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श्री कमला ।।
अध्यात्म की भाषा ।।
प्रेम प्रतीतिहि कपि भजे, सदा धरै उर ध्यान तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करें हनुमान ।।
भक्ति से शक्ति, शक्ति के बाद भी भक्ति और भक्ति और शक्ति के समिश्रण से मुक्ति बस इन्हीं तीनों महायोगों से समस्त हनुमंत चरित्र की व्याख्या हो जाती है। हनुमंत मुक्तिदाता हैं असुरों के लिये। वे उन्हें मुक्ति प्रदान करते हैं उन्हें उनके तुच्छ कर्मों से मुक्त करते हैं वे भक्तों को रोग, शोक और वियोग से वे संरक्षक हैं ऋषियों, तपस्वियों और मुनियों के उन्हें वे भयमुक्त करते हैं असुरों के उत्पात से। उन्होंने ही मुक्त किया है लक्ष्मण और प्रभु श्री राम को नागपाश से। उन्होंने ही मुक्ति दिलाई है लक्ष्मण को मृत्यु से मुक्त कराने वाले हनुमंत ही हैं।माता सीता को घोर कष्टों से मुक्ति भी उन्होंने ही दिलाई है। विरह की अग्नि में व्यथित हो रहे प्रभु श्री राम के मुख पर भी पुनः मुस्कान स्थापित करने वाले श्री हनुमंत ही हैं। सुग्रीव के दुःखों की मुक्ति भी उन्होंने ही करवाई है।
मुक्तिदाता वही है जो स्वयं मुक्त हो। मुक्त हो वह शरीर से मुक्त हो वह कार्य से मुक्त हो वह पद या सत्ता की लालसा से मुक्त हो वह रोग, शोक और वियोग से ऐसी विभूति तो केवल शिव ही हैं। शिव ही तो हनुमान हैं, तभी तो वह रुद्रांश कहलाते हैं। शिव का एक स्वरूप अर्धनारीश्वर रूप में भी हैं। हनुमान के हृदय में माता सीता और प्रभु श्री राम एक साथ युगल रूप में स्थापित हैं। माता सीता के अत्यंत दुलारे हैं वह उन्हें देखते ही माता सीता सब कुछ प्रदान करने को तत्पर हो जाती हैं जैसे कि माँ अपने बच्चे को सर्वस्व प्रदान करती है। रघुकुल की मर्यादा जब संकट में पड़ी तो श्री हनुमंत ने अपने बल पराक्रम, शक्ति के द्वारा प्रभु श्री राम की मर्यादा की रक्षा की। मर्यादा की रक्षा वही कर सकता है जो स्वयं मर्यादित हो। वे सदैव प्रभु श्री राम और माता सीता के चरणों के पास विराजमान रहते हैं। राम रूपी व्यवस्था उनके सानिध्य में पूर्ण रूप से सुरक्षित है। रक्षा ही उनका मुख्य ध्येय है।
प्रभु श्री राम को प्राप्त करना है तो सर्वप्रथम हनुमंत को ही पुकारना होगा उन्हीं के बताए मार्ग पर चलना होगा।वे प्रतीक हैं उस दिव्य मार्ग के जिस पर चल कर ही विष्णु लोक में पहुँचा जा सकता है।बैकुण्ठधाम के दर्शन उनकी कृपा के बिना सम्भव ही नहीं है। लक्ष्मण तो मन ही मन अपने सखा हनुमंत को देख मुस्काते रहते हैं। राम-रावण युद्ध के हर क्षण में वे लक्ष्मण के साथ कन्धे से कन्धा मिला संघर्षरत हैं। प्रभु श्री राम ने हनुमंत को गले भी लगाया है, आशीर्वाद भी प्रदान किया है, सखा के रूप में भी लिया है, उन्हें आज्ञा भी दी है, उनकी सभी सलाहें भी मानी है, कठोर से कठोर और दुर्गम से दुर्गम कार्य भी सम्पन्न करवाए हैं। माता सीता ने अपना महाकाली स्वरूप केवल हनुमंत को ही प्रदान किया है वे ही इस योग्य हैं जिनके मस्तिष्क पर माँ भवानी आरूढ़ हो सकती है। रावण जैसा दुष्ट प्राणी जो सबको कष्ट और ताड़ना ही देता था । उसे ताड़ना दी हनुमान ने एक पिता के लिये सबसे बड़ी ताड़ना यही है कि उसका पुत्र उसके सामने ही मृत्यु को प्राप्त करे। लंका में जा कर अक्षय कुमार का वध हनुमान ने ही किया है। उसके पश्चात तो समस्त ब्रह्माण्ड में हाहाकार मचा देने वाले रावण ने प्रतिक्षण ताड़ना ही सही है।
भगवान शिव का अघोरेश्वर स्वरूप हनुमंत में ही प्रतिबिम्बित होता है। असुर सेना के एक एक असुरों को उन्होंने उतनी ही निर्ममता से मारा है जितनी निर्ममता से दुष्ट असुरों ने इस जगत के अनेकों जीवों को मृत्यु प्रदान की है। अघोरेश्वर शिव में ही इतनी शक्ति है। कि वह दण्ड दे सकें कठोर से कठोर। हनुमंत ने सिर्फ दुष्टों का वध ही नहीं किया है बल्कि इनकी पाप आत्माओं को पचास हजार साल के लिये कैद में भी डाल दिया है। यह अत्यंत ही गूढ़ विषय है। पाप आत्माऐं अगर काराग्रह में नहीं डाली गयी तो वे दूसरे ही क्षण पुनः शरीर धारण कर ताण्डव मचाना शुरू कर देती हैं। श्री हनुमंत वायु पुत्र हैं, वे सूर्य को भी निगल जाने की क्षमता से युक्त हैं अतः वे ही अपने प्रचण्ड बल के द्वारा इन पाप आत्माओं को अंतरिक्ष में कहीं सुदूर ग्रह रूपी व्यवस्था पर ले जाकर बाँध सकते हैं। इसके पश्चात यह पाप आत्माऐं पृथ्वी तक पहुँच ही नहीं सकती हैं। शरीर के रूप में हनुमंत असुरों का वध करते हैं और अपने परम दिव्य बल के द्वारा दूसरे ही क्षण पाप आत्माओं को अनंत वर्षों के लिये काराग्रह भी प्रदान करते हैं।
शिव के दण्ड उतने ही भीषण और प्रचण्ड हैं जितने कि उनके आशीर्वाद और वरदान। दिव्य रामत्व रूपी व्यवस्था तभी कायम रह सकती है जब असुर शक्तियों को दण्ड देने की व्यवस्था भी अत्यंत परिष्कृत हो। केवल गर्दन काट देने से काम नहीं चलता यह तो नितांत मूर्खतापूर्ण मानवीय सोच है। शरीर तो बस क्षण भंगुर है।
मुख्य कार्य तो प्राण शक्ति का है। गाजर घास काट देने से वह नष्ट नहीं हो जाती है। कुछ समय पश्चात वह पुनः उग आती है। महाकाली ने जब रक्तबीज का वध किया तो वह उसके सम्पूर्ण लहु को भी पी गयी जिससे कि कोई दूसरा रक्तबीज उत्पन्न हाने न पाये। हनुमंत ने भी अनेकों बार असुरों के लहू का पान किया फिर भी वे जीवित रहे। उन्हें अमृत कला प्राप्त है। जैसे-जैसे वानर सेना घायल होती जाती वे पुनः संजीवनी विद्या के द्वारा उनके कटे हुए अंगो को पुनः उंगा देते। उनकी बुद्धि और चातुर्य की तो मिसाल ही नहीं है।
दिव्य व्यवस्था को बनाए रखने के लिये व्यवस्था अनुरूप ही बदलना पड़ता है और दुष्टों के संहार के लिये, दुष्ट व्यवस्थाओं को ध्वंस करने के लिये भी स्वरूप परिवर्तन करना पड़ता है। भगवान शिव पशुपति के रूप में भी वर्णित हैं। हनुमंत वानर रूप धारण किये हुए हैं फिर भी देवों से ज्यादा मर्यादित है। आखिरकार प्रभु श्री राम को वानर जाति में भी तो मर्यादा स्थापित करना है। वानरों को भी तो भोग कर्मों से मुक्त कर भक्ति मार्ग के पथ पर अग्रसर करना है। समस्त वानर सेना को मर्यादित, समर्पित और एकाग्रचित्त करने का कार्य प्रभु श्री राम ने हनुमंत के द्वारा ही सम्पन्न कराया है। असुरों से मनुष्य नहीं जीत सकते । हिरण्यकश्यप के वध के लिये तो विष्णु ने स्वयं नरसिंह स्वरूप धारण किया है।आधे पशु और आधे नर ।
एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से कहा कि प्रभु कलयुग में आप कौन सा तारक मंत्र मनुष्यों को प्रदान करेंगे जिसके सुनने पर वे समस्त पापों से मुक्त वैकुण्ठ धाम की ओर प्रशस्त होंगे। तब भूतभावन भगवान शिव बोले हे पार्वती कलयुग मैं तो बस " श्री राम जय राम जय जय राम " ही एक मात्र ऐसा तारक मंत्र होगा। इस महामंत्र का प्रभाव दिखाने के लिये उन्होंने तुरंत ही नारद जी को बुलाकर कुछ आज्ञा प्रदान की। भगवान शिव की आज्ञानुसार नारद जी तुरंत अयोध्या की ओर प्रस्थान कर गये उन्होंने हनुमान को बुलाकर कहा कि आज तुम राज दरबार में सबको प्रणाम करना परंतु ऋषि विश्वामित्र को प्रणाम मत करना हनुमंत ने उनकी बात मानते हुए ऐसा ही किया। विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्रह्मऋषि बने हैं और प्रभु श्री राम के गुरु भी हैं। उन्हें हनुमंत के इस व्यवहार पर अत्यंत ही मलाल हुआ। नारद जी ने दूसरे ही क्षण हनुमंत के इस कार्य को विश्वामित्र के सामने अपमान के रूप में परिभाषित कर दिया फिर क्या था सुदूर कोने में दबी हुई क्रोधाग्नि पुनः प्रज्जवलित हो गयी। विश्वामित्र क्रोधावेश में सीधे श्री राम के पास पहुँचे और श्री हनुमंत को उनके अपमान जनक व्यवहार के कारण मृत्युदण्ड प्रदान करने की गुरु आज्ञा दी। प्रभु श्री राम समेत माता सीता और सभी प्रजाजन सकते में आ गये।
एक ओर गुरु आज्ञा तो दूसरी और प्राणों से प्रिय भक्त, मित्र, पुत्र इत्यादि के रूप में श्री हनुमंत । प्रभु श्री राम के सामने उनके जीवन की यह सबसे बड़ी विकट स्थिति थी। हनुमंत को जब मालूम चला कि प्रात:काल प्रभु श्री राम उनका वध कर देंगे तो वे अत्यंत ही दुखी होकर नारद जी के पास पहुँचे। नारद जी ने कहा तुम व्यथित न हो। प्रातःकाल सरयु में स्नान कर तट पर सिर्फ " श्री राम जय राम जय जय राम " का पूरे मनोयोग से जोर-जोर से जप करते रहना । भोले श्री हनुमंत ने ऐसा ही करना प्रारम्भ कर दिया। श्री राम के साथ-साथ सभी सरयु के तट पर आये और फिर विश्वामित्र ने उन्हें बाण चलाने की आज्ञा दी। व्यथित मन से एक के बाद एक श्री राम ने बाण चलाने शुरू किये परन्तु हनुमंत का बाल बाँका भी नहीं हुआ। अंत में श्री राम ने गुरु आज्ञा से अग्निबाण के साथ-साथ अनेकों दिव्य अस्त्रों का भी प्रयोग किया इन पर हनुमंत जोर-जोर से जय श्री राम, जय श्री राम जपने लगे। वे सब दिव्य अस्त्र जिनसे कि समस्त ब्रह्माण्ड काँपता था निष्फल हो गये। अंत में उन्होंने गुरु का मान रखने के लिये ब्रह्मास्त्र उठाया इस पर नारद जी तुरंत विश्वामित्र के पास पहुँचे और शिव के द्वारा दी गयी आज्ञा से उन्हें अवगत कराया। सत्य जानने के पश्चात वे भी व्यथित हुए और उन्होंने स्वयं श्री राम को शस्त्र का उपयोग न करने की आज्ञा दी। प्रभु श्री राम उनकी आज्ञा सुन अत्यंत ही द्वंदमय स्थिति से उबर गये और इस प्रकार श्री राम जय राम जय जय राम जैसे दिव्य तारक मंत्र की महिमा पृथ्वी पर प्रकट हुई।
हमारे देश में प्रात:काल, सुख दुःख की घड़ी में हम राम ही बोलते हैं और अंत में शरीर त्यागने के पश्चात अग्निदाह संस्कार के समय भी श्री राम का नाम ही भजा जाता है। मृत्यु के समय जिसके मुख पर प्रभु श्री राम का नाम होता है वही बैकुण्ठ धाम की यात्रा सम्पन्न करता है । घटनाओं का कभी भी अंत नहीं होता है। जो श्री राम के जमाने से हैं
वे आज भी प्रत्येक मनुष्य के जीवन में किसी न किसी स्वरूप में उपस्थित होती है। जिस प्रकार त्रेता युग में साक्षात् हनुमंत ने श्री राम के कष्टों का निवारण किया उसी प्रकार आज भी हनुमंत की शक्ति को आत्मसात कर हम अपने जीवन की विसंगतियों को समग्रता के साथ दूर कर सकते हैं। हनुमंत ने राम रूपी व्यवस्था में जो परम पद प्राप्त किया है वह उन्हें पारितोषिक में नहीं मिला है। प्रभु श्री राम का सानिध्य उन्होंने अपने बल पराक्रम, आज्ञापालन एवं समर्पण और भक्ति से प्राप्त किया है। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी वे प्रभु श्री राम के साथ रहे हैं। हनुमंत अयोध्या वासी नहीं हैं। शिष्य कैसा होना चाहये यह सीखने के लिए हनुमंत के चरित्र को आत्मसात करना होगा। शिष्य को अपना धर्म निभाना चाहिये गुरु के धर्म की गुरु ही जाने जो श्रेष्ठ शिष्य है वही श्रेष्ठ गुरु है।
राम ने कहा हनुमंत ने दूसरे ही क्षण उसका पालन किया किसी भी प्रकार का संशय असंशय उनके सम्बन्धों के बीच नहीं । परिवार, समाज, राष्ट्र और अंत में विश्व रूपी व्यवस्था तभी सफल है जब उसमें हनुमंत चरित्रम् का स्थायित्व भाव हो । अध्यात्म में भक्ति मार्ग के प्रणेता श्री हनुमंत ही हैं। उन्होंने ही राम के नाम की सत्यता स्थापित की है। लंका पर चढ़ाई करते समय मात्र राम लिख देने से पाषाण समुद्र के ऊपर तैरने लगे और सेतु का निर्माण हो गया। पाषाण क्यों तैरे क्योंकि उनके ऊपर हनुमंत द्वारा लिखे गये राम शब्द में भक्ति, श्रद्धा और समर्पण की शक्ति निहित थी । आप राम लिख दीजिए पाषाण कभी नहीं तैरेंगे। मंत्रों में छिपी शक्ति आपको चैतन्य करनी होगी उसके लिए आपका चरित्र भी हनुमंत की बराबरी का होना चाहिये।
प्रभु श्री राम का पूजन सर्वप्रथम श्री हनुमान ने ही किया एवं यह पूजन अत्यंत ही तीव्र और शीघ्र परिणाम देने वाला है। हनुमंत प्रभु श्री राम का पूजन प्रतिक्षण मानसिक रूप से करते ही रहे। उनके द्वारा पूजन में लाया गया दुर्लभ स्त्रोत नीचे वर्णित कर रहा हूँ। इस स्त्रोत का पठन करने के लिए साधक के अंदर पूर्ण श्रद्धा, समर्पण और भक्ति का होना अति आवश्यक है तभी यह स्त्रोत शक्ति युक्त हो उसे परमानंद प्राप्त करायेगा। इस स्त्रोत का पठन साधक प्रात:काल एवं संध्या के समय प्रतिदिन कर सकते हैं। स्त्रोत पाठ के लिए किसी विशेष मुहूर्त, काल इत्यादि की आवश्यकता नहीं है। स्त्रोत पाठ करने से पहले साधक को स्नान एवं अन्य शारीरिक शुद्धियाँ सम्पन्न कर लेनी चाहिये फिर अपने पूजाघर या किसी मंदिर में जहाँ श्री राम माता सीता समेत विराजमान हैं वहाँ पर पूर्ण एकाग्रचित्त मन से इस स्त्रोत का पाठ करना चाहिये। इस स्त्रोत का पाठ करते समय साधक को अपने मन में प्रभु श्री राम के दिव्य स्वरूप की इस प्रकार से कल्पना करनी चाहिए।
कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ । जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसङ्गिनौ ॥
कोसल पुरी के स्वामी श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर और कोमल दोनों चरण कमल ब्रह्माजी और शिवजी के द्वारा वन्दित हैं, श्री जानकी जी के करकमलों से दुलराये हुए हैं और चिन्तन करने वाले के मनरूपी भौरे के नित्य संगी हैं, अर्थात् चिंतन करने वालें का मन रूपी भ्रमर सदा उन चरण कमलों में बसा रहता है।
साधकों को चाहिये कि वह सावधानी के साथ अपने चित्त को श्री अवध में ले चले। बड़ा सुन्दर रमणीय श्री अवधधाम है। अखिलभुवन मण्डल के एकछत्र सम्राट चक्रवर्ती महाराज भगवान श्री राघवेन्द्रजी की पुरी बड़ी रमणीय है । राम राज्य की सारी शोभा, राम राज्य की आदर्श समाजव्यवस्था श्री अवध में विद्यमान है। सभी ओर सब कुछ सुशोभित है। कलुषनाशिनी श्री सरयूजी मन्द मन्द वेग से बह रही हैं। श्री सरयूजी के तट पर श्री राघवेन्द का विहारोद्यान है। फलों और पुष्पों से सुसज्जित बड़ा सुन्दर बगीचा है। बगीचे में चारों ओर बड़े सुन्दर और मनोहर पुष्पों से सुशोभित वृक्ष हैं। उनमें भाँति-भाँति के पुष्प खिले हुए हैं। उनके विविध प्रकार के सौरभ से सारा उद्यान सुरभित हो रहा है। पुष्पों पर भौरे मँडरा रहे हैं। पुष्पों की रंग-बिरंगी शोभा से सभी ओर सुषमा छा रही है। फलों के वृक्ष विविध फलों के भार से लदे हैं। बीच में एक बड़ा मनोहर सरोवर है। सरोवर में कमल खिले हुए हैं। सरोवर के भीतर जलपक्षी केलि कर रहे हैं। चारों ओर सुन्दर सुन्दर घाट हैं।
सरोवर के उत्तर की ओर एक बड़ा सुन्दर कल्पवृक्ष है। वह सघन और फैला हुआ है। कल्पवृक्ष के नीचे बहुत सुन्दर स्फटिकमणि का सिंहासन बना हुआ है। चारों ओर विविध पुष्पों की लताऐं बिखरी हुई हैं। संध्या का समय है। बड़ी सुन्दर और सुगन्धित मन्द मन्द समीर बह रहा है। इस मनोहर पुष्पोद्यान में श्री राघवेन्द्र भगवान श्री रामचन्द्र जी और अखिल जगत जननी श्री जानकी जी नित्य संध्या समय पधारते हैं। उस समय उनके साथ कोई सेवक नहीं रहता, केवल हनुमान जी रहते हैं।
आज भी भगवान श्री रामचन्द्र जी अपनी सारी सुषमा के साथ समस्त शोभाओं से युक्त विश्वजननी श्री जनक नन्दिनी के साथ पधारे हैं। भगवान बड़ी मन्दगति से धीरे धीरे सरोवर के निकट चले आते हैं। उनके पीछे-पीछे हनुमानजी हैं। श्री भगवान उत्तरतट की ओर पधारे हैं। शाखा प्रशाखाओं के सुन्दर वितानवाले कल्पवृक्ष के नीचे स्फटिकमणि की एक मनोहर पीठिका है। उस स्फटिक मणि के सुन्दर सिंहासन पर बहुत ही बढ़िया और सुकोमल दूर्वा के रंग का एक गलीचा बिछा हुआ है। उसके पीछे दो तकिये लगे हुए हैं। दोनों ओर दो सुन्दर मसनद हैं। चौकी के सामने नीचे की ओर चरण रखने के लिए दो पीठ (पीढ़े) सुसज्जित हैं। उन पर दो सुन्दर कोमल गद्दियाँ बिछी हुई हैं। सामने बायीं ओर थोड़ी दूर पर मरकतमणिकी नीची चौकी पर श्री हनुमान जी के लिए आसन हैं। भगवान श्री रामचन्द्र जी श्री जनकनन्दिनी जी के साथ गलीचे वाले स्फटिकमणि के सिंहासन पर विराजमान हो गये हैं।
श्री हनुमान जी सामने बैठ गये हैं और भगवान श्री राम के नेत्रों की ओर किसी आज्ञा की प्रतीक्षा में टकटकी लगाकर देख रहे हैं। भगवान श्री राम का बड़ा सुन्दर स्वरूप है। भगवान के श्री अंग का वर्ण नील हरिताभ उज्जवल है। नीला, नीले में कुछ हरी आभा उस पर उज्जवल प्रकाश । केकीकण्ठाभनीलम् जैसे मयूर के कण्ठ की नीलिमा में हरित आभा होती है, चमकता रंग होता है, उसी प्रकार श्री भगवान के अंग का रंग नीलहरिताभ उज्जवल है। बड़ी ही सुन्दर आभा है। दिव्य चमकता प्रकाश । इसके पश्चात श्री हनुमान जी द्वारा रचित स्त्रोत पाठ करना चाहिये। स्त्रोत नीचे वर्णित है और साधकों की सुविधा के लिए उसका हिन्दी भावार्थ लिखा जा रहा है। अक्सर साधक आजकल धर्म के नाम पर फैलाई जा रही ऊट-पटांग विधियों के कारण संशय में आ जाते हैं। इनकी मुख्य जिम्मेदार आज के युग की आधी-अधूरी आध्यात्मिक पुस्तकें एवं उनके रचयिताओं का आधा-अधूरा ज्ञान है। स्त्रोत पाठ में मुख्य रूप से हृदय पक्ष ही सक्रिय रहता है। स्त्रोत पाठ के लिए किसी भी प्रकार की माला, यंत्र या अन्य सामग्री की कदापि जरूरत नहीं होती है साधक का एकमात्र कार्य सच्चे हृदय से ईष्ट का आह्वान स्त्रोत के रूप में करना होता है। पूजन तकनीकी नहीं होता है। कृपया तकनीक को पूजन से न जोड़ें। पूजन गणित का विषय नहीं है यह तो हृदय की विशुद्धता की प्रक्रिया है।
यहाँ उन्हीं स्त्रोतों का वर्णन किया जाता है जो कि पूर्ण रूप से प्रामाणिक एवं वैदिक हों । कुछ धंधेबाजों ने वैदिक मंत्रों और स्त्रोतों के बारे में यह दुष्प्रचार मचा रखा है कि ये कीलित हैं। वास्तव में एक भी वैदिक स्त्रोत और वैदिक मंत्र कीलित नहीं है। कीलित तो सिर्फ आध्यात्मिक ठेकेदारों की बुद्धि है। सनातन धर्म को नष्ट करने का यह सबसे भयानक तरीका है। वेदों और वेद वर्णित स्त्रोतों को कीलित कहना मात्र सनातन धर्म को नष्ट करने की एक सोची समझी चाल है। असली माल के बारे में दुष्प्रचार कर ही दुष्ट नकली माल बेचते हैं। जिस दिन वेद मंत्र और वेदशास्त्र कीलित हो जायेंगे उस दिन प्रभु श्री राम, हनुमंत, विष्णु, ब्रह्मा, महाकाली, महालक्ष्मी, शिव इत्यादि सभी आदि शक्तियाँ कीलित हो जायेंगी। वेदों में ही समस्त शक्तियाँ निहित हैं। हिन्दू धर्म को जितना नुकसान बाहरी आक्रांताओं ने नहीं पहुँचाया है उससे ज्यादा नुकसान तथाकथित गुरुओं ने पहुँचाया है। अब तो कुछ गुरु रामायण, महाभारत और गीता जैसे पवित्र ग्रंथों को भी कीलित कहने लगे हैं। यह सब नर्कगामी व्यक्ति है। वेदान्त दर्शन ब्रह्माण्डीय दर्शन हैं। जिस दिन वेदिक मंत्र कीलित हो जायेंगे उस दिन समस्त ब्रह्माण्ड की क्रियायें भी कीलित हो जायेंगी। सभी सनातन धर्मियों से निवेदन है कि कृपया भ्रमित न हों एवं अपने। धर्म की रक्षा स्वयं करें।
हनुमान जी द्वारा रचित श्री राम स्तोत्र
ॐ नमो भगवते उत्तमश्लोकाय नम: आर्यलक्षणशीलव्रताय नम: उपशिक्षितात्मन उपासित लोकाय नमः साधुवादनिकषणाय नमो ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय महाराजाय नम: इति ।यत्तद्विशुद्धानुभवमात्रमेकं स्वतेजसा ध्वस्तगुणव्यवस्थम् । प्रत्यक्प्रशान्तं सुधियोपलम्भनं ह्यानामरूपं निरहं प्रपद्ये ॥
मर्त्यावतारस्तिवह मर्त्यशिक्षणं रक्षोवधायैव न केवलं विभोः ।
कुतोऽन्यथा स्याद्रमतः स्व आत्मनः सीताकृतानि व्यसनानीश्वरस्य ॥
न वै स आत्माऽऽत्मवतां सुहृत्तमः सक्तस्त्रिलोक्यां भगवान् वासुदेवः ।
न स्त्रीकृतं कश्मलमश्नुवीत न लक्ष्मणं चापि विहातुमर्हति।।
न जन्म नूनं महतो न सौभगं न वाङ् न बुद्धिर्नाकृतिस्तोषहेतुः।
तैर्यद्विसृष्टानपि नो वनौकसश्चकार संख्ये बत लक्ष्मणाग्रजः।।
सुरोऽसुरो वाप्यथ वानरो नरः सर्वात्मना यः सुकृतज्ञमुत्तमम् ।
भजेत रामं मनुजाकृतिं हरिं य उत्तराननयत् कोसलान् दिवमिति।।
हम ॐ कार स्वरूप, पवित्र कीर्ति भगवान श्री राम को नमस्कार करते हैं, आप में सत्पुरुषों के लक्षण, शील और आचरण विद्यमान हैं; आप बड़े ही संयमित, लोकाराधनतत्पर, साधुता की परीक्षा के लिये कसौटी के समान और अत्यंत ब्राह्मण भक्त हैं। ऐसे महापुरुष महाराज राम को हमारा पुनः पुनः प्रणाम। हे भगवान! आप विशुद्ध बोध स्वरूप, अद्वितीय, अपने स्वरूप के प्रकाश से गुणों के कार्य रूप जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओं का निरास करने वाले, सर्वान्तरात्मा, परम शांत, शुद्ध बुद्धि से ग्रहण किये जाने योग्य नाम रूप से रहित और अहंकार शून्य हैं; मैं आपकी शरण में हूँ। प्रभो! आपका मनुष्यावतार केवल राक्षसों के वध के लिये ही नहीं है, इसका मुख्य उद्देश्य तो मनुष्यों को शिक्षा देना है। अन्यथा अपने स्वरूप में ही रमण करने वाले साक्षात जगदात्मा जगदीश्वर को सीताजी के वियोग में इतना दुःख कैसे हो सकता था। आप धीर पुरुषों के आत्मा और प्रियतम भगवान वासुदेव हैं, त्रिलोकी की किसी भी वस्तु में आपकी आसक्ति नहीं है। आप न तो सीताजी के लिये मोह को ही प्राप्त हो सकते हैं और न लक्ष्मणजी का त्याग ही कर सकते हैं। आपके ये व्यापार केवल लोकशिक्षा के लिये ही हैं। लक्ष्मणग्रज ! उत्तम कुल में जन्म, सुन्दरता, वाक्चातुरी, बुद्धि और श्रेष्ठ योनि- इनमें से कोई भी गुण आपकी प्रसन्नता का कारण नहीं हो सकता, यह बात दिखाने के लिये ही आपने इन सब गुणों से रहित हम वनवासी वानरों से मित्रता की है। देवता, असुर, वानर अथवा मनुष्य कोई भी हो उसे सब प्रकार से श्री राम रूप आपका ही भजन करना चाहिये, क्योंकि आप नररूप में साक्षात श्री हरि ही हैं और थोड़े किये को भी बहुत अधिक मानते हैं। आप ऐसे आश्रित वत्सल हैं कि जब स्वयं दिव्यधाम को सिधारे थे, तब समस्त उत्तर कोसलवासियों को भी अपने साथ ही ले गये थे।
शिव शासनत: शिव शासनत: