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🕉️ श्री श्रावण मास 🕉️


🔺 श्री श्रावण मास का संपूर्ण वैदिक महात्म्य ।
🔺श्री श्रावण सोमवार व्रत विधान ।
🔺 श्रावण सोमवार में भगवान शिव का रुद्राभिषेक द्रव्य पूजन एवं शिववास विचार ।
🔺 भगवान शिव को अतिप्रिय रुद्र पाठ की अभिषेक विधि ?

🔺श्री श्रावण मास वैदिक महात्म्य —

मनुष्य अपने परम कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने हेतु हमारे पुराणों में विभिन्न तिथियों, पर्वों, मासों आदि में अनेकानेक कृत्यों का सविधि प्रेरक वर्णन प्राप्त होता है, जिनका श्रद्धापूर्वक पालन करके मनुष्य भोग तथा मोक्ष दोनों को प्राप्त कर सकता है। निष्काम भाव से किसी भी काल विशेष में जप, तप, दान, अनुष्ठान आदि करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है- यह निश्चित है। पुराणों में प्रायः सभी मासों का माहात्म्य मिलता है, परंतु वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष, माघ तथा पुरुषोत्तम मास का विशेष माहात्य दृष्टिगोचर होता है, इन मासों में श्री श्रावण मास विशेष है। 

श्री श्रावण मास के स्वामी आदिदेव भगवान शिव है, सबके आदि में आविर्भूत हुए हैं, अतः उनको आदि देव कहा गया है। जैसे एक की विधि बाधा से अन्य की विधि-बाधा होती है, वैसे ही अन्य देवताओं के अल्प देवत्व के कारण आपको महादेव माना गया है। तीनों देवताओं के निवास स्थान पीपल वृक्ष में सबसे ऊपर शिव जी की स्थिति है। कल्याण रूप होने के कारण वो शिव हैं और पाप समूह को हरने के कारण वो हर हैं, आदि देव होने में शिव जी का शुक्ल वर्ण प्रमाण है क्योंकि प्रकृति में शुक्ल वर्ण ही प्रधान है, अन्य वर्ण विकृत है। आदिदेव कर्पूर के समान गौर वर्ण के है, गणपति के अधिष्ठान रूप चार दल वाले मूलाधार नामक चक्र से, ब्रह्माजी के अधिष्ठान रूप छः दल वाले स्वाधिष्ठान नामक चक्र से और विष्णु के अधिष्ठान रूप दस दल वाले मणिपुर नामक चक्र से भी ऊपर महादेव के अधिष्ठित होने के कारण शिव ब्रह्मा तथा विष्णु के ऊपर स्थित हैं, यह महादेव प्रधानता को व्यक्त करता है। एकमात्र शिव जी ही पूजा से पंचायतन पूजा हो जाती है जो की दूसरे देवता की पूजा से किसी भी तरह संभव नहीं है, आदिदेव शिव की बाईं जाँघ पर शक्ति स्वरूपा दुर्गा, दाहिनी जाँघ पर प्रथम पूज्य गणपति, उनके नेत्र में सूर्य तथा हृदय में भक्तराज भगवान् श्रीहरि विराजमान हैं। सबको विरक्ति की शिक्षा देने हेतु आदिदेव श्मशान में तथा पर्वत पर निवास करते हैं।
श्रावण मास के लिए भगवान् ने स्वयं कहा है- 

द्वादशस्वपि मासेषु श्रावणो मेऽतिवल्लभः। 
श्रवणाईं यन्माहात्म्यं तेनासौ श्रवणो मतः ॥
श्रवणक्ष पौर्णमास्यां ततोऽपि श्रावणः स्मृतः। 
यस्य श्रवणमात्रेण सिद्धिदः श्रावणोऽप्यतः ॥
(स्कन्दमहापु० श्रा० माहा० १।१७-१८)

अर्थात् बारहों मासों में श्रावण मुझे अत्यन्त प्रिय है। इसका माहात्म्य सुनने योग्य है। अतः इसे श्रावण कहा जाता है। इस मास में श्रवण-नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होती है, इस कारण भी इसे श्रावण कहा जाता है। निर्मलता गुण के कारण यह आकाश के सदृश है इसलिए 'नभा' कहा गया है। इसके माहात्म्य के श्रवण मात्र से यह सिद्धि प्रदान करने वाला है, इसलिये भी यह श्रावण संज्ञा वाला है। 

श्रावणमास चातुर्मास के अन्तर्गत होने के कारण उस समय वातावरण विशेष धर्ममय रहता है। जगह-जगह प्रवासी संन्यासी- गणों तथा विद्वान् कथावाचकों द्वारा भगवान्‌ की चरित कथाओं का गुणानुवाद एवं पुराणादि ग्रन्थों का वाचन होता रहता है। श्रवणमास भर शिवमन्दिरों में श्रद्धालुजनों की विशेष भीड़ होती है, प्रत्येक सोमवार को अनेक लोग व्रत रखते हैं तथा प्रतिदिन जलाभिषेक भी करते हैं। जगह-जगह कथा सत्रों का आयोजन, काशीविश्वनाथ, वैद्यनाथ, महाकालेश्वर आदि द्वादश ज्योतिर्लिंगों तथा उपलिंगों की ओर जाते काँवरियों के समूह, धार्मिक मेलों के आयोजन, भजन-कीर्तन आदि के दृश्यों के कारण वातावरण परम धार्मिक हो उठता है। महाभारत के अनुशासन पर्व (१०६। २७) में महर्षि अंगिरा का वचन है-

श्रावणं नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्। 
यत्र तत्राभिषेकेण युज्यते ज्ञातिवर्धनः ॥
अर्थात् 'जो मन और इन्द्रियों को संयममें रखकर एक समय भोजन करते हुए श्रावणमास को बिताता है, वह विभिन्न तीर्थों में स्नान करनेके पुण्यफल से युक्त होता है और अपने कुटुम्बी जनों की वृद्धि करता है।' स्कन्दमहापुराण में तो भगवान् यहाँ तक कहा है कि श्रावण मास में जो विधान किया गया है, उसमें से किसी एक व्रत का भी करनेवाला मुझे परम प्रिय है-

किं बहूक्तेन विप्रर्षे श्रावणे विहितं तु यत्। 
तस्य चैकस्य कर्तापि मम प्रियतरो भवेत् ॥
(स्कन्दमहापु० श्रा०माहा० ३०।३६)


🔺 श्री श्रावण सोमवार व्रत विधान —

सोम चन्द्रमा का नाम है और यह ब्राह्मणों का राजा है, यज्ञों का साधन भी सोम है। क्योंकि यह वार साक्षात शिव का ही स्वरूप है, अतः इसे सोम कहा गया है। इसीलिये यह समस्त संसार का प्रदाता तथा श्रेष्ठ है। सोमवार व्रत करने वाले को यह सम्पूर्ण फल देनेवाला है, बारहों महीनों में सोमवार अत्यन्त श्रेष्ठ है, परंतु श्रावण मास में सोमवार व्रत को करके मनुष्य वर्षभर के व्रत का फल प्राप्त करता है, श्रावण में शुक्लपक्ष के प्रथम सोमवार को यह संकल्प करे कि 'मैं विधिवत् इस व्रत को करूंगा, शिवजी मुझ पर प्रसन्न हों।' इस प्रकार चारों सोमवार के दिन और यदि पाँच हो जायें तो उसमें भी प्रातःकाल यह संकल्प करे और रात्रि में शिवजी का पूजन करे। सोलह उपचारों से सायंकाल में भी शिवजी की पूजा करे और एकाग्रचित्त होकर महादेव की कथा का श्रवण करे। 

श्रावण मास के प्रथम सोमवार मनुष्य को चाहिये कि अच्छी तरह स्नान करके पवित्र होकर श्वेत वस्त्र धारण कर ले और काम, क्रोध, अहंकार, द्वेष, निन्दा आदि का  त्याग करके मालती, मल्लिका आदि श्वेत पुष्पों को लाये। इनके अतिरिक्त अन्य विविध पुष्पों से तथा अभीष्ट पूजनोपचारों के द्वारा 'त्र्यम्बक०' इस मूलमन्त्र से शिवजी की पूजा करे। तत्पश्चात् यह कहे मैं शर्व, भवनाश, महादेव, उग्र, उग्रनाथ, भव, शशिमौलि, रुद्र, नीलकण्ठ, शिव तथा भवहारी का ध्यान करता हूँ, इस प्रकार अपने विभवके अनुसार मनोहर उपचारों से देवेश शिव का विधिवत् पूजन करे, तदनन्तर एक दिव्य तथा शुभ लिंगतोभद्र मण्डल बनाये और उसमें दो श्वेत वस्त्रों से युक्त एक घट स्थापित करे। घट के ऊपर ताँबे अथवा बाँस का बना हुआ पात्र रखे और उसके ऊपर उमा सहित शिव को स्थापित करे। इसके बाद श्रुति, स्मृति तथा पुराणों में कहे गये मन्त्रों से शिव की पूजा करे, पुष्पों का मण्डप बनाये और उसके साथ ही एक सुंदर छोटा यज्ञ आहुति मंडप बनाए , तत्पश्चात् बुद्धिमान् मनुष्य अपने गृह्यसूत्र में निर्दिष्ट विधानके अनुसार अग्नि-स्थापन करे और फिर शर्व आदि ग्यारह श्रेष्ठ नामों से पलाश को समिधाओं से एक सौ आठ आहुति प्रदान करे; यब, ब्रीहि, तिल आदि की आहुति 'आप्यायस्व०' इस मन्त्रसे दे और बिल्वपत्रोंकी आहुति 'त्र्यम्बक०' अथवा षडक्षर मन्त्र (ॐ नमः शिवाय) से प्रदान करे। तत्पश्चात् स्विष्टकृत् होम करके पूर्णाहुति देकर आचार्य का पूजन करे और बादमें उन्हें गौ प्रदान करे, तदनन्तर ग्यारह श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराये और उन्हें वंशपात्र सहित ग्यारह घट प्रदान करे। इसके बाद पूजित देवता को तथा देवता को अर्पित सभी सामग्री आचार्य को दे और तत्पश्चात् प्रार्थना करे- 'मेरा व्रत परिपूर्ण हो और शिवजी मुझपर प्रसन्न हों।' तदनन्तर बन्धुओंके साथ हर्षपूर्वक भोजन करे ।

इस प्रकार जो लोग सोमवार के दिन पार्वती सहित शिव की पूजा करते हैं, वे पुनरावृत्ति से रहित अक्षय लोक प्राप्त करते हैं , देवताओं तथा दानवो से भी अभेद्य सात जन्मों का अर्जित पाप नष्ट हो जाता है। चाँदी के वृषभ पर विराजमान सुवर्ण निर्मित शिव तथा पार्वती की प्रतिमा अपने सामर्थ्यके अनुसार बनानी चाहिये, इसमें धनकी कृपणता नहीं करनी चाहिये, शुद्ध मिट्टी से बने शिव गौरा परिवार सर्व पुण्यकारी माने जाते है ।

🔺 रुद्राभिषेक द्रव्य पूजन एवं शिववास विचार —

रुद्र अर्थात भूतभावन शिव का अभिषेक। शिव और रुद्र परस्पर एक-दूसरे के पर्यायवाची है। शिव को ही 'रुद्र' कहा जाता है, क्योंकि स्तम्-दुःखम, प्रावयति-नाशयतीति-रुद्र: यानी कि भोले सभी दुःखों को नष्ट कर देते हैं। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दुःखों के कारण है। रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारी कंडली से पातक कर्म एवं महापातक भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वतः हो जाती है।

रुद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि सर्व-देवात्मको रुद्रः सर्वे देवाः शिवात्माका अर्थात सभी देवताओं की आत्मा में रुद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रुद्र की आत्मा है। शास्त्रों में कहा गया है कि 'शिवः अभिषेक प्रियः' अर्थात् कल्याणकारी शिव को अभिषेक अत्यंत प्रिय है। भगवान शिव ऐसे देवता है, जो महज एक लोटा गंगा जल या शुद्ध जल अर्पित करने मात्र से ही प्रसन्न हो जाते हैं।

श्रावण महीने में सोमवार व्रत एवं भगवान शिव के 'रुद्राभिषेक' का विशेष महत्त्व है। इसलिए इस माह में, खासतौर पर सोमवार का व्रत एवं रुद्राभिषेक भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए किये जाता है। व्रत में भगवान शिव का पूजन एवं अभिषेक करके एक समय ही भोजन किया जाता है । जिससे शिव भगवान की कृपा प्राप्त की जा सकती है। हमारे शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक के पूजन के निमित्त अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है। साधक रुद्राभिषेक पूजन विभिन्न विधि से तथा विविध मनोरथ को लेकर करते हैं। किसी खास मनोरथ की पूर्ति के लिए तदनुसार पूजन सामग्री तथा विधि से रुद्राभिषेक किया जाता है।

शिवपुराण अनुसार रुद्राभिषेक के लिए विभिन्न द्रव्य निम्न प्रकार है ।

1. जल द्वारा अभिषेक करने से वर्षा होती है ।
2. तीर्थ जल अभिषेक करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
3. इत्र बल से अभिषेक करने से बीमारी नष्ट होती है ।
4. गंगाजल जल द्वारा अभिषेक करने से ज्वर की शांति होती है।
5. जल+शकर से अभिषेक करने से पुत्र की प्राप्ति होती है ।
6. जल+कुश द्वारा अभिषेक करने से असाध्य रोग (रोग, दुख) शांत होते है।
7. तीर्थ जल द्वारा अभिषेक करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
8. गन्ना रस द्वारा अभिषेक करने से लक्ष्मी प्राप्ति और कर्ज से छुटकारा होता है।
9. दुग्ध+गोदुग्ध द्वारा अभिषेक करने से पुत्र प्राप्ति होती है।
10. दुग्ध द्वारा अभिषेक करने से प्रमेह रोग की शांति होती है।
11. दुग्ध+शकर द्वारा अभिषेक करने से जड़बुद्धि वाला भी विद्वान हो जाता है।
12. गोदग्ध+घी द्वारा अभिषेक करने से आरोग्यता प्राप्त होती है।
13. दही द्वारा अभिषेक करने से मकान, वाहन, पशु आदि कि प्राप्ति होती है ।
14. शहद+घी द्वारा अभिषेक करने से धन-वृद्धि होती है।
15. शहद द्वारा अभिषेक करने से यक्ष्मा (तपेदिक) दूर हो जाती है तथा पापों से मुक्ति मिलती है ।
16. घृत द्वारा अभिषेक करने से वंश वृद्धि होती है।
17. सरसों तेल द्वारा अभिषेक करने से शत्रु पराजित होता है।

परंतु विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों में मंत्र, गोदुग्ध या अन्य दूध मिलाकर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सबको मिलाकर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है। तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है। इस प्रकार विविध द्रव्यों से शिवलिंग का विधिवत अभिषेक करने पर अभीष्ट कामना की पूर्ति होती है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी पुराने नियमित रूप से पूजे जाने वाले शिवलिंग का अभिषेक बहुत ही उत्तम फल देता है किंतु यदि पारद के शिवलिंग का अभिषेक किया जाए तो बहुत ही शीघ्र चमत्कारिक शुभ परिणाम मिलता है। रुद्राभिषेक का फल बहुत ही शीघ्र प्राप्त होता है। वेदों में विद्वानों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पुराणों में तो इससे संबंधित अनेक कथाओं का विवरण प्राप्त होता है। वेदों और पुराणों में रुद्राभिषेक के बारे में बताया गया है कि रावण ने अपने दसों सिरों को काटकर उसके रक्त से शिवलिंग का अभिषेक किया था तथा सिरों को हवन की अग्नि को अर्पित कर दिया था जिससे वो त्रिलोकजयी हो गया।
भस्मासुर ने शिवलिंग का अभिषेक अपनी आंखों के आंसुओं से किया तो वह भी भगवान के वरदान का पात्र बन गया। कालसर्प योग, गृहक्लेश, व्यापार में नुकसान, शिक्षा में रुकावट सभी कार्यों की बाधाओं को दूर करने के लिए रुद्राभिषेक आपके अभीष्ट सिद्धि के लिए फलदायक है।

शिववास विचार -किसी कामना से किए जाने वाले रुद्राभिषेक में शिव-वास का विचार करने पर अनुष्ठान अवश्य सफल होता है। ज्योर्तिलिंग क्षेत्र एवं तीर्थस्थान में तथा शिवरात्रि-प्रदोष, श्रावण के सोमवार आदि पर्वो में शिव-वास का विचार किए बिना भी रुद्राभिषेक किया जा सकता है।
शिववास चक्रम् का फल निम्न प्रकार ज्ञात किया जाता है ।
• गौरी सानिध्य शिववास - 1,8,30 (कृष्णपक्ष तिथि), 2,9 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल सुख सम्पदा
• सभा शिववास - 2,9 (कृष्णपक्ष तिथि), 3,10 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल ताप 
• क्रीड़ा शिववास - 3,10 (कृष्णपक्ष तिथि), 4,11 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल कष्ट 
• कैलाश शिववास - 4,11 (कृष्णपक्ष तिथि), 5,12 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल सुख
• वृषभ शिववास - 5,12 (कृष्णपक्ष तिथि), 6,13 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल अभिष्ठ सिद्धि 
• भोजन शिववास - 6,13 (कृष्णपक्ष तिथि), 7,14 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल पीड़ा 
• श्मशान शिववास - 7,14 (कृष्णपक्ष तिथि), 1,8,15 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल मरण

राशि अनुसार किस ज्योतिर्लिंग की पूजा है आपके लिए श्रेष्ठ ।।

ये कथन यथा ही सत्य है ईश्वर को जिस भाव से स्मरण करे वही भाव उत्तम है एवं महादेव का कोई भी निरंकार साकार सरूप भक्तों के लिए सदैव ही स्वतः हितकारी है किंतु ज्योतिष वेदों के नेत्र है उसी आधार पर कहा गया है कि भारत में भगवान महादेव के बारह ज्योतिर्लिंग हैं, जिनका अपना अलग महत्व है तथा ये सभी ज्योतिर्लिंग बारह राशियों से भी जुड़े हैं। अलग-अलग राशि के लोगों के लिए अलग-अलग ज्योतिर्लिंग की पूजा का अपना अलग महत्व है। आइए जानते हैं किस राशि के व्यक्ति को किस ज्योतिर्लिंग की पूजा करने से विशेष लाभ मिलता है। 

🔹मेष राशि – सोमनाथ ज्योतिर्लिंग -

मेष राशि वाले जातकों को सोमनाथ ज्योतिर्लिंग की पूजा करनी चाहिए व शिवलिंग पर पंचामृत से अभिषेक करना चाहिए। सोमनाथ ज्योतिर्लिंग गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित है, जिसकी स्थापना स्वयं चन्द्रदेव ने की थी।इस मन्दिर में सोमनाथ की पूजा पंचामृत से की जाती है।

मन्त्र - ॐ सोमनाथाय ज्येतिर्लिंगाय नमः

🔹वृषभ राशि – मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग

वृषभ राशि के जातको को मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की पूजा करनी चाहिए व शिवलिंग पर दूध की पतली धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें। श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग एक ऐसा तीर्थ है, जहाँ भगवान शिव और देवी शक्ति की आराधना से देवता और दानव दोनों को फल प्राप्त हुए।

मन्त्र - ॐ मल्लिकार्जुनाय ज्येतिर्लिंगाय नमः


🔹मिथुन राशि – महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग -

मिथुन राशि के जातको को महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा करनी चाहिए व शिवलिंग का अभिषेक दूध में शहद मिलाकर करना चाहिए। महाकालेश्वर मन्दिर (म.प्र.) राज्य के उज्जैन नगर में स्थित है, जो कि क्षिप्रा नदी के किनारे बसा है। इनकी पूजा करने से अकाल मृत्यु नहीं होती हैं।

मन्त्र - ॐ महाकालाय ज्येतिर्लिंगाय नमः

🔹कर्क राशि – ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग

कर्क राशि वाले जातकों को ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा करनी चाहिए व शिवलिंग पर पंचामृत से अभिषेक करना चाहिए। श्री ओंकारेश्वर (म.प्र.) खण्डवा जिले में स्थित है। यह नर्मदा नदी के बीच मान्धाता तथा शिवपुरी नामक द्वीप पर स्थित है।

मन्त्र - ॐ ओंकारेश्वराय ज्येतिर्लिंगाय नमः


🔹सिंह राशि - बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग

सिंह राशि के जातको को बाबा बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की पूजा करनी चाहिए व जल में दूध, दही, गंगाजल और मिश्री मिलाकर शिवलिंग का जलाभिषेक करना चाहिए। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक यह ज्योतिर्लिंग लंकापति रावण द्वारा यहाँ लाया गया था।

मन्त्र - ॐ बैद्यनाथाय ज्येतिर्लिंगाय नमः

🔹कन्या राशि - भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग

कन्या राशि के जातको को भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग का ध्यान करना चाहिए व दूध में घी मिलाकर शिवलिंग को स्नान करवाना चाहिए। मान्यता है कि इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने मात्र से व्यक्ति को समस्त दुःखों से छुटकारा मिल जाता है।

मन्त्र - ॐ भीमशंकराय ज्येतिर्लिंगाय नमः


🔹तुला राशि - रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग

तुला राशि वाले जातकों को रामेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा करनी चाहिए व दूध में बताशा मिला कर शिवलिंग का अभिषेक करना चाहिए। रामेश्वरम अथवा रामलिंगेश्वर ज्योतिर्लिंग हिन्दुओं के चार धामों में से एक धाम है। यह तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम जिले में स्थित है।

मन्त्र - ॐ रामेश्वराय ज्येतिर्लिंगाय नमः

🔹वृश्चिक राशि – नागेश्वर ज्योतिर्लिंग

वृश्चिक राशि के जातको को नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की आराधना करनी चाहिए व दूध और धान के लावा से शिवलिंग को स्नान करवाना चाहिए। नागेश्वर अर्थात् नागों का ईश्वर और विषादि से बचाव का संकेत भी है, महाशिवरात्रि के दिन इनका दर्शन करने से दुर्घटनाओं से बचाव होता है।

मन्त्र - ॐ नागेश्वराय ज्येतिर्लिंगाय नमः


🔹धनु राशि - विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग

धनु राशि के जातकों को वाराणसी स्थित काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग की पूजा करनी चाहिए। धनु राशि वालो को महाशिवरात्रि तथा सावन माह को गंगाजल में केसर मिलाकर भगवान शिव को अर्पित करना चाहिए।

मन्त्र - ॐ विश्वनाथाय ज्येतिर्लिंगाय नमः


🔹मकर राशि - त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग

मकर राशि के जातकों को त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा करनी चाहिए व गंगाजल में गुड़ मिलाकर शिवलिंग का अभिषेक करना चाहिए। इस ज्योतिर्लिंग की अद्भुत विशेषता यह हैं कि, इस ज्योतिर्लिंग में भगवान ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव का प्रतीक तीन चेहरों के दर्शन होते हैं।

मन्त्र - ॐ त्र्यंबकेश्वराय ज्येतिर्लिंगाय नमः


🔹कुम्भ राशि – केदारनाथ ज्योतिर्लिंग

कुम्भ राशि वाले जातकों को केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की पूजा करनी चाहिए व शिवलिंग को पंचामृत से स्नान कराना चाहिए। श्री केदारेश्वर केदार नामक एक पहाड़ पर और पहाड़ों के ऊपर पूर्व दिशा में मन्दाकिनी नदी पर, हिमालय पर स्थित है।

मन्त्र - ॐ केदाराय ज्येतिर्लिंगाय नमः

🔹मीन राशि – घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग

मीन राशि वाले जातकों को घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा करनी चाहिए। इस राशि वाले जातकों को सावन के महीने में दूध में केसर डालकर शिवलिंग को स्नान कराना चाहिए। यह ज्योतिर्लिंग 12वें ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्ध हैं।

मन्त्र - ॐ घृष्णेश्वर ज्येतिर्लिंगाय नमः


शिव जी की पूजा की दौरान ध्यान रखने योग्य बाते

1. जातक को सदैव उत्तर की ओर मुख करके भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए।

2. भोलेनाथ की पूजा में भूलकर भी शंख से पूजन न करें।

3. घर में शिवलिंग न रखें और कोशिश कर के मंदिर में जा कर ही शिवलिंग पर जल चढ़ाएं।

4. शिवलिंग पर नारियल पानी न चढ़ाएं।

5. भगवान शिव योगी हैं और पुरुषत्व के प्रतीक हैं इसी कारण से इनकी पूजा में हल्दी, कुमकुम, रोली और सौंदर्य प्रसाधन की चीजों को प्रयोग नहीं करना चाहिए।

6. शिवजी को तुलसीपत्र, कुटज, नागकेशर, बन्धूक (दुपहरिका), मालती, चम्पा, चमेली, कुन्द, जूहि, मौलीसेरी, रक्तजवा (लाल उठडल), मल्लिका का (मोतिका), केतकी (केवड़ा) आदि न चढ़ाएं।

आजकल एक कुप्रथा चल पड़ी है कि पूजन आरंभ होते ही रूमाल निकाल कर सर पर रख लेते हैं और कर्मकांड के लोग भी नहीं मना करते । जबकि पूजा में सिर ढकने को शास्त्र निषेध करता है। शौच के समय ही सिर ढकने को कहा गया है। प्रणाम करते समय,जप व देव पूजा में सिर खुला रखें। तभी शास्त्रोचित फल प्राप्त होगा।

शास्त्र क्या कहते हैं ? आइए देखते हैं...

 उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः । 
 प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ 
अर्थात् -
पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग्न होकर, शिखा खोलकर, कण्ठको वस्त्रसे लपेटकर, बोलते हुए, और काँपते हुए जो जप किया जाता है, वह निष्फल होता है ।'

 शिर: प्रावृत्य कण्ठं वा मुक्तकच्छशिखोऽपि वा । 
 अकृत्वा पादयोः शौचमाचांतोऽप्यशुचिर्भवेत् ।। 

( - कुर्म पुराण,अ.13,श्लोक 9 )

अर्थात्-- सिर या कण्ठ को ढककर ,शिखा तथा कच्छ(लांग/पिछोटा) खुलने पर,बिना पैर धोये आचमन करने पर भी अशुद्ध रहता हैं(अर्थात् पहले सिर व कण्ठ पर से वस्त्र हटाये,शिखा व कच्छ बांधे, फिर पाँवों को धोना चाहिए, फिर आचमन करने के बाद व्यक्ति शुद्ध(देवयजन योग्य) होता है)।

 सोपानस्को जलस्थो वा नोष्णीषी वाचमेद् बुधः।

- कुर्म पुराण,अ.13,श्लोक 10अर्ध। 

अर्थात्-- बुध्दिमान् व्यक्ति को जूता पहनें हुए,जल में स्थित होने पर,सिर पर पगड़ी इत्यादि धारणकर आचमन नहीं करना चाहिए ।

 शिरः प्रावृत्य वस्त्रोण ध्यानं नैव प्रशस्यते।-(कर्मठगुरूः) 

अर्थात्-- वस्त्र से सिर ढककर भगवान का ध्यान नहीं करना चाहिए ।

 उष्णीशी कञ्चुकी नग्नो मुक्तकेशो गणावृत। 
 अपवित्रकरोऽशुद्धः प्रलपन्न जपेत् क्वचित् ॥ 

( शब्द कल्पद्रुम )

अर्थात्-- सिर ढककर,सिला वस्त्र धारण कर,बिना कच्छ के,शिखा खुलीं होने पर ,गले के वस्त्र लपेटकर ।

अपवित्र हाथों से,अपवित्र अवस्था में और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए ।।

 न जल्पंश्च न प्रावृतशिरास्तथा।-योगी याज्ञवल्क्य 

अर्थात्-- न वार्ता करते हुए और न सिर ढककर।

 अपवित्रकरो नग्नः शिरसि प्रावृतोऽपि वा । 
 प्रलपन् प्रजपेद्यावत्तावत् निष्फलमुच्यते ।। ( रामार्च्चनचन्द्रिकायाम् )

अर्थात्-- अपवित्र हाथों से,बिना कच्छ के,सिर ढककर जपादि कर्म जैसे किये जाते हैं, वैसे ही निष्फल होते जाते हैं ।

शिव महापुराण उमा खण्ड अ.14-- सिर पर पगड़ी रखकर,कुर्ता पहनकर ,नंगा होकर,बाल खोलकर ,गले के कपड़ा लपेटकर,अशुद्ध हाथ लेकर,सम्पूर्ण शरीर से अशुद्ध रहकर और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए ।।

पूजा, साधना, उपासना ।।

तीन शब्द प्रचलित हैं- पूजा, साधना, उपासना।

            'पूजा' का तात्पर्य जो हमारे पूज्य हैं, जो माननीय हैं, जो वन्दनीयं हैं उनको सम्मान देने की क्रिया पूजा है, और हम किसी भी तरीके से उनका वन्दन, उनकी अभ्यर्थना कर सकते हैं। उनको बुला कर, उनको बिठा कर, उनको स्नान करा कर, स्वच्छ-सुन्दर वस्त्र पहिना कर, कुंकुम, चन्दन, अक्षत लगा कर, पुष्पों का हार पहना कर, अगरबत्ती, दीपक लगा कर जो कुछ अभ्यर्थना करते हैं, वह पूजा है।

           हम यह स्पष्ट करते हैं कि जिनकी हम आराधना, जिनका हम चिन्तन, जिनका हम विचार कर रहे हैं वे पूज्य हैं, हमसे श्रेष्ठ हैं, उनको सम्मान देना हमारा कर्त्तव्य और धर्म है। इस प्रकार के सम्मान देने की क्रिया को पूंजा कहा जाता है। पूजा में कोई भावना या भाव नहीं होता, यह तो 'मन की एक अभिव्यक्ति होती है।

          पूजा में किसी प्रकार की याचना और इच्छा भी नहीं होती। पूजा इसलिए नहीं की जाती कि कुछ प्राप्त हो, कुछ प्राप्त करने के लिए पूजा का विधान है ही नहीं। पूजा तो अपने पिता की भी की जा सकती है, मांँ की भी की जा सकती है, आने वाले मेहमान की भी की जा सकती है, ब्राह्मण या योग्य व्यक्ति की भी की जा सकती है, पितर या देवताओं की भी की जा सकती है। जिनके प्रति भी हमारा पूज्य भाव है, जिनको भी हम आदर या सम्मान देते हैं, उनको सम्मान देने, अभिव्यक्ति देने का नाम पूजा है।

          और जहां सम्मान दिया जाता है, वहां प्राप्त करने की तो कोई इच्छा होती ही नहीं। इसलिए तो पूजा करते ही नहीं कि हमें कुछ प्राप्त हो, वह तो मन का एक भाव है, मन का एक चिन्तन है, मन की एक धारणा है जो उनके प्रति अभिव्यक्त होती है, जो पूज्य हैं, जिनको हम सम्मान या आदर देते हैं। पूजा के लिए कोई सर्वमान्य नियम नहीं है, जिस तरीके से भी, जिस प्रकार से भी हम उन्हें सम्मान दे सकें, वही पूजा है।

           गोपियां कृष्ण से ठिठोली करके उनकी पूजा ही तो करती थीं। राधा आंसुओं का अर्घ्य अर्पित करके कृष्ण की पूजा ही तो करती थी। भीष्म पितामह उनको नमन करके उनकी पूजा ही तो करते थे। देवताओं को हम अक्षत, धूप, नैवेद्य चढ़ाकर पूजा ही तो करते हैं। पूजा का कोई एक प्रकार नहीं है, कोई एक नियम नहीं है, कोई एक तरीका नहीं है, जिससे भी आप अपने मन की अभिव्यक्ति को स्पष्ट कर सकें, वही पूजा है। जिससे भी सामने वाला प्रसन्नता पूर्वक आपकी अभ्यर्थना को स्वीकार कर सके, वही पूजा है। यह तो आपसी लेन-देन है, आपसी विचार-भावना है, आपसी हित चिन्तन है कि आप किस प्रकार से उसको दे रहे हैं और वह किस प्रकार से आपको स्वीकार कर रहा है? यह जरूरी नहीं है कि पूजा में कुंकुम हो ही, अक्षत हो ही, नैवेद्य हो ही, अगरबत्ती या दीपक हो ही, वह तो मन के पुष्पों से भी पूजा की जा सकती है, हास्य और ठिठोली करके भी पूजा की जा सकती है, लिपट करके, प्रेम करके, अपने आप को समर्पित करके भी पूजा की जा सकती है। यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि आप से उसका किस प्रकार का नाता है? किस प्रकार का सम्बन्ध है? किस प्रकार से आप उनको सम्मान देने में समर्थ हैं? किस प्रकार से वह आपका सम्मान प्राप्त करने में समर्थ है... और आपस में जो चिन्तन बनता है, जो आधार बनता है, वही पूजा है।
                         (फिर दूर कहीं पायल खनकी)

         'साधना' एक बिलकुल अलग प्रकार है। साधना का तात्पर्य है कि सन्नद्ध हो जाना, तैयार हो जाना, स्पष्ट हो जाना। साधना का तात्पर्य है कि मैं प्राप्त करने के लिए सभी प्रकार से सक्षम हूं, तैयार हूं, मैं प्राप्त करना चाहता हूं, और जो यह भाव मन में ले लेता है, वह साधना पथ पर पहला पग रखता है। जिसको भी प्राप्त करने की इच्छा या आकांक्षा रखते हैं, उसके प्रति तीव्र वेग से बढ़ने की क्रिया को साधना कहा जाता है, उसका लक्ष्य केवल यही होता है कि उसे प्राप्त करके ही रहूं, वह चाहे महालक्ष्मी हो, वह चाहे महाकाली हो, वह चाहे तारा हो, छिन्नमस्ता हो, शंकर हो, ब्रह्मा हो, विष्णु हो, रुद्र हो, कोई देवी हो, कोई देवता हो, कोई पितर हो, कोई मनुष्य हो। जिसको भी आप प्राप्त करने के लिए पूर्णता के साथ प्रयत्नशील हैं, उसे साधना कहा जाता है।

            और साधना विचारों से नहीं होती, साधना तो तन और मन से जीवन के साथ तीव्र वेग से आगे बढ़ने की क्रिया है। तीर की गति से मन आगे बढ़ता है, अपने लक्ष्य पर पहुंचने के लिए झपटता है, किसी भी प्रकार से उसको प्राप्त करने की आकांक्षा रखता है। मन की इस गति को चेतना देने का काम शरीर करता है, शरीर अपने-आप में कमजोर है... भाव नहीं हैं, उद्वेग नहीं है, आकांक्षा नहीं है, तो मन उतनी द्रुत गति से आगे नहीं बढ़ सकेगा।

              मन को तो आधार चाहिए आगे बढ़ने के लिए, तीर तभी तो अपने लक्ष्य पर पहुंचेगा जब धनुष होगा, जब धनुष ही नहीं है तो तीर चल भी नहीं सकता । यदि लक्ष्य पर तीर को पहुंचना ही है तो फिर धनुष की प्रत्यंचा तनी हुई, कसी हुई होनी चाहिए। यदि मन को पूर्णता के साथ आगे बढ़ाना है लक्ष्य की ओर तीर की गति से, तो शरीर संतुलित, निश्चिंत और स्पष्ट होना ही चाहिए। इस प्रकार शरीर को साधने की क्रिया का नाम साधना है। इस प्रकार मन को साधने की क्रिया का नाम साधना है। इस जीवन को पूर्णता के साथ अपने नियंत्रण में लेने की क्रिया का नाम साधना है।

           साधना के प्रकार क्या हैं? तरीका क्या है? मंत्र जप क्या है? देवता क्या है? अनुष्ठान क्या है? यह सब तो आगे की बात है। पहली और प्रधान बात तो यह है कि हम पूर्णरूप से साधक हों, और पूर्णरूप से साधक होने के लिए जरूरी है कि यह शरीर अपने-आप में सधा हुआ हो। "शरीरं साधयति सः साधकः" जो 'शरीर पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है वह साधक है। जो मन पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है वह साधक है। शरीर पर नियंत्रण प्राप्त करने का तात्पर्य, आसन पर स्थिर चित्त से बैठना है, स्थिरता से बैठना है। एक घंटा, दो घंटा, चार घंटा, छः घंटा, आठ घंटा, बिना हिले-डुले, निश्चिंत, निर्भीक, निष्कंप और साधना की जो विधि हो, जो तरीका हो उसका पालन करने के लिए शरीर सक्षम हो, जितना मंत्र-जप करने का विधान हो, उतना मंत्र-जंप करे ही, उससे पहले शरीर शिथिल न हो, थकावट से न भर जाए, आलस्य से न भर जाए, प्रमाद से न भर जाए, जब ऐसी स्थिति आती है तो शरीर सधता है, और जब शरीर सधता है तो उसके साथ ही साथ मन को भी साधना चाहिए, क्योंकि शरीर को तो हठ पूर्वक नियंत्रण में कर सकते हैं, कष्ट या पीड़ा को भी भोग सकते हैं, इसके लिए मन पर नियंत्रण पाना तो बहुत जरूरी है।

            मन को साधना तो बहुत ही कठिन है, और जो मन को साध लेता है, मन को डांवाडोल नहीं होने देता, मन को विचलित नहीं होने देता, एक ही बिंदु पर केन्द्रित कर लेता है, मन को भटकने नहीं देता, उसे साधक कहते हैं। जब तन और मन दोनों का सामंजस्य हो जाता है तो तन वही कार्य करता है जो मन कहता है। जब दोनों का परस्पर सामंजस्थ बन जाता है, जब दोनों का परस्पर सम्बन्ध बन जाता है, और जब इस सामंजस्यता का, इस संतुलन का आधार मनुष्य बनता है, जब उसके हाथ में यह नियंत्रण आता है, तो उसे "साधक" कहते हैं। साधक बनने के बाद वह जो भी क्रिया करता है और जिस तरीके से भी क्रिया करता है, जिस प्रकार से भी वह प्रयोग या अनुष्ठान करता है, उसको साधना कहते हैं।

                         (फिर दूर कहीं पायल खनकी)

       साधना से पूर्वे यह आवश्यक है कि साधक, स्थिर चित्त हो, दृढ़ चित्त हो, मन एक बिन्दु पर केन्द्रित हो, जो भयभीत न हो, जो अपने-आप में दृढ़ प्रतिज्ञ हो, जिसका मन पर पूर्ण नियंत्रण हो, जिसका अपने शरीर पर अधिकार हो, जो शरीर को विचलित नहीं होने देता है, वही साधक है और उसके द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य साधना है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति हड़बड़ाहट में कुछ नहीं करता, ऐसा व्यक्ति तो धीर-गम्भीर, समुद्र की तरह से हो जाता है। उसको पूरा विश्वास होता है कि मैं जो प्राप्त करना चाहता हूं वह प्राप्त करूंगा ही... होगा ही। लक्ष्य मुझसें चूक नहीं सकता, मैं लक्ष्य से पथ भ्रष्ट नहीं हो सकता, जब इतनी दृढ़ता आ जाती है, जब इतना विश्वास उसके मन में आ जाता है, तब वह सही अर्थों में साधक, बन जाता है, फिर उसका प्रत्येक क्रियाकलाप साधना कहलाती है।


       साधना - कुंकुम, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, माला या मंत्र-जप को नहीं कहते, बल्कि प्राप्त करने की आकांक्षा और प्राप्त करने की क्रिया के समन्वित स्वरूप को साधना कहते हैं।

           यदि कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका को प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है तन से, मन से, तो वह साधक है और उसे प्राप्त करना साधना है। यदि कोई विद्यार्थी परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है, और एकाग्रचित्त होकर अध्ययन करता है, तो वह भी साधक है और एकाग्रचित्त होकर अध्ययन करना, साधना कहलाती है।

            इन कार्यों में कुंकुम, अक्षत की जरूरत नहीं पड़ती, न प्रेमिका को प्राप्त करने के लिए अगरबत्ती या धूप लगाने की आवश्यकता हुई, न प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के लिए दीपक या घृत जलाने की जरूरत पड़ी।

            ये सब तो गौण वस्तुएं हैं, केवल उपकरण हैं, मन को स्थिर करने के लिए, मूल आधार तो तन और मन का पारस्परिक सामंजस्य है... और जो इस सामंजस्यता को प्राप्त कर लेता है, वही साधक है। जो दोनों पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है, वही साधक है, और फिर साधक जो भी कार्य करता है, वही साधना है। जिस तरीके से भी, जिस युक्ति से, जिस प्रकार से वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, उसे ही साधना कहा जाता है। इसके अलावा साधना का कोई प्रकार नहीं होता। साधना का कोई मार्ग संकेत नहीं होता। साधना का कोई अन्य चिन्तन नहीं होता।

              साधना में तो एक लक्ष्य होता है, एक केन्द्र बिन्दु होता है। उसकी आंखों के सामने केवल एक भाव होता है कि मुझे यह प्राप्त करना ही है, चाहे इसके लिए मुझे अपने जीवन को भी क्यों न समर्पित करना पड़े या समाप्त करना पड़े। जो ऐसा दृढ़ चित्त होकर, शरीर को साध कर, मन की युक्ति के द्वारा लक्ष्य पर पहुंचने का प्रयत्न करता है, वही साधक है और यही उसकी साधना है। वह चाहे लौकिक जीवन को प्राप्त करने की आकांक्षा रखने वाला हो, चाहे धन प्राप्त करने की आकांक्षा रखने वाला हो, चाहे प्रेम प्राप्त करने की आकांक्षा रखने वाला हो, चाहे देवी-देवताओं को अपने आधीन रखने की इच्छा-आकाक्षा रखने वाला हो। अर्थ एक ही है, भाव एक ही है, पर उसका लक्ष्य स्पष्ट हो, मन में किसी भी प्रकार का विचलन नहीं हो। मन में ऊहापोह नहीं हो, मन में कोई इतर भाव नहीं हो, जो कुछ हो वह स्पष्ट हो और लक्ष्य भी केवल एक ही हो कि मुझे अमुक कार्य ही करना है... और जब ऐसा दृढ़ प्रतिज्ञ और दृढ़ चित्त होकर उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए वह जो कुछ प्रयत्न करता है, उस प्रयत्न को साधना कहा जाता है।

                         (फिर दूर कहीं पायल खनकी)

        'उपासना' साधना से आगे की स्थिति है। एक बहुत सुन्दर शब्द है उपासना, यह बहुत मधुर शब्द है, क्योंकि इसमें पूजा और साधना का बहुत ही सुन्दर समन्वय है। उपासना का अर्थ है- इष्ट के पास बैठना और उसके साथ घुल-मिल जाना, एक हो जाना, एकरस हो जाना, निमग्न हो जाना।

              पूजा में तो पूजा करने वाला और पूज्य दोनों अलग-अलग होते हैं। साधना में भी साधक और जिसको प्राप्त करने की कामना हो, वह लक्ष्य दोनों अलग-अलग होते हैं, पर उपासना में ऐसा नहीं होता। उपासना में दो भेद होते ही नहीं, दो तथ्य होते ही नहीं। इन दोनों का समन्वय ही उपासना है, जहां न साधक होता है और न साधना होती है, वहां तो साधना स्वयं साधक में समाहित हो जाती है, साधक स्वयं साधना में समाहित हो जाता है, एक-दूसरे के प्रति समर्पित हो जाते हैं, एक-दूसरे के प्रति अपने-आप में सम्बन्धित हो जाते हैं।

           जब दोनों के बीच भेद करना ही कठिन हो जाता है, तब वहीं से उपासना प्रारम्भ होती है। इसलिए उपासना को अत्यन्त सुन्दर कहा गया है, मधुर कहा गया है, श्रेष्ठ कहा गया है, क्योंकि उपासना में कोई कारण, कोई भेद नहीं होता, उपासना में कोई दूरी नहीं होती, कोई अंतर नहीं होता। जब साधक खुद चलकर अपने लक्ष्य के पास पहुंच जाता है, अपने लक्ष्य के पास बैठ जाता है, उस लक्ष्य से किसी प्रकार की दूरी नहीं होती, किसी प्रकार का अन्तर नहीं होता, तब उपासना प्रारम्भ होती है। उपासना करने वाला ऐसा अनुभव करता है कि सामने वाला तो मैं ही हूं, वह तो मेरे पास बैठा है, मैं तो उसके इतना पास हूं कि बीच में से हवा भी नहीं गुजर सकती। जब भक्त और भगवान के बीच कुछ भी दूरी नहीं रहती, तब 'उपासना' कहलाती है।

            'मीरा' तन्मय होकर नाचती है और उसके होठों से निकलता है कि- "मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई,जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई" तो यह नृत्य उपासना है, क्योंकि मीरा के और उस कृष्ण के बीच में कोई दूसरा नहीं होता।

           'सूर' अपना इकतारा बजाते हुए कृष्ण को माखन खिला रहा हो, हंसा रहा हो, पुलकित कर रहा हो उसकी आवाज सुन रहा हो तो यह सूर की उपासना है। 
'कबीर' कहते हैं कि-
"लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल, लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल"
         जब कबीर स्वयं पूर्णरूप से लाल होकर राम, उस लाल, उस ब्रह्म में लीन हो जाते हैं, एकरस हो जाते हैं तब यह कबीर की उपासना है। जब बूंद, समुद्र में विसर्जित हो जाती है, तो यह बूंद की उपासना है।

         जब पुष्पों की सुगन्ध हवा में विलीन हो जाती है, वसन्त ऋतु बन जाती है, तो यह सुगन्ध की हवा के प्रति उपासना है। जब एक-दूसरे के प्रति पूर्ण तादात्म्यता स्थापित हो जाती है, तो उसे उपासना कहते हैं।

          इसलिए तो उपासना को अत्यन्त आनन्ददायक शब्द कहा गया है, क्योंकि यह जीवन का सार है, यह साधना और पूजा से बहुत ऊंचे प्रकार की चीज है। जब शिष्य पूरी तरह से गुरु के चरणों में समर्पित हो जाता है, जब उसका सारा ध्यान, उसका सारा चिन्तन, उसके विचार, उसकी भावना गुरुमय हो जाती है, जब उसके मन में एक ही आकांक्षा, एक ही इच्छा होती है कि किस प्रकार से, किस तरीके से गुरु को सुख पहुंचाया जाए? गुरु को सुविधा दी जाए? इसके लिए वह जो भी प्रयत्न करता है, वह 'उपासना' है, क्योंकि ऐसा करके वह गुरु के निकट बैठने की क्रिया करता है और निकट बैठने के क्रिया को ही उपासना कहा गया है।

            दूर खड़े रह कर के प्रार्थना करने से, स्तुति करने से कुछ प्राप्त नहीं हो सकता। अक्षत, धूप, पुष्प, दीप चढ़ाना तो ठीक वैसा ही कार्य है जैसे पहली कक्षा का बालक पेंसिल लेकर स्लेट पर अ-आ, इ-ई लिख रहा हो, यह तो प्रारम्भिक बात है, साधना इससे थोड़ा-सा आगे है, पर उपासना में कोई भेद रहता ही नहीं। उसमें अन्दर और बाहर, उपासक और उपास्य के बीच में कोई अन्तर नहीं रहता है।

            दूर रह कर कोई शिष्य कुछ सीख भी नहीं सकता, कुछ समझ भी नहीं सकता, क्योंकि उसके और गुरु के बीच में एक शून्यता है, एक अन्तर है। इस शून्यता को तो शिष्य ही भर सकता है सेवा के द्वारा, समीप जाकर, उनके बताए हुए कार्यों को सम्पन्न कर, उन को तनाव मुक्त करके, उनको सुविधाएं देकर के, क्योंकि ऐसा करके वह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य करता है।

              गुरु जब तनाव मुक्त होता है, तब वह एक नवीन ज्ञान की सृष्टि करता है, एक नवीन प्रवचन देता है, एक नवीन पुस्तक लिखता है। यह प्रवचन या पुस्तक लेखन या यह नवीन ज्ञान गुरु ने नहीं कियां, यह तो शिष्य ने किया। शिष्य ने ही गुरु को इतनी सुविधा प्रदान की, उसको तनाव मुक्त किया।

        और जब गुरु को तनाव मुक्त किया, तो गुरु के अन्दर जो ज्ञान है वह कागज पर उतरा, वह किसी के चित्त पर अंकित हुआ, सृष्टि में कुछ नया निर्माण हुआ। इस निर्माण की प्रक्रिया को गुरु ने नहीं किया, इस निर्माण की प्रक्रिया को शिष्य ने ही किया है, शिष्य की वजह से ही ऐसा ही हुआ।

           और ऐसा होना, सृष्टि में चेतना का एक और अगला कदम बढ़ाना है, सृष्टि में ज्ञान का विस्तार करना है और इस ज्ञान के विस्तार को, इस प्रयोग को, गुरु को तानाव मुक्त करने के चिन्तन को और उनको सुख-सुविधाएं प्रदान कर, उनसे ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया को उपासना कहा है।

            जो साधक, जो शिष्य इस तथ्य को समझ लेता है वह निश्चय ही गुरुमय हो जाता है। गुरु कोई ऐसी वस्तु नहीं है कि उनके पास बैठकर के, कागज, कलम लेकर सीखा जाए। वह तो एक सृष्टि का नियामक है, जो चलते-फिरते, उठते-बैठते ज्ञान विकीर्ण कर सकता है। यह अलग बात है कि हम उन्हें ज्ञान विकीर्ण करने का अवसर प्रदान करें.. यह शिष्य कर सकता है. जो शिष्य ऐसा कर लेता है, जो शिष्य सेवा को, साधना, पूजा, अर्चना समझ लेता है, वह और एक-दो कदम गुरु के निकट पहुंच जाता है।

          और जब उसका चित्त गुरुमय हो जाता है, तो वह दो कदम और आगे बढ़ जाता है। जब गुरु के दर्द को, शिष्य अपना दर्द अहसास करने लग जाता है, तो शिष्य द्वारा की गई साधना, उपासना बन जाती है और उपासना से ही गुरुमय बना जा सकता है, गुरु के ज्ञान को अपने अन्दर समाहित किया जा सकता है।

           यह अवस्था भक्त और भगवान की है, जब भक्त अपना अस्तित्व. भूल जाता है, जब उसे हर क्षण अपनी आंखों के सामने भगवान ही नाचते-कूदते दिखलाई देते हैं, तो यह उसकी उपासना ही होती है। जब प्रेम में अपने-आपको डूबा देने की प्रक्रिया होती है, जब उसे अपने शरीर का, मन का भान भी नहीं रहता, जब अपने-आप में उन्मनी अवस्था आ जाती है, तब इसको उपासना कहते हैं। उपासना के लिए कोई पूजा, कोई मंत्र-जप, कोई अनुष्ठान, कुंकुम, अक्षत, पुष्पमाला तो आवश्यक नहीं होते, ये सब तो लौकिक और गौण वस्तुएं हैं, यह अपने मन को झूठी संतुष्टि देने का प्रयास है कि हमने हार पहिनाया, हमने कुंकुम लगाई, हमने इत्र छिड़का, हमने पूजा की, यह तो केवल अपने-आप को भुलावा देना है। हमारा मूलभूत तथ्य तो उसके पास जाना है, वह चाहे भगवान हो, वह चाहे प्रेमी हो, वह चाहे गुरु हो।

       आप जिस तरीके से भी उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखते हुए, उनके मन के अनुकूल, अपने को ढाल देने की जो क्रिया करते हैं, उसको उपासना कहते हैं, और ऐसी उपासना से वह सब कुछ प्राप्त हो जाता है, जो उसकी इच्छा-आकांक्षा होती है।

भक्त है, तो वह भगवानमय बन जाता है।

शिष्य होता है, तो वह गुरुमय बन जाता है।

प्रेमिका होती है, तो वह प्रियमय बन जाती है।

फिर कोई भेद नहीं रहता, फिर कोई अन्तर नहीं रहता और इस भेद, इस अन्तर को दूर करने के लिए सर्वोत्तम उपाय है, "ध्यान"। उपासना का प्रारम्भ ध्यान से ही तो होता है, जब हम शांत, स्थिर चित्त से बैठ जाएं और अपने मन में, अपने अन्दर उस लक्ष्य की, उस इष्ट की मूर्ति गढ़ें, निर्मित करें, उसको अपने अन्दर ही देखें, आंख बंद करें तो वह अन्दर ही दिखाई दे -

"अंखियन की करि कोठरी पुतली पलंग बिछाय,
पलकन की चिक डारि के पिय को लिया रिझाय"

योगिनी तन्त्र में मांस का अर्थ नमक तथा अदरक बताया है-

मांसं मत्स्यं नु सर्वेषा लवणाद्रकमीरितम् ।

अर्थात् जहाँ पर भी शास्त्रों में मांस खाने या देवताओं को चढ़ाने का विधान आया है, वहाँ पर नमक और अदरक को मिला कर चढ़ाना ही मांस का भोग लगाना है। 'कुलार्णव तन्त्र' में भी मांस के स्थान पर नमक और अदरक का ही विधान बताया है-

मा शब्दाद् रसना ज्ञेया संदशान् रसनाप्रियान्। एतद यो भक्षये देवि सएंवा धक ।।

अर्थात् मांस का तात्पर्य रसना प्रिय इन्द्रियाँ हैं। इसका तात्पर्य उन पर नियंत्रण प्राप्त करना है। अर्थात् रसना प्रिय इन्द्रियों का परित्याग कर जो संयमित जीवन व्यतीत करता है, वही वास्तव में मांस साधक योगी है। पापी रूपी पशु को ज्ञान रूपी खड्ग से मार कर जो योगी मन को चित्त में लीन कर लेता है, वही सही अर्थों में मांसाहारी है।

कुलार्णव तन्त्र' में मद्य की सही व्याख्या की गई है। वहाँ पर नारियल के पानी को मद्य कहा गया है।

ब्रह्मस्थानसरोजपात्रलसिता ब्रह्माण्डतृप्तिप्रदा या शुभ्रांशुकलासुधाविगलिता सापान योग्यासुरा ।।
सा हाला पिबतामनर्थफलदा श्रीदिव्यभावाश्रिताः।
वापीत्वा मुनयः परार्थकुशला निर्वाण मुक्तिगताः ।।

अर्थात् सिर के मध्य में जो सहस्रार पद्मदल कमल हैं, उसमें अमृत रूपी चन्द्रमा की कला के समान मधुर अमृतमय शराब या हाला भरी हुई है। इसको पीने से अर्थात् सहस्रार को जाग्रत करने से साधक की सारी इच्छाएं फलदायक हो जाती हैं, वह दिव्य हो जाता है और मृत्युभय से मुक्त होकर पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

तन्त्र शास्त्र में मत्स्य का विधान कई स्थानों पर आया है, भ्रष्ट तांत्रिकों ने इसका तात्पर्य मछली भक्षण कहा है। जबकि सम्पूर्ण तन्त्र साहित्य में ऐसा विधान नहीं है। योगिनी तन्त्र' में कहा है कि मत्स्य का तात्पर्य मूली और बैंगन को प्रसाद के रूप में चढ़ाना या भक्षण करना ही मत्स्य भक्षण है। इसी योगिनी तन्त्र में आगे कहा है नमक का सेवन करना ही मत्स्य सेवन है।

अहंकारो दम्भो मदपिशुनतामत्सरद्विषः ।
षडेतान् मीनान वै विषयहरजालेनविवृतान् ।।
पचन् सिव्दिवानो नियमितकृतिर्थीवरकृतिः ।
सदा खादेत् सर्वांन्न च जलचराणां कुपिशितम् ।।

अर्थात् अहंकार, दम्भ, मद, पिशुनता, मत्सर, द्वेष-ये छः मछलियाँ हैं। साधक बुद्धिमत्तापूर्वक वैराग्य के जाल में इनको पकड़े और सद्विद्या रूपी अग्नि पर पका कर खावे तो निश्चित रूप से मुक्ति होती है।

कलार्णव तन्त्र में कहा गया है। पंच मुद्राओं का ज्ञान गुरु मुख से ही समझना चाहिए। मुद्रा का तात्पर्य है कच्चा चावल या धान। उपासना और साधना में अपने आन्तरिक भावों को व्यक्त करने के लिए बाह्य शरीर से जो भाव भंगिमाएं दिखाते हैं, उन्हीं ही 'मुद्रा' कहते हैं, वे मुद्राएं आन्तरिक भावों की अभिव्यक्ति है, इसके माध्यम से ही साधक अपने इष्ट देवता से बात-चीत करता है।

मैथुन का तात्पर्य देवताओं को सुन्दर पुष्पों का समर्पण है। सामान्य भाषा में स्त्री और पुरुष के मिलन को मैथुन कहा गया है, पर तन्त्र की परिभाषा में इसका तत्पर्य हाड़-मांस वाले स्त्री-पुरुष नहीं हैं। यहां स्त्री से तात्पर्य कुण्डलिनी शक्ति है, जो मूलाधार में सोयी हुई रहती है और जो शक्ति स्वरूपा है। सहस्रार में शिव का स्थान है, इस शिव और शक्ति का मिलन ही वास्तविक मिलन अथवा मैथुन कहा गया है।