Follow us for Latest Update

प्रसिद्ध देवी तीर्थ और व्रत ।।

         तीनों लोकों में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ भगवती आद्या विद्यमान न हों। सृष्टि की स्थिति, पालन और विनाश सभी की मूल में आदिशक्ति भगवती ही हैं उनकी उपासना, आराधना कभी भी कहीं भी किसी भी विधि से की जा सकती है बशर्ते कि मन में श्रद्धा और विश्वास हो। भगवती की भक्ति में लीन होकर सदैव उनके ही चरण कमलों का चिंतन करने वाला साधक संसार में सर्वत्र निर्भय होकर विचरण कर सकता है आसुरी शक्तियाँ, भूत-प्रेत या तांत्रिक मांत्रिक उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।
                भगवती जगदम्बा सर्वस्वरूपिणी हैं सम्पूर्ण काल उनके व्रत के लिए उत्तम है तथापि स्वरूप भेद से अलग अलग स्थानों में सुशोभित भगवती के सिद्ध तीर्थों का अपना अलग महत्व है। एक बार प्रसंगवश भगवती ने पर्वतराज हिमालय के अनुरोध पर उनकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए स्वयं अपने प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों के विषय में बताया था उन स्थानों का वर्णन अक्षरश: जैसा कि श्रीमद् देवी भागवत् में उल्लिखित है हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
                  कोलापुर नाम का एक परम प्रसिद्ध स्थान है, जहाँ लक्ष्मी सदा निवास करती हैं। दूसरे स्थान का नाम मातुःपुर है, उस पुरी में भगवती रेणुका रहती हैं। तुलजापुर मेरा तीसरा स्थान है। ऐसे ही एक स्थान का नाम सप्तश्रृङ्ग है। हिंगुला ज्वालामुखी, शाकम्भरी भ्रामरी, रक्तदन्तिका और दुर्गा इन देवियों के स्थान इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हैं। भगवती विंध्याचली का सर्वोत्तम स्थान विंध्य पर्वत पर है। अन्नपूर्णा स्थान और काञ्चीपुर स्थान अत्यन्त श्रेष्ठ माने जाते हैं। देवी भीमा और विमला के उत्तम स्थान इन्हीं के नाम से विख्यात है। श्रीचता का महान स्थान कर्णाटक देश में है। भगवती मीनाक्षी उत्तन स्थान चिदम्बरम् में बताया गया है। देवी सुन्दरी का परम उत्तम स्थान वेदारण्य में है। भगवती पराशक्ति एकाम्बर नामक सुप्रसिद्ध स्थान में शोभा पाती हैं। भगवा महाला और योगीश्वरी का स्थान इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है। देवी नीलसरस्वती का स्थान चीन देश में देवी बगला का सर्वोत्कृष्ट स्थान वैद्यनाथधाम में है। मैं सर्वे अर्य सम्पन्न भगवती भुवनेश्वरी हूँ। मेरा स्थान मणिद्वीप पर्वत पर कहा गया है। शंकर सती के शरीर को लेकर घूम रहे थे। उस समय सती का योनि भाग जहाँ गिरा वह स्थान कामरू नामक देश से प्रसिद्ध हो गया। वहीं भगवती त्रिपुरसुन्दरी का स्थान है। महामाया से सुशोभित यह स्थान जगत में जितने क्षेत्र हैं, उन सबका रत्न है, धरातल में इससे बढ़कर प्रसिद्ध स्थान कहीं कोई भी नहीं है। वह इतना जीता जागता स्थान है कि प्रत्येक मास में देवी वहाँ रजस्वला हुआ करती हैं। उस समय वहाँ के रहने वाले सभी प्रधान देवता पर्वत पर चले आते और वहाँ ठहरने की व्यवस्था कर लेते हैं। विद्वान पुरुषों का कथन है कि उस अवसर पर वहाँ की सम्पूर्ण भूमि देवीमय हो जाती है। अतः इस कामाख्यायोनि मण्डल से श्रेष्ठ अन्य कोई स्थान नहीं है।
            
                सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न पुष्कर क्षेत्र भगवती गायत्री का उत्तम स्थान कहा गया है। अमरकण्टक देश में भगवती चण्डिका का स्थान है। प्रभास क्षेत्र में भगवती पुष्करेक्षिणी रहती हैं। नैमिषारण्य परम प्रसिद्ध स्थान है। वहाँ सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से शोभा पाने वाली भगवती ललिता विराजती हैं। पुष्कर में देवी पुरुहूता का तथा आषाढ़ी में देवी रति का उत्तम धाम है। चण्डमुण्डी नामक स्थान में चण्ड और मुण्ड को शांत करने वाली भगवती परमेश्वरी विराजती हैं। भारभूति में देवी नृति का तथा नाकुल में देवी नकुलेश्वरी का धाम है। हरिश्चन्द्र नामक स्थान में भगवती चन्द्रिका एवं श्री शैल पर्वत पर भगवती शांकरी प्रसिद्ध हैं। जप्येश्वर में देवी त्रिशूला और आम्रकेशर में देवी सूक्ष्मा विराजती हैं। महाकाल नामक क्षेत्र में भगवती शांकरी, मध्यम संज्ञक स्थान में शर्वाणी तथा केदार नाम से प्रसिद्ध महान क्षेत्र में देवी मार्गदायनी शोभा पाती हैं। भैरव नामक स्थान भगवती भैरवी का तथा गया भगवती मंगला का स्थान कहा गया है। देवी स्थाणुप्रिया कुरुक्षेत्र में रहती है और देवी स्वायम्भुवी नाकुल में कनखलं में देवी उग्रा का विमलेश्वर में विश्वेशा का, अहास नामक स्थान में महानन्दा का महेन्द्र पर्वत पर महान्तका का, भीमा पर्वत पर भगवती भीमेश्वरी का, वस्त्रापथ नामक स्थान में भगवती शांकरी का, अर्द्धकोटि पर्वत पर रुद्राणी का अविमुक्त क्षेत्र में विशालाक्षी का महालय नामक स्थान में महाभागा का गोकर्ण में भद्रकर्णी का, भद्रकर्णक में भद्रास्या का, सुवर्णाक्ष नामक स्थान में उत्पलाक्षी का, स्थाणु नामक स्थान में स्थाप्रवीशा का, कमलालय में कमला का, छागलण्डक में प्रचण्डा का, कुरण्डल में त्रिसंध्या का, 

माकोट में भृकुटेश्वरी का मण्डलेश में शाण्डकी का, कालंजर पर्वत पर भगवती ध्वनि का तथा स्थूलकेश्वर पर्वत पर देवी स्थूला का धाम कहा गया है। परमेश्वरी हल्लेखा सम्पूर्ण ज्ञानी पुरुषों के हृदयरूपी कमल पर विराजमान रहती है।
               .जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि देवी का व्रत किसी भी दिन किया जा सकता है किन्तु अनन्त तृतीया व्रत रसकल्याणिनी व्रत और आर्द्रानन्द करीव्रत श्रेष्ठ माने गये हैं। शुक्रवार चतुर्दशी और भौमवार को भी भगवती के व्रत के लिए उत्तम माना गया है। शास्त्रों में देखी के प्रदोष व्रत का वर्णन करते हुए कहा गया है कि प्रदोष देवी का यह व्रत है जिस समय निशीथ रात में भगवान शिव अपनी प्रेयसी प्रिया को आसन पर बैठाकर उनके सामने देवताओं सहित नृत्य करते हैं। इस दिन उपवास करके सायंकाल के प्रदोष में देवी का पूजन करना चाहिए। सोमवार भी भगवती को अत्यंत प्रिय है इस व्रत में दिन भर उपवास करके देवी का पूजन करने के पश्चात रात्रि में भोजन करना चाहिए। चैत्र व आश्विन में पड़ने वाले दोनों नवरात्र देवी को परम प्रिय हैं। नवरात्र में प्रतिपदा के दिन विधिवत देवी की स्थापना कर नियमित रूप से तीनों संध्याओं के समय भगवती का पूजन करना चाहिए तथा अष्टमी या नवमी को हवन व कन्याओं को भोजन कराने से भगवती अत्यंत प्रसन्न होती हैं।
                    
                   शिव शासनत: शिव शासनत:

बजरंग बाण ।।

      दस वर्ष पुरानी बात है, मेरे एक परिचित जो कि पुलिस विभाग में कार्यरत हैं राम भक्त हनुमान के परम भक्त हैं। किसी कारणवश मुझे प्रातः काल उनके घर जाना पड़ा। सुबह के समय जब मैं उनके घर पहुंचा तो वह बैठक से जुड़े हुये पूजा गृह में हनुमान जी की मूर्ति के सामने बड़े ही वीर भाव में किसी स्त्रोत का पाठ कर रहे थे। उनके पाठ में इतना तेज और प्राण था कि मेरे सम्पूर्ण शरीर के रोम छिद्र खुल गये और शरीर के सभी बाल सर्दी के मौसम में भी खड़े हो गये एवं सम्पूर्ण शरीर में एक विशेष ऊर्जा के प्रवाह का एहसास अचानक ही होने लगा। पूजा के पश्चात् जब वे मेरे पास आये तो मैंने उनसे सर्वप्रथम इसी स्त्रोत के बारे में पूछा। तब उन्होंने हंसते हुये बताया कि लगभग 20 वर्षों से मैं प्रातः काल बजरंग बाण का पाठ करता हूँ। 
          उनके पाठन को देखकर ही मैं समझ गया था कि निश्चित ही यह व्यक्ति बजरंग बाण सिद्ध है। पुस्तक में लिखा श्लोक एक अलग बात है परन्तु जब साधक श्रद्धा और पूर्ण तन्मयता के साथ उसे सिद्ध कर लेता है तो फिर मुख से निकला वह श्लोक या पाठ पूर्ण चैतन्य होता है। इस प्रकार के चैतन्य पाठ को सुनने से ही जब मैने अपने अंदर इतनी शक्ति का एहसास किया तब जो स्वयं ही वर्षों से इसका पाठ कर रहा है उसे कितनी दिव्य शक्ति प्राप्त होती होगी यह साधक के लिये चिंतन का विषय है। वार्तालाप में उन्होंने मुझे बताया कि जिस नौकरी में वे कार्यरत हैं उसमे उन्हें प्रतिदिन पता नहीं किस प्रकार के दुष्ट व्यक्ति को गिरफ्तार करना है इसीलिये कार्य अत्यधिक कठिन होता है। कठिन कार्यों में संलग्न व्यक्तियों को बजरंग बाण के पाठ से कार्य सिद्धि निश्चित ही प्राप्त होती है। उन्होंने अपने जीवन में अनेको दुर्दान्त अपराधियों को इसी बजरंग बाण की सहायता से एक ही बार में पकड़ने में सफलता प्राप्त की है। 
             मैं अपने जीवन में अनेकों उच्च अधिकारियों, सफल व्यवसायियों और अत्यंत प्रतिष्ठित व्यक्तियों से मिला हूँ। ये सबके सब अत्यंत ही बुद्धिजीवी हैं। इन सबके पास प्रशासन की अटूट शक्ति है पर इनमें से एक भी व्यक्ति मुझे नास्तिक नहीं मिला और तो और ये सभी व्यक्ति कहीं न कहीं जीवित जागृत सद्गुरुओं से जुड़े हुये हैं। प्रत्येक विशेष कार्य से पहले यह अध्यात्मिक पुरुषों से श्रृद्धापूर्वक राय लेते हैं। सभी हमेशा ही विशेष अनुष्ठान इत्यादि करवाते रहते हैं और तो और सभी किसी विशेष साधना को अपने जीवन का निश्चित अंग मानकर प्रतिदिन अखण्ड रूप से उसका जाप करते रहते हैं। इन्होंने बुद्धि के माध्यम से अध्यात्म की शक्ति को समझा जो कि एक श्रेष्ठ बात है और फिर उसे अपने जीवन में गुप्त रूप से अंगीकार कर अपने कार्यों को सफल बनाते हैं। यह बात और है कि वह समाज में विभिन्न कारणों से अपने आध्यात्मिक चिंतन को प्रदर्शित नहीं करते। द्वंद का विषय तो केवल मध्यम वर्ग में ही अधिक देखने को मिलता है। मध्यमार्ग तो अधकचरा मार्ग है। इस मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति कहीं का नहीं रहता है।
            मध्यम वर्ग में भेड़चाल अधिक दिखाई पड़ती है। गुरू भी बनाते हैं तो बस उन्हें ही जिनकी चमक-दमक दीवारों और अखबारों में ज्यादा दिखाई देती है। भले ही वे ढोंगी क्यों न हों। जिस मार्ग पर सामने वाले ने चला दिया बस उसी पर भेड़ के समान चल दिये। उनके लिये गुरु का तात्पर्य अत्यधिक सीमित होता है । जो कुछ गुरु ने कहा बस उसके आगे दुनिया समाप्त हो गई। यहां तक कि जिन दिव्य शक्तियों से प्रेरणा लें उनका अनुष्ठान कर, उनके गुरुओं का प्रादुर्भाव हुआ है उन्हीं आदि शक्तियों का भी उपहास करने में नहीं चूकते। ऐसे शिष्य को प्राप्त कर उनके गुरु भी खुश नहीं होते। ज्ञान का मार्ग अत्यंत ही विराट मार्ग है। इसमें एक तो क्या अनेकों महापुरुषों के सानिध्य की जरूरत पड़ेगी। हनुमंत शक्ति ही ऐसी शक्ति है जिसने भगवान श्रीराम के सभी कार्य सौ प्रतिशत सफल किये।
                सफलता का दूसरा नाम ही हनुमंत शक्ति है और बाण का तात्पर्य तो सीधे-सीधे वायु प्रक्षेपण प्रणाली से है। सबसे सटीक और तीव्रगामी प्रणाली। हनुमंत तो मारुति नंदन और अंजनी पुत्र हैं। इसीलिये जब उपासक कार्य सिद्धि की इच्छा से भगवान श्रीरामचंद्र को हृदय में धारण कर प्रतिदिन बजरंग बाण का जाप करता है तो उसे आश्चर्य जनक सफलतायें प्राप्त होती हैं। हमारे साधु-संतों ने यह परम्परा डाली कि प्रत्येक ग्राम या नगर में उत्सवों के समय राम कथा या फिर हनुमान चालीसा का पाठ किया जाय तो इसका सीधा तात्पर्य जनमानस को भगवान श्रीराम की मर्यादा से परिचित कराना एवं उनके अंदर बजरंग शक्ति का उदय कराना ही है। प्रति वर्ष दशहरे से पूर्व प्रत्येक ग्राम में रामलीला का आयोजन किया जाता रहा है जिससे कि सही संस्कार, उच्च मर्यादायें एवं पवित्र और बलवान व्यक्तित्वों का निर्माण हो सके।

साधु संतों ने ही प्रत्येक ग्राम में हनुमत शक्ति को जाग्रत करने के लिये अखाड़ों एवं व्यायाम शालाओं का निर्माण करवाया परन्तु कालान्तर जैसे-जैसे पाश्चात्य कुप्रचारों के कारण इन सब आयोजनों का ह्रास होने लगा भारत के समाज में ऊपर से नीचे तक रोग, भ्रष्टाचार, कामलिप्तता, एकाकी परिवार और अनेक प्रकार की विकृतियां दिखाई देने लगी। आज से 50 वर्ष पूर्व आपके पूर्वज सम्पूर्ण जीवन में 100 रुपये की दवाई भी नहीं खाते थे। 70-80 वर्ष तक उनके अंग पूर्ण क्रियाशील होते थे। समाज में मद्यसेवन, धूम्रपान, भ्रष्टाचार अत्यंत ही न्यून मात्रा में था परन्तु 50 वर्ष के अंदर सब कुछ उल्टा हो गया। शरीर को प्रतिदिन 100 रुपये की दवाई खानी पड़ रही है। जिस देश में हनुमंत जैसा व्यक्तित्व हुआ वहां 30 वर्ष की उम्र में ही युवा सफेद बालों से ग्रसित दिखाई पड़ रहे हैं।
                प्राणों को शक्तिशाली केवल अध्यात्म के माध्यम से ही बनाया जा सकता है। प्राण ही शरीर का मूल हैं। प्राण बलवान होगे तो अंग-प्रत्यंग, मानस और चिंतन भी बलवान होगा। बजरंग बाण हनुमंत उपासना का अभिन्न अंग है नीचे इसे प्रस्तुत किया जा रहा है। इसका पाठ उच्च स्वर में पूर्ण श्रद्धा के साथ स्नान, ध्यान और पवित्रता के साथ प्रातः काल करने से आपके अंदर भगवान श्रीराम की मूल शक्ति आपको दिव्य सफलतायें दिलवायेगी।

दोहा
 निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान ।
तेहि के कारज, सकल शुभ सिद्ध करें हनुमान ॥

चौपाईप

जय हनुमंत सन्त हितकारी ।
 सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी ॥ 
जन के काज विलम्ब न कीजें । 
आतुर दौरि महा सुख दीजै ।। 
जैसे कूदि सिन्धु महिपारा । 
सुरसा बदन पैठि विस्तारा ।।
आगे जाय लंकिनी रोका ।
मारेहु लात गई सुरलोका ।। 
जाय विभीषन को सुख दीन्हा । 
सीता निरखि परमपद लीन्हा ।। 
बाग उजारि सिन्धु महँ बोरा । 
अति आतुर जमकातर तोरा ।। 
अक्षय कुमार को मारि संहारा । 
लूम लपेट लंक को जारा ।। 
लाह समान लंक जरि गई ।
जय जय धुनि सुरपुर में भई ।। 
अब विलम्ब केहि कारन स्वामी । 
कृपा करहु उर अन्तर्यामी ॥ 
जय जय लखन प्राण के दाता । 
आतुर होय दुःख करहु नियाता ॥ 
जै गिरिधर जे जे सुख सागर । 
सुर समूह समरथ भटनागर ।। 
ॐ हनु हनु हनु हनुमन्त हठीले । 
बैरिहि मारु बज्र की कीले ॥ 
गदा बज्र ले बेरिहिं मारो । 
महाराज प्रभु दास उबारो ॥ 
ॐ कार हुँकार महाप्रभु धावो । 
बज्र गदा हनु विलम्ब न लावो ।। 
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमन्त कपीसा ।
ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीशा ॥ 
सत्य होहु हरि शपथ पायके । 
राम दूत धरु मारु जाय के ।। 
जय जय जय हनुमन्त अगाधा । 
दुःख पावत जन केहि अपराधा ।। 
पूजा जप तप नेम अचारा । 
नहिं जानत हो दास तुम्हारा ।। 
वन उपवन मग गिरि गृह माहीं । 
तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं ॥
पाँय परौं कर जोरि मनावों । 
येहि अवसर अब केहि गोहरावौं ।। 
जय अञ्जनि कुमार बलवन्ता । 
शंकर सुवन वीर हनुमन्ता ॥ 
बदन कराल काल कुल घालक ।
राम सहाय सदा प्रतिपालक ।।
भूत, प्रेत, पिशाच निशाचर । 
अग्नि बैताल काल मारी मर ।। 
इन्हें मारु, तोहि शपथ राम की राखउ नाथ मरजाद नाम की ॥ 
जनकसुता हरि दास कहावो ।
ताकी शपथ विलम्ब न लावो ॥ 
जै जै जै धुनि होत अकासा । 
सुमिरत होत दुसह दुःख नाशा ॥ 
चरण शरण कर जोरि मनावों । 
यहि अवसर अब केहि गोहरावौं । 
उठु उठु चलु तोहि राम दुहाई पांय परौं कर जोरि मनाई ।। ॐ चं चं चं चं चपल चलंता ।
ॐ हनु हनु हनु हनु हनुमंता ॥ 
ॐ हँ हँ हाँक देत कपि चंचल । 
ॐ सं सं सहमि पराने खल दल ॥ 
अपने जन को तुरंत उबारो । 
सुमिरत होय आनंद हमारो ।। 
यह बजरंग बाण जेहि मारे । 
ताहि कहो फिर कौन उबारे ।। 
पाठ करै बजरंग बाण की । 
हनुमत रक्षा करें प्राण की ।। 
यह बजरंग वाण जो जापे । 
ताते भूत-प्रेत सब कांपे ।। 
धूप देय अरु जयै हमेशा । 
ताके तन नहिं रहें कलेशा ।।

दोहा
प्रेम प्रतीतिहि कपि भजै, सदा धरै उर ध्यान तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करें हनुमान ॥

                                     जय श्री राम

हनुमान नाम स्तुति।।

          वैदिक संस्कृति में नामकरण संस्कार अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। नामकरण संस्कार में बालक के सम्पूर्ण जीवन की गति, नियति एवं रहस्य छुपा हुआ होता है। नाम का अत्यंत ही महत्व जीवन में है। नामकरण संस्कार पूर्ण रूप से बालक के जन्म के समय ग्रह नक्षत्रों की स्थिति, मुहुर्त, काल और अन्य गणनाओं से निर्धारित होता है। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता है। नाम का असर दिखाई पड़ने लगता है। एक व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन में उसका नाम करोड़ों मुखों से करोड़ों बार उच्चारित होता है और उच्चारण ही ध्वनि स्पंदन की संरचना करता है। जिस प्रकार का स्पंदन होगा व्यक्ति के उपर असर भी उसी प्रकार का पड़ेगा। 
        आज से 50 वर्ष पूर्व हमारे यहाँ नामकरण अत्यधिक सावधानी पूर्वक किया जाता था एवं प्रत्येक सनातनी स्त्री या पुरुष के नामों में ईश्वरीय शक्तियों का समावेश होता था। यही कारण था कि 50 वर्ष पूर्व जन्में व्यक्तियों में स्वस्थ मानसिक स्थिति, ग्रहस्थ जीवन एवं चरित्र की उत्तमता विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा अत्यधिक मात्रा में पायी जाती थी। 50 वर्ष पूर्व जन्में व्यक्तियों में अध्यात्म के प्रति जिज्ञासा और ज्ञान भी प्रचुरता में था। राम नाम में इतनी शक्ति है कि इसके बार- बार उच्चारण से ही विष्णु तत्व स्वयं ही जाग्रत हो जाता है। और जिसका ईष्ट विष्णु हो उस पर तो देवी-देवता कृपा करते ही हैं। नाम की ही माया है इस संसार में शरीर तो नश्वर है परंतु नाम अजर-अमर है नाम में ही समस्त क्रिया सूक्ष्म रूप से समाहित हो जाती है। 
         सभी आध्यात्मिक पथ के साधक अपने ईष्ट के नाम का जप निरंतर करते रहते हैं। शिव को सिद्ध करना है तो शिव का मंत्र जपना ही पड़ेगा। अद्वैत से द्वैत स्वरूप में प्रकट होने की क्रिया केवल नाम के द्वारा ही संभव है। प्रभु ने केवल भोजन से ही शक्ति ग्रहण करने की क्षमता मनुष्य को नहीं दी है। करोड़ों ऐसे मार्ग बनाए हैं जिनके द्वारा दिव्यतम शक्ति ग्रहण की जा सकती है और उन्हीं में से एक शक्ति है ईष्ट के नाम की स्तुति के द्वारा शक्ति को ग्रहण करना । सामान्य मनुष्य सम्पूर्ण जीवन एकमुखी होते हैं, उनका सारा जीवन यंत्र के समान है इसीलिये एक नाम से ही जाने जाते हैं। 
        दिव्य पुरुष अपने जीवन काल में अनंत रूपों में जीते हैं इसीलिये उनके सहस्त्र नाम होते हैं । आदि शक्ति माँ भगवती, भगवान शिव, विष्णु, ब्रह्मा इत्यादि-इत्यादि अनेकों नामों से हैं। यही विराट स्वरूप है। मस्तिष्क के अंदर जो कुछ भी जाता है वह बीज रूप में जाता है और प्रत्येक बीज शक्ति का केन्द्र है। अच्छा नाम रखेंगे, पवित्र नाम रखेगे, दिव्य नाम रखेंगे तो बालक के अंदर निश्चित ही उत्कृष्टता उत्पन्न होगी। अगर बालक का नाम अंग्रेजी सभ्यता के अनुसार कुछ भी ऊंटपटांग रखेंगे तो सम्पूर्ण जीवन वह अपनी पहचान बनाने के लिये भटकता रहेगा। नाम बालक को पहचान देता है अतः माता पिता का यह कर्त्तव्य है कि बालक का विधिवत् नामकरण संस्कार करें एवं सम्पूर्ण जीवन बालक को उसी नाम से पुकारें। घटिया और ओछे नामों से बालक को कदापि न बुलायें इससे उसके चरित्र पर प्रतिकूल असर पड़ता है। यह एक वैज्ञानिक सत्य है। नाम मस्तिष्क को अनुभूति प्रदान करते हैं। जिस नाम से मस्तिष्क को अच्छी अनुभूति प्राप्त हो तो मस्तिष्क स्वतः ही दिव्य ऊर्जा का उत्पादन करेगा 
       आनंद रामायण में हनुमान जी की बारह नामों से स्तुति की गयी है। हनुमान जी की यह बारह नामों वाला दुर्लभ स्तुति प्रस्तुत की जा रही है

हनुमानञ्जनीसूनुर्वायुपुत्रो महावलः । 
रामेष्ट: फाल्गुनसरव: पिङ्गाक्षोऽमितविक्रमः ॥
उदधिक्रमणश्चैव सीताशोक विनाशनः । 
लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा ॥ 
एवं द्वादश नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः । 
स्वापकाले प्रवोधे च यात्राकाले च यः पठत् ॥ 
तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत् । 
राजद्वारे गहवरे च भयं नास्ति कदाचन ॥

1. हनुमान - बाल्य अवस्था में इन्द्र ने हुनमान जी की ठोड़ी (हनु) पर अपने वज्र से प्रहार कर दिया था। जिसके कारण वे मूर्छित हो कर गिर पड़े थे और इस घटना पर वायुदेव ने कुपित हो कर इन्द्र से युद्ध की घोषणा की थी। इसीलिये हनुमंत हनुमान कहलाये। 

2. अंजनीसुत - हनुमान जी की माता अंजनी वानरी कुल से थी एवं पूर्व जन्म में वे एक दिव्य अप्सरा थी परंतु किसी कारणवश शाप ग्रस्त हो जाने के कारण उन्हें वानर कुल में जन्म मिला । वैदिक धर्म में पुत्र को माता के नाम से ही जाना जाता है। 

3. वायुपुत्र - एक समय जब माता अजंनी वन में सूर्य देव की आराधना कर रही थी तब उन्हें अपने पास किसी के मौजूद होने का आभास हुआ। इस पर वे क्रोधित हो गयी परंतु उसी क्षण वायु देव प्रकट हो कर बोले हे अंजनी इस पृथ्वी पर भगवान विष्णु शीघ्र ही अवतरित होने वाले हैं और उनकी सहायता के लिये भगवान शिव की आज्ञानुसार एक दिव्य व्यक्तित्व को भी उत्पन्न करने के लिये मुझे भेजा गया है एवं तुम्हारी ही कोख से मैं उसे उत्पन्न करना चाहता हूँ। अत: आप मेरी इस दिव्य संरचना में सहायता करें।

4. महाबल - अर्थात हनुमान अत्यन्त बलशाली हैं उनके बल का कोई बरावार नहीं पवन पुत्र होने के कारण वे वायु की तरह तेज चलते हैं इन्द्रादि समस्त देवी देवताओं की शक्ति उनमें समाहित है।. 

5. रामेष्ट - हनुमान भगवान श्री राम के सबसे प्रिय सेवक हैं। 
6. फाल्गुन सखा - अर्थात पाण्डव पुत्र श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन के मित्र के रूप में भी हनुमंत ने महाभारत के युद्ध में अपनी समस्त शक्ति के साथ उनका साथ दिया है। जब अर्जुन के प्रेम में भगवान श्रीकृष्ण सारथी बन सकते हैं तो फिर हनुमंत भी अर्जुन के रथ की पताका पर आरूढ़ हो गये।

7. पिण्डाक्ष - हनुमंत की आंखों का रंग भूर है। 

8. अमित विक्रम - वे सभी देवी देवताओं की दिव्य शक्तियों से सम्पुट हैं इसीलिये वे अजर और अमर हैं एवं निरंतर सूर्य के समान अपने दिव्य आभामण्डल से रामत्व की सेवा में लीन हैं। 

9. उदधिकमण - हनुमंत ने माता सीता का पता लगाने के लिये रामेश्वर से सौ यौजन दूर समुद्र के बीचों-बीच बसे लंका तक की दूरी इस तरह लांघी मानो चार पैरों वाली गाय किसी जल रेखा को लांघती है। 

10. सीताशोक विनाशक - राम और सीता के पवित्र प्रेम बंधन में हनुमंत ही माध्यम हैं। भगवान श्रीराम के वियोग में व्याकुल सीता जी तक श्रीराम का संदेश पहुंचाने वाले हनुमंत ही हैं। वे ही राम और सीता के बीच प्रेम के सेतु हैं । 

11. लक्ष्मण प्राणदाता - लंकाकाण्ड में मेघनाथ की शक्ति से मूर्च्छित लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा उन्होंने ही संजीवनी बूटी लाकर की है। राम जिन्हें लक्ष्मण स्वयं के भी प्राणों से ज्यादा प्रिय हैं उनकी रक्षा करने वाले हनुमान के प्रति तो श्रीराम के हृदय में अटूट प्रेम है। श्रीराम के अलावा समस्त अयोध्यावासी भी हनुमंत के प्रति कृतज्ञ हैं। 

12. दसग्रीव दर्पाहार - दस सिर वाले रावण के गर्व को तो हनुमान ने उसी दिन चकनाचूर कर दिया था जिस दिन अक्षय कुमार के वध के साथ-साथ समस्त लंका को अपनी पूंछ से जलाकर राख कर दिया था। 

      उपर वर्णित बारह नाम श्रीहनुमान जी के चमत्कारिक गुण का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके गुणों का स्मरण करने वाला उपासक उनके सहज आर्शीवाद को प्राप्त कर लेता है। श्री हनुमान जी को संकट मोचन के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। क्योंकि वे उपासक के संकट को निश्चित दूर करते हैं। श्री हनुमान जी के इन 12 नामों की स्तुति जो उपासक प्रातःकाल जागने पर रात में सोने से पहले और यात्रा में जाते समय करता है, वह निर्भय रहता है। उपासक चाहे राजद्वार में हो, चाहे युद्ध क्षेत्र में अथवा किसी भी बड़े संकट में फँसा हो, वह इस साधना से निर्भय रहता है।
                                         
                                     जय श्री राम

जय जय जय हनुमान गोसाँई। कृपा करहु गुरुदेव की नाई ।।

महावीर स्वामी ।।


महावीर जैन पंथ के चौबीसवें तीर्थंकर (आत्मज्ञानी महापुरुष) है। आज से लगभग ढ़ाई सहस्त्र वर्ष पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व) में मगध साम्राज्य (वर्तमान बिहार राज्य) के वैशाली गणराज्य के कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला की तीसरी संतान के रुप में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को जन्म हुआ। महावीर बाल्यावस्था नाम वर्धमान था। ऐतिहासिक रूप से महावीर ने प्राचीन भारत में जैन पंथ को पुनर्जीवित और प्रचारित किया, वह गौतम बुद्ध के समकालीन थे। 

तीस वर्ष आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर परिवार, राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण किया। महावीर ने गंभीर उपवास, शारीरिक कष्ट सहे, वृक्ष के नीचे ध्यान लगाया और अपने वस्त्र भी त्याग दिए। महावीर स्वामी ने साढ़े बारह वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात 43 वर्ष आयु में केवल्य ज्ञान (अनंत ज्ञान या सर्वज्ञता) प्राप्त किया। महावीर के प्रसिद्ध पंचशील सिद्धांत में सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, अहिंसा, ब्रह्मचर्य सम्मिलित हैं। कल्प सूत्र के अनुसार, महावीर स्वामी के 14000 साधु (पुरुष संन्यासी), 36000 साध्वी (महिला संन्यासी), 159000 श्रावक (गृहस्थ पुरुष अनुयायी) और 318000 श्राविका (गृहस्थ महिला अनुयायी) थे। लगभग 30 वर्षों तक ज्ञान का प्रचार करने के पश्चात महावीर ने 72 वर्ष आयु में दीपावली दिवस को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया।

महावीर स्वामी के प्रसिद्ध कथन

अहिंसा परम धर्म है। समस्त प्राणियों (मनुष्य, पशु, पक्षी, जलचर आदि) के प्रति सम्मान अहिंसा है।

जिसकी सहायता से हम सत्य को जान सकते हैं, चंचल मन को नियंत्रित कर सकते हैं और आत्मा को शुद्ध कर सकते हैं, उसे ज्ञान कहते हैं।

वाणी के अनुशासन में असत्य बोलने से बचना और मौन का पालन करना सम्मिलित है।

केवल वह विज्ञान महान और सभी विज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ है, जिसका अध्ययन मनुष्य को सभी प्रकार के दुखों से मुक्त करता है।

यदि आपको सुखी रहना है तो सर्वदा स्मरण रखिए भगवान और अपनी मृत्यु।

आत्मा अकेले आती है अकेले चली जाती है, न कोई उसका साथ देता है न कोई उसका मित्र बनता है।

आत्मा अजर है अमर है, वह एक शरीर को छोड़ती है, दूसरे शरीर को धारण करती है, उसका कोई शत्रु, कोई हितेषी नहीं।

आपकी आत्मा से परे कोई भी शत्रु नहीं है। शत्रु आपके भीतर रहते हैं, वो शत्रु हैं क्रोध, अहंकार, लोभ, आसक्ति और घृणा।

जो अपने भीतर की आत्मा को नहीं पहचानता उससे बड़ा अज्ञानी कोई नहीं।

बाहरी त्याग अर्थहीन है यदि आत्मा आंतरिक बंधनों से जकड़ी रहती है।

स्वयं पर विजय प्राप्त करना, लाखों शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने से उत्तम है।

एक जीवित शरीर केवल अंगों और मांस का एकीकरण नहीं है, अपितु यह आत्मा का निवास है जो संभावित रूप से परिपूर्ण धारणा (अनंत दर्शन), परिपूर्ण ज्ञान (अनंत ज्ञान), परिपूर्ण शक्ति (अनंत वीर्य) और परिपूर्ण आनंद (अनंत सुख) है।

एक सत्यवान मनुष्य उतना ही विश्वसनीय है जितनी माँ, उतना ही आदरणीय है जितना गुरु और उतना ही परमप्रिय है जितना ज्ञानी व्यक्ति।

मूल्यवान वस्तुओं की बात दूर है, एक तिनके के लिए भी लालच करना पाप को जन्म देता है। 

जिस प्रकार अग्नि को ईंधन डालकर नहीं बुझाया जा सकता, उसी प्रकार असंतुष्ट व्यक्ति को संसार की समस्त संपत्ति देकर भी संतुष्ट नहीं किया जा सकता।

जितना अधिक आप पाते हैं, उतना अधिक आप चाहते हैं, लाभ के साथ-साथ लालच बढ़ता जाता है। जो अल्प मात्रा स्वर्ण से पूर्ण किया जा सकता है, वह राजकोष से नहीं किया जा सकता।

जन्म का मृत्यु द्वारा, युवावस्था का वृद्धावस्था द्वारा और भाग्य का दुर्भाग्य द्वारा स्वागत किया जाता है। इस प्रकार इस संसार में सब कुछ क्षणिक है।

जिस प्रकार धागे से बंधी (ससुत्र) सुई खो जाने से सुरक्षित है, उसी प्रकार स्व-अध्ययन (ससुत्र) में लगा व्यक्ति खो नहीं सकता है।

जो भय का विचार करता है वह स्वयं को अकेला और असहाय पाता है।

प्रत्येक आत्मा स्वयं में सर्वज्ञ और आनंदमय है। आनंद बाहर से नहीं आता।

मुझे अनुराग और द्वेष, अभिमान और विनय, जिज्ञासा, भय, दुख, भोग और घृणा के बंधन का त्याग करने दें (समता को प्राप्त करने के लिए)।

अज्ञानी कर्म का प्रभाव समाप्त करने के लिए लाखों जन्म लेता है यद्यपि आध्यात्मिक ज्ञान रखने और अनुशासन में रहने वाला व्यक्ति एक क्षण में उसे समाप्त कर देता है।

साहसी हो या कायर दोनों की मृत्यु निश्चित है। जब मृत्यु दोनों के लिए अपरिहार्य है, तो मुस्कराते हुए और धैर्य के साथ मृत्यु का स्वागत क्यों नहीं किया जाना चाहिए?

ब्रह्मरस रहस्यम् ।।

        प्रहलाद का कुल बड़ा ही विचित्र कुल हैं। इसी कुल में अनेकों दैत्य ऋषि हुए हैं वास्तव में प्रहलाद का कुल दैत्य और ऋषियों का मिला जुला एक अद्भुत सम्मिश्रण है। शुम्भ निशुम्भ प्रहलाद के कुल में ही हुए जिसे देवी ने स्वयं अपने हाथों से मारा साक्षात् जगदम्बिका से संस्पर्शित हुए वे, हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों विष्णु के द्वारा संस्पर्शित हुए, अंधक का वध शिव ने किया, वे शिव के द्वारा संस्पर्शित हो शिव गण बन बैठे। प्रहलाद की एक बहिन थी सिंहिका, जिनके पुत्र राहु थे एवं अमृत मंथन के समय राहु ने देवताओं की पंक्ति में बैठकर अमृत पान किया। कालान्तर विष्णु ने सुदर्शन । चक्र से उन्हें विभक्त कर अमृत्व प्रदान किया। राहु और केतु आज भी जीवित हैं। 
               प्रहलाद तो स्वयं श्रीहरि की गोद में बैठे हैं। हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को पढ़ने के लिए गुरुकुल में भेजा, शुक्राचार्य के पुत्रों ने प्रहलाद को दैत्य संस्कृति की शिक्षा एवं दीक्षायें प्रदान की। दैत्य संस्कृति का एकमात्र ध्येय था विष्णु द्रोह परन्तु प्रहलाद तो गर्भावस्था में ही नारद मुनि से विष्णु भक्ति ग्रहण कर चुके थे। हिरण्यकशिपु घोर तपस्या कर रहा था, तपस्या करते करते उसका शरीर पिंजर मात्र बन गया, मांस एवं रक्त पूरी तरह से सूख गये केवल ब्रह्म रंध्र में प्राण केन्द्रित होकर रह गये, श्वास-प्रश्वास भी रुक गई। इंन्द्र ने उसे शक्तिहीन समझ लिया और हिरण्यपुर पर आक्रमण कर दिया समस्त दैत्य मारे गये, कुछ भाग निकले। प्रहलाद अपनी माता के गर्भ में थे, इन्द्र ने उनको माता को बलात ले जाना चाहा परन्तु रास्ते में नारद मुनि मिल गये एवं किसी तरह प्रहलाद की माता को छुड़ाकर वे अपने आश्रम ले आये।
              गर्भ में ही प्रहलाद ने नारद मुनि से विष्णु दीक्षा प्राप्त की। कालान्तर ब्रह्मा जी प्रकट हुए हिरण्यकशिपु की तपस्या पूर्ण हुई, उसने ब्रह्मा से कहा मुझे अमर कर दो। ब्रह्मा ने कहा मैं खुद अमर नहीं हूँ, मेरी आयु मात्र सौ ब्रह्म वर्ष है अतः मैं तुझे कैसे अमर कर सकता हूँ। हिरण्यकशिपु ने कहा तो फिर आप के द्वारा सृजित समस्त सृजनों से यह कह दो कि उनके द्वारा मैं मृत्यु को प्राप्त नहीं होऊं । न देवता, न असुर, न दैत्य, न दानव, न मनुष्य, न पशु, न पक्षी, न वनस्पति, न वायु, न जल, न अग्नि, न पृथ्वी, न तेज इत्यादि किसी के द्वारा भी मेरा वध न होने पाये। न दिन में मरूं, न रात में, न बाहर मरूं, न अंदर, न पृथ्वी में, न आकाश में, न जल में, न वायु में कहीं भी मेरा किसी भी प्रकार के शस्त्र से वध न होने पाये, ब्रह्मा ने कहा तथास्तु । ब्रह्मा से वर प्राप्त हिरण्यकशिपु अब और भी उन्मक्त होकर विष्णु को खोजने लगा। उसका एकमात्र ध्येय था विष्णु की खोज। 
         सोते बैठते, उठते-जागते प्रत्येक क्रिया में वह विष्णु को खोजने लगा, उसका एकमात्र लक्ष्य थे विष्णु। उधर प्रहलाद ने गुरुकुल में विष्णु गान प्रारम्भ किया एवं देखते ही देखते दैत्य बालक विष्णु भक्ति में लीन हो गये। गुरु पुत्रों ने दण्ड दिया, प्रहलाद को बहुत समझाया पर सारे प्रयास निरर्थक हो गये। भरी राज सभा में प्रहलाद ने विष्णु का गुणगान कर दिया हिरण्यकशिपु के सामने, हिरण्यकशिपु आपा खो बैठा अग्नि में फेंक दिया उसने प्रहलाद को, सात मंजिल भवन से नीचे फेंक दिया, पहाड़ों से लुढ़का दिया, विष भी दे दिया पर प्रहलाद हर बार बच गये। क्रुद्ध गुरुपुत्रों ने प्रहलाद पर कृत्या चला दी, विष्णु आवरण के कारण कृत्या ने गुरु पुत्रों को ही मौत की नींद सुला दिया परन्तु प्रहलाद ने उन्हें पुनः जीवित कर दिया। आखिरकार हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को नागपाश से बांध कर समुद्र में डुबा दिया और ऊपर बड़े-बड़े शिला खण्ड रख दिए परन्तु गरुड़ पर सवार हो श्रीहरि आ गये, गरुड़ ने उन्हें पाश मुक्त कर दिया।
        प्रहलाद की अचेत अवस्था जब समाप्त हुई तो सामने श्रीहरि विराजमान थे। जैसे ही श्रीहरि ने प्रहलाद को अपने हाथों से संस्पर्शित किया हिरण्यकशिपु के भी समस्त पाप धुल गये, वह भी विष्णु द्रोह से मुक्त हो गया कुछ क्षण के लिए। जिस कुल को श्रीहरि स्वयं अपने हाथों से संस्पर्शित करते हैं उस कुल की तो पूर्व की सात एवं भविष्य की सात पीढ़ियाँ स्वत: ही विशुद्ध हो जाती हैं। स्वप्न में भी जिनके दर्शन दुर्लभ हैं, जिन्हें प्राप्त करने के लिए योगी, मुनीन्द्र इत्यादि नाना प्रकार की आध्यात्मिक क्रियाएं करते हैं, जिनकी प्राप्ति सबका एकमात्र लक्ष्य है उन्हीं की गोद में आज प्रहलाद बैठे हुए थे क्योंकि श्रृद्धा और विश्वास की आज परीक्षा होनी थी अतः श्रीहरि को आज आना ही पड़ा। एक बार फिर सभा में पुनः हिरण्यकशिपु के सामने प्रहलाद ने विष्णु का गुणगान कर दिया । 

           प्रहलाद बोले श्रीहरि सर्वमय हैं, सर्वव्याप्त हैं, इस सभा में भी हैं। मेरी सभा में श्रीहरि ? हिरण्यकशिपु प्रचण्ड क्रोधावेश में आ गया कहाँ हैं श्रीहरि बता ? प्रहलाद ने कहा सामने स्फटिक के खम्भे में हिरण्यकशिपु ने अपने घूंसे से जोरदार प्रहार किया बिल्लौर के खम्भे पर, घोर भैरव नाद होने लगा, अस्त होते हुए सूर्य की आड़ ले श्रीविष्णु ने नीले प्रभा पुंज के रूप में बैकुण्ठ धाम से शीघ्रगामी यात्रा प्रारम्भ की और सीधे खम्भे में से प्रकट हो गये, समस्त ब्रह्माण्ड स्तब्ध हो गया, नदियों की गति मंद पड़ गईं, वायु एक क्षण के लिए अति सौम्य हो गई, वृक्षों ने हिलना डुलना बंद कर दिया, पशु-पक्षी, मनुष्य जड़ हो गये, नरसिंह रूपी महाभैरव ने प्रचण्ड गर्जन किया और झपटकर हिरण्यकशिपु को जंघा पर पटककर विदीर्ण कर दिया, उसकी अंतड़ियाँ गले में माला के समान लपेट ली, हृदय को हाथ से मसल दिया। न दिन थी न रात, गोधूली की बेला थी । न शस्त्र थे न अस्त्र, नखों से ही फाड़ डाला। न नर थे न पशु, वे तो सिंह और मनुष्य का मिश्रित रूप थे। न महल के अंदर थे न महल के बाहर, चौखट पर मारा। न जल था न वायु, न पृथ्वी वह तो श्रीहरि की जंघा पर लेटा था। 
         नरसिंह अवतार ब्रह्मा का सृजन नहीं थे अपितु स्व सृजित थे, स्वयंभू थे । प्रहलाद की स्तुति ही उन्हें शांत कर सकी। उनके भाव प्रदेश में केवल प्रहलाद था अन्य कोई नहीं। बोले बेटा देर कर दी जल्दी आना था, शीघ्र आना था, क्षमा चाहता हूँ। श्रीहरि के यही उवाच नरसिंह तंत्र के महात्म्य को प्रदर्शित करता है। जब भक्त या साधक के भाव प्रदेश में केवल नरसिंह होते हैं तो ब्रह्माण्ड में मृत्यु, कष्ट, शत्रुता इत्यादि प्रदान करने वाले किसी भी तत्व का अति शीघ्रता के साथ संहार करते हैं नरसिंह | नरसिंह साधना तंत्र क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण साधना है, जितना शीघ्र परिणाम नरसिंह साधना देती है उतना कोई अन्य साधना नहीं। शीघ्रता ही नरसिंह साधना का केन्द्र बिन्दु है। जो करना है शीघ्रता के साथ करना है, जो प्राप्त करना है शीघ्रता के साथ प्राप्त करना है तो फिर नरसिंह साधना करनी ही पड़ेगी। जैसा रूप श्रीहरि धरते हैं उनके आवरण मण्डल में मौजूद समस्त शक्तियाँ एवं गण भी उन्हीं के समान स्वरूप धारण कर साधक और भक्त की रक्षा को तत्पर हो जाते हैं। 
           नरसिंह के साथ नारसिंही के रूप में महालक्ष्मी चलती है सभी वैष्णव गण भी नरसिंह रूप धारण कर लेते हैं। किसी भी प्रकार की नकारात्मक बाधा में नरसिंह साधना सबसे उत्तम है। विष्णु मृत्युंजय स्तोत्र कुछ नहीं सिर्फ नरसिंह साधना का ही एक आयाम है। आवेश तो विष्णु अवतारों का प्रमुख लक्षण है। श्रीकृष्ण चंद्र महाभारत युद्ध में भीष्म पर कुपित हो गये, इतने आवेग में आ गये कि रथ के पहिये को ही सुदर्शन चक्र बना भीष्म वध के लिए दौड़ पड़े साक्षात नरसिंह अवतार लग रहे थे। अर्जुन भी रथ से कूद पड़ा उन्हें कमर से पकड़ लिया परन्तु अर्जुन को भी घसीटते हुए वे आगे बढ़ रहे थे। क्रोध के आवेग में समस्त प्रतिज्ञा, समस्त नियम-धर्म, समस्त आचार संहिता को वे भुला बैठे थे एवं उनका एकमात्र लक्ष्य था समस्त कौरव कुल का विनाश और पाण्डवों को हस्तिनापुर का सिंहासन दिलाना। 
           क्रोधावेश में श्रीकृष्णचंद्र बोले एक क्षण में ही मैं युद्ध समाप्त कर देता हूँ परन्तु अचानक अर्जुन के हाथ फिसलकर श्रीकृष्ण चंद्र के पाँव पर पड़ गये, उनका अंगुष्ठ अर्जुन से संस्पर्शित हो गया बस फिर क्या था क्रोधावेश जाता रहा, दूसरे ही क्षण कृष्ण पुनः सामान्य हो गये। नरसिंह तंत्र समझना है तो गुरु के अंगूठे को समझना पड़ेगा। गुरु अपनी सारी शक्ति अंगूठे में ही छिपाकर रखता है। अंगुष्ठ ने ही ब्रह्मरस को संस्पर्शित किया है, अंगुष्ठ के माध्यम से ही शक्ति संचालित की जाती है, आवेग नियंत्रित किए जाते हैं इसलिए अंगुष्ठ पूजन होता है । अंगुष्ठ में ही नरसिंह विराजमान हैं। शरीर का अंतिम कोना ही नरसिंह का मूल स्थान है। राम ने अंगुष्ठ से स्पर्श कर पाषाण हुई अहिल्या का पुनः उद्धार किया था। प्रहलाद ने अंगुष्ठ साधना ही सम्पन्न की थी। जब श्रीहरि महाभैरव नाद कर रहे थे नरसिंह अवतार के रूप में तब प्रहलाद ने श्रीहरि के पाद पदमों के दोनों अंगूठे पकड़ लिए थे। 
          जिन्हें देवता, देवियाँ, ऋषि-मुनि इत्यादि भी अपनी स्तुतियों से शांत और प्रसन्न नहीं कर पा रहे थे उन्हें प्रहलाद ने सिर्फ अंगुष्ठ संस्पर्श के माध्यम से ही निश्चल और सौम्य कर दिया था। अर्जुन ने श्रीकृष्ण के अंगुष्ठों का ही स्पर्श किया और वे सारथी बनने को तैयार हो गये। दुर्योधन तो सिर की तरफ खड़ा था। प्रहलाद के पुत्र हुए विरोचन और विरोचन के पुत्र हुए बलि । देव द्रोह तो दैत्यों के खून में है, प्रहलाद भी उसे नहीं मिटा सके । 

बलि भी देव द्रोह की भावना से ग्रसित थे, अश्वमेघ यज्ञ कर रहे थे, विष्णु वामन रूप धर पहुँच गये। बलि से तीन पग भूमि मांग ली, दूसरे ही पग में विष्णु पुनः आवेशित हो गये एवं उनके अंगूठे के नाखून ने ब्रह्माण्ड | मण्डल में हत्का सा छिद्र कर दिया। नरसिंह क्रिया सम्पन्न हो गई एवं दिव्य ब्रह्म रस शिव लोक से छिद्र के द्वारा झड़ने लगा। ब्रह्मा ने तुरंत अपने कमण्डल' में ब्रह्म रस भर लिया। श्री विष्णु ने आज ब्रह्मा के लिए वास्तव में नरसिंह अवतार धारण किया था । 
       ब्रह्मा की संरचनाएं पुनः अमृतवान हों पुनः नित्य शुद्ध और नवीन बनी रहें इसके लिए उन्हें ब्रह्म रस की आवश्यकता थी और इसी हेतु उन्होंने भी नरसिंह साधना सम्पन्न की थी । ब्रह्म रस की प्राप्ति हेतु, शिवत्व की प्राप्ति हेतु, परम तत्व की प्राप्ति हेतु श्री हरि ने अपने वामन अवतार में अपने अंगुष्ठ के अग्र नख से ब्रह्माण्ड का छेदन किया, उसे विदीर्ण किया। जैसे ही ब्रह्मा का कमण्डल ब्रह्म रस से भरा श्री हरि ने अपना पाँव खींच लिया। लोग तो बलि वध देख रहे थे वामन अवतार में परन्तु ब्रह्मा की निगाह तो ब्रह्म रस पर थी। ब्रह्म रस ही पारद है और इस प्रकार ब्रह्मा ने नरसिंह साधना के माध्यम से अमृत्व प्रदान करने वाला ब्रह्म रस प्राप्त कर लिया। देवताओं समेत ब्रह्मा, विष्णु, यक्ष, गंधर्व, किन्नर एवं ब्रह्माण्ड के सभी जीवों और तत्वों को पशु स्परूप में परिवर्तित होने की क्रिया तो शिव ने त्रिपुर दाह के समय सिखा ही दी थी। शिव ने कहा तुम पशु हो, पशुत्व तुम सबमें विद्यमान है अतः पशुत्व को मत दबाओ, दबाने से पशुत्व मुक्त नहीं होगा अपितु पशु रूप जागृत करने की क्रिया सीखो। अपने अंदर के समस्त पशुत्व को जगाओ और देखो कि पशुत्व जागने के पश्चात् तुम किस प्रकार का रूप ग्रहण करते हो। 
       देवता आनाकानी करने लगे, उन्हें अविश्वास हो रहा था कि उनके अंदर भी पशुत्व है परन्तु शिव ने कहा जब तक सम्पूर्ण पशुत्व की प्राप्ति नहीं होगी सर्वमय रथ पर मैं सवार नहीं होऊंगा। शिव पशुत्व ही प्रदान करते हैं नंदी को वानर मुख प्रदान किया, विष्णु हयग्रीव बने अश्व का मुख लगाया, गणेश को गज का मुख लगाया, दक्ष को बकरे का सिर लगाया। दक्ष ने ही प्रजाओं की रचना की, देवताओं की रचना की जब उसे ही पशु मुख प्राप्त हो गया तब सृष्टि में सभी शिव के पशु हुए। शिव ने सबको पशुत्व दिया अत: आज भी सृष्टि में पशुतुल्य व्यवहार सर्वव्याप्त है। पशुतुल्य व्यवहार एवं पशु प्रवृत्ति से मुक्ति, पशुत्व का त्याग ही शिवत्व हैं, यही ब्रह्म रस रहस्यम् है। पशुत्व के अभाव में विशुद्ध शिवत्व है। अतः विशुद्ध शिवत्व की प्राप्ति हेतु ही पाशुपत, अनुष्ठान सम्पन्न किया जाता है। 
           त्रिपुरदाह से पूर्व शिव ने आज्ञा दी कि ब्रह्मा विष्णु सहित सभी देवता और समस्त जीवों को कि वे महापाशुपत अनुष्ठान सम्पन्न करें। विष्णु ने बैकुण्ठ लोक त्याग नर्मदा के जल में खड़े होकर ॐ नमः शिवाय शुभम कुरु-कुरु शिवाय नमः ॐ का समस्त देवताओं और ब्रह्मा के साथ डेढ़ करोड़ मंत्र जप किया। मंत्र जप की समाप्ति होते ही सबके सब पूर्ण पशु रूप को प्राप्त हो गये। विष्णु बाण बन बैठे, अग्नि बाण की नोंक बन बैठे, ओंकार चाबुक बन बैठे, ब्रह्मा सारथी बन बैठे, सूर्य और चंद्रमा अपनी कलाओं के सहित रथ के पहिये बन बैठे, यहाँ तक कि धर्म, वेद, पुराण, ग्रंथ, अप्सरायें, यक्ष, मरुत गण, नक्षत्र सबके सब पूर्ण पशुभाव, अर्ध पशु भाव, अंशांश पशु भाव को प्राप्त हो बैठे। सबकी पशुता जाग उठी और ब्रह्माण्ड के समस्त पशुत्व के ऊपर शिव विराजमान हो गये परन्तु शिव के अंगूठे में गणेश उछलकूद कर रहे थे एवं उनका लक्ष्य पर से ध्यान भंग कर रहे थे। उनमें अभी पशुत्व नहीं जागृत हुआ था तत्काल सभी पशु रूपी देवताओं ने गणेश का पूजन कर उन्हें पूर्ण पशुत्व प्रदान किया। सूंड हिलाते, घोर अट्ठाहास करते, लाल नेत्रों के साथ गणपति ने पूर्ण पशुत्व रूप धारण कर लिया। दूसरे ही क्षण शिव ने पाशुपतास्त्र का घोर अनुसंधान कर त्रिपुर का दाह कर दिया। 

        शिव के रूप में पाशुपतास्त्र से सुसज्जित परम पशु का परम पशुत्व देखने योग्य था। आद्या भी घबरा गईं, पशुपति का रौद्र स्वरूप देख बस झट अपने अंगुष्ठ के अग्र नख से शिव केअंगुष्ठ को स्पर्श कर दिया दूसरे ही क्षण पशुपति शिव सौम्य हो गये। आज भी नरसिंह तंत्र साधना के माध्यम से अनेकों साधक नर्मदांचल में पशु रूप धारण कर लेते हैं, कोई सिंह बन जाता है, कोई सर्प बन जाता है, कोई पक्षी बन जाता है तो कोई भेड़िया या लोमड़ी में परिवर्तित हो जाता है। देखते ही देखते गोपनीय नरसिंह साधना के माध्यम से साधक अपना सम्पूर्ण पशुत्व जागृत कर कुछ देर के लिए सम्पूर्ण पशुरूप प्राप्त कर लेता है और पशु रूप में शत्रु का दमन कर देता है। पशुरूप में जब वह किसी अन्य पशु पर प्रहार करता है तो शत्रु पक्ष की छाती विदीर्ण हो गई होती है, उसके शरीर पर नोंचने के निशान दिखाई पड़ने लगते हैं या फिर वह किसी दुर्घटना में क्षत विक्षत हो गया होता है। 
            रूप परिवर्तन भाव प्रदेश के परम कोश में प्रवेश होकर सम्पन्न किया जाता है और उसके परिणाम सौ प्रतिशत सटीक होते हैं जब नरसिंह साधना के माध्यम से जातक भाव प्रदेश में प्रविष्टि सीख जाता है तो वह किसी के भी भाव प्रदेश में प्रविष्ट हो बलात पशु क्रिया सम्पन्न कर सकता है। कभी-कभी जातक को अचानक लकवा लग जाता है उसका विशेष अंग अक्रियाशील हो जाता है, अचानक वह स्वप्न में चौंक कर उठ बैठता है एवं उसके ऊपर भीषण भय दिखाई पड़ता है। यह सब नरसिंह साधना के माध्यम से ही होता है। जब शिव ने मातृकाओं को नियंत्रित करने हेतु नरसिंह भगवान का आह्वान किया था तब भगवान नरसिंह ने अपनी जीभ में से महाकाली का प्राकट्य कर दिया था जो कि उनके जिह्वा के अग्रभाग से उदित हो मातृकाओं का ही भक्षण करने हेतु दौड़ पड़ी थीं इस प्रकार मातृकाएं नियंत्रित हो गई थीं। धूमावती महाविद्या सबसे तीक्ष्ण महाविद्या हैं एवं इनसे बचाव हेतु नरसिंह साधना ही एकमात्र उपाय है। 
           नरसिंह साधना विष्णु के सर्वव्यापक होने का प्रमाण है, उनकी सर्वव्यापकता को प्रहलाद ने नरसिंह अवतार के माध्यम से ही सिद्ध किया अतः इस सर्व सुलभ साधना को कहीं पर भी, किसी भी समय, किसी भी प्रकार से सम्पन्न कर सकता है। यह साधना मुहूर्त विहीन है, साधन विहीन है, स्थान विहीन है परन्तु लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए। लक्ष्य के अभाव में साधना के दुष्परिणाम आ सकते हैं। नरसिंह साधना हेतु किसी भी विशेष प्रयोजन की आवश्यकता नहीं है. मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव है कि नरसिंह भगवान जब प्रसन्न होते हैं साधक पर, जब उनकी विशेष कृपा होती है तो वे उसे किसी भी प्रपंच में उलझने नहीं देते। मनुष्य के रूप में मैंने कई बार देखा है कि हम गलती की ओर अग्रसर होते हैं, पतोन्मुखी मार्ग पर कदम बढ़ जाते हैं, भौतिकवाद की तरफ भागते हैं, मृत्यु के नजदीक अनायास ही पहुँच जाते हैं परन्तु हर बार यह वैष्णवी शक्ति किसी न किसी माध्यम से, किसी न किसी प्रयोजन से पुनः हमें सदमार्ग पर खींच लाती है, हमें भ्रष्ट नहीं होने देती, हर पल अपनी सर्वव्यापकता का रहसास कराती है एवं हम अपने लक्ष्य से नहीं भटक पाते हैं। 
          नरसिंह ध्यान के अभाव में तो हमारे भाव प्रदेश में, हमारे ध्यान केन्द्र में धन आकर बैठ जायेगा, स्त्री आकर बैठ जायेगी, नाना प्रकार के भौतिक प्रलोभन आकर बैठ जायेंगे, इस जगत का कोई भी चित्र हमारे भाव जगत में आकर प्रतिष्ठित हो सकता है और कालान्तर उस चित्र के माध्यम से सिवाय पतन के कुछ नहीं मिलता परन्तु जब स्वत: ही नरसिंह अवतार हमारे भाव प्रदेश के उच्चतम शिखर पर विराजमान होंगे तो फिर प्रत्येक पतोन्मुखी, ईश्वर मार्ग से विचलित करने वाले चित्र को वे अपने नखों से पूरी तरह विदीर्ण कर जातक. को भटकने नहीं देते, मरने नहीं देते। नरसिंह और प्रहलाद बस यही बचता है, गुरु और शिष्य बस यही बचता है और कुछ नहीं।

                    शिव शासनत: शिव शासनत: