ़ेगा मुझे देह धारण करनी ही पड़ेगी। जैसे ही मुझे देह धारण करनी पड़ेगी हे पार्थ। तुझे भी देह धारण करनी ही पड़ेगी। जब- जब मैं इस पृथ्वी पर आऊंगा तुझे भी पृथ्वी पर आना ही पड़ेगा। यह तो निश्चित ही है। अतः तू मुझे पहचान। आगे प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं मैं इस पृथ्वी पर अनेकों बार आया हूँ। तू भी अनेकों बार आया है। तू अपने जन्मों को भूल गया है परन्तु मैं कुछ भी नहीं भूला हूँ। वृक्ष से निकला हुआ नया बीज पुनः पृथ्वी पर नये वृक्ष की रचना कर देता है। वृक्ष में लगे नये पत्ते सोचें कि अगर वे पहली बार उगे हैं तो यह मूर्खता है। अनंतकाल से हर वृक्ष में पत्ते होते हैं। हमारी आकाश गंगा रूपी महावृक्ष से पुनः बीज रूपी जीवन ब्रह्माण्ड में कहीं एक और समान आकाश गंगा उदित कर देगा। बीज सभी के होते हैं। उस आकाश गंगा में भी ठीक इस आकाश गंगा के समान ही सूर्य, चंद्र, ब्रहस्पति, शुक्र इत्यादि जैसे ग्रह नक्षत्रिकाएं अनेकों उपग्रह एवं असंख्य तारागण समूह होंगे। आकाश गंगाओं के भी बीज होते हैं। यही है महाज्ञान यही है ब्रह्मज्ञान । श्रंखलाबद्ध जीवन।

            रामानुजाचार्य के गुरु ब्रह्मज्ञानी थे। मृत्यु के समय जैसे ही उनका प्रिय शिष्य रामानुजाचार्य उनके नजदीक पहुँचा वह देखता है कि गुरु की तीन उँगलियां उठी हुई हैं वह तुरंत ही समझ गये कि गुरु के तीन कार्य अधूरे रह गये हैं। उन्होंने तुरंत ही शपथ ली कि मैं अपने जीवन में ब्रह्मसूत्र, महाज्ञान प्रबंधन एवं वेदान्त दर्शन पर तीन टीकाएं अवश्य लिखूंगा। गुरु अपने अधूरे कार्यों की श्रंखला शिष्य को प्रदान करके चले गये। वैदिक दर्शन पूरी तरह से पुनर्जन्म आधारित है। इस दर्शन की एक एक श्रृंखला में पूर्वजन्म के कर्मों को सम्पादित करने की पूरी व्यवस्था है। वेदान्त दर्शन से भागने में क्या होगा ? जिस दिन मनुष्य भागने में सक्षम हो जायेगा पलायन का सिद्धान्त सफल हो जायेगा और उस दिन ईश्वर का मूल्य ही क्या रह जायेगा। ईश्वर की तो छोड़िये अगर स्थूल कर्मों का सिद्धान्त ही खण्डित हो जाये तो फिर सभी भगवान हो जायेंगे। जब सभी भगवान हो जायेंगे तो फिर भगवान को कौन पूजेगा। सभी भगवान नहीं हो सकते। सभी मनुष्य नहीं हो सकते, सभी देवता भी नहीं हो सकते एवं सभी असुर, पशु या वृक्ष भी नहीं हो सकते। यही तो विशेषता है ईश्वर की।

             एक पेड़ से कई बीज गिरते हैं और कई वृक्ष उगते हैं। सभी के कर्म समान होते हैं और आम के सभी वृक्षों में से आम ही उँगेंगे। यह है देह धारण करने का सिद्धान्त । आपका गोत्र भारद्वाज है तो फिर आपके आदि ऋषि भारद्वाज की चेतनानुसार ही आप देह धारण करेंगे। आप अगर क्षत्रिय कुल में पैदा हुए हैं तो फिर क्षत्रियोचित्त कर्म आपकी जीवन शैली में निश्चित ही दिखाई पड़ेगें। इन कर्मों , को आपको सम्पादित करना ही पड़ेगा। इनसे आप भाग नहीं पायेंगे। कुछ दिन भागने के पश्चात् गड़बड़ होना शुरू हो जायेगी। आपको अपने कर्मों पर पुनः लौटना पड़ेगा। एक जगह राम लीला चल रही थी। रावण जोर से अट्टाहास कर रहा था, सीता हाय राम हाय राम कह विलाप कर रही थी। राम लक्ष्मण और हनुमान रावण से युद्ध कर रहे थे। जनता जनार्दन भावावेश में चिल्ला रही थी। तत्पश्चात् पर्दा गिरता है कुछ लोग पीछे जाकर देखते हैं कि ड्रेसिंग रूम में सीता रावण के पास खड़ी मुस्कुरा रही है। राम और लक्ष्मण हँस-हँस कर रावण से बात कर रहे हैं और हनुमान जी सबको चाय पिला रहें हैं।

           आपके मस्तिष्क में इतनी ताकत होनी चाहिए कि आप राम लीला के पात्रों के इस दृश्य को पचा सकें। अगर इनको भी नहीं पचा पाओगे तो फिर ईश्वर की परम लीला के पीछे के दृश्यों को क्या पचाओगे। जीवन के रंगमंच पर नाटक तो करने ही पड़ते हैं। अभिनय तो जीवन का हिस्सा है। वर्तमान जीवन पूर्वजन्म के कर्मों को अभिनीत करने का अच्छा रंग मंच है। कर्म कष्ट, प्रायश्चितों और पापों को वर्तमान जीवन में ही धोया जा सकता है, काटा जा सकता है। इसके साथ ही वर्तमान के कर्मों को इस प्रकार से सम्पन्न किया जा सकता है कि आने वाला जीवन या जन्म हमारी इच्छानुसार ही प्राप्त हो। यही विधान है उचित लोक, उचित योनि एवं उचित भोग को प्राप्त करने का। जब तक पूर्व जन्मकृत कर्मों का सम्पादन नहीं होगा, पूर्व जन्मकृत ऋणों का भुगतान नहीं होगा तब तक स्वतंत्र और इच्छानुसार योनि प्राप्ति असम्भव है।

         कष्ट, समस्यायें तो सिर्फ परिणाम हैं, भुगतान हैं हमारे पूर्व जन्मकृत कर्मों का। जैसे ही हम सूक्ष्मतम दृष्टिकोण अपनायेंगे हमें हमारी जिम्मेदारियां, हमारे वायदे, हमारे अधूरे कार्य एक-एक कर दिखाई पड़ते जायेंगे। जिन्हे हमने कभी किसी जीवन में अपूर्ण स्थिति में छोड़ दिया था। यही कर्म हमें पूरा करने के लिए बार-बार बाध्य करते हैं। ईश्वर एक पर्दा डालकर रखता है।

           एक कथा सुनाता हूँ। एक बार एक साधु हुए उनके पास अनेकों भक्त गण मिलने आते और सभी अपनी श्रद्धानुसार कुछ न कुछ उनको अर्पित करके जाते। सेठ जी भी उनके अनुयायी थे । वे भी भक्तिभाव से उन्हें कुछ न कुछ अर्पित करते रहते थे। धीरे-धीरे साधु महराज के पास एक लाख रुपया इकट्ठा हो गया। साधु महाराज कहाँ रखते पैसे को उन्होंने अपने विश्वसनीय शिष्य रूपी सेठ को एक लाख रुपये रखने को दे दिए। कालान्तर साधु ने मंदिर बनवाने के लिए सेठ से जब पैसे माँगे तो सेठ की नियत बदल गई। उसने मना कर दिया तुरंत ही साधु की हृदयघात से मृत्यु हो गई। कुछ समय पश्चात् सेठ जी के घर एक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह पुत्र बाल्यावस्था से ही अत्यधिक खर्चीला था। प्रतिदिन सेठ के पैसे उनकी मर्जी के खिलाफ खर्च करता रहता था। जब वह 15 वर्ष का हुआ तो उसने अपने जन्म दिवस पर एक अभूतपूर्व समारोह किया और भरपूर पैसा खर्च किया। समारोह के पश्चात् रात्रि को वह पान खाने गया । जैसे ही उसने पान खाकर पैसा दिया उसकी मृत्यु हो गई इकलौता पुत्र और वह भी युवा, सेठजी पर तो मानो वज्रघात हो गया। कुछ दिन बाद मुनीम ने सेठ जी के सामने हिसाब रखा तो उसमें ठीक एक लाख रुपये उनके पुत्र द्वारा फिजूल खर्च में उड़ाये गये थे। पान की कीमत के पूरा होते ही एक लाख रुपये की फिजूल खर्ची हो गई थी। अचानक सेठ जी को अपने पापकर्म याद आ गये और उनकी मृत्यु भी हृदयघात से हो गई। इसे कहते हैं लेखा जोखा वह भी पूर्व जन्मों का। 

           अगर आप किसी को एक बार अपशब्द भी कहते हैं तो उसका भी लेखा जोखा होता है। वह आपके पक्ष में जाता है या विपक्ष मे यह बात तो लेखा जोख पूर्ण होने पर ही मालुम पड़ेगी पुरन्तु प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म कर्म की भी गणना निश्चित होती है और गणना का परिणाम ही आपके जन्म का कारण या फल बनता है। फल भी कौन देगा यह भी ईश्वर निश्चित करता है। नौकरी तो सभी करते हैं परन्तु तनख्वाह देने वाला मालिक कैसा है वह भी ईश्वर निश्चित कर देता है। स्थूल वेतन के साथ तनाव या सम्मान या संतुष्टि भी प्राप्त होती है। फल एकांगी नहीं होता है। शरीर एकांगी नहीं है। स्थूल देह में लिंग शरीर भी है, अधि भौतिक शरीर भी है, आत्मा भी है। इन सबका भी वेतन अलग-अलग है। प्रत्येक कोष का फल अलग होता है। यह सब भी लेखा जोखा की वृहद व्याख्या के अन्तर्गत आता है। तनख्वाह में प्राप्त होने वाले या व्यापार में प्राप्त होने वाले उस हजार रुपये के साथ-साथ कहीं तनाव मानस को तो नहीं मिल रहा है। अपमान या अपराध बोध से हृदय शक्ति तो कुण्ठित नहीं हो रही है। जिसे हम फल समझ रहें हैं वह कहीं आटे के बीच रखी हुई चूहे मार दवाई के समान विष तो नहीं है यही हमें समझना होगा। 

             कर्मों का सिद्धान्त बड़ा सीधा है। आप किसी को पकड़कर उससे पैसे छिना लीजिए। पैसे आपके पास आ गये। यह तो हुआ कर्म का प्रथम परिणाम अब इस कर्म की द्वितीय आवृत्ति में आपको भय भी मिलेगा, तृतीय आवृत्ति में आपको दण्ड भी भोगना पड़ेगा, चतुर्थ आवृत्ति में पाप का उदय होगा, पंचम आवृत्ति में आपकी छवि कलुषित होगी, छठवीं आवृत्ति में आपकी आत्मशक्ति कमजोर होगी। इस प्रकार से अनंत स्थितियां बनेगी प्रत्येक धरातल पर एवं आपको भिन्न-भिन्न परिणाम प्राप्त होंगे। अंत में आत्मा की स्थिति आयेगी और इस पर अंकित परिणाम मृत्यु के पश्चात् आपको योनि प्रदान करने या लोक प्रदान करने में मदद 'करेगा। तीन तरह की योनियां हैं प्रथम योनि में भोगी जीव आते हैं। जैसा मर्जी चाहे वैसा करते रहो अज्ञानियों के समान, जो योनि मिल जाये ठीक है, पशु बने, वृक्ष बने,नरक में जायें, अधबने हमें क्या करना है ? हमें तो चर्वाक की नीति पर चलना है। दूसरी स्थिति ज्ञानमार्ग की है। यह अतिश्रेष्ठ स्थिति है। इसमें जीव एक-एक करके ज्ञान की आवृत्तियों को समझता हुआ अंत में ब्रह्म सूत्रों को भी समझ जाता है और फिर एकनिष्ठ हो उसके प्राण ब्रह्म में स्थित हो जाते हैं। वह कामनाओं से मुक्त हो जाता है।वह कर्मों को समात कर लेता है। यह निर्बीज स्थिति है। सत्य का मार्ग है।इसमें उसे किसी सहारे की जरूरत ही है न वह बुरा करता है न वह बुरा सहता है।वह जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।कम से कम एक कल्पांत तक के लिए तो अवश्य ही।

           तीसरी स्थिति सद्कर्मों की स्थिति है इसमें व्यक्ति या प्राणी ब्रह्मज्ञानी के समान पुनर्जन्म की सम्पूर्ण संरचना को समझ लेता है परन्तु वह अन्य लोकों में जाकर दिव्य भोगों के लिए सद्कर्म या श्रेष्ठ कर्मों की श्रृंखला को निरंतर सम्पादित करता रहता है।इसे कहते हैं सकाम पूजन।इस मार्ग पर चलने वाले संकल्पित कार्य करते हैं।उनमें संकल्प शक्ति अत्यधिक विकसित होती है।वे अपनी संकल्प शक्ति के सहारे मृत्यु पर्यन्त दिव्य देह धारण कर स्वर्ग लोक में जाकर दिव्यतम' भोगों को सम्पन्न करते हैं, अमृत पान करते हैं और पुनः पुण्य कर्मों के क्षय होने पर योग्यतानुसार इस पृथ्वी पर उच्च कुलों में प्रादुर्भाव लेते हैं। 

           स्वर्ग भी कई प्रकार के हैं। आनंद भी कई प्रकार के हैं। कुछ आनंदों की पूर्ति के लिए तो पृथ्वी लोक ही उपयुक्त है। अनेकों प्रकार के वैभवशाली भोग तो पृथ्वी लोक पर ही सम्पन्न किये जा सकते हैं। देना ईश्वर का कार्य है माँगना आपका कार्य है। जो मागोगे वह आपको मिलेगा। आप चाहते हों कि हमारे पास परम सुन्दरियाँ हों, भोग के लिए खूब पैसा हो तो ऐसा भी इस पृथ्वी पर मिल जाता है कोई बड़ी बात नहीं है। बस आप उस प्रकार के कर्म सम्पन्न कर लीजिए जिन्हे ईश्वर ने इन पारितोषिकों के लिए निमित्त ने कहा किया है। मुख्य रूप से संकल्प शक्ति ही मनुष्य को नव जीवन प्रदान करने का कारण है।

             प्रभु श्री कृष्ण है कि जो मृत्यु के समय मुझे भजता है वह मुझमें लीन हो जाता है और जो मृत्यु के समय जैसी आंकाक्षा रखता है, उसके भाव जैसे होते हैं उसका जन्म भी उसी प्रकार से होता है। अगर किसी व्यक्ति की हत्या होती है तो मृत्यु के समय उसके मन में बदले के भाव होते हैं। ईश्वर तुरंत ही उस व्यक्ति को हत्यारे के घर में या उसके आस-पास जन्म दे देगा और हत्या हुए व्यक्ति को पूरी छूट होगी अपने अपराधी से दण्ड वसूल करने की। अधिकांशत: मनुष्य मृत्यु पश्चात् स्वयं के कुल में ही जन्म लेते हैं। उनकी आत्मायें बहुत ज्यादा दूर नहीं जाती हैं। इसीलिए पूर्व जन्म की स्मृतियां विस्मृत कर दी जाती हैं। एक झीना सा आवरण डाल दिया जाता है। नहीं तो कर्म सम्पादित नहीं हो पायेंगे। 

          एक जन्म के रिश्ते तो हम निभ्रा नहीं पाते हैं पूर्व जन्म के रिश्ते हम क्या निभायेंगें। अगर हमें मालुम चल जाये कि सामने खड़े जिस व्यक्ति को हम दुत्कार रहें हैं वह पूर्व जन्म में हमारा पिता था या सामने खड़ी स्त्री जो कि हमें अकारण ही कष्ट दे रही है वह पूर्व जन्म में हमारी पत्नी थी तो फिर हम कर्म सम्पादित नहीं कर पायेंगे। कर्म बंधनों से हमारी मुक्ति नहीं हो पायेगी। फिर भी अध्यात्म के पथ पर चले साधकों को पूर्व जन्म तो अवश्य ही मालुम करना पड़ेगा। साक्षी भाव सब कुछ देखना पड़ेगा। तभी वह एक विलक्षण पुरुष बन पायेगा एवं निर्लिस भाव से सारी लीलाओं को झेल पायेगा। यह एक प्रकार से दूसरी दुनिया का निर्माण होगा सामान्य दुनिया से बिल्कुल भिन्न । एक नये व्यक्तित्व का उदय होगा ठीक बुद्ध के समान जब वे ज्ञान प्राप्त कर लौटे तो फिर पत्नी शिष्या हो गई और पुत्र भी शिष्य हो गया। कल तक जो पुत्र और पत्नी थे आज वे शिष्य हो गये। सब कुछ बदल गया। 

            ज्ञान प्राप्ति विशेष रूप से पुनर्जन्म ज्ञान नये व्यक्तित्व का उदय है। हम मूर्च्छित हैं। मूर्च्छित व्यक्ति क्या जाने रिश्तों को। मूर्च्छित व्यक्ति तो जड़ है। मूर्च्छा के विभिन्न तल हैं। कभी मानस मूर्च्छित होता है, कभी चेतना मूर्च्छित होती है। कभी हमारा बीता हुआ काल भी मूर्च्छित होता है। हमें उठना ही होगा लक्ष्मण के समान संजीवनी हमें सूंघनी ही होगी। नहीं तो राम रोते रहेंगे और लक्ष्मण मूर्च्छित भाव से पड़ा होगा। क्या कभी चैतन्य अवस्था मे लक्ष्मण राम को विलाप करते हुए देख सकता है कदापि नहीं। कभी-कभी तो आघात के कारण हम अपनी वर्तमान की स्मृति भी खो बैठते हैं। हम स्वयं को पहचानने से इन्कार कर देते हैं अपना नाम भूल जाते हैं। क्या मृत्यु एक आघात है? जो हमें हमारा पूर्व जन्म भुला देती है। निश्चित ही मृत्यु एक आघात है। आघात से ही मूर्च्छा उत्पन्न होगी। मूर्च्छा को दूर करेगी संजीवनी आघात को भरेगी संजीवनी। 

            प्रभु का ध्यान, गुरु का आशीर्वाद, गुरु की दीक्षा ही संजीवनी है। सद्मार्ग, ईश्वर अनुष्ठान ही उपचार है आघातों का और आघातों के जाने के पश्चात् ही पुनर्जन्म का वृत्तान्त सामने आयेगा। इस बात को साधक अच्छी तरह से समझ लें। एक बार नांथ योगी गोरक्षनाथ एक दूसरे नाथ योगी के सामने पहुँचे। उन्हें देह सिद्धि थी। गोरक्षनाथ ने कहा मुझे भी देह सिद्धि है आप मेरे शरीर पर वज्र से प्रहार कीजिए मेरा कुछ नहीं होगा। महायोगी ने गोरक्षनाथ के शरीर पर खड्ग से प्रहार किया सिर्फ ध्वनि उत्पन्न हुई पर उनके शरीर का कुछ नहीं हुआ। तत्पश्चात् महायोगी ने गोरक्षनाथ से कहा आप अब मेरे शरीर पर तलवार से प्रहार कीजिए ध्वनि भी उत्पन्न नहीं होगी। जैसे ही गोरक्षनाथ ने प्रहार किया ध्वनि भी उत्पन्न नहीं हुई। तलवार किसी वस्तु से टकराई ही नहीं गोरक्षनाथ दंग रह गये तुरंत ही महानाथ के चरण पकड़ लिए। पानी में तलवार मारो पानी अलग नहीं होगा। लकड़ी पर तलवार मारोगे तो लकड़ी कट जायेगी।

           जब जीवन पानी के समान होगा आघात विहीन तब फिर पूर्व जन्म और वर्तमान में फर्क ही नहीं होगा परन्तु अगर जीवन शैली लकड़ी की भाँति होगी तो फिर पूर्वजन्म भूल जाओगे। आपको जीवन में ऐसे चेहरे मिलेगें जिन्हें देखकर अपनापन लगेगा। ऐसे व्यक्ति मिलेगें जिनसे बात करके मालुम पड़ेगा कि इनसे पता नहीं कब से सम्बन्ध हैं। कहीं कुछ ऐसा पढ़ोगे तो ऐसा लगेगा कि ये तो हमें मालुम है, यह तो वही विचार है जो हमारे हृदय में भी उत्पन्न होता है। मनुष्य भटकता है क्यों? कौन भटकाता है जीवन में असंख्य नरमुण्डों के बीच रहने के बाद भी वह कुछ तलाशता रहता है। कुछ भूले बिसरे चेहरे निरंतर हमारा मानस जीवन के अंतिम समय तक कहीं कुछ ढूँढ़ता रहता है। हम ढूँढ़ते रहते हैं अपने आदि अनंत सम्बन्धों को जब हम प्रथम बार इस सृष्टि पर उदित हुए थे तो हमारे साथ कौन-कौन थे? उन्हें ही हम ढूँढ़ते रहते हैं। कौन थी हमारी आदि पत्नी ? कौन था हमारा प्रथम आदि पिता? कौन थी हमारी प्रथम आदि माता ? कौन थे हमारे प्रथम आदि गुरु ? जब तक ये नहीं मिल जाते, जब तक हम इनसे साक्षात्कार नहीं कर लेते चाहे ये किसी भी रूप में क्यों न हो हम संतुष्ट नहीं हो सकते। हमारी आत्मा की भूख नहीं मिट सकती। हमारे सम्बन्ध पूर्ण नहीं हो सकते। हम मुक्त नहीं हो सकते। 

            बालक माता की गोद में ही शांत होता है, पिता को देखकर ही खुश होता है। पत्नी ही उसकी वास्तविक अर्धांगिनी होती है। मित्र ही उसके साथ बतियाते हैं वास्तव में । वास्तव में ही सब कुछ होना चाहिए। वास्तव ही समृद्धिकारक है। वास्तव ही पूर्णता देता है। संतुष्टि और पूर्णता में जमीन आसमान का फर्क है। पूर्णता ही आत्मा की शक्ति है। पूर्णता ही आत्मा को सबल करती है। संतुष्टि मन बहलाने की क्रिया है। समय काटने की प्रक्रिया है संतुष्टि तो रोज उगती है रोज मिटती है परन्तु पूर्णता वास्तव देती है। उसके बाद संतुष्टि की मृत्यु हो जाती है। जब तक वास्तविक पत्नी नहीं मिलती मन का भटकना तो निश्चित् है चाहे एक जन्म लगे या सौ जन्म और जब तक वास्तविक गुरु नहीं मिलता गुरु घंटालों से दिल बहलाया जा सकता है। यही है पुनर्जन्म की खोज । वास्तविक वास्तविक है और नकलीनकली। समझौता मत कीजिए। साधकों को समय को लात मारकर दूर फेंक देना चाहिए। असफलता के शब्द साधक के मुख पर नहीं आने चाहिए। यह घटिया मस्तिष्क की पहचान है। असफलता शब्द को चुनौती शब्द में परिवर्तित कर दिजिए। असफलता की मृत्यु हो जायेगी। असफलता काल के अधीन है। चुनौती महाकाल का विषय है। महाकाल ही कालजयी है। अपने अंदर बैठे आदि पुरुष को पहचानना ही पुनर्जन्म विज्ञान का मूल तत्व है। जब स्वयं के अंदर स्थित आदि पुरुष को पहचान जाऐगे तो साक्षात आप के सामने आदि माता, आदि पिता और आदि गुरु खड़े होंगे। बस इतना ही।
  
                         शिव शासनत: शिव शासनत:


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