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मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए ?

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥ परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥ इसीलिए विषयो का चिंता भी धर्मानुसार ही करना चाहिये, मतलब संपत्ति में आसक्ति न रहे। किसी ने सही कहा है " खाली हाथ आये थे, खाली हाथ जायेंगे, जो आज तुम्हारा है, काल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। हम इसीको अपना समझकर गढ़ुड में जीते है और ये ही हामारा दुखो का कारण है। " इस दुनिया में जो भी हमने कामाया है, स्थावर या अस्थाबर ये सभी अपने काबिलियत न समझे, ये मालिक का ही देन समझे क्युकी वो मालिक को जैसे देने में कोई देर नहीं लगता और वापस लेने भी कोई देर नहीं लगता। इसका प्रमाण हमने पिछले दिनों में कई बार देख चुके है।

इसीलिए सबसे पहेला हमें धर्म के बारे में जानना होगा, समझना होगा उसके बाद सद्गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के बाद धर्म को अपना के आचरण में लाना पड़ेगा। इसीलिए छात्रावस्था में ७ साल के उम्र से २४ साल तक माता पिता से ज्ञान प्राप्त करने के बाद गुरु के पास जाके शिक्षा ग्रहण करना जरुरी है। गुरु गृह में गुरु की बताये हुये मार्ग पर चलते चलते १७ साल में धर्म हमारा जीवन में उतर आता है। इसमें गुरु सिर्फ अध्यात्मिक विकाश ही नहीं करते वल्कि सांसारिक और भौतिक विकाश भी करवाते है। ऐसा ही जीवन चर्या भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण के जीवन में भी देखा गया है। जब धर्म हमारा व्यवहार में उतर जाएगा उसके बाद सब आसान हो जाएगा। वे हमें कर्त्तव्य क्या है दायित्व क्या है शिखते है। इन वचनों के स्रोत के बारे में जिज्ञासा होने पर मैंने उननिषदों के पन्ने पलटना आरंभ किए तो पाया कि ये तैत्तिरीय उपनिषद् में समाहित हैं ।

वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति ।
सत्यं वद ।
धर्मं चर । 
स्वाध्यायान्मा प्रमदः । 
आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः । 
सत्यान्न प्रमदितव्यम् । 
धर्मान्न प्रमदितव्यम् । 
कुशलान्न प्रमदितव्यम् । 
भूत्यै न प्रमदितव्यम् । 
स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ।।
देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । 
मातृदेवो भव । 
पितृदेवो भव । 
आचार्यदेवो भव । 
अतिथिदेवो भव । 
यान्यनवद्यानि कर्माणि । 
तानि सेवितव्यानि । 
नो इतराणि । 
यान्यस्माकं सुचरितानि । 
तानि त्वयोपास्यानि ।।  
(तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र १ एबं २)

वेद के शिक्षण के पश्चात् आचार्य आश्रमस्थ शिष्यों को अनुशासन सिखाता है । सत्य बोलो । धर्मसम्मत कर्म करो । स्वाध्याय के प्रति प्रमाद मत करो । आचार्य को जो अभीष्ट हो वह धन (भिक्षा से) लाओ और संतान-परंपरा का छेदन न करो (यानी गृहस्थ बनकर संतानोत्पत्ति कर पितृऋण से मुक्त होओ) । सत्य के प्रति प्रमाद (भूल) न होवे, अर्थात् सत्य से मुख न मोड़ो । धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए । अपनी कुशल बनी रहे ऐसे कार्यों की अवहेलना न की जाए । ऐश्वर्य प्रदान करने वाले मंगल कर्मों से विरत नहीं होना चाहिए । स्वाध्याय तथा प्रवचन कार्य की अवहेलना न होवे । देवकार्य तथा पितृकार्य से प्रमाद नहीं किया जाना चाहिए । (कदाचित् इस कथन का आशय देवों की उपासना और माता-पिता आदि के प्रति श्रद्धा तथा कर्तव्य से है ।) माता को देव तुल्य मानने वाला बनो (मातृदेव = माता है देवता तुल्य जिसके लिए) । पिता को देव तुल्य मानने वाला बनो । आचार्य को देव तुल्य मानने वाला बनो । अतिथि को देव तुल्य मानने वाला बनो । अर्थात् इन सभी के प्रति देवता के समान श्रद्धा, सम्मान और सेवाभाव का आचरण करे । जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्हीं का सेवन किया जाना चाहिए, अन्य का नहीं । हमारे जो-जो कर्म अच्छे आचरण के द्योतक हों केवल उन्हीं की उपासना की जानी चाहिए; उन्हीं को संपन्न किया जाना चाहिए । (अवद्य = जिसका कथन न किया जा सके, जो गर्हित हो, प्रशंसा योग्य न हो ।)संकेत है कि गुरुजनों का आचरण सदैव अनुकरणीय हो ऐसा नहीं है ।

अपने आप के द्वारा व्यक्ति क्या करणीय है और क्या नहीं इसका निर्णय करे और तदनुसार व्यवहा हामारे सनातन ग्रंथों में नित्य पांच देवता का पूजा करने विधान है, और गुरु पूजन का विधान बताया है। राम चरित मानस में भी इस बात का जीकर है। आईये देखते है क्या कहते है। कहते है नित्य गणपति, दुर्गा, सूर्य, विष्णु और महादेव शंकर भगवान का पूजा और बाद में गुरु पूजा का विधान है। 

इस पूजा का क्या विशेषता है ? जब हम गणपति का पूजा करते है तो हमें प्रसन्नता, विवेक, सुबुद्धि और सुमति प्राप्त होता है, 

उसके बाद दुर्गा माता जिनसे हमें शक्ति, श्रद्धा और भक्ति प्राप्त होता है, 

सूर्य भगवान से उर्जा और प्रकाश मतलब ज्ञान का प्रकाश हमेशा हामारे ह्रदय में हो। 

विष्णु भगवान विशालता प्रदान करते है, मतलब जो प्रसन्नता भक्ति ज्ञान का प्रकाश हमने उपलब्धि किया है उसको सिर्फ परिवार में ही सिमित न रखे उस फिर बांटे। 

भगवान महादेव जो करुनामय है प्रेम के प्रगाड़ मूर्ति है और विश्वास के प्रतीक है उसको भी दुनिया में बांटे। गुरु पूजन से आयुष्य बृद्धि होता है बुद्धि सुबुद्धि होता है। सद्गुरु समस्त दोषों को सोक लेता है, तथा ग्रह दोषों को हर लेता है। सद्गुरु से बढ़िया बैध कोई नहीं है। वे हमें सब भव रोगों से मुक्ति दिलाता है। भव रोग से मुक्ति होने से आत्म ज्ञान होता है आत्म साक्षात्कार होता है। वो ही चरम शांति और आनंद का दाता है। 

असल में सद्गुरु ही सब कुछ दिलाते है, बस्तुतः सद्गुरु है तो जीवन है। बिना सद्गुरु के भगवद प्राप्ति असम्भव है। तो मतलब क्या हुआ जरा नज़र लगा के सोचिये एक मनुष्य को एक अच्छी जीवन जीने के लिये सबसे पहले प्रसन्नता, सुबुद्धि, सुमति, विवेक चाहिए, उसके साथ ज्ञान और उर्जा चाहिए, उसके साथ श्रद्धा भक्ति और विश्वास मिलके विशाल रूप धारण करे तो अवतारी मनुष्य बन सकते है।

इसीमे भगवद प्राप्ति हो पायेगा, मतलब मनुष्य जीवन का लक्ष्य और उद्द्येश्य। जिसको संतो ने परम सुख शांति और और परम आनन्द बताया है। और इसीको मोक्ष भी कहत है।

गुरु चरणों में कोटि कोटि प्रणाम करके उन्हीके दिए हुए प्रेरणा को हमने लीपिबद्ध करने की कोशिश किया है। गलती को क्षमा कीजीये

श्रीसूक्त महात्मय ।।

राम उवाच- 

एकं मन्त्रं समाचक्ष्व देव लक्ष्मी विवर्धनम् । 
प्रतिवेदं जगन्नाथ यादोगणनृपात्मज ॥ १ 

अर्थ - परशुराम जी कहते हैं हे वरुण पुत्र कृपया करके वह सारे मंत्र जो प्रत्येक वेद में वर्णित है जिनसे समृद्धि प्राप्त की जाती है उनका मुझे वर्णन करें।

पुष्कर उवाच- 
श्रीसूक्तं प्रतिवेदञ्च ज्ञेयं लक्ष्मीविवर्धनम् । 
अस्मिँल्लोके परे वापि यथाकामं द्विजस्य तु ॥ २॥ 
अर्थ - पुष्कर जी कहते हैं श्री सूक्त जो कि प्रत्येक वेद में अवस्थित है वह सभी प्रकार की सुख समृद्धि एवं वैभव आदि देने में समर्थ है उन सभी के लिए, चाहे वे किसी भी जगत में रहते हो।

राम उवाच- 
प्रतिवेदं समाचक्ष्व श्रीसूक्तं पुष्टिवर्धनम् । 
श्रीसूक्तस्य तथा कर्म सर्वधर्मभृतां वर ॥ ३॥ 

अर्थ - परशुराम जी कहते हैं हे भगवान आप समस्त धर्मों के गूढ़ मर्म को जानने वाले हैं कृपया करके मुझे श्रीसूक्त के विषय में,जो कि वेदों में दृष्ट है और उनसे संबंधित विधियों का भी निरूपण करें जिनसे उन श्लोकों को पहचाना जा सके ।

पुष्कर उवाच- 
हिरण्यवर्णां हरिणीं ॠचः पञ्चदश द्विज । 
श्रीसूक्तं कथितं पुण्यं ॠग्वेदे पुष्टिवर्धनम् ॥ ४॥ 

अर्थ - पुष्कर जी कहते हैं की ऋग्वेद में वर्णित 15 श्लोकों से युक्त हिरण्यवर्णां इत्यादि ऋचाओं को देखना चाहिए। यह अत्यंत पवित्र है एवं समस्त प्रकार की सुख समृद्धि ऐश्वर्य देने में समर्थ है।

रथे अक्षेषु वाजेति चतस्रस्तु तथा ॠचः । 
श्रीसूक्तं तु यजुर्वेदे कथितं पुष्टिवर्धनम् ॥ ५॥ 

अर्थ - इसी प्रकार यजुर्वेद में वर्णित चार श्लोक जोकि " रथे अक्षेषु वाजे " इत्यादि सेआरंभ होते हैं और इनसे संयोजित श्री सूक्त अत्यंत लाभदायक हैं।

श्रायन्तीयं तथा साम सामवेदे प्रकीर्तितम् । 
श्रियं दातुर्मयिदेहि प्रोक्तमाथर्वणे तथा ॥ ६॥

अर्थ - इसी प्रकार सामवेद में वर्णित सूक्त जोकि " श्रायन्तीयम् " शब्द से आरंभ होते हैं तथा अथर्ववेद के सूक्त जो " श्रियम दातुर्मयिदेहि " से आरंभ होते हैं इनके साथ भी श्रीसूक्त का संयोजन करना वास्तव में अत्यंत ही श्रेष्ठ लाभकारी है।**

श्रीसूक्तं यो जपेद्भक्त्या तस्यालक्ष्मीर्विनश्यति । जुहुयाद्यश्च धर्मज्ञ हविष्येण विशेषतः ॥ ७॥ 

अर्थ - जो जातक पूर्ण श्रद्धा भक्ति भाव से श्री सूक्त का यजन करते हैं उनकी समस्त दरिद्रता का नाश हो जाता है एवं जो विशेष हविष्य आदि से श्री सूक्त का हवन करते हैं वे भी इसी प्रकार के सुंदर उत्तमोत्तम परिणामों की प्राप्ति करते हैं।

श्रीसूक्तेन तु पद्मानां घृताक्तानां भृगूत्तम । 
अयुतं होमयेद्यस्तु वह्नौ भक्तियुतो नरः ॥ ८॥ 

अर्थ - जो व्यक्ति भक्ति युक्त होकर श्री सूक्त के द्वारा घी में डूबे हुए कमलों का दसहजार हवन करता है।

पद्महस्ता च सा देवी तं नरं तूपतिष्टति । 
दशायुतं तु पद्मानां जुहुयाद्यस्तथा जले ॥ ९॥ 

अर्थ - वह पद्मधारिणी महादेवी लक्ष्मी से अभीष्ट वर की प्राप्ति करता है । इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति एक लाख कमलों से जल में हवन करता है।

नापैति तत्कुलाल्लक्ष्मीः विष्णोर्वक्षगता यथा । घृताक्तानान्तु बिल्वानां हुत्वा रामायुतं तथा ॥ १०॥

अर्थ - उसके घर में महालक्ष्मी उसी प्रकार निवास करती है जिस प्रकार की वे श्री हरि विष्णु के हृदय कमल में निवास करती हैं।
और भी आगे सुने यदि कोई भक्त दस हजार बिल्व पत्रों को घी में डूबा कर उनका हवन करता है।


बहुवित्तमवाप्नोति स यावन्मनसेच्छति । 
बिल्वानां लक्षहोमेन कुले लक्ष्मीमुपाश्नुते ॥ ११॥ 

अर्थ - वह अपनी इच्छा अनुसार महा धन की प्राप्ति करता है। यदि कोई घी में डूबे हुए बिल्व पत्रों से एक लाख हवन करता है तो माता महालक्ष्मी उसके घर में स्थाई रूप से निवास करती हैं।

पद्मानामथ बिल्वानां कोटिहोमं समाचरेत् । 
श्रद्दधानः समाप्नोति देवेन्द्रत्वमपि ध्रुवम् ॥ १२॥

अर्थ - यदि कोई एक करोड़ कमलों से अथवा बेल पत्रों से हवन करता है तो वह निश्चित रूप से देवेंद्र के पद को प्राप्त कर लेता है।

संपूज्य देवीं वरदां यथावत् पद्मैस्सितैर्वा कुसुमैस्तथान्यैः । 
क्षीरेण धूपैः परमान्नभक्ष्यैः लक्ष्मीमवाप्नोति विधानतश्च ॥ १३॥ 

अर्थ - इसी प्रकार जो व्यक्ति उन महादेवी महालक्ष्मी की पूजा आराधना कमलों, श्वेत पुष्पों, दूध, सुगंधित धूप एवं उत्तमोत्तम नैवेद्य आदि से करता है। वह महा महा धन की निश्चित रूप से प्राप्ति करता है।

इति श्री विष्णुधर्मोत्तरे द्वितीयखण्डे मार्कण्डेयवज्रसंवादे रामं प्रति पुष्करोपाख्याने श्रीसूक्तमहात्म्यकथनं नाम अष्टाविंशत्युत्तर शततमोऽध्यायः ॥
@Sanatan

भद्रा ।।

भद्रा भगवान सूर्यदेव की पुत्री और शनिदेव की बहन है।शनि की तरह ही इनका स्वभाव भी क्रूर बताया
गया है। 
इस उग्र स्वभाव को नियंत्रित करनेके निए ही भगवान ब्रह्मा ने उसे कालगणना पंचाग के एक प्रमुख अंग जिसे करण कहते है उसमें स्थान दिया। 
जहां उसका नाम विष्टि करण रखा गया।

कृष्णपक्ष की तृतिया, दशमी और शुक्लपक्ष की चतुर्थी, एकादशी के उत्तरार्ध में 
एवं कृष्णपक्ष की सप्तमी, चतुर्दशी शुक्ल पक्ष की अष्टमी और पूर्णिमा के पूर्वार्ध में भद्रा रहती है।

• सोमवार व शुक्रवार की भद्रा कल्याणी कही जाती है।

• शनिवार की भद्रा अशुभ मानी जाती है।

• गुरुवार की भद्रा पुण्यवर्ती कही जाती है।

• रविवार, बुधवार व मंगलवार की भद्रा भद्रिका कही जाती है।

इसके अलावा भद्रा का वास अलग अलग लोको मे, राशि के फलस्वरूप बदलता है।

शनिवार को विष्टि करण में जन्मे जातको के लिए या फिर विष्टि करण में जन्मे जातको के लिए शनिदेव का कुंडली में शुभ ओर अशुभ होने से कई गुना प्रभाव बढ़कर प्राप्त होते है।। 

शनिवार की भद्रा में गुलिक यदि कुंडली मे अशुभ स्थान में बैठ जाये तो यह योग बहुत अशुभ परिणाम देता है।

इस्लाम त्याग हिंदू बनी महिला चिकित्सकभगवान शंकर को अर्पित किया स्वर्ण मुकुट ।।

भगवान शंकर को मुकुट अर्पित करने वाली महिला चिकित्सक मूल रूप से गुजरात की रहने वाली हैं। वह अभी अमेरिका में रहती हैं और वहां चिकित्सा संबंधी कार्य करती है। महिला ने एक वर्ष पहले इस्लाम त्यागकर हिंदू धर्म स्वीकार किया।

गाजियाबाद के डासना मंदिर में महिला चिकित्सक ने भगवान शंकर को स्वर्ण मुकुट समेत श्रृंगार सामग्री भेंट किया है। बताया जा रहा है कि महिला द्वारा भेंट किए गए स्वर्ण मुकुट का भार 19 तोला है। यह मुकुट उत्तर प्रदेश के हरदोई जनपद (जिला) के दो कारीगरों ने तैयार किया है।

नवरात्रि महापर्व ।।

🕉️ मां भगवती के नौ रुप


दिन 1 - शैलपुत्री
शैलपुत्री (पर्वत की पुत्री), हिमालय पर्वत क्षेत्र के राजा हिमावत की पुत्री हेमवती (पार्वती) जो पिछले अवतरण में दक्षपुत्री सती थी। इस रूप में देवी को शिवजी की पत्नी के रूप में पूजा जाता है। इनका वाहन या सवारी वृषभ (बैल) है इसलिए वृषारूढा हैं। शैलपुत्री को महाकाली का प्रत्यक्ष अवतार माना जाता है। इस दिन का वर्ण (रंग) लाल है, जो कार्य कुशलता और ऊर्जा का प्रतीक है।

दिन 2 - ब्रह्मचारिणी
ब्रह्म (तपस्या) चारिणी (आचरण करने वाली) देवी, मां ने शिवजी को पति रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थीं। देवी ने अन्न, फल, जल आदि सब त्याग दिया था इसलिए अपर्णा हैं। इस दिन का वर्ण (रंग) नीला हैं जो दृढ़ ऊर्जा, शांति को प्रतीक है।

दिन 3 - चंद्रघंटा
शिवजी से विवाह करने के पश्चात मां पार्वती ने अपने मस्तक को अर्धचंद्र (आधा चंद्र) से सजाया था। देवी का यह रूप हर समय दुष्टों से युद्ध को तत्पर रहता है तथा मस्तक का अर्धचंद्र घंटे की ध्वनि उत्पन्न करता हैं। देवी का शरीर में स्वर्ण जैसी आभा है, वह सुंदरता और निडरता का प्रतीक है। देवी ने अनगिनत असुरो का वध किया हैं जिसमें चंड मुंड मुख्य हैं, देवी को चामुंडा, चंडी, चंडीका, रणचंडी आदि नामो से भी पुकारा जाता हैं। इस दिन का वर्ण (रंग) पीला है, जो एक जीवंत वर्ण और सभी के मन को शांति प्रदान करता है।

दिन 4 - कुष्मांडा
कु (थोड़ा), उषमा (ऊर्जा), अंड (ब्रह्मांड)। इस रूप में देवी ने अपनी थोड़ी सी ऊर्जा द्वारा ब्रह्मांड को उत्पन्न किया था। यह ब्रह्मांड की रचनात्मक शक्ति है। इस दिन का वर्ण (रंग) हरा है जो प्रकृति का प्रतीक हैं।

दिन 5 - स्कंदमाता
स्कंद (कार्तिकेय) की माता, पुत्र कार्तिकेय बालरूप में देवी की गोद में बैठे हुए हैं। यह कमल के आसन पर बैठी हुई है इसलिए पद्मासना भी हैं। यह अग्नि की देवी भी है। इस दिन का वर्ण (रंग) मटमैला या धूसर हैं जो एक माँ की परिवर्तित शक्ति का प्रतीक हैं जब उसकी संतान संकट में होती है।

दिन 6 - कात्यायनी
कात्यायन ऋषि ने कठोर तपस्या करके देवी से वरदान मांगा कि वह उनकी पुत्री के रूप में जन्म ले। देवी कात्यायन ऋषि की पुत्री रूप में जन्मी इसलिए कात्यायनी कहलाई। देवी ने अनगिनत असुरो का वध किया है जिसमें महिषासुर (भैंस रूपी असुर) मुख्य हैं। देवी सीता, राधा, रूकमणी ने अपने स्वामी से विवाह के लिए देवी कात्यायनी की पूजा अर्चना की थी। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियो ने भी देवी कात्यायनी की आराधना की थीं। इस दिन का वर्ण (रंग) नारंगी हैं जो साहस का प्रतीक हैं।

दिन 7 - कालरात्रि
देवी दुर्गा या पार्वती का सबसे भयंकर रूप है, कालरात्रि नाम के उच्चारण से सभी असुरी शक्तियाँ भयभीत होकर भागती हैं। देवी की त्वचा का वर्ण (रंग) काला है तथा वह श्वेत वर्ण के वस्त्र धारण किए हुए हैं, उनके नेत्रों में बहुत अधिक क्रोध और सांसो से अग्नि निकलती हैं। देवी ने अनगिनत असुरो का वध किया हैं जिसमें रक्तबीज मुख्य है। इनको महाकाली, भद्रकाली, भैरवी, रूद्रानी आदि नामों से भी जाना जाता हैं। इनका रूप भले ही भयंकर हो किंतु यह सदैव शुभ फल देने वाली माँ है इसलिए मां शुभंकरी है। इस दिन का वर्ण (रंग) श्वेत हैं, श्वेत वर्ण प्रार्थना और शांति को प्रतीक है तथा भक्तों को सुनिश्चित करता है कि देवी मां उन्हें हानि से बचाएगी।

दिन 8 - महागौरी
महागौरी का अर्थ हैं पूर्णतः गौर वर्ण (पूर्ण श्वेत)। एक कथा के अनुसार भगवान शिव ने देवी महाकाली के काले शरीर को गंगाजल से धोकर कांतिमय श्वेत कर दिया था और देवी महागौरी कहलाई। इस समय देवी के शरीर से नया रुप उत्पन्न हुआ जिसे देवी कौशिकी कहा गया, देवी कौशिकी ने शुंभ निशुंभ नाम के असुरो का वध करके पुनः देवी महागौरी के शरीर में समा गई। महागौरी देवी के सभी आभूषण और वस्त्र श्वेत हैं इसलिए इनको श्वेतांबरधरा हैं। इनकी उपमा शंख, चंद्र और कुंद के पुष्प से की गई हैं। इस दिन का वर्ण (रंग) गुलाबी है जो आशा, विश्वास का प्रतीक है।

दिन 9 - सिद्धिदात्री
सृष्टि के आरंभ में भगवान रूद्र (शिव) ने देवी आदि पराशक्ति की पूजा की थीं, देवी निराकार थी और सिद्धिदात्री के रूप में प्रकट हुई तथा इनके साथ मिलकर शिवजी ने अद्धनारीश्वर रूप लेकर संसार का आरंभ किया। सिद्धिदात्री की पूजा से देवी के सभी नौ रूपों की पूजा हो जाती हैं। ये सभी 8 प्रकार की सिद्धिया देने वाली माँ है। आठ सिद्धिया है अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकामय, ईशित्व, वशित्व। इस दिन का वर्ण (रंग) हल्का नीला हैं जो प्रकृति की सुंदरता का प्रतीक हैं।