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शिवमहिम्न स्तोत्रम् -

          अपने ईष्ट को प्राप्त करने के लिये एक तकनीक है शास्त्रोक्त पूजन या पूर्ण विधि-विधान से वेदोक्त, तंत्रोक्त और मंत्रोक्त पूजन इस पूजन में सभी कुछ व्यवस्थित होता है। जब जीवन व्यवस्थित हो तो फिर इस पूजन के द्वारा आप अपने ईष्ट को तत्व रूप में, शक्ति के स्वरूप में और या फिर अनुभूति के रूप में अपने आसपास महसूस कर सकते हैं। शास्त्रोक्त पूजन का विधान इसलिये है कि इससे साधक के जीवन में ईष्ट के प्रति नियमितता आये और यही नियमितता धीरे-धीरे उसके जीवन के सम्पूर्ण पक्षों को व्यवस्थित कर देगी परन्तु कभी- कभी नियमित पूजन में हृदय अर्थात अनाहत पक्ष न्यून हो जाता है जिसके कारण पूजन में उचित सफलता नहीं मिल पाती है। ध्यान रहे कि ईश्वर सभी व्यवस्थाओं से उपर है एवं व्यवस्थायें समयानुसार बदलती रहती हैं जो व्यवस्था सतयुग में अत्यधिक कारगर हैं जरूरी नहीं है कि वह व्यवस्था कलयुग में ही उतनी ही उपयोगी हो। 
        कुल मिला-जुलाकर पूजन पद्धति का मुख्य उद्देश्य हृदय पक्ष को जागृत करना है अर्थात प्रभु को हृदय से ही पुकारना है। मस्तिष्क के द्वारा प्रेम का सम्प्रेषण असम्भव होता है। प्रेम का संप्रेषण एकमात्र हृदय के द्वारा ही सम्भव है। दुनिया भर के मंत्र, विधि विधान, यंत्र एवं शास्त्रोक्त प्रवचन इत्यादि सब के सब कार्य हृदय की पुकार के सामने धरे रह जाते हैं। हृदय की पुकार सुन शिव चाहे किसी भी लोक में हो सब कार्य छोड़ साधक के सामने आ खड़े होते हैं। परम शिव भक्त पुष्पदंत के द्वारा भगवान शिव ने यही संदेश शिव भक्तों के सामने प्रस्तुत किया गया है। शिवोपासना में भक्ति रस का प्रादुर्भाव कराने वाले गन्धर्वराज पुष्पदंत ही हैं। द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में नर्मदा तट पर मौजूद ओंकारेश्वर तीर्थ की दीवार पर शिव महिम स्त्रोत स्पष्ट रूप से पूर्ण शुद्धता के साथ अंकित है। उनके द्वारा रचित शिव महिम स्त्रोत से अनेकों शिव मंत्रों का प्रादुर्भाव हुआ है।
              अनाहत से ईश्वर का आहवान होने पर प्रत्येक शब्द एवं श्लोक प्राणमय मंत्रों में परिवर्तित हो जाते हैं और अनंतकाल तक इन स्त्रोतों के द्वारा साधक शिव सानिध्य की परम प्राप्ति करते हैं। शिव महिम स्त्रोत इतना प्रचण्ड है कि इसका श्रवण या वाचन करते ही साधक सुध-बुध खोकर सब कुछ भूल बैठता है एवं आँखों से मात्र अश्रु धारा ही बहती है और उसके आसपास की सम्पूर्ण प्रकृति शिवमय हो जाती है। अनाहत को जाग्रत करने के लिये शिव महिम स्त्रोत से बढ़कर कुछ भी नहीं है। शिव को आत्मसात करने के लिये यह स्त्रोत अति ही आवश्यक है। स्कन्ध पुराण अवन्ति खण्ड लिङ्ग महात्म के 77 वें अध्याय में गंधर्वराज पुष्पदंत के प्रादुर्भाव की कथा स्पष्ट लिखी हुई है। 
            प्राचीनकाल में शिनि नामक एक अत्यन्त ही धर्मात्मा ब्राह्मण हुआ करते थे, वे अयोनिज ब्राह्मण थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति के लिये वे भगवान शिव का कठोर तप करने लगे उनके तप से देवता गण क्षुब्ध हो उठे, नदियां सूखने लगी, सम्पूर्ण पर्वत हिलने लगे इस पर भगवान शिव ने प्रसन्न हो उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दे दिया। अपने वरदान को पूर्ण करने के लिये भगवान शिव ने अपने समस्त गणों को बुलाकर कहा कि तुममे से कौन पृथ्वी पर जाकर मेरे कल्प को पूरा करेगा। शिव सानिध्य छोड़कर कोई भी गण पृथ्वी पर जाने को तैयार नहीं था इन्हीं गणों के मुखिया पुष्पदंत जो कि शिव के परम प्रिय थे वे बोल उठे हे प्रभु हम आपको छोड़कर पृथ्वी लोक में जाने को तैयार नहीं हैं इस पर शिव ने क्रोधित हो उन्हें मृत्युलोक में जन्म लेने का श्राप दे डाला और इस प्रकार सीधे शिवलोक से पुष्पदंत का पृथ्वी पर प्रादुर्भाव हुआ । गंधर्वराज पुष्पदंत प्रतिदिन सुन्दर पुष्पों से भगवान शिव की प्रातः काल उपासना किया करते थे इसके लिये वे काशीराज की पुष्प वाटिका से पुष्प ले जाया करते थे। प्रतिदिन काशीराज पुष्पों को न पाकर मालियों को कठोर दण्ड दिया करते थे। 
           एक दिन मालियों ने उपवन के आसपास शिव निर्माल्य अर्थात वह सब कुछ जो कि शिवलिङ्ग को चढ़ाया जाता है चारों तरफ फैला दिया। जैसे ही पुष्पदंत ने शिव निर्माल्य को लांघा उनके अदृश्य होने की सिद्धि खत्म हो गई और मालियों ने उन्हें पकड़ लिया। राजा की आज्ञा से उन्हें कारावास हुआ परन्तु कारावास में जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उन्होंने अज्ञानवश शिव निर्माल्य को लांघ दिया है तब वे अत्यन्त ही व्याकुल हो भगवान आशुतोष को अश्रु पूर्ण आंखों एवं रुधे हुये गले से विलाप कर पुकारने लगे। उनके हृदय की यही पुकार शिव महिम स्त्रोत कहलाई फिर क्या था भगवान शिव साक्षात् कारागृह में प्रकट हो गये और फिर स्वयं ही अपने साथ पुनः पुष्पदंत को प्रेम पूर्वक शिवलोक ले गये।

गंधर्वराज पुष्पदंत ने ही काशी में पुष्पदंतेश्वर शिवलिङ्ग की स्थापना की थी जिसके सानिध्य में आते ही प्रत्येक संत का हृदय पक्ष जाग्रत हो जाता है संत तो क्या अधम से अधम पापी भी इस शिवलिङ्ग के सानिध्य में प्रेममयी हो जाता है। तब से लेकर आज तक शिव महिम्न स्त्रोत के द्वारा असंख्य जीवों का कल्याण हो रहा है। नीचे वही शिव महिम स्त्रोत वर्णित किया जा रहा है।

पूजन विधि - 
भगवान शंकर की आराधना के लिए प्रातःकाल स्नान कर, स्वच्छ वस्त्र धारण करें। मृगचर्म या कुश के आसन पर बैठकर, शंकर भगवान की मूर्ति या प्राण प्रतिष्ठित शिव यंत्र को सामने रखें। तत्पश्चात् अक्षत, सफेद पुष्प आक के, धूप, दीप, भाँग, चन्दन, बेलपत्र, काली मिर्च आदि से पूजन करें

शिवमहिम्न स्तोत्रम् -

श्री पुष्पदन्त उवाच

महिम्न: पारन्ते परमविदुषो यद्यसदृशी, स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तद्वसन्नास्त्वयि गिरः ।
 अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृहन्, ममाप्येष स्तोत्रे हर ! निरपवादः परिकरः ॥

अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयो रतद्वयावृत्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि । 
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषय: पदे त्वर्गचीने पतित न मनः कस्य न वचः ॥

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निमितवत स्तव ब्रह्मन् ! किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् । 
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः । 
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन पुरमथन ! बुद्धिर्व्यवसिता ॥

तवैश्वर्य यत्तज्जगदुदयरक्षा प्रलयकृत त्रयीवस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुष । 
अभव्यानामस्मिन वरद ! रमणीयामरमणीं विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहै के जडधियः ॥

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च । 
अत्र्येश्वर्यै त्वय्यनवसन्दुस्थो हतधियः कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥

अजन्मानो लोकाः किमवयवन्तोऽपि जगता, माधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति । 
अनीशो वा कुर्याद भुवनजनने कः परिकरो, यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर ! संशेरत इमे ।।

त्रयी सांङख्यं योगः पशुमतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च । 
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानाजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥

महोक्षः खट्वांङ्ग परशुरजिनं भस्म फणिनः कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् । 
सुरास्तां तामृद्धिं दधति भवदभूप्रणिहितां न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ।।

ध्रुवं कश्चित्सर्व सकलमपरस्त्वध्रुवप्रिदं परौ धौब्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये । 
समस्तेऽप्येतस्मिन पुरमथन तैर्विस्मित इव स्तुवञ्जिहेमित्वां ना खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥

तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरि विरञ्चिर्हरिरध: परिच्छेत्तुं यातावनलमनिलस्कन्धवपुषः । 
ततो भक्ति श्रद्धाभरगुरुगृणभ्यां गिरिश ! यत स्वयं तस्थेताभ्यां तब किमनुवृत्तिर्न फलति ॥

अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं दशास्यो यदबाहूनभृतं रणकण्डूपरवशान । 
शिर: पद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबले स्थिरा यास्त्वदभक्ते स्त्रिपुरहरविस्फूर्जितमिदम् ॥

अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं बलात्कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः । 
अलभ्या पातालेऽप्यलसजलितांगुष्ठाशि सि प्रतिष्ठा त्वय्यासीदध्रुवमुपचितो मुह्यतिखल ॥

यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद ! परमोच्चैरपि सती- मधश्चके बाण: परिजनविधेयत्रिभुनवनः । 
न तच्चित्रं तस्मिन वरिवसितरि त्वच्चरणयो- र्नकस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥

अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा- विधेयस्याऽऽसीद्यस्त्रिनयनविषं संहृतबतः । 
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते श्रियमहो विकारोऽपि श्लोध्यो भुवनभयभंगव्यसनिनः ॥

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखा: । 
स पश्यन्नीश ! त्वामितरसुरसाधारणमभूत स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु वध्य: परिभवः ॥

मही पादाघाताद व्रजति सहसा संशयपदं पदं विष्णोर्भ्राम्यद भुजपरिवरुग्णग्रहगणम । 
मुहुर्द्यौौौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडितता जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ।।

वियदव्यापी तारागणगुणतिफेनोदगमरुचिः प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते ।
जगदद्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि त्यनेनैवोन्ने॒यं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ॥

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो रथांगे चन्द्रार्की रथचरणपाणि: शर इति । 
दोस्ते कोऽयं तृणमाडंबर विधिविधेय: क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ॥

हरिस्ते साहस्त्रं कमलबलिमाधाय पदयो र्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहरन्नेत्रकमलम । 
गतो भक्त्युद्रेक: परिणतिमसौ चक्रवपुषा त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर ! जागति जगताम ॥

ऋतौ सुप्ते जाग्रत्वमसि फलयोगे कृतुमतां क्व कर्म प्रध्वसतं फलति पुरुषाराधनमृते । 
अतस्तवां सम्प्रेक्ष्य कृतुषु फलदानप्रतिभुवं श्रुत्रौ श्रद्धां बदध्वा ढपरिकरः कर्मसुजनः ।।

क्रियादक्षो दक्षः कृतुपतिरधीशस्तनुभृता मृषीणामात्विज्यं शरणद सदस्या: सुरगणाः । 
क्रतुभ्रंषस्त्वत्तः कृतुफलविधानव्यसनिनौ ध्रुवंकर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥

प्रजानाथं नाथ ! प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषमृष्ययस्य वपुषा । 
धनुष्पाणर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ॥

स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमन्हाय तृणवत पुर: प्लुष्ट दृष्टवा पुरमथन पुष्पायुधमपि । 
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरतदेहार्धघटना दवैति त्वामद्धा वत वरद मुग्धा युवतयः ॥

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर ! पिशाचा: सहचरा श्रिचताभस्माऽऽलेपः स्त्रगतिनृकरोटीपरिकरः । 
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं तथाऽपि स्मर्तॄणां वरद् ! परमं मंगलमसि ।।

मन: प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायाऽऽत्तमरुत: प्रहृष्यद्रोमाण: प्रमदसलिलोत्संगतिदृशः । 
यदालोक्याऽऽल्हादं हद इव निमज्जायामृतमये दधत्यन्तस्तत्वं किमपि यमिनस्तत्किलभवान ॥

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह स्त्वमापस्त्वं व्योमत्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च । 
परिच्छिन्नामेवं त्वयति परिणता बिभ्रति गिरं न विद्यस्तत्तत्वं वयमिह तु यत्वं न भवसि ॥

त्रयीं तिस्त्रो वृत्तिस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा नकाराद्यैर्वर्णी स्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृतिः । 
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः समस्तं व्यस्तंत्वांशरणद ! गुणात्योमिति पदम् ॥

भवः शर्वा रुद्रः पशुपतिरथोग्र: सह महास्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम । 
अमुष्मिन प्रत्येकं प्रविचरित देव ! श्रुतिरपि प्रिया यास्मैधामने प्राणिहितनमस्योऽस्मिभवते ।।

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर ! महिष्ठाय न नमः । 
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन ! यविष्ठाय च नमो ! नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नमः ॥

बहलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः । 
जनसुखकृते सत्वोद्रिक्तो मृडाय नमो नमः । प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥

कृशहरिणति चेत: क्लेशवश्यं क्व चेदं क्व च तव गुणसीमोल्लधिंनी शश्वदृद्धिः । 
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधा द्वरद ! चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ॥

असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी । 
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानामीश पारं ! नयाति ॥

असुरसुरमुनीन्द्रं रचितस्येन्दु मौले ग्रंथितगुणमहिम्नो निर्गुणास्येश्वरस्य । 
सकलगुणवरिष्ठ: पुष्पदन्ताभिधानो रुचिरमलघुवृ त्तैऽस्तोत्रमेतच्चकार।।.

अहरहरनवयं घूर्जटे: स्तोत्रमेतत पठति परमभक्तया शुद्धचित्त: पुनमान्यः । 
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कीतिमांश्च ॥

महेशान्नपरो देवो महिम्नो नापरा: स्तुतिः । 
अघोरान्नपरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम ॥

दीक्षा दानं तपस्तीर्थ ज्ञानं योगादिकाः क्रिया: । महिम्नस्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम ।।

कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराज: शशिधर वर मौलेर्देवदेवस्य दासः । 
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् स्तवनमिदमकार्षीद्दिव्यदिवयं महिम्नः ॥

सुरवरमुनिपूज्यं पठति यदि मनुष्य: प्राञ्जलिर्नान्यचेताः । ब्रजति शिसमीपं किन्नरैः स्तूयमान:स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥

आसमाप्तमिदं स्त्रोतं पुष्पगन्धर्वभाषितम अनौपम्य मनोहारि पुण्यमीश्वरवर्णनम ।।

इत्येषा बाङमयी पूजा श्रीमच्छंकरपादयोः । 
अपिता तेन में देव: प्रीयतां च सदाशिवः ।।

तव तत्त्वं न जानामि कीशोऽसि महेश्वर यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेत सदा । सर्वपापविनिर्मुक्त: शिवलोकं स गच्छति ॥

श्री पुष्पदन्तमु खपंक जनिर्गतेन स्त्रोतेण किल्वषहरेण हरप्रियेण । 
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन, सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥

                          शिव शासनत: शिव शासनत:

गुरु की खोज ।।

             एक दिन मनुष्य जब सांसारिक चक्रव्यूह में फँसकर तड़फ उठता है, उसके मानुषिक रिश्ते उसके लिए जी का जंजाल बन जाते हैं, दुनिया की चमक दमक में उसकी आँखे पथरा जाती हैं और फिर जब भीड़ में वह अपने आपको थका हारा, घिसा पिटा और गुम पाता है तब उसकी आत्मा का दम घुटने लगता है और वह गुरु की खोज प्रारम्भ करता है जो उसे इस भव सागर से मुक्त करा दे। संसार की तपिश और गर्दिश में वट वृक्ष बन उसे अमृतमयी छाया प्रदान करे एवं जीवन निरर्थक और बदरंग हो जाने से पहले उसे जीवन जीने की कला सिखा दे । इसे ईश्वर की खोज भी कहते हैं। सभी को ईश्वर की तलाश है। ईश्वर का कार्य केवल मनुष्यों को देखना नहीं है। मनुष्य ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा हिस्सा है और फिर प्रत्येक मनुष्य में इतनी ताकत भी नहीं है कि वह शिव की अनगढ़ में भाषा को समझ सके, उनसे सम्प्रेषण कर सके इसीलिए पिछले पाँच हजार वर्षों में बहुत ही कम गिने चुने ऐसे लोग हुए हैं जो सीधे शिव से बात कर सकते हैं। कुछ विलक्षण पुरुषों से दुनिया नहीं चल सकती। सभी की जरूरत पूरी नहीं हो सकती। यहीं पर गुरु का उदय होता है।

              गुरु एक अत्यंत ही व्यापक शब्द है एवं अपने आपमें विराटता छिपाए हुए है। इसका ओर छोर समझ पाना बड़ा मुश्किल है। गुरु को परिभाषित भी नहीं किया जा सकता, किन्हीं नियमों में आबद्ध भी नहीं किया जा सकता। यही परम ब्रह्म का स्वरूप है। इसी कारणवश सभी शास्त्रोक्त ग्रंथों ने एक स्वर में गुरु को परम ब्रह्म कहा है। उसी में समास्त दैवीय शक्तियों को निहित माना है। वो ही मनुष्य को ब्रह्मा, विष्णु, महेश और माँ भगवती के विभिन्न स्वरूप उनकी वाणी में समझा सकता है, दिखा सकता है, उनसे आसानी के साथ सम्प्रेषण कर सकता है। गुरु ही आम जनता की समस्याओं को उन्हीं के शब्दों में, उन्हीं की समझ अनुसार उनके तार्किक एवं बौद्धिक स्तर पर आवश्यकतानुसार हल प्रदान कर सकता है अन्यथा विराट जनसमूह ईश्वरी ज्ञान से वंचित रह जायेगा।

         जीवन की अंधी दौड़ ज्यादा दिन नहीं चलती। एक जैसी नियमित जिन्दगी मनुष्य को उबाऊ बना देती है। कोई भी भौतिक संसाधन मनुष्य को ज्यादा देर तक बाँधे नहीं रख सकता। जीवन के सांसारिक सम्बन्ध कब बंधन का कारण बन जायें यह, सभी मनुष्यों को झेलना पड़ता है। आज जिन सांसारिक सम्बन्धों में खुशी महसूस होती है कल वही बोझ बन जाते हैं नीरसता जीवन का प्रमुख रस बन जाती है। मनुष्य जीवन में अत्यधिक भटकाव आता है एवं भरे पूरे परिवार में भी मनुष्य अपने आपको अकेला महसूस करता है। ऐसा सब क्यों होता है? मुख्य रूप से इनके पीछे दो धाराऐं छिपी हुई हैं। प्रथम धारा में 99% कर्म और सम्बन्ध आते हैं। यह सब सौदेबाजी के अंतर्गत निर्धारित कर्म और बंधन हैं। यहाँ पर मात्र देना ही देना है। देने की अपेक्षा प्राप्त करने में उत्तरोत्तर कमी ही होती जाती है। यह जीवन जीने का एक आम ढर्रा है। अनंतकाल से जन्म लेते ही मनुष्य इस ढरें के अंतर्गत जीने का आदी हो चुका है परन्तु हर चीज की हद होती हैं। एक हद के बाद मनुष्य व्याकुल हो ऐसे व्यक्तित्व की तलाश करता है जहाँ से वह पुनः शक्ति प्राप्त कर सके। शीतलता प्राप्त कर सके, असीम शांति प्राप्त कर सके। वहाँ पर उसे कोई नोंचने खसोटने और लूटने वाला न हो। हर समय कुछ न कुछ मांग की पूर्ति करने वाला वह यंत्र न हो। यंत्रवतता से मुक्ति ही गुरु की प्राप्ति है। कुछ न करने की स्थिति ही गुरु की स्थिति है।

          सब कुछ भूलकर, सब सम्बन्धों को विस्मृत करके कुछ क्षण के के लिए प्रफुल्लित हो गुरु सानिध्य में बैठना ही परम ध्यान है। गुरु और शिष्य का सानिध्य ऐसा है कि जब वे आमने सामने होते हैं तब सब कुछ रुक जाता है। समय भी रुक, जाता है। जब समय रुक गया तो समय के अंतर्गत आने वाले समस्त ताम झाम भी रुक जाते हैं। बस यही पूर्णता के क्षण हैं। जीवन की अनमोल धरोहर यही क्षण हैं। यहीं गुरु की पहचान है कि उसके सानिध्य में सब कुछ रुक जाये और शिष्य समय विहीन, शब्द विहीन, बुद्धिविहीन एवं ज्ञानविहीन हो जाये। ब्रह्माण्ड में अभी तक ऐसी कोई ध्यान साधना पद्धति नहीं बनी है जो कि व्यक्ति को इस स्थिति में पहुँचा दे। यही परम ब्रह्म की स्थिति है, यही गुरु की महत्ता है, यही पुनः कई जन्मों तक स्फूर्तिवान बने रहने की कला है। इसे ही निखिलत्व कहते हैं।

           जब जब मैं गुरु के सामने गया सारी समस्या भूल गया, सारे सम्बन्ध, सारे तामझाम, दिन और रात का फर्क, भूख और प्यास की दैहिक क्रियाऐं स्वतः ही मिट गई बस आँखें गुरु को देखकर भाव विभोर हो उठीं एवं मुख पर मुस्कान छा गई। बस समझ में आ गया कि जीवन में कितनी निरर्थकता है और सार्थकता केवल गुरु दर्शन में है। .

यही मंगल मूर्ति गुरु स्वरूप की पहचान है, जहाँ से उठने की इच्छा न हो, जहाँ कुछ बोलने का मन न करे, जहाँ पर समस्त भौतिक, दैहिक, बौद्धिक, मानसिक और विशेषकर तथाकथित आध्यात्मिक और धार्मिक आवश्यकताओं का महत्व नगण्य हो जाये। यही परमानंद की स्थिति है। यही गुरु हृदयस्थ धारण दीक्षा का महत्व है। यह हर पल प्रसन्न और मस्त कलंदर बने रहने की कला है। 

          दुनिया चलती है, चलती रहेगी। सब कुछ चलता रहेगा और हम भी चलते रहेंगे। जब तक जीना है जियेंगे, समस्याऐं आती जाती रहेंगी। रोने वाले रोते रहेंगे, हँसने वाले हँसते रहेंगे। हम भी निष्काम भाव से कर्म सम्पन्न करते रहेंगे परन्तु अंदर से हृदय में स्थापित गुरु के साथ बातें करते हुए, मस्त रहेंगे। यही शाम्भवी दीक्षा है। इतना ढीठ बन जाना, कि दुनियाँ की कोई भी ताकत, कोई भी व्यक्ति हमें रुला न सके, हमें विचलित न कर सके, हम पर हावी न हो सके और हम पर नियंत्रण न कर सके। जो गुरु हृदय में से बोलेगा वहीं हम करेंगे। देखिए सृष्टि में सबसे ज्यादा दुखी, व्यथित, परेशान मध्य मार्गीय होता है। मध्यमार्गी कायरता की निशानी है। मध्यमार्गी कहीं का नहीं रहता। न जी सकता है न मर सकता है। मध्यमार्गी ही त्रिशंकु कहलाते हैं न स्वर्ग के रहते हैं न पृथ्वी के बस बीच में लटके रहते हैं। इसका कारण उनकी गणित लगाने की प्रवृत्ति, कुछ ज्यादा दिमाग चलाने की आदत और स्वयं तर्क कुतर्क में उलझे रहने की प्रवृत्ति ही है एक मध्यम वर्गीय परिवार में विवाह जैसी सामान्य प्रक्रिया मुसीबत का कारण बन जाती है। उच्च वर्ग में विवाह कोई समस्या नहीं है और निम्न वर्ग में पाँच हजार रुपये में विवाह हो जाता है। उसी में वे आनंद उठा लेते हैं। सारा का सारा कचरा घर मध्य वर्ग है ठीक इसी प्रकार जो मध्य मार्गीय सोच से ग्रसित होते हैं, वे गुरु को प्राप्त करने के बाद भी हैरान परेशान रहते हैं। 

             मैंने देखा है गरीब और आदिवासियों को, खेतिहर किसानों को उनके पास पैसा नहीं होता पर वे गुरु को प्राप्त करते ही ध्यानस्थ हो जाते वे हैं। अपने खेत में बैठे-बैठे गुरु से सम्प्रेषण कर लेते हैं। उच्च वर्गीय हवाई जहाज का टिकिट कटाकर गुरु के दरवाजे इच्छा होते ही पहुँच जाते हैं और बचा मध्य वर्ग बस गुरु को गाली देता रहता है और सड़ता रहता है। निखिलेश्वरानंद जी के शिविरों में मैंने अद्भुत आध्यात्मिक दर्शन प्राप्त किए हैं। एक शिविर में एक सात वर्षीय बालक आया । उसका सिर मुंडा हुआ था, पीताम्बर ओढ़ रखा था उसने वह अपने माँ बाप से जिद कर रहा था कि मुझे गुरुजी के पास ले चलो। थक हारकर माँ बाप लेकर आये । मैंने बालक से पूछा कौन सी दीक्षा लेनी है तुम्हे, वह ब्राह्मण जाति का बालक था बोला मैं नवार्ण दीक्षा लेना चाहता हूँ। मैंने सोचा सामान्यतः बालक तो सरस्वती दीक्षा लेते हैं यह नवार्ण दीक्षा क्यों लेने आ गया। वह बोला पिछली बार यह दीक्षा छूट गई थी। मैं बोला पिछली बार का क्या मतलब तुम तो पहली बार आये हो वह बोला हाँ पहली बार आया हूँ पर पिछली बार किसी कारणवश यह दीक्षा छूट गई थी। मैं तुरंत समझ गया इसे पूर्व जन्म की स्मृति आ गई है शायद गुरुजी ने इसे खींच लिया हो । दीक्षा के बाद मैं पुनः बालक से मिला मैं क्या देखता हूँ कि बालक बिल्कुल सामान्य है एवं पूर्व जन्म की याददाश्त के चिन्ह उसके चेहरे पर कहीं नहीं है। निश्चित ही गुरुजी ने पूर्व जन्म की याददाश्त को प्रतिबंधित कर दिया होगा। 

            एक बात और देखने को मिली उनके शिविरों में उनके शिष्यों की संख्या एक प्रकार से निश्चित रहती थी चार से पाँच हजार के बीच परन्तु हर बार अस्सी प्रतिशत चेहरे नये होते थे। ये साधनात्मक शिविरों का रहस्य है। यह दीक्षा प्रणाली का विधान है। हर जीवन में हर व्यक्ति की सभी दीक्षाऐं नहीं होती। एक बार एक व्यक्ति को उसकें घर वाले जंजीरों से बांध कर लाये वह विक्षिप्त सा था और वह व्यक्ति गुरुजी के मंच के नीचे तीन दिन तक सोता रहा। चौथे दिन वह ठीक हो गया। हर व्यक्ति के लिए गुरु की खोज अलग-अलग है। मेरे एक जान पहचान वाले थे अपने कुकर्मों से वह विक्षिप्त हो गये थे उसके घरवाले बहुत परेशान थे। वह सब काम छोड़, पागलों के समान घूमते थे खैर उसे भी पकड़कर गुरुजी के पास ले गये। कई बार मार-मार कर भी सुधारना पड़ता है। गुरुजी ने उसे तीन चरणों में दीक्षा दी। आज वह कई सौ एकड़ जमीन का मालिक है और दवा की दुकान भी चलाता है। कल तक जो दवा खाता था जिसे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान ने भी लाइलाज घोषित कर दिया था अब वह खुद दूसरों को दवा बेचता है। यह सब अनमोल एवं अत्यंत ही दिव्य अनुभव हैं मेरे जीवन के ।

               कैसे- कैसे लोग गुरुजी के पास आये, किस-किस माध्यम से किस-किस बहाने, किन-किन समस्याओं ने उन्हें गुरुजी के नजदीक पहुँचाया और उनकी गुरु की खोज समाप्त की। खेल-खेल में भी गुरु मिलते है। गुरु शिष्यों के ऊपर सदैव आवरण डालकर रखते हैं। यही है गुरु की पहचान अगर वह अपनी विराटता, अपनी सम्पूर्णता और अपने वैभव का वास्तविक स्वरूप शिष्य को दिखा देगा तो फिर शिष्य असहज हो जायेगा। शिष्य मतिभ्रम का शिकार हो जायेगा। गुरुजी में एक खासियत थी जैसा शिष्य हों वे वैसी ही बात करते थे। इस मर्यादा का वे कड़ाई से पालन करते थे। 

           पहली क्लास के बच्चे को इंजिनियरिंग का गणित नहीं पढ़ाना चाहिए। नहीं तो यह पढ़ाने वाले के दिवालिएपन का परिचायक है।सहजता के साथ जितना प्राप्त किया जा सकता है उतना ढोंग के द्वारा नहीं। सहजता सफल शिष्य होने की निशानी है । प्रत्येक गुरु को सीधे-सादे, सच्चे, सहज, निष्कपट और सरल हृदय के शिष्य ही पसंद होते हैं। आडम्बरी, नाटकीय व्यक्तियों को कोई पसंद नहीं करता। जीवन में सब कुछ एक दिन अचानक होता है। अचानक ही गुरु मिलते हैं। गुरु प्लानिंग से नहीं मिलते। गुरु को प्राप्त करने के लिए उस प्रकार के निरर्थक प्रयास नहीं करने पड़ते जिस प्रकार से प्रयास शादी के लिए करने पड़ते हैं। गुरु की प्राप्ति शुभ कर्मों के उदय का प्रथम लक्षण है। जीवन के पूर्ण परिवर्तनीय होने की पहचान है गुरु की खोज। 

                एक शिविर का आयोजन सम्पन्न हुआ था। सारा सामान मैदान से उठाया जा रहा था तभी एक महिला किसी अन्य प्रांत से मेरे पास आयी और बोली मुझे गुरुजी से मिलना है। मैंने कहा गुरुजी तो चले गये। वो बोली अब कहाँ मिलेंगे, मैंने कहा तुम दिल्ली चली जाओ। वह रोती हुई दिल्ली चली गई। वहाँ पर भी गुरुजी उसे नहीं मिले। उसे वहाँ से जोधपुर जाना पड़ा। वहाँ उसकी गुरु दीक्षा हुई। उसने हिम्मत नहीं हारी। अकेली महिला होते हुए भी दिल्ली से जोधपुर गई और अंत में गुरु को खोजकर ही मानी। मेरी एक जान पहचान वाला है जब-जब गुरुजी आते मैं उसे बुलाता पर उसकी किस्मत ही खराब थी। वह कभी कहीं उलझ जाता तो कभी उसे अचानक बाहर जाना पड़ जाता। अंत तक उसकी दीक्षा नहीं हो पायी। अब वह नित्य प्रतिदिन गुरु मंत्र का जाप एवं गुरु पूजन करता है। ऐसा भी होता है। दीक्षा केवल शिविरों में ही नहीं होती है। गुरुजी के साथ तो यह आलम था कि देर से आये लोग रेल्वे प्लेटफार्म पर ही दीक्षा लेने लगते थे। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक व्यक्ति दीक्षा के लिए ट्रेन में चढ़ गया। उसने ट्रेन के डिब्बे में ही दीक्षा ली और दूसरे प्लेटफार्म पर उतर गया। भगवान जाने कब कहाँ किस हाल में किस स्थिति में किसको गुरु मिल जाये। सबकी अपनी-अपनी कहानी है। खैर गुरु मिलना चाहिए। 

              एक शिष्य अपनी पत्नी से छिप छिपकर गुरुजी से मिलने आता था। उसकी पत्नी बहुत झगड़ा करती थी। बाद में पत्नी पति से भी ज्यादा गुरु भक्त बन गई। कब किसमें कैसे भाव फूट पड़ें। लोग दस-दस वर्ष तक दीक्षा के पश्चात घूमते रहे हैं। उनके अंदर श्रृद्धा और भक्ति का झरना फूटा ही नहीं पर मैं क्या देखता हूँ कि एक दिन अचानक वे भक्तिमय हो गये और गीत उनके मुख से झरने लगे। मानस शुद्धि, पूर्व जन्म के शाप कटने में समय लगता है पर गुरु मिल जाने के बाद देर सबेर यह तो होकर ही रहता है। गुरु अपना असर जरूर दिखाता है। लोहा भी एक तापमान पर मोम के समान मुलायम हो जाता है। लड़ाई-झगड़े, गुरु से शिकायत, गुस्सा यह सब सामान्य बातें हैं। जीवन के यह आवश्यक अंग है। गुरु इनका कभी बुरा नहीं मानता वह इन परिधियों से ऊपर रहता है। फिर से जवान बना देना, फिर बाल्यावस्था को लौटा देना यही गुरु का कार्य है। गुरु की खोज जीवन की सबसे बड़ी खोज है आप भी इस खोज में सफल हों बस इतना ही कहना है।

         गुरु कृपा ही केवलम् गुरु कृपा ही केवलम्



धन्याष्टकम् ।।

       आदि गुरु श्री शंकराचार्य जी स्वयं उस गुरु से दीक्षित थे जो कि परमहंस अवस्थाओं को आत्मसात कर चुके थे और उन्होंने अपने स्वयं के जीवन में भी उसी परमहंस अवस्था को आत्मसात कर उस दिव्य और अति दुर्लभ शिव दृष्टि को प्राप्त किया था जिसके द्वारा वे सत्य को नग्न अवस्था में स्थित प्रज्ञ हो निहार सकते थे इसीलिये उनके द्वारा रचित प्रत्येक स्त्रोत भारतवर्ष की धरोहर है। काल आता जाता रहेगा परन्तु उनके द्वारा रचित दिव्य स्त्रोत सदैव शाश्वत् बने रहेंगे। परमहंस वाणी की यही विशेषता है। इस वाणी पर शिव आरूढ़ होते हैं और शिव ही 'सत्यम शिवम् सुन्दरम्' हैं। उनके द्वारा रचित स्त्रोत समग्रता लिये हुये है। एक-एक शब्द गुरु बल से सम्पुट है कहीं भी व्यर्थ का उच्चारण नहीं मिलता है। जब इन दिव्य स्त्रोतों की तरंगे मस्तिष्क को स्पंदित करती हैं तो एक ऐसा दिव्य अनुभव होता है जिसे वर्णित नहीं किया जा सकता। सम्पूर्ण अस्तित्व हिमालय के समान शांत और दिव्य हो उठता है। आदि गुरु श्री शंकराचार्य जी द्वारा रचित धन्याष्टकम् स्त्रोत उनके गुरुबल की श्रेष्ठता को दर्शाता है साथ ही इसके अंदर वह दिव्य शक्ति छिपी हुई है जिसे आत्मसात कर साधक अपने जीवन में परमहंस स्वरूप को उतार सकता है। जैसे-जैसे यह स्त्रोत हृदय के नजदीक पहुँचता जायेगा वैसे-वैसे साधक परमहंस अवस्था की तरफ अग्रसर होता जायेगा। अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं के लिये यह स्त्रोत दिव्य औषधि का कार्य करेगा।

धन्याष्टकम् --

तज्ज्ञानं प्रशमकरं यदिन्द्रियाणां
तज्ज्ञेयं यदुपनिषत्सु निश्चितार्थम् ।
ते धन्या भुवि परमार्थनिश्चितेहाः
शेषास्तु भ्रमनिलये परिभ्रमन्तः ॥ १॥

आदौ विजित्य विषयान्मदमोहराग-
द्वेषादिशत्रुगणमाहृतयोगराज्याः ।
ज्ञात्वा मतं समनुभूयपरात्मविद्या-
कान्तासुखं वनगृहे विचरन्ति धन्याः ॥ २॥

त्यक्त्वा गृहे रतिमधोगतिहेतुभूताम्
आत्मेच्छयोपनिषदर्थरसं पिबन्तः ।
वीतस्पृहा विषयभोगपदे विरक्ता
धन्याश्चरन्ति विजनेषु विरक्तसङ्गाः ॥ ३॥

त्यक्त्वा ममाहमिति बन्धकरे पदे द्वे
मानावमानसदृशाः समदर्शिनश्च ।
कर्तारमन्यमवगम्य तदर्पितानि
कुर्वन्ति कर्मपरिपाकफलानि धन्याः ॥ ४॥

त्यक्त्वईषणात्रयमवेक्षितमोक्षमर्गा
भैक्षामृतेन परिकल्पितदेहयात्राः ।
ज्योतिः परात्परतरं परमात्मसंज्ञं
धन्या द्विजारहसि हृद्यवलोकयन्ति ॥ ५॥

नासन्न सन्न सदसन्न महसन्नचाणु
न स्त्री पुमान्न च नपुंसकमेकबीजम् ।
यैर्ब्रह्म तत्सममुपासितमेकचित्तैः
धन्या विरेजुरित्तरेभवपाशबद्धाः ॥ ६॥

अज्ञानपङ्कपरिमग्नमपेतसारं
दुःखालयं मरणजन्मजरावसक्तम् ।
संसारबन्धनमनित्यमवेक्ष्य धन्या
ज्ञानासिना तदवशीर्य विनिश्चयन्ति ॥ ७॥

शान्तैरनन्यमतिभिर्मधुरस्वभावैः
एकत्वनिश्चितमनोभिरपेतमोहैः ।
साकं वनेषु विजितात्मपदस्वरुपं
तद्वस्तु सम्यगनिशं विमृशन्ति धन्याः ॥ ८॥

                           शिव शासनत: शिव शासनत:

प्रसाद-बुद्धि ।।

किसी सन्त से पूछा गया कि जिस प्रकार हम अपना चेहरा दर्पण में देख सकते है, उसी प्रकार आत्मज्ञान के होने का उपाय क्या है? सन्त ने कहा कि आत्मज्ञान बुद्धि का विषय है।( सांसारिक बुद्धि का नही, केवल आध्यात्मिक विषयक बुद्धि का ही… ) आध्यात्मिक बुद्धि ही एक प्रकार का दर्पण है, जिसके माध्यम से ही आत्मज्ञान का प्रकाश देखा जा सकता है। 

अब प्रश्न ये है कि इस आध्यात्मिक-बुद्धि के जागरण का उपाय क्या है? किस प्रकार सांसारिक-बुद्धि का परिवर्तन आध्यात्मिक-बुद्धि में हो सकता है? 

सांसारिक बुद्धि => भोग 
आध्यात्मिक बुद्धि => प्रसाद

अर्थात जब भोग को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है, तब प्रसाद-बुद्धि का जागरण होता है। अर्थात प्रसाद-बुद्धि का आश्रय ही एकमात्र उपाय है, जिससे सांसारिक भोग-बुद्धि का लोप होता है, और आध्यात्मिक-बुद्धि का प्रकाश प्रकट हो सकता है। 

दुर्गा सप्तशती में भी कीलक मंत्र में बहुत ही स्पष्ट है…..
"ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति ⁠। 
इत्थंरूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ।।"

[जो साधक एकाग्रचित्त होकर भगवतीकी सेवामें अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसादरूपसे ग्रहण करता है, उसीपर भगवती प्रसन्न होती हैं; अर्थात प्रसाद-बुद्धि (समर्पण) का आश्रय ग्रहण किये बगैर सारी आध्यात्मिक साधना कीलित ही रहती है, ऐसी व्यवस्था महादेवजी ने स्वंय की है।]

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"जो लोग उपासक और भक्त है, वे सूक्ष्मतर कौशल के सहारे ईशोपनिषद की प्रक्रिया के अनुसार भोग करने पर भी उस भोग में लिप्त नहीं होते । वह उनके लिए प्रसाद ग्रहण मात्र है, उपभोग नहीं। इस प्रकार के भोग के द्वारा भोग-वासना निवृत्त हो जाती है। वह वास्तव में भोग होकर भी भोग का निवर्तक है। इसे वैध भोग कहा गया है। 
भोग्य वस्तु प्रकृति स्वरूप है। जो भोक्ता है, वे परमपुरुष या पुरुषोत्तम है। जीव प्रकृति का भोक्ता नहीं है। 
प्रकृति का भोग्य सम्भार स्वाभाविक स्रोत से निरन्तर परमपुरुष की ओर गतिमान है। अर्थात रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द बाह्य जगत से उठकर देह स्थित नाड़ी अवलम्बन पूर्वक निरन्तर ऊर्ध्वमुख में, सहस्रदल कमल की कलिका स्थित परम पुरुष की ओर प्रवाहित हो रहा है और उनका चरण स्पर्श कर अर्थात उनकी दृष्टि से पवित्रीकृत होकर अधोमुख में अथवा बहिर्मुख में प्रत्यावर्तन कर रहा है। इस ब्रम्हचक्र में निरन्तर आवर्तन हो रहा है।
तटस्थ भूमि पे प्रतिष्ठित जीव आज्ञा चक्र में अवस्थित होकर उक्त अधोमुख संचालित शुद्ध अमृत धारा का पान करते हुए कृतार्थ हो रहा है। जीव जब तक उर्ध्वमुखी होकर उस धारा को ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता, तब तक उक्त प्रसाद रूपी धारा उसके भोग में नहीं आता। 
साधारणतः जीव अधोदृष्टि सम्पन्न होता है। प्रकृति की उर्ध्वमुखी आनन्दधारा को वह मध्यस्थान से पहले अपहरण करता है। अर्थात भोक्ता बनकर परमेश्वर की भोग्यवस्तु को परमेश्वर को अर्पित होने से पहले स्वंय ही उपभोग करने में प्रवृत्त होता है। इस चौर्य प्रवृत्ति के कारण जीव निरन्तर बद्ध होकर रह जाता है। फलस्वरूप जीव जिस भोग्यवस्तु को प्राप्त करता है, वह अशुद्ध रह जाती है। अशुद्ध भोग्य के भोग को उपभोग कहा जाता है, भोग नहीं कहा जाता । अगर जीव लोभ-दृष्टि एवं तृष्णा को त्यागकर अनासक्त रूप में उर्ध्वनेत्र से एक मात्र परम पुरुष की ओर लक्ष्य निबद्ध रख सके , तो भोग्य वस्तु न चाहने पर भी परमेश्वर से प्रत्यावर्त आनन्दधारा वह स्वतः प्राप्त कर सकता है। यही प्रसाद ग्रहण है।.

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता ⁠। 
नमस्तस्यै ⁠।⁠।⁠ नमस्तस्यै ⁠।⁠।⁠ नमस्तस्यै नमो नमः

अनंत ब्रह्मांड ।।

           प्रत्येक शहर के बाहर सुनसान स्थान पर कारागृह बना होता है और इस कारागृह में समाज के लिए जो तत्व खतरनाक होते हैं उन्हें ले जाकर स्थापित कर दिया जाता है एवं चारों तरफ कड़ा पहरा लगा दिया जाता है और प्रतिक्षण इन पर निगरानी रखी जाती है। शहर का मल एवं कचरा भी व्यवस्थित तरीके से शहर से दूर सुनसान जगह पर गड्ढा खोदकर गाड़ दिया जाता है। मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि चोर उचक्के भी जीवित हैं, मल भी जीवित है तभी तो यह सब खतरनाक सिद्ध होते हैं। आम जनजीवन के लिए जीवित न होते तो किस बात का खतरा कई मामलों में तो ये आम लोगों से ज्यादा ऊर्जावान होते हैं। नकारात्मक सोच रखने वाला षड्यंत्रकारी लाखों व्यक्तियों पर कभी-कभी भारी पड़ जाता है। इन्हें निरंतर हटाना पड़ता है। एक तरह से यह शून्य की प्राप्ति का अनुसंधान है, यह सब शून्य करने की प्रक्रिया का एक प्रमुख अंग है। जीवन ऐसे ही चलता है। 

         लाखों लोगों का जीवन निर्बाद रूप से चलता रहे उसके लिए परेशानी उत्पन्न करने वाले असत्यगामी को तो शून्य करने की प्रक्रिया अपनानी ही पड़ती है। यह तो हुई भौतिक सोच अध्यात्म में भी अनेकों साधक शून्य प्राप्ति की कोशिश करते हैं। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने वेदान्त एवं अद्वैत को परिभाषित किया और बुद्ध ने शून्य की बात की। कालान्तर बौद्ध धर्म और सनात धर्म में भीषण टकराव हुआ। आदि गुरु शंकराचार्य जी से पहले अद्वैतवाद को कोई मुख प्रदान नहीं कर पाया और ठीक इसी प्रकार से बुद्ध के शून्यवाद को भी बौद्ध नहीं समझ पाये। शंकराचार्य जी ने भी यह स्वीकार किया है कि बुद्ध का शून्यवाद कुछ भी नहीं बस अद्वैत का साक्षात्कार था किसी कारणवश या समय की मांग के अनुसार बुद्ध को कहीं कुछ हेर फेर करना पड़ गया और वास्तविक बुद्धत्व अर्थात अद्वैत गलत रूप में महिमा मण्डित हो गया। बुद्ध ने भी कुछ नया नहीं कहा। बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में भी वही रुकावटें आयीं जो अन्यों के मार्ग में आयी थीं। उन्होंने भी कर्मकाण्ड सम्पन्न किये आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने भी योग को पकड़ा, तंत्र को पकड़ा, मंत्रों का जप किया, कई महीनों तक अन्न जल त्यागकर जल में खड़े रहकर तपस्या की, वनों में भटके, अनेकों इतर योनियाँ से साक्षात्कार किया। 

        जिस समय बुद्ध को बोधी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ वे मात्र हड्डी का ढांचा रह गये थे। वे भी संन्यस्थ हुए थे। उन्होंने ही तो धम्म बनाया, शिष्य और अनुयायी बनाये राजा से पूर्ण चैतन्य तक की उनकी यात्रा में उन्होंने भिक्षा भी मांगी आखिरकार बने तो वे भी ब्राह्मण हूबहू वही सब कुछ किया जो सनातन धर्म का प्रत्येक ऋषि-मुनि करता है। कुछ भी नया नहीं किया। अंत में वे समझ गये कि उनका बोधत्व अंतिम सीढ़ी नहीं है एवं इसके आगे और भी जहाँ है। उनका ज्ञान अंतिम ज्ञान नहीं है इसके आगे कुछ और भी है। शंकर भी ये समझे बैठे थे इसलिए उलझे नहीं। अद्वैत का मतलब यही है। शब्दों के माध्यम से बस इतना कह सकते हैं कि आगे और कुछ भी है यह अंत नहीं है। अंत होता ही नहीं है, अब इसे कोई किसी भी तरह से समझ ले। कोई इसे शून्य कह दे, कोई इसे अद्वैत कह दे कोई इसे अनंत कह दे क्या फर्क पड़ता है? असीमितता तो है। शब्द क्या व्याख्या करेंगे अद्वैत की। जब-जब शब्दों के माध्यम से, बुद्धि के माध्यम से, तर्क के माध्यम से या फिर अतिसीमित ज्ञान के माध्यम से इसके आगे कुछ और की व्याख्या की जायेगी केवल सीमितता ही हासिल होगी। केवल नये-नये सिद्धांत ही बनेंगे नये-नये धार्मिक ग्रंथों का ही निर्माण होगा। एक परिपाटी चलेगी और फिर उसमें से उत्पन्न होंगे मूढ़, अज्ञानी, कार्बन कापी करने वाले लम्पट शिष्य। जो सिर्फ सीमितता को लेकर ही एक दूसरे की गर्दन काटेंगे। 

         यह अध्यात्म नहीं है, यह सीमा से परे जाने का मार्ग नहीं है। यह तो थकावट है। हाँ थके हुए मस्तिष्क, शिथिल बुद्धि बस अपने गुरु में अटककर रह जाती है। यही जड़ता की पहचान है। जड़ता से ही अनित्यता का उदय होता है। आदि गुरु शंकराचार्य जी बिहार प्रदेश के भ्रमण पर थे एक जगह यमस्थपुरी दिखाई दी। वहाँ के लोग यम को ही परमब्रह्म मानने लगे थे। यम के समान भैसे पर बैठते, काला रंग पोतते और ऊल- जलूल हरकतें करते। वे सब सीमित हो गये थे। बस यम ही यम और कुछ नहीं। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने उनकी बातें ध्यान से सुनी तुरंत यम स्तोत्र की रचना कर उनका आह्वान किया और यम देव को प्रकट कर दिया। उन्होंने उन लोगों को समझाया कि यम देव हैं, एक विशेष लोक के नियंत्रक हैं परन्तु परम ब्रह्म नहीं हैं। उनके ऊपर भी नियंत्रण है। यम की उपासना से तुम ज्यादा से ज्यादा यम लोक तक पहुँच सकते हो पर मोक्ष प्राप्त नहीं होगा। लोगों को बात समझ में आ गयी वे पुनः वैदिक धर्म की तरफ सत हो गये।सारे देश का यही हाल है तब भी था और अब भी है। .

शंकराचार्य जी को कुछ मिले जो कि गणपति को ही परम ब्रह्म मानने लगे थे, कुछ ने तो लक्ष्मी माता को ही सृष्टि का मूल समझ लिया, कुछ सरस्वती को ही सब कुछ समझ बैठे कुछ लोगों के लिए विष्णु के अलावा सब व्यर्थ था। कुछ तो अपने माँ बाप को ही परम परमेश्वर मान बैठे थे। किसी के लिए नरसिंह, किसी के लिए राम, किसी के लिए कृष्ण तो किसी के लिए बुद्ध ही साक्षात् परमब्रह्म थे आदि गुरु शंकराचार्य जी ने सबसे शास्त्रार्थ किया शैवों को बुरी तरह परास्त किया, कापालिकों को तो उनकी भाषा में ही दण्ड दिया। तांत्रिकों को तो शून्य में ही विलीन कर दिया। जाओ अब छुट्टी अनंत ब्रह्माण्ड में तुम्हें विलीन कर दिया जाता है। आदि गुरु शंकराचार्य जी के जीवन का सार ही यही है कि अज्ञान को विलीन कर दो। जो भी नजदीक आये, जो भी मुझसे शास्त्रार्थ करे मुझे तो बस उसके अज्ञान को अनंत ब्रह्मण्ड में विसर्जित कर देना है। जहाँ अज्ञान विसर्जित हुआ वहाँ ज्ञान स्वत: ही प्रकट हो जायेगा।

          अस्तित्व वैसे तो कभी मिडना नहीं है क्योंकि शून्य होता ही नहीं है। शून्य की परिभाषा होती ही नहीं है। शून्य तो कहीं भी नहीं है बस यही अद्वैत है। अद्वैत की आधी-अधूरी समझ ही शून्य जैसे शब्द का निर्माण करती है। शून्य से क्या तात्पर्य है? किसी ने कहा एक बोतल में से वायु को निकाल दो स्थान शून्य हो जायेगा। ठीक है वायु निकाल दी। तुम्हारी सोच में सिर्फ भौतिक तत्व के हट जाने से ही शून्य निर्मित हो जाता है तो तुम सर्वथा गलत हो। हाँ वायु हट गई परन्तु उसके अंदर एक अद्भुत बल निम्ति हो गया यही बल वैक्युम कहलाता है एवं इसमें इतनी ताकत होती है कि इसे तोड़ने के लिए फिर एक अलग सिद्धांत रचना होगा। तो फिर कहाँ है शून्य? शून्य परिभाषित करके तो बताओ। बस यही समझ शंकराचार्य जी को दिग्विजयी बनाती है। वे समझ गये थे कि अस्तित्व विहीनता नहीं होती। हाँ कुछ समय के लिए अस्तित्व क्षीण पड़ सकता है। जैसे ही सूर्य उदित होता है चंद्रमा और तारागण आँखों से दिखाई नहीं देते परन्तु इसका मतलब यह तो नहीं है कि चन्द्रमा और तारागणों का अस्तित्व शून्य हो गया है। वे भी स्थित रहते हैं। 

            यह है प्रपंच सार, मिथ्या सार इन्द्रिय ज्ञान इसलिए आधा-अधूरा है, इन्द्रिय सोच इसलिए अस्पष्ट है। अंतेन्द्रिय सोच भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। अनुभूति इन्द्रिय और अंतेन्द्रिय विषयों पर आधारित है। आत्मानुभूति ही अद्वैत को समझ सकती है। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने कहा है कि सूर्य नित्य नहीं है वह भी नश्वर है। चन्द्रमा, ताराग आकाशगंगा इत्यादि यह सब नश्वर है इनमें से एक नित्य नहीं है। इन सबकी भी मृत्यु होगी। अतः सूर्योपासक, चंद्रोपासक, ज्योतिषाचार्य यह कदापि न समझे कि वे परब्रह्म सत्-चित आनंद की उपासना कर रहे हैं। इन उपासनाओं से शक्ति अवश्य प्राप्त होगी। कार्य विशेष अवश्य सम्पन्न होंगे, जीवन में अनुकूलता निश्चित ही आयेगी पर मोक्ष कदापि प्राप्त नहीं होगा। तुम एक विशेष आवृत्ति में गतिमान होकर रह जाओगे, जन्म मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो पाओगे।
         
            आदि गुरु शंकराचार्य जी हिन्दू उपासना पद्धति के प्रबल समर्थक थे उन्होंने लक्ष्मी से लेकर विष्णु राम, कृष्ण, गणेश और यम तक पर स्तोत्र लिखे हैं। सभी का आदर किया है, सम्मान दिया है, उनकी शाश्वतता को समझा है। किसी से भी उसके पंथ में चल रही उपासना पद्धति को छोड़ने के लिए नहीं कहा है, उल्टे बुद्ध की विष्णु रूप में पूजा करवाई परन्तु उस परम सत्य की ओर भी इशारा किया जिसके भय से सूर्य तपता है, जिसके स्पंदन से अनंत आकाश गंगायें निर्मित होती हैं, जिसके आदेश से नक्षत्रगण लयमान होते हैं। हाँ उन्होंने लय की बात की है। लय ही अद्वैत है। लयात्मकता ही जीवन है। अरे जब सृष्टि ही नहीं रहेगी, एक दिन आकाश गंगा ही विसर्जित हो जायेगी तो फिर बुद्ध, राम या शंकर क्या कर लेंगे? यही है सत्-चित आनंद परम ब्रह्म की पहचान किसी में मत अटको, किसी की भी आवृत्ति में गतिमान मत होना नहीं तो लिप्त कहलाओगे। उनका शास्त्रार्थ कर्मकाण्डियों से भी हुआ। कर्मकाण्डी कहते हैं कर्म ही सब कुछ है, कर्म के अलावा कुछ भी नहीं है। अच्छे कर्म करोगे तो स्वर्ग मिलेगा, बुरे कर्म करोगे तो नर्क मिलेगा। कर्म बंधन ही सब कुछ है। शंकराचार्य जी ने इसका खण्डन कर दिया। निम्न कोटि का जीव कर्म बंधनों में बाधित हो सकता है, सकाम कर्म करने वाला जीव कर्मआधारित होता है परन्तु ब्रह्म ज्ञानी कर्मों की श्रृंखला से मुक्त होते हैं। निर्लिप्त कर्म सम्पन्न करने वाले किसी लोक की भी कामना न करने वाले, अहं ब्रह्माऽस्मि की लय में बहने वाले कर्म बंधनों से मुक्त होते हैं।कर्म पिण्ड आधारित है, आत्मा आधारित नहीं। आत्मा पूरी तरह से कर्मों से मुक्त है।जो नित्य है परिशुद्ध है उस पर कर्मों का क्या प्रभाव ? .

 कर्मों की भी एक सीमा है। उसके आगे भी जहाँ है यही है अद्वैत। यही है अनंत ब्रह्माण्ड । सिद्धांतों की सीमाएँ हैं वे सीमित हैं। इन्द्रियाँ भी सीमित हैं। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण एक सीमा तक है, सूर्य का प्रकाश एक सीमा तक विस्तारित होता है उसे हद में रखा गया है, उसे हद में कौन रखता है? उसे मृत्यु कौन प्रदान करता है? मजाल है सूर्य के प्रकाश की कि किसी अन्य आकाश गंगा में दाखिल होकर देख ले। अन्य आकाश गंगाओं में तो इतने बड़े सूर्य हैं कि हमारा सूर्य उनकी चमक के सामने दिखाई ही नहीं देगा। शंकराचार्य जी क्या कहना चाह रहे हैं? वे ग्रंथ लिखने नहीं आये हैं, वे प्रचार-प्रसार करने नहीं आये हैं, वे धर्म की संस्थापना करने नहीं आये हैं, न ही वे अपनी मूर्ति पुजवाने आये हैं यह सब लक्ष्य सीमित मस्तिष्कों की सोच है। सीमितता ही द्वैत का निर्माण करती है अगर हम उन्हें केवल सनातन धर्म से बाँधकर देखते हैं तो फिर एक तथाकथित बुद्ध और महावीर का निर्माण कर रहे हैं। असीमित को सीमित करने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ देर बाद वे बस हमारे एक छोटे से पूजाघर की मूर्ति बनकर रह जायेंगे। उनकी मूर्ति पूजन से मोक्ष नहीं प्राप्त होगा।

             सब कुछ इस तरह की गतिविधियों से सत्यानाश हो जायेगा। यही हाल सब धर्मों का हुआ। मस्तिष्क को असीमित रहने दो, मस्तिष्क प्रपंच में न उलझे, व्यक्ति अंदर से संन्यस्थ हो, उसका दिमाग प्रतिक्षण खुला रहे, द्वंदात्मक स्थिति निर्मित न हो, किसी एक भगवान या देवता में अटककर न रह जाये। स्वर्ग और नर्क के चक्कर में गणित न लगाये, पाप और पुण्य के सांख्य योग में न उलझे । कपिल, अगत्स्य, दुर्वासा, व्यास आते जाते रहेंगे। शंकराचार्य भी आये और चले गये बस इतना कह गये कि संन्यास कैसा होता है? यह समझ लो कि जगत एक प्रपंच है, एक छल है, महाशक्ति की माया है इसमें लिप्त मत होना, कहीं मत उलझना, ईश्वर और जीव में दूरी मत करना क्योंकि वेद कहते हैं तत्व मसि! वेद कहते हैं अहं ब्रह्माऽस्मि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ। अभी आगे की ओर बहुत सी यात्राएँ हैं। जीव के रूप में पृथ्वी का निरीक्षण कर रहा हूँ, किसी अन्य रूप में कहीं और स्थित प्रज्ञ हो निरीक्षण करता रहूँगा। यही है अद्वैत दर्शन। ऐसे मस्तिष्क मिलते कहाँ हैं?

          नाना प्रकार के मानव निर्मित धार्मिक प्रपंचों में उलझ सम्भावनाएँ बड़ी क्षीण हो गई हैं। सम्भावना की बड़ी आवश्यकता है। सम्भावना पर ही मस्तिष्क का खुलापन टिका हुआ है। सम्भावना ही अद्वैत की आत्मानुभूति कराती है कहीं कुछ तो होगा, कहीं न कहीं से रास्ता निकलेगा, कुछ तो अच्छे लोग मिलेंगे, कुछ तो मर्म को समझेंगे ये भाव मनुष्य के अंदर क्यों उठते हैं? एक मरते हुए व्यक्ति के अंदर भी आखिरी क्षण तक, अंतिम श्वास तक कहीं कुछ और की स्थिति बनी रहती है। हर व्यक्ति जीवन के अंतिम क्षण तक निरंतर सुधार और सम्भावना से परिपूर्ण होता है ऐसा क्यों होता है? क्योंकि अद्वैत से ही द्वैत रूपी जीव की जन्म होता है। यही अद्वैत अनंत सम्भावनाओं के रूप में मनमानस एवं मस्तिष्क में प्रतिक्षण दस्तक देता रहता है। अभी कुछ साऋ पहले पोप घबरा गये तुरंत अमेरिका के राष्ट्रपति से बोले स्टैम सैल (मूल कोशिका) के- अनुसंधान पर विराम लगा दो। जब गर्भाशय के अंदर स्त्री और पुरुष के डिम्बों और शुक्राणु का मिलन होता है तब सबसे पहले स्टैम सैल ही बनती है एक खाली स्लेट, एक खाली पन्ना जिस पर कुछ भी नहीं लिखा होता यही कोशिका जब अनुवांशिक रचनाओं के सम्पर्क में आती है तब मस्तिष्क, हाथ पाँव और हृदय इत्यादि का निर्माण प्रारम्भ होता है। एक-एक कर प्रत्येक अनुवांशिक कोड मूल कोशिका के सम्पर्क में आकर उस अंग विशेष प्रकृति विशेष एवं कोशिका विशेष की रचना करते जाते हैं। 

         वैज्ञानिकों ने मूल कोशिका भ्रूण निर्माण से पहले प्राप्त कर ली और प्रयोग शाला में विशेष अनुवांशिक संरचना से मिलन करा प्रयोगशाला में ही अंग विशेष का निर्माण शुरू कर दिया अर्थात त्वचा सूत्र को मूल कोशिका से मिलाकर त्वचा निर्मित कर ली। यह है अद्वैत से प्राप्ति। यह है अद्भुत अद्वैत की पुष्टि। मूल कोशिका प्रदान कर रही है, जैसा चाहो वैसा प्रदान कर रही है। जब जीव के अंदर मौजूद है तो फिर अनंत ब्रह्माण्ड में इसका क्या स्वरूप होगा? यह सोचने का विषय है। यही है सत चित आनंद की एक झलकी। इसी प्रकार मूल शक्ति अर्थात मूल ब्रह्म से अनंत आकाश गंगाएँ, अनंत सूर्य, अनंत ब्रह्माण्डों की रचना हो रही है। सब वहीं से शक्ति प्राप्त कर रहे हैं। वह अजर-अमर है, वह नित्य है बाकी सब अनित्य और नश्वर गुरु भी शिष्य में सम्भावना देखता है। अपने घर के नीचे मैं कितना भी गहरा कुँआ खोदूं अगर खनिज तेल नहीं है तो नहीं मिलेगा। सोना नहीं है तो फिर घर के नीचे गड्ढा खोदने से क्या फायदा? कम से कम इतनी अति संवेदनशीलता तो होनी ही चाहिए। .

संवेदनशीलता होगी तो गुरु समझ जायेगा कि इस शिष्य के साथ कुछ समय व्यतीत करने से एक निश्चित आकृति विकसित होगी अन्यथा स कुछ व्यर्थ है।

         सम्भावना तो तलाशी ही जाती है। साधक भी सम्भावना तलाशता है, साधक को भी सम्भावना लगे तो पीछे नहीं हटना चाहिए तभी आकार ग्रहण कर पाओगे। गुरु भी उन्हीं शिष्यों को पसंद करता है जो कि खाली स्लेट हों, जिन पर कुछ लिखा जा सके, जिन्हें कि गढ़ा जा सके। बहुत ज्यादा ज्ञानी, तर्क कुतर्क से भरे हुए, गणितज्ञ व्यक्तियों के साथ सम्भावनाएँ न्यून हो जाती हैं क्योंकि वे द्वैत का पुतला बन चुके होते हैं। जब एक पन्ना पूरी तरह से भर गया है तो फिर उसमें दूसरा क्या लिखें? बेहतर होगा नया पन्ना ढूंढा जाय नहीं तो सब कुछ उल्टा पुल्टा हो जायेगा। अनंतता को समझाने के लिए एक उदाहरण देता हूँ। आचार्य शंकर श्रृंगेरि मठ में निवास कर रहे थे तभी उनके सामने एक गिरि नामक ब्राह्मण युवक मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से आया। वह पढ़ा लिखा नहीं था। वेद, उपनिषद, भाष्य, ग्रंथ इत्यादि में शून्य था अर्थात खाली पन्ना फिर भी मूल शक्ति मजबूत थी मोक्ष चाहता था, शिष्य बनना चाहता था। उसमें गुरु भक्ति थी, आज्ञाकारी था, कम बोलने वाला एवं सत्यवादी भी था। शंकर ने उसे अपना शिष्य बना लिया। 

            कैसा विकट संयोजन एक तरफ मण्डन मिश्र अर्थात सुरेश्वराचार्य दूसरी तरफ पदमपाद एवं अनेकों धुरंधर विद्वान, तर्कशास्त्री, प्रकाण्ड पण्डित एवं तेजस्वी ब्रह्मचारी शिष्य थे तो दूसरी तरफ निरक्षर गिरि कोई भी शिष्य उससे बात नहीं करता। क्या बात करते उससे? उसका काम शंकर की सेवा, पाँव दबाना, कपड़े धोना एवं हमेशा उनके साथ चलना ही था। जब भी आचार्य प्रवचन देते वह बड़े ध्यान से सुनता। गुरु सेवा ही उसका मूल लक्ष्य था। एक बार की बात है वह तुंग भद्रा नदी पर गुरुजी के कपड़े धोने गया था। संध्या का समय था आचार्य प्रवचन देने वाले थे सभी शिष्य मण्डली उनके सामने आकर बैठ गई पर आचार्य ने प्रवचन प्रारम्भ नहीं किया। उन्होंने पूछा गिरि कहाँ है? उसे आ जाने दो फिर मैं बोलना प्रारम्भ करूंगा। काफी देर हो गई अंत में पदमपाद बोले हे गुरुदेव जिसका हम इंतजार कर रहे हैं उसकी बुद्धि तो इस दीवार के समान है वह क्या समझेगा? शास्त्र के मर्म को तुरंत शंकराचार्य जी ने आँखें बंद की और समाधिस्थ हो गये। एक घण्टे तक सब कुछ शून्य कर दिया, अनंत ब्रह्माण्ड में स्वयं को फेंक दिया और प्रारम्भ किया क्रिया योग । आचार्य ने अपनी प्रबल आध्यात्मिक शक्ति से एक घण्टे के भीतर ही गिरि के अंतर्मन में 14 विद्याएँ, चार वेद, छ: वेदांग (शिक्षा, कल्प, निरुत, छंद, ज्योतिष, व्याकरण) पुरण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र इत्यादि को समाहित करके रख दिया। नदी तट पर कपड़ा धो रहा गिरि अचानक तंद्रा में चला गया और जैसे ही तंद्रा खुली गिरि के मुख से छन्द फूटने लगे। शिष्यगण निरक्षर गिरि के मुख से अद्भुत से वाणी सुन आवाक रह गये। उन सभी का अभिमानी सिर झुक गया। पदमपाद तो लज्जावश आचार्य शंकर के चरणों में गिर पड़े। बाद में यही गिरि तोटकाचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए और आचार्य शंकर द्वारा स्थापित चार मठों में से एक मठ के मठाधीश बने। यह है अनंत सम्भावना।

           गुरु शक्तिशाली था, असम्भव को सम्भव में बदलने की शक्ति थी और शिष्य भी सम्भावनाओं से परिपूर्ण था तो फिर जन्म तो सुनिश्चित था। गुरु क्या करता है? बस शिष्य को सबल, समर्थ और ज्ञानवान बना देता है फिर आदेश देकर उसे संसार के भव सागर में उतार देता है सम्भावना देखता है इसीलिए वह ऐसा करता है। गुरु हमेशा अनंत सम्भावनाओं में जीते हैं। उनके मस्तिष्क कुन्द नहीं होते, वे लकीर के फकीर नहीं बनते, बनाते और बिगाड़ते रहते हैं। कल जिसे बनाया अगर वह उचित प्रतीत नहीं हुआ तो दूसरे ही क्षण उसे मिटा भी देंगे । कुछ नया और गढ़ देंगे। यही है अद्वैत द्वैत आते जाते रहेंगे अद्वैत स्थिर रहेगा, नित्य रहेगा निर्विकार रहेगा। यही भाव मोक्ष प्राप्ति की प्रबल सम्भावनाओं को स्वरूप प्रदान करेंगे। संन्यास धर्म सबसे विलक्षण एवं दुर्लभ प्राप्ति है। संन्यस्थ जीवन अत्यंत ही बिरला है। संन्यास ही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। आदि गुरु शंकराचार्य जी संन्यस्थ हैं। संन्यासी का मार्ग अनंत है, संन्यासी ही अद्वैत को अनुभूत कर सकता है। आत्मसात कर सकता है। संन्यासी के लिए समस्त ब्रह्माण्ड घर है। वह किसी सीमा, मान्यता, लोकाचार या समाज से बंधा हुआ नहीं है। वह स्वच्छंद है। आत्मानुशासित है। उसका मस्तिष्क खुला हुआ है, उसका मन स्थिर है वह स्थित प्रज्ञ है। बस अद्वैत को शब्दों में बाँधने की कोशिश बंद करता हूँ। अनंत ब्रह्माण्ड को शब्द के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता अतः यह लेख निश्चित ही आधा-अधुरा एवं त्रुटिपूर्ण होगा इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। .

                           शिव शासनत: शिव शासनत: