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​​“One should try to understand the distress of accepting birth, death, old age and disease.

There are descriptions in various Vedic literatures of birth. In the Srimad-Bhagavatam the world of the unborn, the child's stay in the womb of the mother, its suffering, etc., are all very graphically described. It should be thoroughly understood that birth is distressful. 

Because we forget how much distress we have suffered within the womb of the mother, we do not make any solution to the repetition of birth and death. Similarly at the time of death, there are all kinds of sufferings, and they are also mentioned in the authoritative scriptures. These should be discussed. 

And as far as disease and old age are concerned, everyone gets practical experience. No one wants to be diseased, and no one wants to become old, but there is no avoiding these. 

Unless we have a pessimistic view of this material life, considering the distresses of birth, death, old age and disease, there is no impetus for our making advancement in spiritual life.”

-Bhagavad Gita 13, 8-12
Extract from purport by Srila Prabhupada

सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ..

          परम ममतामयी माँ नर्मदा के तट पर मध्यप्रदेश में एक जगह नरसिंहपुर भी है। यहीं पर नाथ सम्प्रदाय के एक महायोगी का आश्रम एवं समाधि स्थल भी है। आज से २५ वर्ष पूर्व नाथ सम्प्रदाय के परम भक्त शिव योगी सशरीर मौजूद थे उनके आस-पास शिष्यों, अनुयायियों एवं दर्शनार्थियों का पूरा का पूरा दल मौजूद रहता था कभी कोई व्यक्ति उन्हें अपने घर पधारने का निमंत्रण देता तो कोई अन्य अपनी समस्या लेकर उनके आश्रम में ही बैठा रहता था। आश्रम के पास ही एक मुस्लिम परिवार भी रहता था इस परिवार की छोटी बालिका जब-जब स्वामीजी बाहर निकलते वह उनसे अपने घर भोजन करने को कहती। स्वामीजी भी उससे किसी और दिन जरूर आने की बात कह चले जाते थे। एक दिन बालिका ने जिद के साथ प्रेमपूर्वक निर्मल आग्रह पुनः किया। स्वामीजी ने पता नहीं क्या सोचा और उस बालिका के साथ भोजन करने चल दिये। यह सब देखते ही शिष्यों, अनुयायियों और तो और मुस्लिमों में भी हड़कम्प मच गया। बालिका के घर उस दिन भोजन में मछली बनी थी। स्वामीजी तो परम ब्रह्मचारी थे मांसहार तो बहुत दूर की बात है। खैर स्वामीजी ने प्रेमपूर्वक भोजन किया जो बालिका के घर में बना था वही उन्होंने ग्रहण किया। घर के बाहर भीड़ लग गई हिन्दुओं के चेहरे देखने लायक थे और तो और शिष्य भी छाती पीट-पीट कर रो रहे थे। 
              स्वामीजी भोजन करके बाहर निकले सबकी तरफ देखा फिर सबको पास बुलाकर बैठने के लिए कहा। योगी के लिये मन की बात जानना छोटा-मोटा कार्य है। वे सबसे बोले आप लोग जानना चाहते हैं कि मैंने अंदर क्या खाया है फिर उन्होंने अपने एक शिष्य से पानी लाने को कहा पानी पीकर उन्होंने जो कुछ खाया था उसे मुख से पुनः बाहर निकाल दिया। आप जानते हैं उनके मुख से बाहर क्या निकला जिसे देखकर सारे लोग शर्म से गड़ गये और उनके चरणों पर लोटन लगे। स्वामीजी के मुख से केवल गुलाब के ढेरों फूल ही बाहर निकले। यह घटना कटु सत्य है और शिव के महात्म्य को दर्शाती है जिसके अंदर शिव विराजमान है वह विष को भी अमृत में बदल देगा बस जरूरत है तो सिर्फ प्रेम की। बालिका ने प्रेम पूर्वक जो कुछ उन्हें अर्पित किया वह सब गुलाब में परिवर्तित हो गये। भगवान शिव तो विष ही पीते हैं अपने भक्तों का । 
          नर्मदा में शिवलिङ्ग निर्माण हजारों वर्षों में होता है। एक सामान्य पत्थर शिवलिङ्ग में परिवर्तित तभी होता है जब नर्मदा की धारा के अनंत थपेड़ों और प्रवाहों को झेलता हुआ निष्काम भाव से पथ में पड़ा रहता है। नर्मदा के प्रत्येक थपेड़े प्रत्येक काल को, क्षण को, वर्ष को इंगित करते हैं। काल, वर्ष, क्षण आते जाते रहते हैं। शिवलिङ्ग बनने के लिए कंकर को इन सबको तो देखना ही पड़ता है। बहुत कुछ त्यागना पड़ता है, विशुद्धता पाने के लिए त्याग नितांत आवश्यक है। अपने उमर कुछ और भी स्थापित नहीं होने देना पड़ता है और न ही नर्मदा की धारा से विचलित होना पड़ता है। नर्मदा के पथ में पड़े-पड़े कंकर शंकर में परिवर्तित होता है तब कहीं जाकर वह प्रतिष्ठित हो पाता है, पूजनीय हो पाता है एवं कालजयी बनता है। शिव चिंतन के मूल में वीतराग है। 
           वास्तव में अध्यात्म का मूल ही वीतराग हैं। वीतराग ही मनुष्य को या कंकर को छोड़ने की कला सिखाता है, उर्ध्वगामी बनाता है। वीतराग ही मोह से मुक्ति दिलाता है। स्तम्भन की कला सिखाता है। वीतराग ही जीवन है, मोह मृत्यु का परिचायक है। कायरता का दूसरा नाम मोह है। शिव भक्तों के लिये वीतराग ही प्राण है। खोल को फाड़कर निकलना वीतराग के कारण ही सम्भव है। जीव में अगर वीतराग न हो तो वह अण्डे के खोल में ही दम तोड़ देगा। इस पृथ्वी पर कोई भी बीज अंकुरित ही नहीं हो सकता वीतराग के अभाव में न ही कोई पर्वत धरती का सीना फाड़कर उँचाइयों को छू सकता है और न ही कोई मनुष्य दुनिया, समाज इत्यादि के कवच को भेदकर कुछ नया प्रस्तुत कर सकता है। नवीनता और वीतराग एक दूसरे के पर्याय हैं। नवीनता तभी सम्भव है जब वीतरागी क्रिया होगी।
            बालक भी नौ महीने पश्चात् माता के गर्भ से बाहर आ ही जाता है। गर्भ तो छोड़ना पड़ेगा ही, बाल्यावस्था भी छोड़नी पड़ेगी, युवावस्था भी छोड़नी पड़ेगी। स्त्री को जन्म देने की शक्ति भी एक दिन त्यागनी पड़ती है। वीतराग सीखने की वस्तु नहीं है। यह तो ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया है सभी जीवों, तत्वों, पिण्डों और शरीरों में स्वयं ही निर्धारित रहती है। लाख कोशिश करो मृत्यु तो आयेगी ही। कितना आप मृत्यु से बचेंगे। एक दिन प्रवचन देने की शक्ति भी चली जायेगी, बोलने और लिखने की शक्ति भी जाती रहेगी। आप कुछ भी पकड़कर नहीं रख सकते। शरीर तो निरंतर लहरों, थपेड़ों को झेलता ही रहता है। 

थपेड़े समय के हो सकते हैं, उम्र के हो सकते हैं, ज्ञान के हो सकते हैं, विज्ञान के हो सकते हैं। सब कुछ आता जाता रहता है। सिद्धियां स्वयं आती हैं, क्षण भर रुकती हैं फिर चली जाती हैं। सिद्धियाँ अजर अमर हैं मनुष्य नश्वर है। आज इस जीव पर सिद्धि कल दूसरे महापुरुष पर उसका हस्तांतरण है। जब आप यह समझ लेंगे तो सब कुछ व्यर्थ लगने लगेगा। पाने की लालसा, अपना बना लेने की लालसा समाप्त हो जायेगी। सत्य से परिचय ही वीतराग है। 
            वीतराग समस्याओं से भागने की कला नहीं है। भगोड़े कभी भी वीतरागी नहीं होते। वीतराग शिव की दुर्लभ कृपा है, उनका आशीर्वाद है और उन्हीं का अंश है जिसमें वीत राग अंशात्मक स्वरूप में जितना ज्यादा होगा वह शिव के उतना ही निकट होगा। शिव और हमारे बीच की दूरी का माप ही वीतराग है जितनी ज्यादा वीतराग की क्रिया प्रबल होगी उतना ही एक व्यक्ति शिव तुल्य होता जायेगा। यही गुरु बनने का रहस्य है। निरंतर कुछ न कुछ त्यागते रहना, बाँटते रहना निःस्वार्थ भाव से, निर्विकार भाव से शिवलिङ्ग निरंतर बांटते रहते हैं सब कुछ। गुरु भी प्रवचन के माध्यम से, सिद्धियों के माध्यम से, दीक्षाओं के माध्यम से आशीर्वाद के माध्यम से और अंत में वरदान के माध्यम से अपनी साधना, तपस्या, ज्ञान, विचार, सिद्धियां इत्यादि सब कुछ लुटाने के लिये सदैव तत्पर रहते हैं। अनेकों ऐसे दिव्य पुरुष होते हैं जिनके पास अमूल्य ज्ञान, सिद्धियां एवं विज्ञान शिव की कृपा से अटूट रूप में मौजूद होता है। शिव मात्र उड़ेलते ही हैं। गुरुओं की समस्या यह है कि वे इसका करें क्या ? किसे बांटे, किसे दें। कभी-कभी उचित व्यक्तियों का मिलना अत्यंत कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में पुनः शम्भु से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! इन्हें लेने वाले भी उत्पन्न करो। जैसे ही लेने वाले मिलते हैं वे उसे बांट देते हैं और अगर नहीं मिलते हैं तो फिर शम्भु का ध्यान करते हुये सभी ज्ञान, विज्ञान, विद्याओं और सिद्धियों को जल में प्रवाहित कर मुक्त हो जाते हैं। यही क्रिया उन्हें अंत में करनी ही पड़ती है। वीतरागी के लिये मात्र सम्प्रेषण ही एकमात्र अस्त्र होता है।
                  जिसके पास वीतराग की शक्ति होती है उसे आने जाने वाले अस्थाई मौसम के थपेड़े परेशान नहीं करते। ज्ञानी पुरुष प्रतिक्षण वीतराग की क्रिया ही करते रहते हैं। दीक्षा प्रदान करने का यही रहस्य है इसमें तृप्ति है। भूलने की प्रवृत्ति है, लेन-देन का व्यवहार नहीं है। लेन-देन का व्यवहार पशुतुल्य सिद्धांत है और पशुतुल्य सिद्धांत धर्मभूमि पर लागू नहीं होते। भारत धर्मभूमि है यहाँ अध्यात्म के शाश्वत् सिद्धांत लागू होते हैं। पाश्चात्य जगत कर्मभूमि है वहाँ पशुतुल्य लेन-देन का सिद्धांत ही लागू होगा। गाय को दो किलो चारा खिलाओ और शाम को दो किलो दूध दुहो। उनके यहाँ सारी सोच, समस्त विकास की जड़ में मात्र यही सिद्धांत समाया हुआ है। इस सिद्धांत की परम अवस्था दो किलो चारा और शाम को दो किलो दूध ही है। वे सारा जीवन इसी सिद्धांत को परिष्कृत करने में लगा देते हैं। आठ घण्टे का काम और फिर आठ घण्टे बाद आठ घण्टे की मजदूरी परन्तु भारतवर्ष में आज तक किसी भी युग में यह सिद्धांत लागू नहीं हो पाया है और न लागू होगा। आठ घण्टे कार्य करने के पश्चात् भला किस युग में उचित पारिश्रमिक मिला है। यहाँ वही व्यक्ति उत्थान कर सकता है जो कि अपने पीछे धर्म की ताकत रखता है। ध्यान रहे कर्म भूमि में दो किलो चारे के बदले दो किलो दूध ही चरम अवस्था में प्राप्त हो सकता है परन्तु धर्म भूमि पर दो किलो चारे के बदले में दो लाख किलो दूध भी प्राप्त होने की पूरी पूरी सम्भावनायें हैं चुनाव आपके हाथ में है। 
            कर्मभूमि में तनाव है, रोग है, अल्प आयु है, हिंसा है, आनंद का अभाव है, और तो और ध्यान, आत्मसुख, प्रेम इन सबका तो नितांत ही अभाव है, जीवन में अनेकों वस्तुयें ऐसी हैं जिनका मूल्य आप लगा ही नहीं सकते। कर्म के सिद्धांत में तो पिता पुत्र होता ही नहीं तो फिर मृत्यु के बाद कंधा देने के लिए भी पैसा देना पड़ेगा। क्रियाकर्म तो बहुत दूर की बात है। जीवन संगिनी तो होती नहीं बस बिस्तर बदलने का खेल होता है। जिस दिन कार्य करने की क्षमता खत्म होती है वृद्ध आश्रम रूपी जेलों में फेंक दिये जाते हैं। जब वृद्धों को जेल में फेंक दोगे तो फिर कहाँ से ऋषि-मुनि और सद्गुरु जैसे दिव्य पुंजों का संस्पर्श आपको प्राप्त होगा। तब आप मनुष्य कहाँ रहे। जब तक जवानी है तब तक जीवन है ऐसी व्यवस्था पशुओं में ही होती है इसीलिये मृत्यु तो कष्टकारी होगी। कर्म भूमि के सिद्धांत वीतरागी का आह्वान नहीं कर सकते। इस प्रकार की भूमि गुरु विहीन होगी, शिव विहीन होगी। शिव अगर साक्षात् नहीं होंगे तो फिर सभी तरफ विष ही विष होगा। 

जिसे देखो उसे विष वमन करता ही मिलेगा एवं सम्पूर्ण समाज विष का महासागर होगा। शिव उर्ध्वगामी है। शिवलिङ्ग हमेशा उपर की तरफ ही उठते हैं। तंत्र और यंत्र के मध्य में विराजमान हमेशा शिव ही होते हैं। प्रत्येक यंत्र के मूल में उर्ध्वगामी त्रिकोण शिव को दर्शाता है। जो उर्ध्वगामी होगा वही ज्योति प्रदान कर सकता है। वेदों में अग्नि को शिव स्वरूप माना गया है। अग्नि हमेशा उर्ध्वगामी ही होती है। ज्योतिर्लिङ्गों का दिव्य प्रकाश समस्त जीवों को अंधेरे से मुक्त कराता है। अंधकार से मुक्ति शिव प्राप्ति है। कर्म की प्रधानता मनुष्य के अंदर नाना प्रकार के ताप को प्रतिष्ठित कर देती है। इन तापों से मुक्ति के लिये ज्योतिर्लिङ्ग ही एकमात्र सहारा है जिनके सानिध्य में हमारे तापों का शमन होता है। आप क्रोधित व्यक्ति को देखें, शोषित व्यक्ति को देखें, रोगी व्यक्ति को देखें आपको झुलसा देने वाला ताप ही दिखाई देगा। इसी ताप से उन कर्मों का उदय होता है जो कि पाप की श्रेणी में आते हैं और जब पाप कर्मों के द्वारा किसी जीव के साथ अनर्थ होता है तो उसके द्वारा मात्र शाप आह और हाय का ही सम्प्रेषण होता है जिसके विकिरण में पाप कर्मों के सम्पन्न करने वाले माध्यम का सर्वनाश निश्चित ही होता है। 
         शिव के पास सम्प्रेषण के लिये जीवों में चीत्कार सबसे अमोघ माध्यम है। इसी के द्वारा शिव की ध्यान मग्न अवस्था भंग होती है और फिर उनके तीसरे नेत्र से प्रवाहित संहारक शक्ति समस्त पापियों का सर्वनाश कर देती है। यह ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया है। शिव इसी प्रक्रिया के द्वारा प्रलय की उत्पत्ति करते हैं। कर्म का सिद्धांत इसीलिये अपूर्ण है। प्रलय के मूल में कर्म का हाहाकारी सिद्धांत है धर्म की संरचना शिव ने इसलिये की है। अनंतकालों से भारत की धर्मभूमि में प्रचुर संख्या में शिवलिंग, ऋषि, देव, अवतार इत्यादि प्रतिष्ठित होते आ रहे हैं। ये हमेशा कर्म के सिद्धांत को खण्डित करते हैं। व्यक्ति को अध्यात्म की परिभाषा सिखाते हैं कर्म की पशुता से पुनः पृथ्वी को बचाते हैं और बदले में जीवों के ताप का हरण कर लेते हैं। ये सबके सब शिव के प्रतिनिधि हैं। शिव वीतरागी है, सिंहासन पर विराजमान नहीं है, कोई राज्य नहीं है, कोई लालसा नहीं है, कहीं कोई भय नहीं है बस देने की प्रक्रिया है। शम्भु को समझा नहीं जा सकता। तत्वचिंतक तत्व के माध्यम से उनके कुछ अंशों को आत्मसात करते हैं । तपस्वी तप के माध्यम से थोड़ा बहुत दर्शन कर लेते हैं। बुद्धिमान पुस्तक के माध्यम से शिव रस का पान कर लेते हैं। वैज्ञानिक विज्ञान के द्वारा थोड़ी बहुत झलक देख लेते हैं इत्यादि इत्यादि परन्तु इन सबमें अपूर्णता है। 
             शिव की व्याख्या सम्भव नहीं है। शिवलिङ्ग पूजन वैश्विक प्रक्रिया है। इस पृथ्वी का कोई ऐसा कोना नहीं है जहाँ शिव पूजन नहीं होता हो। उनके सहस्त्र नामों में से कोई सा भी नाम उस पूजन का हो सकता है। पूजन पद्धति समय और काल की देन है। वेदों में वे रुद्र शक्ति के नाम से पूजित हैं। रौद्र तो सूर्य भी हैं, अग्नि भी है, वायु भी है तो वही मनुष्य भी है। प्रारम्भ में मनुष्य में इतनी शक्ति थी कि वह प्रकृति में मौजूद शिवलिङ्गों से सम्प्रेषण कर सकता था परन्तु धीरे-धीरे पिछले पाँच हजार वर्षों में मनुष्य अपने जीवन का ९० प्रतिशत हिस्सा मनुष्यों के बीच ही गुजार लेता है ऐसी स्थिति में प्राकृतिक शिव सानिध्य का अभाव उत्पन्न होने लगा परन्तु शिवत्व की ललक तो और बढ़ी। एक बार फिर वैश्विक प्रार्थना शुरु हुई शिव प्राप्ति के लिये और फिर कृष्ण, राम, महावीर, बुद्ध इत्यादि इत्यादि अनेकों महामानवों का अस्तित्व सामने आने लगा। इन सब महामानवों ने मूल रूप से आपने अंदर परम ब्रह्माण्डीय शिव की चेतना को वीतराग के रूप में स्थापित कर शम्भु को आत्मसात किया ध्यान रहे शिव रहस्य केवल वेद, पुराण, गीता, रामायण इत्यादि इत्यादि पुस्तकों के अधीन नहीं हुये । शिव की चेतना ने तो उन्हें नदी, पहाड़, वायु, समुद्र, भूमि, नभ-मण्डल, आकाश गंगा इत्यादि पर अंकित कर दिया है। बस पढ़ने वाले में ताकत होनी चाहिये। 
             वेदों को कहीं से भी ग्रहण किया जा सकता है। वे प्राणवान हैं। हर जगह, हर स्वरूप में मौजूद हैं। जिस प्रकार इस पृथ्वी पर आप कहीं भी वायु को ग्रहण कर सकते हैं उसी प्रकार शिव साधक कहीं भी शिव में लीन हो वेद ग्रहण कर सकता है। मनुष्य की ताकत केवल वेदों को ग्रहण करने की ही है तो वह ब्रह्माण्ड से वेद ग्रहण कर सका। वेदों से उपर भी अतिसूक्ष्म परा ब्रह्माण्डीय शिव रहस्य है। शिव का कोई और छोर नहीं है। यहीं से गुरुओं का प्रादुर्भाव हुआ। जब ब्रह्माण्ड से ग्रहण करने की क्षमता का ह्रास हुआ तो फिर शिव रूपी परम व्यवस्था ने गुरु रूपी व्यवस्था का भी निर्माण कर दिया मनुष्यों के कल्याण के लिये।

आदिगुरु शंकराचार्य जी ने जितने भी महाग्रंथ लिखे सबके सब ब्रह्माण्ड से ग्रहण किये। किसी भी वैज्ञानिक खोज को पुस्तक के द्वारा सम्भव नहीं किया जा सकता। अभी वर्तमान काल में गुरु ही शिव के प्रतिनिधि हैं। आगे माध्यम क्या होगा कहना सम्भव नहीं है। 
              आप अव्यवस्था से क्या समझते हैं ? जिसे आप अव्यवस्था कहते हैं वह भी वास्तव में व्यवस्था है। मनुष्य के अनुरूप अगर किसी शक्ति विशेष में तीव्रता हो जाती है तो वह उस पर अव्यवस्था रूपी शब्द चस्पा कर देता है। आकाश में वर्षा के घोर बादलों को देख वह उसे अव्यवस्थित कह देता है । रौद्र जल वृष्टि उसे अव्यवस्था लगती है परंतु वास्तव में इसी से अनेकों व्यवस्थायें जन्म लेती हैं। सड़ी-गली पुरानी व्यवस्थायें पुनः समुद्र में फेंक दी जाती हैं निर्ममता के साथ। अव्यवस्था तो मनुष्य करता है अपनी लिप्तता के कारण कोई कसर नहीं छोड़ता है शिव निर्मित इस जगत को बर्बाद करने में। नर्मदा किनारे एक बार मेला लगा हुआ था। मूर्ख मनुष्यों ने उसके तट पर इतनी गंदगी मचा दी थी कि वहां पैर रखने पर भी सांस लेते नहीं बन रही थी अगर नर्मदा में बाढ़ न आये तो मनुष्यों द्वारा फैलाया गया मल-मूत्र कभी साफ ही न हो पाये। नर्मदा के बारे में स्पष्ट कहा गया है कि इसके जल में उतर कर कभी स्नान मत करो यह आजीवन कुंआरी और मातृ स्वरूपा है। इनका जल अति पवित्र है। नर्मदा तट पर अगर स्नान करना है तो बाल्टी से पानी भरो और बाहर भूमि पर बैठकर स्नान कीजिये। उनकी पवित्रता की रक्षा तो करनी ही पड़ेगी। परन्तु कितने लोग इस बात को समझते हैं इसीलिये कंकर ही रह जाते हैं।
             एक कथा याद आती है दो बड़े-बड़े शिला खण्ड नर्मदा के तट पर अनंत वर्षों से स्थित थे। इन दोनों शिला खण्डों पर धोबी वस्त्रों को पीट-पीटकर नर्मदा के जल से धोते थे। कुछ समय पश्चात् वहां से एक सन्यासी निकले उन्होने शिलाओं को देखा और तुरंत ही उनके मन में शंकर की प्रतिमा निर्मित करने का ख्याल आया। शिल्पी को बुलवाकर एक पत्थर वहां से उठवाया और शिवजी की अद्वितीय मूर्ति का निर्माण कराकर उसे तट पर ही भव्य रूप से प्राण प्रतिष्ठित कर दिया। लोगों की भीड़ आने लगी शिव के दर्शनार्थ। एक दिन रात्रि के समय तट पर पड़ी शिला मंदिर में स्थापित शिला से बोलने लगी तुम तो बहुत भाग्यवान हो मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित हो गईं और मैं यहां पड़ी पड़ी धोबियों के पछीटे खा रही हु । इस पर मंदिर में स्थापित शिला बोली मैरे उपर तो प्रतिदिन न जाने कितने अपना पाप और मैल छोड़ जाते हैं परन्तु तुम तो प्रतिदिन अनेकों वस्त्रों को धो रही हो तो भला मैं भाग्यवान हुई या तुम यही शिव परिवार की व्यथा हैं। 
           शिव को आत्मसात कर गुरु भी बस समाज का कचरा साफ करते हैं। नर्मदा भी शिव सानिध्य में सब कुछ झेल रही है। शिव प्रेम में गंगा भी लोगों के पाप धो रही है। जो गुरु के साथ रहते हैं उनके कदम से कदम मिलाकर कार्य करते हैं उन्हें भी गुरु के समान कुछ हद तक तो जहर पीना ही पड़ता है। शिव का कार्य ही मानस पुत्रों का निर्माण करना है। शिव ने न तो गणेश को, न ही कार्तिकेय को स्वयं के शरीर से उत्पन्न किया है । वे तो प्राणों के देवता हैं, देवाधिदेव हैं। जिसमें चाहें उसमें प्राण प्रतिष्ठित कर दें। गणेश तो मां पार्वती के शरीर के मैल से उत्पन्न हुये हैं। गुरु के गर्भ में भी असंख्य मानस पुत्रों का जन्म छिपा हुआ होता है । वे प्राण प्रतिष्ठित करने की क्रिया में दक्ष होते हैं। शिव शिलाओं में भी अपनी दिव्य ज्योति प्रदर्शित कर ज्योतिर्लिङ्ग बन जाते हैं। परिवार और झगड़ा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहां झगड़ा नहीं वहां परिवार नहीं और जहां झगड़ा वहीं परिवार।

शिव परिवार में गणेश हैं जिनका वाहन मूसक तो वहीं कार्तिकेय हैं जिनका वाहन मयूर माता भगवती सिंह वाहिनी हैं तो वहीं शंकर नंदी पर विराजमान हैं। एक तरफ ऋषि-मुनि हैं दूसरी तरफ असुर ।एक तरफ शुक्राचार्य है तो दूसरी तरफ वशिष्ठ। कहीं देवता स्तुति कर रहें हैं तो कहीं भूत-प्रेत और पिशाच भी शिव के समीप बैठे हुये हैं। इन सब में आपस में 36 का आंकड़ा है । एक पल के लिये शिव अगर हट जायें तो यह सब एक दूसरे को सदा के लिए समाप्त कर देंगे। कुछ भी नहीं बचेगा। परन्तु शिव सानिध्य में सभी शांत बैठे हुये हैं। इनके शांत बैठने से ही ब्रह्मा और विष्णु अपना कार्य सम्पन्न कर पाते हैं एवं लोकरूपी अनंत व्यवस्थायें अनंतकाल से चली आ रही है। आप सोचिये भगवान शिव के कितने अनंत स्वरूप हैं इसीलिये शिव को परम चेतना के स्वरूप में देखना ही श्रेष्ठ है । ज्योतिर्लिङ्गों से प्रतिबिम्बित होते अनंत चेहरे तो बस क्षण, समय और काल का विषय हैं। भारतवर्ष में स्थित ज्योतिर्लिङ्गों के सानिध्य में सभी ऋषियों, महानायकों एवं अवतारियों का प्रादुर्भाव हुआ है। इस चराचर जगत में विविधता ही शिव है। 
           एकांगी मार्ग अत्यंत ही घटिया और संकीर्ण है। मरुस्थल में रेत होती है और कुछ नहीं। ज्यादा से ज्यादा खजूर का पेड़ है। उसी का फल खाओ, उसी के नीचे सोओ। न नदियां हैं, न पहाड़ हैं, न जल है, न वर्षा है, न ही विविध प्रकार के पशु व पक्षी इत्यादि-इत्यादि। ऐसे स्थानों पर उदित धर्म एकांगी ही होगा। एक महापुरुष और एक पुस्तक को हजारों साल तक पूजते रहो। इन स्थानों पर निवास करने वाले व्यक्ति क्या जाने कि शिव परिवार में इन्द्र कौन है, कुबेर कौन है, महालक्ष्मी कौन हैं, कामधेनु कौन हैं, ऋषि कौन है, नदी क्या है, पर्वत क्या है। यही मूल फर्क है सनातन धर्म में और मरुस्थल में उगे धर्म में इसीलिये मरुस्थल के मनुष्य आक्रांता हैं उनके अंदर ललक है शम्भू के विभिन्न स्वरूपों को देखने की। भारतभूमि पर आक्रमण का यही मूल कारण है। यह शिव भूमि है यहां पर शिव ने अपनी समस्त शक्तियों को ज्योतिर्लिङ्ग के माध्यम से जी भरकर लुटाया है। अनंत प्रकार के जीव-जंतु हैं, अनंत प्रकार की वनस्पति है, अनंत प्रकार के पंथ है, असंख्यों विद्यायें हैं, सिद्धियाँ हैं, ज्ञान से मनुष्य पटा पड़ा है, इतनी नदियां हैं कि गिन ही नहीं सकते। 
                आज से 500 वर्ष पूर्व अंग्रेज तो केवल उन मसालों को लेने के लिये आये थे जिन्हें हम सामान्य समझते हैं। हमारी सामान्य वनस्पति ही उनके लिये दुर्लभ और अमूल्य थी। आये तो थे मसाले लेने परन्तु पूजा पद्धति, वेदांत, दर्शन, योग, देवालयों इत्यादि इत्यादि को देख बौरा गये और जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे। जितना ढोकर ले जाते बना ले गये परन्तु फिर भी हमारे यहाँ कोई कमी नहीं है। मूल तत्व में तो आज भी वे नहीं पहुँच सकें हैं। मूल में तो शिव ही है। भारत वासियों पर शिव की अनन्य कृपा है। इसके सामने सभी सभ्यतायें दरिद्र हैं। भारत ने एक बार फिर उन्हें आत्मसात कर लिया वे भी अब शिव पूजक बन रहे हैं। मरुस्थल में तो शिव मंदिर के ऊपर उन्होंने अपने पूजा घर खड़े कर लिये हैं यह सब कुछ मात्र आडम्बर है ज्यादा दिन नहीं चलेगा। इस तरह की क्षदम् पहचान आने वाले 500 वर्षों में स्वतः ही विखण्डित हो जायेगी। एक बार पुनः शैव शक्ति समस्त विश्व में वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जायेगी। शिव रूपी परम चेतना के लिये यह सब कुछ चंद मिनटों का काम है।
            
                                   शिव शासनत: शिव शासनत:

शिवमहिम्न स्तोत्रम् -

          अपने ईष्ट को प्राप्त करने के लिये एक तकनीक है शास्त्रोक्त पूजन या पूर्ण विधि-विधान से वेदोक्त, तंत्रोक्त और मंत्रोक्त पूजन इस पूजन में सभी कुछ व्यवस्थित होता है। जब जीवन व्यवस्थित हो तो फिर इस पूजन के द्वारा आप अपने ईष्ट को तत्व रूप में, शक्ति के स्वरूप में और या फिर अनुभूति के रूप में अपने आसपास महसूस कर सकते हैं। शास्त्रोक्त पूजन का विधान इसलिये है कि इससे साधक के जीवन में ईष्ट के प्रति नियमितता आये और यही नियमितता धीरे-धीरे उसके जीवन के सम्पूर्ण पक्षों को व्यवस्थित कर देगी परन्तु कभी- कभी नियमित पूजन में हृदय अर्थात अनाहत पक्ष न्यून हो जाता है जिसके कारण पूजन में उचित सफलता नहीं मिल पाती है। ध्यान रहे कि ईश्वर सभी व्यवस्थाओं से उपर है एवं व्यवस्थायें समयानुसार बदलती रहती हैं जो व्यवस्था सतयुग में अत्यधिक कारगर हैं जरूरी नहीं है कि वह व्यवस्था कलयुग में ही उतनी ही उपयोगी हो। 
        कुल मिला-जुलाकर पूजन पद्धति का मुख्य उद्देश्य हृदय पक्ष को जागृत करना है अर्थात प्रभु को हृदय से ही पुकारना है। मस्तिष्क के द्वारा प्रेम का सम्प्रेषण असम्भव होता है। प्रेम का संप्रेषण एकमात्र हृदय के द्वारा ही सम्भव है। दुनिया भर के मंत्र, विधि विधान, यंत्र एवं शास्त्रोक्त प्रवचन इत्यादि सब के सब कार्य हृदय की पुकार के सामने धरे रह जाते हैं। हृदय की पुकार सुन शिव चाहे किसी भी लोक में हो सब कार्य छोड़ साधक के सामने आ खड़े होते हैं। परम शिव भक्त पुष्पदंत के द्वारा भगवान शिव ने यही संदेश शिव भक्तों के सामने प्रस्तुत किया गया है। शिवोपासना में भक्ति रस का प्रादुर्भाव कराने वाले गन्धर्वराज पुष्पदंत ही हैं। द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में नर्मदा तट पर मौजूद ओंकारेश्वर तीर्थ की दीवार पर शिव महिम स्त्रोत स्पष्ट रूप से पूर्ण शुद्धता के साथ अंकित है। उनके द्वारा रचित शिव महिम स्त्रोत से अनेकों शिव मंत्रों का प्रादुर्भाव हुआ है।
              अनाहत से ईश्वर का आहवान होने पर प्रत्येक शब्द एवं श्लोक प्राणमय मंत्रों में परिवर्तित हो जाते हैं और अनंतकाल तक इन स्त्रोतों के द्वारा साधक शिव सानिध्य की परम प्राप्ति करते हैं। शिव महिम स्त्रोत इतना प्रचण्ड है कि इसका श्रवण या वाचन करते ही साधक सुध-बुध खोकर सब कुछ भूल बैठता है एवं आँखों से मात्र अश्रु धारा ही बहती है और उसके आसपास की सम्पूर्ण प्रकृति शिवमय हो जाती है। अनाहत को जाग्रत करने के लिये शिव महिम स्त्रोत से बढ़कर कुछ भी नहीं है। शिव को आत्मसात करने के लिये यह स्त्रोत अति ही आवश्यक है। स्कन्ध पुराण अवन्ति खण्ड लिङ्ग महात्म के 77 वें अध्याय में गंधर्वराज पुष्पदंत के प्रादुर्भाव की कथा स्पष्ट लिखी हुई है। 
            प्राचीनकाल में शिनि नामक एक अत्यन्त ही धर्मात्मा ब्राह्मण हुआ करते थे, वे अयोनिज ब्राह्मण थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति के लिये वे भगवान शिव का कठोर तप करने लगे उनके तप से देवता गण क्षुब्ध हो उठे, नदियां सूखने लगी, सम्पूर्ण पर्वत हिलने लगे इस पर भगवान शिव ने प्रसन्न हो उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दे दिया। अपने वरदान को पूर्ण करने के लिये भगवान शिव ने अपने समस्त गणों को बुलाकर कहा कि तुममे से कौन पृथ्वी पर जाकर मेरे कल्प को पूरा करेगा। शिव सानिध्य छोड़कर कोई भी गण पृथ्वी पर जाने को तैयार नहीं था इन्हीं गणों के मुखिया पुष्पदंत जो कि शिव के परम प्रिय थे वे बोल उठे हे प्रभु हम आपको छोड़कर पृथ्वी लोक में जाने को तैयार नहीं हैं इस पर शिव ने क्रोधित हो उन्हें मृत्युलोक में जन्म लेने का श्राप दे डाला और इस प्रकार सीधे शिवलोक से पुष्पदंत का पृथ्वी पर प्रादुर्भाव हुआ । गंधर्वराज पुष्पदंत प्रतिदिन सुन्दर पुष्पों से भगवान शिव की प्रातः काल उपासना किया करते थे इसके लिये वे काशीराज की पुष्प वाटिका से पुष्प ले जाया करते थे। प्रतिदिन काशीराज पुष्पों को न पाकर मालियों को कठोर दण्ड दिया करते थे। 
           एक दिन मालियों ने उपवन के आसपास शिव निर्माल्य अर्थात वह सब कुछ जो कि शिवलिङ्ग को चढ़ाया जाता है चारों तरफ फैला दिया। जैसे ही पुष्पदंत ने शिव निर्माल्य को लांघा उनके अदृश्य होने की सिद्धि खत्म हो गई और मालियों ने उन्हें पकड़ लिया। राजा की आज्ञा से उन्हें कारावास हुआ परन्तु कारावास में जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उन्होंने अज्ञानवश शिव निर्माल्य को लांघ दिया है तब वे अत्यन्त ही व्याकुल हो भगवान आशुतोष को अश्रु पूर्ण आंखों एवं रुधे हुये गले से विलाप कर पुकारने लगे। उनके हृदय की यही पुकार शिव महिम स्त्रोत कहलाई फिर क्या था भगवान शिव साक्षात् कारागृह में प्रकट हो गये और फिर स्वयं ही अपने साथ पुनः पुष्पदंत को प्रेम पूर्वक शिवलोक ले गये।

गंधर्वराज पुष्पदंत ने ही काशी में पुष्पदंतेश्वर शिवलिङ्ग की स्थापना की थी जिसके सानिध्य में आते ही प्रत्येक संत का हृदय पक्ष जाग्रत हो जाता है संत तो क्या अधम से अधम पापी भी इस शिवलिङ्ग के सानिध्य में प्रेममयी हो जाता है। तब से लेकर आज तक शिव महिम्न स्त्रोत के द्वारा असंख्य जीवों का कल्याण हो रहा है। नीचे वही शिव महिम स्त्रोत वर्णित किया जा रहा है।

पूजन विधि - 
भगवान शंकर की आराधना के लिए प्रातःकाल स्नान कर, स्वच्छ वस्त्र धारण करें। मृगचर्म या कुश के आसन पर बैठकर, शंकर भगवान की मूर्ति या प्राण प्रतिष्ठित शिव यंत्र को सामने रखें। तत्पश्चात् अक्षत, सफेद पुष्प आक के, धूप, दीप, भाँग, चन्दन, बेलपत्र, काली मिर्च आदि से पूजन करें

शिवमहिम्न स्तोत्रम् -

श्री पुष्पदन्त उवाच

महिम्न: पारन्ते परमविदुषो यद्यसदृशी, स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तद्वसन्नास्त्वयि गिरः ।
 अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृहन्, ममाप्येष स्तोत्रे हर ! निरपवादः परिकरः ॥

अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयो रतद्वयावृत्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि । 
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषय: पदे त्वर्गचीने पतित न मनः कस्य न वचः ॥

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निमितवत स्तव ब्रह्मन् ! किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् । 
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः । 
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन पुरमथन ! बुद्धिर्व्यवसिता ॥

तवैश्वर्य यत्तज्जगदुदयरक्षा प्रलयकृत त्रयीवस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुष । 
अभव्यानामस्मिन वरद ! रमणीयामरमणीं विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहै के जडधियः ॥

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च । 
अत्र्येश्वर्यै त्वय्यनवसन्दुस्थो हतधियः कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥

अजन्मानो लोकाः किमवयवन्तोऽपि जगता, माधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति । 
अनीशो वा कुर्याद भुवनजनने कः परिकरो, यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर ! संशेरत इमे ।।

त्रयी सांङख्यं योगः पशुमतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च । 
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानाजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥

महोक्षः खट्वांङ्ग परशुरजिनं भस्म फणिनः कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् । 
सुरास्तां तामृद्धिं दधति भवदभूप्रणिहितां न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ।।

ध्रुवं कश्चित्सर्व सकलमपरस्त्वध्रुवप्रिदं परौ धौब्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये । 
समस्तेऽप्येतस्मिन पुरमथन तैर्विस्मित इव स्तुवञ्जिहेमित्वां ना खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥

तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरि विरञ्चिर्हरिरध: परिच्छेत्तुं यातावनलमनिलस्कन्धवपुषः । 
ततो भक्ति श्रद्धाभरगुरुगृणभ्यां गिरिश ! यत स्वयं तस्थेताभ्यां तब किमनुवृत्तिर्न फलति ॥

अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं दशास्यो यदबाहूनभृतं रणकण्डूपरवशान । 
शिर: पद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबले स्थिरा यास्त्वदभक्ते स्त्रिपुरहरविस्फूर्जितमिदम् ॥

अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं बलात्कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः । 
अलभ्या पातालेऽप्यलसजलितांगुष्ठाशि सि प्रतिष्ठा त्वय्यासीदध्रुवमुपचितो मुह्यतिखल ॥

यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद ! परमोच्चैरपि सती- मधश्चके बाण: परिजनविधेयत्रिभुनवनः । 
न तच्चित्रं तस्मिन वरिवसितरि त्वच्चरणयो- र्नकस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥

अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा- विधेयस्याऽऽसीद्यस्त्रिनयनविषं संहृतबतः । 
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते श्रियमहो विकारोऽपि श्लोध्यो भुवनभयभंगव्यसनिनः ॥

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखा: । 
स पश्यन्नीश ! त्वामितरसुरसाधारणमभूत स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु वध्य: परिभवः ॥

मही पादाघाताद व्रजति सहसा संशयपदं पदं विष्णोर्भ्राम्यद भुजपरिवरुग्णग्रहगणम । 
मुहुर्द्यौौौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडितता जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ।।

वियदव्यापी तारागणगुणतिफेनोदगमरुचिः प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते ।
जगदद्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि त्यनेनैवोन्ने॒यं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ॥

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो रथांगे चन्द्रार्की रथचरणपाणि: शर इति । 
दोस्ते कोऽयं तृणमाडंबर विधिविधेय: क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ॥

हरिस्ते साहस्त्रं कमलबलिमाधाय पदयो र्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहरन्नेत्रकमलम । 
गतो भक्त्युद्रेक: परिणतिमसौ चक्रवपुषा त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर ! जागति जगताम ॥

ऋतौ सुप्ते जाग्रत्वमसि फलयोगे कृतुमतां क्व कर्म प्रध्वसतं फलति पुरुषाराधनमृते । 
अतस्तवां सम्प्रेक्ष्य कृतुषु फलदानप्रतिभुवं श्रुत्रौ श्रद्धां बदध्वा ढपरिकरः कर्मसुजनः ।।

क्रियादक्षो दक्षः कृतुपतिरधीशस्तनुभृता मृषीणामात्विज्यं शरणद सदस्या: सुरगणाः । 
क्रतुभ्रंषस्त्वत्तः कृतुफलविधानव्यसनिनौ ध्रुवंकर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥

प्रजानाथं नाथ ! प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषमृष्ययस्य वपुषा । 
धनुष्पाणर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ॥

स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमन्हाय तृणवत पुर: प्लुष्ट दृष्टवा पुरमथन पुष्पायुधमपि । 
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरतदेहार्धघटना दवैति त्वामद्धा वत वरद मुग्धा युवतयः ॥

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर ! पिशाचा: सहचरा श्रिचताभस्माऽऽलेपः स्त्रगतिनृकरोटीपरिकरः । 
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं तथाऽपि स्मर्तॄणां वरद् ! परमं मंगलमसि ।।

मन: प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायाऽऽत्तमरुत: प्रहृष्यद्रोमाण: प्रमदसलिलोत्संगतिदृशः । 
यदालोक्याऽऽल्हादं हद इव निमज्जायामृतमये दधत्यन्तस्तत्वं किमपि यमिनस्तत्किलभवान ॥

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह स्त्वमापस्त्वं व्योमत्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च । 
परिच्छिन्नामेवं त्वयति परिणता बिभ्रति गिरं न विद्यस्तत्तत्वं वयमिह तु यत्वं न भवसि ॥

त्रयीं तिस्त्रो वृत्तिस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा नकाराद्यैर्वर्णी स्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृतिः । 
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः समस्तं व्यस्तंत्वांशरणद ! गुणात्योमिति पदम् ॥

भवः शर्वा रुद्रः पशुपतिरथोग्र: सह महास्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम । 
अमुष्मिन प्रत्येकं प्रविचरित देव ! श्रुतिरपि प्रिया यास्मैधामने प्राणिहितनमस्योऽस्मिभवते ।।

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर ! महिष्ठाय न नमः । 
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन ! यविष्ठाय च नमो ! नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नमः ॥

बहलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः । 
जनसुखकृते सत्वोद्रिक्तो मृडाय नमो नमः । प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥

कृशहरिणति चेत: क्लेशवश्यं क्व चेदं क्व च तव गुणसीमोल्लधिंनी शश्वदृद्धिः । 
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधा द्वरद ! चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ॥

असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी । 
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानामीश पारं ! नयाति ॥

असुरसुरमुनीन्द्रं रचितस्येन्दु मौले ग्रंथितगुणमहिम्नो निर्गुणास्येश्वरस्य । 
सकलगुणवरिष्ठ: पुष्पदन्ताभिधानो रुचिरमलघुवृ त्तैऽस्तोत्रमेतच्चकार।।.

अहरहरनवयं घूर्जटे: स्तोत्रमेतत पठति परमभक्तया शुद्धचित्त: पुनमान्यः । 
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कीतिमांश्च ॥

महेशान्नपरो देवो महिम्नो नापरा: स्तुतिः । 
अघोरान्नपरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम ॥

दीक्षा दानं तपस्तीर्थ ज्ञानं योगादिकाः क्रिया: । महिम्नस्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम ।।

कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराज: शशिधर वर मौलेर्देवदेवस्य दासः । 
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् स्तवनमिदमकार्षीद्दिव्यदिवयं महिम्नः ॥

सुरवरमुनिपूज्यं पठति यदि मनुष्य: प्राञ्जलिर्नान्यचेताः । ब्रजति शिसमीपं किन्नरैः स्तूयमान:स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥

आसमाप्तमिदं स्त्रोतं पुष्पगन्धर्वभाषितम अनौपम्य मनोहारि पुण्यमीश्वरवर्णनम ।।

इत्येषा बाङमयी पूजा श्रीमच्छंकरपादयोः । 
अपिता तेन में देव: प्रीयतां च सदाशिवः ।।

तव तत्त्वं न जानामि कीशोऽसि महेश्वर यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेत सदा । सर्वपापविनिर्मुक्त: शिवलोकं स गच्छति ॥

श्री पुष्पदन्तमु खपंक जनिर्गतेन स्त्रोतेण किल्वषहरेण हरप्रियेण । 
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन, सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥

                          शिव शासनत: शिव शासनत:

गुरु की खोज ।।

             एक दिन मनुष्य जब सांसारिक चक्रव्यूह में फँसकर तड़फ उठता है, उसके मानुषिक रिश्ते उसके लिए जी का जंजाल बन जाते हैं, दुनिया की चमक दमक में उसकी आँखे पथरा जाती हैं और फिर जब भीड़ में वह अपने आपको थका हारा, घिसा पिटा और गुम पाता है तब उसकी आत्मा का दम घुटने लगता है और वह गुरु की खोज प्रारम्भ करता है जो उसे इस भव सागर से मुक्त करा दे। संसार की तपिश और गर्दिश में वट वृक्ष बन उसे अमृतमयी छाया प्रदान करे एवं जीवन निरर्थक और बदरंग हो जाने से पहले उसे जीवन जीने की कला सिखा दे । इसे ईश्वर की खोज भी कहते हैं। सभी को ईश्वर की तलाश है। ईश्वर का कार्य केवल मनुष्यों को देखना नहीं है। मनुष्य ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा हिस्सा है और फिर प्रत्येक मनुष्य में इतनी ताकत भी नहीं है कि वह शिव की अनगढ़ में भाषा को समझ सके, उनसे सम्प्रेषण कर सके इसीलिए पिछले पाँच हजार वर्षों में बहुत ही कम गिने चुने ऐसे लोग हुए हैं जो सीधे शिव से बात कर सकते हैं। कुछ विलक्षण पुरुषों से दुनिया नहीं चल सकती। सभी की जरूरत पूरी नहीं हो सकती। यहीं पर गुरु का उदय होता है।

              गुरु एक अत्यंत ही व्यापक शब्द है एवं अपने आपमें विराटता छिपाए हुए है। इसका ओर छोर समझ पाना बड़ा मुश्किल है। गुरु को परिभाषित भी नहीं किया जा सकता, किन्हीं नियमों में आबद्ध भी नहीं किया जा सकता। यही परम ब्रह्म का स्वरूप है। इसी कारणवश सभी शास्त्रोक्त ग्रंथों ने एक स्वर में गुरु को परम ब्रह्म कहा है। उसी में समास्त दैवीय शक्तियों को निहित माना है। वो ही मनुष्य को ब्रह्मा, विष्णु, महेश और माँ भगवती के विभिन्न स्वरूप उनकी वाणी में समझा सकता है, दिखा सकता है, उनसे आसानी के साथ सम्प्रेषण कर सकता है। गुरु ही आम जनता की समस्याओं को उन्हीं के शब्दों में, उन्हीं की समझ अनुसार उनके तार्किक एवं बौद्धिक स्तर पर आवश्यकतानुसार हल प्रदान कर सकता है अन्यथा विराट जनसमूह ईश्वरी ज्ञान से वंचित रह जायेगा।

         जीवन की अंधी दौड़ ज्यादा दिन नहीं चलती। एक जैसी नियमित जिन्दगी मनुष्य को उबाऊ बना देती है। कोई भी भौतिक संसाधन मनुष्य को ज्यादा देर तक बाँधे नहीं रख सकता। जीवन के सांसारिक सम्बन्ध कब बंधन का कारण बन जायें यह, सभी मनुष्यों को झेलना पड़ता है। आज जिन सांसारिक सम्बन्धों में खुशी महसूस होती है कल वही बोझ बन जाते हैं नीरसता जीवन का प्रमुख रस बन जाती है। मनुष्य जीवन में अत्यधिक भटकाव आता है एवं भरे पूरे परिवार में भी मनुष्य अपने आपको अकेला महसूस करता है। ऐसा सब क्यों होता है? मुख्य रूप से इनके पीछे दो धाराऐं छिपी हुई हैं। प्रथम धारा में 99% कर्म और सम्बन्ध आते हैं। यह सब सौदेबाजी के अंतर्गत निर्धारित कर्म और बंधन हैं। यहाँ पर मात्र देना ही देना है। देने की अपेक्षा प्राप्त करने में उत्तरोत्तर कमी ही होती जाती है। यह जीवन जीने का एक आम ढर्रा है। अनंतकाल से जन्म लेते ही मनुष्य इस ढरें के अंतर्गत जीने का आदी हो चुका है परन्तु हर चीज की हद होती हैं। एक हद के बाद मनुष्य व्याकुल हो ऐसे व्यक्तित्व की तलाश करता है जहाँ से वह पुनः शक्ति प्राप्त कर सके। शीतलता प्राप्त कर सके, असीम शांति प्राप्त कर सके। वहाँ पर उसे कोई नोंचने खसोटने और लूटने वाला न हो। हर समय कुछ न कुछ मांग की पूर्ति करने वाला वह यंत्र न हो। यंत्रवतता से मुक्ति ही गुरु की प्राप्ति है। कुछ न करने की स्थिति ही गुरु की स्थिति है।

          सब कुछ भूलकर, सब सम्बन्धों को विस्मृत करके कुछ क्षण के के लिए प्रफुल्लित हो गुरु सानिध्य में बैठना ही परम ध्यान है। गुरु और शिष्य का सानिध्य ऐसा है कि जब वे आमने सामने होते हैं तब सब कुछ रुक जाता है। समय भी रुक, जाता है। जब समय रुक गया तो समय के अंतर्गत आने वाले समस्त ताम झाम भी रुक जाते हैं। बस यही पूर्णता के क्षण हैं। जीवन की अनमोल धरोहर यही क्षण हैं। यहीं गुरु की पहचान है कि उसके सानिध्य में सब कुछ रुक जाये और शिष्य समय विहीन, शब्द विहीन, बुद्धिविहीन एवं ज्ञानविहीन हो जाये। ब्रह्माण्ड में अभी तक ऐसी कोई ध्यान साधना पद्धति नहीं बनी है जो कि व्यक्ति को इस स्थिति में पहुँचा दे। यही परम ब्रह्म की स्थिति है, यही गुरु की महत्ता है, यही पुनः कई जन्मों तक स्फूर्तिवान बने रहने की कला है। इसे ही निखिलत्व कहते हैं।

           जब जब मैं गुरु के सामने गया सारी समस्या भूल गया, सारे सम्बन्ध, सारे तामझाम, दिन और रात का फर्क, भूख और प्यास की दैहिक क्रियाऐं स्वतः ही मिट गई बस आँखें गुरु को देखकर भाव विभोर हो उठीं एवं मुख पर मुस्कान छा गई। बस समझ में आ गया कि जीवन में कितनी निरर्थकता है और सार्थकता केवल गुरु दर्शन में है। .

यही मंगल मूर्ति गुरु स्वरूप की पहचान है, जहाँ से उठने की इच्छा न हो, जहाँ कुछ बोलने का मन न करे, जहाँ पर समस्त भौतिक, दैहिक, बौद्धिक, मानसिक और विशेषकर तथाकथित आध्यात्मिक और धार्मिक आवश्यकताओं का महत्व नगण्य हो जाये। यही परमानंद की स्थिति है। यही गुरु हृदयस्थ धारण दीक्षा का महत्व है। यह हर पल प्रसन्न और मस्त कलंदर बने रहने की कला है। 

          दुनिया चलती है, चलती रहेगी। सब कुछ चलता रहेगा और हम भी चलते रहेंगे। जब तक जीना है जियेंगे, समस्याऐं आती जाती रहेंगी। रोने वाले रोते रहेंगे, हँसने वाले हँसते रहेंगे। हम भी निष्काम भाव से कर्म सम्पन्न करते रहेंगे परन्तु अंदर से हृदय में स्थापित गुरु के साथ बातें करते हुए, मस्त रहेंगे। यही शाम्भवी दीक्षा है। इतना ढीठ बन जाना, कि दुनियाँ की कोई भी ताकत, कोई भी व्यक्ति हमें रुला न सके, हमें विचलित न कर सके, हम पर हावी न हो सके और हम पर नियंत्रण न कर सके। जो गुरु हृदय में से बोलेगा वहीं हम करेंगे। देखिए सृष्टि में सबसे ज्यादा दुखी, व्यथित, परेशान मध्य मार्गीय होता है। मध्यमार्गी कायरता की निशानी है। मध्यमार्गी कहीं का नहीं रहता। न जी सकता है न मर सकता है। मध्यमार्गी ही त्रिशंकु कहलाते हैं न स्वर्ग के रहते हैं न पृथ्वी के बस बीच में लटके रहते हैं। इसका कारण उनकी गणित लगाने की प्रवृत्ति, कुछ ज्यादा दिमाग चलाने की आदत और स्वयं तर्क कुतर्क में उलझे रहने की प्रवृत्ति ही है एक मध्यम वर्गीय परिवार में विवाह जैसी सामान्य प्रक्रिया मुसीबत का कारण बन जाती है। उच्च वर्ग में विवाह कोई समस्या नहीं है और निम्न वर्ग में पाँच हजार रुपये में विवाह हो जाता है। उसी में वे आनंद उठा लेते हैं। सारा का सारा कचरा घर मध्य वर्ग है ठीक इसी प्रकार जो मध्य मार्गीय सोच से ग्रसित होते हैं, वे गुरु को प्राप्त करने के बाद भी हैरान परेशान रहते हैं। 

             मैंने देखा है गरीब और आदिवासियों को, खेतिहर किसानों को उनके पास पैसा नहीं होता पर वे गुरु को प्राप्त करते ही ध्यानस्थ हो जाते वे हैं। अपने खेत में बैठे-बैठे गुरु से सम्प्रेषण कर लेते हैं। उच्च वर्गीय हवाई जहाज का टिकिट कटाकर गुरु के दरवाजे इच्छा होते ही पहुँच जाते हैं और बचा मध्य वर्ग बस गुरु को गाली देता रहता है और सड़ता रहता है। निखिलेश्वरानंद जी के शिविरों में मैंने अद्भुत आध्यात्मिक दर्शन प्राप्त किए हैं। एक शिविर में एक सात वर्षीय बालक आया । उसका सिर मुंडा हुआ था, पीताम्बर ओढ़ रखा था उसने वह अपने माँ बाप से जिद कर रहा था कि मुझे गुरुजी के पास ले चलो। थक हारकर माँ बाप लेकर आये । मैंने बालक से पूछा कौन सी दीक्षा लेनी है तुम्हे, वह ब्राह्मण जाति का बालक था बोला मैं नवार्ण दीक्षा लेना चाहता हूँ। मैंने सोचा सामान्यतः बालक तो सरस्वती दीक्षा लेते हैं यह नवार्ण दीक्षा क्यों लेने आ गया। वह बोला पिछली बार यह दीक्षा छूट गई थी। मैं बोला पिछली बार का क्या मतलब तुम तो पहली बार आये हो वह बोला हाँ पहली बार आया हूँ पर पिछली बार किसी कारणवश यह दीक्षा छूट गई थी। मैं तुरंत समझ गया इसे पूर्व जन्म की स्मृति आ गई है शायद गुरुजी ने इसे खींच लिया हो । दीक्षा के बाद मैं पुनः बालक से मिला मैं क्या देखता हूँ कि बालक बिल्कुल सामान्य है एवं पूर्व जन्म की याददाश्त के चिन्ह उसके चेहरे पर कहीं नहीं है। निश्चित ही गुरुजी ने पूर्व जन्म की याददाश्त को प्रतिबंधित कर दिया होगा। 

            एक बात और देखने को मिली उनके शिविरों में उनके शिष्यों की संख्या एक प्रकार से निश्चित रहती थी चार से पाँच हजार के बीच परन्तु हर बार अस्सी प्रतिशत चेहरे नये होते थे। ये साधनात्मक शिविरों का रहस्य है। यह दीक्षा प्रणाली का विधान है। हर जीवन में हर व्यक्ति की सभी दीक्षाऐं नहीं होती। एक बार एक व्यक्ति को उसकें घर वाले जंजीरों से बांध कर लाये वह विक्षिप्त सा था और वह व्यक्ति गुरुजी के मंच के नीचे तीन दिन तक सोता रहा। चौथे दिन वह ठीक हो गया। हर व्यक्ति के लिए गुरु की खोज अलग-अलग है। मेरे एक जान पहचान वाले थे अपने कुकर्मों से वह विक्षिप्त हो गये थे उसके घरवाले बहुत परेशान थे। वह सब काम छोड़, पागलों के समान घूमते थे खैर उसे भी पकड़कर गुरुजी के पास ले गये। कई बार मार-मार कर भी सुधारना पड़ता है। गुरुजी ने उसे तीन चरणों में दीक्षा दी। आज वह कई सौ एकड़ जमीन का मालिक है और दवा की दुकान भी चलाता है। कल तक जो दवा खाता था जिसे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान ने भी लाइलाज घोषित कर दिया था अब वह खुद दूसरों को दवा बेचता है। यह सब अनमोल एवं अत्यंत ही दिव्य अनुभव हैं मेरे जीवन के ।

               कैसे- कैसे लोग गुरुजी के पास आये, किस-किस माध्यम से किस-किस बहाने, किन-किन समस्याओं ने उन्हें गुरुजी के नजदीक पहुँचाया और उनकी गुरु की खोज समाप्त की। खेल-खेल में भी गुरु मिलते है। गुरु शिष्यों के ऊपर सदैव आवरण डालकर रखते हैं। यही है गुरु की पहचान अगर वह अपनी विराटता, अपनी सम्पूर्णता और अपने वैभव का वास्तविक स्वरूप शिष्य को दिखा देगा तो फिर शिष्य असहज हो जायेगा। शिष्य मतिभ्रम का शिकार हो जायेगा। गुरुजी में एक खासियत थी जैसा शिष्य हों वे वैसी ही बात करते थे। इस मर्यादा का वे कड़ाई से पालन करते थे। 

           पहली क्लास के बच्चे को इंजिनियरिंग का गणित नहीं पढ़ाना चाहिए। नहीं तो यह पढ़ाने वाले के दिवालिएपन का परिचायक है।सहजता के साथ जितना प्राप्त किया जा सकता है उतना ढोंग के द्वारा नहीं। सहजता सफल शिष्य होने की निशानी है । प्रत्येक गुरु को सीधे-सादे, सच्चे, सहज, निष्कपट और सरल हृदय के शिष्य ही पसंद होते हैं। आडम्बरी, नाटकीय व्यक्तियों को कोई पसंद नहीं करता। जीवन में सब कुछ एक दिन अचानक होता है। अचानक ही गुरु मिलते हैं। गुरु प्लानिंग से नहीं मिलते। गुरु को प्राप्त करने के लिए उस प्रकार के निरर्थक प्रयास नहीं करने पड़ते जिस प्रकार से प्रयास शादी के लिए करने पड़ते हैं। गुरु की प्राप्ति शुभ कर्मों के उदय का प्रथम लक्षण है। जीवन के पूर्ण परिवर्तनीय होने की पहचान है गुरु की खोज। 

                एक शिविर का आयोजन सम्पन्न हुआ था। सारा सामान मैदान से उठाया जा रहा था तभी एक महिला किसी अन्य प्रांत से मेरे पास आयी और बोली मुझे गुरुजी से मिलना है। मैंने कहा गुरुजी तो चले गये। वो बोली अब कहाँ मिलेंगे, मैंने कहा तुम दिल्ली चली जाओ। वह रोती हुई दिल्ली चली गई। वहाँ पर भी गुरुजी उसे नहीं मिले। उसे वहाँ से जोधपुर जाना पड़ा। वहाँ उसकी गुरु दीक्षा हुई। उसने हिम्मत नहीं हारी। अकेली महिला होते हुए भी दिल्ली से जोधपुर गई और अंत में गुरु को खोजकर ही मानी। मेरी एक जान पहचान वाला है जब-जब गुरुजी आते मैं उसे बुलाता पर उसकी किस्मत ही खराब थी। वह कभी कहीं उलझ जाता तो कभी उसे अचानक बाहर जाना पड़ जाता। अंत तक उसकी दीक्षा नहीं हो पायी। अब वह नित्य प्रतिदिन गुरु मंत्र का जाप एवं गुरु पूजन करता है। ऐसा भी होता है। दीक्षा केवल शिविरों में ही नहीं होती है। गुरुजी के साथ तो यह आलम था कि देर से आये लोग रेल्वे प्लेटफार्म पर ही दीक्षा लेने लगते थे। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक व्यक्ति दीक्षा के लिए ट्रेन में चढ़ गया। उसने ट्रेन के डिब्बे में ही दीक्षा ली और दूसरे प्लेटफार्म पर उतर गया। भगवान जाने कब कहाँ किस हाल में किस स्थिति में किसको गुरु मिल जाये। सबकी अपनी-अपनी कहानी है। खैर गुरु मिलना चाहिए। 

              एक शिष्य अपनी पत्नी से छिप छिपकर गुरुजी से मिलने आता था। उसकी पत्नी बहुत झगड़ा करती थी। बाद में पत्नी पति से भी ज्यादा गुरु भक्त बन गई। कब किसमें कैसे भाव फूट पड़ें। लोग दस-दस वर्ष तक दीक्षा के पश्चात घूमते रहे हैं। उनके अंदर श्रृद्धा और भक्ति का झरना फूटा ही नहीं पर मैं क्या देखता हूँ कि एक दिन अचानक वे भक्तिमय हो गये और गीत उनके मुख से झरने लगे। मानस शुद्धि, पूर्व जन्म के शाप कटने में समय लगता है पर गुरु मिल जाने के बाद देर सबेर यह तो होकर ही रहता है। गुरु अपना असर जरूर दिखाता है। लोहा भी एक तापमान पर मोम के समान मुलायम हो जाता है। लड़ाई-झगड़े, गुरु से शिकायत, गुस्सा यह सब सामान्य बातें हैं। जीवन के यह आवश्यक अंग है। गुरु इनका कभी बुरा नहीं मानता वह इन परिधियों से ऊपर रहता है। फिर से जवान बना देना, फिर बाल्यावस्था को लौटा देना यही गुरु का कार्य है। गुरु की खोज जीवन की सबसे बड़ी खोज है आप भी इस खोज में सफल हों बस इतना ही कहना है।

         गुरु कृपा ही केवलम् गुरु कृपा ही केवलम्



धन्याष्टकम् ।।

       आदि गुरु श्री शंकराचार्य जी स्वयं उस गुरु से दीक्षित थे जो कि परमहंस अवस्थाओं को आत्मसात कर चुके थे और उन्होंने अपने स्वयं के जीवन में भी उसी परमहंस अवस्था को आत्मसात कर उस दिव्य और अति दुर्लभ शिव दृष्टि को प्राप्त किया था जिसके द्वारा वे सत्य को नग्न अवस्था में स्थित प्रज्ञ हो निहार सकते थे इसीलिये उनके द्वारा रचित प्रत्येक स्त्रोत भारतवर्ष की धरोहर है। काल आता जाता रहेगा परन्तु उनके द्वारा रचित दिव्य स्त्रोत सदैव शाश्वत् बने रहेंगे। परमहंस वाणी की यही विशेषता है। इस वाणी पर शिव आरूढ़ होते हैं और शिव ही 'सत्यम शिवम् सुन्दरम्' हैं। उनके द्वारा रचित स्त्रोत समग्रता लिये हुये है। एक-एक शब्द गुरु बल से सम्पुट है कहीं भी व्यर्थ का उच्चारण नहीं मिलता है। जब इन दिव्य स्त्रोतों की तरंगे मस्तिष्क को स्पंदित करती हैं तो एक ऐसा दिव्य अनुभव होता है जिसे वर्णित नहीं किया जा सकता। सम्पूर्ण अस्तित्व हिमालय के समान शांत और दिव्य हो उठता है। आदि गुरु श्री शंकराचार्य जी द्वारा रचित धन्याष्टकम् स्त्रोत उनके गुरुबल की श्रेष्ठता को दर्शाता है साथ ही इसके अंदर वह दिव्य शक्ति छिपी हुई है जिसे आत्मसात कर साधक अपने जीवन में परमहंस स्वरूप को उतार सकता है। जैसे-जैसे यह स्त्रोत हृदय के नजदीक पहुँचता जायेगा वैसे-वैसे साधक परमहंस अवस्था की तरफ अग्रसर होता जायेगा। अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं के लिये यह स्त्रोत दिव्य औषधि का कार्य करेगा।

धन्याष्टकम् --

तज्ज्ञानं प्रशमकरं यदिन्द्रियाणां
तज्ज्ञेयं यदुपनिषत्सु निश्चितार्थम् ।
ते धन्या भुवि परमार्थनिश्चितेहाः
शेषास्तु भ्रमनिलये परिभ्रमन्तः ॥ १॥

आदौ विजित्य विषयान्मदमोहराग-
द्वेषादिशत्रुगणमाहृतयोगराज्याः ।
ज्ञात्वा मतं समनुभूयपरात्मविद्या-
कान्तासुखं वनगृहे विचरन्ति धन्याः ॥ २॥

त्यक्त्वा गृहे रतिमधोगतिहेतुभूताम्
आत्मेच्छयोपनिषदर्थरसं पिबन्तः ।
वीतस्पृहा विषयभोगपदे विरक्ता
धन्याश्चरन्ति विजनेषु विरक्तसङ्गाः ॥ ३॥

त्यक्त्वा ममाहमिति बन्धकरे पदे द्वे
मानावमानसदृशाः समदर्शिनश्च ।
कर्तारमन्यमवगम्य तदर्पितानि
कुर्वन्ति कर्मपरिपाकफलानि धन्याः ॥ ४॥

त्यक्त्वईषणात्रयमवेक्षितमोक्षमर्गा
भैक्षामृतेन परिकल्पितदेहयात्राः ।
ज्योतिः परात्परतरं परमात्मसंज्ञं
धन्या द्विजारहसि हृद्यवलोकयन्ति ॥ ५॥

नासन्न सन्न सदसन्न महसन्नचाणु
न स्त्री पुमान्न च नपुंसकमेकबीजम् ।
यैर्ब्रह्म तत्सममुपासितमेकचित्तैः
धन्या विरेजुरित्तरेभवपाशबद्धाः ॥ ६॥

अज्ञानपङ्कपरिमग्नमपेतसारं
दुःखालयं मरणजन्मजरावसक्तम् ।
संसारबन्धनमनित्यमवेक्ष्य धन्या
ज्ञानासिना तदवशीर्य विनिश्चयन्ति ॥ ७॥

शान्तैरनन्यमतिभिर्मधुरस्वभावैः
एकत्वनिश्चितमनोभिरपेतमोहैः ।
साकं वनेषु विजितात्मपदस्वरुपं
तद्वस्तु सम्यगनिशं विमृशन्ति धन्याः ॥ ८॥

                           शिव शासनत: शिव शासनत: