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श्री नरसिंह ।।

         पभु श्री कृष्ण के रूप में श्रीहरि का पूर्णांश अवतार हुआ है। पूर्णांश अवतार का तात्पर्य है कि श्रीहरि अपनी समस्त 64 कलाओं के साथ मनुष्य रूप में उदित हुए और उन्होंने वह प्रत्येक कर्म सम्पन्न किया जो कि एक साधारण मानव अपने जीवनकाल में करता है अर्थात माता के गर्भ से उत्पन्न होना,खेलना, भोजन करना, प्रेम करना, विवाह करना, युद्ध करना, धनोपार्जन करना और अंत में शरीर का त्याग करना इत्यादि-इत्यादि परन्तु इन सब क्रियाओं के बीच प्रभु श्रीकृष्ण ने प्रतिक्षण दिव्य कर्म भी सम्पन्न किए जो कि मानव स्मृति में किसी भी मनुष्य की सोच से भी परे हैं ।
         यही दिव्य कर्म उन्हें लीलाधारी बनाते हैं, उन्हें शर्वेश्वर बनाते हैं। पूर्णांश अवतार श्रीकृष्ण ने असंख्य मानवों से उन्हीं की वाणी में, उन्हीं के क्रियाकलापों अनुसार, उन्हीं के नियम धर्मों के हिसाब से, उन्हीं के चिंतन- बुद्धि के हिसाब से सम्प्रेषण किया। पूर्णांश, पूर्णता के साथ सभी को प्राप्त हुआ इसलिए प्रभु श्रीकृष्ण के रूप में श्रीहरि उपासना संसार में सबसे ज्यादा प्रचलित है। पूर्णांश अवतार की एक विशेषता और है कि इसमें अनंत कल्पों में श्रीहरि के अगणित अवतारों की झलक भी स्पष्ट देखने को मिलती है।
           नरसिंह अवतार सतयुग से पूर्व हुआ एवं यह श्रीहरि के कुछ गिने चुने आदि अवतारों में से एक है इसमें श्रीहरि विशेषांश के साथ अवतरित हुए। उनका यह अवतार क्षणिक था परन्तु प्रचण्डात्मकता अत्यधिक थी। विशेष अवतारों की उपासना विशेष परिस्थितियों में, विशेष कार्यों के लिए नियुक्त विशेष साधकों के द्वारा ही सम्पन्न हो पाती है। नरसिंहोपासना विशेष साधकों का विषय है, सबके लिए नरसिंहोपासना नहीं बनी है अतः यह सर्व और सुलभ भी नहीं है फिर भी परा ज्ञान के क्षेत्र में तंत्राचार्य या तंत्रज्ञ बनने हेतु नरसिंहोपासना अत्यंत आवश्यक है। इसके माध्यम से कठिन से भी कठिन नकारात्मक शक्ति से ग्रसित जातक को, नितांत घोर शत्रुओं के बीच निवास करने वाले जातक को भी एक विशेष सुरक्षा कवच प्राप्त होता है। 
        इस उपासना को गुरुदीक्षा के अभाव में, गुरु सानिध्य के अभाव में, सम्पन्न नहीं करना चाहिए। नरसिंहोपासना दो मार्गों से सम्पन्न होती है सात्विक मार्ग एवं तामसिक मार्ग । वाम मार्ग में यह साधना अत्यंत ही तीक्ष्ण हो जाती है और यह गुरु मुख का विषय है। इसलिए इसका विधि विधान पुस्तकों में प्राप्त नहीं होता। किसी भी प्रकार के अभिचार कर्म यहाँ तक कि महाविद्याओं के द्वारा सम्पन्न अभिचार कर्म से भी नरसिंहोपासना के माध्यम से जातक मुक्त हो सकता है। पूर्ण अभय प्रदान करने वाली यह उपासना वास्तव में दर्शनीय है ।                

लक्ष्मीनरसिंह स्तोत्र
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        लक्ष्मी प्राप्ति के कई विधान हैं छीनकर, झपटकर, बल के द्वारा भी लक्ष्मी प्राप्त की जा सकती है। लक्ष्मी नरसिंह स्तोत्र आदि शंकराचार्य ने अत्यंत ही संकटकालीन समय में रचित किया है, यह तांत्रोक्त स्तोत्र अंतिम विकल्प हैं लक्ष्मी प्राप्ति का । मान लीजिए किसी ने हमारा धन ले लिया एवं वह हमें वापस नहीं कर रहा। कोई जबरन में हमारी सम्पत्ति पर कब्जा जमाकर बैठा है, कोई बल के द्वारा हमें हमारे अधिकार से वंचित कर रहा है, कोई षडयंत्र कर हमारे धन को हड़प बैठा है। उपरोक्त परिस्थितियों में या फिर घोर दरिद्रता के कारण धन के अभाव में जब जीवन पर ही बन आये तब त्वरित लक्ष्मी प्राप्ति हेतु, पुनः खोया हुआ धन प्राप्ति हेतु प्रचण्डता के साथ अन्यायी का ध्यान करते हुए लक्ष्मी नरसिंह स्तोत्र का प्रतिदिन प्रयोग किया जाता है और इसके माध्यम से नरसिंह रूपी महाभैरव को जागृत कर न्याय प्राप्त किया जाता है। नरसिंह रूपी महाभैरव शीघ्रता का प्रतीक हैं, शीघ्र लक्ष्मी प्रदान करते हैं परन्तु प्रयोग अनाहत से करें, हृदय से करें दिमाग से नहीं। सफलता सौ प्रतिशत मिलेगी।

लक्ष्मीनरसिंह स्तोत्र

श्रीमत् पयॊनिधिनिकॆतन चक्रपाणॆ भॊगीन्द्रभॊगमणिरञ्जितपुण्यमूर्तॆ ।
 यॊगीश शाश्वत शरण्य भवाब्धिपॊत लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ १ ॥
 
 ब्रह्मॆन्द्ररुद्रमरुदर्ककिरीटकॊटि- सङ्घट्टिताङ्घ्रिकमलामलकान्तिकान्त ।
 लक्ष्मीलसत्कुच्सरॊरुहराजहंस लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ २ ॥
 
 संसारघॊरगहनॆ चरतॊ मुरारॆ मारॊग्रभीकरमृगप्रवरार्दितस्य ।
 आर्तस्यमत्सरनिदाघनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ३ ॥
 
 संसारकूपमतिघॊरमगाधमूलम् संप्राप्य दुःखशतसर्पसमाकुलस्य ।
 दीनस्य दॆव कृपणापदमागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ४ ॥
 
 संसारसागरविशालकरालकाल- नक्रग्रहग्रसननिग्रह विग्रहस्य ।
 व्यग्रस्य रागरसनॊर्मिनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ५ ॥
 
 संसारवृक्षमघबीजमनन्तकर्म- शाखाशतं करणपत्रमनङ्गपुष्पम् ।
 आरुह्यदुःखफलितं पततॊ दयालॊ लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ६ ॥
 
 संसारसर्पघनवक्त्रभयॊग्रतीव्र- दंष्ट्राकरालविषदग्द्धविनष्टमूर्तॆः ।
 नागारिवाहन सुधाब्धिनिवास शौरॆ लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ७ ॥
 
 संसारदावदहनातुरभीकरॊरु- ज्वालावलीभिरतिदग्धतनूरुहस्य ।
त्वत्पादपद्मसरसीशरणागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ८ ॥
 
 संसारजालपतितस्य जगन्निवास सर्वॆन्द्रियार्थबडिशार्थझषॊपमस्य ।
 प्रॊत्खण्डितप्रचुरतालुकमस्तकस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ९ ॥
 
 संसारभीकरकरीन्द्रकराभिघात- निष्पिष्टमर्म वपुषः सकलार्तिनाश ।
 प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ १० ॥
 
 अन्धस्य मॆ हृतविवॆकमहाधनस्य चॊरैः प्रभॊ बलिभिरिन्द्रियनामधॆयैः ।
 मॊहांधकारकुहरॆ विनिपातितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ११ ॥
 
 लक्ष्मीपतॆ कमलनाभ सुरॆश विष्णॊ वैकुण्ठ कृष्ण मधुसूदन पुष्कराक्ष ।
 ब्रह्मण्य कॆशव जनार्दन वासुदॆव दॆवॆश दॆहि कृपणस्य करावलम्बम् ॥ १२ ॥
 
 यन्माययॊजितवपुः प्रचुरप्रवाह- मग्नार्थमत्र निवहॊरुकरावलम्बम् ।
 लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुव्रतॆन स्तॊत्रं कृतं सुखकरं भुवि शंकरॆण ॥ १३ ॥

।। इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं श्रीलक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रं सम्पूर्णम्।। 

                   शिव शासनत: शिव शासनत:

देवर्षि नारद ।।

नर - नारायण की संप्रदाय - परंपरा से प्राप्त ज्ञान का नाम 'नार 'है ,उस ज्ञान का जो दान करे उसका नाम है नारद।

अथवा नर के हृदय में जो अज्ञानता है उसका जो नाश कर दे उसे, नारद कहते है।
      "नरस्य सम्बन्धि अज्ञानं द्युति"
अथवा माता के नार माने नाल नाली जन्म मरण ही गन्दी नाली है,नार या नाली से जो छुड़ा दे उसका नाम नारद है।

नार--       आत्मज्ञान√दा (देना)+क। 

'द' अक्षर का अर्थ होता है देना, दिलवाना, प्रदान करना। 

'नार' कहते हैं पानी को। 
     इसी से 'नारायण' और 'नारद' दोनों बने हैं। 

नार + अयन = नारायण
            नार यानी पानी हो अयन (निवास) जिसका , वही नारायण अर्थात् विष्णु है। 
क्षीरसागर में वास करने के कारण विष्णु को नारायण कहा जाता है।

नार + द = नारद
         नार को जो प्रदान करे अर्थात् नार में जो किसी मनुष्य को पहुँचा सके , विष्णु से मिलवा सके ,वही नारद है।

कुछ लोग कहते हैं कि नारद मुनि लड़ाई करवाते रहते हैं, इनका काम बस एक दूसरे के खिलाफ भड़काना है, जबकि ये बात एकदम गलत है। नारद जी जिनको भी मिले उन्हें भगवान जरूर मिले हैं,और नारद जी को भगवान का मन कहा गया है।

नारद के जन्म की कथा--
                 ब्रह्मवैवर्तपुराण में आया है कि नारद जी ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं,और ब्रह्माजी के कंठ से पैदा हुए हैं।
ब्रह्माजी ने इन्हें उत्पन्न किया और कहा की बेटा जाओ, और जाकर सृष्टि को आगे बढाओ , सृष्टि कार्य में सहयोग करो। लेकिन नारद जी ने साफ -साफ मना कर दिया।
नारद जी सोचते हैं- 
          ऐसा कौन मूर्ख होगा जो भगवान के नाम रूपी अमृत को छोड़कर विषय नामक विष का भक्षण करेगा?
जब इन्होंने मना किया तो ब्रह्मा जी ने शाप दिया- 
                   तुम अपने पिता की बात को नहीं मानते हो, जाओ मेरे शाप से तुम्हारा ज्ञान नष्ट हो जायेगा और तुम गन्धर्व योनि को प्राप्तकर कामविलास रत स्त्रियों के वशीभूत हो जाओगे।

नारद जी ने विचार किया- 
            जो बुरे मार्ग पर चले ऐसे कुमार्गी को शाप देना ठीक है लेकिन मुझे अकारण ही शाप दे दिया गया ये गलत है। 
फिर भी अपने पिता से नारद जी कहते हैं- इतनी कृपा कीजिए जिन-जिन योनियों में मेरा जन्म हो, वहां भगवान की भक्ति मुझे कभी न छोड़े।
ऐसा आग्रह करके नारद जी ने अपने पिता को भी शाप दे डाला हे पिताजी ! आपने मुझे बिना अपराध के शाप दिया है अत: मैं भी आपको यह शाप देता हूँ कि तीन कल्पों तक लोक में आपकी पूजा नहीं होगी और आपके मन्त्र, स्त्रोत, कवच आदि का लोप हो जायेगा।’

पिता के शाप के कारण ये गंधर्व योनि में पैदा हुए,इनका नाम था उपबर्हण,इन्हें अपने रूप का बड़ा अभिमान था।
एक बार ब्रह्माजी की सभा में सभी देवता और गंधर्व भगवन्नाम का संकीर्तन करने के लिए आए, उपबर्हण (नारदजी) भी अपनी पत्नियों के साथ श्रृंगार भाव से उस सभा में गए। "उपबर्हण" का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गये और उन्होंने उसे ‘शूद्र योनि’ में जन्म लेने का श्राप दे दिया।

महर्षि नारद के पूर्वजन्म की कथा
             इनके इस जन्म की कथा का श्रीमद भागवत पुराण में विस्तार से वर्णन है जो इस प्रकार है—
     श्री वेदव्यास जी ने वेदों की रचना की फिर उन्होंने एक ही वेद के चार विभाग कर दिये---
                                 1. ऋग्वेद
                                  2. यजुर्वेद 
                                  3. सामवेद 
                                  4. अथर्ववेद

पुराण लिखे, महाभारत लिखा,इतना सब लिखने के बाद भी इनके हृदय को सन्तोष नहीं हुआ।
उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया,सरस्वती नदी के पवित्र तट पर एकान्त में बैठकर धर्मवेत्ता व्यासजी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे—
             मैंने इतना सब लिखा लेकिन मेरा हृदय कुछ अपूर्ण काम-सा जान पड़ता है,जरूर कुछ न कुछ रह गया है तभी देवर्षि नारदजी वहां आ पहुँचे, उन्हें आया देख व्यासजी तुरन्त खड़े हो गये और देवर्षि नारद की विधि पूर्वक पूजा की ।
नारदजी कहते हैं—
             व्यास जी! आपने इतना सब कुछ लिख दिया आप संतुष्ट तो हैं न?

व्यासजी कहते हैं— 
             इतना सब लिखने के बाद भी मुझे संतोष नही हो रहा है। मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है। पता नहीं, इसका क्या कारण है। आपका ज्ञान अगाध है। 
आप कृपा करके इसका कारण बताइये?

नारदजी ने कहा—
              व्यासजी! मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा है,आपने धर्म का वर्णन किया, अर्थ का वर्णन किया।

लेकिन भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वैसा निरूपण नहीं किया जैसा आपको करना चाहिए था,आप भगवान की लीलाओं का वर्णन कीजिये,आप ऐसे ग्रन्थ का निर्माण कीजिये जो भक्ति, ज्ञान और वैरागय से परिपूर्ण हो।
मैं आपको अपने पूर्वजन्म का वर्तान्त सुनाता हूँ--
                   पिछले कल्प में अपने पूर्वजीवन में मैं वेदवादी ब्राह्मणों की दासी का लड़का था। एक बार कुछ संत चातुर्मास करने हमारे गाँव में आये,वे प्रतिदिन सत्संग करते थे और मेरी माँ मुझे उस सत्संग में साथ ले जाती थी। एक दिन सत्संग के बाद विशाल भंडारे का आयोजन हुआ।

मेरी माँ उस भंडारे में बर्तन मांज रही थी,और मैं वहां पर खेल रहा था तभी कुछ संत आये और बोले बेटा! तेरी माँ कितनी संत देवी है तू भी कुछ सेवा कर,मैं छोटा सा पांच वर्ष का बालक था। मुझे संतों ने कहा की जब संत भोजन कर लें तब तू झूठी पत्तलों को बाहर फेंक कर आ जा।
मैं संतों की सेवा में लग गया और मुझे पत्तल फेंकते-फेंकते सुबह से शाम हो गई लेकिन किसी ने मुझे भोजन के लिए नही पूछा। मुझे बहुत भूख लगी थी मैंने एक बरतनों में लगा हुआ संत का झूठा प्रसाद खा लिया। आपको क्या बताऊं की मेरे इस प्रसाद को खाने से आत्मा तृप्त हो गई।
इससे मेरे सारे पाप धुल गये, इस प्रकार उनकी सेवा करते-करते मेरा हृदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन-पूजन करते थे, उसी में मेरी भी रुचि हो गयी,और मुझे ऐसा करते हुए एक संत ने अपने पास बुलाया, और खाने के लिए भोजन दिया।
जब उनका चातुर्मास पूरा हुआ और वो जाने लगे तो उन्होंने मुझे एक मन्त्र दिया। 

जिसे वासुदेव गायत्री मन्त्र कहा जाता है--
         "ॐ नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि। 
           प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः सङ्कर्षणाय च॥"

‘प्रभो! आप भगवान श्रीवासुदेव को नमस्कार है,हम आपका ध्यान करते हैं। प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण को भी नमस्कार है’।
मैं दिन रात इस मन्त्र का जप करता और भगवान का ध्यान करता रहता था, लेकिन मेरी माँ मुझे ध्यान नहीं करने देती थी। जब भी मैं ध्यान में बैठ जाता था तो कभी मुझे कहती की बेटा, तेरे दोस्त तुझे खेलने के लिए बुला रहे हैं, कभी कहती दूध पी लो, कभी कहती भोजन कर लो, उसने अपने को मेरे स्नेहपाश से जकड़ रखा था।

एक दिन की बात है, मेरी माँ गौ दुहने के लिये रात के समय घर से बाहर निकली, रास्ते में उसके पैर से साँप छू गया, उसने उस बेचारी को डस लिया,उस साँप का क्या दोष, काल की ऐसी ही प्रेरणा थी, मैंने समझा, भक्तों का मंगल चाहने वाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है।
इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा,फिर मैं एक वन में गया वहां पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया,और उन संत-महात्माओं द्वारा दिए हुए मन्त्र का जप करने लगा।
भगवान के चरण - कमलों का ध्यान करते ही भगवत-प्राप्ति की उत्कट लालसा से मेरे नेत्रों में आँसू छलछला आये और हृदय में धीरे-धीरे भगवान प्रकट हो गये। 
फिर कुछ समय बाद भगवान की आकाशवाणी हुई कि –
          ‘खेद है कि इस जन्म में तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे। जिनकी वासनाएँ पूर्णतया शान्त नहीं हो गयीं हैं, उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है, लेकिन अगले जन्म में तुम्हें मेरे दर्शन जरूर होंगे,और अब मैं भगवान की भक्ति और कृपा के कारण नारद हूँ।
मैं भगवान की कृपा से वैकुण्ठादि में और तीनों लोकों में बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करता हूँ,मेरे जीवन का व्रत भगवद्भजन अखण्ड रूप से चलता रहता है ।
मुझे भगवान ने एक वीणा दी है,जिसमे मैं सिर्फ भगवान की लीलाओं का गुणगान करता हूँ--
           "देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम्।
            मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम्॥"

भगवान की दी हुई इस स्वर ब्रह्म से विभूषित वीणा पर तान छेड़कर मैं उनकी लीलाओं का गान करता हुआ सारे संसार में विचरता हूँ,जब मैं उनकी लीलाओं का गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु,जिनके चरण कमल समस्त तीर्थों के उद्गम स्थान हैं और जिनका यशोगान मुझे बहुत ही प्रिय लगता है, बुलाये हुए की भाँति तुरन्त मेरे हृदय में आकर दर्शन दे देते हैं।
जिन लोगों का चित्त निरन्तर विषय भोगों की कामना से आतुर हो रहा है, उनके लिये भगवान की लीलाओं का कीर्तन संसार सागर से पार जाने का जहाज है, यह मेरा अपना अनुभव है।
व्यासजी! आप निष्पाप हैं, आपने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब अपने जन्म और साधना का रहस्य तथा आपकी आत्मतुष्टि का उपाय मैंने बतला दिया,आप श्रीमद भागवत ग्रन्थ का निर्माण कीजिये, इस प्रकार नारद जी ने अपना पुर्जन्म सुनाया और व्यास जी का असंतोष दूर किया। 
व्यास जी ने श्रीमदभागवत पुराण का निर्माण किया।

योग ( हनुमंत शक्ति के सन्दर्भ में )

     योग के साधक इस बात को याद रखें कि उद्देश्यहीन यौगिक क्रियाएँ पतन का मार्ग हैं। योग मार्ग पर चल कर आप अनेकों प्रकार की साधनाएँ, सिद्धियाँ और दुर्लभ शक्तियाँ प्राप्त कर लेगे। योग मार्ग आपको स्वस्थ एवं दीर्घायु जीवन भी प्रदान कर देगा। आपकी युवावस्था अन्य व्यक्तियों की तुलना में चार गुना बढ़ जायेगी। एक योग का साधक व्यक्ति अगर अपनी क्षमताओं को भोग के लिये इस्तेमाल करेगा तो फिर अंत अत्यंत ही भयावह होगा। साधक अगर सब क्षमताओं को प्राप्त कर एकांतवास करता है, तो कहीं न कहीं वह सत्य से भाग रहा है। एक कहावत है "जंगल में मोर नाचा किसने देखा" अधिकांशतः सिद्ध साधकों द्वारा इस कहावत को आत्मसात् कर देने के कारण ही समाज में अध्यात्म के प्रति संशय की स्थिति निर्मित होती है। 
           जन साधारण साधनाओं और सिद्धियों के पथ से विमुख होते हैं क्यों ? उनके सामने जो व्यक्तित्व बचते हैं वे अध्यात्म का प्रारंभिक ज्ञान भी नही रखते और तो और उनके अधकचरे प्रदर्शन से जन साधारण के बीच सिद्धियों का ह्रास होता है। हनुमान को आठ सिद्धियाँ एवं नौ निधियाँ प्राप्त हैं उनका शरीर अखण्ड ब्रह्मचर्य की दिव्य एवं पवित्र मंगलमूर्ति है। बल, बुद्धि, विद्या एवं प्रेम का अद्भुत समिश्रण है हनुमान का चरित्र । योग के साधकों को हनुमान के समान ही चरित्रवान बनना चाहिये और उन्हीं के समान अपनी साधनाओं, शक्ति और सिद्धियों से कल्याणकारी कार्यों को संपन्न करना चाहिये। हनुमान रक्षक देव हैं अतः जब तक अध्यात्म के साधक समाज की हर प्रकार की बुराईयों से रक्षा नहीं करेंगे अध्यात्म जन साधारण मे लोकप्रिय नहीं हो पायेगा। हनुमान भगवान श्री राम के द्वारा स्थापित मर्यादित आर्य संस्कृति के ही अंश हैं। उन्होंने श्री राम के साथ इस पृथ्वी को मर्यादा का पाठ पढ़ाया है। 
           रोग, क्लेश, कुविचार, हिंसा, भ्रष्टाचार, महामारियाँ, विपत्तियाँ, मद्यपान, नाना प्रकार के कुकर्म एवं प्राकृतिक प्रकोप अमर्यादित व्यवस्थाओं के कारण ही उत्पन्न होते हैं। जब तक मन, शरीर, विचार और इन्द्रियाँ मर्यादित नहीं होगी शरीर का रक्षा कवच पूर्ण नहीं हो पाता है। योग मर्यादा का ही दूसरा नाम है। मर्यादित व्यक्तित्व ही कायरता का परित्याग कर वास्तविक वीर बन सकता है। ऐसे ही व्यक्तियों से परिवार, समाज और राष्ट्र की वास्तविक रक्षा संभव है। योग केवल आत्मकल्याण का विषय नहीं है। जब हम समाज, परिवार, राष्ट्र एवं विश्व और ब्रह्माण्ड से ही सब कुछ ग्रहण करते है तो फिर इन्हें भी रक्षा और मर्यादित व्यवहार प्रदान करना हमारा प्रमुख धर्म है। हम अपने शरीर की पवित्रता एवं बल तभी तक बना सकते है जब हम पंचभूतों के निरंतर सानिध्य में रहें। 
         जल में तैरना, पहाड़ी पर भ्रमण करना, शुद्ध वायु के लिये वनों में जाना, खुली धूप में घूमना एक योग के साधक के लिये नितांत आवश्यक है इन सब से शरीर का पवित्रिकरण अति तीव्र हो जाता है। योग मात्र बंद कमरे की प्रक्रिया नहीं है यह तो मनुष्य को इस पृथ्वी पर स्वस्थ एवं गतिशील बनाए रखने की विद्या है। योग का साधक भोजन भी अत्यन्त प्रेम से करता है और उसे अच्छी तरह पचाने की भी क्षमता रखता है। आपने अनेकों ऐसे लोगों को देखा होगा कि वे प्रतिदिन उच्चतम भोजन करते हैं फिर भी शरीर पूर्ण विकसित नहीं होता और न ही चेहरे पर तेज होता है। थोड़ा सा भी मौसम के परिवर्तन होने की स्थिति में वे खाट पकड़ लेते हैं, परंतु योग का साधक अल्प भोजन से भी समग्रता के साथ सभी तत्व ग्रहण करता है और जीवन में आने वाले परिवर्तनों में वह अपरिवर्तनीय रहता है।

हनुमान- आसन

          एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न बार-बार उठता है कि ब्रह्मचर्य क्या है ? सामान्य व्यक्ति इसका मतलब सिर्फ काम क्रिया को रोकने से सम्बन्धित समझते हैं परन्तु वास्तव में काम क्रिया तो मात्र मस्तिष्क में उठ रहे काम संवेगों का परिणाम है। अगर मस्तिष्क में काम संवेग निरन्तर निर्मित हो रहे हों और व्यक्ति काम क्रिया को रोक दे तो सिर्फ दो ही बातें हो पायेंगी। नंबर एक मस्तिष्क के अंदर प्रचण्ड रूप से ऊर्जा एकत्रित हो जायेगी और व्यक्ति अपना सामान्य संतुलन खो बैठेगा या फिर वह कुछ समय पश्चात् पथभ्रष्ट होकर अनैतिक कार्य कर बैठेगा। अतः ब्रह्मचर्य से तात्पर्य है कि सर्वप्रथम काम सम्बन्धित ऊर्जा के सम्पूर्ण आयामों को समझा जाये और फिर उसके पश्चात इस ऊर्जा हो हम किस तरह से रचनात्मक एवं अन्य किसी दिशा में परिवर्तित कर पाते हैं। बिना परिवर्तन किये काम ऊर्जा को रोकना अत्यंत ही घातक एवं मूर्खता है।

          सवाल उठता है कि परिवर्तन कैसे किया जाय और कौन परिवर्तन करेगा। बस इसी बिंदु पर साधक को एक योग्य सदगुरु एवं ईश्वरीय कृपा की परम आवश्यकता पड़ती है। कुण्डलिनी शक्ति एवं काम ऊर्जा दोनों का आपस में बहुत ही गहरा एवं परस्पर सम्बन्ध है। आंतरिक रूप से कामेच्छा जब तक पूरी तरह परिवर्तित नहीं होती तब तक कुण्डलिनी जागरण की बात करना बेमतलब है। जिस बिंदु पर कामेच्छा से साधक निवृत्त होता है वहीं पर अध्यात्म की वास्तविक डगर शुरू होती है इससे पहले की सभी अवस्थाऐं मात्र आगे बढ़ने की तैयारी होती हैं। ब्रह्मचर्य के बारे में ये बातें नितांत रूप से इसलिए आवश्यक थी क्योंकि रामभक्त हनुमान पूर्ण रूप से बाल ब्रह्मचारी थे और जीवन पर्यन्त उन्हें कभी किसी भी प्रकार का वासना मय प्रेम लिप्त नहीं कर पाया। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में एक विशेष भिन्नता लिए हुए है अत: किसी की किसी से तुलना करना बेमानी है। कोई भी एक नियम सभी व्यक्तियों पर लागू नहीं होता है। ब्रह्मचर्य की बात करते समय भी हमें यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि काम ऊर्जा का सीधा सम्बन्ध हमारे अस्तित्व से है एवं एक जैविक रचना होने के नाते कोई भी इस ऊर्जा से मुक्त नहीं है परन्तु लम्बे समय से हठयोग के मार्ग पर चलते-चलते एक समय ऐसा आ जाता है कि आंतरिक रूप से बिना किसी दबाव या महत्वकांक्षा के यह रासायनिक क्रिया स्वयं ही सुप्त हो जाती है और ब्रह्मचर्य हमारे हाव-भाव, आचार-व्यवहार एवं दृष्टि में आ जाता है।

विधि -

         सर्वप्रथम सावधान की मुद्रा में खड़े हो जायें, इसके पश्चात् धीरे-धीरे दोनों टांगों को विपरीत दिशा में फैलायें । दोनो टांगों के बीच तीन फिट की दूरी स्थापित करें। लगभग पाँच सेकेण्ड तक रुकें और फिर दूरी को बढ़ाकर पांच से छ: फिट कर दें और पुन: पांच सेकेण्ड तक रुकें। ऐसा करते समय पांव के पंजे भूमि से सटे हुए हों एवं घुटने से पांव मुड़ने न पायें | इसके पश्चात् दाहिने पंजे को 90 अंश पर घुमा लें और धड़ को दाहिनी तरफ घुमाते हुए दोनों हाथों की हथेलियों को भूमि से लगा लें। इसके पश्चात् बायें पैर को इस तरीके से घुमायें रखता है। कि पंजे का आपरी हिस्सा भूमि से स्पर्श करने लगे। आसन की पूर्ण स्थिति में दोनों टांगों को एवं नितम्बों को भूमि से सटा दें। इसके पश्चात् दोनों हाथों को छाती के सामने सटाते हुए प्रणाम की मुद्रा में स्थापित कीजिए ।

           लगभग दस सेकेण्ड तक इस स्थिति में रुकें फिर धीरे धीरे सामान्य अवस्था में वापस आ जायें। इसके पश्चात् पांव की दिशा बदलते हुए पुन: एक बार इस क्रिया को सम्पन्न करें। उपरोक्त आसन में कमर से ऊपर का हिस्सा आसन करते वक्त सीधा रखना है।

लाभ

    यह आसन खिलाड़ियों विशेषकर धावकों के लिए अत्यंत ही लाभदायक है। इस आसन को करने से पांव स्फूर्तिवान बनते हैं एवं उनमें चपलता बढ़ जाती है। विशेषकर लंबी कूद एवं धावकों के लिए यह आसन बहुत ही लाभदायक है। फुटबाल खेलने वाले इस आसन को अवश्य ही करते हैं जिसके कारण वे मंदिर शिरा की अकड़न एवं छोटी-छोटी मोचों से बचे रहते हैं।
           रामभक्त हनुमान को वायु पुत्र भी कहा जाता है अतः इस आसन को करने से व्यक्ति अपने आपको शारीरिक रूप से हल्का महसूस करता है एवं उसके अंदर तैरने, हवाईजहाज से छलांग लगाने, कूदने की क्षमता का विकास होता है। इस आसन को नियमित रूप से करने वाले व्यक्ति को परम शांति का अनुभव होता है एवं उसके अंदर विकट परिस्थितियों में भी मानसिक संतुलन बनाये रखने की क्षमता का विकास होता है। जिमनास्टिक से सम्बन्धित अभ्यासी इस आसन का अत्यधिक लाभ उठा सकते हैं। सम्पूर्ण टांगों को सुडौल बनाने के लिए यह सर्वश्रेष्ठ आसन है। इसके साथ ही यह आसन उदर शक्ति का विकास करता है, मल एवं मूत्र निकास की क्रिया को सुलभ बनाता है और गृहस्थों में काम शक्ति को लम्बे समय तक बनाये रखता हैं।
                   शिव शासनत: शिव शासनत:

प्रसिद्ध देवी तीर्थ और व्रत ।।

         तीनों लोकों में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ भगवती आद्या विद्यमान न हों। सृष्टि की स्थिति, पालन और विनाश सभी की मूल में आदिशक्ति भगवती ही हैं उनकी उपासना, आराधना कभी भी कहीं भी किसी भी विधि से की जा सकती है बशर्ते कि मन में श्रद्धा और विश्वास हो। भगवती की भक्ति में लीन होकर सदैव उनके ही चरण कमलों का चिंतन करने वाला साधक संसार में सर्वत्र निर्भय होकर विचरण कर सकता है आसुरी शक्तियाँ, भूत-प्रेत या तांत्रिक मांत्रिक उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।
                भगवती जगदम्बा सर्वस्वरूपिणी हैं सम्पूर्ण काल उनके व्रत के लिए उत्तम है तथापि स्वरूप भेद से अलग अलग स्थानों में सुशोभित भगवती के सिद्ध तीर्थों का अपना अलग महत्व है। एक बार प्रसंगवश भगवती ने पर्वतराज हिमालय के अनुरोध पर उनकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए स्वयं अपने प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों के विषय में बताया था उन स्थानों का वर्णन अक्षरश: जैसा कि श्रीमद् देवी भागवत् में उल्लिखित है हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
                  कोलापुर नाम का एक परम प्रसिद्ध स्थान है, जहाँ लक्ष्मी सदा निवास करती हैं। दूसरे स्थान का नाम मातुःपुर है, उस पुरी में भगवती रेणुका रहती हैं। तुलजापुर मेरा तीसरा स्थान है। ऐसे ही एक स्थान का नाम सप्तश्रृङ्ग है। हिंगुला ज्वालामुखी, शाकम्भरी भ्रामरी, रक्तदन्तिका और दुर्गा इन देवियों के स्थान इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हैं। भगवती विंध्याचली का सर्वोत्तम स्थान विंध्य पर्वत पर है। अन्नपूर्णा स्थान और काञ्चीपुर स्थान अत्यन्त श्रेष्ठ माने जाते हैं। देवी भीमा और विमला के उत्तम स्थान इन्हीं के नाम से विख्यात है। श्रीचता का महान स्थान कर्णाटक देश में है। भगवती मीनाक्षी उत्तन स्थान चिदम्बरम् में बताया गया है। देवी सुन्दरी का परम उत्तम स्थान वेदारण्य में है। भगवती पराशक्ति एकाम्बर नामक सुप्रसिद्ध स्थान में शोभा पाती हैं। भगवा महाला और योगीश्वरी का स्थान इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है। देवी नीलसरस्वती का स्थान चीन देश में देवी बगला का सर्वोत्कृष्ट स्थान वैद्यनाथधाम में है। मैं सर्वे अर्य सम्पन्न भगवती भुवनेश्वरी हूँ। मेरा स्थान मणिद्वीप पर्वत पर कहा गया है। शंकर सती के शरीर को लेकर घूम रहे थे। उस समय सती का योनि भाग जहाँ गिरा वह स्थान कामरू नामक देश से प्रसिद्ध हो गया। वहीं भगवती त्रिपुरसुन्दरी का स्थान है। महामाया से सुशोभित यह स्थान जगत में जितने क्षेत्र हैं, उन सबका रत्न है, धरातल में इससे बढ़कर प्रसिद्ध स्थान कहीं कोई भी नहीं है। वह इतना जीता जागता स्थान है कि प्रत्येक मास में देवी वहाँ रजस्वला हुआ करती हैं। उस समय वहाँ के रहने वाले सभी प्रधान देवता पर्वत पर चले आते और वहाँ ठहरने की व्यवस्था कर लेते हैं। विद्वान पुरुषों का कथन है कि उस अवसर पर वहाँ की सम्पूर्ण भूमि देवीमय हो जाती है। अतः इस कामाख्यायोनि मण्डल से श्रेष्ठ अन्य कोई स्थान नहीं है।
            
                सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न पुष्कर क्षेत्र भगवती गायत्री का उत्तम स्थान कहा गया है। अमरकण्टक देश में भगवती चण्डिका का स्थान है। प्रभास क्षेत्र में भगवती पुष्करेक्षिणी रहती हैं। नैमिषारण्य परम प्रसिद्ध स्थान है। वहाँ सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से शोभा पाने वाली भगवती ललिता विराजती हैं। पुष्कर में देवी पुरुहूता का तथा आषाढ़ी में देवी रति का उत्तम धाम है। चण्डमुण्डी नामक स्थान में चण्ड और मुण्ड को शांत करने वाली भगवती परमेश्वरी विराजती हैं। भारभूति में देवी नृति का तथा नाकुल में देवी नकुलेश्वरी का धाम है। हरिश्चन्द्र नामक स्थान में भगवती चन्द्रिका एवं श्री शैल पर्वत पर भगवती शांकरी प्रसिद्ध हैं। जप्येश्वर में देवी त्रिशूला और आम्रकेशर में देवी सूक्ष्मा विराजती हैं। महाकाल नामक क्षेत्र में भगवती शांकरी, मध्यम संज्ञक स्थान में शर्वाणी तथा केदार नाम से प्रसिद्ध महान क्षेत्र में देवी मार्गदायनी शोभा पाती हैं। भैरव नामक स्थान भगवती भैरवी का तथा गया भगवती मंगला का स्थान कहा गया है। देवी स्थाणुप्रिया कुरुक्षेत्र में रहती है और देवी स्वायम्भुवी नाकुल में कनखलं में देवी उग्रा का विमलेश्वर में विश्वेशा का, अहास नामक स्थान में महानन्दा का महेन्द्र पर्वत पर महान्तका का, भीमा पर्वत पर भगवती भीमेश्वरी का, वस्त्रापथ नामक स्थान में भगवती शांकरी का, अर्द्धकोटि पर्वत पर रुद्राणी का अविमुक्त क्षेत्र में विशालाक्षी का महालय नामक स्थान में महाभागा का गोकर्ण में भद्रकर्णी का, भद्रकर्णक में भद्रास्या का, सुवर्णाक्ष नामक स्थान में उत्पलाक्षी का, स्थाणु नामक स्थान में स्थाप्रवीशा का, कमलालय में कमला का, छागलण्डक में प्रचण्डा का, कुरण्डल में त्रिसंध्या का, 

माकोट में भृकुटेश्वरी का मण्डलेश में शाण्डकी का, कालंजर पर्वत पर भगवती ध्वनि का तथा स्थूलकेश्वर पर्वत पर देवी स्थूला का धाम कहा गया है। परमेश्वरी हल्लेखा सम्पूर्ण ज्ञानी पुरुषों के हृदयरूपी कमल पर विराजमान रहती है।
               .जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि देवी का व्रत किसी भी दिन किया जा सकता है किन्तु अनन्त तृतीया व्रत रसकल्याणिनी व्रत और आर्द्रानन्द करीव्रत श्रेष्ठ माने गये हैं। शुक्रवार चतुर्दशी और भौमवार को भी भगवती के व्रत के लिए उत्तम माना गया है। शास्त्रों में देखी के प्रदोष व्रत का वर्णन करते हुए कहा गया है कि प्रदोष देवी का यह व्रत है जिस समय निशीथ रात में भगवान शिव अपनी प्रेयसी प्रिया को आसन पर बैठाकर उनके सामने देवताओं सहित नृत्य करते हैं। इस दिन उपवास करके सायंकाल के प्रदोष में देवी का पूजन करना चाहिए। सोमवार भी भगवती को अत्यंत प्रिय है इस व्रत में दिन भर उपवास करके देवी का पूजन करने के पश्चात रात्रि में भोजन करना चाहिए। चैत्र व आश्विन में पड़ने वाले दोनों नवरात्र देवी को परम प्रिय हैं। नवरात्र में प्रतिपदा के दिन विधिवत देवी की स्थापना कर नियमित रूप से तीनों संध्याओं के समय भगवती का पूजन करना चाहिए तथा अष्टमी या नवमी को हवन व कन्याओं को भोजन कराने से भगवती अत्यंत प्रसन्न होती हैं।
                    
                   शिव शासनत: शिव शासनत:

बजरंग बाण ।।

      दस वर्ष पुरानी बात है, मेरे एक परिचित जो कि पुलिस विभाग में कार्यरत हैं राम भक्त हनुमान के परम भक्त हैं। किसी कारणवश मुझे प्रातः काल उनके घर जाना पड़ा। सुबह के समय जब मैं उनके घर पहुंचा तो वह बैठक से जुड़े हुये पूजा गृह में हनुमान जी की मूर्ति के सामने बड़े ही वीर भाव में किसी स्त्रोत का पाठ कर रहे थे। उनके पाठ में इतना तेज और प्राण था कि मेरे सम्पूर्ण शरीर के रोम छिद्र खुल गये और शरीर के सभी बाल सर्दी के मौसम में भी खड़े हो गये एवं सम्पूर्ण शरीर में एक विशेष ऊर्जा के प्रवाह का एहसास अचानक ही होने लगा। पूजा के पश्चात् जब वे मेरे पास आये तो मैंने उनसे सर्वप्रथम इसी स्त्रोत के बारे में पूछा। तब उन्होंने हंसते हुये बताया कि लगभग 20 वर्षों से मैं प्रातः काल बजरंग बाण का पाठ करता हूँ। 
          उनके पाठन को देखकर ही मैं समझ गया था कि निश्चित ही यह व्यक्ति बजरंग बाण सिद्ध है। पुस्तक में लिखा श्लोक एक अलग बात है परन्तु जब साधक श्रद्धा और पूर्ण तन्मयता के साथ उसे सिद्ध कर लेता है तो फिर मुख से निकला वह श्लोक या पाठ पूर्ण चैतन्य होता है। इस प्रकार के चैतन्य पाठ को सुनने से ही जब मैने अपने अंदर इतनी शक्ति का एहसास किया तब जो स्वयं ही वर्षों से इसका पाठ कर रहा है उसे कितनी दिव्य शक्ति प्राप्त होती होगी यह साधक के लिये चिंतन का विषय है। वार्तालाप में उन्होंने मुझे बताया कि जिस नौकरी में वे कार्यरत हैं उसमे उन्हें प्रतिदिन पता नहीं किस प्रकार के दुष्ट व्यक्ति को गिरफ्तार करना है इसीलिये कार्य अत्यधिक कठिन होता है। कठिन कार्यों में संलग्न व्यक्तियों को बजरंग बाण के पाठ से कार्य सिद्धि निश्चित ही प्राप्त होती है। उन्होंने अपने जीवन में अनेको दुर्दान्त अपराधियों को इसी बजरंग बाण की सहायता से एक ही बार में पकड़ने में सफलता प्राप्त की है। 
             मैं अपने जीवन में अनेकों उच्च अधिकारियों, सफल व्यवसायियों और अत्यंत प्रतिष्ठित व्यक्तियों से मिला हूँ। ये सबके सब अत्यंत ही बुद्धिजीवी हैं। इन सबके पास प्रशासन की अटूट शक्ति है पर इनमें से एक भी व्यक्ति मुझे नास्तिक नहीं मिला और तो और ये सभी व्यक्ति कहीं न कहीं जीवित जागृत सद्गुरुओं से जुड़े हुये हैं। प्रत्येक विशेष कार्य से पहले यह अध्यात्मिक पुरुषों से श्रृद्धापूर्वक राय लेते हैं। सभी हमेशा ही विशेष अनुष्ठान इत्यादि करवाते रहते हैं और तो और सभी किसी विशेष साधना को अपने जीवन का निश्चित अंग मानकर प्रतिदिन अखण्ड रूप से उसका जाप करते रहते हैं। इन्होंने बुद्धि के माध्यम से अध्यात्म की शक्ति को समझा जो कि एक श्रेष्ठ बात है और फिर उसे अपने जीवन में गुप्त रूप से अंगीकार कर अपने कार्यों को सफल बनाते हैं। यह बात और है कि वह समाज में विभिन्न कारणों से अपने आध्यात्मिक चिंतन को प्रदर्शित नहीं करते। द्वंद का विषय तो केवल मध्यम वर्ग में ही अधिक देखने को मिलता है। मध्यमार्ग तो अधकचरा मार्ग है। इस मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति कहीं का नहीं रहता है।
            मध्यम वर्ग में भेड़चाल अधिक दिखाई पड़ती है। गुरू भी बनाते हैं तो बस उन्हें ही जिनकी चमक-दमक दीवारों और अखबारों में ज्यादा दिखाई देती है। भले ही वे ढोंगी क्यों न हों। जिस मार्ग पर सामने वाले ने चला दिया बस उसी पर भेड़ के समान चल दिये। उनके लिये गुरु का तात्पर्य अत्यधिक सीमित होता है । जो कुछ गुरु ने कहा बस उसके आगे दुनिया समाप्त हो गई। यहां तक कि जिन दिव्य शक्तियों से प्रेरणा लें उनका अनुष्ठान कर, उनके गुरुओं का प्रादुर्भाव हुआ है उन्हीं आदि शक्तियों का भी उपहास करने में नहीं चूकते। ऐसे शिष्य को प्राप्त कर उनके गुरु भी खुश नहीं होते। ज्ञान का मार्ग अत्यंत ही विराट मार्ग है। इसमें एक तो क्या अनेकों महापुरुषों के सानिध्य की जरूरत पड़ेगी। हनुमंत शक्ति ही ऐसी शक्ति है जिसने भगवान श्रीराम के सभी कार्य सौ प्रतिशत सफल किये।
                सफलता का दूसरा नाम ही हनुमंत शक्ति है और बाण का तात्पर्य तो सीधे-सीधे वायु प्रक्षेपण प्रणाली से है। सबसे सटीक और तीव्रगामी प्रणाली। हनुमंत तो मारुति नंदन और अंजनी पुत्र हैं। इसीलिये जब उपासक कार्य सिद्धि की इच्छा से भगवान श्रीरामचंद्र को हृदय में धारण कर प्रतिदिन बजरंग बाण का जाप करता है तो उसे आश्चर्य जनक सफलतायें प्राप्त होती हैं। हमारे साधु-संतों ने यह परम्परा डाली कि प्रत्येक ग्राम या नगर में उत्सवों के समय राम कथा या फिर हनुमान चालीसा का पाठ किया जाय तो इसका सीधा तात्पर्य जनमानस को भगवान श्रीराम की मर्यादा से परिचित कराना एवं उनके अंदर बजरंग शक्ति का उदय कराना ही है। प्रति वर्ष दशहरे से पूर्व प्रत्येक ग्राम में रामलीला का आयोजन किया जाता रहा है जिससे कि सही संस्कार, उच्च मर्यादायें एवं पवित्र और बलवान व्यक्तित्वों का निर्माण हो सके।

साधु संतों ने ही प्रत्येक ग्राम में हनुमत शक्ति को जाग्रत करने के लिये अखाड़ों एवं व्यायाम शालाओं का निर्माण करवाया परन्तु कालान्तर जैसे-जैसे पाश्चात्य कुप्रचारों के कारण इन सब आयोजनों का ह्रास होने लगा भारत के समाज में ऊपर से नीचे तक रोग, भ्रष्टाचार, कामलिप्तता, एकाकी परिवार और अनेक प्रकार की विकृतियां दिखाई देने लगी। आज से 50 वर्ष पूर्व आपके पूर्वज सम्पूर्ण जीवन में 100 रुपये की दवाई भी नहीं खाते थे। 70-80 वर्ष तक उनके अंग पूर्ण क्रियाशील होते थे। समाज में मद्यसेवन, धूम्रपान, भ्रष्टाचार अत्यंत ही न्यून मात्रा में था परन्तु 50 वर्ष के अंदर सब कुछ उल्टा हो गया। शरीर को प्रतिदिन 100 रुपये की दवाई खानी पड़ रही है। जिस देश में हनुमंत जैसा व्यक्तित्व हुआ वहां 30 वर्ष की उम्र में ही युवा सफेद बालों से ग्रसित दिखाई पड़ रहे हैं।
                प्राणों को शक्तिशाली केवल अध्यात्म के माध्यम से ही बनाया जा सकता है। प्राण ही शरीर का मूल हैं। प्राण बलवान होगे तो अंग-प्रत्यंग, मानस और चिंतन भी बलवान होगा। बजरंग बाण हनुमंत उपासना का अभिन्न अंग है नीचे इसे प्रस्तुत किया जा रहा है। इसका पाठ उच्च स्वर में पूर्ण श्रद्धा के साथ स्नान, ध्यान और पवित्रता के साथ प्रातः काल करने से आपके अंदर भगवान श्रीराम की मूल शक्ति आपको दिव्य सफलतायें दिलवायेगी।

दोहा
 निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान ।
तेहि के कारज, सकल शुभ सिद्ध करें हनुमान ॥

चौपाईप

जय हनुमंत सन्त हितकारी ।
 सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी ॥ 
जन के काज विलम्ब न कीजें । 
आतुर दौरि महा सुख दीजै ।। 
जैसे कूदि सिन्धु महिपारा । 
सुरसा बदन पैठि विस्तारा ।।
आगे जाय लंकिनी रोका ।
मारेहु लात गई सुरलोका ।। 
जाय विभीषन को सुख दीन्हा । 
सीता निरखि परमपद लीन्हा ।। 
बाग उजारि सिन्धु महँ बोरा । 
अति आतुर जमकातर तोरा ।। 
अक्षय कुमार को मारि संहारा । 
लूम लपेट लंक को जारा ।। 
लाह समान लंक जरि गई ।
जय जय धुनि सुरपुर में भई ।। 
अब विलम्ब केहि कारन स्वामी । 
कृपा करहु उर अन्तर्यामी ॥ 
जय जय लखन प्राण के दाता । 
आतुर होय दुःख करहु नियाता ॥ 
जै गिरिधर जे जे सुख सागर । 
सुर समूह समरथ भटनागर ।। 
ॐ हनु हनु हनु हनुमन्त हठीले । 
बैरिहि मारु बज्र की कीले ॥ 
गदा बज्र ले बेरिहिं मारो । 
महाराज प्रभु दास उबारो ॥ 
ॐ कार हुँकार महाप्रभु धावो । 
बज्र गदा हनु विलम्ब न लावो ।। 
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमन्त कपीसा ।
ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीशा ॥ 
सत्य होहु हरि शपथ पायके । 
राम दूत धरु मारु जाय के ।। 
जय जय जय हनुमन्त अगाधा । 
दुःख पावत जन केहि अपराधा ।। 
पूजा जप तप नेम अचारा । 
नहिं जानत हो दास तुम्हारा ।। 
वन उपवन मग गिरि गृह माहीं । 
तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं ॥
पाँय परौं कर जोरि मनावों । 
येहि अवसर अब केहि गोहरावौं ।। 
जय अञ्जनि कुमार बलवन्ता । 
शंकर सुवन वीर हनुमन्ता ॥ 
बदन कराल काल कुल घालक ।
राम सहाय सदा प्रतिपालक ।।
भूत, प्रेत, पिशाच निशाचर । 
अग्नि बैताल काल मारी मर ।। 
इन्हें मारु, तोहि शपथ राम की राखउ नाथ मरजाद नाम की ॥ 
जनकसुता हरि दास कहावो ।
ताकी शपथ विलम्ब न लावो ॥ 
जै जै जै धुनि होत अकासा । 
सुमिरत होत दुसह दुःख नाशा ॥ 
चरण शरण कर जोरि मनावों । 
यहि अवसर अब केहि गोहरावौं । 
उठु उठु चलु तोहि राम दुहाई पांय परौं कर जोरि मनाई ।। ॐ चं चं चं चं चपल चलंता ।
ॐ हनु हनु हनु हनु हनुमंता ॥ 
ॐ हँ हँ हाँक देत कपि चंचल । 
ॐ सं सं सहमि पराने खल दल ॥ 
अपने जन को तुरंत उबारो । 
सुमिरत होय आनंद हमारो ।। 
यह बजरंग बाण जेहि मारे । 
ताहि कहो फिर कौन उबारे ।। 
पाठ करै बजरंग बाण की । 
हनुमत रक्षा करें प्राण की ।। 
यह बजरंग वाण जो जापे । 
ताते भूत-प्रेत सब कांपे ।। 
धूप देय अरु जयै हमेशा । 
ताके तन नहिं रहें कलेशा ।।

दोहा
प्रेम प्रतीतिहि कपि भजै, सदा धरै उर ध्यान तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करें हनुमान ॥

                                     जय श्री राम