अपने ईष्ट को प्राप्त करने के लिये एक तकनीक है शास्त्रोक्त पूजन या पूर्ण विधि-विधान से वेदोक्त, तंत्रोक्त और मंत्रोक्त पूजन इस पूजन में सभी कुछ व्यवस्थित होता है। जब जीवन व्यवस्थित हो तो फिर इस पूजन के द्वारा आप अपने ईष्ट को तत्व रूप में, शक्ति के स्वरूप में और या फिर अनुभूति के रूप में अपने आसपास महसूस कर सकते हैं। शास्त्रोक्त पूजन का विधान इसलिये है कि इससे साधक के जीवन में ईष्ट के प्रति नियमितता आये और यही नियमितता धीरे-धीरे उसके जीवन के सम्पूर्ण पक्षों को व्यवस्थित कर देगी परन्तु कभी- कभी नियमित पूजन में हृदय अर्थात अनाहत पक्ष न्यून हो जाता है जिसके कारण पूजन में उचित सफलता नहीं मिल पाती है। ध्यान रहे कि ईश्वर सभी व्यवस्थाओं से उपर है एवं व्यवस्थायें समयानुसार बदलती रहती हैं जो व्यवस्था सतयुग में अत्यधिक कारगर हैं जरूरी नहीं है कि वह व्यवस्था कलयुग में ही उतनी ही उपयोगी हो।
कुल मिला-जुलाकर पूजन पद्धति का मुख्य उद्देश्य हृदय पक्ष को जागृत करना है अर्थात प्रभु को हृदय से ही पुकारना है। मस्तिष्क के द्वारा प्रेम का सम्प्रेषण असम्भव होता है। प्रेम का संप्रेषण एकमात्र हृदय के द्वारा ही सम्भव है। दुनिया भर के मंत्र, विधि विधान, यंत्र एवं शास्त्रोक्त प्रवचन इत्यादि सब के सब कार्य हृदय की पुकार के सामने धरे रह जाते हैं। हृदय की पुकार सुन शिव चाहे किसी भी लोक में हो सब कार्य छोड़ साधक के सामने आ खड़े होते हैं। परम शिव भक्त पुष्पदंत के द्वारा भगवान शिव ने यही संदेश शिव भक्तों के सामने प्रस्तुत किया गया है। शिवोपासना में भक्ति रस का प्रादुर्भाव कराने वाले गन्धर्वराज पुष्पदंत ही हैं। द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में नर्मदा तट पर मौजूद ओंकारेश्वर तीर्थ की दीवार पर शिव महिम स्त्रोत स्पष्ट रूप से पूर्ण शुद्धता के साथ अंकित है। उनके द्वारा रचित शिव महिम स्त्रोत से अनेकों शिव मंत्रों का प्रादुर्भाव हुआ है।
अनाहत से ईश्वर का आहवान होने पर प्रत्येक शब्द एवं श्लोक प्राणमय मंत्रों में परिवर्तित हो जाते हैं और अनंतकाल तक इन स्त्रोतों के द्वारा साधक शिव सानिध्य की परम प्राप्ति करते हैं। शिव महिम स्त्रोत इतना प्रचण्ड है कि इसका श्रवण या वाचन करते ही साधक सुध-बुध खोकर सब कुछ भूल बैठता है एवं आँखों से मात्र अश्रु धारा ही बहती है और उसके आसपास की सम्पूर्ण प्रकृति शिवमय हो जाती है। अनाहत को जाग्रत करने के लिये शिव महिम स्त्रोत से बढ़कर कुछ भी नहीं है। शिव को आत्मसात करने के लिये यह स्त्रोत अति ही आवश्यक है। स्कन्ध पुराण अवन्ति खण्ड लिङ्ग महात्म के 77 वें अध्याय में गंधर्वराज पुष्पदंत के प्रादुर्भाव की कथा स्पष्ट लिखी हुई है।
प्राचीनकाल में शिनि नामक एक अत्यन्त ही धर्मात्मा ब्राह्मण हुआ करते थे, वे अयोनिज ब्राह्मण थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति के लिये वे भगवान शिव का कठोर तप करने लगे उनके तप से देवता गण क्षुब्ध हो उठे, नदियां सूखने लगी, सम्पूर्ण पर्वत हिलने लगे इस पर भगवान शिव ने प्रसन्न हो उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दे दिया। अपने वरदान को पूर्ण करने के लिये भगवान शिव ने अपने समस्त गणों को बुलाकर कहा कि तुममे से कौन पृथ्वी पर जाकर मेरे कल्प को पूरा करेगा। शिव सानिध्य छोड़कर कोई भी गण पृथ्वी पर जाने को तैयार नहीं था इन्हीं गणों के मुखिया पुष्पदंत जो कि शिव के परम प्रिय थे वे बोल उठे हे प्रभु हम आपको छोड़कर पृथ्वी लोक में जाने को तैयार नहीं हैं इस पर शिव ने क्रोधित हो उन्हें मृत्युलोक में जन्म लेने का श्राप दे डाला और इस प्रकार सीधे शिवलोक से पुष्पदंत का पृथ्वी पर प्रादुर्भाव हुआ । गंधर्वराज पुष्पदंत प्रतिदिन सुन्दर पुष्पों से भगवान शिव की प्रातः काल उपासना किया करते थे इसके लिये वे काशीराज की पुष्प वाटिका से पुष्प ले जाया करते थे। प्रतिदिन काशीराज पुष्पों को न पाकर मालियों को कठोर दण्ड दिया करते थे।
एक दिन मालियों ने उपवन के आसपास शिव निर्माल्य अर्थात वह सब कुछ जो कि शिवलिङ्ग को चढ़ाया जाता है चारों तरफ फैला दिया। जैसे ही पुष्पदंत ने शिव निर्माल्य को लांघा उनके अदृश्य होने की सिद्धि खत्म हो गई और मालियों ने उन्हें पकड़ लिया। राजा की आज्ञा से उन्हें कारावास हुआ परन्तु कारावास में जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उन्होंने अज्ञानवश शिव निर्माल्य को लांघ दिया है तब वे अत्यन्त ही व्याकुल हो भगवान आशुतोष को अश्रु पूर्ण आंखों एवं रुधे हुये गले से विलाप कर पुकारने लगे। उनके हृदय की यही पुकार शिव महिम स्त्रोत कहलाई फिर क्या था भगवान शिव साक्षात् कारागृह में प्रकट हो गये और फिर स्वयं ही अपने साथ पुनः पुष्पदंत को प्रेम पूर्वक शिवलोक ले गये।
गंधर्वराज पुष्पदंत ने ही काशी में पुष्पदंतेश्वर शिवलिङ्ग की स्थापना की थी जिसके सानिध्य में आते ही प्रत्येक संत का हृदय पक्ष जाग्रत हो जाता है संत तो क्या अधम से अधम पापी भी इस शिवलिङ्ग के सानिध्य में प्रेममयी हो जाता है। तब से लेकर आज तक शिव महिम्न स्त्रोत के द्वारा असंख्य जीवों का कल्याण हो रहा है। नीचे वही शिव महिम स्त्रोत वर्णित किया जा रहा है।
पूजन विधि -
भगवान शंकर की आराधना के लिए प्रातःकाल स्नान कर, स्वच्छ वस्त्र धारण करें। मृगचर्म या कुश के आसन पर बैठकर, शंकर भगवान की मूर्ति या प्राण प्रतिष्ठित शिव यंत्र को सामने रखें। तत्पश्चात् अक्षत, सफेद पुष्प आक के, धूप, दीप, भाँग, चन्दन, बेलपत्र, काली मिर्च आदि से पूजन करें
शिवमहिम्न स्तोत्रम् -
श्री पुष्पदन्त उवाच
महिम्न: पारन्ते परमविदुषो यद्यसदृशी, स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तद्वसन्नास्त्वयि गिरः ।
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृहन्, ममाप्येष स्तोत्रे हर ! निरपवादः परिकरः ॥
अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयो रतद्वयावृत्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषय: पदे त्वर्गचीने पतित न मनः कस्य न वचः ॥
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निमितवत स्तव ब्रह्मन् ! किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः ।
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन पुरमथन ! बुद्धिर्व्यवसिता ॥
तवैश्वर्य यत्तज्जगदुदयरक्षा प्रलयकृत त्रयीवस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुष ।
अभव्यानामस्मिन वरद ! रमणीयामरमणीं विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहै के जडधियः ॥
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।
अत्र्येश्वर्यै त्वय्यनवसन्दुस्थो हतधियः कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥
अजन्मानो लोकाः किमवयवन्तोऽपि जगता, माधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति ।
अनीशो वा कुर्याद भुवनजनने कः परिकरो, यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर ! संशेरत इमे ।।
त्रयी सांङख्यं योगः पशुमतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानाजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥
महोक्षः खट्वांङ्ग परशुरजिनं भस्म फणिनः कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति भवदभूप्रणिहितां न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ।।
ध्रुवं कश्चित्सर्व सकलमपरस्त्वध्रुवप्रिदं परौ धौब्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।
समस्तेऽप्येतस्मिन पुरमथन तैर्विस्मित इव स्तुवञ्जिहेमित्वां ना खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥
तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरि विरञ्चिर्हरिरध: परिच्छेत्तुं यातावनलमनिलस्कन्धवपुषः ।
ततो भक्ति श्रद्धाभरगुरुगृणभ्यां गिरिश ! यत स्वयं तस्थेताभ्यां तब किमनुवृत्तिर्न फलति ॥
अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं दशास्यो यदबाहूनभृतं रणकण्डूपरवशान ।
शिर: पद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबले स्थिरा यास्त्वदभक्ते स्त्रिपुरहरविस्फूर्जितमिदम् ॥
अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं बलात्कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः ।
अलभ्या पातालेऽप्यलसजलितांगुष्ठाशि सि प्रतिष्ठा त्वय्यासीदध्रुवमुपचितो मुह्यतिखल ॥
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद ! परमोच्चैरपि सती- मधश्चके बाण: परिजनविधेयत्रिभुनवनः ।
न तच्चित्रं तस्मिन वरिवसितरि त्वच्चरणयो- र्नकस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥
अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा- विधेयस्याऽऽसीद्यस्त्रिनयनविषं संहृतबतः ।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते श्रियमहो विकारोऽपि श्लोध्यो भुवनभयभंगव्यसनिनः ॥
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखा: ।
स पश्यन्नीश ! त्वामितरसुरसाधारणमभूत स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु वध्य: परिभवः ॥
मही पादाघाताद व्रजति सहसा संशयपदं पदं विष्णोर्भ्राम्यद भुजपरिवरुग्णग्रहगणम ।
मुहुर्द्यौौौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडितता जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ।।
वियदव्यापी तारागणगुणतिफेनोदगमरुचिः प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते ।
जगदद्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि त्यनेनैवोन्ने॒यं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ॥
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो रथांगे चन्द्रार्की रथचरणपाणि: शर इति ।
दोस्ते कोऽयं तृणमाडंबर विधिविधेय: क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ॥
हरिस्ते साहस्त्रं कमलबलिमाधाय पदयो र्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहरन्नेत्रकमलम ।
गतो भक्त्युद्रेक: परिणतिमसौ चक्रवपुषा त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर ! जागति जगताम ॥
ऋतौ सुप्ते जाग्रत्वमसि फलयोगे कृतुमतां क्व कर्म प्रध्वसतं फलति पुरुषाराधनमृते ।
अतस्तवां सम्प्रेक्ष्य कृतुषु फलदानप्रतिभुवं श्रुत्रौ श्रद्धां बदध्वा ढपरिकरः कर्मसुजनः ।।
क्रियादक्षो दक्षः कृतुपतिरधीशस्तनुभृता मृषीणामात्विज्यं शरणद सदस्या: सुरगणाः ।
क्रतुभ्रंषस्त्वत्तः कृतुफलविधानव्यसनिनौ ध्रुवंकर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥
प्रजानाथं नाथ ! प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषमृष्ययस्य वपुषा ।
धनुष्पाणर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ॥
स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमन्हाय तृणवत पुर: प्लुष्ट दृष्टवा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरतदेहार्धघटना दवैति त्वामद्धा वत वरद मुग्धा युवतयः ॥
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर ! पिशाचा: सहचरा श्रिचताभस्माऽऽलेपः स्त्रगतिनृकरोटीपरिकरः ।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं तथाऽपि स्मर्तॄणां वरद् ! परमं मंगलमसि ।।
मन: प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायाऽऽत्तमरुत: प्रहृष्यद्रोमाण: प्रमदसलिलोत्संगतिदृशः ।
यदालोक्याऽऽल्हादं हद इव निमज्जायामृतमये दधत्यन्तस्तत्वं किमपि यमिनस्तत्किलभवान ॥
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह स्त्वमापस्त्वं व्योमत्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।
परिच्छिन्नामेवं त्वयति परिणता बिभ्रति गिरं न विद्यस्तत्तत्वं वयमिह तु यत्वं न भवसि ॥
त्रयीं तिस्त्रो वृत्तिस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा नकाराद्यैर्वर्णी स्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृतिः ।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः समस्तं व्यस्तंत्वांशरणद ! गुणात्योमिति पदम् ॥
भवः शर्वा रुद्रः पशुपतिरथोग्र: सह महास्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम ।
अमुष्मिन प्रत्येकं प्रविचरित देव ! श्रुतिरपि प्रिया यास्मैधामने प्राणिहितनमस्योऽस्मिभवते ।।
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर ! महिष्ठाय न नमः ।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन ! यविष्ठाय च नमो ! नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नमः ॥
बहलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः ।
जनसुखकृते सत्वोद्रिक्तो मृडाय नमो नमः । प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥
कृशहरिणति चेत: क्लेशवश्यं क्व चेदं क्व च तव गुणसीमोल्लधिंनी शश्वदृद्धिः ।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधा द्वरद ! चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ॥
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानामीश पारं ! नयाति ॥
असुरसुरमुनीन्द्रं रचितस्येन्दु मौले ग्रंथितगुणमहिम्नो निर्गुणास्येश्वरस्य ।
सकलगुणवरिष्ठ: पुष्पदन्ताभिधानो रुचिरमलघुवृ त्तैऽस्तोत्रमेतच्चकार।।.
अहरहरनवयं घूर्जटे: स्तोत्रमेतत पठति परमभक्तया शुद्धचित्त: पुनमान्यः ।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कीतिमांश्च ॥
महेशान्नपरो देवो महिम्नो नापरा: स्तुतिः ।
अघोरान्नपरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम ॥
दीक्षा दानं तपस्तीर्थ ज्ञानं योगादिकाः क्रिया: । महिम्नस्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम ।।
कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराज: शशिधर वर मौलेर्देवदेवस्य दासः ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् स्तवनमिदमकार्षीद्दिव्यदिवयं महिम्नः ॥
सुरवरमुनिपूज्यं पठति यदि मनुष्य: प्राञ्जलिर्नान्यचेताः । ब्रजति शिसमीपं किन्नरैः स्तूयमान:स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥
आसमाप्तमिदं स्त्रोतं पुष्पगन्धर्वभाषितम अनौपम्य मनोहारि पुण्यमीश्वरवर्णनम ।।
इत्येषा बाङमयी पूजा श्रीमच्छंकरपादयोः ।
अपिता तेन में देव: प्रीयतां च सदाशिवः ।।
तव तत्त्वं न जानामि कीशोऽसि महेश्वर यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेत सदा । सर्वपापविनिर्मुक्त: शिवलोकं स गच्छति ॥
श्री पुष्पदन्तमु खपंक जनिर्गतेन स्त्रोतेण किल्वषहरेण हरप्रियेण ।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन, सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥
शिव शासनत: शिव शासनत: