Follow us for Latest Update

क्या आप जानते हैं कि इसी पृथ्वी पर विद्यमान है वह जगह जहां साक्षात भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था।

-- उत्तराखंड का त्रियुगीनारायण मंदिर ही वह पवित्र और विशेष पौराणिक मंदिर है। इस मंदिर के अंदर सदियों से अग्नि जल रही है। शिव-पार्वती जी ने इसी पवित्र अग्नि को साक्षी मानकर विवाह किया था। यह स्थान रुद्रप्रयाग जिले का एक भाग है।👇

-- त्रियुगीनारायण मंदिर के बारे में ही कहा जाता है कि यह भगवान शिव जी और माता पार्वती का शुभ विवाह स्थल है।👇
 
-- मंदिर के अंदर प्रज्वलित अग्नि क ई युगों से जल रही है इसलिए इस स्थल का नाम त्रियुगी हो गया यानी अग्नि जो तीन युगों से जल रही है। 
 
-- त्रियुगीनारायण हिमावत की राजधानी थी। यहां शिव पार्वती के विवाह में विष्णु ने पार्वती के भाई के रूप में सभी रीतियों का पालन किया था। जबकि ब्रह्मा इस विवाह में पुरोहित बने थे। 

--उस समय सभी संत-मुनियों ने इस समारोह में भाग लिया था। विवाह स्थल के नियत स्थान को ब्रहम शिला कहा जाता है जो कि मंदिर के ठीक सामने स्थित है। इस मंदिर के महात्म्य का वर्णन स्थल पुराण में भी मिलता है। 
 
-- विवाह से पहले सभी देवताओं ने यहां स्नान भी किया और इसलिए यहां तीन कुंड बने हैं जिन्हें रुद्र कुंड, विष्णु कुंड और ब्रह्मा कुंड कहते हैं।

 -- इन तीनों कुंड में जल सरस्वती कुंड से आता है। सरस्वती कुंड का निर्माण विष्णु की नासिका से हुआ था और इसलिए ऐसी मान्यता है कि इन कुंड में स्नान से संतानहीनता से मुक्ति मिल जाती है। 
 
-- जो भी श्रद्धालु इस पवित्र स्थान की यात्रा करते हैं वे यहां प्रज्वलित अखंड ज्योति की भभूत अपने साथ ले जाते हैं ताकि उनका वैवाहिक जीवन शिव और पार्वती के आशीष से हमेशा मंगलमय बना रहे। 
 
-- वेदों में उल्लेख है कि यह त्रियुगीनारायण मंदिर त्रेतायुग से स्थापित है। जबकि केदारनाथ व बदरीनाथ द्वापरयुग में स्थापित हुए। यह भी मान्यता है कि इस स्थान पर विष्णु भगवान ने वामन देवता का अवतार लिया था। 
 
-- पौराणिक कथा के अनुसार इंद्रासन पाने के लिए राजा बलि को सौ यज्ञ करने थे, इनमें से बलि 99 यज्ञ पूरे कर चुके थे तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर रोक दिया जिससे कि बलि का यज्ञ भंग हो गया। यहां विष्णु भगवान वामन देवता के रूप में पूजे जाते हैं।
जय भोले नाथ।

देवर्षि नारद (Devrishi Narad)

देवर्षि नारद

भगवान विष्णु के २४ अवतार।
धर्म ग्रंथों के अनुसार देवर्षि नारद भी भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। शास्त्रों के अनुसार नारद मुनि, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक हैं। उन्होंने कठिन तपस्या से देवर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते हैं। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में देवर्षि नारद को भगवान का मन भी कहा गया है। श्रीमद्भागवतगीता के दशम अध्याय के 26वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है- देवर्षीणाम्चनारद:। अर्थात देवर्षियों में मैं नारद हूं।

Devrishi Narad

One of the 24 Avatars Of Parbrahma Vishnu.
Parbrahma Vishnu took his fourth incarnation as Narada. Narada by becoming a 'Devarishi' among all the sages, achieved liberation from all of his Karma's (action). Narada was the one who gave discourses to the Vaishnavas (followers of Lord Vishnu) on 'Pancharatra Tantra'. Parbrahma Vishnu in his incarnation as Narada, showed that, the devotion is the best mean of getting liberated from all the bondages of 'Karma's'. He also said that a devotee of Parbrahma Vishnu is the supreme among the devotees in the same way as Devarishi Narada among the Sages.


हमारा युग निर्माण सत्संकल्प :-

✴Our Yug Nirman Holy Pledge✴


1... WE shall implement in life the discipline of GOD, realizing that He is all pervasive & just.

हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारे गए।

2... WE shall maintain our health treating our body as the temple of GOD by observing self restraint & regularity in life.

शरीर को भगवान का मन्दिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।

3... WE shall maintain the habit of self-study and keeping good company in order to avoid bad thoughts & feelings.

मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।

4... WE shall constantly practise sense organs control, wealth control, time management & thought control.

इन्द्रिय-संयम, अर्थ-संयम, समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।

5... WE shall always treat ourselves as inseparable part of society and consider other's intrests as our own.

अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।

6... WE shall observe the decencies, avoid undesirable acts, perform civil duties and remain loyal to society.

मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओ से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।

7... WE shall always consider WISDOM, HONESTY, RESPONSIBILITY, BRAVERY as
integral part of life.

समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविछिन्न अंग मानेंगे।

8... WE shall create an all around atmosphere of sweetness, cleanliness, simplicity and gentleness.

चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।

9... WE shall accept defeat while following the ethical path rather than success by unethical means.

अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।

10... WE shall consider noble thoughts & virtues deeds as yardstick for evaluating man's greatness rather than his success, merits and achievements.

मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलता, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं , उसके सद्विचारों ओर सत्कर्मों को मानेंगे।

11... WE shall not do anything to others that we ourselves do not like.

दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे , जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।

12... Man & woman will maintain natural pious relation.

नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।

13... WE shall utilize regularly as a part of our earning, time, influence, human values & efforts towards dissemination of the fruits of righteous deeds in the whole world.

संसार में सत्प्रिवार्तियो के पुण्य-प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।

14.. Discretion shall be given more importance than tradition.

परम्पराओं की तुलना में विवेक को अधिक महत्व देंगे।

15. WE pledge to take full interest in uniting good people, activities of novel creation and combating unethical forces.

सज्जनों को संगठित करने , अनीति से लोहा लेने और नव सृजन की गतिविधियों में पूरी रूचि लेंगे।

16... We shall be commited to national integration & equality. We shall not be guided by any feeling of discrimination & mutual differences caused by race, gender, language, province, sect etc.

राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान रहेंगे ! जाति , लिंग, भाषा, प्रान्त , सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।

17... An individual is the architect of one's own destiny, Based on this belief we are confident that if we become excellent and make others great, surely the YUG or ERA shall change.

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे, तो युग अवश्य बदलेगा।

18... WE shall change the era shall change, we shall improve - the era shall be improve, we have full faith in this reality.

"हम बदलेंगे- युग बदलेगा, हम सुधरेंगे - युग सुधरेगा" इस तथ्य हमारा परिपूर्ण विश्वास है।

सनातन धर्म की अदभुत गाथा : -

शंकराचार्य जी सुबह-सुबह गंगा स्नान करने के लिए जा रहे थे। देखा कि एक नवयुवती विधवा का वेश बनाए बीच रास्ते में विलाप कर रही है और एक लाश उसकी गोद में पड़ा है। चूड़ियाँ उसने तोड़ दी हैं और मांग का सिंदूर भी पोछ दिया है। “हाय मेरा पति चला गया है। अब मैं जीकर क्या करूंगी? अरे कोई इसकी अंत्येष्टि के लिए तो आए”- ऐसा कहकर वो नवयौवना विलाप कर रही थी। वस्त्रों एवं आभूषण से ऐसा लगा रहा था कि कुछ दिन पहले ही इसका विवाह हुआ है। सुबह-सुबह यह हृदय विदारक दृष्य देख शंकराचार्य जी भी दुःखी हो गए। उनका गंगा स्नान का समय हो रहा था। अतः उस युवती से उन्होंने कहा - माता इस संसार में जो आया है, उसे जाना ही पड़ेगा। तु व्यर्थ विलाप क्यों करती है? तुम्हारा क्या था, जो तुमने खो दिया? अब जरा रास्ता दे, मुझे गंगा स्नान को जाना है। कह उठे पोथी पढ़ कर विद्वान हुए शंकराचार्य जी। बार-बार कहने पर भी जब उस युवती ने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया,तो शंकराचार्य जी खीझ उठे – “माता मेरी बात पर ध्यान क्यों नहीं देती, जरा इस शव को बगल कर मुझे रास्ता दे।” इस पर वह युवती बोली - देखते नहीं मेरा पति अभी-अभी मरा है। मुझ असहाय युवती से अकेले यह कैसे हटेगा? मेरे परिवार वाले आते होंगे, वे इसकी अंत्येष्टि के लिए ले जायेंगे।

मेरे पास इतना समय नहीं है, माँ।

तु तो बलिष्ठ है, तु ही इन्हें एक किनारे कर दे।

मैं संन्यासी हुँ माँ, किसी सांसारिक व्यक्ति के लाश को भला मैं कैसे स्पर्ष करूं?- शंकराचार्य जी बोले।

अब उस युवती का चेहरा तमतमा उठा। बोली – “तब तो केवल एक ही रास्ता है, संन्यासी जी, आप खुद इस शव को कह दीजिए कि यह रास्ते से एक ओर हट जाए।”

शंकराचार्य जी और भी विस्मय में पड़ गए। ‘भला ऐसे कैसे हो सकता है। कहीं लाश भी स्वयं चल सकती है। तब वह युवती बोल उठी – “क्यों शंकर के शिष्य शंकराचार्य जी। आप ही तो कहते थे, ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। जिस प्रकार मिट्टी से बनी हुई वस्तु मिट्टी की ही कही जाएगी, उसी प्रकार ब्रह्म की कृति भी तो ब्रह्म ही है। तो फिर अपने ब्रह्म से क्यों नहीं कह देते कि एक ओर हट जाए। शक्ति नहीं रही इसके शरीर में तो क्या हुआ? अब भी तो यह शिव की ही कृति है।”

अब शंकराचार्य जी की आंखें खुली। गिर उठे उस युवती के चरणों में क्षमा मांगते हुए। “पहचान नहीं पाया माँ। क्षमा करो। तुम्हीं एक मात्र इस संसार समेत संपूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करने वाली हो। यह जगत मिथ्या नहीं माँ, तेरी लीला का विलास मात्र है। तू शिव के अधीन नहीं जगदम्बा, बल्कि शिव तेरे अधीन हैं। मैं जान गया माँ कि शक्ति जब शिव से निकल जाए तो वह केवल शव रह जाता है। शिव तेरे बिना स्वतंत्र कुछ भी करने में असमर्थ है, माँ। बार-बार क्षमा मांगता हूँ महादेवी। क्षमस्व अपराधम्-क्षमस्व अपराधम्। ऐसा कहते हुए बार-बार रोने लगे, उस युवती के चरणों में गिरकर शंकराचार्य जी। जो ज्ञान उन्हें पूरी जींदगी में प्राप्त न हुआ था, वह कुछ ही देर में उन्हें प्राप्त हो गया और कह उठे – “त्वमेका भवानी त्वमेका।” अब तक का प्राप्त सारा ज्ञान उन्हें तुच्छ प्रतीत होने लगा। अब वहाँ न वह युवती थी और न वह शव। वहाँ साक्षात् त्रिशुल एवं चक्र धारण किए जगदम्बा थीं। शिव की नगरी में शक्ति ने लीला दिखा ही दी और सत्य-सनातन वैदिक धर्म की रक्षा हेतु मठों की स्थापना की आज्ञा दी। कालांतर में भगवती की आज्ञा पाकर शंकराचार्य जी ने भारत वर्ष में चारों दिषाओं में चार मठों एवं अनेक उपमठों की स्थापना की और वहाँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी एवं उनके विविध स्वरूपों की पूजा का विधान किया। सर्वप्रथम कांचीकामपुरम् पीठ की स्थापना हुई। इस मठ की स्थापना के पूर्व माता जगदम्बा ने फिर एक बार लीला रची। जहाँ आज कांचीकामपुरम् का मठ है, वहाँ शंकराचार्य जी ने एक आधी रात को बड़ी विचित्र लीला देखी। देखा कि एक विशाल महान विषधर सर्प फन ताने बैठा है, और वह एक गर्भिनी मेंढकी की रक्षा कर रहा है। समझ गए शंकराचार्य जी आदि शक्ति माता जगदम्बा की लीला को, कि सत्य-सनातन धर्म की रक्षा स्वयं भगवती ही कर रही हैं। बस हो गया सनातन धर्म की रक्षा हेतु सर्वोत्तम भूमि का चयन, जिसे स्वयं भगवती ने ही चुन कर दिया था। जिस जगह पर भय प्रदाता भी रक्षात्मक हो जाए, वही है सनातन धर्म की स्थापना का केंद्र बिंदु। मृत्यु भी जहाँ जीवन में परिवर्तित हो जाए। भक्षक भी रक्षक हो जाए।

अगर महालक्ष्मी न हो तो भला विष्णु की पूजा कौन करेगा? चंद्रमा में शीतल चांदनी न हो तो चंद्रमा का क्या महत्व? अग्नि में दाहक शक्ति न हो तो अग्नि की क्या आवष्यकता? और फिर शंकराचार्य जी ने सौन्दर्य लहरी की रचना कर माता त्रिपुरसुन्दरी के महातिशय अगम्य महासौन्दर्य का दिव्य वर्णन् किया और उनकी प्रंशसा में यह लिखा कि – “हे माँ, माता महात्रिपुरसुन्दरी, अगर तुम न हो तो भस्म रमाये, बुढ़े बैल की सवारी करने वाले शिव
को भला कौन पूजेगा?भगवान शिव का वास्तविक सौन्दर्य हे माँ बस आप ही हैं।
यह सही है कि आज धर्म में कुछ अवांछनीय तत्वों का प्रवेश हो गया है। जेल से छूटे हुए अपराधी भी संत होने का स्वांग रच रहे हैं। चोरी एवं पॉकेटमारी करने वाले लोग भी माया अति ठगिनी का संदेश दे रहे हैं। जीवन भर लड़कियों के पीछे घुमने वाले पापी भी बुढ़ापे में ब्रह्मचर्य का उपदेश दे रहे हैं। कुछ पैसे के लिए किसी का भी गला काट लेने वाले जेल से छूटने के बाद सत्य-अहिंसा का संदेश देते हैं। ऐसे कुछ मुठ्ठी भर पापियों के कारण पूरे संत समाज को बदनाम करना कतई उचित नहीं। अगर कुछ नाले गंगा में मिल जाये, तो गंगा की पवित्रता समाप्त नहीं होगी। हाँ समाज से ऐसे पापियों को निकालना ही होगा।

भगवती त्रिपुरसुन्दरी पंचप्रेतासिना हैं। ब्रह्मा, विष्णु,रुद्र एवं ईश्वर स्तम्भ हैं, तथा सदाशिव फलक हैं, और इन सबके ऊपर भगवती त्रिपुरसुन्दरी आसीन हैं। इसी प्रकार भारतीय सभ्यता संस्कृति के पांच आधार स्तम्भ हैं – गंगा, गाय, गीता, गायत्री और गुरू। इनके बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

जितनी महिमा "नाम जप" की शास्त्र में कही गयी है, उतनी वास्तव में क्यों नहीं दिखती?

तुम बड़ी बहकी बात करते हो। खीर में मीठा नही डाला और कह रहे हो कि खीर में स्वाद नही है। ये बहकी बात ही तो है। तुम भी वही कर रहे हो। तुम ही नही, मैं भी यही करता था। सब यही कर रहे है। लेकिन कोई मीठा डालता ही कहा है खीर में।

देखो, नाम जप में उतनी तो महिमा है ही जितनी शास्त्रों में कही गयी है, बल्कि उससे भी अधिक है। परन्तु आज जो ये महिमा देखने मे नही आती वो सिर्फ और सिर्फ इसीलिए क्योंकि तुम नाम जप सही नही कर रहे हो। उस तरह से नही कर रहे हो जैसे शास्त्र में कहा गया है। जैसा सिद्धान्त कहता है वैसा नही कर रहे हो। तुम अपनी बुद्धि दौडाकर कर रहे हो। विवेकशून्य होकर कर रहे हो। फिर कहते हो कि लाभ नही होता। अनुभव नही होता। अनुभव कोई बड़ी बात नही। आज और इसी क्षण अनुभव हो जाये। इसी क्षण मुक्ति हो जाये। इसी क्षण कल्याण हो जाये। लेकिन तुम सिद्धान्त और शास्त्र की सुनते ही कहा हो।

देखो, यदि एक नाम भी भगवान का अच्छे से ले लिया जाए तो फिर कहना ही क्या? लेकिन तुम कहोगे की हम तो दिन में सेकड़ो नाम लेते है। हजारो नाम लेते है। फिर अनुभव क्यों नही होता?

तुम्हे अनुभव होगा भी नही। हो ही नही सकता। कोई करा भी नही सकता। अब अनुभव की बात करते हो तो मैं तुम्हे एक तरीका बता सकता हूँ।

नाम जप का प्रभाव तुरन्त देखने को मिलेगा। अनुभव भी होगा। रस भी आएगा। लेकिन सब तुम पर निर्भर है।

देखो, तुम जब तक सांसारिक होकर नाम जप करोगे तो जल्दी अनुभव नही होगा। बहुत देर हो जाएगी। यदि तुम पारमार्थिक होकर एक नाम भी पुकार लो तो उन भगवान की इतनी हिम्मत नही की वो तुम्हारे पास आने से मना कर दे। पर समस्या यही है। तुम सांसारिक होकर नाम जपते हो। संसार से सम्बंध मानकर जप करते हो। शरीर से सम्बंध मानकर जप करते हो। फिर ऊपर से दोष देते हो कि अनुभव नही होता।

अब जरा काम की बात करते है। सिद्धान्त और शास्त्र की बात करते है। अनुभव की बात करते है। देखो, तुम सांसारिक होकर जप कर रहे हो लेकिन रस नही आ रहा। अब पारमार्थिक हो जाओ, परमात्मा के होकर जप करो। फिर देखो, रस की धार शुरू होगी। अनन्त रस आना शुरू होगा। अनुभव भी होगा।

अब प्रश्न आता है कि पारमार्थिक कैसे बने?

देखो, इसमे बनने जैसा कुछ है ही नही। करने जैसा कुछ है ही नही। बनता तो वो है जो पहले से नही है। तुम तो पहले से ही परमात्मा के हो तो फिर इसमे बनना कैसा। बस तुम्हे मान्यता बदल लेनी है। मान्यता बदलते ही सब बदल जायेगा। अनुभव हो जाएगा।

जैसे पहले तुम संसार और शरीर से सम्बंध मानकर जप कर रहे थे वैसे अब खुद को परमात्मा का मान कर जप करो तो इसी क्षण लाभ होगा।

मीरा कहती है कि-

मेरो तो गिरधर गोपाल, दूजा न कोई।

देखो, मीरा ने कितनी सुंदर बात कही है। उसने संकेत कर दिया कि अनुभव कैसे हो। एक ही पंक्ति में मीरा सब बता गयी।

अब इस पंक्ति को देखो-

"मेरो तो गिरधर गोपाल"

ये बात तो तुम भी मानते हो। मैं भी मानता हूं। सब मानते है। सब कहते है कि मेरा तो भगवान है। लेकिन अब अगली पंक्ति में मीरा ने जो बात कही है वो तुम मानते ही नही। तुम स्वीकार ही नही करते। मीरा कहती है कि गिरधर के अलावा मेरा दूसरा कोई नही है। कोई नही है। कोई नही है।

अब तुम्हारी बात करे तो दूसरे के नाम तुम्हारे माता पिता, पुत्र, स्त्री, भाई, बहन, धन, दौलत और पता नही क्या क्या मान रखा है। यही समस्या है कि अनुभव नही होता। यदि दूजे के नाम पर जिस कोई न रहकर भगवान को अपना लो तो इसी क्षण कल्याण सम्भव है। लेकिन तुमने संसार से तो सम्बन्ध बांध रखा है और पुकार भगवान को रहे हो।

जैसे कोई बच्चा रोता है और माँ माँ चिल्लाता है तो आस पास बैठी दूसरे बच्चो की माँ उसे लेने नही आती। बल्कि उसकी माँ ही उसे संभालती है ।

क्योंकि दूसरे बच्चो की माँ को पता है कि वो अपना नही है। और जो अपना है उसे वो रोने नही देती।

यही बात तुम्हारे साथ है। परमात्मा ही हमारा है। संसार हमारा नही है। न ही शरीर हमारा है। सिर्फ ईश्वर ही हमारा है। उसके अलावा कुछ भी हमारा नही है। जिस दिन इस बात को बुद्धि में बिठा लिया उस दिन नाम जप का तुरन्त मज़ा आ जायेगा।

अब तुम कहोगे की ऐसी मान्यता एक ही बार में बिठाना बड़ा मुश्किल है। सालो पुराना रिश्ता जो संसार से मान रखा है वो अचानक कैसे बदल जाये?

देखो, जैसे किसी लड़की का विवाह होता है तो वह ससुराल की बहू बन जाती है। कोई कहे कि बहु इधर आना, तो वो तुरन्त समझ जाती है कि उसे ही कहा जा रहा है। कोई रात को भी कहे कि बहु जरा ये काम देख लेना तो वो तुरन्त उठकर काम देखती है। अभी दो दिन शादी को हुए है।

और उस लड़की की मान्यता बदल गयी। मान्यता बदल गयी। दो ही दिन में वो खुद को बहु मानने लगी है। उसे सोचना नही पड़ता कि वो बहु है या नही? बस, जैसे ही बहु कहा तो तुरंत सक्रिय हो गयी।

दो ही दिन में इतनी मान्यता बदल गयी तो फिर तुम तो ईश्वर के हो। तुम्हे तो अपने घर की तरफ जाना है। आज और इसी क्षण मान लो कि भगवान ही हमारा है, हम सिर्फ भगवान के है। भगवान के अलावा हमारा कोई नही है। फिर एक बार नाम जप करके देखो।

बस, तत्काल लाभ होगा। अनुभव होगा। बरसो से जो साधना अटकी पड़ी थी वो इसी क्षण सिद्ध हो जाएगी। बस तुम एक बार भगवान के होकर भगवान को पुकारो, सब काम हो जाएगा।

बाकी ऐसी बाते पढ़ने जरूर अच्छी लगती है। लगनी भी चाहिए। लेकिन यदि समय पर अनुसरण नही किया इन बातों का, तो यह जन्म भी जा रहा है। यह जन्म भी जा रहा है। यह जन्म भी जा रहा है। जा रहा है। जा रहा है। जा रहा है। अब पता नही कौनसी जीव योनि में जाओगे?

बैठे मत रहो। शुरू करो।

हे नाथ! मैं आपको भूलूँ नही।🙏🙏🙏


नोट- कुछ लोग मुझसे मार्गदर्शन के लिए पूछते है उनसे मैं दो पुस्तको का नाम बताना चाहूँगा-

साधन सुधा सिंधु - स्वामी रामसुखदास जी महाराज

साधक संजीवनी - स्वामी रामसुख दास जी महाराज।