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माघ स्नान माहात्म्य ।।

          'पद्म पुराण' के उत्तर खण्ड में माघ मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि व्रत, दान व तपस्या से भी भगवान श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी माघ मास में ब्राह्ममुहूर्त में उठकर स्नानमात्र से होती है।

      व्रतैर्दानस्तपोभिश्च न तथा प्रीयते हरिः। 
     माघमज्जनमात्रेण यथा प्रीणाति केशवः।। 

          अतः सभी पापों से मुक्ति व भगवान की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ-स्नान व्रत करना चाहिए। इसका प्रारम्भ पौष की पूर्णिमा से होता है।
 
          माघ मास की ऐसी विशेषता है कि इसमें जहाँ कहीं भी जल हो, वह गंगाजल के समान होता है। इस मास की प्रत्येक तिथि पर्व हैं। कदाचित् अशक्तावस्था में पूरे मास का नियम न ले सकें तो शास्त्रों ने यह भी व्यवस्था की है तीन दिन अथवा एक दिन अवश्य माघ-स्नान व्रत का पालन करें। इस मास में स्नान, दान, उपवास और भगवत्पूजा अत्यन्त फलदायी है।


          माघ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी 'षटतिला एकादशी' के नाम से जानी जाती है। इस दिन काले तिल तथा काली गाय के दान का भी बड़ा माहात्म्य है।


1. तिल मिश्रित जल से स्नान, 2. तिल का उबटन, 3. तिल से हवन, 4. तिलमिश्रित जल का पान व तर्पण, 5. तिलमिश्रित भोजन, 6. तिल का दान। ये छः कर्म पाप का नाश करने वाले हैं।


          माघ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या 'मौनी अमावस्या' के रूप में प्रसिद्ध है। इस पवित्र तिथि पर मौन रहकर अथवा मुनियों के समान आचरणपूर्वक स्नान दान करने का विशेष महत्त्व है। 


          मंगलवारी चतुर्थी, रविवारी सप्तमी, बुधवारी अष्टमी, सोमवारी अमावस्या, ये चार तिथियाँ सूर्यग्रहण के बराबर कही गयी हैं। इनमें किया गया स्नान, दान व श्राद्ध अक्षय होता है।


          माघ शुक्ल पंचमी अर्थात् 'वसंत पंचमी' को माँ सरस्वती का आविर्भाव-दिवस माना जाता है। इस दिन प्रातः सरस्वती-पूजन करना चाहिए। पुस्तक और लेखनी (कलम) में भी देवी सरस्वती का निवास स्थान माना जाता है, अतः उनकी भी पूजा की जाती है।


          शुक्ल पक्ष की सप्तमी को 'अचला सप्तमी' कहते हैं। षष्ठी के दिन एक बार भोजन करके सप्तमी को सूर्योदय से पूर्व स्नान करने से पापनाश, रूप, सुख-सौभाग्य और सदगति प्राप्त होती है।


          ऐसे तो माघ की प्रत्येक तिथि पुण्यपर्व है, तथापि उनमें भी माघी पूर्णिमा का धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्व है। इस दिन स्नानादि से निवृत्त होकर भगवत्पूजन, श्राद्ध तथा दान करने का विशेष फल है। जो इस दिन भगवान शिव की विधिपूर्वक पूजा करता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाकर भगवान विष्णु के लोक में प्रतिष्ठित होता है।


          माघी पूर्णिमा के दिन तिल, सूती कपड़े, कम्बल, रत्न, पगड़ी, जूते आदि का अपने वैभव के अनुसार दान करके मनुष्य स्वर्गलोक में सुखी होता है। 'मत्स्य पुराण' के अनुसार इस दिन जो व्यक्ति 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' का दान करता है, उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
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जय जय श्री हरि

तीसरा शरीर (सूक्ष्म शरीर) ।।

संदेह से श्रद्धा/विचार से विवेक की यात्रा 

(SOLAR PLEXUS CHAKRA)

तीसरा शरीर अर्थात एस्ट्रल बॉडी , सूक्ष्म शरीर । 
इस सूक्ष्म शरीर के भी दो हिस्से हैं। प्राथमिक रूप से सूक्ष्म शरीर संदेह, विचार, इनके आसपास रुका रहता है। और अगर ये रूपांतरित हो जाएं— तो संदेह श्रद्धा बन जाता है; और विचार अगर रूपांतरित हो तो विवेक बन जाता है।

संदेह को किसी ने दबाया तो वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा। हालांकि सभी तरफ ऐसा समझाया जाता है कि संदेह को दबा डालो, विश्वास कर लो। जिसने संदेह को दबाया और विश्वास किया, वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा; उसके भीतर संदेह मौजूद ही रहेगा— दबा हुआ; भीतर कीड़े की तरह सरकता रहेगा और काम करता रहेगा। उसका विश्वास संदेह के भय से ही थोपा हुआ होगा।

न केवल संदेह को समझना पड़ेगा, संदेह को जीना पड़ेगा, संदेह के साथ चलना पड़ेगा,और संदेह एक दिन उस जगह पहुंचा देता है, जहां संदेह पर भी संदेह हो जाता है। और जिस दिन संदेह पर संदेह होता है उसी दिन श्रद्धा की शुरुआत हो जाती है। विचार को छोड्कर भी कोई विवेक को उपलब्ध नहीं हो सकता। विचार को छोड़नेवाले लोग हैं, छुड़ानेवाले लोग हैं; वे कहते हैं—विचार मत करो, विचार छोड़ ही दो। अगर कोई विचार छोड़ेगा, तो विश्वास और अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। वह विवेक नहीं है। विचार की सूक्ष्मतम प्रक्रिया से गुजरकर ही कोई विवेक को उपलब्ध होता है।

विवेक का क्या मतलब है?

विचार में सदा ही संदेह मौजूद है। विचार सदा इनडिसीसिव है। इसलिए बहुत विचार करनेवाले लोग कभी कुछ तय नहीं कर पाते। और जब भी कोई कुछ तय करता है, वह तभी तय कर पाता है जब विचार के चक्कर के बाहर होता है। डिसीजन जो है वह हमेशा विचार के बाहर से आता है। अगर कोई विचार में पड़ा रहे तो वह कभी निश्चय नहीं कर पाता। विचार के साथ निश्चय का कोई संबंध नहीं है।

इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि विचारहीन बड़े निश्चयात्मक होते हैं, और विचारवान बड़े निश्चयहीन होते हैं। दोनों से खतरा होता है। क्योंकि विचारहीन बहुत डिसीसिव होते हैं। वे जो करते हैं, पूरी ताकत से करते हैं। क्योंकि उनमें विचार होता ही नहीं जो जरा भी संदेह पैदा कर दे। दुनिया भर के डाग्मेटिक, अंधे जितने लोग हैं, फेनेटिक जितने लोग हैं, ये बड़े कर्मठ होते हैं; क्योंकि इनमें शक का तो सवाल ही नहीं है, ये कभी विचार तो करते नहीं। अगर इनको ऐसा लगता है कि एक हजार आदमी मारने से स्वर्ग मिलेगा, तो एक हजार एक मारकर ही फिर रुकते हैं, उसके पहले वे नहीं रुकते। एक दफा उनको खयाल नहीं आता कि यह ऐसा— ऐसा होगा? उनमें कोई इनडिसीजन नहीं है। विचारवान तो सोचता ही चला जाता है, सोचता ही चला जाता है।

तो विचार के भय से अगर कोई विचार का द्वार ही बंद कर दे, तो सिर्फ अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। अंधा विश्वास खतरनाक है और साधक के मार्ग में बड़ी बाधा है। चाहिए आंखवाला विवेक, चाहिए ऐसा विचार जिसमें डिसीजन हो। विवेक का मतलब इतना ही होता है। विवेक का मतलब है कि विचार पूरा है, लेकिन विचार से हम इतने गुजरे हैं कि अब विचार की जो भी संदेह की, शक की बातें थीं, वे विदा हो गई हैं; अब धीरे— धीरे निष्कर्ष में शुद्ध निश्चय साथ रह गया है।

तो तीसरे शरीर का केंद्र है मणिपुर, चक्र है मणिपुर। उस मणिपुर चक्र के ये दो रूप हैं. संदेह और श्रद्धा। संदेह रूपांतरित होगा तो श्रद्धा बनेगी।

लेकिन ध्यान रखें श्रद्धा संदेह के विपरीत नहीं है, शत्रु नहीं है, श्रद्धा संदेह का ही शुद्धतम विकास है, चरम विकास है; वह आखिरी छोर है जहां संदेह का सब खो जाता है, क्योंकि संदेह स्वयं पर संदेह बन जाता है और स्युसाइडल हो जाता है, आत्मघात कर लेता है और श्रद्धा उपलब्ध होती है।

भगवान गणेश प्रसिद्ध नाम ।।

आदिगणेश - नित्य, स्वयंभू, शाश्वत सनातन अनंतगणेश, सर्वशक्तिमान परमात्मा जो सभी के सृजनकर्ता, पालनहार है

गणेश - गणों के ईश्वर, समस्त जीवों के स्वामी, गणपति
बाल गणेश - बालक रुप गणेश, गणेश चतुर्थी पर बाल गणेश का पूजन होता है
प्रथम पूज्य - जिन्हें सबसे पहले पूजा जाता है, प्रथमेश्वर 
विनायक - नेतृत्वकर्ता, मार्गदर्शक, सर्वेश्वर
गजानन - जिनका मुख हाथी के समान है
गौरीसुत - देवी गौरी (पार्वती) के पुत्र
शंकर सुवन - भगवान शंकर के पुत्र
विघ्नहर्ता - विघ्न बाधाओं का हरण करने वाले 
लंबोदर - लंबे उदर (पेट) वाले
एकदंत - एक दंत (दांत) वाले 
वक्रतुंड - घुमावदार सूंड़ वाले 
महाकाय - विशाल शरीर वाले, विकट
सूर्यकोटि समप्रभ - करोड़ों सूर्य के समान तेजस्वी 
भालचंद्र - जिसके मस्तक पर चंद्रमा सुशोभित है
कपिल - भूरे या ताम्र वर्ण (रंग) वाले 
सुमुख - सुंदर मुख वाले, मनोहर 
हेरंब - पांच सिरों वाले गणेश दुर्बलों के रक्षक है
मूषक वाहन - जिनकी सवारी मूषक (चूहा) है
मोदकप्रिय - जिन्हें मोदक (लड्डू) प्रिय है 
शुभम - जिनका प्रत्येक कार्य शुभ है
मंगलमूर्ति - सभी शुभ कायों के देव
महाभाग - महान सौभाग्यशाली
बुद्धिविधाता - बुद्धि के स्वामी, बुद्धिनाथ 
गुणिन - समस्त गुणों के ज्ञानी
यशस्कर - प्रसिद्धि और भाग्य के स्वामी
अवनीश - संसार के स्वामी

भगवान कृष्ण प्रसिद्ध नाम ।।

आदिकृष्ण - नित्य, स्वयंभू, शाश्वत सनातन अनंतकृष्ण, सर्वशक्तिमान परमात्मा जो सभी के सृजनकर्ता पालनहार है


कृष्ण - संस्कृत शब्द जो "काला", "अंधेरा" या "गहरा नीला" का समानार्थी है। "अंधकार" शब्द से इसका सम्बन्ध ढलते चंद्रमा के समय को कृष्ण पक्ष कहे जाने में भी स्पष्ट झलकता है। कृष्ण नाम का एक अर्थ "अति-आकर्षक" भी है। श्रीमदभागवत पुराण के अनुसार नामकरण संस्कार के समय आचार्य गर्गाचार्य ने बताया कि, 'यह पुत्र प्रत्येक युग में अवतार धारण करता है। पूर्व के प्रत्येक युगों में शरीर धारण करते हुए इसके तीन वर्ण (रंग) श्वेत, लाल, पीला हो चुके हैं। इस बार कृष्णवर्ण का हुआ है, अतः इसका नाम कृष्ण होगा। 

कृष्णचंद्र - चंद्र जैसे शीतल एवं मनोहर
कान्हा - शिशु या बालक रुप कृष्ण
कन्हैया - किशोर अवस्था कृष्ण
गोपाल - गाय का पालन पोषण करने वाला, गौरक्षक
लडडू गोपाल - बाल कृष्ण अपने हाथ में लडडू लिए घुटनों के बल चल रहे हैं
गोविंद - इंद्रियों का सर्वव्यापी शासक, अन्य रुप में गायों का स्वामी
बांकेबिहारी - आनंद के सर्वोच्च प्रदाता जो तीन स्थान से झुके या मुडी हुई अवस्था में खड़े है। 
मदन - प्रेम के ईश्वर
मोहन - मन को मोह लेने वाला, आकर्षक
माधव - ज्ञान और भाग्य (लक्ष्मी) के स्वामी, मधु जैसा मधुर
मधुसूदन - असुर मधु का वध करने वाला
माखनचोर - जो मक्खन चुराता है, नवनीत चोर
मुकुंद - जो मुक्ति (मोक्ष) प्रदान करता है
केशव - सुंदर लंबे (बिना कटे) बालों वाला, केशी असुर का वध करने वाला
दामोदर - जिसके उदर (पेट) पर रस्सी बंधी हो, जिसके उदर में संसार है
देवकीनंदन - देवकी के पुत्र, देवकीसुत
वासुदेव - वसुदेव का पुत्र
यशोदानंदन - यशोदा के पुत्र
नंदगोपाल - नंद के पुत्र, नंदलाल
राधावल्लभ - जो राधा का प्रियतम है
रुक्मणीपति - जो रुक्मणी के पति है
मुरलीमनोहर - मुरली वादन से मन मोह लेने वाला
मुरलीधर- मुरली को धारण करने वाले
गिरिधर - पर्वत (गोवर्धन) को धारण करने वाले, 
गोवर्धन गिरधारी
सुदर्शनधर - जो सुदर्शन चक्र धारण करता है
मोर मुकुटधर - जो अपने मुकुट पर मोरपंख धारण करता है
पीतांबरधर - जो पीले वस्त्र धारण करता है
शारंग धनुर्धर - शारंग धनुष को धारण करने वाले
द्वारकाधीश - द्वारका के स्वामी
ब्रजेश - ब्रज के ईश्वर
अनिरुद्ध - जिसे रोका न जा सके
मुरारि - मुर असुर का वध करने वाला
कंसारि - कंस का वध करने वाला
असुरारि - असुरों का वध करने वाला
गोपीनाथ - गोपियों के स्वामी
श्रीनाथ - श्री (लक्ष्मी) के स्वामी, श्रीपति
श्रीकांत - श्री (लक्ष्मी) का प्रिय
हरि - पाप, ताप को हरने वाले
जगन्नाथ - जगत के स्वामी, जगदीश
नाराययावतार - भगवान नारायण के अवतार, विष्णु स्वरुप
जनार्दन - जो सभी जीवों का मूल निवास और रक्षक है
कमलनाथ - लक्ष्मी के स्वामी
कमलनयन - कमल के समान नेत्रों वाले, राजीवलोचन
पार्थसारथी - पार्थ (अर्जुन) के सारथी
पद्मनाभ - जिसकी नाभि में कमल है
पद्महस्ता - जिसके हस्त (हाथ) कमल के समान है
हिरण्यगर्भा - जिसके स्वर्ण गर्भ में संसार निवास करता है, वह ज्योतिर्मय अंड जिससे ब्रह्मा और सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई
अच्युत - अचल, अपरिवर्तनीय, वह जो अपनी अंतर्निहित प्रकृति और शक्तियों को कभी नहीं खोएगा
शिव आराध्य - शिव निरंतर जिनका स्मरण करते हैं, शिवइष्ट, शिवप्रिय
त्रिलोकरक्षक - तीनों लोकों की रक्षा करने वाले
योगेश्वर - योग के ईश्वर
योगीश्वर - योगियों के ईश्वर
सर्वेश्वर - सभी के ईश्वर
परेश - परम ईश्वर, सर्वोच्च आत्मा, सर्वोत्कृष्ट शासक
सदाजैत्र - सदा विजयी, अजेय
जितामित्र - शत्रुओं को जीतनेवाला
महाभाग - महान सौभाग्यशाली
त्रिलोकरक्षक - तीनों लोकों की रक्षा करने वाले
धर्मरक्षक - धर्म की रक्षा करने वाले
सर्वदेवाधिदेव - संपूर्ण देवताओं के भी अधिदेवता
सर्वयज्ञाधिप - संपूर्ण यज्ञों के स्वामी
शरण्यत्राणतत्पर - शरणागतों की रक्षा में तत्पर
पुराणपुरुषोत्तम - पुराण प्रसिद्ध क्षर अक्षर पुरुषों से श्रेष्ठ लीलापुरुषोत्तम
पुण्यचारित्रकीर्तन - जिनकी लीलाओं का कीर्तन परम पवित्र है
मायामानुषचरित्र - अपनी माया का आश्रय लेकर मनुष्य जैसी लीलाएँ करने वाले
सच्चिदानंद विग्रह - सत्, चित् और आनंद के स्वरुप का निर्देश कराने वाले
परात्पर पर - इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि से परे
भवबन्धैकभेषज - संसार बंधन से मुक्त करने के लिए एकमात्र औषधरुप

अयोध्याकाण्ड/रामविधुरा अयोध्या ।।

              ॥ श्रीसीतारामाभ्यां नमः॥

                   🪷 गीतावली 🪷

                   🌞 पद - ८५ 🌞
          
हौं तो समुझि रही अपनो सो ।
राम-लषन - सियको सुख मोकहँ भयो, सखी! सपनो सो ॥१॥
जिनके बिरह - बिषाद बँटावन खग-मृग जीव दुखारी ।
मोहि कहा सजनी समुझावति, हौं तिन्हकी महतारी ॥२॥
भरत - दसा सुनि, सुमिरि भूपगति, देखि दीन पुरबासी ।
तुलसी 'राम' कहति हौं सकुचति, वैहै जग उपहाँसी ॥३॥

       भावार्थ - 'सखि ! मैं तो अपनी सी बात समझती हूँ। अरी! मेरे लिये तो राम, लक्ष्मण और सीता का सुख स्वप्न के समान हो गया ।१। जिनकी विरह व्यथा को बँटाने के लिये आज पशु-पक्षी आदि सभी जीव दुखी हो रहे हैं, अरी सजनी! 'उनके विषय में मुझे क्या समझाती है ? मैं तो उनकी माता हूँ ।२। भरत की दशा सुनकर, महाराज की गति स्मरण कर और पुरवासियों को दीन देखकर मैं तो 'राम' कहने में भी सकुचाती हूँ, क्योंकि इससे संसार में मेरी हँसी होगी (कि देखो, इन दूर के सम्बन्धियों की तो ऐसी दुर्दशा है और स्वयं माता होकर यह जीवन धारण कर रही है )' ।३।


            ।।  जय जय सियाराम ।।