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हवन शब्द की परिभाषा महत्वपूर्ण व्याख्या ।।

हवन अथवा यज्ञ भारतीय परंपरा अथवा हिंदू धर्म में शुद्धीकरण का एक कर्मकांड है। कुण्ड में अग्नि के माध्यम से ईश्वर की उपासना करने की प्रक्रिया को यज्ञ कहते हैं। हवि, हव्य अथवा हविष्य वह पदार्थ हैं जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है (जो अग्नि में डाले जाते हैं).हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित करने के पश्चात इस पवित्र अग्नि में फल, शहद, घी, काष्ठ इत्यादि पदार्थों की आहुति प्रमुख होती है। वायु प्रदूषण को कम करने के लिए भारत देश में विद्वान लोग यज्ञ किया करते थे और तब हमारे देश में कई तरह के रोग नहीं होते थे । शुभकामना, स्वास्थ्य एवं समृद्धि इत्यादि के लिए भी हवन किया जाता है। अग्नि किसी भी पदार्थ के गुणों को कई गुना बढ़ा देती है । जैसे अग्नि में अगर मिर्च डाल दी जाए तो उस मिर्च का प्रभाव बढ़ कर कई लोगो को दुख पहुंचाता है उसी प्रकार अग्नि 

 हवन कुंड 
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हवन कुंड का अर्थ है हवन की अग्नि का निवास-स्थान। 

कितना बडा हो हवन कुंड ❓

प्राचीन काल में कुण्ड चौकोर खोदे जाते थे, उनकी लम्बाई, चौड़ाई समान होती थी। यह इसलिए था कि उन दिनों भरपूर समिधाएँ प्रयुक्त होती थीं, घी और सामग्री भी बहुत-बहुत होमी जाती थी, फलस्वरूप अग्नि की प्रचण्डता भी अधिक रहती थी। उसे नियंत्रण में रखने के लिए भूमि के भीतर अधिक जगह रहना आवश्यक था। 

उस स्थिति में चौकोर कुण्ड ही उपयुक्त थे। पर आज समिधा, घी, सामग्री सभी में अत्यधिक मँहगाई के कारण किफायत करनी पड़ती है। ऐसी दशा में चौकोर कुण्डों में थोड़ी ही अग्नि जल पाती है और वह ऊपर अच्छी तरह दिखाई भी नहीं पड़ती। ऊपर तक भर कर भी वे नहीं आते तो कुरूप लगते हैं। 

अतएव आज की स्थिति में कुण्ड इस प्रकार बनने चाहिए कि बाहर से चौकोर रहें, लम्बाई, चौड़ाई गहराई समान हो। पर उन्हें भीतर तिरछा बनाया जाय। लम्बाई, चौड़ाई चौबीच-चौबीस अँगुल हो तो गहराई भी 24 अँगुल तो रखना चाहिये पर उसमें तिरछापन इस तरह देना चाहिये कि पेंदा छः-छः अँगुल लम्बा चौड़ा रह जाय। 

इस प्रकार के बने हुए कुण्ड समिधाओं से प्रज्ज्वलित रहते हैं, उनमें अग्नि बुझती नहीं। थोड़ी सामग्री से ही कुण्ड ऊपर तक भर जाता है और अग्निदेव के दर्शन सभी को आसानी से होने लगते हैं। 

 पचास अथवा सौ आहुति देनी हो तो 
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कुहनी से कनिष्ठा तक के माप का (१ फुट ३ इंच) कुण्ड बनाना, एक हजार आहुति में एक हस्तप्रमाण (१ फुट ६ इंच) का, एक लक्ष आहुति में चार हाथ का (६ फुट), दस लक्ष आहुति में छः हाथ (९ फुट) का तथा कोटि आहुति में ८ हाथ का (१२ फुट) अथवा सोलह हाथ का कुण्ड बनाना चाहिये। भविष्योत्तर पुराण में पचास आहुति के लिये मुष्टिमात्र का भी र्निदेश है। 

 कितने हवन कुंड बनाये जायें ?
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कुण्डों की संख्या अधिक बनाना इसलिए आवश्यक होता है कि अधिक व्यक्ति यों को कम समय में निर्धारित आहुतियाँ दे सकना सम्भव हो, एक ही कुण्ड हो तो एक बार में नौ व्यक्ति बैठते हैं। 

यदि एक ही कुण्ड होता है, तो पूर्व दिशा में वेदी पर एक कलश की स्थापना होने से शेष तीन दिशाओं में ही याज्ञिक बैठते हैं। 

प्रत्येक दिशा में तीन व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं। यदि कुण्डों की संख्या 5 हैं तो प्रमुख कुण्ड को छोड़कर शेष 4 पर 12-12 व्यक्ति भी बिठाये जा सकते हैं। 

संख्या कम हो तो चारों दिशाओं में उसी हिसाब से 4, 4 भी बिठा कर कार्य पूरा किया जा सकता है। यही क्रम 9 कुण्डों की यज्ञशाला में रह सकता है। 

प्रमुख कुण्ड पर 9 और शेष ८ पर 12x8 अर्थात 96+ 9 =105 व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं। संख्या कम हो तो कुण्डों पर उन्हें कम-कम बिठाया जा सकता है। 

  समिधा (लकड़ी) 
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समिधा का अर्थ है वह लकड़ी जिसे जलाकर यज्ञ किया जाए अथवा जिसे यज्ञ में डाला जाए . 

 नवग्रह(शान्ति) के लिये 
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यदि नवग्रहों की शांति के लिए हवन किया जा रहा है तो प्रत्येक ग्रह के अनुसार अलग-अलग समिधा का उपयोग किया जाता है। 

--- सूर्य के लिए मदार, 
--- चंद्र के लिए पलाश,  
--- मंगल के लिए खेर, 
--- बुध के लिए चिड़चिड़ा, 
--- गुरु के लिए पीपल, 
--- शुक्र के लिए गूलर, 
--- शनि के लिए शमी, 
--- राहु के लिए दूर्वा और 

--- केतु के लिए कुशा की समिधा हवन में प्रयुक्त की जाती है। 
--- मदान की समिधा रोगों का नाश करती है। 

--- पलाश की समिधा सभी कार्यों में उन्नति, लाभ देने वाली है। 

--- पीपल की समिधा संतान, वंश वृद्धि 
--- गूलर की स्वर्ण प्रदान करने वाली, 
--- शमी की पाप नाश करने वाली, 
--- दूर्वा की दीर्घायु प्रदान करती है और 

--- कुशा की समिधा सभी मनोरथ सिद्ध करने के लिए प्रयोग की जानी चाहिए।

अन्य समस्त देवताओं के लिए आम, पलाश, अशोक, चंदन आदि वृक्ष की समिधा हवन में डाली जाती है।
इनके अतिरिक्त देवताओं के लिए पलाश वृक्ष की समिधा जाननी चाहिए।

ऋतुओं के अनुसार समिधा (लकड़ी)
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यज्ञीय पद्धति में ऋतुओं के अनुसार समिधा उपयोग करने के लिए भी स्पष्ट नियम बताए गए हैं। जैसे 

--- वसंत ऋतु में शमी, 
--- ग्रीष्म में पीपल, 
--- वर्षा में ढाक या बिल्व, 
--- शरद में आम या पाकर, 
--- हेमंत में खेर, 
--- शिशिर में गूलर या बड़ 

की समिधा उपयोग में लाना जानी चाहिए। अग्नि में मूलतः शुद्धिकरण का गुण होता है। वह अपनी उष्णता से समस्त बुराइयों, दोषों, रोगों का नाश करती है। अग्नि के संपर्क में जो भी आता है वह उसे शुद्ध कर देती है। इसीलिए सनातन काल से यज्ञ, हवन की परंपरा चली आ रही है। पाश्वात्य देशों के अनेक शोधकर्ता यह साबित कर चुके हैं कि जिस जगह नियति अग्निहोत्र या हवन होता है, वहां की वायु अन्य जगह की वायु की अपेक्षा अधिक स्वच्छ होती है। 

हवन में डाली जाने वाली वस्तुएं न सिर्फ पर्यावरण को शुद्द रखती हैं, बल्कि रोगाणुओं को भी नष्ट कर देती है। इससे कई बीमारियां ठीक हो जाती हैं। हवन में डाले जाने वाले कपूर और सुगंधित दृव्य वातावरण में एक विशेष प्रकार का आरोमा फैला देते हैं जिसका मन-मस्तिष्क पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

 स्वास्थ्य के लिए हवन का महत्त्व 
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प्रत्येक ऋतु में आकाश में भिन्न-भिन्न प्रकार के वायुमण्डल रहते हैं। सर्दी, गर्मी, नमी, वायु का भारीपन, हलकापन, धूल, धुँआ, बर्फ आदि का भरा होना। विभिन्न प्रकार के कीटणुओं की उत्पत्ति, वृद्धि एवं समाप्ति का क्रम चलता रहता है। इसलिए कई बार वायुमण्डल स्वास्थ्यकर होता है। कई बार अस्वास्थ्यकर हो जाता है। इस प्रकार की विकृतियों को दूर करने और अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने के लिए हवन में ऐसी औषधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं, जो इस उद्देश्य को भली प्रकार पूरा कर सकती हैं। 

 हव्य (आहुति) 
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आहुति अथवा हव्य अथवा होम-द्रव्य अथवा हवन सामग्री वह जल सकने वाला पदार्थ है जिसे यज्ञ (हवन/होम) की अग्नि में मन्त्रों के साथ डाला जाता है।

सुगंध देने वाली वनस्पतियां 
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छड़ीला 
कपूर 
काचरी 
बालछड़ 
हाऊ 
बेर 
सुगंध बरमी 
तोमर बीज 
पानड़ी नागर मोथा, 
बावची,
कोकिला 

औषधीय वनस्पतियां 
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ब्राह्मी 
तुलसी 
गिलोई 

बहुधा खोटे दुकानदार सड़ी-गली, घुनी हुई, बहुत दिन की पुरानी, हीन वीर्य अथवा किसी की जगह उसी शकल की दूसरी सस्ती चीज दे देते हैं। इस गड़बड़ी से बचने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए। 

सामग्री को भली प्रकार धूप में सुखाकर उसे जौकुट कर लेना चाहिए। 

 स्रुवा 
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वह चम्मच-नुमा बर्तन जिसमें (घी इत्यादि) हवन-सामग्री भरकर हवन-कुंड में आहुति दी जाती है। यह लकड़ी का भी हो सकता है एवं धातु का भी. इसके अतिरिक्त हाथों से भी आहुतियां दी जा सकती हैं। 

 आहुतियां देते समय हाथों की मुद्रा 
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हवन करते समय किन-किन उँगलियों का प्रयोग किया जाय, इसके सम्बन्ध में मृगी और हंसी मुद्रा को शुभ माना गया है। 

मृगी मुद्रा वह है जिसमें अँगूठा, मध्यमा और अनामिका उँगलियों से सामग्री होमी जाती है। 

हंसी मुद्रा वह है, जिसमें सबसे छोटी उँगली कनिष्ठका का उपयोग न करके शेष तीन उँगलियों तथा अँगूठे की सहायता से आहुति छोड़ी जाती है। 

शान्तिकर्मों में मृगी मुद्रा, पौष्टिक कर्मों में हंसी और अभिचार कर्मों में सूकरी मुद्रा प्रयुक्त होती है। 

किसी भी ऋतु में सामान्य हवन सामग्री 
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दैनिक या मासिक होम में सामान्यतः नित्य हवन सामग्री का प्रयोग किया जाता है जिसमें जौ (यव), अक्षत, घी, शहद, तिल, पंचमेवा, एवं ऋतुफलों को काटकर प्रयोग किया जाता है इनकी मात्राएं निर्धारित होती है। 

यज्ञ करते समय इनका विशेष ध्यान रखें 
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 प्रायश्चित 

होम- जप आदि करते हुए, आपन वायु निकल पड़ने, हँस पड़ने, मिथ्या भाषण करने बिल्ली, मूषक आदि के छू जाने, गाली देने और क्रोध के आ जाने पर, हृदय तथा जल का स्पर्श करना ही प्रायश्चित है। 

 हवन के विज्ञान-सम्मत लाभ 

राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान द्वारा किये गये एक शोध में पाया गया है कि पूजा —पाठ और हवन के दौरान उत्पन्न औषधीय धुआं हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट कर वातावरण को शुद्ध करता है जिससे बीमारी फैलने की आशंका काफी हद तक कम हो जाती है। 

लकड़ी और औषधीय जडी़ बूटियां जिनको आम भाषा में हवन सामग्री कहा जाता है को साथ मिलाकर जलाने से वातावरण में जहां शुद्धता आ जाती है वहीं हानिकारक जीवाणु 94 प्रतिशत तक नष्ट हो जाते हैं। 

उक्त आशय के शोध की पुष्टि के लिए और हवन के धुएं का वातावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के लिए बंद कमरे में प्रयोग किया गया।

इस प्रयोग में पांच दजर्न से ज्यादा जड़ी बूटियों के मिश्रण से तैयार हवन सामग्री का इस्तेमाल किया गया। यह हवन सामग्री गुरकुल कांगड़ी हरिद्वार संस्थान से मंगाई गयी थी।

हवन के पहले और बाद में कमरे के वातावरण का व्यापक विश्लेषण और परीक्षण किया गया, जिसमें पाया गया कि हवन से उत्पन्न औषधीय धुंए से हवा में मौजूद हानिकारक जीवाणु की मात्र में 94 प्रतिशत तक की कमी आयी। 

इस औषधीय धुएं का वातावरण पर असर 30 दिन तक बना रहता है और इस अवधि में जहरीले कीटाणु नहीं पनप पाते। 

धुएं की क्रिया से न सिर्फ आदमी के स्वास्थ्य पर अच्छा असर पड़ता है बल्कि यह प्रयोग खेती में भी खासा असरकारी साबित हुआ है। 

वैज्ञानिक का कहना है कि पहले हुए प्रयोगों में यह पाया गया कि औषधीय हवन के धुएं से फसल को नुकसान पहुंचाने वाले हानिकारक जीवाणुओं से भी निजात पाई जा सकती है। 

मनुष्य को दी जाने वाली तमाम तरह की दवाओं की तुलना में अगर औषधीय जड़ी बूटियां और औषधियुक्त हवन के धुएं से कई रोगों में ज्यादा फायदा होता है और इससे कुछ नुकसान नहीं होता जबकि दवाओं का कुछ न कुछ दुष्प्रभाव जरूर होता है। 

धुआं मनुष्य के शरीर में सीधे असरकारी होता है और यह पद्वति दवाओं की अपेक्षा सस्ती और टिकाउ भी है। 

 यज्ञाग्नि की शिक्षा तथा प्रेरणा 
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अग्नि भगवान से ऐसी प्रार्थना यजमान करता है कि- 

ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदसे इध्मस्वचवर्धस्व इद्धय वर्धय। -आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/10/17 
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यज्ञ को अग्निहोत्र कहते हैं। अग्नि ही यज्ञ का प्रधान देवता हे। हवन-सामग्री को अग्नि के मुख में ही डालते हैं। अग्नि को ईश्वर-रूप मानकर उसकी पूजा करना ही अग्निहोत्र है। अग्नि रूपी परमात्मा की निकटता का अनुभव करने से उसके गुणों को भी अपने में धारण करना चाहिए एवं उसकी विशेषताओं को स्मरण करते हुए अपनी आपको अग्निवत् होने की दिशा में अग्रसर बनाना चाहिए। नीचे अग्नि देव से प्राप्त होने वाली शिक्षा तथा प्रेरणा का कुछ दिग्दर्शन कर रहे हैं 

अग्नि का स्वभाव उष्णता है। हमारे विचारों और कार्यों में भी तेजस्विता होनी चाहिए। आलस्य, शिथिलता, मलीनता, निराशा, अवसाद यह अन्ध-तामसिकता के गण हैं, अग्नि के गुणों से यह पूर्ण विपरीत हैं। 

जिस प्रकार अग्नि सदा गरम रहती है, कभी भी ठण्डी नहीं पड़ती, उसी प्रकार हमारी नसों में भी उष्ण रक्त बहना चाहिए, हमारी भुजाएँ, काम करने के लिए फड़कती रहें, हमारा मस्तिष्क प्रगतिशील, बुराई के विरुद्ध एवं अच्छाई के पक्ष में उत्साहपूर्ण कार्य करता रहे। 

अग्नि में जो भी वस्तु पड़ती है, उसे वह अपने समान बना लेती है। निकटवर्ती लोगों को अपना गुण, ज्ञान एवं सहयोग देकर हम भी उन्हें वैसा ही बनाने का प्रयत्न करें। अग्नि के निकट पहुँचकर लकड़ी, कोयला आदि साधारण वस्तुएँ भी अग्नि बन जाती हैं, हम अपनी विशेषताओ से निकटवर्ती लोगों को भी वैसा ही सद्गुणी बनाने का प्रयत्न करें। 

अग्नि जब तक जलती है, तब तक उष्णता को नष्ट नहीं होने देती। हम भी अपने आत्मबल से ब्रह्म तेज को मृत्यु काल तक बुझने न दें। 

हमारी देह, भस्मान्तं शरीरम् है। वह अग्नि का भोजन है। न मालूम किस दिन यह देह अग्नि की भेट हो जाय, इसलिए जीवन की नश्वरता को समझते हुए सत्कर्म के लिये शीघ्रता करें। 

अग्नि पहले अपने में ज्वलन शक्ति धारण करती हैं, तब किसी दूसरी वस्तु को जलाने में समर्थ होती है। 

हम पहले स्वयं उन गुणों को धारण करें जिन्हें दूसरों में देखना चाहते हैं। उपदेश देकर नहीं, वरन् अपना उदाहरण उपस्थिति करके ही हम दूसरों को कोई शिक्षा दे सकते हैं। 

जो गुण हम में वैसे ही गुण वाले दूसरे लोग भी हमारे समीप आवेंगे और वैसा ही हमारा परिवार बनेगा। इसलिये जैसा वातावरण हम अपने चारों ओर देखना चाहते हों, पहले स्वयं वैसा बनने का प्रयत्न करें। 

अग्नि, जैसे मलिन वस्तुओं को स्पर्श करके स्वयं मलिन नहीं बनती, वरन् दूषित वस्तुओं को भी अपने समान पवित्र बनाती है, वैसे ही दूसरों की बुराइयों से हम प्रभावित न हों। स्वयं बुरे न बनने लगें, वरन् अपनी अच्छाइयों से उन्हें प्रभावित करके पवित्र बनावें। 

अग्नि जहाँ रहती है वहीं प्रकाश फैलता है। हम भी ब्रह्म-अग्नि के उपासक बनकर ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलावें, अज्ञान के अन्धकार को दूर करें। तमसो मा ज्योतर्गमय हमारा प्रत्येक कदम अन्धकार से निकल कर प्रकाश की ओर चलने के लिये बढ़े। 

अग्नि की ज्वाला सदा ऊपर को उठती रहती है। मोमबत्ती की लौ नीचे की तरफ उलटें तो भी वह ऊपर की ओर ही उठेगी। उसी प्रकार हमारा लक्ष्य, उद्देश्य एवं कार्य सदा ऊपर की ओर हो, अधोगामी न बने।

अग्नि में जो भी वस्तु डाली जाती है, उसे वह अपने पास नहीं रखती, वरन् उसे सूक्ष्म बनाकर वायु को, देवताओं को, बाँट देती है। हमें जो वस्तुएँ ईश्वर की ओर से, संसार की ओर से मिलती हैं, उन्हें केवल उतनी ही मात्रा में ग्रहण करें, जितने से जीवन रूपी अग्नि को ईंधन प्राप्त होता रहे। शेष का परिग्रह, संचय या स्वामित्व का लोभ न करके उसे लोक-हित के लिए ही अर्पित करते रहें।

आत्मा - जन्मयात्रा - पूर्णब्रह्म = गूढ़ रहस्य

   आत्मा एक प्रकाश पुंज है जो की परम्प्रकाश पुंज का अंश है. पुरे ब्रह्मांड ब्रह्म उर्जा से चालित है. जिसमे यह पूरी सृष्टि निहित है. इस ब्रह्म उर्जा का न कोई आदि न अंत है. इस अनंत उर्जा को हम परमात्मा कहते हैं. आत्मा इसी परमात्मा से निकली हुयी एक प्रकाश पुंज है.
परमब्रह्म उर्जा जब एक प्रकाश पुंज के रूप में निकल कर एक शरीर को धारण करती है तो वह आत्मा कहलाती है. जिस पल उर्जा एक आत्मा के रूप में शरीर को धारण करती है वही से उसकी अध्यात्मिक यात्रा शुरू हो जाती है. जब यह आत्मा परमात्मा रूपी उर्जा से निकल कर कई शरीरो से होते हुए वापिस परमात्मा से जाकर मिलती है तो आत्मा को मोक्ष की उपलब्धि होती है और उसकी अध्यात्मिक यात्रा का अंत हो जाता है.

      मनुष्य योनि उभय योनि अर्थात् कर्म व भोग योनि दोनों है और अन्य पशु, पक्षी, कीट व पतंग आदि योनियां केवल भोग योनि है। परमात्मा ने मनुष्य को अन्य इन्द्रियों व सामर्थ्य के साथ एक बुद्धि जैसी सत्यासत्य का विवेचन करने वाली शक्ति बुद्धि दी है। इस बुद्धि से मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को जान सकता है। वेद, दर्शन, उपनिषद व सत्यार्थपकाश आदि ग्रन्थ बतातें हैं कि जीवात्मा को मनुष्य जन्म पाप व पुण्यों के समान वा पुण्य कर्मों के अधिक होने पर मिलता है। मनुष्य योनि में जहां वह अपने पूर्व कर्मों के सुख-दुःख रूपी फल भोगता है वहीं नये शुभ व अशुभ कर्मों को करता भी है। यदि मनुष्य वेदों व वैदिक विचारधारा के सम्पर्क में आ जाये तो उसे अपने जीवन का उद्देश्य आसानी से समझ में आ जाता है और साथ ही उद्देश्य, जो कि मोक्ष व मुक्ति है, को प्राप्त करने के साधनों का ज्ञान भी हो जाता है। मनुष्य जन्म का उद्देश्य बुरे कर्मों का त्याग व शुभ कर्मों का अनुष्ठान है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर व जीवात्मा आदि पदार्थों के स्वरूप व संसार को अच्छी प्रकार से जानकर ईश्वर का ध्यान, स्तुति, प्रार्थना और उपासना आदि करते हुए तथा यज्ञादि शुभकर्मों को करते हुए ईश्वर साक्षात्कार करना है जिससे मनुष्य बुरी वासनाओं व बुरे कर्मों में प्रवृत्ति से बच जाता है और ईश्वर को प्राप्त होता है। समाधि ही मोक्ष का द्वार है जिससे मनुष्य जन्म व मरण के चक्र से लम्बी अवधि तक के लिए मुक्त हो जाता है। यह मुक्ति योगी, ऋषि मुनि व विद्वानों को ही प्राप्त होती है। असत् कर्म करने वालों को, चाहे वह किसी भी मत को मानते हों, मोक्ष की प्राप्ति कभी सम्भव नहीं है। वैदिक धर्म की शरण में आकर ही जीवन के स्वरूप को यथार्थ रूप में जानकर ही मनुष्य अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है।

   परम तत्व को दो भागों में बांटा गया है: एक भाग है भगवान् और दूसरा है आत्मा। आत्मा को भी दो भागों में विभाजित किया गया है -- पुरुष और स्त्री। इस से यह निश्चित हो जाता है कि हर स्त्री आत्मा अथवा पुरुष आत्मा का एक संगत भाग अर्थात निर्धारित अंश होता है । ये निर्धारित अंश ही मिलकर एक दूसरे को सम्पूर्ण बनाते है। आत्मा के दोनों विभाजित अंशो में एक दुसरे से मिलने के लिए आकर्षण और व्याकुलता होती है । ऐसा इसलिए होता है क्योकि हर आत्मा का लक्ष्य पुनः परमात्मा से मिलना होता है किन्तु इसके पहले एक ही आत्मा के विभाजित अंशो को आपस में मिलना होता है। समय के चलते यह दोनों अंश एक दूसरे से अलग हो गए हैं. ये अलग हुए अंश पूर्णता के लिए एक दूसरे से मिलने को आतुर होते हैं। पुरुष और स्त्री के बीच मिलने के लिए ये घबराहट और उत्तेजना इस सहज आकर्षण के कारण ही है। हम शरीर का रूप बार बार तब तक धारण करते हैं जब तक हमें हमारा खोया हुआ अंश मिल नहीं जाता। जब आत्मा पूर्ण होती है तभी परमात्मा से मिलने की यात्रा शुरू होती है।
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हर आत्मा का उर्जा स्तर भिन्न होता है । किन्तु एक ही आत्मा के विभाजित अंशो में उर्जा का स्तर सामान होता है। सम्पूर्णता के लिए दोनों समान उर्जा वाले ध्रुवों का मिलन आवश्यक है। सही ध्रुवों के मिलन से एक सर्किट/ चक्र पूरा हो जाता है जिससे एक बहुत शक्तिशाली चुम्बकीय ऊर्जा उत्त्पन्न होती है जो थिरकन तथा तीव्र गर्मी पैदा करती है। इस ऊर्जा का अगर सही प्रयोग किया जाए तो यह शरीर के चक्रों का विच्छेदन करके कुण्डलिनी जागरूक करने में सहायक होती है। जैसे जैसे यह ऊर्जा ऊपर की ओर बढती है तो मनुष्य शांत होता जाता है। ऊर्जा के ऊपर बढ़ने का उपोत्पाद शांति होती है तथा नीचे जाने का उपोत्पाद तनाव होता है।

कोई व्यक्ति जब किसी समस्या से ग्रसित होता है तो वह पूजा-पाठ की तरफ देखता है और यथामति उपाय करता भी है बहुतों को लाभ होता है तथा कई को लाभ नहीं भी होता है तो वो परेशान होते है कि आखिर ऐसा क्यों है? तो इस सम्बन्ध में कई कारण हो सकते हैं-

1- समस्या के अनुकूल उपाय न होना 
2-संयम और श्रद्धा से न करना 
3- मन्त्र अथवा स्तोत्र का अशुद्ध उच्चारण 
4- उत्कट कोटि का प्रारब्ध, जो आपको भोगना ही है ।
5-गुरु अथवा मन्त्र पर संशय 
6-समस्या के अनुरूप मन्त्र जप की बहुत कम संख्या 
7-पितृदोष या कुलदेवता की तटस्थता 
8-साधना की उर्जा का आपके पास संचय न हो पाना 
9-गुरु अथवा साधक से छल द्वारा साधना प्राप्त करना 
10-मनमाना साधना करना         
             
       यदि आपको भी लगता है कि आपकी साधना से आपको लाभ नहीं हो रहा तो स्वयं के प्रति ईमानदारी से निष्पक्ष निर्णय कीजिए कि गलती कहाँ है और उसको सुधार कर साधना का लाभ प्राप्त करें ।

मन्त्र के बार-बार जपने से उसका प्रभाव होता है। मन्त्र शब्द के कम्पन से प्रकम्पित होकर मनुष्य के कोष उसके अनुकूल हो जाते हैं। जो कोष अनुकूल होते हैं, उनसे सम्बंधित विषय का बोध मनुष्य को स्वयं अपने आप होने लगता है।
 
मन्त्र का कार्य श्रद्धा पर आधारित है। मन्त्रों की क्रिया उनके उच्चारण पर निर्भर है। मंत्रोच्चारण उनके अर्थ पर निर्भर होते हैं।

मन्त्र के उच्चारण से जो कम्पन पैदा होता है, पहले कुछ समय तक वह वायु में रह कर धीरे-धीरे उसी में विलीन हो जाता है। लेकिन मन्त्र-जप की संख्या जब अधिक हो जाती है तो उसके कम्पन वायु की पर्तों का भेदन कर सूक्ष्मतम वायु मंडल में चले जाते हैं और वहां से उस देवता का आकार-प्रकार बनाने लग जाते हैं जिस देवता का वह मन्त्र होता है। इसीलिए मन्त्र-जप की संख्या निश्चित होती है। 

उस संख्या से जब अधिक जप होती है तभी सूक्ष्मतम वायुमंडल में देवता का आकार-प्रकार बनता है। जब वह पूर्णरूप से बन जाता है तो देवता अपने लोक से आकर उसमें स्वयं प्रतिष्ठित होते हैं। आकार-प्रकार का बनना मन्त्र-चैतन्य का लक्षण है। देवता का अपने आकार-प्रकार में प्रतिष्ठित होना ही मन्त्र-सिद्धि है। मन्त्र सिद्ध होने पर सम्बंधित देवता मन्त्र जपने वाले को उसका फल प्रदान करते हैं। 

    अगर विषयको ध्यानपूर्वक समज लिया जाय तो अध्यात्म क्षेत्रमें आगे बढ़ने , पूजा , उपासना ओर जीवन का मार्ग निर्धारण करनेमे कोई गुंच नही रहती । हरेक जीव का यही लक्ष्य होता है । पूर्णब्रह्म के महतत्व अंश हरेक आत्मा पूर्ण बनकर फिरसे ब्रह्म में ही विलीन हो जाती है । परमपिता महादेव आप सभी धर्मप्रेमी जनो पर सदैव कृपा करें यही प्रार्थना .. अस्तु ..श्री मात्रेय नमः

अध्यात्मशास्त्र के अनुसार मनुष्य किन घटकों से बना है ?

जीवित मनुष्य आगे दिए अनुसार विविध देहों से बना है ।

१. स्थूल शरीर अथवा स्थूलदेह

२. चेतना (ऊर्जा) अथवा प्राणदेह

३. मन अथवा मनोदेह

४. बुद्धि अथवा कारणदेह

५. सूक्ष्म अहं अथवा महाकारण देह

६. आत्मा अथवा हम सभी में विद्यमान ईश्‍वरीय तत्त्व

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आगे के भागों में हम हम इन विविध देहों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करेंगे ।

३. स्थूलदेह
आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से यह देह सर्वाधिक परिचित है । यह देह अस्थि-ढांचा, स्नायु, ऊतक, अवयव, रक्त, पंच ज्ञानेंद्रिय आदि से बनी है ।

४. चेतनामय अथवा प्राणदेह
यह देह प्राणदेह के नाम से परिचित है । इस देह द्वारा स्थूल तथा मनोदेह के सभी कार्यों के लिए आवश्यक चेतनाशक्ति की (ऊर्जा की) आपूर्ति की जाती है । यह चेतनाशक्ति अथवा प्राण पांच प्रकार के होते हैं :

प्राण : श्‍वास के लिए आवश्यक ऊर्जा

उदान : उच्छवास तथा बोलने के लिए आवश्यक ऊर्जा

समान : जठर एवं आंतों के कार्य के लिए आवश्यक ऊर्जा

व्यान : शरीर की ऐच्छिक तथा अनैच्छिक गतिविधियों के लिए आवश्यक ऊर्जा

अपान : मल-मूत्र विसर्जन, वीर्यपतन, प्रसव आदि के लिए आवश्यक ऊर्जा

मृत्यु के समय यह ऊर्जा पुनश्‍च ब्रह्मांड में विलीन होती है और साथ ही सूक्ष्मदेह की यात्रामें गति प्रदान करने में सहायक होती है । .

५. मनोदेह अथवा मन
मनोदेह अथवा मन हमारी संवेदनाएं, भावनाएं और इच्छाआें का स्थान है । इस पर हमारे वर्तमान तथा पूर्वजन्म के अनंत संस्कार होते हैं । इसके तीन भाग हैं :

बाह्य (चेतन) मन : मन के इस भाग में हमारी वे संवेदनाएं तथा विचार होते हैं, जिनका हमें भान रहता है ।
अंतर्मन (अवचेतन मन) : इसमें वे संस्कार होते हैं, जिन्हें हमें इस जन्म में प्रारब्ध के रूप में भोगकर पूरा करना आवश्यक है । अंतर्मन के विचार किसी बाह्य संवेदना के कारण, तो कभी-कभी बिना किसी कारण भी बाह्यमन में समय-समय पर उभरते हैं । उदा. कभी-कभी किसी के मन में अचानक ही बचपन की किसी संदिग्ध घटना के विषय में निरर्थक एवं असम्बंधित विचार उभर आते हैं ।
सुप्त (अचेतन) मन : मन के इस भाग के संदर्भ में हम पूर्णतः अनभिज्ञ होते हैं । इसमें हमारे संचित से संबंधित सर्व संस्कार होते हैं ।
अंतर्मन तथा सुप्त मन, दोनों मिलकर चित्त बनता है ।

कभी-कभी मनोदेह के एक भाग को हम वासनादेह भी कहते हैं । मन के इस भाग में हमारी सर्व वासनाएं संस्कारूप में होती हैं ।

कृपया संदर्भ के लिए पढें, लेख : ‘हम जो कुछ करते हैं, उसका क्या कारण है ?’ साथ ही मन की कार्यकारी रचना समझने के लिए इसी शीर्षक का ‘इ-ट्यूटोरियल (उप शैक्षणिक वर्ग)’ पढें ।

मनोदेह से सम्बंधित स्थूल अवयव मस्तिष्क है ।

६. बुद्धि
कारणदेह अथवा बुद्धि का कार्य है – निर्णय प्रक्रिया एवं तर्कक्षमता ।

बुद्धि से सम्बंधित स्थूल अवयव मस्तिष्क है ।

७. सूक्ष्म अहं
सूक्ष्म अहं अथवा महाकारण देह मनुष्य की अज्ञानता का अंतिम शेष भाग (अवशेष) है । मैं ईश्‍वर से अलग हूं, यह भावना ही अज्ञानता है ।

८. आत्मा
आत्मा हमारे भीतर का ईश्‍वरीय तत्त्व है और हमारा वास्तविक स्वरूप है । सूक्ष्मदेह का यह मुख्य घटक है, जो कि परमेश्‍वरीय तत्त्व का अंश है । इस अंश के गुण हैं – सत, चित्त और आनंद (शाश्‍वत सुख) । आत्मा पर जीवन के किसी सुख-दुःख का प्रभाव नहीं पडता और वह निरंतर आनंदावस्था में रहती है । वह जीवन के सुख-दुःखों की ओर साक्षीभाव से (तटस्थता से) देखती है। आत्मा तीन मूल सूक्ष्म-घटकों के परे है; तथापि हमारा शेष अस्तित्व स्थूलदेह एवं मनोदेह से बना होता है ।

९. सूक्ष्मदेह
हमारे अस्तित्व का जो भाग मृत्यु के समय हमारे स्थूल शरीर को छोड जाता है, उसे सूक्ष्मदेह कहते हैं । इसके घटक हैं – मनोदेह, कारणदेह अथवा बुद्धि, महाकारण देह अथवा सूक्ष्म अहं और आत्मा । मृत्यु के समय केवल स्थूलदेह पीछे रह जाती है । प्राणशक्ति पुनश्‍च ब्रह्मांड में विलीन हो जाती है ।

सूक्ष्मदेह के कुछ अंग निम्नानुसार हैं ।

सूक्ष्म ज्ञानेंद्रिय : सूक्ष्म ज्ञानेंद्रिय अर्थात हमारे पंचज्ञानेंद्रियों का वह सूक्ष्म भाग जिसके द्वारा हमें सूक्ष्म विश्‍व का बोध होता है । उदा. कोई उत्तेजक न होते हुए भी हम चमेली के फूल जैसी सूक्ष्म सुगंध अनुभव कर सकते हैं । यह भी संभव है कि एक ही कक्ष में किसी एक को इस सूक्ष्म सुगंध की अनुभूति हो और अन्य किसी को न हो । इसका विस्तृत विवरण दिया है । हमारा यह लेख भी पढें – छठवीं ज्ञानेंद्रिय क्या है ?
सूक्ष्म कर्मेंद्रिय : सूक्ष्म कर्मेंद्रिय अर्थात, हमारे हाथ, जिह्वा (जीभ) इ. स्थूल कर्मेंद्रियों का सूक्ष्म भाग । सर्व क्रियाआें का प्रारंभ सूक्ष्म कर्मेंद्रियों में होता है और तदुपरांत ये क्रियाएं स्थूल स्तर पर व्यक्ति की स्थूल कर्मेंद्रियों द्वारा की जाती हैं ।

१०. अज्ञान (अविद्या)
आत्मा के अतिरिक्त हमारे अस्तित्व के सभी अंग माया का ही भाग हैं । इसे अज्ञान अथवा अविद्या कहते हैं, जिसका शब्दशः अर्थ है (सत्य) ज्ञान का अभाव । अविद्या अथवा अज्ञान शब्द का उगम इस तथ्य से है कि हम अपने अस्तित्व को केवल स्थूल शरीर, मन एवं बुद्धि तक ही सीमित समझते हैं । हमारा तादात्म्य हमारे सत्य स्वरूप (आत्मा अथवा स्वयंमें विद्यमान ईश्‍वरीय तत्त्व) के साथ नहीं होता ।

Nescience

अज्ञान (अविद्या) ही दुःख का मूल कारण है । मनुष्य धनसंपत्ति, अपना घर, परिवार, नगर, देश आदि के प्रति आसक्त होता है । किसी व्यक्ति से अथवा वस्तु से आसक्ति जितनी अधिक होती है, उतनी ही इस आसक्ति से दुःख निर्मिति की संभावना अधिक होती है । एक आदर्श समाज सेवक अथवा संतके भी क्रमशः समाज तथा भक्तों के प्रति आसक्त होने की संभावना रहती है । मनुष्य की सबसे अधिक आसक्ति स्वयं के प्रति अर्थात अपने ही शरीर एवं मन के प्रति होती है । अल्पसा कष्ट अथवा रोग मनुष्य को दुःखी कर सकता है । इसलिए मनुष्य को स्वयं से धीर-धीरे अनासक्त होकर अपने जीवन में आनेवाले दुःख तथा व्याधियों को स्वीकार करना चाहिए, इस आंतरिक बोध के साथ कि जीवन में सुख-दुःख प्रमुखतः हमारे प्रारब्ध के कारण ही हैं (हमारे ही पिछले कर्मों का फल हैं ।) आत्मा से तादात्म्य होने पर ही हम शाश्‍वत (चिरस्थायी) आनंद प्राप्त कर सकते हैं ।

आत्मा और अविद्या मिलकर जीवात्मा बनती है । जीवित मनुष्य में अविद्या के कुल बीस घटक होते हैं – स्थूल शरीर, पंचसूक्ष्म ज्ञानेंद्रिय, पंचसूक्ष्म कर्मेंद्रिय, पंचप्राण, बाह्यमन, अंतर्मन, बुद्धि और अहं । सूक्ष्म देह के घटकों का कार्य निरंतर होता है, जीवात्मा का ध्यान आत्मा की अपेक्षा इन घटकों की ओर आकर्षित होता है; अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान की अपेक्षा अविद्या की ओर जाता है ।

दत्तात्रेय ।।

दत्तात्रेय का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारत है । साधु समाज में प्रसिद्ध है कि वे सह्याद्रि की तराई में रेणुकापुर में या मातापुर नामक स्थान में प्रतिदिन विश्राम करते हैं । सह्याद्रि के शिखर पर उनका निवास स्थान है । यह उनका पीठ स्थान है ।भगवान काशीक्षेत्र में प्रतिदिन गङ्गा स्नान करने आते हैं । कुल्हाड क्षेत्र में अर्घ्य दान और प्रातः संध्या करते हैं ।
महालक्ष्मी का पीठस्थान कोल्हापुर या दक्षिण काशी में वे भिक्षा ग्रहण करते हैं और पांचालपुर में उस भिक्षाअन्न का भोजन करते हैं । विट्ठल पुर में यानी चंद्रभागा के किनारे बसे पंढरपुर में (जिला सोलापुर )में ये तिलक धारण करते हैं । भीमा और अमरजा नदी के संगम स्थल गाणगापुर में योग साधना करते हैं । कुरुक्षेत्र के स्यमन्तक तीर्थ में आचमन करते हैं । इस तरह यद्यपि भगवान दत्तात्रेय प्रतिदिन लीला के व्याज से भिन्न भिन्न स्थानों में संचार करते रहते हैं , फिर भी उनका स्मरण करने वाले भक्तों के लिए वे अत्यंत निकट हैं । इससे मालूम पड़ता है कि प्रतिदिन सूर्योदय से दूसरे दिन सूर्योदय तक किसी न किसी कर्म के बहाने से सम्पूर्ण भारत की परिक्रमा करते रहते हैं । इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है ,कारण सिद्ध देह में देश और काल का व्यवधान गति का बाधक नहीं होता ।

अश्विनी-वज्रोली मुद्रा ।।

    हिन्दू सनातन धर्म मे वैदिक , तांत्रोक्त , यौगिक , भक्ति , सेवा आदि अनेक मार्ग है । मन को नियंत्रित कर उच्चतम सिद्धि प्राप्त करना , मंत्रानुष्ठान और तन को नियंत्रित कर शरीरस्थ ऊर्जाओं द्वारा प्रचंड शक्ति प्राप्त करना ।

 तांत्रोक्त मार्ग
 तंत्र मार्ग की अनेक क्रिया ऐसी भी है जो आम इन्सान को तन मन की शक्ति के साथ सुआरोग्य भी प्रदान करती है । योगमार्ग में भी ऐसी अनेक क्रियाएं है । 

   प्रत्येक व्यक्ति को पूजा-साधना, व्रत और उपवास के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए कहा जाता है। लेकिन मनोविज्ञान में एक नियम है जिसमें बताया गया है कि व्यक्ति जिस वस्तु अथवा चीज से जितना भी बचने की कोशिश करेगा, वह वस्तु अथवा चीज उसे उतना ही अधिक परेशान करेगी। यानि आप जितना भी ब्रह्मचर्य का पालन करने की कोशिश करेंगे, उतना ही अधिक काम और गंदे विचार आपके मष्तिष्क में आते चले जाएंगे। और इन काम संबंधित विचारों का दवाब आपके मूलाधार चक्र पर होना शुरू हो जाता है। इससे मूलाधार चक्र पर सप्त धातु का दबाव पड़ना शुरू हो जाता है और आपका मन विचलित होने लगता है। इसलिए साधना-पूजा,व्रत तथा उपवास के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करना परेशानी का सबब बन जाता है। यहां अगर आप शरीर से अपने आपको बचा भी लें तब भी मानसिक रूप से आपका ब्रह्मचर्य व्रत खंडित हो जाता है। ऐसी अवस्था से बचने के लिए अश्वनी या वज्रोली मुद्रा लगाई जाती है। इस अश्वनी या वज्रोली मुद्रा के लगाने से सप्त धातु उर्ध्वगामी होकर यानि सप्तधातु को ऊपर की तरफ खींचने पर ओज बनने लगता है और आपके मूलाधार पर दवाब कम हो जाता है। ऐसा करने से मन नियंत्रण में आने लगता है। और साधक का ध्यान भटकता नहीं है।

 अश्वनी-वज्रोली मुद्रा के लाभ 

 1 . अश्वनी-वज्रोली मुद्रा से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने में साधक को मदद मिलती है।

 2 .अश्वनी-वज्रोली मुद्रा सप्तधातु को ओज में बदल देती है। जिससे मूलाधार पर दवाब कम हो जाता है और व्यक्ति के काम विचार कम हो जाते हैं।

 3 . अश्वनी-वज्रोली मुद्रा को खड़े रहकर नहीं किया जा सकता है। अश्वनी-वज्रोली मुद्रा को लेटकर भी नहीं कर सकते हैं। अश्वनी-वज्रोली मुद्रा को किसी भी आसन में बैठकर अथवा कुर्सी-सोफा आदि पर बैठकर किया जा सकता है।

 40 . अश्वनी-वज्रोली मुद्रा का उपयोग 14 वर्ष की आयु के पश्चात कोई भी महिला-पुरूष कर सकता है।

 5 .अश्वनी-वज्रोली मुद्रा को किसी भी प्रकार की साधना, व्रत, उपवास तथा किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक अनुष्ठान आदि का अभ्यास समाप्त होने के बाद अपनाना चाहिए।

6 . अश्वनी-वज्रोली मुद्रा में 30 सेकेंड से लेकर एक मिनट तक का समय लगता है।

 7 .अश्वनी-वज्रोली मुद्रा से मूलाधार चक्र के आसपास का भाग चैतन्य होने लगता है। तथा वहां की नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होने लगती है।

 8 . अश्वनी-वज्रोली मुद्रा का उपयोग मन पर नियंत्रण पाने के लिए किया जाता है।

 अश्वनी-वज्रोली मुद्रा की विधि 

अश्वनी-वज्रोली मुद्रा की विधि बहुत ही आसान है। जब भी आप योग, साधना आदि का अभ्यास कर रहे हों तो जब आपका अभ्यास समाप्त हो जाए तब आप किसी भी आसन में बैठकर या कुर्सी आदि पर बैठकर गुदा को तीस से पचास बार संकुचित करें । और फिर छोड़ें । इस अभ्यास को करने में तीस सेकेंड से एक मिनट का समय लगता है।

इस अभ्यास को जब स्त्रियां करती हैं तब इसे अश्वनी मुद्रा कहा जाता है । और इस अभ्यास को जब पुरूष करता है तब इसे वज्रोली मुद्रा कहा जाता है ।

 गुदा को संकुचित करने और छोड़ने की यही मुद्रा अश्वनी-वज्रोली मुद्रा कहलाती है। 

जब आप साधना के बाद इस मुद्रा का उपयोग करते हैं अथवा इस अश्वनी-वज्रोली मुद्रा को अपना लेते हैं तो आपने साधना के दौरान जो ऊर्जा अथवा शक्ति जमा की है वह ऊर्जा अथवा शक्ति उर्ध्वगामी होनी शुरू हो जाती है और इसका ओज बनना शुरू हो जाता है । इसके बाद आप जो भी व्रत,साधना,उपवास अथवा अनुष्ठान आदि करते हैं उसमें आपको सफलता मिलनी शुरू हो जाती है और इस तरह से आप कम दिनों और कम समय में साधना की ऊँचाईयों पर पहुंच सकते हैं । इसलिए हमेशा ध्यान रखें कि कोई भी साधना, व्रत और अनुष्ठान आदि करने के बाद आप अश्वनी-वज्रोली मुद्रा का उपयोग जरुर करें।