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गहरी- पैठ ।।

             मैंने अपने आस-पास अपने रिश्तेदार नातेदारों को समस्याओं के लिए हमेशा रुदन करते हुए देखा है। जिन्दगी की अगर हर घटना को हम अपनी आँख खोलकर देखें तो शायद समस्या का समाधान भी हो और जो समाधान होगा वह हमारा अपना होगा लेकिन हम अपनी समस्याओं को उधार के मस्तिष्क से हल करने की कोशिश करते हैं। उधार का मस्तिष्क महामारी है यह सबसे खतरनाक बीमारी है एवं इस बीमारी से हम हजारों वर्षों से पीड़ित हैं इसलिए बंधे-बंधाए सिद्धांतों का कोई अर्थ नहीं होता है अगर अर्थ है तो जीवित मन का। जीवंत मन का फूल की तरह खिला हुआ होना ही ताजा मस्तिष्क (फ्रेश माइंड) कहलाता है। जब तक मन ताजा नहीं होगा तब तक किसी समस्या का समाधान नहीं होगा।

        जो लोग नित्य, आनंदमय, शांत, निर्विकल्प, निरामय हैं, जिन्हें तत्व ज्ञान प्राप्त है, जिन पर माँ भुवनेश्वरी की अपार कृपा है, जिन पर शिव की अनन्य कृपा है, जो चारों संध्या, ध्यान, प्राणायाम करते हैं उनका मन जीवंत मन होता है क्योंकि देवी बल उनके पास होता है फिर लोक और परलोक में कोई अंतर नहीं होता है, कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। जिनका मस्तिष्क मेडिटेटिव माइंड है, द्वंद रहित है उनके लिए शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है, काली और भुवनेश्वरी में कोई अंतर नहीं है। शास्त्रों को पढ़ने से, महाभारत, रामायण, गीता जैसे महाकाव्य पढ़ने से जो ज्ञान प्राप्त होगा उससे ज्यादा ध्यानस्थ होने पर, समाधिस्थ होने पर परम सत्य के दर्शन होते हैं। 

      सत्य एक ही है पर विधाता ने सबके लिए अलग-अलग दृश्य, अलग-अलग रूप बनाएं हैं। चैतन्य के अंदर उसके नीचे आंतरिक एवं सूक्ष्म प्रवाह फैले हुए हैं जिनका संबंध सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से है। समुद्र को हम समुद्र की लहरों से अलग नहीं कर सकते क्योंकि समुद्र से लहरें जुड़ी हुई हैं। उसी प्रकार दूसरी लहर तीसरी लहर से जुड़ी हुई है। हमारे जीवन की जो भी वृत्तियाँ हैं, वेग हैं, इच्छाएं हैं, वासनाएं, कामनाएं हैं उनको समझना देखना और पहचानना जरुरी है। जितनी गहरी हमारी समझ होगी ये सब परिवर्तित होती जाएगीं। यह बहुत बड़े रहस्यों का भी रहस्य है कि हम अपनी जिस आदत से डरते हैं जागने पर उसी दिशा में परिवर्तन होना शुरु हो जाता है। जीवन सहज है, जीवन को पूरे मन से स्वीकार करें, जीवन को अंगीकार करें भले ही जीवन किसी भी रूप में हमारे सामने आता हो। जीवन की वृत्ति, जीवन की समस्याओं का डटकर सामना करें। जीवन जिस रूप में भी हमारे द्वार पर आता है उसे समझें, उसे जानें, पहचानें और सामना करें। 

        आप देखेंगे कि चैतन्य भाव से, चैतन्य मन से जब हम किसी चीज को देखते हैं तो हमारे अंदर एक अभूतपूर्व परिर्वतन शुरु हो जाता है। मन को मंदिर जैसा बनाओ, उसमें ध्यान का दीप जलाओ, उसमें जागरुकता का पहरा हो तब सामान्य सा जीवन भी अमृतमय जीवन में परिवर्तित जाता है। शरीर के तल पर जागना संसार के तल पर क्या हो रहा है, हमारे मन में क्या हो रहा है तब धीरे-धीरे तुम्हारे अंदर एक ज्योति जलनी शुरु हो जाती है और वह ज्योति हर चीज को देखती है। तुम्हारे अंदर एक प्रकार का परिवर्तन शुरु हो जाता है। अपने जीवन को कुएं के जल के समान बनाओ और हम हैं कि उसे होज की तरह बना रहे हैं। 

        कुंए और हौज दोनों में पानी होता है, पानी दोनों में हैं पर दोनों के पानी में अंतर हैं। कुएं में पानी मिट्टी, पत्थर खोदकर निकालना पड़ता है और हौज का पानी मिट्टी और पत्थर जोड़कर बनाया जाता है। कुएं में पानी अपने आप आता है और हौज में पानी बाहर से भरकर डालना पड़ता है। हौज का पानी बासा है, उसके पानी में प्राण नहीं हैं जबकि कुएं का पानी ताजा है। वह पृथ्वी के गर्भ में छुपे हुए सागरों से जुड़ा हुआ है, होज का पानी मृत है वह गंदगी फैलाता है। कुए का पानी जीवित जागृत होता है उसका संबंध सीधे सागरों से होता है यही है राज राजेश्वरी यह क्रिया है। भुवनेश्वरी की जब कृपा होती है तब वे मस्तिष्क को स्वस्थ कर उसके अंदर से ककड़ पत्थर निकाल देती हैं और जीवित जागृत सागर से, ब्रह्माण्डीय जल से संबंध स्थापित कर देती हैं। यही है अमृत की खोज इसलिए किताबी ज्ञान से जिन्होंने अपने मस्तिष्क भर लिए हैं ऐसे मस्तिष्क सड़ांध देने लगते हैं। 

         जो मनुष्य जाति को आपस में लड़वाते हैं, उनमें भेद करवाते हैं, पिटवाते हैं, आपस में दीवार खड़ी करवाते हैं, जो दीवार खड़ी करवाने में सहयोगी हो गये हैं ऐसे रटंतु तोतों का ज्ञान किताब से आया है। जो लोग खुद कुआ खोदते हैं वे सारे कचरे, मिट्टी, पत्थर जो कि सदियों से हमारे मस्तिष्क में जमा थे को फेंक देते हैं। वह ऐसे ब्रह्माण्डीय ज्ञान में पहुँच जाते हैं जो अनंत है।

          ह्रीं की इच्छा के बिना इस ब्रह्माण्ड में एक पत्ता भी नहीं हिलता है, तुम सर्व देव स्वरूपा, तुम ही सर्व मंत्र स्वरूपा, तुम अद्वितीय हो, तुम समस्त देवताओं की माता, अंधकार और अज्ञान का विनाश करने वालीं, प्राण स्वरूपा, ज्ञान शक्ति हो। आपकी यह महाशक्ति देवताओं द्वारा अनेक स्तुति किये जाने पर प्रादुर्भूत होती है एवं इनकी कृपा से ही तत्व ज्ञान, आत्म तत्व का बोध प्राप्त किया जाता है।जिससे सूर्य उदय होता है, जिससे सूर्य अस्त होता है, जिसमें सभी तत्व, अग्नि, वायु आदि सभी प्रविष्ट हैं जैसे पहिए के आरे मध्य भाग में संलग्न रहते हैं। ह्रीं ही आत्म तत्व है, ह्रीं ही प्राण तत्व है। जो इन्हें भेद से देखते हैं वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होते हैं, अर्थात इस धरती पर बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होते हैं उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होता, वह विभिन्न योनियों में सदा भटकते रहते हैं। 

       मन दो प्रकार का होता है, शुद्ध और अशुद्ध शुद्ध मन का सीधा संबंध हमारी अंतरात्मा से होता है और अशुद्ध मन का सीधा संबंध हमारी इन्द्रियों से होता है। ह्रीं के हाथ में अमृत कलश है, मनुष्य के हृदय में 101 नाड़ियाँ (नसें) हैं एवं यह शरीर में विभिन्न स्थानों में फैली हुई हैं, इन्हीं में से एक नाड़ी सुषुम्ना है जो मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र तक फैली हुई है। योगी इसी नाड़ी के द्वारा ही गमन करते हैं एवं अमृत कलश तक पहुँचते हैं और अमृत को प्राप्त करते हैं। यही उन्हें अमृत पान कराती है, इस ब्रह्म विद्या का ज्ञान भी ह्रीं देती हैं, वही दिव्य दृष्टि प्रदान करती हैं, संसार के दिव्य तत्वों से हमारा संबंध जोड़ती हैं, वह ही जीवन को दिव्यता प्रदान करती हैं क्योंकि जब तक आपके अंदर दिव्यता नहीं आयेगी तब तक दिव्य शक्तियाँ आप के ओर नहीं खिचेगीं। 

         हर पदार्थ हर तत्व अपने सजातीय तत्व की ओर ही खिंचता है और उन्हीं को अपनी ओर खींचता है। यही महासरस्वती हैं, ये ही दिव्योद्य गुरुरूपणि हैं, मानबौध गुरुरुपणि हैं अर्थात वह सारे गुरुओं की भी गुरु हैं, वही परमगुरु हैं। वह दिव्यों की गुरु हैं, वह ही सिद्धों की गुरु हैं, गुरु तो सभी के होते हैं जिस दिन मनुष्य पैदा होता है उसमें प्राण तत्व से पहले गुरु तत्व आता है। गुरु भूत-प्रेतों के भी होते हैं, गुरु राक्षसों के भी होते हैं, गुरु देवताओं के भी होते हैं गुरु मनुष्यों के भी होते हैं। बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं तो शुक्रचार्य राक्षसों के गुरु हैं। जिसमें जो तत्व अधिक होता है वह उसी तत्व से युक्त गुरु की ओर खिंचा चला जाता है। गुरु सिर्फ पुरुष ही नहीं होते हैं बल्कि गुरु स्त्रियाँ भी होती हैं। 

         ऋग्वेद की 10 134, 10-39, 10-40, 10-91, 10 95, 10-107, 10-109, 10-154, 10-159, 10-189, 5-28, 8-91, आदि सूत्रों की मंत्रदृष्टा ऋषिकाएं हैं। बिना ह्रीं केन्द्र को जागृत किये ऋषि बनना बिल्कुल असम्भव है। जब कृष्ण कहते हैं कि मेरे शरण में आ जा तो ऐसा लगेगा कि यह अहंकार का घोष है पर जब आप कृष्ण की आँखों में आँखें डालकर देखोगे तो वहाँ किसी अहंकार को नहीं पाओगे, वहाँ आप किसी को नहीं पाओगे। वहाँ परम सन्नाटा है, वहाँ शून्य है, वहाँ मैं विसर्जित हुआ दिखाई देता है इसलिए वह इतनी सरलता से सब कुछ कह देते हैं क्योंकि कृष्ण ह्रींमय हैं। जिस प्रकार प्रेम का अनुभव है उसी प्रकार पूर्ण चैतन्यमय शक्ति, ज्ञानमय शक्ति, आनंदमय शक्ति, करुणामय शक्ति ह्रीं ही है अगर अनुभव करना है तो पूर्ण समग्रता के साथ करना होगा। कृष्ण ने तो सिर्फ इतना ही कहा है कि मेरी शरण में आ जाओ क्योंकि वह पूर्ण ह्रींमय हो गये थे अगर आप में से किसी पर हीं कृपा हो गई तो वह सबसे पहले आत्म ज्ञान प्रदान करती हैं, आत्म दर्शन देती हैं, आत्म सौन्दर्य देती हैं, आत्म ऐश्वर्य देती हैं वह बाहर तो बाद में आता है। जिस दिन आप अंगुष्ठ बराबर अपने स्वयं के आत्म दर्शन कर लोगे उसी दिन आप स्वयं को नमस्कार करने लगोगे फिर आत्म साक्षी स्वयं कहता है, अहो मेरा स्वभाव, अहो मेरा प्रकाश वह अपना स्वयं का आत्म प्रकाश देखकर स्वयं की शरण में जाकर स्वयं को नमस्कार करता है। वह कहेगा कि जब सब कुछ नष्ट हो जाएगा तब भी मैं बचूंगा। अपने को ही नमस्कार, अपने ही पैर छू लेना देखने वाले कहेंगे कि अहंकार की हद हो गई पर जिसने अध्यात्म की समग्रता को समझा, उसकी गहराईयों को जाना वह सब कुछ समझ जाएगा। 

       जिसने इसका अनुभव किया है पूर्ण समग्रता के साथ वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। ह्रीं कृपा के बिना कुछ भी प्राप्त करना सम्भव नहीं है। मैं यहाँ पर अनुभव शब्द का उपयोग कर रहा हूँ, विचार तो बहुत छोटी चीज है क्योंकि अब तो कम्प्यूटर भी विचार करने लगा है, कम्प्यूटर मनुष्य से ज्यादा दक्षता और निपुणता से विचार कर लेता है। मनुष्य से तो भूल भी होती है पर कम्प्यूटर से भूल की सम्भावना तक नहीं रहती है। अध्यात्म की गरिमा उसके विचार में नहीं है बल्कि उसकी गरिमा उसके अनुभव में है। आध्यात्मिक अनुभव उसके रोम-रोम में बहता है, विचार नहीं बहता। जब मीरा के हृदय में भी ह्रीं तत्व जागृत हुआ तो वह कहती हैं 
रमैया में तो थारे रंग राती औरों के पियो परदेश बसत है। लिख लिख भेजे पाती मेरे पिया मेरे हृदय बसत है रोल करुं दिन राती ॥ 
सखी मद पी-पी माती मैं बिन पिया ही माती । प्रेम भठी को मैं मद पीयो छकी फिरु दिन राती ॥
मीरा में जब ह्रीं जागृत हुआ तो वह नाच उठीं, मीरा छलक जाती हैं इसलिए जिसकी जैसी प्रकृति उसके वैसे अनुभव होते हैं। बुद्ध में जब ह्रीं जागृत हुआ तो वह एकदम मौन हो गये, इतने मौन हो गये कि देवताओं ने आकर उनसे कहा कि तुम कुछ बोलते क्यों नहीं, तुम कुछ तो बोलो। कबीर भी कुछ दिनों के लिए बिल्कुल चुप हो गये, शिष्यों ने उनसे कहा आजकल आप कुछ बोलते नहीं हैं तब कबीर ने कहा कि मैं उसके सामने बोलता हूँ तो अज्ञानी सिद्ध होता हूँ और जब बिना बोले ही बात बन गई फिर बोलने की बात ही कहाँ, जब सुई से ही काम चल जाए तो वहाँ तलवार पागल उठाते हैं। देखा नहीं कैसी धारा बहती है, आँसू थमते नहीं, कैसी मस्ती है, जिसने इसका अनुभव किया है वही इसे जान सकता है, इसे समझ सकता है, इसे महसूस कर सकता है। 

       मंसूर को पता था उसने अगर इस तरह की बात कहीं "अनलहक" अर्थात अहं ब्रह्मास्मि, मैं ह्रीं हूँ तो मुझे सूली लगेगी, मुसलमानों की भीड़ मुझे बर्दाश्त न कर सकेगी, अंधों की भीड़ उसे देख न पाएगी, मित्रों ने उसे बहुत समझाया कि तेरी घोषणा बहुत खतरनाक होगी लेकिन घोषणा रुक न सकी। जब फूल खिलेगा तो सुगंध तो बिखरेगी ही, जब दीप जलेगा तो प्रकाश फैलेगा ही। कुछ बात ऐसी होती हैं जिन्हें कितना भी दबाओ वह नहीं दबती है। ह्रीं कैसे छुप सकता है ? आँखों से मस्ती अपने आप झलकने लगती है, आँखें मदहोश हो जाती हैं, वचनों में लोक-परलोक का रंग छा जाता है वचन इन्द्र धनुषी हो जाते हैं। गद्य भी पद्य हो जाते हैं, बातें भी तब गीतों जैसी मालूम होती हैं,चलो तो नृत्य जैसा लगता है 
"नहीं छिपता' 'नहीं छिपता" "नहीं छिपता"।खैर, खून, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीत ।
रहिमन दाबे न दबे, जानत सकल जहान ॥
यह सभी चीजें छुपाने से नहीं छिपती हैं। 

         स्वामी रामतीर्थ एक बार अमेरिका गए वह बहुत मनमौजी थे। अपनी मस्ती में मस्त थे किसी ने उनके समाधिस्थ होने से पहले ही उनसे पूछ लिया स्वामी जी इस दुनिया को किसने बनाया है, उन्होंने कहा मैंने बनाया है। अमेरिका में इस बात की बड़ी सनसनी फैल गई लोग कहने लगे आप होश में तो हो वह कहने लगे मैं बिल्कुल होश में हूँ, मैंने ही इस दुनिया को बनाया, मैंने ही इसे चलाया है। उस समय रामतीर्थ लहर की तरह नहीं थे बल्कि समाधि की अवस्था में शाश्वत बोल रहे थे। रामतीर्थ भारत लौटने पर गंगोत्री की यात्रा पर जाते हैं अभी वह गंगा में स्नान कर रहे थे और छलांग लगा दी पहाड़ों से, वह एक छोटा सा पत्र लिख गए। अब मैं इस देह में रह न सकूंगा, विराट ने बुलाया है, ह्रीं ने बुलाया है। लोग कहेंगे आत्महत्या कर ली पर वह कहते हैं मैंने सीमा तोड़कर विराट के साथ सम्बन्ध जोड़ लिए हैं, बाधाएं हटा दी हैं, मैं मरा नहीं हूँ पहले मरा-मरा सा था। मैंने सीमा छोड़ी है आत्मा नहीं यह सब बातें वह अपने पत्र में लिख गए थे। 

        एक व्यक्ति ने एक शेर का छोटा सा बच्चा पाल रखा था जिसकी अभी आँखें भी नहीं खुली थी। वह सिंह का छोटा सा बच्चा उसने अभी मांसाहार का सेवन नहीं किया था वह दाल, चॉवल, रोटी, साग-भाजी खाता था। एक दिन उस व्यक्ति को पैर में चोट लग जाती है, चोट के कारण उसके पैर से थोड़ा खून बहने लगता है सिंह का बच्चा पास में ही बैठा था वह बैठे-बैठे जीभ से उस व्यक्ति का खून चाटने लगता है, जैसे ही उसने खून चाटा बस एक क्षण में ही उसका रूपांतरण हो गया वह एकदम गुरनेि लगा। उस गुर्राहट में हिंसा थी पहले वह हिरण था अचानक सिंह बन गया। ह्रीं की कृपा से आत्म स्वरूप की याद आई, आत्म स्मृति हो गई किसी ने क्या खूब कहा है मैं वो गुम-गुस्ता मुसाफिर हूँ आप अपनी मंजिल हूँ मुझे हस्ती से क्या हासिल में खुद हस्ती का हासिल हूँ।

श्री राम ।।


       भगवान श्री नारायण ने जीवों को रामत्व अर्थात ब्रह्माण्डीय मर्यादा के अनुरूप जीवन जीने के लिये सर्वप्रथम चार बार अपने श्री मुख से ऊँ कार रूपी नादब्रह्म महाध्वनि से चार वेदों की रचना की कालान्तर उन्होंने ये चार वेद ब्रह्माजी को सौंप दिये परन्तु असुरों ने इन चार वेदों का ब्रह्मलोक से हरण कर लिया। अपहरण असुरों का सबसे प्रिय कर्म है जो वेद मनुष्यों तक पहुँचने थे, वे असुरों के पास बंधन युक्त हो गये। कालान्तर भगवान शिव को जल प्रलय करना पड़ा और ब्रह्मा जी के पुत्र मनु को जीवों की रक्षा के लिये एक दिव्य नौका का निर्माण करना पड़ा जिससे कि जल प्रलय के दौरान जीवों की सभी प्रजातियाँ सुरक्षित रह पायें परन्तु जल प्रलय की प्रचण्डता इतनी तीव्र थी कि मनु की नौका को बचाने के लिये प्रभु श्री नारायण को मत्स्य अवतार लेना पड़ा। जगत के पालनहार अपने भक्तों की रक्षा के लिए मत्स्य रूप भी धारण कर बैठे। इसे कहते हैं रामत्व, भगवान विष्णु का वह दिव्य कर्म जिससे कि प्राणी आज तक इस धरा पर फलफूल रहा है।

           कालान्तर भगवान विष्णु ने वेद रूपी महाज्ञान जन कल्याण के लिये मनु को प्रदान कर दिया। धीरे-धीरे यही वेद अनेकों दिव्य ऋषि रूपी महा विभूतियों से संस्पर्शित होते हुए अनेकों उपनिषदों, दिव्य पुराणों, ग्रंथों और अद्भुत स्त्रोतों के रूप में प्रकाशवान हुए। जैसे-जैसे आर्यों ने वेदान्त रूपी महाज्ञान को आत्मसात किया उनमें एक से एक दिव्य आभावान विभूतियाँ उत्पन्न होने लगीं परन्तु फिर एक बार अमर्यादित एवं भोगी असुरों ने इस पृथ्वी पर हाहाकार मचाना शुरू कर दिया तब इस सृष्टि में भगवान विष्णु ने त्रेता युग में प्रभु श्री राम के रूप में जन्म लिया। प्रभु श्री राम अपने अंदर समस्त वेदान्त दर्शन समाहित किये हुए हैं, उनके जीवन की प्रत्येक लीला और दिव्य कर्म वेदान्त दर्शन की शाश्वतता और सत्यता का प्रमाणीकरण करते हैं। 

           प्रभु श्री राम की दिव्य प्रेरणा से रचित वाल्मीकि रामायण और तुलसी रामायण का प्रत्येक शब्द महामंत्र है। प्रभु श्री राम के जीवन दर्शन में इस समस्त ब्रह्माण्ड का शाश्वत ज्ञान समाया हुआ है। वे विश्व बीज हैं, वे ब्रह्माण्ड नायक हैं। रामायण यही प्रमाणित करती है कि मनुष्य सर्वप्रथम ब्रह्माण्डीय रचना है इसके पश्चात ही वह राजा, रंक, ऋषि, पुत्र, पत्नी, मित्र, सेवक, गुरु इत्यादि है। इन सब चस्पों से ऊपर उठकर जीव को सर्वप्रथम ब्रह्माण्डीय मर्यादाओं को समझना चाहिये एवं उसी को मानस में रख कर जीवन के निमित्त कर्म सम्पन्न करने चाहिये। शरीर तो राजा को भी त्यागना है ऋषि को भी त्यागना है, असुर को भी त्यागना है। सभी को श्वास-प्रश्वास लेना है। सभी को सामान्य कर्म सम्पन्न करने हैं। 

          एक बार सृष्टि की मर्यादा में रहना सीख गये तो फिर जीवन में कभी भी इस धरती पर मनुष्यों द्वारा निर्मित मानकों, नियमों, तर्कों और मर्यादाओं में तिल-तिल कर जीना नहीं पड़ेगा। मनुष्य अपने जीवन के प्रारम्भ में समस्याओं के अनेकों पुराण बाँचता है। बहू सास से परेशान हो त्रिया पुराण बाँचती है। गुरु शिष्यों की अनंत समस्याओं का पुराण सुनता है। यही सब कुछ तो आजकल हो रहा है। इन सब सांसारिक पुराणों को बाँचने से आज तक भला किसे मधुरता महसूस हुई है। यह सब सांसारिक पुराण सिर्फ समस्याऐं ही बखानते हैं। इनका हल और महा औषधि दवाई की दुकान पर नहीं मिलेगी। जीवन में मानवीय सम्बन्धों की सभी समस्याओं का हल राम चरित मानस में है। 

          जब मनुष्य सब तरफ से थक जाता है, निराश हो जाता है और अपना सारा मानस कलुषित कर बैठता हैं तो उसे राम चरित मानस की याद आती है। प्रभु श्री राम की शरण में ही जीवन निर्मल, अवरोध विहीन और परम गति को प्राप्त करता है वर्ना जीवन रूपी यात्रा में तो इस कलयुग में सभी सम्बन्ध अवरोध, गड्ढे और खाइयाँ ही खोदते हैं। विष्णु का काम तो जीवन रूपी नौका की रक्षा करना ही है। अतः वे प्रभु श्री राम के रूप में इस कलयुग में हमारी जीवन यात्रा को निष्कलंक ही बनाते रहते हैं। प्रचुरता ही जीवन में समरसता और मधुरता लाती है। समरसता और मधुरता ही आनंदमय कोष में जीव को पहुँचाते हैं। महायोगी अभाव, दरिद्रता और न्यूनता के प्रवर्तक नहीं होते। महायोगी की पहचान ही यह है कि उनके आस-पास प्रचुरता, सम्पन्नता, मधुरता और आनंद की उपस्थिति होती है। 
  
                जिसने भी जीवन में प्रभु श्री राम को आत्मसात किया है उसके समस्त रोग, दरिद्रता अभाव और अज्ञान का स्वतः ही नाश हो गया है। रामत्व को आत्मसात करना ही राम राज्य की स्थापना है। राम राज्य में निवास योगी जन ही कर सकते हैं। भोगियों का अस्तित्व राम राज्य में शून्य होता है। दरिद्रता, उत्पात, अभाव, द्वेष, इत्यादि नकारात्मक प्रवृत्तियाँ वहीं उत्पन्न होती हैं जहाँ पर प्राकृतिक, दैविक और भौतिक संसाधनों का अभाव होता है। निरंतर बहने वाली गंगा के किनारे किसी भी प्राणी को प्यासा नहीं रहना पड़ता सब के सब तृप्त होते हैं, भूमि भी तृप्त होती है, वृक्ष भी तृप्त होते हैं। जो तृप्ति प्रदान करे वही रामत्व है। प्रभु श्री राम की सेवा से मनुष्य स्वयं तो तृप्त होता ही है साथ ही उसके समस्त पितर और आने वाली सात पीढ़ियाँ भी तृप्त हो जाती हैं। यही अद्भुत महिमा है श्री राम भक्ति की प्रभु श्री राम की भक्ति रूपी धारा में ही इस भारत वर्ष में अनंतकाल से अब तक असंख्यों ऋषि, मुनि, तपस्वी, साधक, चिंतक और ज्ञानी ध्यानी उत्पन्न हुये हैं। 
    
      जिस प्रकार एक वायुयान को भूमि पर उतारने के लिये उचित, सर्व सुविधा युक्त, अवरोध विहीन एवं उच्च स्तर की समतल भूमि की आवश्यकता होती है उसी प्रकार अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं को भी ईश तत्व के विभिन्न स्वरूपों से साक्षात्कार करने के लिये अपने मानस को प्रभु श्री राम की दिव्य लीलाओं से सम्पुट राम चरित्र मानस को सर्वप्रथम आत्मसात करना पड़ता है। इसके पश्चात ही अध्यात्म रूपी कल्प वृक्ष अंकुरित होता है। सर्वप्रथम मस्तिष्क की प्रत्येक कोशिका को योगमय होना होगा। ब्रह्माण्डीय मर्यादाओं के अनुकूल क्रियाशील होना पड़ेगा। भोग और लिप्तता की प्रवृत्ति त्यागनी होगी तभी अमृत रूपी अध्यात्म का उदय होगा। प्रभु श्री राम के शरणागत होना ही एकमात्र मार्ग है मुक्ति का यह आदि गुरु शंकराचार्य जी ने स्वयं कहा है अन्यथा विविध प्रपंचों और मायाजाल में उलझकर जन्म-जन्मांतर भटकते ही रहना पड़ेगा।

       रावण से बड़ा भोगी कौन हुआ है। वह भी एक दिन थक गया था भोग कर कर के। अतः प्रभु श्री राम के द्वारा मुक्त होने के लिये उसे भी बड़े यत्र करने पड़े हैं। रावण भी ब्राह्मण से राक्षस बना है। उसका पिता आदि शक्ति भगवती द्वारा शापित है। वह प्रकाण्ड शिव भक्त और ज्ञानी है। उसे भी मालूम था कि उसके पितरों का श्राप ग्रस्त जीवन तभी मुक्त हो पायेगा जब प्रभु श्री राम इस धरा पर आयेंगे। पतित को पावन बनाने वाले प्रभु श्री राम ही हैं। ब्राह्मण से ब्रह्म राक्षस तक की यात्रा रावण और उसके पूर्वजों ने स्वयं की बुद्धि से सम्पन्न की। भोग और विलास की यही नीति है परन्तु प्रभु श्री राम के हाथों मृत्यु प्राप्त कर वह पुनः ब्राह्मण बन गया। ब्राह्मण नहीं बनता तो प्रभु श्री राम अपने प्रिय भ्राता लक्ष्मण को युद्ध के मैदान में पड़े रावण के पास शिक्षा-दीक्षा के लिये नहीं भेजते। प्रभु श्री राम के हाथों राक्षस राज रावण के कुल के सभी पितरों के पाप धुल गये और सब के सब पुनः पावन हो गये।

          यही मर्म है रावण का प्रभु श्री राम अंतरयामी हैं। उनकी मर्मज्ञता अद्वितीय है। वे मर्म समझते हैं, सभी का वास्तव में रावण राम भक्त ही है। मृत्यु से पूर्व उसने भी प्रभु श्री राम को प्रणाम किया है। सत्य तो वह भी जानता था। असंख्य योनियों के उद्धारक प्रभु श्री राम की शरण में ही जीवन है अन्यथा शरीर धारण करना मात्र अभिशतता है रावण के समान ।

श्री राम रक्षा स्तोत्र

           भगवान विष्णु इस चराचर जगत के पालनकर्ता हैं। पालनकर्ता वही हो सकता है जो कि समग्र रूप से रक्षा करने में समर्थ हो। समग्रता के साथ रक्षा की स्थिति उत्पन्न होने पर अध्यात्म का उदय सम्भव है। अध्यात्म का उदय तभी सम्भव है जब सत्य की पहचान करने में जीव सक्षम हो एवं आसुरी शक्तियों के समस्त मायाजालों को भेदते हुए जीवन की सम्पूर्णता प्राप्त हो धर्म की स्थापना भगवान विष्णु का ध्येय है धर्म के मार्ग पर चलकर सत्य से साक्षात्कार सम्भव है। भगवान विष्णु के सभी अवतार कालानुसार जीव मात्र की रक्षा के लिए ही इस धरा पर प्रकट हुए हैं। जीव का जीवन इसीलिए अमूल्य है क्योंकि इसे बचाने के लिए भगवान विष्णु ने बड़े ही यत्न किये हैं अन्यथा आसुरी शक्तियाँ कब की अधर्म की स्थापना कर चुकी होती। जब जब भगवान विष्णु इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं अपने साथ समस्त देव शक्तियों और संमार्ग पर चलने वाली अन्य शक्तियों का भी प्राकट्य करते हैं। इस प्रकार इस धरा पर एक बार पुनः सद्शक्तियाँ एक साथ जन्म लेकर एक अद्भुत विष्णु परिवार की संरचना करते हुए पुनः धर्म की जड़ों को सभी जीवों में गहरे तक उतार देती हैं।

        श्री राम रक्षा स्त्रोत में भगवान विष्णु की अमोघ रक्षा व्यवस्था का ही प्रादुर्भाव है। श्री राम रक्षा स्त्रोत में भगवान विष्णु के सभी अवतारों की शक्ति समाहित है। इस स्त्रोत में माता भगवती की त्रिगुणात्मक शक्ति के रूप में माता सीता उपस्थित हैं तो वहीं भगवान विष्णु की समग्र शक्ति प्रभु श्री राम प्रदर्शित कर रहे हैं। शेषावतार श्री लक्ष्मण जी हैं एवं भरत जी और शत्रुघन के रूप में संतत्व की शक्ति दिखाई पड़ रही है। दशरथ एवं माता कौशल्या के रूप में पितृ शक्ति और मातृ शक्ति का सम्पुट है। रुद्रांश श्री हनुमंत अपने साथ नल नील, अंगद, जामवंत, विभीषण के रूप में रक्षा कवच प्रदान कर रहे हैं। प्रभु श्री राम योगी योगेश्वर का स्वरूप भी दर्शा रहे हैं। योग शक्ति से बढ़कर इस ब्रह्माण्ड में कोई भी सद शक्ति नहीं है। आसुरी शक्तियाँ भोग शक्ति में विश्वास रखती हैं। प्रभु श्री राम स्वयं कह रहे हैं रघुकुल रीत सदा चलि आई। प्राण जाहिं पर वचन न जाई ॥ 

        वे त्यागी हैं, सन्यासी हैं, तपस्वी हैं, ज्ञानी हैं एवं पुरुषों में सर्वोत्तम पुरुषोत्तम हैं। भगवान श्री कृष्ण ने कहा है शस्त्रधारियों में मैं श्री राम हूँ अर्थात प्रभु श्री राम के द्वारा धारण किये गये शस्त्र मात्र सत्य और धर्म की रक्षा के लिए ही हैं। ऋषि-मुनियों और तपस्वियों का जीवन इस पृथ्वी पर अत्यंत ही विकट एवं संघर्षमय होता है। जीवन के प्रारम्भ में वे अत्यधिक ताड़न प्राप्त करते हैं। ताड़न और भी कष्टमय हो जाता है जब वह स्वयं के रक्त सम्बन्धियों या परिवारजनों द्वारा दिया जाता है। इस प्रकार का ताड़न मृत्युतुल्य कष्ट ही प्रदान करता है। वाल्मीकि अपने जीवन के प्रारम्भ में दस्यु थे। वे प्रतिदिन मानव वध भी करते थे तो सिर्फ अपने परिवार के पालन के लिए। एक दिन उन्हें वन में नारद जी मिले उन्होंने दस्यु वाल्मीकि से कहा कि इस प्रकार का पापाचार कर जो तुम भौतिक रूप से प्राप्त कर रहे हो क्या उस पाप को तुम्हारे परिवार जन भी बाँटेंगे। नारद जी की बात सुन दस्यु वाल्मीकि परिवार वालों के पास पहुँचे जिनका पालन पोषण करने के लिए वे दस्यु बने थे उनमें से किसी एक ने भी उनके पापों में भागीदारी से साफ इन्कार कर दिया। 

            बस यहीं से वाल्मीकि का हृदय परिवर्तन हुआ। मृत्युतुल्य व्यथा में डूबे वाल्मीकि को अगर किसी ने तारा तो सिर्फ राम नाम ने वाल्मीकि रामायण की रचना ने उन्हें तारा अर्थात तारा प्रभु श्री राम ने और ताड़ना दी परिवार ने तुलसीदास जी भी प्रताड़ित हुए अपनी पत्नी के कटु वचनों से अपने ससुराल पक्ष से परन्तु तरे वह तुलसी रामायण की रचना करके। विश्वामित्र भी ताड़ित हुए हैं मेनका के द्वारा मेनका के मोह पाश में वे अपना ऋषित्व भी खो बैठे थे परन्तु प्रभु श्री राम के सानिध्य में वे भी बैकुण्ठ धाम के अधिकारी हुए और ब्रह्मऋषि कहलाये। अहिल्या भी प्रताड़ित हुई अपने पति ऋषि गौतम द्वारा अकारण ही शाप ग्रस्त हुई शिला में परिवर्तित हो गई थी। उन्हें भी तारा प्रभु श्री राम ने। 

हनुमंत एवं सुग्रीव भी प्रताड़ित हुए हैं। बालि के हाथों। सुग्रीव ने तो पत्नी और पुत्र भी खो दिये थे। उन्हें भी तारा है प्रभु श्री राम ने। विभीषण भी प्रताड़ित हुए अपने भ्राता रावण के द्वारा और अंत में प्रतिष्ठित हुए प्रभु श्री राम के द्वारा असंख्यों उदाहरण रामचरित मानस में ऐसे वर्णित हैं। प्रभु श्री राम ने तो इस समस्त जग को भव सागर से पार लगाने के लिए अवतरण लिया है। जो भी मनुष्य जीवन में सब तरफ से प्रताड़ित, अपमानित और निराश हो जाता है तब वह समग्रता के साथ पुनर्जीवन पुनः प्रभु श्री राम के चरणों में पाता है। वे अपने भक्तों की सभी प्रकार से रक्षा करते हैं। श्री राम रक्षा स्त्रोत भक्तों की रक्षा करता है दैहिक, दैविक और सांसारिक एवं अन्य प्रकार के सभी ताड़न रूपी कष्टों से। 

            चलिए अब बात करते हैं उस जीव तंत्र की जो कि समुद्र की विशाल जल राशि के अंदर स्थित है। इस जीवन तंत्र की महाव्यवस्था में प्रतिक्षण प्रत्येक जीव असुरक्षा की भावना से भयभीत है। उसके जीवन की समस्त ऊर्जा केवल अन्य जीव से स्वयं के भक्षण को बचाने में नष्ट हो जाती है। जीवन पर्यन्त वह विभिन्न क्रियाकलाप, स्वरूप परिवर्तन एवं अन्य आंतरिक व्यवस्थाओं का निर्माण सिर्फ इसलिए करता रहता है कि वह भक्षण से बच जाये पर कदापि ऐसा नहीं होता। इसका मुख्य कारण जीव के अंदर रामत्व की उपस्थिति शून्य होना है। जो जीव अपने अंदर रामत्व आत्मसात नहीं कर पाता है वह स्वयं ही भोगवादी होता है अर्थात स्वयं के जीवन के लिए दूसरे जीव का भक्षण। ऐसी स्थिति में एक न एक दिन खुद को ही किसी का ग्रास बनना पड़ेगा। निम्नगामी पशुओं में भोग का इतना विकृत स्वरूप देखने को मिलता है। कि वे कभी-कभी स्वयं के द्वारा उत्पन्न शिशु का भी भक्षण कर डालते हैं। 

        आसुरी शक्तियाँ इसी प्रकार की प्रवृत्ति से ग्रसित होती हैं। इस प्रकार के निम्म्रगामी जीवों में अध्यात्म शून्य होता है। मनुष्य योनि 84 लाख योनियों में इसलिए सर्वश्रेष्ठ है कि वह कुछ हद तक रामत्व को ग्रहण कर सकी है अर्थात योग रूपी रामत्व की व्यवस्था तो उसने आत्मसात की है। भोगवादी गुरु या राजा या अन्य पदासीन तथाकथित महापुरुष सवार होते हैं शिष्यों के कंधों पर,वे सवारी बनाते हैं स्वयं से जुड़े व्यक्तियों को, उनका काम होता है नकेल डालना अपनी शरण में आये व्यक्ति पर इसके विपरीत प्रभु श्री राम की सदशक्ति के प्रकाश में सभी आलौकित होते हैं, सभी प्राप्त करते हैं परमानंद हृदय एवं मस्तिष्क में उपस्थित सभी आघात सदा सदा के लिए विलीन हो जाते हैं।

        राम रक्षा स्त्रोत इस जगत को बुधकौशिक ऋषि से प्राप्त हुआ है, बुधकौशिक ऋषि को यह स्वप्र में भगवान शंकर से प्राप्त हुआ था। अनुष्टुप् छन्द में विरचित इस वज्रपरञ्जर स्त्रोत के ऋषि बुधकौशिक हैं, भगवती श्री सीता इसकी शक्ति हैं, भगवान श्री राम इसके देवता हैं तथा श्री हनुमान जी इसके कीलक हैं। इस स्त्रोत में विश्वाधार, विश्वसंरक्षक, पतितपावन, सर्वसमर्थ, पूर्णपुरुषोत्तम भगवान श्री सीताराम का ध्यान करने के उपरान्त अंग-प्रत्यंग की रक्षा करने के लिये उनसे प्रार्थना की गयी है। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्री राम की वन्दना करने वाले का तथा उनके आश्रित रहने वाले का सर्वत्र और सर्वदा कल्याण ही होता है। लौकिक कष्ट की तो बात ही क्या, रामाश्रयी भक्त को न यमदूत भयभीत कर सकते हैं और न उसे संसार-चक्र में पड़ना पड़ता है। भगवान श्री सीताराम की प्रसन्नता प्राप्ति के लिये इस स्त्रोत का पाठ करना चाहिये।
 
            भगवान श्री सीताराम की शक्ति अनिर्वचनीय तथा अचिन्त्य है। उनकी कृपा से सांसारिक कष्ट, शरीरिक रोग और मानसिक चिन्ताऐं दूर हो सकती हैं। पाठकर्ता की श्रद्धा और भावना के अनुसार न केवल लौकिक, अपितु पारलौकिक और पारमार्थिक लाभ भी श्री रामरक्षा स्त्रोत के पाठ से होता है। इसके सिद्धकर्ता को श्रद्धा विश्वास के साथ भावपूर्वक अर्थ समझते हुए पुन: पुनः पाठ करना चाहिये, जिससे अभीष्ट प्राप्ति शीघ्र हो सके।

 विनियोग
   ॐ अस्य श्री रामरक्षास्त्रोतमंत्रस्य बुधकौशिक ऋषिः श्री सीतारामचन्द्रो देवता अनुष्टुप छन्दः सीता शक्तिः श्रीमान् हनुमान् कीलकं श्री रामचन्द्रप्रीत्यर्थे रामरक्षास्त्रोतजपे विनियोगः ।

ध्यान
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्।
वामाङ्कारूढसीतामुखकमलमिललोचनं नीरदाभं नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरजटामण्डलं रामचन्द्रम् ॥

अथ श्री रामरक्षा स्तोत्रम्

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् । 
एकै कमक्षरं पुंसां महापातक नाशनम् ॥ 

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् । जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम् ॥

 सासितूणधनुर्बाणपाणिं, नक्तंचरान्तकम् । 
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ।। 

रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम् । 
शिरो मे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः ॥ 

कौशल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियः श्रुती । 
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः ।। 

जिह्वां विद्यानिधिः पातु कण्ठं भरतवन्दितः । 
स्कन्धौ दिव्यायुधः पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः ॥ 

करौ सीतापतिः पातु हृदयं जामदग्न्यजित् । 
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयः ॥ 

सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः । 
ऊरू रघूत्तमः पातु रक्षःकुलविनाशकृत् ॥ 

जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्घे दशमुखान्तकः । 
पादौ विभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलं वपुः॥ 

एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् । 
स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्॥

 पातालभूतलव्यो मचारिणश्छद्मचारिणः । 
न द्रष्टमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः॥ 

रामेति रामभद्रेति रामचन्द्रेति वा स्मरन् । 
नरो न लिप्यते पापैर्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति॥ 

जगज्जैत्रैक मन्त्रेण रामनामाभिरक्षितम् । 
यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिद्धयः॥

 वज्रपञ्जरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत् । 
आव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमङ्गलम्॥ 

आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः। 
तथा लिखितवान्प्रातः प्रबुद्धो बुधकौशिकः॥ 

आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम्। अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान्स नः प्रभुः॥ 

तरुणौ रूपसम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ। पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ॥

फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ। 
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥ 

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्। रक्षःकुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ॥

 आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषङ्गसङ्गिनौ । रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम्॥

 सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा । गच्छन्मनोरथान्नश्च रामः पातु सलक्ष्मणः ॥ 

रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली। काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौशल्येयो रघूत्तमः ॥ 

वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः । 
जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः ॥ 

इत्येतानि जपन्नित्यं मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः । 
अश्वमेधाधिकं पुण्यं सम्प्रात्नोति न संशयः ॥

 रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् । 
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नराः ॥ 

रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुन्दरं काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् । 
राजेन्दं सत्यसन्धं दशरथतनयं श्यामलं शान्तमूर्ति वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् ॥ 

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे । 
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥ 

श्री राम राम रघुनन्दन राम राम श्री राम राम भरताग्रज राम राम । 
श्री राम राम रणकर्कश राम राम श्री राम राम शरणं भव राम राम ॥ 

श्री रामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि श्री रामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि । 
श्री रामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि श्री रामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 

माता रामो मत्पिता रामचन्द्र: स्वामी रामो मत्सखा सर्वस्वं मे रामचन्दो रामचन्द्रः । 
दयालु नन्यं जाने नैव जाने न जाने ।। 

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च जनकात्मजा ।
 पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम् ॥ 

लोकाभिरामं रणरङ्गधीरं राजीवनेत्र रघुवंशनाथम् । कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्री रामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये ।।

 मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां   
वरिष्ठम् । 
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्री रामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥ 

 कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् । 
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥

 आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् । 
लोकाभिरामं श्री रामं भूयो भूयो नामाम्यहम् ॥ 

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसम्पदाम् । 
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ॥ 

रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः । 
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽहं रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ 

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। 
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ 

इति श्री बुधकोशिकमुनिविरचितं श्री रामरक्षास्त्रोतं सम्पूर्णम् ।


इस रामरक्षास्तोत्र-मंत्र के बुधकौशिक ऋषि हैं। सीता और रामचन्द्र देवता हैं, अनुष्टुप् छन्द है, सीता शक्ति हैं श्रीमान् हनुमान जी कीलक हैं तथा श्री रामचन्द्र जी की प्रसन्नता के लिये रामरक्षास्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता है।

ध्यान-
 जो धनुष-बाण धारण किये हुए हैं, बद्धपद्मासन से विराजमान हैं, पीताम्बर पहने हुए हैं, जिनके प्रसन्न नयन नूतन कमलदल से स्पर्धा करते तथा वामभाग में विराजमान श्री सीता जी के मुखकमल से मिले हुए हैं उन आजानुबाहु, मेघश्याम, नाना प्रकार के अलङ्ककारों से विभूषित तथा विशाल जटाजूटधारी श्री रामचन्द्र जी का ध्यान करें।

श्री रघुनाथ जी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला है और उसका एक-एक अक्षर भी मनुष्यों के महान पापों को नष्ट करने वाला है।
जो नीलकमल दल के समान श्यामवर्ण, कमलनयन, जटाओं के मुकुट से सुशोभित, हाथों में खड्ग, तूणीर, धनुष और बाण धारण करने वाले, राक्षसों के संहारकारी तथा संसार की रक्षा के लिये अपनी लीला से ही अवतीर्ण हुए हैं, उन अजन्मा और सर्वव्यापक भगवान राम का जानकी और लक्ष्मण जी के सहित स्मरण कर प्रज्ञा पुरुष इस सर्वकामप्रदा और पापविनाशिनी रामरक्षा का पाठ करें। मेरे सिर की राघव और ललाट की दशरथात्मज रक्षा करें। कौसल्यानन्दन नेत्रों की रक्षा करें, विश्वामित्रप्रिय कानों को सुरक्षित रखें तथा यज्ञरक्षक घ्राण की और सौमित्रिवत्सल मुख की रक्षा करें।

मेरी जिह्वा की विद्यानिधि, कण्ठ की भरतवन्दित, कन्धों की दिव्यायुध और भुजाओं की भग्रेशकार्मुक (महादेव जी का धनुष तोड़ने वाले) रक्षा करें।

हाथों की सीतापति, हृदय की जामदग्न्यजित् (परशुराम जी को जीतने वाले), मध्यभाग की खरध्वंसी (खर नाम के राक्षस का नाश करने वाले) और नाभि की जाम्बवदाश्रय (जामवंत के आश्रयस्वरूप) रक्षा करें।

कमर की सुग्रीवेश (सुग्रीव के स्वामी), सक्थियों की हनुमत्प्रभु और ऊरुओं की राक्षस लविनाशक रघुश्रेष्ठ रक्षा करें। 
जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशमुखान्तक (रावण) को मारने वाले), चरणों की विभीषणश्रीद (विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले) और सम्पूर्ण शरीर की श्री राम रक्षा करें।

जो पुण्यवान पुरुष रामबल से सम्पन्न इस रक्षा का पाठ करता है वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयसम्पन्न हो जाता है।

जो जीव पाताल, पृथ्वी अथवा आकाश में विचरते हैं और जो छद्मवेश में घूमते रहते हैं वे राम नामों से सुरक्षित पुरुष को देख भी नहीं सकते।

राम, रामभद्र, रामचन्द्र इन नामों का स्मरण करने से मनुष्य पापों से लिप्त नहीं होता तथा भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
जो पुरुष जगत को विजय करने वाले एकमात्र मंत्र राम नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कण्ठ में धारण करता है (अर्थात इसे कण्ठस्थ कर लेता है) सम्पूर्ण सिद्धियाँ उसके हस्तगत हो जाती हैं।

जो मनुष्य वज्रपञ्जर नामक इस रामकवच का स्मरण करता है उसकी आज्ञा का कहीं उल्लंघन नहीं होता और उसे सर्वत्र जय और मंगल की प्राप्ति होती है।

श्री शंकर ने रात्रि के समय स्वप्न में इस रामरक्षा का जिस प्रकार आदेश दिया था उसी प्रकार प्रातःकाल जागने पर, बुधकौशिक ने इसे लिख दिया।

जो मानो कल्पवृक्षों के बगीचे हैं तथा समस्त आपत्तियों का अंत करने वाले हैं, जो तीनों लोकों में परम सुन्दर हैं वे श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं।

जो तरुण अवस्थावाले, रूपवान, सुकुमार, महाबली, कमल के समान विशाल नेत्रवाले, चीरवस्त्र और कृष्णमृगचर्मधारी, फल-मूल आहार करने वाले, संयमी, तपस्वी, ब्रह्मचारी, सम्पूर्ण जीवों को शरण देने वाले समस्त धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसकुल का नाश करने वाले हैं वे रघुश्रेष्ठ दशरथकुमार राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें।

जिन्होंने सन्धान किया हुआ धनुष ले रखा है, जो बाण का स्पर्श कर रहे हैं तथा अक्षय बाणों से युक्त तूणीर लिये हुए हैं वे राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिये मार्ग में सदा ही मेरे आगे चलें।

सर्वदा उद्यत, कवचधारी, हाथ में खड्ग लिये, धनुष बाण धारण किये तथा युवा अवस्थाकाल ले भगवान राम लक्ष्मण जी के सहित आगे-आगे चलकर हमारे मनोरथों की रक्षा करें।

भगवान का कथन है कि राम, दाशरथि, शूर, लक्ष्मणनुचर, बली, काकुत्स्थ, पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघूत्तम, वेदान्तवेद्य, यज्ञेश, पुरुषोत्तम, जानकीवल्लभ, श्रीमान और अप्रमेयपराक्रम इन नामों का नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने से मेरा भक्त अश्वमेघ यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त करता है इसमें कोई सन्देह नहीं।

जो लोग दूर्वादल के समान श्यामवर्ण, कमलनयन, पीताम्बरधारी, भगवान राम का इन दिव्य नामों से स्तवन करते हैं वे संसारचक्र में नहीं पड़ते।

लक्ष्मण जी के पूर्वज, रघुकुल में श्रेष्ठ, सीताजी के स्वामी, अति सुन्दर, ककुत्स्थकुलनन्दन, करुणासागर,


 गुणनिधान, ब्राह्मणभक्त, परम धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथपुत्र, श्याम और शान्तमूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर रघुकुलतिलक, राघव और रावणारि भगवान राम की मैं वन्दना करता हूँ।

राम,रामभद्र,रामचन्द्र,विधातृस्वरूप,रघुनाथ प्रभु सीतापति को नमस्कार है।

हे रघुनन्दन श्री राम! हे भरताग्रज भगवान राम! हे रणधीर प्रभु राम ! आप मेरे आश्रय होइये ।

मैं श्री रामचन्द्र जी के चरणों का मन से स्मरण करता हूँ,श्री रामचन्द्र के चरणों का वाणी से कीर्तन करता हूँ,श्री रामचन्द्र के चरणों को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ तथा श्री रामचन्द्र के चरणों की शरण लेता हूँ

राम मेरी माता हैं,राम मेरे पिता हॅ,राम स्वामी हैं और राम ही मेरे सखा हैं। दयामय रामचन्द्र ही मेरे सर्वस्व हैं, उनके सिवा और किसी को मैं नहीं जानता बिलकुल नहीं जानता।

जिनकी दायीं ओर लक्ष्मण जी,बायीं ओर जानकी जी और सामने हनुमान जी विराजमान हैं उन रघुनाथजी की मैं वन्दना करता हूँ।

जो सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर,रणक्रीड़ा में धीर, कमलनयन, रघुवंशनायक, करुणामूर्ति और करुणा के भण्डार हैं उन श्री रामचन्द्र जी की मैं शरण लेता हूँ। जिनकी मन के समान गति और वायु के समान वेग है, जो परम जितेन्द्रिय और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं उन पवननन्दन वानराग्रगण्य श्री रामदूत की मैं शरण लेता हूँ।

कवितामयी डाली पर बैठकर मधुर अक्षरों वाले राम- राम इस मधुर नाम को कूंजते हुए वाल्मीकि रूप कोकिल की मैं वन्दना करता हूँ।

आपत्तियों को हरने वाले तथा सब प्रकार की सम्पत्ति प्रदान करने वाले लोकाभिराम भगवान राम को बारंबार नमस्कार करता हूँ।

राम राम ऐसा घोष करना सम्पूर्ण संसार बीजों को भून डालने वाला, समस्त सुख-सम्पत्ति प्राप्ति कराने वाला तथा यमदूतों को भयभीत करने वाला है।

राजाओं में श्रेष्ठ श्री राम जी सदा विजय को प्राप्त होते हैं। मैं लक्ष्मीपति भगवान राम का भजन करता हूँ जिन रामचन्द्रजी ने सम्पूर्ण राक्षससेना का ध्वंस कर दिया था, मैं उनको प्रणाम करता हूँ। राम से बड़ा और कोई भी आश्रय नहीं है। मैं उन रामचन्द्रजी का दास हूँ। मेरा चित्तसदा राम में ही लीन रहे; हे राम! आप मेरा उद्धार कीजिए।

श्री महादेव जी पार्वती जी से कहते हैं- हे सुमुखि रामनाम विष्णु सहस्त्रनाम के तुल्य है। मैं सर्वदा राम, राम,राम इस प्रकार मनोरम राम-नाम में ही रमण करता हूँ।

सिद्ध करने की विधि 

श्री रामरक्षा स्त्रोत का प्रयोग करने से पूर्व इसे सिद्ध कर लेना चाहिये अन्यथा पूर्ण फल की प्राप्ति में शंका रहती है। इस स्त्रोत को सिद्ध करने की संक्षिप्त विधि इस प्रकार है इसे सिद्ध करने का समय नवरात्रि है। नवरात्रि साल में मुख्य रूप से दो बार आती है किन्तु चैत्र मास में श्री रामनवमी पर पूर्ण होने वाली नवरात्रि अधिक उपयुक्त है। चैत्र मास या अश्विन मास के शुक्ल पक्ष के नवरात्रि में नौ दिनों (अर्थात प्रतिपदा से नवमी तिथि ) तक प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नानादि तथा नित्यकर्म से निवृत्त होकर, शुद्ध वस्त्र धारण कर,कुश के आसन पर सुखासन में पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर बैठे। सामने भगवान राम का दरबार चित्र या भगवान श्री सीताराम जी का चित्र अथवा श्री हनुमान जी का चित्र होना चाहिये। चन्दन पुष्पादि से पूजन करके इस महान फलदायी स्तोत्र को सिद्ध करने के लिये इसका ग्यारह बार पाठ नियमित रूप से प्रतिदिन करना चाहिये। पाठ के समय अखण्ड प्रज्वलित दीपक तथा धूप रखना चाहिए।

       भगवान श्री सीताराम की कृपाशक्ति के प्रति आपकी जितनी अखण्ड निष्ठा श्रृद्धा होगी, उतना ही फल प्राप्त होगा। नवमी के दिन यथा शक्ति ब्राह्मण भोजन भी करवा देना चाहिए। यह स्त्रोत नवरात्रि में सिद्ध किया जाय तो सर्वोत्तम, अन्यथा भारतीय पंचाङ्ग के अनुसार किसी भी मास के शुक्लपक्ष के प्रथम नौ दिनों में अर्थात् प्रतिपदा से नवमी तिथि तक उपर्युक्त प्रकार से नियमित पाठ करके इस स्त्रोत को सिद्ध किया जा सकता है। यह स्त्रोत श्री हनुमान जी के द्वारा कीलित है इस उत्कीलन के सम्बन्ध में मैं तो केवल यह कह सकता हूँ कि इसका उत्कीलन श्री हनुमान जी की कृपा से होता है। अतः सिद्ध करते समय या प्रयोग करते समय श्री हनुमान जी का संरक्षण एवं उनकी कृपा प्राप्त करने के लिये प्रारम्भ में और समापन पर श्री हनुमान जी का ध्यान, कृपाहेतु प्रार्थना प्रणामादि श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक करते रहना चाहिये। इससे हनुमान जी साधक को संरक्षण एवं सिद्धि देते हैं। 

        वास्तव में तो उत्कीलन का रहस्य यह है कि हनुमान जी के संरक्षण में उनके समान ही भक्ति एवं श्रद्धा से पाठ तथा प्रयोग करना चाहिये ।चाहिये । सिद्ध कर लेने के बाद एक पाठ नित्य कर लेना चाहिये । इसे सिद्ध करने से पूर्व इसे कण्ठाग्र कर लेना भी आवश्यक है। 
यथा यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्धयः।
सभी प्रकार के मनोरथ पूर्ण करने में यह स्त्रोत समर्थ है ।

छलक उठा महाभाव ।

         कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध का अंतिम दिन, गांधारी जोर-जोर से बालकों के समान विलाप कर रो रही थीं। उसके चारों तरफ उसके बच्चों के शव बिखरे पड़े थे। उसके 100 कौरव पुत्र दल बल, सेना सहित अंग-भंग युद्ध क्षेत्र में मृत पड़े थे। अपने बालकों को मृत देख वह बालकों के समान फूट फूट कर रो रही थी तभी उसका एक बालक अर्थात पाण्डव पुत्र युधिष्ठिर आ गया और बोला हे माँ मैं भी आपका बालक हूँ, आप मुझे सजा दीजिए, मुझे दण्ड दीजिए क्योंकि इस युद्ध का नेतृत्व मैंने ही किया है। गांधारी की आँखों पर पट्टी बंधी हुई थी परन्तु उसके बाल्य रूपी रुदन से वह कुछ सरक गई और गांधारी की हल्की सी दृष्टि युधिष्ठिर के हाथों पर पड़ गई। देखते ही देखते युधिष्ठिर के हाथों के नाखून काले पड़ गये। भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव डर के मारे पीछे हट गये। 

         क्रोध युक्त बाल्य दृष्टि अत्यंत ही मारक होती है, गांधारी साक्षात् रुदन बालिका बन गईं थीं तभी कृष्ण सामने आ गये और गांधारी बोल उठीं हे रसेश्वर, हे रासेश्वर यह किस रस का उत्पादन कर दिया, किस प्रकार का रास रच दिया ? तुम तो सर्वेश्वर हो, सर्व समर्थ हो, तुम्हारे पास तो असीमित बल है, सेना है, तुम चाहते तो युद्ध को समझा बुझाकर रोक सकते थे अन्यथा बल प्रयोग के द्वारा भी युद्ध रोका जा सकता था परन्तु तुमने ऐसा नहीं किया अपितु महाभारत रूपी युद्धारास रच दिया। जिस प्रकार तुम रास मण्डल में कभी-कभी रस बालेश्वरी राधा की उपेक्षा कर देते हो ठीक उसी प्रकार तुमने यहाँ पर भी उपेक्षा कर दी, चुपचाप खड़े रहे और युद्ध रूपी महारास रच गया। जाओ मैं तुम्हें श्राप देती हूँ कि यदुवंश भी ठीक इसी प्रकार आपस में युद्ध कर नष्ट हो जायेगा और तुम उपेक्षा के साथ वहाँ खड़े रहोगे। 

          रसेश्वर बोल उठे हे राजपुत्री तू क्या श्राप देगी ? मैं बाला का आराधक हूँ, बाला अर्थात राधा मेरी अर्धांगिनी है अतः मैं श्राप से परे हूँ। जो तू श्राप दे रही है वह मैं पहले ही निश्चित कर चुका । बाला के अलावा, राधा के अलावा मुझे किसी अन्य की अपेक्षा नहीं हैं अत: सब उपेक्षित हैं मेरे लिए, मैं सबकी उपेक्षा ही करता हूँ। यदुवंश को कब तक रहना है? कब नष्ट होना है? किस प्रकार नष्ट होना है? कैसे नष्ट होना है? क्यों नष्ट होना है ? इसका निर्णय किसी का श्राप नहीं करेगा अपितु इसका निर्णय मैं करूंगा और निर्णय कब का चुका है अत: तेरे श्राप को मैं गम्भीरता से नहीं लेता। यही श्रीविद्योपासना है और कृष्ण रूदन करती हुई गांधारी को छोड़ उपेक्षा पूर्वक चल दिए। 

       इस कथानक में श्रीविद्योपासना का महत्व भली-भांति उभरकर आता है। बाला का उपासक श्राप को भी टालना जानता है, बाला के उपासक के जीवन में उसकी स्व इच्छा क्रियाशील होती है। किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप चाहे वह श्राप के रूप में हो, आशीर्वाद के रूप में हो, वरदान के रूप में हो या किसी परतंत्र-परमंत्र - परयंत्र प्रयोग के रूप में हो कदापि क्रियाशील नहीं होता है। यह राज मार्ग की यात्रा है। बाला ने वशिष्ठ से कहा उठो वशिष्ठ जनमार्ग, वाममार्ग, लोकमार्ग, सामान्य मार्ग, प्रचलित मार्ग इत्यादि छोड़कर राजमार्ग पर राजाओं के समान चलो। राजा जब चलता है तो उसके मार्ग में उसके आने से पूर्व ही सारी व्यवस्थाएं सुव्यवस्थित हो जाती हैं। समस्त कंकड़-पत्थर समस्त अवरोध, समस्त रुकावटें, समस्त बाधाएं समस्त विरोध राजा के साथ चलने वाली राजकीय शक्ति अर्थात बाला स्वतः ही हटा देती है, स्तवः ही दबा देती है। आप देखिए अगर कोई राष्ट्राध्यक्ष वायु मार्ग से, थल मार्ग से कहीं गमन करता है तो उसके आने से पूर्व ही सारी व्यवस्थाएं हो जाती हैं, रास्ते नव निर्मित कर दिए जाते हैं, अवरोध समाप्त कर दिए जाते हैं और राजा की सवारी निर्विघ्न यात्रा करती है।

        पराशक्तियों का पूजन विशेषकर भगवती बाला की उपासना आम जीवन जीने के लिए लोकाचार निभाने के लिए कदापि नहीं बनी है अतः मुट्ठी भर लोग ही बाला की साधना सम्पन्न कर सकते हैं। बाला उनके साथ इस प्रकार गमन करती है जिस प्रकार राधा कृष्ण के साथ सदा गमन करती हैं। राजाओं के लिए, राज करने वालों के लिए, राज प्रवृत्तियों से सुशोभित व्यक्तित्वों के लिए ही बाला साधना बनी है। जीवन की यात्रा राज्यपथ के समान हो इसलिए बाला साधना की जाती है। बाला अपने साधक के जीवन को निष्कण्टक बनाती है। कृष्ण के अवतरित होने से पूर्व ही राधा अवतरित हो गईं थीं, उन्होंने कृष्ण को गोद में खिलाया कृष्ण पर जब भी विपदा आयी बाला रूपी राधा सामने खड़ी हो गईं, कृष्ण का महाभाव हैं राधा कृष्ण के बारे में यह विख्यात था कि वह चम्पा के पुष्पों को देखते ही मूच्छित हो जाते थे, विशेषकर जहाँ उन्होंने चम्पा के पुष्पों से गुथीं माला देखी वे इन्द्रिय शून्य हो जाते थे क्योंकि राधा अपने केशों में चम्पा के पुष्पों की वेणियाँ गुथती थीं। 

कृष्ण की रानियों ने तो पुष्पों से श्रृंगार करना ही छोड़ दिया था। न जाने कौन सा पुष्प कृष्ण के अंतर्मन में राधा के भाव को प्रज्जवलित कर दे और शरीरी कृष्ण पुनः अशरीरी हो जायें। 

        कृष्ण की रानियाँ तो बस उनका शरीर लिए हुए ही रह गईं महाभाव में तो राधा ही कृष्ण के साथ हैं। यही हाल राधा का भी था वे मयूर पंख देखकर इन्द्रिय शून्य हो जाती थीं क्योंकि कृष्ण का प्रतीक है मयूर पंख। महाभाव एक अति परिष्कृत वैज्ञानिक प्रक्रिया है जो कुछ उत्पन्न होता है वह महाभाव में ही उत्पन्न होता है, अदृश्य से दृश्य महाभाव की स्थिति में ही होते हैं। इस पृथ्वी पर श्री उत्पादन महाभाव में ही सम्पन्न हुआ है, तंत्र क्षेत्र में महाभाव का बहुत महत्व है । महाभाव कुण्डली जागरण की स्थिति है एवं इस स्थिति में जल में, पाताल में, वायु में, अग्नि में, अंतरिक्ष में ब्रह्माण्ड में कहाँ क्या है ? सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगता है। ऐसा क्यों ? क्योंकि महाविद्या का तात्पर्य है तीन नेत्र वालों की पूजा, त्रिनेत्राओं की पूजा । दसों महाविद्याएं और उनके दसों शिव तीन-तीन नेत्रों से सुशोभित हैं। दो नेत्र धोखा खा सकते हैं, भटक सकते हैं, भ्रम में आ सकते हैं, सही को गलत और गलत को सही देख सकते हैं, पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकते हैं, दो नेत्रों की ज्योति धीमी पड़ सकती है, दृष्टि विहीनता आ सकती है, दृष्टि भ्रम हो सकता है परन्तु तीसरा नेत्र सीधे-सीधे सहस्त्रार से जुड़ा हुआ है अतः वह ऊपर वर्णित स्थितियों में नहीं उलझता, उसकी देखने की क्षमता असीमित है, वह ब्रह्माण्ड से भी परे झांककर देख सकता है। 

      हे माँ बाले तू तो बाल्य स्वरूपा है, साक्षात् बालिका बन शिव के साथ खेलती है, कभी अपने दोनों कोमल हाथों से बाल्य वश शिव के नेत्र मूंद लेती है, तेरे अलावा कौन और शिव के नेत्रों को ढँक सकता है तभी तो शिव तीसरा नेत्र लगा बैठे हैं, वे तेरे बाल्यपन को समझते हैं। कभी-कभी तो तू उनके तीसरे नेत्रों को भी ढँक देती है और शिव तेरे ही नेत्रों से सृष्टि का अवलोकन करते हैं। सत्य तो यह है कि हे बालिके तेरी पलकें कभी नहीं झपकती क्योंकि शिव के पास कोई और चारा भी नहीं है सृष्टि को तेरे नेत्रों से देखने के अलावा, उनकी तीनों आँखें तो तू मूंदे हुए बैठी हुई है। तेरी सहजता, तेरा बाल्यपन ही तेरे मंत्र के प्रथम बीज 'ऐं' में छिपा हुआ है। "ऐं" का तात्पर्य है ज्ञान, हे ज्ञान स्वरूपा बाले सृष्टि में समस्त ज्ञानों की उद्गमा तू ही है क्योंकि तू ही प्रश्न कर सकती है शिव से, तू ही बालकों के समान जिज्ञासा वश ब्रह्माण्ड का गोपनीय ज्ञान शिव से पूछ सकती है। तेरे बाल्य वश पूछने पर ही शिव उवाच करते हैं, तेरी समस्त जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए ही शिव ने वेद, पुराण, उपनिषदों, तंत्र ग्रंथों, कवचों,स्तोत्रों इत्यादि की रचना की है। तू बच्चों के समान पूछती रहती है और शिव धीर गम्भीर उवाच करते रहते हैं। 

      क्लीं बीजाक्षर भी तेरा ही है क्योंकि तुझसे ही तो जगत सम्मोहित है। जब तू मधुरता के साथ शिव से कुछ पूछती है तो शिव भी सम्मोहित हो जाते हैं, वशीभूत हो जाते हैं, स्तम्भित हो जाते हैं और तू उन्हें परम एकांत में ले जाकर श्रवण करती है, तू तो शिव का महाभाव है। हे बाला तेरा तीसरा बीजाक्षर है सौंः अर्थात गुरु रूपिणी, गौ रुपिणी, गणेश रुपिणी । बीजाक्षर सौं: में ग धातु ही छिपी हुई है। सृष्टि का समस्त ज्ञान शिव ने तेरे ही कर्णों के लिए निर्मित किया है, जैसे-जैसे शिव ज्ञान तेरे कर्णो के माध्यम से तेरे श्री युक्त शरीर में प्रविष्ट होता जाता है तू साक्षात् कामधेनु बन जाती है। हे शिव ज्ञान प्रिया, हे शिव ज्ञान तृप्ता तेरी तृप्ति के पश्चात् ही हम तेरे द्वारा दुग्ध रूप में शिव ज्ञान का श्री युक्त अमृत पान करते हैं। हे बाला तेरे स्तन मण्डलों की शोभा की क्या व्याख्या करुं? वे ब्रह्माण्ड के श्रेष्ठतम्, परम सौन्दर्य युक्त, स्थूल अमृत कुम्भ हैं एवं तू अपने बालकों के लिए उनसे निरंतर अमृत स्त्रावित करती रहती है हे अमृतेश्वरी अमृत का स्त्राव ही तेरी प्रकृति है अतः सिद्धजन आल्हादित हो भ्रमरों का रूप धारण कर ह्रींकार मंत्र से सुशोभित हो तेरे सौन्दर्य युक्त, अमृतयुक्त स्तन मण्डलों के आसपास मंडराते रहते हैं। 

        मेरा दावा है कि जब तक कालीदास ने, चण्डीदास ने, तुलसीदास ने, वाल्मीकि ने, वशिष्ठ ने, दत्तात्रेय ने क्रोध-भट्टारक दुर्वासा ने, व्यास ने, आदिशंकराचार्य ने तेरी दिव्य स्तन मण्डल साधना को सम्पन्न नहीं किया तब तक वे कवि नहीं बन सके, पुराण पुरुष नहीं बन सके, ग्रंथकार एवं वेद रचियता नहीं बन सके। जब भी कभी मैं ध्यानस्थ होता हूँ तो अखिल ब्रह्माण्ड में तेरे दिव्य स्तन मण्डलों के ही दर्शन होते हैं, आगे कुछ कहना नहीं चाहता परम सौन्दर्य को गोपनीय रहने दो। हे बाले तुझमें ही वह शक्ति है कि तू शिव को श्रृंगारित कर सकती है। जया विजया के साथ मिलकर हे बाले तूने बालकों के समान खेलते हुए धूनी रमाये दिगम्बर, औघड़, हड्डियाँ धारण किए हुए, जटाजूट युक्त शिव को देखते ही देखते सौन्दर्यवान बना दिया। उनके शरीर से भस्म पोंछकर मिटा दी, उनका दुग्ध से महाभिषेक कर दिया, दीमकों की बाम्बीं उनके चारों तरफ से साफ कर दी, जटाजूटों को पुनः सुलझा दिया, केशों को सलीके से पुष्पों के साथ गूथ दिया, अस्थि माला की जगह रुद्राक्ष की मालाएं पहना दी, कर्णों में कुण्डल पहना दिए, जटा को दिव्य पुष्पों से सुशोभित कर दिया, बढ़े हुए केशों को सलीके से काट दिया, दिगम्बर शिव के कंधों पर रेशमी वस्त्र डाल दिए, स्वयं के आंचल को फाड़कर उन्हें वस्त्र युक्त बना दिया, गले में पड़े सर्पों को निकाल फेंका। 

      जैसे ही तूने शिव की तपोभूमि को स्पर्श किया वह पुष्पों से लद गई, शिव तो पाषाण पर बैठा सूर्याग्नि भक्षण कर रहे थे पर जैसे ही तूने शिव भूमि को स्पर्श किया शिव के ऊपर कल्प वृक्ष छाया देने लगा। जो शिव भांग धतूरा खाते थे वह अब तेरे हाथों से अन्न भी खाने लगे। तूने जैसा चाहा अपनी सहजता वश, अपनी प्रसन्नतावश अपने खेलवश शिव को वह स्वरूप दे दिया। तू कहीं रूठ न जाये, तू कहीं बालकों के समान रोने न लगे अतः शिव कुछ नहीं बोलते। जैसा तू नचाती है वैसा वे नाचते हैं। शिव तेरे ही ध्यान में लीन रहते हैं, शिव को तेरी ही आदत है । हे माता जब साधक स्तम्भन सिद्ध करना चाहता है तो वह तेरा ध्यान पीले वस्त्रों में करता है, तुझे पीले अलंकारों से युक्त देखता है, तुझे पीले सिंहासन पर विराजमान देखता है। हे माता साधक जब वशीकरण सिद्ध करता है तो तेरा रक्त वर्ण का ध्यान करता है, वह चिंतन करता है कि मां लाल वस्त्रों से सुशोभित हैं, रक्त चंदन का लेप अपने स्तन मण्डल पर किए हुए हैं एवं माँ के शरीर से प्रातः कालीन सूर्य की रक्त वर्णीय किरणें निकल रहीं हैं और वह वशीकरण सिद्ध हो जाता है। 

           जिस रूप में तेरा ध्यान करो हे बाले वह रूप ही सिद्धिदायी है क्योंकि तू ही एकमात्र श्री स्वरूपा है, तेरे अलावा ध्यान करने के लिए इस ब्रह्माण्ड में है ही क्या ? कृष्ण थक गये युद्ध कर-कर के, सौ वर्षों का शरीरी वियोग अंतिम क्षणों में पहुँच चुका था अतः चल पड़े कुरुक्षेत्र की तरफ तर्पण हेतु। तर्पण तो बहाना था क्योंकि स्वयं अतृप्त थे, आज स्वतर्पण की आवश्यकता थी। कितना गूढ़ रहस्य है कि पहले स्वयं तृप्त होओ, स्वयं की प्यास बुझाओ तब जाकर तर्पण सफल होता है। अतृप्तता से ही तृप्तता का उदय होता है। राधा भी अतृप्त हो रही थीं जैसे ही उन्हें मालूम चला कि कृष्ण पुनः आ रहे हैं कुरुक्षेत्र में स्व तर्पण हेतु, स्व तृप्ति हेतु कृष्ण की तृप्ति राधा भी चल पड़ीं ब्रह्म सरोवर की ओर। वट वृक्ष के नीचे ब्रह्म सरोवर के सानिध्य में दो अतृप्तताएं बालकों के समान, बालकों की दृष्टि लिए हुए अपनी-अपनी तृप्तता की तलाश कर रहे थे। दौड़ पड़े कृष्ण और राधा एक दूसरे की तरफ, सारे लोकाचार, सारी मर्यादाएं, सारे शिष्टाचार, जग के असंख्य बंधन धरे के धरे रह गये और सौ वर्षों की अतृप्तता एक क्षण में मिट गई।

         कृष्ण राधा के हो गये और राधा कृष्ण की। रानियाँ देखती रह गईं, जनता देखती रह गई एवं सब बोल उठे हे राधा नहीं सम्हाल पाये हम कृष्ण को, नहीं बहला पाये हम कृष्ण को, नहीं फुसला पाये हम कृष्ण को नहीं भुलवा पाये हम कृष्ण को तेरी याद से अतः हे राधा, हे बाले कृष्ण हमारे वश का नहीं है लो सम्हालों अपने कृष्ण को, लो सम्हालों अपने बाल गोपाल को, लो सम्हालो अपने बालेश्वर को। बाला को ही शोभा देता है बालेश्वर किसी अन्य को नहीं। रुक्मिणी आदर पूर्वक, ससम्मान राधा को द्वारिका ले आयीं, एक दिन देखा कि कृष्ण के पाँव में फफोले पड़े हुए हैं रुक्मिणी घबरा गईं, सहम गईं कि यह क्या हुआ ? कृष्ण से पूछने लगीं। वास्तव में हुआ यह था कि रुक्मिणी ने राधा जी को भूलवश कुछ गर्म दुग्ध पान हेतु दे दिया था और महाभाविका कृष्ण के भाव में डूबी हुई उसे पी गई जिसका परिणाम यह हुआ कि कृष्ण के पाँव में फफोले पड़ गये, रुक्मिणी समझ गई कि यह सब छलावा है राधा और कृष्ण दिखने में तो दो शरीर हैं परन्तु वास्तव में इनमें सम्पूर्ण एक्यता है, ये एक ही पिण्ड हैं,
क्रमशः

      जो राधा को अर्पित करो वह कृष्ण को अर्पित हो जाता है और जो कृष्ण को अर्पित करो वह राधा को अर्पित हो जाता है। महाभारत का युद्ध चल रहा था, चारों तरफ से घनघोर अस्त्र शस्त्रों की वर्षा हो रही थी, रासेश्वर कृष्ण तभी अचानक युद्धरास रूपी महाभारत के मध्य में अर्जुन के रथ समेत पहुँच गये। कर्ण, अश्वत्थामा, भीष्म, दुर्योधन, शकुनि इत्यादि के तीरों से अर्जुन को बचाते-बचाते स्वयं कृष्ण का सम्पूर्ण शरीर तीरों से भिद गया, उनकी एक-एक जांघ में पाँच-पाँच तीर घुस गये, भुजाओं एवं हृदय भी तीर से भिद गये। प्रत्येक तीर लगने पर कृष्ण के मुख से निकलता "हा राधा" और दूसरे ही क्षण उनकी पीड़ा समाप्त हो जाती। तीर लगता कृष्ण को और जख्म बनते राधा के शरीर पर, लहु बहता राधा का परन्तु वह तो महाभाविका थीं अत: हँसकर दूसरे ही क्षण स्वस्थ हो जातीं एवं तीर की चुभन भी नहीं होती। महाभाव की अवस्था में मृत्यु कदापि नहीं होती अपितु मृत्यु तुल्य कष्ट भी तिरोहित हो जाते हैं। महाभाव की अवस्था में इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रियाशक्ति का चरम तालमेल होता है। महाभाव की अवस्था समझने के लिए इन तीनों को समझना पड़ेगा। 

       कुछ लोगों में इच्छा शक्ति प्रबल होती है परन्तु इच्छा को पूर्ण कैसे किया जाय इसका ज्ञान नहीं होता, ज्ञान शक्ति के अभाव में क्रियाशक्ति पथ विहीन हो जाती है अतः जीवन में सफलता हेतु तीनों में सामंजस्य अत्यंत आवश्यक है। कुछ लोगों में इच्छा शक्ति भी होती है, ज्ञान शक्ति भी होती है परन्तु क्रियात्मक स्तर पर वे शून्य होते हैं अतः उन्हें सफलता नहीं मिलती। माँ भगवती बाला का मंत्र है "ऐं क्लीं सौः " ऐं ज्ञान शक्ति का प्रतीक है, क्लीं इच्छा शक्ति " का प्रतीक है और सौः क्रियाशक्ति का प्रतीक है जब तीनों में सामंजस्य हो जाता है तभी कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है अर्थात बाला क्रियाशील होती हैं। सिर्फ यह सोचते रहने से कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाये कुछ नहीं होगा, किताबों या गुरुजनों के माध्यम से कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञान हो जाने पर भी कुछ नहीं होगा क्रिया तो करनी पड़ेगी, साधना तो करनी पड़ेगी। जगत में मूढ़ता, शोषण, कुपोषण, अराजकता, दरिद्रता, अन्याय, विकृतता, प्रदूषणता, हिंसा, छीना-झपटी इत्यादि इसलिए है कि अधिकांशतः मनुष्यों में इच्छा, ज्ञान और क्रिया का सामंजस्य नहीं है इसलिए असंतुलनता है, संतुलनता श्रीविद्या की उपासना में ही है। 

          आप रेल से यात्रा कीजिए असंख्य खेत लहलहाते दिखेंगे, असंख्य मकान और भवन दिखाई पड़ेंगे, न जाने कितनी नदियाँ दिखाई पड़ेंगी, अगणित भूमि आपको खाली दिखाई पड़ेगी, न जाने कितने कारखाने, कितनी नौकरियाँ, कितनी स्त्रियाँ, कितने पुरुष इत्यादि इत्यादि दिखाई पड़ेंगे फिर भी स्थिति यह है कि कुछ लोगों के पास खाने को नहीं हैं, कुछ लोगों के पास एक फुट जमीन नहीं है, कुछ लोगों के पास पीने को पानी नहीं है, कुछ लोगों के पास विवाह हेतु स्त्री नहीं है, कुछ लोगों के पास संतान नहीं है इत्यादि इत्यादि है। सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे रहा है आँखों से पर आपके पास क्यों नहीं है? क्योंकि कहीं न कहीं इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति में असंतुलन है अतः बाला तत्व को ग्रहण कीजिए, भगवती बाला की साधना कीजिए और राज पथ पर चलिए। श्रीविद्योपासक बनिए इसी में कुल का कल्याण है।

                           शिव शासनत: शिव शासनत:

तीर्थ यात्रा विधान ।।

वास्तव में तीर्थ अगर करना है तो अपने शरीर में किया जा सकता है। इस के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। अगर भौहों को उर्ध्व चढ़ाया जा सके तो वहाँ काशि गति प्राप्त हो जाती है।अगर वहाँ अहं बुद्धि- देह अभिमान का त्याग हो जाए तो उसी का नाम काशी-मृत्यु है–यह कोई नई बात नहीं है। यह पद्धति उन के लिये है जिन्हें योग के द्वारा प्रवेश करने का अधिकार है। परंतु साधारण लोगों के लिए जिन्हें प्रवेश करने का अधिकार नहीं है। वे तीर्थों में जाकर ठीक ढंग से अगर तीर्थ कर सकें, सात्विक भाव से,सदाचार परायण होकर, मन में सद्भाव रखते हुए। तीर्थ के अधिष्ठातृ देवी,देवता का ध्यान करते हुए तीर्थ यात्रा करें तो तीर्थ उन के प्रति प्रसन्न होता है।तब उसे जो देने लायक है, अपनी ओर से देता है अर्थात चित- शुद्धि होती है।
अब सवाल यह है कि तीर्थ- गमन या तीर्थ यात्रा कैसे करनी चाहिए? 
 इसका विवरण सूक्ष्म रूप से बता रहा हुँ। प्राचीन काल मे यह नियम था कि पहले संयम करना चाहिए, उस के बाद संयत भाव से लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहये। कुछ अन्य नियम हैं। झूठ मत बोलना, मिथ्या चिंता ना करें, अन्य कोई चिंता ना करें, घर- गृहस्थी की चिंता न करें। जिस तीर्थ की ओर जा रहे हैं, केवल उसी की चिंता करें। घर द्वार, बाल- बच्चे छोड़कर जा रहा हूँ सब को भूल जाना है। सभी बातों को भूल कर अधिष्ठातृ देवी अथवा देव की चिंता करनी चाहिए। अन्य लोगों से उतनी बातें ही करें जितना आवयश्क है। बाकी समय मन- प्राण इष्ट की ओर लगाये रखें,इष्ट का अर्थ है तीर्थ के देवता ।
जिस तीर्थ की ओर जा रहे हैं उस तीर्थ के अधिष्ठातृ देवी- देवता। 
यहाँ एक घटना का उल्लेख कर दूं । आज से 20 वर्ष पहले की बात है,पारुल नामक एक महिला थी। वे काशी में रहती थी । उनमें कुछ अस्वाभाविक स्थिति थी। अक्सर देव- देवी का दर्शन कर लेती थी।उन्हें देव -वाणी सुनाई देती थी। उन्होंने मुझे एक कहानी सुनाई थी। उन की एक बुआ थी । वे काशि में मरने के लिए व्याकुल हुई थी, पर उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। इच्छा रहते हुए भी वह काशी नहीं आ पाई।
एक दिन की घटना की चर्चा करती हुई वे बोलीं की बंगाली खण्ड में एक जगह काशीखण्ड का पाठ चल रहा था। उस जगह पर वे उपस्थित थी। सहसा वहां पर उन की दृष्टि एक ओर गयी, जहां उनकी बुआ मौजूद थी। ये दृश्य देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ। उन की काशी आने की आकांक्षा थी। लगता है, अब कोई सुविधा प्राप्त हो गयी है। पाठ समाप्त होने पर उन्होंने गौर किया कि बुआ जी बैठी हैं, अन्य लोगों के व्यवहार से ऐसा लगा की उन्हें कोई देख नहीं रहा है। उन्होंने बुआ जी से पूछा - 'मैं आप को देख रही हूँ ,कोई भूल तो नहीं है?' उतर मे बुआ ने कहा कि –'नहीं, भूल नहीं देख रही हो। मैं ही तुम्हारी बुआ हुँ। तब उन्होंने पूछा- 'अब काशी में आप आ गयी हैं ?' तब बुआ जी ने कहा कि― में विदेह अवस्था में हूँ। मृत्यु के समय मेरा प्राण भयानक व्याकुल हो गया था– विश्वनाथ दर्शन के लिए। मन ही मन कहती रही- हे विश्वनाथ, तुम्हारा दर्शन नहीं कर पाई। तभी देखा- सामने विश्वनाथ और काशी है। और स्वयं को काशी में उपस्थित पाया, आगे उन्होंने यह भी कहा कि- ' 'विश्वनाथ की कृपा से काशी- मृत्यु हुई है और विश्वनाथ की काशी में स्थान प्राप्त हुआ है।'
यह कैसे संभव हुआ ? शिव पर इतनी तीव्र भक्ति थी कि शिव ने बाह्यता आकांक्षा पूर्ण न करने पर भी भीतर से पूर्ण कर दिया था।
ये सब कहने का उद्देश्य यह है कि सभी चीजें हैं, पर उसे पाने के लिए भावना की ज़रूरत है। उस भाव से ना मांगने पर उन्हें पाया नहीं जा सकता। जो उन्हें उस रूप मे चाहेगा, वो पाएगा। जब तक उस भाव से नहीं पकड़ोगे तब तक नहीं पाओगे।।
तीर्थ यात्रा के लिए एक लक्ष्य रखना चाहिए। मैं कामाख्या जा रहा हूं तो कामाख्या की अधिष्ठात्री देवी की भगवति कामाख्या की ही चिंता करूँ गा। जब काशी जाऊंगा तब विश्वनाथ की ही चिंता करूँ गा, क्यों कि वे काशी के अधिष्ठाता देव हैं।
अर्थात जो लोग शास्त्रीय क्रिया नहीं कर सकते, यज्ञ- अनुष्ठान , यौगिक क्रिया आदी नहीं कर सकते , वे अगर तीर्थो की सेवा सात्विक नियमानुसार कर सकें तो भी उनका अन्तरशुद्ध हो जाता है। यही है तीर्थ यात्रा का विधान।

ह्र्दयाकाश रहस्य ।।

        ह्रदय शब्द से कौन सी वस्तु समझ में आती है, इसे प्रत्येक साधक को जान लेना आवश्यक है।कारण,ज्ञान,भक्ति आदि सभी मार्गों में ह्रदय के संम्बन्ध में एक स्पष्ट धारणा न रहने पर साधना-मार्ग में अग्रसर नहीं हुआ जा सकता। प्राचीन काल में वैदिक ऋषिगण देहर-विद्या नामक इस ह्रदय-विज्ञान का अनुशीलन करते थे।ह्रदय जो कि आकाश स्वरूप है, वे देहरआकाश है, इस शब्द के जरिये वे लोग इंगित कर गये हैं। यही अंतर आकाश का नामान्तर है। बाहिर जैसा विशाल अपरिच्छिन आकाश दिखाई देता है, वोही दृष्टि अंतर्मुखी होने पर भीतर भी विशाल अनन्त आकाश का स्फुरण होता रहता है। यही आकाश हृदय के नाम से परिचित है। इस ह्रदय- आकाश में ईष्ट का स्फुरण होता रहता है। जितने दिनों तक चित शुद्ध नहीं होता, उतने दिनों तक अन्तराकाश तमसछन्न रहता है। चित्तशुद्धि के साथ-साथ अंधकार दूर होजाता है एवं स्वच्छ प्रकाश रूप में अंतर्दृष्टि के सामने हृदय आकाश उदभासित होता है। इस के बाद स्वच्छ आकाश में ज्योति का आविर्भाव ही ज्ञान की सूचना देता है। भाहरी आकाश में जिस प्रकार सूर्य उदय होता है, अन्तराकाश में भी उसी प्रकार देवतरूपी सूर्य का आविर्भाव होता है। उस आलोक से तब आकाश आलोकित हो जाता है।
उपनिषदों में इस ह्र्दयकाश को ही पुण्डरीक अथवा कमल कहा गया है। जब तक यह कमल प्रस्फुटित नहीं होता तब तक अंतःकरण अंधकार से तमसाछन रहता है। जिसे ईष्ट देवता का आविर्भाव कहा जाता है, वस्तुतः वोही भावों का विकास है। भावों के विकास के साथ-साथ कमल उन्मीलन होता है, अर्थात ह्र्दयकाश आलौकित होता है। ये ह्र्दयरूपी आकाश अथवा पदम् ही इष्ट देवता का अर्थात भगवान का आसन है। गीता के अट्ठारवे अध्याय में कहा गया है---- 
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशरार्जुनतिष्ठिति । 
भ्रामयन सर्वभूतानि यंत्रारुढ़ानणी मायया"।

            - इससे समझ में आ जाता है कि सभी के ह्र्दय में अर्थात अन्तर्यामी पुरूष रूप में परमात्मा विराजमान हैं। वे उस शून्य आसन में अधिष्ठित रहते हुए अपनी अचिन्त्य मायाशक्ति द्वारा देह का निरन्तर संचालन कर रहे हैं। देह की प्रव्रत्ति एवं निवर्ती के मूल में ह्र्दयस्थित पुरुषोत्तम की प्रेरणा के बिना अन्य कोई कारण मौजूद नहीं है। अहंकार में आविष्ट जीव अपने अनेक ज्ञान ओर क्रियाओं पर अभिमान करता है। जानने एवं करने का कर्ता स्वयं को समझता है। किंतु वास्तव में यह उसका अभिमान मात्र है। वास्तविकता ये है कि वह ना जानता है ओर ना कर्ता है। 
वे दृष्टा मात्र है। यह ज्ञान और क्रिया शक्ति की लीला मात्र है। यह शक्ति माया रूपणी- जिनका आश्रय एवम अधिष्ठाता उसके ह्र्दयस्थित अन्तर्यामी पुरुष हैं। इस सिद्धांत को स्पष्ट रूप से समझ लेने पर जीव कर्म-बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।