Follow us for Latest Update

सर्वयन्त्रमन्त्र तन्त्रोत्कीलन विधि ।।

     ॐ अस्य श्री सर्व यन्त्र तन्त्र मन्त्रणाम् उत्कीलन मंत्र स्तोत्रस्य मूल प्रकृति ऋषिये जगतीछन्द: निरंजनो देवता कलीं बीज,ह्रीं शक्ति , ह्रः लौ कीलकम , सप्तकोटि यंत्र मंत्र तंत्र कीलकानाम संजीवन सिद्धियर्थे जपे विनियोग:।

                  ।।अंगन्यास।।

ॐ मूल प्रकृति ऋषिये नमः सिरषि।
ॐ जगतीचछन्दसे नमः मुखे।
ॐ निरंजन देवतायै नमः हृदि।
ॐ क्लीं बीजाय नमःगुह्ये।
ॐ ह्रीं शक्तिये नमः पादयो:।
ॐ ह्रः लौं कीलकाय नमः सर्वांगये।

                 ।।करन्यास।।

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ ह्रीं अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ ह्रैं तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ ह्रौं कनास्तिकाभ्यां नमः।
ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

                 ।।ह्रदयन्यास।।

ॐ ह्रां हृदयाय नमः।
ॐ ह्रीं शिरषे स्वाहा।
ॐ ह्रूं शिखायै वषट्।
ॐ ह्रैं कवचाय हूं।
ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ ह्र: अस्त्राय फट्।

                 ।।ध्यानम्।।

ॐ ब्रह्मा स्वरूपममलं च निरंजन तं ज्योति: प्रकाशमनिशं महतो महान्तम। कारुण्यरूपमतिबोधकरं प्रसन्नं दिव्यं स्मरामि सततं मनुजावनाय।।१ 

एवं ध्यात्वा स्मरेनित्यं तस्य सिद्धि अस्तु सर्वदा,वांछित फलमाप्नोति मन्त्रसंजीवनं ध्रुवम।।२

मन्त्र:-ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं सर्व मन्त्र-यन्त्र-तंत्रादिनाम उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।।

                      ।। मूलमंत्र ।।

ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रां षट पंचक्षरणां उत्कीलय उत्कीलय स्वाहा।।
ॐ जूं सर्व मन्त्र तंत्र यंत्राणां संजीवनं कुरु कुरु स्वाहा।।
ॐ ह्रीं जूं अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋ लृ लृ एं ऐं ओं औं अं आ: कं खं गं घं ङ चं छं जं झं ञ टँ ठं डं ढं नं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं हं क्षं मात्राक्षराणां सर्वम् उत्कीलनं कुरु स्वाहा।

ॐ सोहं हं सो हं (११ बार)
जू सों हं हंसः ॐ ॐ(११ बार), 
ॐ हं जूं हं सं गं (११ बार),
सोहं हं सो यं (११ बार),
लं(११ बार), 
ॐ (११ बार),
यं (११ बार),

ॐ ह्रीं जूं सर्व मन्त्र तन्त्र यंत्र स्तोत्र कवचादिनां संजीवय संजीवनं कुरु कुरु स्वाहा। 
ॐ सो हं हं स: जूं संजीवनं स्वाहा।
ॐ ह्रीं मंत्राक्षराणं उत्कीलय उत्कीलनं कुरू कुरु स्वाहा।

ॐ ॐ प्रणवरूपाय अं आं परमरूपिणे।
इं ईं शक्तिस्वरूपाय उं ऊं तेजोमयाय च।।१।।

ऋं ॠं रंजित दीप्ताये लृं ॡं स्थूल स्वरूपिणे।
एं ऐं वांचा विलासाय ओं औं अं अ: शिवाय च।।२।।

कं खं कमलनेत्राय गं घं गरुड़गामिने।
ङ चं श्री चंद्रभालाय छं जं जयकराय ते।।३।।

झं टं ठं जय कर्त्रे डं ढं णं तं पराय च।
थं दं धं नं नमस्तस्मै पं फं यंत्रमयाय च।।४।।

बं भं मं बलवीर्याय यं रं लं यशसे नमः।
वं शं षं बहुवादाय सं हं लं क्षं स्वरूपिणे।।५।।

दिशामादित्यरूपाय तेजसे रूप धारिणे।
अनन्ताय अनन्ताय नमस्तस्मै नमो नमः।।६।।

मातृकाया: प्रकाशायै तुभ्यं तस्मै नमो नमः।
प्राणैशायै क्षीणदायै सं संजीव नमो नमः।।७।।

निरंजनस्य देवस्य नामकर्म विधानत:।
त्वया ध्यातं च शक्तया च तेन संजायते जगत्।।८।।

स्तुताहमचिरं ध्यात्वा मयाया ध्वंस हेतवे।
संतुष्टा भार्गवाया हं यशस्वी जायते हि स:।।९।।

ब्राह्मणं चेत्यन्ति विविध सुरनरां स्तर्पयंती प्रमोदाद्,
ध्यानेनोद्दीपयन्ती निगम जपमनुं षटपदं प्रेरयंती।
सर्वांन देवान जयंती दितिसुतद मनी साप्यहंकार मूर्तिस्तुभ्यं तस्मै च जाप्यं स्मररचितमनुं मोचये शाप जालात।।१०।।

इदं श्री त्रिपुरस्तोत्रं पठेद् भक्त्या तू यो नर:।
सर्वान कामानवाप्नोति सर्वशापाद विमुच्यते।।११।।

।।इति श्री सर्व यन्त्र मन्त्र तंत्रोत्कीलनं सम्पूर्णम।। 

          हिंदू मन्त्र तन्त्र और यन्त्र सभी भगवान आशुतोष द्वारा कीलित कर दिए गए थे ताकि उनका कलयुग में दुरुपयोग न हो यही इसका मूल कारण था। यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र उत्कीलन का यह प्रयोग किसी भी जप/साधना को करने से पहले आप इस स्तोत्र का एक बार अनुष्ठान अवश्य करें।

शास्त्रोक्त सूर्य पूजन ।।


         भगवान भास्कर को सूर्यनारायण भी कहा जाता है क्योंकि वे परमात्मा नारायण के साक्षात् प्रतीक हैं। वे पंचदेवों में से एक हैं तथा भगवान की प्रत्यक्ष विभूतियों में सर्वश्रेष्ठ, इस ब्रह्माण्ड के केन्द्र, स्थूल काल के नियामक, विश्व के पोषक, प्राणदाता तथा समस्त चराचर प्राणियों के आधार हैं। प्रत्यक्ष रूप से दिखने वाले भगवान भास्कर सभी देवों में श्रेष्ठ हैं। उनकी उपासना से साधक के तेज, बल, आयु एवं नेत्रों की ज्योति में वृद्धि होती है तथा वह पावन सूर्यलोक को प्राप्त करता है। सूर्य भगवान प्रत्यक्ष देव हैं इसलिए सनातन धर्म में उनकी उपासना पर विशेष जोर दिया गया है क्योंकि वे हमारे सभी शुभाशुभ कर्मों के साक्षी हैं। गीता में भगवान ने स्वयं कहा है कि--

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम। 
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तजो विद्धि मामकम् ॥

अर्थात जो सूर्यगत तेज समस्त जगत को प्रकाशित करता है तथा चन्द्रमा एवं अग्नि में है उस तेज को तू मेरा ही तेज जान। इससे स्पष्ट है कि परमात्मा और सूर्य ये दोनों अभिन्न है। अतः सूर्य की उपासना करने वाला परमात्मा की ही उपासना करता है।

          भगवान भुवन भास्कर ही एकमात्र ऐसे देव हैं जिनके दर्शन जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रत्येक प्राणी करता है अन्य किसी भी देवता की स्थिति में कुछ सन्देह भी हो सकता है किन्तु भगवान सूर्य की सत्ता में सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं है। धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान सूर्य की आराधना करके ही अक्षय पात्र प्राप्त किया था। स्वयं भगवान राम ने सूर्य उपासना के फलस्वरूप ही रावण पर विजय पायी थी इसलिए भगवान सूर्य की उपासना के बिना जीवन निरर्थक है। हम यहाँ भगवान भास्कर के पूजन की विधि का वर्णन कर रहे हैं जिसे सम्पन्न कर इस लोक में समस्त सुखों का भोग करते हुए पावन सूर्य लोक को प्राप्त कर सकें।

         पूजन विधि से पूर्व कुछ महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख यहाँ आवश्यक है ताकि उन नियमों का पालन कर अभीष्ट सिद्धि का मार्ग सुलभ हो जाय। सूर्य उपासक को चाहिए वह प्रतिदिन सूर्योदय के पूर्व शय्या त्याग दे तथा शौच स्नान आदि से निवृत्त होकर भगवान सूर्य को अर्ध्य देकर प्रणाम करे तथा प्रतिदिन सूर्य के 21 नाम 108 बार या 12 नामों वाले स्तोत्र का पाठ करें। सूर्य सहस्त्रनाम और आदित्य हृदय का प्रतिदिन पाठ समस्त सिद्धियों को देने वाला है। साधक को चाहिए कि वह रविवार को तेल, नमक, अदरक आदि का सेवन न करे और न ही किसी को खिलाए तथा हविष्यान्न खाकर रहे और ब्रह्मचर्य का पालन करे।

पूजन विधि

साधक को चाहिए कि वह स्नानादि नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर पूजा स्थल में बैठे। अपने सम्मुख चौकी पर सूर्य यंत्र या सूर्य चित्र स्थापित कर लें। यदि भगवान भास्कर की प्रत्यक्ष साधना करनी है तो घर से बाहर किसी स्थान पर जहाँ से सूर्य भगवान स्पष्ट दिखाई दें वहाँ पर भूमि को गाय के गोबर से लीपकर वहीं आसन लगाकर बैठें। पूजन के लिए आवश्यक समस्त सामग्री सिन्दूर, अक्षत, कुंकुम, पुष्प, धूप, दीप, चंदन, वस्त्र,यज्ञोपवीत, दूध, दही, पंचामृत आदि अपने पास रख लें। 

पवित्रीकरण

निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए बायें हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की अंगुलियों से अपने ऊपर तथा पूजन सामग्री पर छिड़कें।
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। यह स्मरेत पुण्डरीकाक्ष स बाह्यभ्यंतरः शुचिः ॥

आचमन
आचमनी में जल लेकर तीन बार पियें तथा क्रमश: निम्न मंत्रों का उच्चारण करें।

ॐ केशवाय नमः ।
ॐ माधवाय नमः।
ॐ गोविन्दाय नमः।
आचमन के उपरांत हस्त प्रक्षालन (हाथ धोना) कर लें। एवं निम्न मंत्र से शांतिपाठ करें।

ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः ॥

तदनन्तर संकल्प कर सूर्य नारायण का निम्नलिखित पूजन विधि से षोडशोपचार पूजन करें।

संकल्प

ॐ तत्सत् । ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः । ओमद्यैतस्य ब्राह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तेक देशान्तर्गते पुण्यस्थाने कलियुगे कलिप्रथमचरणे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुक वासरे श्री सूर्यनारायणप्रीतये भगवतः श्रीसूर्यस्य पूजनमहं करिष्ये ।
अमुक के स्थान पर क्रमश: संवत, माह, पक्ष, तिथि व दिन का नाम लें।
              इस प्रकार संकल्प कर हाथ में पुष्प लेकर श्री सूर्यनारायण का ध्यान करें।

ध्यान मंत्र

रक्ताम्बुजासनमशेषगुणैक सिन्धुं भानुं समस्तजगतामधिपं भजामि । 
पद्मद्वयाभयवरान् दधत: कराब्जै र्माणिक्यमौलिमरुणाङ्गरुचिं त्रिनेत्रम् ॥

आवाहन मंत्र
हाथ में अक्षत लेकर मंत्र बोलें

ॐ देवेश भक्तिसुलभ परिवारसमन्वित । यावत् त्वां पूजयिष्यामि तावद् देव इहावह ॥ ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीसूर्यनारायणाय नमः । श्रीसूर्यनारायणमावाहयामि । श्रीसूर्यनारायण इहागच्छ इह तिष्ठ स्थापयामि पूजयामि च।।
सूर्य नारायण को नमस्कार करके आवाहन करें और अक्षत छोड़ दें।

पाद्य मंत्र
आचमनी से जल लेकर दो बार भगवान सूर्य को अर्पित करे

ॐ यद् भक्तिलेशसम्पर्कात् परमानन्दसम्भवः 
तस्मै ते चरणाब्जाय पाद्यं शुद्धाय कल्पये ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, पाठ्योः पाद्यं समर्पयामि।
उक्त मंत्र से मूर्ति के चरणों में पाद्य समर्पित करें।

अर्ध्य मंत्र

ॐ तापत्रयहरं दिव्यं परमानन्दलक्षणम् तापत्रयविमोक्षाय तवार्ध्वं कल्पयाम्यहम्। 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः हस्तयोरर्घ्यं समर्पयामि ।।
उक्त मंत्र से अर्ध्य समर्पित करें

आचमन मंत्र

ॐ उच्छिष्टोऽप्यशुचिर्वापि यस्य स्मरणमात्रतः । शुद्धिमाप्नोति तस्मै ते पुनराचमनीयकम् ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, शुद्धम् आचमनीयं समर्पयामि।।
उक्त मंत्र से आचमन के लिये जल समर्पित करें

स्नान मंत्र

ॐ गङ्गासरस्वतीरे वापयोष्णीनर्मदाजलैः । 
स्त्रापितोऽसि मया देव तथा शांतिं कुरुष्व मे ॥ 
ॐ भूर्भुव: स्व: श्रीसूर्यनारायणाय नमः, स्नानं समर्पयामि।
उक्त मंत्र से स्नान के लिये जल समर्पित करें।

वस्त्र मंत्र

ॐ मायाचित्रपट च्छन्ननिजगुह्यो रु तेजरो । निरावरणविज्ञानवासस्ते कल्पयाम्यहम् ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय रक्तवस्त्रं समर्पयामि।

उक्त मंत्र से लाल रंग के वस्त्र समर्पित करें। आचमनीयं समर्पयामि इस वाक्य से तीन बार जल छोड़ें। (वस्त्र के बाद आचमन देना चाहिए।)

उपवस्त्र यज्ञोपवीत मंत्र

ॐ नवभिस्तन्तुभिर्युक्तं त्रिगुणं देवतामयम् । उपवीतं चोत्तरीयं गृहाण परमेश्वर ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, उत्तरीयं यज्ञोपवीतं च समर्पयामि।
उक्त मंत्र से वस्त्र और यज्ञोपवीत उत्तरीय समर्पित करें।

आभूषण मंत्र

स्वभावसुन्दराङ्गाय सत्यासत्याश्रयाय ते । 
भूषणानि विचित्राणि कल्पयामि सुरार्चित ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, भूषणानि समर्पयामि।
उक्त मंत्र से आभूषण अर्पित करें।

गन्ध मंत्र

श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम् । 
विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, चन्दनं समर्पयामि।
उक्त मंत्र से चन्दन चढ़ायें। (यहाँ अङ्गुष्ठ तथा कनिष्ठिका के मूल को मिलाकर गन्धमुद्रा दिखानी चाहिए।)

अक्षत मंत्र

अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुङ्कुमाक्ता: सुशोभिताः ।
 मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वर ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, अक्षतान् समर्पयामि।
उक्त मंत्र से अक्षत चढ़ायें। (अक्षत सभी अंगुलियों को मिलाकर देना चाहिए।)

पुष्प एवं पुष्पमाला मंत्र

माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो । मयाऽऽनीतानि पुष्पाणि गृहाण परमेश्वर ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, पुष्पाणि पुष्पमाल्यं च समर्पयामि।
उक्त मंत्र से पुष्प और पुष्प की माला चढ़ायें। (तर्जनी अंगुष्ठ मिलाकर पुष्पमुद्रा दिखानी चाहिए।)

धूप मंत्र

वनस्पतिरसोद्भूतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः । 
आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, धूपमाघ्रापयामि।

उक्त मंत्र से धूप दिखायें। (तर्जनी मूल तथा अंगुष्ठ के संयोग से धूप मुद्रा बनती है। नाभि के सामने धूप दिखाकर उसे भगवान सूर्य के बायीं ओर रख देना चाहिए।)

दीप मंत्र

सुप्रकाशो महादीप सर्वतस्तिमिरापहः । 
स बाह्याभ्यन्तरज्योतिर्दीपोऽयं प्रतिगृह्यताम ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, दीपं दर्शयामी
उक्त मंत्र से दीपक दिखायें।

नैवेद्य मंत्र

सत्पात्रसिद्धं सुहविर्विविधानेक भक्षणम् । 
निवेदयामि देवेश सानुगाय गृहाण तत् ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, नैवेद्य निवेदयामि।
उक्त मंत्र से नैवेद्य निवेदन करें। (अंगुष्ठ एवं अनामिकामूल के संयोग से ग्रासमुद्रा दिखानी चाहिए।)

जल समर्पण मंत्र

नमस्ते देवदेवेश सर्वतृप्तिकरं परम् । परमानन्दपूर्ण त्वं गृहाण जलमुत्तमम् ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, पानीयं समर्पयामि।
उक्त मंत्र से पीने के लिये जल अर्पण करें।

आचमन मंत्र

उच्छिष्टोऽप्यशुचिर्वापि यस्य स्मरणमात्रतः । 
शुद्धिमाप्नोति तस्मै ते पुनराचमनीयकम् ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, नैवेद्यान्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि।
उक्त मंत्र से आचमन करने के लिये फिर जल अर्पित करे।

ताम्बूल मंत्र

पूगीफलं महद्दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम् । 
एलाचूर्णादिकैर्युक्तं ताम्बूलं प्रति गृह्यताम् ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, ताम्बूलं समर्पयामि।
उक्त मंत्र से पान चढ़ायें।

फल मंत्र

इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव । 
तेन में सुफलावाप्तिर्भवेजन्मनि जन्मनि ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, फलं समर्पयामि।
इस उपरोक्त मंत्र से फल अर्पित करें।

आरार्तिक मंत्र

कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं च प्रदीपितम्। 
आरात्रिकमहं कुर्वे पश्य मे वरदो भव ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, आरात्रिकं समर्पयामि।
उक्त मंत्र से कर्पूर की आरती दिखायें।

प्रदक्षिणा मंत्र

यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि वै । तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे ।
उक्त मंत्र को पढ़ते हुए भगवान सूर्य का सात बार प्रदक्षिणा करें।

पुष्पाञ्जलि मंत्र

नानासुगन्धपुष्पाणि यथाकालोद्भवानि च । 
पुष्पाञ्जलिं मया दत्तं गृहाण परमेश्वर ॥ 
ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीसूर्यनारायणाय नमः, पुष्पाञ्जलिं समर्पयामि।
उक्त मंत्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित करें। आदित्य हृदयदे स्तोत्रों से स्तुति करें।

प्रार्थना नमस्कार मंत्र

जपाकुसुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम् । 
ध्वान्तारिं सर्वपापघं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम् ॥
उक्त मंत्र को पढ़कर भगवान सूर्य को नमस्कार करें।

श्री सूर्यनाम मंत्र

।। ॐ श्रीसूर्याय नमः।।
इस मंत्र का जप करें। निम्न मंत्र का भी जप क्रिय जा सकता है।
।। ॐ ह्रीं घृणिः सूर्य आदित्यः ॐ।।

                          शिव शासनत: शिव शासनत:

सूर्य तत्व ।।

    परम ब्रह्म ने गोचर- अगोचर, द्वैत-अद्वैत जीवों की श्रृंखला के रूप में अपने ही प्रतिबिम्ब तैयार कर दिए हैं। विशेषकर मनुष्य की रचना तो परम ब्रह्म ने ठीक उसी प्रकार की है जिस प्रकार वह स्वयं है। अपने सभी गुणों को उन्होंने मनुष्य में उतार कर रख दिया है। उसने अपनी नियंत्रात्मक, विध्वंसात्मक, सृजनात्मक, यंत्रात्मक, मंत्रात्मक, संचारात्मक इत्यादि इत्यादि सभी शक्तियों को मनुष्य में स्थापित कर दिया है। मनुष्य ही परम ब्रह्म है इसमे कोई भी संदेह नहीं है। उसने मनुष्य को बुद्धि भी दे दी, ज्ञान भी दे दिया, तर्क भी दे दिया और तो और एक से अनेक होने की ब्रह्म विद्या भी दे दी। यह अत्यंत ही दुर्लभ विद्या है। किसी भी वस्तु से मनुष्य संयोग कर सकता है, योग कर सकता है और कुछ भी वह निर्मित कर सकता है। कहीं भी वह गमनशील हो सकता है। जैसा चाहै वैसा वह जब धारण कर सकता है। 

       ईश्वर की प्रत्येक शक्ति को वह आत्मसात करने में सक्षम है। समस्त ब्रह्माण्ड की क्रियाओं, समस्त नक्षत्रों, उल्काओं, चन्द्रमाओं और सूर्य के प्रतिबिम्ब मनुष्य में मौजूद हैं। वो स्वयं में जीता जागता परम ब्रह्म है। मनुष्य परम ब्रह्म क्यों है? मनुष्य परम ब्रह्म इसलिए है क्योंकि उसके अंदर ईश्वर का स्थापत्य है। परम ब्रह्म रहस्य ने मनुष्य जैसी दुर्लभ कृति को निर्मित तो कर दिया पर उसने सोचा कि एक न एक दिन प्रत्येक मनुष्य मुझे ढूढ़ेगा। मेरा पता पाना चाहेगा, वह जानना चाहेगा कि मेरा रचयिता कौन है ? कौन है मेरा परम पिता? प्रत्येक पुत्र अपने पिता का नाम जानना चाहता है। यह उसका सार्वभौमिक अधिकार है। बस यही सोचकर परम ब्रह्म मनुष्य के हृदय कमल में स्थापित हो गये हृदय ही सूर्य है। अब मनुष्य उन्हें ढूंढ़ता है मंदिरों में शक्ति पीठों पर, पूजा घरों में, ब्रह्माण्ड में इत्यादि इत्यादि परन्तु पिछले अरबों वर्षों में कोई भी मनुष्य परमात्मा को बाहर नहीं दृढ़ पाया है। बाहर जब नहीं ढूढ़ पाता है तो वह निराश हो जाता है। कभी-कभी उच्चाटन की क्रिया के कारण कुछ समय के लिए नास्तिक भी बन जाता है परन्तु नास्तिक बनने से कुछ नहीं होगा समस्या का हल तो नहीं निकलेगा। 

       परमात्मा हृदय कमल में स्थित हैं अनेकों महापुरुषों ने बस इतने छोटे से रहस्य को आत्मसात कर लिया फिर उनके कदम कहीं नहीं भटके। उनके अंदर का सूर्य जागृत हो गया। आत्मा की आवाज को उन्होंने पहचान लिया। सत्य लोक ही उनका निवास स्थान हो गया। वे सूर्य से अलग नहीं हुए। सूर्य और उनके बीच की दूरी खत्म हो गई। वे स्वयं जीते जागते सूर्य बन गये। जोत से जोत मिल गई। दूसरों को प्रकाशवान करने लगे और स्वयं भी प्रकाशवान हो गये। बस इतनी छोटी सी बात है। अध्यात्म बहुत छोटा है बेवजह खींचतान कर लम्बा कर दिया जाता है। छोटा सा भेदन है परमात्मा तक पहुँचने के लिए। इस भेदन के लिए किसी सुई या छुरी कांटे की आवश्यकता नहीं है। यह भेदन तो वैसे भी हो जाता है जैसे कि परम ब्रह्म, परम आदि देव सूर्य की किरणें समुद्र तट पर पड़े हुए कछुओं के अण्डों का भेदन कर उनमें से नवीन जीवन की रचना कर देते हैं। समुद्री जीव तट निर्जन स्थानों पर अपने अण्डे छोड़कर पुन: समुद्र के जल में चले जाते हैं। सब कुछ परम ब्रह्म के ऊपर डाल देते हैं पूर्ण निष्ठा के साथ, पूर्ण समर्पण के साथ। ऐसी स्थिति में परम ब्रह्म स्वयं ही सब कुछ कर देते हैं। यह बहुत बड़ी बात है। 

          ऐसे भी जीव हैं जो मनुष्य से कई अरब गुना ज्यादा आध्यात्मिक सत्य को पहचानते हैं। वे अपने अण्डे नहीं सेते हैं। परम ब्रह्म सूर्य की रश्मियों पर सवार हो उन जीवों की आने वाली पीढ़ी तक पहुँचते हैं, उन्हें संस्कारित करते हैं, उन्हें भोजन प्रदान करते हैं, उनका विकास करते हैं और उन्हें इतनी जीवन शक्ति दे देते हैं कि वे स्वयं ही खोल फाड़कर चलने-फिरने लगते हैं। जब परमात्मा स्वयं देखभाल कर रहा है तो फिर भौतिक माँ-बाप गौण हो जाते हैं। विश्वामित्र ने भी सत्य को पहचान लिया उनके अंदर भी सूर्य का उदय हुआ। वे स्वयं सूर्य बन गये। गायत्री मंत्र कुछ भी नहीं मात्र सूर्य की उपासना है क्योंकि सूर्य ही सब कुछ देता है। सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं प्रतिदिन आप उनके दर्शन कर सकते हैं। आपकी सभी इन्द्रिया सूर्य को महसूस कर सकती हैं। आदि ज्योति हैं वह एवं उन्हीं से सभी ज्योतियां निकली हैं। उन्हीं में सभी ज्योतियां विलीन हो जाती हैं। इस सृष्टि को यंत्र मय रूप से चलाने वाले आदि देव कितने दिव्य हैं इसका वर्णन ही नहीं किया जा सकता। 

        सूर्य का क्या वर्णन करूं सब कुछ प्रत्यक्ष है, सब कुछ सामने दिखाई पड़ रहा है। अनंत वर्षों से सब कुछ वही रच रहे हैं वही मिटा रहे हैं और वही चला रहे हैं। जब सभी कुछ प्रत्यक्ष हैं तो फिर अप्रत्यक्ष कहां बचा प्रत्यक्ष का वर्णन करना निरी मूर्खता के अलावा क्या है? द्वैत और अद्वैत सब कुछ बकवास हैं। सोच एवं विचार धारा सूर्य को आत्मसात किए व्यक्ति के सामने ओछी क्रियायें हैं। चार फुट के आदमी ने साढ़े पांच फुट के आदमी को देखकर कहा अरे यह कितना लम्बा है। सवा छः फुट के आदमी ने साढ़े पांच फुट के आदमी को देखकर कहा इसकी लम्बाई कितनी कम है। साढ़े पाँच फुट के आदमी ने साढ़े पाँच फुट वाले से कहा अरे तुम तो मेरे बराबर हो। अब कौन बकवास कर रहा है इसका निर्णय आप ही करें। मेरे ख्याल से तो सभी सच बोल रहे हैं और उनके ख्याल से सभी बकवास कर रहे हैं। इस ब्रह्माण्ड की किसी भी क्रिया का वर्णन किसी भी घटना का वर्णन अगर मैं कर दूँ तो वह सूर्य तत्व की विवेचना के अंतर्गत ही आ जायेगा। क्यों आ जायेगा? सीधा सा कारण है सूर्य देव सभी जगह मौजूद हैं, सभी जगह वह क्रियाशील हैं, सभी जगह वह प्रसव कर रहें हैं या करवा रहे हैं। 

          एक अणु के चारों तरफ परमाणु चक्कर काट रहे हैं। सभी तत्वों की सूक्ष्म आवृत्तियों में नाभि के आस-पास इलेक्ट्रॉन, प्रोटान एक निश्चित लय में गतिशील हैं इन्होंने भी सूर्य से अपने ईर्द-गिर्द अन्य ग्रहों और उपग्रहों को चक्कर कटवाने की विद्या सीख ली है। आणविक विज्ञान, परमाणु विज्ञान, नाभिकीय विखण्डन की लीलायें सब कुछ प्रत्यक्ष रूप से सूर्य में हो रही हैं। प्रतिक्षण करोड़ों अरबों नाभिकीय विखण्डन की क्रियायें सूर्य के तल पर अनंत काल से घटित हो रही हैं। चुम्बकत्व का इतना घोरतम उत्पादन सूर्य के तल पर होता है कि उसके तल से उठने वाली अति भीषणतम ताप ज्वालायें हजारों लाखों मील ऊपर उठती हुई पुनः सूर्य के द्वारा शोषित कर ली जाती हैं। अपनी ऊर्जा के मात्र दसांश से निकलने वाली सूर्य रश्मियाँ अत्यंत ही तीव्र वेग से प्राण शक्ति को इस सौर मण्डल के प्रत्येक कण तक निरंतर पहुँचाती रहती हैं। सूर्य रश्मियां कुछ भी नहीं सिर्फ मार्ग है उन दिव्य यानों का जिन पर सवार होकर प्राण शक्ति अनंत प्रकार के गुणों से युक्त हो प्रत्येक लोक, ग्रह एवं उपग्रह तक पहुँचती रहती है। सूर्य की रश्मियां एक मार्गीय नहीं है जिस मार्ग से प्राण शक्ति सभी तक पहुँचती है उसी मार्ग से पुन: बहुत कुछ वापस भी केन्द्र बिंदु तक पहुँच जाता है। यही है हवन का विधान आहुति डालने की प्रक्रिया । 

         बहुत कुछ सूर्य वापस खींच लेते हैं। वहीं पर हिसाब किताब होता है। देते ही देते जायेंगे तो फिर चल चुका काम। यह तो नकारा और निकम्मी व्यवस्था हुई। ऐसा तो आम जीवन में भी नहीं होता है। प्रबंध संचालन के छात्र अच्छी तरह जानते हैं कि ऊपर से अर्थात् कम्पनी के मालिक की तरफ से अगर मुद्रा या अन्य धन रूपी शक्ति प्राप्त होती है तो उसके बदले कार्यों की एक श्रृंखला से उत्पादित ऊर्जा पर प्रतिक्षण व्यवस्थापक नजर रखता है। वह उत्पादन रूपी व्यवस्था का नियंत्रण करता है। अनुत्पादन की स्थिति में वह व्यक्ति विशेष को हटा भी सकता है समझा भी सकता है सुधार भी सकता है, दण्ड भी दे सकता है। व्यवस्था वहीं सुचारू रूप से चलेगी जहाँ पर उत्पादन ही सबका लक्ष्य होगा अन्यथा व्यवस्था रूपी संस्था के केन्द्र में बैठे व्यक्ति पर ही सबसे प्रथम दोष मढ़ा जायेगा। वही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। उसी के निर्देश पर कर्म रूपी श्रृंखला का संचालन हो रहा था। यही कारण है कि इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक घटना के पीछे सूर्य देव ही दिखलाई पड़ते हैं उन्हीं के इशारों पर सब कुछ क्रियाशील होता है। वे ही कर्मों के संचालन एवं कमांनुसार प्रतिफल देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। 

      आध्यात्मिक दृष्टिकोण अत्यंत ही दुर्लभ है। जिसने इसे समझ लिया उसने सामंजस्य बैठा लिया ब्रह्माण्ड से अर्थात् स्वयं से अर्थात् सूर्य से एक भी अपराधी, एक भी कुकर्मी आज तक इस ब्रह्माण्ड में दण्ड से नहीं बच पाया है, एक भी हत्यारा मृत्युदण्ड की सजा से नहीं बच पाया है। जीव के बदले जीव का सिद्धांत ही सूर्य सिद्धांत है। मैं घटिया मानव निर्मित कोर्ट-कचहरी और पुलिस थाना की बात नहीं कर रहा हूँ। यह सब बकवास हैं। यहां बंद होने छूटने से कुछ भी नहीं होता है। मृत्यु के बदले मृत्यु तो निश्चित है। ऐसा न हो तो दूसरे ही क्षण कर्म श्रृंखला आबद्ध हो जायेगी। आप कुकर्मी हो जायेंगे। सत्य लोक का नाश हो जायेगा इस ब्रह्माण्ड में प्रत्येक जगह कुकर्म फैलने लगेगा। ऐसा इसलिए नहीं होता कि सत्य लोक मौजूद है। सूर्य प्रशिक्षण आपको निहार रहे हैं। 

अनंत प्राणी एक दूसरे को मार-काट रहे हैं, एक दूसरे का भक्षण कर रहे हैं, अनंत जीव वेदना भोग रहे हैं, कष्टों में जीवन जी रहे हैं, तड़प सबके अंदर मौजूद है कहीं न कहीं किसी न किसी प्रकार से तड़प तो झेलनी ही पड़ रही है यही है मोक्ष का मार्ग।

          जो-जो किया है उसे काटना ही पड़ेगा। सूर्य देव तप का प्रतीक है जब तक वह आपको पूरी तरह तपा नहीं लेगें, एक-एक करके आपके कर्मों को तपा- तपाकर भस्म नहीं कर देंगे आपके पाप कटेंगे ही नहीं। जब अंत में जाकर सब कुछ तप जायेगा, भुन जायेगा भगवान भाष्कर के प्रचण्ड तप में तब कहीं आप सूर्य राश्मियों के दिव्य यान पर सवार हो सूर्य मण्डल का भेदन करते हुए सत लोक में जाकर प्रतिष्ठित होगें। सौर मण्डल का भेदन इतना आसान नहीं है। कबीर सत्य लोक से आये थे सत्य वाणी बोलते थे पुनः सत्य लोक चले गये। यह हे निर्बीज साधना अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की कला गेंहूँ को धीरे-धीरे अग्नि पर तपा दो सब गुण-धर्म चले जायेंगे। सारे पाप नष्ट हो जायेंगे। सारे पुण्य परे हो जायेंगे फिर उस गेहूँ में स्थित प्राण सूर्य देव की रश्मियों पर आरूढ़ हो मुक्त हो चुके होंगे। स्वर्ग लोक से पुनः वापसी सम्भव हैं, नर्क से स्वर्ग की यात्रा की जा सकती है, देवता से मनुष्य रूप में आया जा सकता है, शिवलोक से भी पृथ्वी पर फेंके जा सकते हो, पितृ लोक में रहते हुए शांति के लिए अपने वंशजों की ओर देखना पड़ता है परन्तु सत्यलोक से वापसी सम्भव नहीं है।

       सत्यलोक में पहुँचने के लिए सूर्य के मध्य से प्राणों को गुजरना पड़ता है। प्राणों में लिङ्ग भेद के गुण तो सूर्य तक पहुँचने से कुछ समय पूर्व तक स्थित रहते हैं इसे कहते हैं आवृत्तियों का खेल आदि गुरु शंकराचार्य जी ने सूर्य भेदन कर लिया है वे सत्यलोक में स्थापित हो चुके हैं। अनेकों संत महात्मा तो स्वर्ग लोक में ही भ्रमण करते रह जाते हैं। कुछ तो इस पृथ्वी के आवरण को भी नहीं भेद पाते हैं यही सड़ते-मरते रहते हैं। अनेकों दुष्ट तांत्रिक तो वृक्षों पर उल्टे लटके रहते हैं। कर्म दण्ड के बड़े भीषण विधान है। तपाना ही सूर्य का कार्य है धीरे-धीरे सप्त शरीर तपते हैं। पंचभूतीय शरीर तो मात्र एक शरीर है। इसको अग्नि को समर्पित कर देने पर भी छः शरीर और बचते हैं। यहीं पर शुरू होती है। गुप्त पापों की गिनती। एक-एक कर हिसाब किताब चुकता किया जाता है। छः शरीर वाले प्रेत योनी पाते हैं दस दस हजार वर्ष इस पृथ्वी के वायुमण्डल में कर्म कष्ट भोगते हैं तब जाकर छ: में से पाँच शरीर पर आते हैं। ऐसा चलता रहता है। इन्हें भी तपस्या करनी पड़ती है। खूब पूजा पाठ, तप, जप इत्यादि करना पड़ता है तब कहीं जाकर इनके एक-एक शरीर कटते हैं। 

       इतना आसान नहीं है सूर्य रश्मियों के दिव्य यानों पर सवार हो सूर्य देव के निकट प्रत्यक्ष पहुँचना । अभी इस संसार में चल रहा घटिया विज्ञान कुछ कुछ इस देश में मौजूद महा विज्ञान को अब समझने लगा हैं एवं उसके सामने नत मस्तक होने लगा है सूर्य देव को विश्व नेत्र की उपाधि से भी परिभाषित किया गया है। उनकी रश्मियों के द्वारा प्रत्येक ब्रह्माण्डीय घटना उन तक पहुँचती रहती है और वहीं पर फिर घटना के अनुसार भाग्य का निर्धारण होता है वहीं पर फल एवं पारितोषिक या दण्ड निर्मित होता है। हम तक तो बस वह पहुँचा दिया जाता है उनके माध्यम से यहाँ पर कुछ भी नहीं होता है यहाँ पर अर्थात् सौर मण्डल में उपस्थित सभी गोचर एवं अदृश्य लोकों में सिर्फ भोगा या फिर कर्म काटे जाते हैं। देवताओं के कर्म बिगड़ते हैं तो उन्हें देव लोक छोड़कर भागना पड़ता है। हमारे सौर मण्डल में अनेकों लोक स्थित है एवं इन सभी लोकों के व्यवस्थापक सूर्य देव ही हैं जो इस रहस्य को समझ लेता है, इसकी सत्यता परख लेता है वह कुमार्ग को तुरंत ही त्याग देता है एवं अपने इस जीवन के साथ-साथ परालौकिक जीवन को भी सुधारने में समर्थ होता है। इसे कहते हैं परम सत्ता के सामने नमन। 

          परम सत्ता को हृदयस्थ करने का विधान एवं एक सामान्य पशु रूपीय जीवन से ब्रह्माण्डीय अस्तित्व में आने की कला फिर ऐसे महापुरुष दो हाथ वालों से नहीं मांगते हैं। वे सीधे सब कुछ परम ब्रह्म, परम प्रत्यक्ष एवं परम विद्यमान सूर्यदेव की शरण में बैठे सब कुछ उन्हीं से प्राप्त करते हैं। सूर्य विज्ञान में दक्ष होने के लिए सूर्य पुत्र बनना होगा। सूर्य ही तुम्हारा गुरु होगा, सूर्य के द्वारा ही तुम्हें सब कुछ प्राप्त करने की कला सीखनी होगी। सूर्य से ही सामन्जस्य बैठाना होगा। चौबीस घण्टे मनुष्यों से सामन्जस्य बैठाते बैठाते आप कहीं के नहीं रहे। बाप- बेटे से सामन्जस्य नहीं बैठा पाया, माँ बेटी से सामंजस्य नहीं बैठा पायी और पति-पत्नी में सामंजस्य होता ही नहीं है इसीलिए परम ब्रह्म सूर्य से सामान्जस्य बैठाना चाहिए। उनसे सामंजस्य बैठ गया तो फिर सारे जग से सामंजस्य अपने आप स्वतः ही बैठ जायेगा। 

         भाग्य दरवाजे पर आकर नाचेगा। लोग खुद ब खुद चरण स्पर्श करेंगे। सिद्धियाँ आप से मिलने के लिए कतार बद्ध होंगी। बिडम्बना यह है कि आप मनुष्य द्वारा निर्मित घड़ी के अलार्म से सामंजस्य बिठा रहे हैं। आपके शरीर की प्रत्येक कोशिका में लगी जैविक घड़ियाँ आपने बंद करके रख दी हैं। ये जैविक घड़ियां ही कुण्डलिनी शक्ति का अंश है। सब की सब पूर्व निर्धारित तरीके से भरी हुई हैं। ये सब भगवान भाष्कर के द्वारा समय-समय पर पुनः सक्रिय की जाती हैं। इन जैविक घड़ियों के अलार्म को आप सुनते ही नहीं है। इन्हें आपने देखना बंद कर दिया है इसीलिए अचानक नस फट जाती है, एक दिन अचानक किडनी खराब हो जाती है, अचानक दिल धड़कना बंद हो जाता है। मनुष्य को जीवन में बहुत कुछ करने की आवश्यकता नहीं है उसे तो बस बैठकर पुत्र रूप में ग्रहण करने की आवश्यकता है। 

           सूर्य की किरणें केवल ताप ही नहीं लाती हैं, वे तो अमृत भी लाती हैं, ज्ञान भी लाती हैं, सिद्धियाँ भी लाती हैं, मनोकामना एवं वरदान भी लाती हैं, जो कुछ आयेगा सब कुछ सूर्य लोक से ही आयेगा उन्हें चूसना एवं ग्रहण करना आना चाहिए। वेदान्त की सूक्ष्म 'आवृत्तियां कहां से आयीं? वे सब सूर्य लोक से ही आयीं हैं। वहीं पर ज्ञान रूपी तत्व तपता है, उसकी सारी अशुद्धियाँ ठीक उसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं जैसे कि सोने को तपाने से उसमें मिले अशुद्ध तत्व नष्ट हो जाते हैं और फिर वहीं विशुद्ध ज्ञान सूर्य रश्मियों के द्वारा इस ब्रह्माण्ड में प्रक्षेपित कर दिया जाता है। कालान्तर योग्य ऋषि-मुनि इन्हीं विशुद्ध ज्ञान रूपी आवृत्तियों को अपने अंदर प्रतिबिम्बित कर ठीक उसी प्रकार वेद विज्ञान की रचना कर देते हैं जैसे कि समुद्र में मौजूद अशुद्ध जल सूर्य की रश्मियों के द्वारा ऊपर खींचकर पुनः अमृत रूपी जल में परिवर्तित कर उसे वर्षा के रूप में इस पृथ्वी पर बिखेर दिया जाता है। 

     वायु के पीछे भी सूर्य की शक्ति है। ध्वनि, अग्नि, कम्पन इत्यादि के पीछे भी सूर्य देव ही छिपे हुए हैं। सूर्य देव के अनंत स्वरूप हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक उन्हें सिफ अग्नि पिण्ड मानते हैं उनके यहाँ सूर्य देव दुर्लभ है जिस दिन निकलते हैं उस दिन वे सब अति प्रसन्न हो जाते हैं। एक छोटा सा प्रयोग बताता हूँ आप किसी नास्तिक, मोटी बुद्धि के मनुष्य को दस मिनिट तक सूर्य के प्रत्यक्ष खड़ा कर दीजिए एवं उसके शरीर का तापमान ले लीजिए। मोटी बुद्धि के मनुष्य का तापमान 2 से 3 डिग्री बड जायेगा। उसे पुनः सामान्य होने में भी आधा घण्टा लग जायेगा दूसरी तरफ अगर आप किसी सूर्य उपासक को 10 मिनट तक धूप में खड़ा कर देंगे तो वह उन 10 मिनटों में अपने हाथो में लिए हुए पुष्प, फल, नैवेद्य इत्यादि से आधे घण्टे तक पूर्ण हृदय के साथ मंत्रों से सूर्य की उपासना कर लेगा। सूर्य उपासक का शरीर प्रकाशवान हो उठेगा, उसके अनेकों विकार कट चुके होंगे एवं उसका आभामण्डल दिव्य तेज से अभिमण्डित दिखाई देगा। सूर्य उपासक के शरीर का तापमान आधे घण्टे पश्चात् भी बढ़ना तो दूर सामान्य से भी ज्यादा शीतल दिखलाई पड़ेगा। इसे कहते हैं सूर्य की प्रत्यक्ष चेतना के दर्शन। 

     अनंत दूरी पर स्थित होने की स्थिति में भी उनकी चेतना हमारे विचारों के अनुसार प्रतिफल दे देती है। उनके पाँव नहीं हैं फिर भी वे प्रतिक्षण सौर मण्डल के एक कोने से दूसरे कोने तक गमन करते हैं। उनके हाथ नहीं हैं फिर भी वे सौर मण्डल के प्रत्येक कण को बांधकर रखते हैं। उनकी आँखें नहीं है फिर भी वे प्रतिक्षण प्रत्येक कण को निहारते रहते हैं। उनका मुख नहीं है फिर भी वे अनंत मुखों का भरण पोषण करते रहते हैं। अनंत मुखों से कम्पन्न उत्पन्न करते रहते हैं। वे स्वयं अनंत महापुरुषो के मुखों से वेद वाणी उच्चारित करवा देते हैं। वे आदि देव हैं। वे प्रथम पुरुष हैं। रूप क्या है? मनुष्य जीव या किसी पिण्ड की अमानत नहीं है रूप। रूप तो सूर्य प्रदान करते हैं। दिन में वृक्ष के पत्ते तक दिखाई पड़ते हैं, रंग भी आप देख सकते हैं। संध्या को आप वृक्ष की आकृति देखते हैं रंग एवं पत्ते विलीन हो जाते हैं। रात्रि में कुछ भी दिखाई नहीं देता। रात्रि में वृक्ष भेद ही असम्भव हो जाता है। कहाँ गया रूप? सूर्य ने दिया, सूर्य ने खींच लिया। जिस जीव या पिण्ड ने सूर्य की रश्मियों में से जिस रंग को अवशोषित नहीं किया बस वही उसका रंग हो गया। रंगों का निर्माण व्यक्तिगत विषय है ही नहीं। ध्वनि का स्पंदन व्यक्तिगत विषय है ही नहीं।

        प्राणों का आना-जाना जीव विशेष का विषय है ही नहीं यह सब विषय सूर्य देव के द्वारा ही संचालित होते हैं। एक बात ध्यान रखिए जो जन्म का कारक है वही मृत्यु का कारक होगा, वही पालन का कारक भी होगा। कारक एक ही होता है जन्म, मृत्यु और पोषण तीन अवस्थायें हैं। जन्म है तो पोषण है। और पोषण है तो मृत्यु भी है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों की समग्र शक्ति इस सौर मण्डल पर परम ब्रह्म सूर्य की प्रचण्डता के कारण ही संचालित होगी। सूर्य की किरणें ही जन्म देंगी बीज को, वही पोषण प्रदान करेंगी वृक्ष को, वृक्ष उन्हीं के द्वारा भोजन का निर्माण करेंगे ऐवं भोजन की श्रृंखला का प्रादुर्भाव करेंगे। जीव के अंदर मांस और मज्जा का विकास भी इसी प्रकार होता है और रक्त का विकास भी इसी प्रकार होता है। सूर्याग्नि ही अग्नि को प्रकट करती है। उसी से प्रत्येक कोशिका का जीवन निर्धारित होता है। एक निश्चित समय पश्चात् विखण्डन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इसे आप मृत्यु कह सकते हैं।

        सब जगह ताप की विभिन्न स्थितियाँ ही स्वरूपों का निर्धारण करेंगी। एक ताप पर समुद्र है तो ताप की दूसरी स्थिति पर वर्षा के बादल एवं तीसरी स्थिति पर वर्षा। ऐसे ही अनंत तापस स्थितियों में प्राण शक्ति विभिन्न स्वरूप लेकर सूर्य रश्मियों के द्वारा विभिन्न शक्तियों का पान करती रहती है। चन्द्रमा पर पड़ती सूर्य रश्मियाँ देवताओं के लिए अमृत का उत्पादन करती है। प्रत्येक ग्रह पर दिन है हर प्रकार से दूसरे ग्रह की अपेक्षा पूरी तरह भिन्न कहीं-कहीं लगातार छः महीने तक दिन है तो कहीं तीन घण्टे का ही दिन होता है। कहीं एक घण्टे का दिन है तो 23 घण्टे की रात्रि कुछ ग्रहों पर तो दस-दस वर्ष के दिन होते हैं इसीलिए उन पर प्राणों द्वारा ग्रहण किये गये शरीर भी अत्यंत ही विलक्षण हैं। सप्त शरीरों की वहाँ पर आवश्यकता ही नहीं है। उन पिण्डों की आवश्यकता ही कुछ और है। उन्हें कुछ अलग प्रकार का ताप चाहिए। वहाँ पर स्थित प्राण शक्तियों की कुछ अलग ही आवश्यकता है। यह सब योग मार्ग से समझा जा सकता है। 

        सौर मण्डल में अनेकों प्रकार के जीवन है। सौ वर्षों में विज्ञान सब कुछ समझ जायेगा। विज्ञान स्थूल दृष्टि का परिचायक है। स्थूल दृष्टि का भी विकास किया जायेगा और होना भी चाहिए। इससे अनंत मस्तिष्क सत्य के प्रति प्रतिबद्ध होंगे। दो व्यक्ति जा रहे थे एक व्यक्ति के हाथ में डण्डा था। दूसरे व्यक्ति ने पूछा पृथ्वी का केन्द्र बिन्दु कहाँ है उसने तुरंत ही अपना डण्डा भूमि पर गाड़ दिया बोला यही है पृथ्वी का केन्द्र | दूसरे को अविश्वास हुआ प्रथम व्यक्ति ने कहा अगर तुझे विश्वास नहीं है तो नाप ले इस डण्डे की सीध में चलना शुरू कर धूम फिरकर यहीं वापस आ जायेगा । व्यक्ति तत्व ज्ञानी था उसे मालुम था कि दुनिया गोल है दूसरा जहाँ से चलेंगे वहीं वापस आ जाओगे। अब गोल वस्तु का केन्द्र बिन्दु तो हर जगह है इसलिए जहाँ पालथी मारकर ध्यानस्थ हो गये वहीं परमात्मा, वहीं सूर्य देव जहाँ हवन कुण्ड बन गया आप आहुतियाँ डालने लग गये वहीं से परमात्मा स्वीकार करने लगेगा बेवजह भटकने से क्या होगा? सर्वव्याप्त, सर्वज्ञ, सर्व समर्थ, सर्व नियंत्रात्मक भगवान भास्कर बस यही समझा रहे हैं। 

          आप भी कुछ मत करो बस प्रतिदिन प्रातः काल या किसी भी समय भगवान भास्कर को मात्र एक लोटा जल उनकी तरफ मुख करके पूर्ण हृदय के साथ समर्पित करते हुए नीचे लिखे गायत्री मंत्र को 11 बार पढ़ लो । 
ॐ भूर्भुवः स्व तत्सवितुर्व रेण्यम भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् ॥

सब कुछ ठीक ठाक हो जायेगा, सब कुछ व्यवस्थित हो जायेगा। अव्यवस्था से व्यवस्था तक बढ़ने का उपाय बहुत ही छोटा है। सभी आर्य ऋषि प्रातःकाल नदी या जलाशय में स्नान करने के पश्चात् अपनी अंजुली में जल भरकर सूर्य को अर्पित करते चले आ रहे हैं एवं सब कुछ आत्मसात करते चले आ रहे हैं। अनार्य से आर्य बनने का बस इतना सा ही छोटा विधान है।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

जयन्ती भारतीय परम्परा है जन्मदिन नहीं -

हनुमान जयंती के अवसर पर कई लोग एक पोस्ट फॉरवर्ड करते हैं - "जयंती उनकी मनाई जाती है जो अब संसार में नहीं हैं? या जयंती मरे हुये लोगों की मनाई जाती है"। किसी फॉरवर्ड करने वाले से पूछिए की इस बात का क्या आधार है?

ये बात कहाँ वर्णित है?
क्या ये व्याख्या व्याकरण ग्रन्थों से ली गई है या किसी शब्दकोश में ऐसा अर्थ दिया हुआ है?
 उत्तर है कहीं नही, ऐसा मत किसी अधिकृत आचार्य का भी नहीं है। फिर यह बात कहाँ से आई? जब किसी आचार्य ने ऐसा कहा नहीं, न ही ऐसा वर्णन किसी ग्रन्थ में है, तो यह बात प्रचलित कैसे हुई? किसने प्रचारित किया, और लोग बिना जाने समझेंगे फॉरवर्ड भी करने लगे?हिन्दू धर्म में शास्त्रों और ग्रन्थों की कमी नहीं है, न व्याकरणाचार्य की कमी है न व्याकरण ग्रन्थों की। निरुक्त, निघण्टु से लेकर अमरकोश तक शब्दकोशों की भी कमी नहीं है, किन्तु दुःख की बात यह है कि इनका अध्ययन करने वालों की सबसे न्यून संख्या भी हिंदुओ की ही है। और हो भी क्यों नहीं योग्य गुरू के समक्ष शिष्य को भी योग्यता सिद्ध करनी पड़ती थी, उसके बाद लम्बे काल तक ग्रन्थों का अध्ययन आदि करके ज्ञान के अधिकारी हो पाते थे, अब तो बस व्हाट्सएप पोस्ट फोरवर्ड करो ज्ञानी बन जाओ। योग्यता, शास्त्र अध्ययन आदि का शॉर्टकट व्हाट्सएप पोस्ट। 
मेरे विचार से इस तरह के पोस्ट जानबूझकर फैलाये जाते हैं ये देखने के लिये की समाज कितना मूल से जुड़ा हुआ है या मूल से कितना विलग हो गया है। और यहां दुःख के साथ कहना है कि लोग ऐसी चीजों पर प्रश्न करने की बजाए न सिर्फ उसको आगे बढ़ाते हैं, बल्कि कोई सन्दर्भ या तथ्य मांगे तो स्वकल्पित मूर्खतापूर्ण तर्क प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि ऐसी बातों का कोई सन्दर्भ या आधार नहीं होता। मैंने भी इस अवसर पर व्याकरण ग्रंथ और शब्दकोष की परम्परा पर पोस्ट करना प्रारम्भ कर दिया है, कम से कम हम अपनी परम्परा को तो समझेंगे। इस पोस्ट के बाद मैं कुछ पोस्ट व्याकरण ग्रंथ, व्याकरण के आचार्य और शब्दकोष परम्परा पर करूंगा।
खैर बात करते हैं हनुमान जयंती और जन्मोत्सव की - हनुमान जयंती की प्रथा व्हाट्सएप पोस्ट करने वाले ज्ञानी द्वारा प्रारंभ नहीं कि गई है तो मैं शास्त्र प्रमाण या सन्दर्भ की बात करूंगा। देखते हैं शास्त्र क्या कहते हैं जयंती की जन्मोत्सव? 

वैशाखे मासि कृष्णायां दशमी मन्दसंयुता। 
पूर्वप्रोष्ठपदायुक्ता कथा वैधृतिसंयुता॥३६॥
तस्यां मध्याह्नवेलायां जनयामास वै सुतम्।
वैशाख मास में कृष्णपक्ष की दशमी को जब चन्द्रमा पूर्वप्रोष्ठ नक्षत्र में था उस दिन मध्याह्न समय पर अञ्जना ने पुत्र को जन्म दिया।

दशम्यां मन्दयुक्तायां कृष्णायां मासि माधवे। 
पूर्वाभाद्राख्यनक्षत्रे वैधृतौ हनुभानभूत्॥८५॥
माधव मास के कृष्ण पक्ष की दशमी पर, पूर्वभद्र नक्षत्र में, वैधृति योग में हनुमान् हुए।

पूर्वभाद्राकुम्भराशौ मध्याह्ने कर्कटांशके। 
कौण्डिन्यवंशे सञ्जातो हनुमानञ्जनोद्भवः॥८९॥
अञ्जना के पुत्र हनुमान् कुम्भ राशि के पूर्वभाद्रा नक्षत्र , कर्कट अंश में मध्याह्न के समय पर कौण्डिन्य वंश में जन्मे।

॥ पराशरसंहितायां हनुमज्जन्मकथनं नाम षष्ठः पटलः॥

जयन्तीनामपूर्वोक्ता हनूमज्जन्मवासरः तस्यां भक्त्या कपिवरं नरा नियतमानसाः।
जपन्तश्चार्चयन्तश्च पुष्पपाद्यार्घ्यचंदनैः धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैः फलैर्ब्राह्मणभोजनैः।
समन्त्रार्घ्यप्रदानैश्च नृत्यगीतैस्तथैव च तस्मान्मनोरथान्सर्वान्लभते नात्र संशयः॥८१॥
हनुमान् के जन्म का दिन पहले जयन्ती नाम से बताया गया है। उस दिन भक्तिपूर्वक, मन को वश मे करके, पुष्प, अर्घ्य चन्दन से, धूप, दीप से, नैवेद्य से, फलों से, ब्राह्मणों को भोजन कराने से, मन्त्रपूर्वक अर्घ्य प्रदान करने से तथ नृत्यगीता आदि से कपिश्रेष्ठ का जप, अर्चना करते हुए मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त करते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।

एको देवस्सर्वदश्श्रीहनूमान् एको मन्त्रश्श्रीहनूमत्प्रकाशः।
एका मूर्तिश्श्रीहनूमत्स्वरूपा चैकं कर्म श्रीहनूमत्सपर्या॥८२॥
हमेशा एक ही देवता हैं - हनुमान्, एक ही मन्त्र है - हनूमत्प्रकाशक मन्त्र, एक ही मूर्ति है - हनुमान् स्वरूप की, और एक ही कर्म है - हनुमान् की पूजा।

जलाधीना कृषिस्सर्वा भक्त्याधीनं तु दैवतम्।
सर्वहनूमतोऽधीनमिति मे निश्चिता मतिः॥८३॥
पूरी कृषि जल के अधीन है, देवता भक्ति के अधीन हैं, सबकुछ हनुमान् के अधीन है, ऐसा मेरा निश्चित मत है।

हनूमान्कल्पवृक्षो मे हनूमान्मम कामधुक्।
चिन्तामणिस्तु हनुमान्को विचारः कुतो भयम्॥८४॥
हनुमान् मेरे कल्पवृक्ष हैं, हनुमान् मेरी कामधेनु हैं, हनुमान् मेरी चिन्तामणि हैं, इसमें विचार करने का क्या है, भय कहाँ है?

- पराशरसंहिता में स्पष्ट रूप से जयंती लिखा हुआ है, जन्मोत्सव नहीं। कुछ और प्रसंग देखते हैं - 

जयं पुण्यं च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः --स्कन्दमहापुराण,तिथ्यादितत्त्व,

जो जय और पुण्य प्रदान करे उसे जयन्ती कहते हैं । कृष्णजन्माष्टमी से भारत का प्रत्येक प्राणी परिचित है । इसे कृष्णजन्मोत्सव भी कहते हैं । किन्तु जब यही अष्टमी अर्धरात्रि में पहले या बाद में रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो जाती है तब इसकी संज्ञा "कृष्णजयन्ती" हो जाती है --

रोहिणीसहिता कृष्णा मासे च श्रावणेSष्टमी ।

अर्द्धरात्रादधश्चोर्ध्वं कलयापि यदा भवेत् ।

जयन्ती नाम सा प्रोक्ता सर्वपापप्रणाशिनी ।।

और इस जयन्ती व्रत का महत्त्व कृष्णजन्माष्टमी अर्थात् रोहिणीरहित कृष्णजन्माष्टमी से अधिक शास्त्रसिद्ध है । यदि रोहिणी का योग न हो तो जन्माष्टमी की संज्ञा जयन्ती नहीं हो सकती--

चन्द्रोदयेSष्टमी पूर्वा न रोहिणी भवेद् यदि ।

तदा जन्माष्टमी सा च न जयन्तीति कथ्यते ॥--नारदीयसंहिता

अयोध्या में श्रीरामानन्द सम्प्रदाय के सन्त कार्तिक मास में स्वाती नक्षत्रयुक्त कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को हनुमान् जी महाराज की जयन्ती मनाते हैं --
स्वात्यां कुजे शैवतिथौ तु कार्तिके कृष्णेSञ्जनागर्भत एव मेषके ।

श्रीमान् कपीट्प्रादुरभूत् परनतपो व्रतादिना तत्र तदुत्सवं चरेत् ॥
--वैष्णवमताब्जभास्कर

कहीं भी किसी मृत व्यक्ति के मरणोपरान्त उसकी जयन्ती नहीं अपितु पुण्यतिथि मनायी जाती है । भगवान् की लीला का संवरण होता है । मृत्यु या जन्म सामान्य प्राणी का होता है । भगवान् और उनकी नित्य विभूतियाँ अवतरित होती हैं । और उनको मनाने से प्रचुर पुण्य का समुदय होने के साथ ही पापमूलक विध्नों किम्वा नकारात्मक ऊर्जा का संक्षय होता है । इसलिए हनुमज्जयन्ती नाम शास्त्रप्रमाणानुमोदित ही है --

"जयं पुण्यं च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः" --स्कन्दमहापुराण, तिथ्यादितत्त्व

जैसे कृष्णजन्माष्टमी में रोहिणी नक्षत्र का योग होने से उसकी महत्ता मात्र रोहिणीविरहित अष्टमी से बढ़ जाती है । और उसकी संज्ञा जयन्ती हो जाती है । ठीक वैसे ही कार्तिक मास में कृष्णपक्ष की चतुर्दशी से स्वाती नक्षत्र तथा चैत्र मास में पूर्णिमा से चित्रा नक्षत्र का योग होने से कल्पभेदेन हनुमज्जन्मोत्सव की संज्ञा " हनुमज्जयन्ती" होने में क्या सन्देह है ??

एकादशरुद्रस्वरूप भगवान् शिव ही हनुमान् जी महाराज के रूप में भगवान् विष्णु की सहायता के लिए चैत्रमास की चित्रा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा को अवतीर्ण हुए हैं --

" यो वै चैकादशो रुद्रो हनुमान् स महाकपिः।

अवतीर्ण: सहायार्थं विष्णोरमिततेजस: ॥

--स्कन्दमहापुराण,माहेश्वर खण्डान्तर्गत, केदारखण्ड-८/१००

पूर्णिमाख्ये तिथौ पुण्ये चित्रानक्षत्रसंयुते ॥

चैत्र में हनुमज्जयन्ती मनाने की विशेष परम्परा दक्षिण भारत में प्रचलित है ।

हनुमज्जयन्ती शब्द हनुमज्जन्मोत्सव की अपेक्षा विलक्षणरहस्यगर्भित है "

आजकल वाट्सएप्प से ज्ञानवितरण करने वाले एक मूर्खतापूर्ण सन्देश सर्वत्र प्रेषित कर रहे हैं कि हनुमज्यन्ती न कहकर इसे हनुमज्जन्मोत्सव कहना चाहिए ; क्योंकि जयन्ती मृतकों की मनायी जाती है । यह मात्र भ्रान्ति ही है ।

व्यावहारिक भाषाशास्त्र के अनुसार जयन्ती शब्द के अनेक अर्थों में दुर्गा , पार्वती , कलश के नीचे उगाए हुए जौ , पताका तथा जन्मदिन/स्थापना दिवस प्रधान हैं ।
व्याकरण की दृष्टि में
लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे इस पाणिनीय सूत्र से √जी जये धातु में शतृप्रत्यय करनेपर "जयत्" कृदन्त पद निष्पण्ण होता है और स्त्रीत्व की विवक्षा में उगितश्च सूत्र से ङीप् और शप्श्यनोर्नित्यम् से नुगागम होकर जयन्ती पद प्राप्त होता है जिसका अर्थ होगा - "जीतती हुई (स्त्री) । प्रस्तुत प्रकरण में इसका अर्थ "विजयिनी तिथि" से है ।
”जयं पुण्यं च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः” –स्कन्दमहापुराण, तिथ्यादितत्त्व
यह जयन्ती पद का शाब्दिक अर्थ है । विशेष अर्थ में यह अवतारों तथा महापुरुषों की जन्मतिथि का वाचक है । यथा , परशुराम जयन्ती , बुद्धजयन्ती , स्वामी विवेकानन्द जयन्ती आदि ।
यह जयन्ती पद रोहिणीयुता कृष्णाष्टमी के लिए रूढ भी है ।
अग्निपुराण का वचन है -
कृष्णाष्टम्यां भवेद्यत्र कलैका रोहिणी यदि ।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता उपोष्या सा प्रयत्नतः ।।
इससे जयन्ती व्रत का महत्त्व रोहिणीविरहित जन्माष्टमी से अधिक सिद्ध होता है । यदि रोहिणी का योग न हो तो जन्माष्टमी की संज्ञा जयन्ती नहीं हो सकती–

चन्द्रोदयेSष्टमी पूर्वा न रोहिणी भवेद् यदि ।
तदा जन्माष्टमी सा च न जयन्तीति कथ्यते ॥
–नारदीयसंहिता

आधुनिक काल में तो मूर्तामूर्त , जड-चेतन वस्तुओं में अन्तर किए बिना वार्षिक समारोहों को भी जयन्ती कहने की प्रथा चल पडी है - स्वर्णजयन्ती , हीरकजयन्ती आदि समारोह विभिन्न संस्थाओं के भी मनाए जाते हैं किन्तु वहाँ भी उनकी उत्पत्ति की तिथि ही गृहीत है ।
जयन्ती भारतीय परम्परा है जन्मदिन नहीं 

उन्होंने एक कथित महात्मा के जन्मदिन को भी जयंति बना दिया , ईश्वर बना रहे और तुम इतने बड़े मूर्ख हो कि हनुमान जी की “ हनुमत जयंति” को जन्मदिन लिख रहे हो ।

जयंति और जन्मदिन में अंतर नहीं समझ में आता तो “प्राकट्य” लिखो ।


जयंत का अर्थ ही जिसके जय का अंत न हो । भगवती जगदंबा दुर्गा को जयंती कहा गया है ।

जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री....

भारत के स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती या रजत जयंती या हीरक जयंती भी इसीलिये मनाई जाती है क्योकि हम इसे शुभ घटना मानते हैं ।

अब आता हूँ , जन्मोत्सव पर , तो दुनिया में जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी निश्चित है । 

हमारा सनातन आदि और अंत पर नहीं बल्कि अनादि और अनंत पर आधारित है । 

फिर से समझिए , आदि और अंत और जन्मदिन , एक अब्राहमिक व्यवस्था हैं, अनादि , अनंत और जयंती सनातनी व्यवस्था है ।

आसमानी किताब वाले क्रिसमस सबेरात मनाते हैं और अंत में दोज़ख़ का इंतिजार करते हैं । 

अनादि की व्याख्या 
“अनादि” क्या है ?

कुछ दिन पहले “ अनादि “ शब्द पर मैने आप लोगों की राय माँगी थी । मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूँ कि सनातन आर्य वैदिक धर्म में “ अनादि” का क्या अर्थ होता है और एक बार पुन: लिख रहा हूँ जिससे की आपकी दृष्टि स्पष्ट हो जाय । आप में से जिसे न मानना हो “ अनादि” की मेरी व्याख्या को वह स्वतंत्र है अपनी व्याख्या के लिए । 

मुझे यह भी पता है कि आधे लोग इसे भी एक साधारण फेसबुकिया पोस्ट के जैसे लेंगे और ध्यान से नहीं पढ़ेंगे । परन्तु जिसे भी “ अनादि” की यह व्याख्या समझ में आ गई उसे न केवल कथा समझने में सहजता होगी , बल्कि वह सनातन का एक सच्चा योद्धा बन सकेगा ।

ध्यान से समझिए । मान लीजिए आप किसी वैज्ञानिक के पास जाए । और उससे पूछे कि यह ब्रह्मांड क्या है ? तो वह आपको बिग बैंग थ्योरी बता देगा । 

आप पूछिए कि उस बिग बैंग के पहले क्या था ? तो ब्लैक होल इत्यादि का उत्तर मिल जाएगा । आप पूछिए उसके पहले तो बहुत से वैज्ञानिक कह देंगे एक वैक्यूम था । आप पूछिए कि वैक्यूम कहाँ से आया , और वैक्यूम कैसे बना ? आधे घंटे केवल उसके पहले , उसके पहले करते रहिए आई आई टी वाले मूर्ख किताबी कीड़े भाग खड़े होगे ।

आसमानी किताब वालों से यह प्रश्न करेंगे तो गरदन कट जाएगी । 

बौद्धो से पूछेंगे तो वे मौन रहकर उत्तर दे देंगे । वैयाकरण और सांख्य दर्शन वाले कह देंगे कि यह अज्ञात है । हमारा धर्म “अनादि” पर आधारित है बाकी सबका ( अब्राहमिक पंथों ) प्रारंभ और अंत पर आधारित है ।

हमारे शास्त्र कहते है कि “ आदि” अनुभव का विषय ही नहीं है । आप बैठ करके सोचने लगिए , ब्रह्मांड के पहले कौन सा ब्रह्मांड था , उसके पहले ......उसके पहले तो कोई अर्थ नही निकलेगा ।

जहाँ पर “मै” है वही पर सृष्टि की उत्पत्ति होती है । अर्थात इदम रूप सृष्टि का “ अहम् “है । और जहाँ से अहम का उदय और और जहाँ पर अहम का विलय है वह “राम” है , वही परमात्मा है और वही “ अनादि” है । 

इसी सिद्धांत के आधार पर हम केवल इतिहास की दृष्टि से अपने धर्म को नही देखते । इतिहास, सूकर मुखी होता है और केवल ज़मीन में गड़ी वस्तुओं को नाक से उधेड़ता है । 

हमारी दृष्टि पौराणिक है । रामकथा या भागवत को आप केवल ऐतिहासिक दृष्टि से न देखे । 

राम का जन्म अयोध्या में त्रेता युग में हुआ पर आप रामनवमी को 12 बजे की प्रतीक्षा करते हैं, अपने आँखों से देखने की । राम और सीता सदैव अभिन्न थे । जनकपुर में विवाह के पहले भी वह एक ही थे पर आप अपने जीवन में अपनी आँखों से राम सीता का विवाह देखते हैं । आप अपनी आँखों से रावण वध देखते हैं ।  

इसीलिए कथा में आप देखेंगे कि शिव यह कथा पार्वती को भी सुना रहे हैं और स्वंयम भी सती के साथ दण्डकारण्य में सुन रहे हैं । राम, सर्वत्र हैं । राम कथा सर्वव्यापी है । 

बल क्या होता है ? 
केवल शरीर के बल को बल , संस्कृत भाषा में नही कहा जाता है ।

आप लोग कमेंट में “ जय बजरंग बली “ लिखते है । हनुमान जी को बली कहने के पीछे का रहस्य समझिए ।

इंद्रियों को संस्कृत भाषा में “ अक्ष” भी कहते है । अर्थात् , हनुमान जी का समक्ष पहली शक्ति कौन सी आई ? अक्षकुमार के रूप में आई ।

हनुमान ने इंद्रियों की शक्ति वाले अक्ष का नाश कर दिया ।

मेघनाद में इन्द्रिय बल के साथ साथ “ काम का बल” भी था । अब आप लोग यह भली भाँति जानते हैं की काम का बल भी बहुत भयानक होता है । होता नकारात्मक है पर होता भयंकर है । आप लौकिक जीवन में भी देखेगे की कोई सींक जैसा दिखने वाले ने भी बलात्कार का प्रयास किया । और वह ऐसा “ काम के बल” के कारण कर पाता है ।

हनुमान अर्थात जिसने अपने मान का हनन कर दिया हो ।

हनुमान जी , जैसा की आपको पता ही है ब्रह्मचारी थे अत: उन पर काम के बल का कोई प्रभाव तो पड़ना नहीं था और वह रावण , “जो की इंद्रिय और काम के साथ साथ , अहंकार का रूप था “ के पास पहुँच कर उसका अहंकार डिगाना चाहते थे अत: मोहपाश में बधे ।

अत: वह जो काम को अपने वश में रख सके , इंद्रिय को अपने वश में रख सके और अपने मन बुद्धि चित्त अहंकार को प्रभू के चरणों में डाल दे , वास्तव में “ बली” वही बली है । हाँ , शरीर का बल भी आवश्यक है ।

आशा है , जो लोग नए जुड़े हुए हैं उन्हें “ बल” शब्द का सनातनी अर्थ समझ में आ गया होगा ।

एक छोटी सी कथा हनुमान जी की सुनिए ।

राम-रावण युद्ध हो चुका था और आततायी रावण का बध करके आपके राम, वापस अयोध्या आ चुके थे और राजतिलक हो चुका था और भगवान सबको उपहार दे रहे थे और आभार प्रकट कर रहे थे ।

पर जब हनुमान जी की बारी आई तब भगवान राम ने कहा हनुमान जी, आपको न मैं कुछ दूँगा और न ही भविष्य में आपकी कोई भी सहायता करूँगा । 

अब चूँकि आपलोग अब्राहमिक फेथ और अंग्रेज़ों के थैंक्यू में इतना रम गए हो कि सनातन धर्म का गूढ़ तत्व समझ में ही नही आता ।

इसका अभिप्राय यह था कि कि भगवान उसको कुछ देते जिसके पास कोई कमी हो या कुछ आवश्यकता हो । और भविष्य में सहायता न करने का अभिप्राय यह था कि हे हनुमान जी मेरे उपर संकंट आया तो आपने मेरी सहायता करी पर आपके उपर ऐसा संकट कभी आए ही नहीं जिसके कारण मुझे आपको सहायता देने की आवश्यकता पड़े ।

यह तो थी भगवत कृपा ।

अब भक्ति का रूप देखिए ।

जब हनुमान जी की राम से माँगने की बारी आई तो हनुमान जी ने केवल राम की भक्ति माँग ली । बोला कि हे राम, मैं सदैव आपके बारे में सोचता रहूँ ऐसा आशीर्वाद दे दीजिए ।

अब आप ध्यान से पढ़िए । यदि आपकी राम भक्ति मे मन लगता है तो यह "फल" है , साधना नहीं । 

यदि राम से आप मुक्ति या कैवल्य माँग रहे हैं तो हनुमान जी को नहीं समझा आपने । केवल और केवल राम भक्ति में लीन हो जाईए । 

हनुमत भक्ति के इस अद्भुत स्वरूप को बाकी और रामभक्तों तक पहुँचाया जाय ।
अंत में- 

स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्ड में वेङ्कटाचलमाहात्म्य के अध्याय ३९ तथा ४० में
अञ्जना द्वारा तप किये जाने के प्रसंग में वायुदेव ने वर प्रदान किया, और उस दिन का विवरण इस प्रकार है-

मेषसंक्रमणं भानौ संप्राप्ते मुनिसत्तमाः ।।
पूर्णिमाख्ये तिथौ पुण्ये चित्रानक्षत्रसंयुते ।

सूर्य मेषराशि में तथा चित्रानक्षत्रयुक्त पूर्णिमा तिथि थी।

अगले अध्याय में व्यासजी कहते हैं कि वेंकटाद्रि तीर्थ में -

स्नानार्थं ये समायांति चित्राऋक्षसमन्विते ।। 
मेषं पूषणि संप्राप्ते पूर्णिमायां शुभे दिने ।।

मेषराशि के सूर्य में चित्रा नक्षत्र की पूर्णिमा के दिन स्नानार्थियों को पुण्य प्राप्त होता है।

कदाचित् यही कारण है कि चैत्र मास की पूर्णिमा, हनुमान् जी के जन्मदिवस के रूप में मनाई जाने लगी।

आगे के पोस्ट भारतीय व्याकरण शास्त्र और शब्दकोष की परम्परा पर होंगे, जिससे लोगों को बात और स्पष्ट हो सकेगी....

All external and internal objects are changing:

world, body, senses and mind. All changing objects appear and disappear in unchanging Awareness. When the understanding of essential nature as unchanging Awareness arises, identification with changing objects ceases. Through meditative inquiry all objects are realized to be expressions of, and therefore not separate from, unchanging Awareness. Constant abiding in this realization of the truth of Oneness reveals that everything is only an expression of unchanging Awareness...