शंकरं प्रेमपिण्डम्
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गणेश को लोग सामान्यतः शिव और शिवा का पुत्र समझ लेते हैं इससे आगे नहीं। यही गलती कुबेर ने की उन्हें केवल शिव पुत्र के रूप में भोजन हेतु आमंत्रित कर लिया परन्तु गणेश ने अपनी लीलाओं से यह सिद्ध कर दिया कि वे परम परमेश्वर हैं, अलख निरंजन हैं। कुबेर ने अपने दोनों कान पकड़े और गणेशजी के सामने उठक-बैठक लगाने लगे इसे कहते हैं "दोर्भि कर्ण उपासना" अर्थात न पहचानने की भूल, कम आंकने की भूल, कुछ कम समझने की भूल । गणेश के साथ हमेशा से यही हुआ है कि उन्हें कम समझा गया, कम आंका गया है और जब-जब जिस भी देवता ने ऐसा किया उसे “दोर्भि कर्ण उपासना" करनी पड़ी। यहाँ तक कि शिव को भी "दोर्भि कर्ण उपासना " करनी पड़ी, माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी को भी "दोर्भि कर्ण उपासना" करनी पड़ी, विष्णु को भी "दोर्भि कर्ण उपासना करनी पड़ी, आप सबको भी "दोर्भिकर्ण उपासना करनी पड़ेगी।
हमारे देश में तामिलनाडू एवं महाराष्ट्र सबसे विकसित प्रदेशों में से आते हैं। अन्य प्रदेशों की अपेक्षा यहाँ पर जन्म लेने वाले लोग ज्यादा सुसम्पन्न, पढ़े-लिखे, संवेदनशील और समझदार हैं। इन दोनों प्रदेशों में धर्म के प्रति निष्ठा, श्रद्धा एवं समर्पण देखने को मिलता है। भारत वर्ष में बच्चों की सबसे ज्यादा देखभाल, प्रेमपूर्ण व्यवहार तामिलनाडू एवं महाराष्ट्र में ही देखने को मिलता है। बच्चे ही देश का भविष्य हैं अगर बच्चों का लालन-पालन, देखभाल, शिक्षा दीक्षा में अपूर्णता रह गई तो कालान्तर अपूर्ण मनुष्य ही उत्पन्न होंगे और यही हो रहा है। उपासना में बड़े गहरे रहस्य छिपे हुए हैं। "दोर्भि कर्ण उपासना " का तात्पर्य है माफी मांगना माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी, शिव, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र समेत सभी देवताओं ने केवल गणपति को यह अधिकार दे रखा है कि वे कर्म श्रृंखला में विघ्न डाल सकते हैं, कर्म श्रृंखला के अंतर्गत किए गये पापों, कुकर्मों, व्याभिचारों को शक्ति कदापि नहीं है। तामिलनाडू एवं महाराष्ट्र में गणेश मंदिरों की भरमार है एवं यहाँ पर आपको भक्तगण दोनों कान पकड़कर श्री गणेश के विग्रह के सामने प्रतिदिन उठक-बैठक लगाकर अपने पापों की क्षमा मांगते हुए मिल जायेंगे और गणेश जी सहर्ष परम पिता के समान सभी भक्त गणों को उनके कुकर्मों के फल से मुक्त करते हुए दिखलाई पड़ेंगे।
अज्ञानता, मूर्खता, लम्पटता तो जीव का स्वभाव है अतः गणेश जी माफ कर देते हैं। जीव तो बहुत छोटी सी अपूर्ण संरचना है गलती तो बड़े-बड़े देवताओं से भी हो जाती है। माँ भगवती का भंडासुर नामक दैत्य से घोर संग्राम चल रहा था, माँ भगवती कुछ ही क्षण में भंडासुर दैत्य के तीन सौ पुत्रों का संहार कर दिया। भंडासुर दैत्य का सेनापति अत्यंत ही चालाक था उसने रात्रि के अंधेरे में महाविघ्नेश यंत्र की पूजा उपासना की, उसे प्राण-प्रतिष्ठित किया और धीरे से ले जाकर उसे भुगती महात्रिपुर सुन्दरी की दिव्य सेना के शिविर के एक कोने में स्थापित कर दिया। विघ्नेश क्रियाशील हो गये देखते ही देखते माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी की 21000 दिव्य शक्ति से सुसज्जित सेना उच्चाटित हो गई, शिथिल पड़ गई, आलस्य से ग्रसित हो गई, बलहीन हो गई। उनकी सेना में सभी को जम्हाईयाँ आने लगीं, तंद्रा सताने लगी, हाथ-पाँव ढीले पड़ने लगे।
जिस सेना में काली, महाकाली, कराली, दुर्गा, महिषमर्दिनी, चण्ड-मुण्ड नाशिनी, चामुण्डा, भैरवी, कूष्माण्डा, आग्नेया, कुब्जिका, लंगड़ी, कालरात्रि, रक्तप्रिया, मांसांशा इत्यादि जैसी नायिकाएं हों। जिस सेना में धूमा, बगला, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, बाला, महाकाली, दक्षिणकाली जैसी पराशक्तियाँ हों वह सेना आलस्य, प्रमाद, निकम्मेपन से ग्रसित हो जाय यह तो बड़ी विचित्र बात हुई। माँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी की मुख्य सेनापति दंडनाथा की कुछ समझ में नहीं आया वह सीधे उनके पास पहुँची और समस्त क्रियाकलापों का वर्णन किया। दूसरे ही क्षण मुस्कुराते हुए माँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी ने पुनः एक बार दोनों कान पकड़कर अलख निरंजन की तरफ निहारा और देखते ही देखते अलख निरंजन में से असंख्य मुख असंख्य अस्त्र-शस्त्रों से युक्त: हाथ लिए हुए, मुण्डमाला धारण किए हुए, घोर अट्ठाहास करते हुए, रक्त वर्ण के महागणपति प्रकट हो गये। वे सीधे उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पर भंडासुर के सेनापति ने महाविघ्नेश यंत्र स्थापित कर रखा था अपने दंत घात से उन्होंने उस यंत्र को चूर चूर कर दिया तत्पश्चात् माँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी के साथ मिलकर कुछ ही क्षणों में उन्होंने भंडासुर का समस्त सेना के साथ संहार कर डाला और इस प्रकार महागणपति की उत्पत्ति हुई।
महागणपति का पूजन भगवती त्रिपुरसुन्दरी के साथ सम्पन्न किया जाता है, भंडासुर युद्ध के समय शायद भगवती त्रिपुरसुन्दरी ने भी गलती कर दी थी वे गणपति को केवल पुत्र समझ बैठी थीं जबकि वे अलख निरंजन हैं,पूर्ण हैं । त्रिपुर वध के समय शिव से भी भूल हो गई वे भी गणपति का पूजन करना भूल गये थे इसलिए उनका पाशुपतास्त्र लक्ष्य को निर्मूल नहीं कर पा रहा था एवं उनकी सेना पराजित हो रही थी,उनका दिव्य रथ भी कि समस्त देवता के अंशों से बना था,जिसमें कि समस्त देवता पशु रूप में विद्यमान थे चल ही नहीं पा रहा था। शिव का एक नाम पशुपति भी है अर्थात सभी पशुओं के पति,पशु बने देवगणों से सुसज्जित रथ की कभी कील निकल जाती थी, पहिया अलग हो जाते थे,कभी वह उनके भार को सहन नहीं कर पाता था आखिरकार शिव को अपनी गलती का एहसास हुआ उन्होंने अलख निरंजन से उत्पन्न परम पशु स्वरूप धारण किए हुए गणपति के सामने दोर्भिकर्ण उपासना सम्पन्न की तब जाकर वे महापाशुपत अनुसंधान में सफल हुए और पशुपति के रूप में सुपूजित हुए।
कितनी रहस्यमय स्थिति है पशुओं का पति बनने के लिए पशु मुख धारण किए हुए अलख निरंजन की उपासना । पशुत्व भी सिद्ध नहीं होता गणेशोपासना के अभाव में समुद्र मंथन चल रहा था पर देवता गणपति उपासना भूल गये अतः विघ्न आ गया। मंदराचल पर्वत को उखाड़ने में ही अनेकों देवता लहूलुहान हो गये जैसे ही उसे समुद्र में रखा वह डूबने लगा एवं अनेकों देवता दब गये। वासुकी सर्प भी विष उगल रहा था, विष्णु ने पुनः कच्छप रूपी पशु बन मंदराचल पर्वत को सहारा दिया। विष्णु के कच्छप रूपी पशु स्वरूप में ही दोर्भिकर्ण उपासना सम्पन्न हो गई। देवताओं को अपनी गलती का एहसास हुआ तब जाकर उन्होंने गणपति उपासना की तब समुद्र मंथन सम्पन्न हुआ। सबने गणपति के श्रीविग्रह के सामने उठक-बैठक लगाई। वामन स्वरूप में श्री विष्णु बलि से पराजित हो रहे थे पुनः एक बार उन्हें दोर्भिकर्ण उपासना करनी पड़ी।
गणेश आदि हैं, अनंत हैं,वे प्रम नाथ हैं, प्रथम के भी प्रथम अलख निरंजन हैं उन्हीं से प्रारम्भ और उन्हीं में अंत यही सृष्टि का सिद्धांत है। अतः प्रत्येक काल प्रारम्भ होने से पूर्व, एक नई सृष्टि होने से पूर्व, एक नया युग प्रारम्भ होने से पूर्व, एक नई कर्म श्रृंखला प्रारम्भ होने से पूर्व मूल का ध्यान आवश्यक है,मूलोपासना आवश्यक है। श्रीहरि ने मात्र सुदर्शन चक्र प्राप्ति हेतु अनेक वर्षों तक शिव की घोर उपासना की, अनेक विधियों से शिवोपासना की पर हर बार कुछ न कुछ विघ्न आ जाता था। एक बार उन्होंने शिव जी को प्रसन्न करने हेतु एक हजार कमल पुष्पों से पूजा करने का संकल्प लिया परन्तु उसमें भी विघ्न आ गया। विघ्नेश्वर ने एक कमल पुष्प गायब कर दिया,श्रीहरि ने अपने कमल नयन निकाल कर ही शिव को अर्पित कर दिए। दोनों कान पकड़कर श्रीगणेश के सामने दोर्भिकर्ण उपासना की अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी तब जाकर उन्हें सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ। मधु-कैटभ वध में असफल होने के बाद श्रीहरि को दोर्भिकर्ण उपासना सम्पन्न करनी पड़ी तब जाकर महामाया उनके साथ क्रियाशील हुईं। चण्ड-मुण्ड वध के समय, शुम्भ-निशुम्भ वध के समय शक्तियों को भी श्रीगणेश उपासना सम्पन्न करनी पड़ी तभी उन्हें सफलता मिली।
ब्रह्मा जी अचानक स्वप्न अवस्था में आ गये स्वप्न में उन्होंने महाप्रलय होते देखा । उनकी बनाई हुई सृष्टि प्रलय को प्राप्त हो रही थी, चारों तरफ अथाह जल ही जल था परन्तु तभी उन्हें वटवृक्ष के पत्ते के ऊपर बाल्य गणेश दिखाई दिए एवं उन्होंने अपने शुण्डाग्र में समुद्र का जल भरकर ब्रह्मा जी के ऊपर उछाल दिया और ब्रह्मा जी अचानक चैतन्यवान हो उठे और मुस्कुरा दिए। वे समझ गये कि श्रीगणेश प्रलय से भी परे हैं। प्रलय के समय गणपति सूक्ष्म हो जाते हैं और प्रलय उपरांत पुनः क्रियाशील हो उठते हैं। विघ्न, गणेश के साथ चलते हैं। दिव्य कैलाश पर शिव ध्यानस्थ थे अलख निरंजन की दिव्य ज्योति में तभी सभी देवताओं ने दिव्य कैलाश पर आकर गुहार लगानी शुरु की कि हे शिव कुछ उत्पन्न कीजिए,ऐसा कुछ जो कि असुरों की गति को रोक सके,उनके बल को क्षीण कर सके,हम उनसे पीड़ित हैं, प्रताड़ित हैं।अचानक शिव के हृदय में स्फूरणा हुई और देखते ही देखते एक सुन्दर बालक उनकी गोद में आ बैठा सीधे अलख निरंजन से निकलकर तभी आद्या आ गईं।
बाला ने बालक नहीं देखा था, ये कौन तीसरा आ गया हम दोनों के बीच ? बस विघ्न उत्पन्न हो गया शिव और शिवा के बीच। शिव की गोद में तो मैं ही बैठती हूँ शिवांगी बनकर, शिव की अर्धांगिनी तो मैं ही हूँ, ये कौन उनके अंग में विराजित हो गया ? जब मैं त्रिपुर सुन्दरी होती हूँ तो उनकी नाभि से निकले कमल पर स्थापित हो जाती जब मैं महाकाली होती हूँ तो इनकी छाती पर सवार होती हूँ,जब मैं त्रिपुरा होती हूँ तो इनके
वामांग का अतिक्रमण कर लेती हूँ, जब मैं धूमा होती हूँ तो इन्हें उदरस्थ कर लेती हूँ, जब मैं कामाख्या होती हूँ तो इन्हें अपने अंदर स्थापित कर लेती हूँ, योनि स्वरूपा बन इनका आराधन कर लेती हूँ, विवाह के समय भी मैं इनके गोद में बैठी हुई थी, जब मैं तपस्विनी होती हूँ तो इनको हृदय में आत्मसात कर लेती हूँ, जब मैं छिन्नमस्ता होती हूँ तो इनके ऊपर सवार होती हूँ अतः इनके सम्पूर्ण अंगों पर केवल मेरा ही अधिकार है। इनके मानस, इनके शरीर, इनके दिव्यांग, इनके हृदय में तो सिर्फ मैं ही विराजती हूँ परन्तु अब ये कौन आ गया और मुझे मालूम ही नहीं चला, मेरी आज्ञा के विरुद्ध हे शिव आपने किसी और की सृष्टि कैसे की ? किसी और पर दृष्टि कैसे डाली ? किसी और को स्पर्श क्यों किया ? शिवा क्रोधित हो गई और जब शिव का ध्यान, शिव की मुग्धता उस बालक पर से नहीं हट रही थी तब उन्होंने उस बालक का मुख गज के समान कर दिया।
गज मुख गणेश उछलकर शिव की गोद से शिवा की तरफ बढ़ गया। शिव बोल उठे लो गजमुख को, "यह है शंकरम् प्रेम पिण्डम् " अर्थात शंकर का प्रेम पिण्ड तत्काल ही शिवा बोल उठीं नहीं नहीं यह तो "शिव-शिवा प्रेम पिण्डम् " है अर्थात शिव और शिवा दोनों के प्रेम का पिण्ड श्री गणेश और इस प्रकार देवताओं को शिव-शिवा प्रेम पिण्डम् के रूप में श्री गणेश प्राप्त हुए जिन्होंने कालान्तर विघ्न का निर्माण किया। हे गजगामिनी, हे गज योनि, हे गज माते, हे गज मणिधारिणी, हे गजाभिषेका कमले, हे गज मदयुक्ता, हे गजारूढ़ा, हे गजदर्शिनी, हे गज पोषिणी, हे गज सुगंधयुक्ता, हे गज वेमा देखो अपने इस गज मुखि पुत्र को देखो, देखो इसके कोमल पाँवों को इसमें गज रेखा बनी हुई है जो कि मध्य से शुरु होकर अंगुष्ठ तक जाती है। इसे कहते हैं गज केसरी योग यह गणनायक बनेगा, गणों की गिनती करेगा। देखो इसके चरण कमलों को इसमें ध्वजा, शंख, चक्र और पद्म विराजमान हैं अतः यह राज-राजेश्वर बनेगा एवं अनंत ब्रह्माण्डों के राजाओं के ऊपर शासन करेगा। सभी देव इसे पूजेंगे, बड़े-बड़े गजारूढ़ इसके चरणों
में मस्तक झुकायेंगे शिव कह उठे। हाँ जो गणपति के भक्त होते हैं, जिन पर गणपति कृपावान होते हैं उनके पैरों में गज रेखा होती है उनकी जन्मकुण्डली में गज केसरी योग होता है। देखो इसके पाँव के नाखून ये गज मुक्ता से भी ज्यादा प्रकाशवान हैं तुरंत गजगामिनी बोल उठीं हे गज चर्मधारी, हे गज पूजक, हे गजेश्वर, हे गज पिता, हे ॐकार नादा, हे गं मंत्र रचियता देखो इस बालक के कोमल हाथों की तरफ इसके हाथ में ॐकार बना हुआ है, इसके शुक्र पर्वत पर स्वस्तिक का चिह्न है, अरे इसके चंद्र पर्वत पर अंकुश बना हुआ है, इसके शुरु पर्वत पर पाश का शुभ चिन्ह है, यह तो आदि बृहस्पति है, हे गजासुर हंता अब समय आ गया है कि आप ॐकार नाद को छोड़ नाना प्रकार की उपासना पद्धतियों, पंचम वेद, 54 प्रकार के तंत्र ग्रंथ एवं परम गोपनीय शक्ति मंत्रों इत्यादि को अपने मुखारविंद से उच्चारित करें। मेरा यह गज मुखी पुत्र, मेरा यह मयूरेश्वर अपने दंत से, अपने पंख से उन सबको जन कल्याण के लिए लिपिबद्ध करेगा, शिव उवाच के लिपिबद्ध होने का समय आ गया है।
हे गजम्बिके जल्दी करो, इसके कोमल पाँवों में अपनी सदा झनकार करने वाली नूपुर बांध दो क्योंकि यह अब हमारे साथ नृत्य करेगा। जब मैं ताण्डव करूंगा तो यह अपनी शुण्डाग्र से मृदंग का नाद उपस्थित करेगा और जब तुम लास्य करोगी तो यह अपने पैरों में लगे घुंघरूओं को बजाते हुए तुम्हारे साथ सुर ताल मिलायेगा। देखो नारद तुम्बरु से वीणा वादन में हार रहा है। ब्रह्मा का पुत्र है परन्तु ब्रह्म शिष्य से हार रहा है। हे आदि सरस्वती स्वरूपा गजम्बिके उसे इतना नहीं मालूम कि वह गणेशोपासना भूल गया है क्योंकि तुमने अपनी विचित्र वीणा जो इस नृत्य गणपति के हाथ में थमा दी है। हे गजप्रिया देखो वह आदि वेद व्यास सिर धुन रहे हैं उन्हें इतना नहीं मालूम कि गणपति ने शिव उवाच को लिपिबद्ध करने के लिए अपना एक दंत तोड़ लिया है अतः इनकी उपासना के बिना अब कोई लेखक नहीं बन सकता, अब कोई नर्तक नहीं बन सकता, अब कोई गायक नहीं बन सकता, अब कोई कवि नहीं बन सकता, अब कोई वैज्ञानिक नहीं बन सकता, अब कोई जोड़-तोड़कर कुछ नहीं बना सकता। .
यह तो सृष्टि के प्रथम वैज्ञानिक हैं क्योंकि तुमने और मैंने मिलकर जोड़-तोड़कर इन्हें गज-मुख बनाया है, एक अद्भुत समायोजन किया। है गज की उम्र भी 120 वर्ष और मनुष्य की उम्र भी 120 वर्ष, गज का मुख और मनुष्य का शरीर इन दोनों का अद्भुत समायोजन करके ही हमने प्रथम गणेश विज्ञान का निर्माण किया है कालान्तर ब्रह्मा ऐसे ही जोड़ तोड़कर पता नहीं क्या- क्या बनायेगा पर उसे भी गज मुख अपने यहाँ स्थापित करने पड़ेंगे। समस्त लोकों में चाहे इन्द्रलोक हो, ब्रह्म लोक हो, गौ लोक हो, विष्णु लोक हो, देवी तीर्थ हो, सिद्ध लोक हो इत्यादि सब जगह सबने गणपति को विराजमान किया है, उनकी उपासना की क्योंकि संसार का प्रत्येक कर्म प्रथम बार गणपति ने ही सम्पन्न किया है। वे शिव द्वारा रचित प्रथम ज्ञान के साक्षी हैं, वे प्रथम वाणी के साक्षी हैं, वे भगवती त्रिपुर सुन्दरी के प्रथम सौन्दर्य के साक्षी हैं वे शिव की प्रचण्डता के साक्षी हैं अतः मूलरूपी गणपति की उपासना के अभाव में चारों तरफ विघ्न ही विघ्न हैं। गणपति इसलिए गंभीर हैं क्योंकि उन्होंने जो देखा, उन्होंने जो सुना वह किसी ने नहीं देखा, किसी ने नहीं सुना किसी ने अनुभूत नहीं किया।
शिव शासनत: शिव शासनत:
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