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सूर्य तत्व ।।

    परम ब्रह्म ने गोचर- अगोचर, द्वैत-अद्वैत जीवों की श्रृंखला के रूप में अपने ही प्रतिबिम्ब तैयार कर दिए हैं। विशेषकर मनुष्य की रचना तो परम ब्रह्म ने ठीक उसी प्रकार की है जिस प्रकार वह स्वयं है। अपने सभी गुणों को उन्होंने मनुष्य में उतार कर रख दिया है। उसने अपनी नियंत्रात्मक, विध्वंसात्मक, सृजनात्मक, यंत्रात्मक, मंत्रात्मक, संचारात्मक इत्यादि इत्यादि सभी शक्तियों को मनुष्य में स्थापित कर दिया है। मनुष्य ही परम ब्रह्म है इसमे कोई भी संदेह नहीं है। उसने मनुष्य को बुद्धि भी दे दी, ज्ञान भी दे दिया, तर्क भी दे दिया और तो और एक से अनेक होने की ब्रह्म विद्या भी दे दी। यह अत्यंत ही दुर्लभ विद्या है। किसी भी वस्तु से मनुष्य संयोग कर सकता है, योग कर सकता है और कुछ भी वह निर्मित कर सकता है। कहीं भी वह गमनशील हो सकता है। जैसा चाहै वैसा वह जब धारण कर सकता है। 

       ईश्वर की प्रत्येक शक्ति को वह आत्मसात करने में सक्षम है। समस्त ब्रह्माण्ड की क्रियाओं, समस्त नक्षत्रों, उल्काओं, चन्द्रमाओं और सूर्य के प्रतिबिम्ब मनुष्य में मौजूद हैं। वो स्वयं में जीता जागता परम ब्रह्म है। मनुष्य परम ब्रह्म क्यों है? मनुष्य परम ब्रह्म इसलिए है क्योंकि उसके अंदर ईश्वर का स्थापत्य है। परम ब्रह्म रहस्य ने मनुष्य जैसी दुर्लभ कृति को निर्मित तो कर दिया पर उसने सोचा कि एक न एक दिन प्रत्येक मनुष्य मुझे ढूढ़ेगा। मेरा पता पाना चाहेगा, वह जानना चाहेगा कि मेरा रचयिता कौन है ? कौन है मेरा परम पिता? प्रत्येक पुत्र अपने पिता का नाम जानना चाहता है। यह उसका सार्वभौमिक अधिकार है। बस यही सोचकर परम ब्रह्म मनुष्य के हृदय कमल में स्थापित हो गये हृदय ही सूर्य है। अब मनुष्य उन्हें ढूंढ़ता है मंदिरों में शक्ति पीठों पर, पूजा घरों में, ब्रह्माण्ड में इत्यादि इत्यादि परन्तु पिछले अरबों वर्षों में कोई भी मनुष्य परमात्मा को बाहर नहीं दृढ़ पाया है। बाहर जब नहीं ढूढ़ पाता है तो वह निराश हो जाता है। कभी-कभी उच्चाटन की क्रिया के कारण कुछ समय के लिए नास्तिक भी बन जाता है परन्तु नास्तिक बनने से कुछ नहीं होगा समस्या का हल तो नहीं निकलेगा। 

       परमात्मा हृदय कमल में स्थित हैं अनेकों महापुरुषों ने बस इतने छोटे से रहस्य को आत्मसात कर लिया फिर उनके कदम कहीं नहीं भटके। उनके अंदर का सूर्य जागृत हो गया। आत्मा की आवाज को उन्होंने पहचान लिया। सत्य लोक ही उनका निवास स्थान हो गया। वे सूर्य से अलग नहीं हुए। सूर्य और उनके बीच की दूरी खत्म हो गई। वे स्वयं जीते जागते सूर्य बन गये। जोत से जोत मिल गई। दूसरों को प्रकाशवान करने लगे और स्वयं भी प्रकाशवान हो गये। बस इतनी छोटी सी बात है। अध्यात्म बहुत छोटा है बेवजह खींचतान कर लम्बा कर दिया जाता है। छोटा सा भेदन है परमात्मा तक पहुँचने के लिए। इस भेदन के लिए किसी सुई या छुरी कांटे की आवश्यकता नहीं है। यह भेदन तो वैसे भी हो जाता है जैसे कि परम ब्रह्म, परम आदि देव सूर्य की किरणें समुद्र तट पर पड़े हुए कछुओं के अण्डों का भेदन कर उनमें से नवीन जीवन की रचना कर देते हैं। समुद्री जीव तट निर्जन स्थानों पर अपने अण्डे छोड़कर पुन: समुद्र के जल में चले जाते हैं। सब कुछ परम ब्रह्म के ऊपर डाल देते हैं पूर्ण निष्ठा के साथ, पूर्ण समर्पण के साथ। ऐसी स्थिति में परम ब्रह्म स्वयं ही सब कुछ कर देते हैं। यह बहुत बड़ी बात है। 

          ऐसे भी जीव हैं जो मनुष्य से कई अरब गुना ज्यादा आध्यात्मिक सत्य को पहचानते हैं। वे अपने अण्डे नहीं सेते हैं। परम ब्रह्म सूर्य की रश्मियों पर सवार हो उन जीवों की आने वाली पीढ़ी तक पहुँचते हैं, उन्हें संस्कारित करते हैं, उन्हें भोजन प्रदान करते हैं, उनका विकास करते हैं और उन्हें इतनी जीवन शक्ति दे देते हैं कि वे स्वयं ही खोल फाड़कर चलने-फिरने लगते हैं। जब परमात्मा स्वयं देखभाल कर रहा है तो फिर भौतिक माँ-बाप गौण हो जाते हैं। विश्वामित्र ने भी सत्य को पहचान लिया उनके अंदर भी सूर्य का उदय हुआ। वे स्वयं सूर्य बन गये। गायत्री मंत्र कुछ भी नहीं मात्र सूर्य की उपासना है क्योंकि सूर्य ही सब कुछ देता है। सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं प्रतिदिन आप उनके दर्शन कर सकते हैं। आपकी सभी इन्द्रिया सूर्य को महसूस कर सकती हैं। आदि ज्योति हैं वह एवं उन्हीं से सभी ज्योतियां निकली हैं। उन्हीं में सभी ज्योतियां विलीन हो जाती हैं। इस सृष्टि को यंत्र मय रूप से चलाने वाले आदि देव कितने दिव्य हैं इसका वर्णन ही नहीं किया जा सकता। 

        सूर्य का क्या वर्णन करूं सब कुछ प्रत्यक्ष है, सब कुछ सामने दिखाई पड़ रहा है। अनंत वर्षों से सब कुछ वही रच रहे हैं वही मिटा रहे हैं और वही चला रहे हैं। जब सभी कुछ प्रत्यक्ष हैं तो फिर अप्रत्यक्ष कहां बचा प्रत्यक्ष का वर्णन करना निरी मूर्खता के अलावा क्या है? द्वैत और अद्वैत सब कुछ बकवास हैं। सोच एवं विचार धारा सूर्य को आत्मसात किए व्यक्ति के सामने ओछी क्रियायें हैं। चार फुट के आदमी ने साढ़े पांच फुट के आदमी को देखकर कहा अरे यह कितना लम्बा है। सवा छः फुट के आदमी ने साढ़े पांच फुट के आदमी को देखकर कहा इसकी लम्बाई कितनी कम है। साढ़े पाँच फुट के आदमी ने साढ़े पाँच फुट वाले से कहा अरे तुम तो मेरे बराबर हो। अब कौन बकवास कर रहा है इसका निर्णय आप ही करें। मेरे ख्याल से तो सभी सच बोल रहे हैं और उनके ख्याल से सभी बकवास कर रहे हैं। इस ब्रह्माण्ड की किसी भी क्रिया का वर्णन किसी भी घटना का वर्णन अगर मैं कर दूँ तो वह सूर्य तत्व की विवेचना के अंतर्गत ही आ जायेगा। क्यों आ जायेगा? सीधा सा कारण है सूर्य देव सभी जगह मौजूद हैं, सभी जगह वह क्रियाशील हैं, सभी जगह वह प्रसव कर रहें हैं या करवा रहे हैं। 

          एक अणु के चारों तरफ परमाणु चक्कर काट रहे हैं। सभी तत्वों की सूक्ष्म आवृत्तियों में नाभि के आस-पास इलेक्ट्रॉन, प्रोटान एक निश्चित लय में गतिशील हैं इन्होंने भी सूर्य से अपने ईर्द-गिर्द अन्य ग्रहों और उपग्रहों को चक्कर कटवाने की विद्या सीख ली है। आणविक विज्ञान, परमाणु विज्ञान, नाभिकीय विखण्डन की लीलायें सब कुछ प्रत्यक्ष रूप से सूर्य में हो रही हैं। प्रतिक्षण करोड़ों अरबों नाभिकीय विखण्डन की क्रियायें सूर्य के तल पर अनंत काल से घटित हो रही हैं। चुम्बकत्व का इतना घोरतम उत्पादन सूर्य के तल पर होता है कि उसके तल से उठने वाली अति भीषणतम ताप ज्वालायें हजारों लाखों मील ऊपर उठती हुई पुनः सूर्य के द्वारा शोषित कर ली जाती हैं। अपनी ऊर्जा के मात्र दसांश से निकलने वाली सूर्य रश्मियाँ अत्यंत ही तीव्र वेग से प्राण शक्ति को इस सौर मण्डल के प्रत्येक कण तक निरंतर पहुँचाती रहती हैं। सूर्य रश्मियां कुछ भी नहीं सिर्फ मार्ग है उन दिव्य यानों का जिन पर सवार होकर प्राण शक्ति अनंत प्रकार के गुणों से युक्त हो प्रत्येक लोक, ग्रह एवं उपग्रह तक पहुँचती रहती है। सूर्य की रश्मियां एक मार्गीय नहीं है जिस मार्ग से प्राण शक्ति सभी तक पहुँचती है उसी मार्ग से पुन: बहुत कुछ वापस भी केन्द्र बिंदु तक पहुँच जाता है। यही है हवन का विधान आहुति डालने की प्रक्रिया । 

         बहुत कुछ सूर्य वापस खींच लेते हैं। वहीं पर हिसाब किताब होता है। देते ही देते जायेंगे तो फिर चल चुका काम। यह तो नकारा और निकम्मी व्यवस्था हुई। ऐसा तो आम जीवन में भी नहीं होता है। प्रबंध संचालन के छात्र अच्छी तरह जानते हैं कि ऊपर से अर्थात् कम्पनी के मालिक की तरफ से अगर मुद्रा या अन्य धन रूपी शक्ति प्राप्त होती है तो उसके बदले कार्यों की एक श्रृंखला से उत्पादित ऊर्जा पर प्रतिक्षण व्यवस्थापक नजर रखता है। वह उत्पादन रूपी व्यवस्था का नियंत्रण करता है। अनुत्पादन की स्थिति में वह व्यक्ति विशेष को हटा भी सकता है समझा भी सकता है सुधार भी सकता है, दण्ड भी दे सकता है। व्यवस्था वहीं सुचारू रूप से चलेगी जहाँ पर उत्पादन ही सबका लक्ष्य होगा अन्यथा व्यवस्था रूपी संस्था के केन्द्र में बैठे व्यक्ति पर ही सबसे प्रथम दोष मढ़ा जायेगा। वही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। उसी के निर्देश पर कर्म रूपी श्रृंखला का संचालन हो रहा था। यही कारण है कि इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक घटना के पीछे सूर्य देव ही दिखलाई पड़ते हैं उन्हीं के इशारों पर सब कुछ क्रियाशील होता है। वे ही कर्मों के संचालन एवं कमांनुसार प्रतिफल देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। 

      आध्यात्मिक दृष्टिकोण अत्यंत ही दुर्लभ है। जिसने इसे समझ लिया उसने सामंजस्य बैठा लिया ब्रह्माण्ड से अर्थात् स्वयं से अर्थात् सूर्य से एक भी अपराधी, एक भी कुकर्मी आज तक इस ब्रह्माण्ड में दण्ड से नहीं बच पाया है, एक भी हत्यारा मृत्युदण्ड की सजा से नहीं बच पाया है। जीव के बदले जीव का सिद्धांत ही सूर्य सिद्धांत है। मैं घटिया मानव निर्मित कोर्ट-कचहरी और पुलिस थाना की बात नहीं कर रहा हूँ। यह सब बकवास हैं। यहां बंद होने छूटने से कुछ भी नहीं होता है। मृत्यु के बदले मृत्यु तो निश्चित है। ऐसा न हो तो दूसरे ही क्षण कर्म श्रृंखला आबद्ध हो जायेगी। आप कुकर्मी हो जायेंगे। सत्य लोक का नाश हो जायेगा इस ब्रह्माण्ड में प्रत्येक जगह कुकर्म फैलने लगेगा। ऐसा इसलिए नहीं होता कि सत्य लोक मौजूद है। सूर्य प्रशिक्षण आपको निहार रहे हैं। 

अनंत प्राणी एक दूसरे को मार-काट रहे हैं, एक दूसरे का भक्षण कर रहे हैं, अनंत जीव वेदना भोग रहे हैं, कष्टों में जीवन जी रहे हैं, तड़प सबके अंदर मौजूद है कहीं न कहीं किसी न किसी प्रकार से तड़प तो झेलनी ही पड़ रही है यही है मोक्ष का मार्ग।

          जो-जो किया है उसे काटना ही पड़ेगा। सूर्य देव तप का प्रतीक है जब तक वह आपको पूरी तरह तपा नहीं लेगें, एक-एक करके आपके कर्मों को तपा- तपाकर भस्म नहीं कर देंगे आपके पाप कटेंगे ही नहीं। जब अंत में जाकर सब कुछ तप जायेगा, भुन जायेगा भगवान भाष्कर के प्रचण्ड तप में तब कहीं आप सूर्य राश्मियों के दिव्य यान पर सवार हो सूर्य मण्डल का भेदन करते हुए सत लोक में जाकर प्रतिष्ठित होगें। सौर मण्डल का भेदन इतना आसान नहीं है। कबीर सत्य लोक से आये थे सत्य वाणी बोलते थे पुनः सत्य लोक चले गये। यह हे निर्बीज साधना अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की कला गेंहूँ को धीरे-धीरे अग्नि पर तपा दो सब गुण-धर्म चले जायेंगे। सारे पाप नष्ट हो जायेंगे। सारे पुण्य परे हो जायेंगे फिर उस गेहूँ में स्थित प्राण सूर्य देव की रश्मियों पर आरूढ़ हो मुक्त हो चुके होंगे। स्वर्ग लोक से पुनः वापसी सम्भव हैं, नर्क से स्वर्ग की यात्रा की जा सकती है, देवता से मनुष्य रूप में आया जा सकता है, शिवलोक से भी पृथ्वी पर फेंके जा सकते हो, पितृ लोक में रहते हुए शांति के लिए अपने वंशजों की ओर देखना पड़ता है परन्तु सत्यलोक से वापसी सम्भव नहीं है।

       सत्यलोक में पहुँचने के लिए सूर्य के मध्य से प्राणों को गुजरना पड़ता है। प्राणों में लिङ्ग भेद के गुण तो सूर्य तक पहुँचने से कुछ समय पूर्व तक स्थित रहते हैं इसे कहते हैं आवृत्तियों का खेल आदि गुरु शंकराचार्य जी ने सूर्य भेदन कर लिया है वे सत्यलोक में स्थापित हो चुके हैं। अनेकों संत महात्मा तो स्वर्ग लोक में ही भ्रमण करते रह जाते हैं। कुछ तो इस पृथ्वी के आवरण को भी नहीं भेद पाते हैं यही सड़ते-मरते रहते हैं। अनेकों दुष्ट तांत्रिक तो वृक्षों पर उल्टे लटके रहते हैं। कर्म दण्ड के बड़े भीषण विधान है। तपाना ही सूर्य का कार्य है धीरे-धीरे सप्त शरीर तपते हैं। पंचभूतीय शरीर तो मात्र एक शरीर है। इसको अग्नि को समर्पित कर देने पर भी छः शरीर और बचते हैं। यहीं पर शुरू होती है। गुप्त पापों की गिनती। एक-एक कर हिसाब किताब चुकता किया जाता है। छः शरीर वाले प्रेत योनी पाते हैं दस दस हजार वर्ष इस पृथ्वी के वायुमण्डल में कर्म कष्ट भोगते हैं तब जाकर छ: में से पाँच शरीर पर आते हैं। ऐसा चलता रहता है। इन्हें भी तपस्या करनी पड़ती है। खूब पूजा पाठ, तप, जप इत्यादि करना पड़ता है तब कहीं जाकर इनके एक-एक शरीर कटते हैं। 

       इतना आसान नहीं है सूर्य रश्मियों के दिव्य यानों पर सवार हो सूर्य देव के निकट प्रत्यक्ष पहुँचना । अभी इस संसार में चल रहा घटिया विज्ञान कुछ कुछ इस देश में मौजूद महा विज्ञान को अब समझने लगा हैं एवं उसके सामने नत मस्तक होने लगा है सूर्य देव को विश्व नेत्र की उपाधि से भी परिभाषित किया गया है। उनकी रश्मियों के द्वारा प्रत्येक ब्रह्माण्डीय घटना उन तक पहुँचती रहती है और वहीं पर फिर घटना के अनुसार भाग्य का निर्धारण होता है वहीं पर फल एवं पारितोषिक या दण्ड निर्मित होता है। हम तक तो बस वह पहुँचा दिया जाता है उनके माध्यम से यहाँ पर कुछ भी नहीं होता है यहाँ पर अर्थात् सौर मण्डल में उपस्थित सभी गोचर एवं अदृश्य लोकों में सिर्फ भोगा या फिर कर्म काटे जाते हैं। देवताओं के कर्म बिगड़ते हैं तो उन्हें देव लोक छोड़कर भागना पड़ता है। हमारे सौर मण्डल में अनेकों लोक स्थित है एवं इन सभी लोकों के व्यवस्थापक सूर्य देव ही हैं जो इस रहस्य को समझ लेता है, इसकी सत्यता परख लेता है वह कुमार्ग को तुरंत ही त्याग देता है एवं अपने इस जीवन के साथ-साथ परालौकिक जीवन को भी सुधारने में समर्थ होता है। इसे कहते हैं परम सत्ता के सामने नमन। 

          परम सत्ता को हृदयस्थ करने का विधान एवं एक सामान्य पशु रूपीय जीवन से ब्रह्माण्डीय अस्तित्व में आने की कला फिर ऐसे महापुरुष दो हाथ वालों से नहीं मांगते हैं। वे सीधे सब कुछ परम ब्रह्म, परम प्रत्यक्ष एवं परम विद्यमान सूर्यदेव की शरण में बैठे सब कुछ उन्हीं से प्राप्त करते हैं। सूर्य विज्ञान में दक्ष होने के लिए सूर्य पुत्र बनना होगा। सूर्य ही तुम्हारा गुरु होगा, सूर्य के द्वारा ही तुम्हें सब कुछ प्राप्त करने की कला सीखनी होगी। सूर्य से ही सामन्जस्य बैठाना होगा। चौबीस घण्टे मनुष्यों से सामन्जस्य बैठाते बैठाते आप कहीं के नहीं रहे। बाप- बेटे से सामन्जस्य नहीं बैठा पाया, माँ बेटी से सामंजस्य नहीं बैठा पायी और पति-पत्नी में सामंजस्य होता ही नहीं है इसीलिए परम ब्रह्म सूर्य से सामान्जस्य बैठाना चाहिए। उनसे सामंजस्य बैठ गया तो फिर सारे जग से सामंजस्य अपने आप स्वतः ही बैठ जायेगा। 

         भाग्य दरवाजे पर आकर नाचेगा। लोग खुद ब खुद चरण स्पर्श करेंगे। सिद्धियाँ आप से मिलने के लिए कतार बद्ध होंगी। बिडम्बना यह है कि आप मनुष्य द्वारा निर्मित घड़ी के अलार्म से सामंजस्य बिठा रहे हैं। आपके शरीर की प्रत्येक कोशिका में लगी जैविक घड़ियाँ आपने बंद करके रख दी हैं। ये जैविक घड़ियां ही कुण्डलिनी शक्ति का अंश है। सब की सब पूर्व निर्धारित तरीके से भरी हुई हैं। ये सब भगवान भाष्कर के द्वारा समय-समय पर पुनः सक्रिय की जाती हैं। इन जैविक घड़ियों के अलार्म को आप सुनते ही नहीं है। इन्हें आपने देखना बंद कर दिया है इसीलिए अचानक नस फट जाती है, एक दिन अचानक किडनी खराब हो जाती है, अचानक दिल धड़कना बंद हो जाता है। मनुष्य को जीवन में बहुत कुछ करने की आवश्यकता नहीं है उसे तो बस बैठकर पुत्र रूप में ग्रहण करने की आवश्यकता है। 

           सूर्य की किरणें केवल ताप ही नहीं लाती हैं, वे तो अमृत भी लाती हैं, ज्ञान भी लाती हैं, सिद्धियाँ भी लाती हैं, मनोकामना एवं वरदान भी लाती हैं, जो कुछ आयेगा सब कुछ सूर्य लोक से ही आयेगा उन्हें चूसना एवं ग्रहण करना आना चाहिए। वेदान्त की सूक्ष्म 'आवृत्तियां कहां से आयीं? वे सब सूर्य लोक से ही आयीं हैं। वहीं पर ज्ञान रूपी तत्व तपता है, उसकी सारी अशुद्धियाँ ठीक उसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं जैसे कि सोने को तपाने से उसमें मिले अशुद्ध तत्व नष्ट हो जाते हैं और फिर वहीं विशुद्ध ज्ञान सूर्य रश्मियों के द्वारा इस ब्रह्माण्ड में प्रक्षेपित कर दिया जाता है। कालान्तर योग्य ऋषि-मुनि इन्हीं विशुद्ध ज्ञान रूपी आवृत्तियों को अपने अंदर प्रतिबिम्बित कर ठीक उसी प्रकार वेद विज्ञान की रचना कर देते हैं जैसे कि समुद्र में मौजूद अशुद्ध जल सूर्य की रश्मियों के द्वारा ऊपर खींचकर पुनः अमृत रूपी जल में परिवर्तित कर उसे वर्षा के रूप में इस पृथ्वी पर बिखेर दिया जाता है। 

     वायु के पीछे भी सूर्य की शक्ति है। ध्वनि, अग्नि, कम्पन इत्यादि के पीछे भी सूर्य देव ही छिपे हुए हैं। सूर्य देव के अनंत स्वरूप हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक उन्हें सिफ अग्नि पिण्ड मानते हैं उनके यहाँ सूर्य देव दुर्लभ है जिस दिन निकलते हैं उस दिन वे सब अति प्रसन्न हो जाते हैं। एक छोटा सा प्रयोग बताता हूँ आप किसी नास्तिक, मोटी बुद्धि के मनुष्य को दस मिनिट तक सूर्य के प्रत्यक्ष खड़ा कर दीजिए एवं उसके शरीर का तापमान ले लीजिए। मोटी बुद्धि के मनुष्य का तापमान 2 से 3 डिग्री बड जायेगा। उसे पुनः सामान्य होने में भी आधा घण्टा लग जायेगा दूसरी तरफ अगर आप किसी सूर्य उपासक को 10 मिनट तक धूप में खड़ा कर देंगे तो वह उन 10 मिनटों में अपने हाथो में लिए हुए पुष्प, फल, नैवेद्य इत्यादि से आधे घण्टे तक पूर्ण हृदय के साथ मंत्रों से सूर्य की उपासना कर लेगा। सूर्य उपासक का शरीर प्रकाशवान हो उठेगा, उसके अनेकों विकार कट चुके होंगे एवं उसका आभामण्डल दिव्य तेज से अभिमण्डित दिखाई देगा। सूर्य उपासक के शरीर का तापमान आधे घण्टे पश्चात् भी बढ़ना तो दूर सामान्य से भी ज्यादा शीतल दिखलाई पड़ेगा। इसे कहते हैं सूर्य की प्रत्यक्ष चेतना के दर्शन। 

     अनंत दूरी पर स्थित होने की स्थिति में भी उनकी चेतना हमारे विचारों के अनुसार प्रतिफल दे देती है। उनके पाँव नहीं हैं फिर भी वे प्रतिक्षण सौर मण्डल के एक कोने से दूसरे कोने तक गमन करते हैं। उनके हाथ नहीं हैं फिर भी वे सौर मण्डल के प्रत्येक कण को बांधकर रखते हैं। उनकी आँखें नहीं है फिर भी वे प्रतिक्षण प्रत्येक कण को निहारते रहते हैं। उनका मुख नहीं है फिर भी वे अनंत मुखों का भरण पोषण करते रहते हैं। अनंत मुखों से कम्पन्न उत्पन्न करते रहते हैं। वे स्वयं अनंत महापुरुषो के मुखों से वेद वाणी उच्चारित करवा देते हैं। वे आदि देव हैं। वे प्रथम पुरुष हैं। रूप क्या है? मनुष्य जीव या किसी पिण्ड की अमानत नहीं है रूप। रूप तो सूर्य प्रदान करते हैं। दिन में वृक्ष के पत्ते तक दिखाई पड़ते हैं, रंग भी आप देख सकते हैं। संध्या को आप वृक्ष की आकृति देखते हैं रंग एवं पत्ते विलीन हो जाते हैं। रात्रि में कुछ भी दिखाई नहीं देता। रात्रि में वृक्ष भेद ही असम्भव हो जाता है। कहाँ गया रूप? सूर्य ने दिया, सूर्य ने खींच लिया। जिस जीव या पिण्ड ने सूर्य की रश्मियों में से जिस रंग को अवशोषित नहीं किया बस वही उसका रंग हो गया। रंगों का निर्माण व्यक्तिगत विषय है ही नहीं। ध्वनि का स्पंदन व्यक्तिगत विषय है ही नहीं।

        प्राणों का आना-जाना जीव विशेष का विषय है ही नहीं यह सब विषय सूर्य देव के द्वारा ही संचालित होते हैं। एक बात ध्यान रखिए जो जन्म का कारक है वही मृत्यु का कारक होगा, वही पालन का कारक भी होगा। कारक एक ही होता है जन्म, मृत्यु और पोषण तीन अवस्थायें हैं। जन्म है तो पोषण है। और पोषण है तो मृत्यु भी है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों की समग्र शक्ति इस सौर मण्डल पर परम ब्रह्म सूर्य की प्रचण्डता के कारण ही संचालित होगी। सूर्य की किरणें ही जन्म देंगी बीज को, वही पोषण प्रदान करेंगी वृक्ष को, वृक्ष उन्हीं के द्वारा भोजन का निर्माण करेंगे ऐवं भोजन की श्रृंखला का प्रादुर्भाव करेंगे। जीव के अंदर मांस और मज्जा का विकास भी इसी प्रकार होता है और रक्त का विकास भी इसी प्रकार होता है। सूर्याग्नि ही अग्नि को प्रकट करती है। उसी से प्रत्येक कोशिका का जीवन निर्धारित होता है। एक निश्चित समय पश्चात् विखण्डन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इसे आप मृत्यु कह सकते हैं।

        सब जगह ताप की विभिन्न स्थितियाँ ही स्वरूपों का निर्धारण करेंगी। एक ताप पर समुद्र है तो ताप की दूसरी स्थिति पर वर्षा के बादल एवं तीसरी स्थिति पर वर्षा। ऐसे ही अनंत तापस स्थितियों में प्राण शक्ति विभिन्न स्वरूप लेकर सूर्य रश्मियों के द्वारा विभिन्न शक्तियों का पान करती रहती है। चन्द्रमा पर पड़ती सूर्य रश्मियाँ देवताओं के लिए अमृत का उत्पादन करती है। प्रत्येक ग्रह पर दिन है हर प्रकार से दूसरे ग्रह की अपेक्षा पूरी तरह भिन्न कहीं-कहीं लगातार छः महीने तक दिन है तो कहीं तीन घण्टे का ही दिन होता है। कहीं एक घण्टे का दिन है तो 23 घण्टे की रात्रि कुछ ग्रहों पर तो दस-दस वर्ष के दिन होते हैं इसीलिए उन पर प्राणों द्वारा ग्रहण किये गये शरीर भी अत्यंत ही विलक्षण हैं। सप्त शरीरों की वहाँ पर आवश्यकता ही नहीं है। उन पिण्डों की आवश्यकता ही कुछ और है। उन्हें कुछ अलग प्रकार का ताप चाहिए। वहाँ पर स्थित प्राण शक्तियों की कुछ अलग ही आवश्यकता है। यह सब योग मार्ग से समझा जा सकता है। 

        सौर मण्डल में अनेकों प्रकार के जीवन है। सौ वर्षों में विज्ञान सब कुछ समझ जायेगा। विज्ञान स्थूल दृष्टि का परिचायक है। स्थूल दृष्टि का भी विकास किया जायेगा और होना भी चाहिए। इससे अनंत मस्तिष्क सत्य के प्रति प्रतिबद्ध होंगे। दो व्यक्ति जा रहे थे एक व्यक्ति के हाथ में डण्डा था। दूसरे व्यक्ति ने पूछा पृथ्वी का केन्द्र बिन्दु कहाँ है उसने तुरंत ही अपना डण्डा भूमि पर गाड़ दिया बोला यही है पृथ्वी का केन्द्र | दूसरे को अविश्वास हुआ प्रथम व्यक्ति ने कहा अगर तुझे विश्वास नहीं है तो नाप ले इस डण्डे की सीध में चलना शुरू कर धूम फिरकर यहीं वापस आ जायेगा । व्यक्ति तत्व ज्ञानी था उसे मालुम था कि दुनिया गोल है दूसरा जहाँ से चलेंगे वहीं वापस आ जाओगे। अब गोल वस्तु का केन्द्र बिन्दु तो हर जगह है इसलिए जहाँ पालथी मारकर ध्यानस्थ हो गये वहीं परमात्मा, वहीं सूर्य देव जहाँ हवन कुण्ड बन गया आप आहुतियाँ डालने लग गये वहीं से परमात्मा स्वीकार करने लगेगा बेवजह भटकने से क्या होगा? सर्वव्याप्त, सर्वज्ञ, सर्व समर्थ, सर्व नियंत्रात्मक भगवान भास्कर बस यही समझा रहे हैं। 

          आप भी कुछ मत करो बस प्रतिदिन प्रातः काल या किसी भी समय भगवान भास्कर को मात्र एक लोटा जल उनकी तरफ मुख करके पूर्ण हृदय के साथ समर्पित करते हुए नीचे लिखे गायत्री मंत्र को 11 बार पढ़ लो । 
ॐ भूर्भुवः स्व तत्सवितुर्व रेण्यम भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् ॥

सब कुछ ठीक ठाक हो जायेगा, सब कुछ व्यवस्थित हो जायेगा। अव्यवस्था से व्यवस्था तक बढ़ने का उपाय बहुत ही छोटा है। सभी आर्य ऋषि प्रातःकाल नदी या जलाशय में स्नान करने के पश्चात् अपनी अंजुली में जल भरकर सूर्य को अर्पित करते चले आ रहे हैं एवं सब कुछ आत्मसात करते चले आ रहे हैं। अनार्य से आर्य बनने का बस इतना सा ही छोटा विधान है।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

जयन्ती भारतीय परम्परा है जन्मदिन नहीं -

हनुमान जयंती के अवसर पर कई लोग एक पोस्ट फॉरवर्ड करते हैं - "जयंती उनकी मनाई जाती है जो अब संसार में नहीं हैं? या जयंती मरे हुये लोगों की मनाई जाती है"। किसी फॉरवर्ड करने वाले से पूछिए की इस बात का क्या आधार है?

ये बात कहाँ वर्णित है?
क्या ये व्याख्या व्याकरण ग्रन्थों से ली गई है या किसी शब्दकोश में ऐसा अर्थ दिया हुआ है?
 उत्तर है कहीं नही, ऐसा मत किसी अधिकृत आचार्य का भी नहीं है। फिर यह बात कहाँ से आई? जब किसी आचार्य ने ऐसा कहा नहीं, न ही ऐसा वर्णन किसी ग्रन्थ में है, तो यह बात प्रचलित कैसे हुई? किसने प्रचारित किया, और लोग बिना जाने समझेंगे फॉरवर्ड भी करने लगे?हिन्दू धर्म में शास्त्रों और ग्रन्थों की कमी नहीं है, न व्याकरणाचार्य की कमी है न व्याकरण ग्रन्थों की। निरुक्त, निघण्टु से लेकर अमरकोश तक शब्दकोशों की भी कमी नहीं है, किन्तु दुःख की बात यह है कि इनका अध्ययन करने वालों की सबसे न्यून संख्या भी हिंदुओ की ही है। और हो भी क्यों नहीं योग्य गुरू के समक्ष शिष्य को भी योग्यता सिद्ध करनी पड़ती थी, उसके बाद लम्बे काल तक ग्रन्थों का अध्ययन आदि करके ज्ञान के अधिकारी हो पाते थे, अब तो बस व्हाट्सएप पोस्ट फोरवर्ड करो ज्ञानी बन जाओ। योग्यता, शास्त्र अध्ययन आदि का शॉर्टकट व्हाट्सएप पोस्ट। 
मेरे विचार से इस तरह के पोस्ट जानबूझकर फैलाये जाते हैं ये देखने के लिये की समाज कितना मूल से जुड़ा हुआ है या मूल से कितना विलग हो गया है। और यहां दुःख के साथ कहना है कि लोग ऐसी चीजों पर प्रश्न करने की बजाए न सिर्फ उसको आगे बढ़ाते हैं, बल्कि कोई सन्दर्भ या तथ्य मांगे तो स्वकल्पित मूर्खतापूर्ण तर्क प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि ऐसी बातों का कोई सन्दर्भ या आधार नहीं होता। मैंने भी इस अवसर पर व्याकरण ग्रंथ और शब्दकोष की परम्परा पर पोस्ट करना प्रारम्भ कर दिया है, कम से कम हम अपनी परम्परा को तो समझेंगे। इस पोस्ट के बाद मैं कुछ पोस्ट व्याकरण ग्रंथ, व्याकरण के आचार्य और शब्दकोष परम्परा पर करूंगा।
खैर बात करते हैं हनुमान जयंती और जन्मोत्सव की - हनुमान जयंती की प्रथा व्हाट्सएप पोस्ट करने वाले ज्ञानी द्वारा प्रारंभ नहीं कि गई है तो मैं शास्त्र प्रमाण या सन्दर्भ की बात करूंगा। देखते हैं शास्त्र क्या कहते हैं जयंती की जन्मोत्सव? 

वैशाखे मासि कृष्णायां दशमी मन्दसंयुता। 
पूर्वप्रोष्ठपदायुक्ता कथा वैधृतिसंयुता॥३६॥
तस्यां मध्याह्नवेलायां जनयामास वै सुतम्।
वैशाख मास में कृष्णपक्ष की दशमी को जब चन्द्रमा पूर्वप्रोष्ठ नक्षत्र में था उस दिन मध्याह्न समय पर अञ्जना ने पुत्र को जन्म दिया।

दशम्यां मन्दयुक्तायां कृष्णायां मासि माधवे। 
पूर्वाभाद्राख्यनक्षत्रे वैधृतौ हनुभानभूत्॥८५॥
माधव मास के कृष्ण पक्ष की दशमी पर, पूर्वभद्र नक्षत्र में, वैधृति योग में हनुमान् हुए।

पूर्वभाद्राकुम्भराशौ मध्याह्ने कर्कटांशके। 
कौण्डिन्यवंशे सञ्जातो हनुमानञ्जनोद्भवः॥८९॥
अञ्जना के पुत्र हनुमान् कुम्भ राशि के पूर्वभाद्रा नक्षत्र , कर्कट अंश में मध्याह्न के समय पर कौण्डिन्य वंश में जन्मे।

॥ पराशरसंहितायां हनुमज्जन्मकथनं नाम षष्ठः पटलः॥

जयन्तीनामपूर्वोक्ता हनूमज्जन्मवासरः तस्यां भक्त्या कपिवरं नरा नियतमानसाः।
जपन्तश्चार्चयन्तश्च पुष्पपाद्यार्घ्यचंदनैः धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैः फलैर्ब्राह्मणभोजनैः।
समन्त्रार्घ्यप्रदानैश्च नृत्यगीतैस्तथैव च तस्मान्मनोरथान्सर्वान्लभते नात्र संशयः॥८१॥
हनुमान् के जन्म का दिन पहले जयन्ती नाम से बताया गया है। उस दिन भक्तिपूर्वक, मन को वश मे करके, पुष्प, अर्घ्य चन्दन से, धूप, दीप से, नैवेद्य से, फलों से, ब्राह्मणों को भोजन कराने से, मन्त्रपूर्वक अर्घ्य प्रदान करने से तथ नृत्यगीता आदि से कपिश्रेष्ठ का जप, अर्चना करते हुए मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त करते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।

एको देवस्सर्वदश्श्रीहनूमान् एको मन्त्रश्श्रीहनूमत्प्रकाशः।
एका मूर्तिश्श्रीहनूमत्स्वरूपा चैकं कर्म श्रीहनूमत्सपर्या॥८२॥
हमेशा एक ही देवता हैं - हनुमान्, एक ही मन्त्र है - हनूमत्प्रकाशक मन्त्र, एक ही मूर्ति है - हनुमान् स्वरूप की, और एक ही कर्म है - हनुमान् की पूजा।

जलाधीना कृषिस्सर्वा भक्त्याधीनं तु दैवतम्।
सर्वहनूमतोऽधीनमिति मे निश्चिता मतिः॥८३॥
पूरी कृषि जल के अधीन है, देवता भक्ति के अधीन हैं, सबकुछ हनुमान् के अधीन है, ऐसा मेरा निश्चित मत है।

हनूमान्कल्पवृक्षो मे हनूमान्मम कामधुक्।
चिन्तामणिस्तु हनुमान्को विचारः कुतो भयम्॥८४॥
हनुमान् मेरे कल्पवृक्ष हैं, हनुमान् मेरी कामधेनु हैं, हनुमान् मेरी चिन्तामणि हैं, इसमें विचार करने का क्या है, भय कहाँ है?

- पराशरसंहिता में स्पष्ट रूप से जयंती लिखा हुआ है, जन्मोत्सव नहीं। कुछ और प्रसंग देखते हैं - 

जयं पुण्यं च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः --स्कन्दमहापुराण,तिथ्यादितत्त्व,

जो जय और पुण्य प्रदान करे उसे जयन्ती कहते हैं । कृष्णजन्माष्टमी से भारत का प्रत्येक प्राणी परिचित है । इसे कृष्णजन्मोत्सव भी कहते हैं । किन्तु जब यही अष्टमी अर्धरात्रि में पहले या बाद में रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो जाती है तब इसकी संज्ञा "कृष्णजयन्ती" हो जाती है --

रोहिणीसहिता कृष्णा मासे च श्रावणेSष्टमी ।

अर्द्धरात्रादधश्चोर्ध्वं कलयापि यदा भवेत् ।

जयन्ती नाम सा प्रोक्ता सर्वपापप्रणाशिनी ।।

और इस जयन्ती व्रत का महत्त्व कृष्णजन्माष्टमी अर्थात् रोहिणीरहित कृष्णजन्माष्टमी से अधिक शास्त्रसिद्ध है । यदि रोहिणी का योग न हो तो जन्माष्टमी की संज्ञा जयन्ती नहीं हो सकती--

चन्द्रोदयेSष्टमी पूर्वा न रोहिणी भवेद् यदि ।

तदा जन्माष्टमी सा च न जयन्तीति कथ्यते ॥--नारदीयसंहिता

अयोध्या में श्रीरामानन्द सम्प्रदाय के सन्त कार्तिक मास में स्वाती नक्षत्रयुक्त कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को हनुमान् जी महाराज की जयन्ती मनाते हैं --
स्वात्यां कुजे शैवतिथौ तु कार्तिके कृष्णेSञ्जनागर्भत एव मेषके ।

श्रीमान् कपीट्प्रादुरभूत् परनतपो व्रतादिना तत्र तदुत्सवं चरेत् ॥
--वैष्णवमताब्जभास्कर

कहीं भी किसी मृत व्यक्ति के मरणोपरान्त उसकी जयन्ती नहीं अपितु पुण्यतिथि मनायी जाती है । भगवान् की लीला का संवरण होता है । मृत्यु या जन्म सामान्य प्राणी का होता है । भगवान् और उनकी नित्य विभूतियाँ अवतरित होती हैं । और उनको मनाने से प्रचुर पुण्य का समुदय होने के साथ ही पापमूलक विध्नों किम्वा नकारात्मक ऊर्जा का संक्षय होता है । इसलिए हनुमज्जयन्ती नाम शास्त्रप्रमाणानुमोदित ही है --

"जयं पुण्यं च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः" --स्कन्दमहापुराण, तिथ्यादितत्त्व

जैसे कृष्णजन्माष्टमी में रोहिणी नक्षत्र का योग होने से उसकी महत्ता मात्र रोहिणीविरहित अष्टमी से बढ़ जाती है । और उसकी संज्ञा जयन्ती हो जाती है । ठीक वैसे ही कार्तिक मास में कृष्णपक्ष की चतुर्दशी से स्वाती नक्षत्र तथा चैत्र मास में पूर्णिमा से चित्रा नक्षत्र का योग होने से कल्पभेदेन हनुमज्जन्मोत्सव की संज्ञा " हनुमज्जयन्ती" होने में क्या सन्देह है ??

एकादशरुद्रस्वरूप भगवान् शिव ही हनुमान् जी महाराज के रूप में भगवान् विष्णु की सहायता के लिए चैत्रमास की चित्रा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा को अवतीर्ण हुए हैं --

" यो वै चैकादशो रुद्रो हनुमान् स महाकपिः।

अवतीर्ण: सहायार्थं विष्णोरमिततेजस: ॥

--स्कन्दमहापुराण,माहेश्वर खण्डान्तर्गत, केदारखण्ड-८/१००

पूर्णिमाख्ये तिथौ पुण्ये चित्रानक्षत्रसंयुते ॥

चैत्र में हनुमज्जयन्ती मनाने की विशेष परम्परा दक्षिण भारत में प्रचलित है ।

हनुमज्जयन्ती शब्द हनुमज्जन्मोत्सव की अपेक्षा विलक्षणरहस्यगर्भित है "

आजकल वाट्सएप्प से ज्ञानवितरण करने वाले एक मूर्खतापूर्ण सन्देश सर्वत्र प्रेषित कर रहे हैं कि हनुमज्यन्ती न कहकर इसे हनुमज्जन्मोत्सव कहना चाहिए ; क्योंकि जयन्ती मृतकों की मनायी जाती है । यह मात्र भ्रान्ति ही है ।

व्यावहारिक भाषाशास्त्र के अनुसार जयन्ती शब्द के अनेक अर्थों में दुर्गा , पार्वती , कलश के नीचे उगाए हुए जौ , पताका तथा जन्मदिन/स्थापना दिवस प्रधान हैं ।
व्याकरण की दृष्टि में
लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे इस पाणिनीय सूत्र से √जी जये धातु में शतृप्रत्यय करनेपर "जयत्" कृदन्त पद निष्पण्ण होता है और स्त्रीत्व की विवक्षा में उगितश्च सूत्र से ङीप् और शप्श्यनोर्नित्यम् से नुगागम होकर जयन्ती पद प्राप्त होता है जिसका अर्थ होगा - "जीतती हुई (स्त्री) । प्रस्तुत प्रकरण में इसका अर्थ "विजयिनी तिथि" से है ।
”जयं पुण्यं च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः” –स्कन्दमहापुराण, तिथ्यादितत्त्व
यह जयन्ती पद का शाब्दिक अर्थ है । विशेष अर्थ में यह अवतारों तथा महापुरुषों की जन्मतिथि का वाचक है । यथा , परशुराम जयन्ती , बुद्धजयन्ती , स्वामी विवेकानन्द जयन्ती आदि ।
यह जयन्ती पद रोहिणीयुता कृष्णाष्टमी के लिए रूढ भी है ।
अग्निपुराण का वचन है -
कृष्णाष्टम्यां भवेद्यत्र कलैका रोहिणी यदि ।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता उपोष्या सा प्रयत्नतः ।।
इससे जयन्ती व्रत का महत्त्व रोहिणीविरहित जन्माष्टमी से अधिक सिद्ध होता है । यदि रोहिणी का योग न हो तो जन्माष्टमी की संज्ञा जयन्ती नहीं हो सकती–

चन्द्रोदयेSष्टमी पूर्वा न रोहिणी भवेद् यदि ।
तदा जन्माष्टमी सा च न जयन्तीति कथ्यते ॥
–नारदीयसंहिता

आधुनिक काल में तो मूर्तामूर्त , जड-चेतन वस्तुओं में अन्तर किए बिना वार्षिक समारोहों को भी जयन्ती कहने की प्रथा चल पडी है - स्वर्णजयन्ती , हीरकजयन्ती आदि समारोह विभिन्न संस्थाओं के भी मनाए जाते हैं किन्तु वहाँ भी उनकी उत्पत्ति की तिथि ही गृहीत है ।
जयन्ती भारतीय परम्परा है जन्मदिन नहीं 

उन्होंने एक कथित महात्मा के जन्मदिन को भी जयंति बना दिया , ईश्वर बना रहे और तुम इतने बड़े मूर्ख हो कि हनुमान जी की “ हनुमत जयंति” को जन्मदिन लिख रहे हो ।

जयंति और जन्मदिन में अंतर नहीं समझ में आता तो “प्राकट्य” लिखो ।


जयंत का अर्थ ही जिसके जय का अंत न हो । भगवती जगदंबा दुर्गा को जयंती कहा गया है ।

जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री....

भारत के स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती या रजत जयंती या हीरक जयंती भी इसीलिये मनाई जाती है क्योकि हम इसे शुभ घटना मानते हैं ।

अब आता हूँ , जन्मोत्सव पर , तो दुनिया में जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी निश्चित है । 

हमारा सनातन आदि और अंत पर नहीं बल्कि अनादि और अनंत पर आधारित है । 

फिर से समझिए , आदि और अंत और जन्मदिन , एक अब्राहमिक व्यवस्था हैं, अनादि , अनंत और जयंती सनातनी व्यवस्था है ।

आसमानी किताब वाले क्रिसमस सबेरात मनाते हैं और अंत में दोज़ख़ का इंतिजार करते हैं । 

अनादि की व्याख्या 
“अनादि” क्या है ?

कुछ दिन पहले “ अनादि “ शब्द पर मैने आप लोगों की राय माँगी थी । मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूँ कि सनातन आर्य वैदिक धर्म में “ अनादि” का क्या अर्थ होता है और एक बार पुन: लिख रहा हूँ जिससे की आपकी दृष्टि स्पष्ट हो जाय । आप में से जिसे न मानना हो “ अनादि” की मेरी व्याख्या को वह स्वतंत्र है अपनी व्याख्या के लिए । 

मुझे यह भी पता है कि आधे लोग इसे भी एक साधारण फेसबुकिया पोस्ट के जैसे लेंगे और ध्यान से नहीं पढ़ेंगे । परन्तु जिसे भी “ अनादि” की यह व्याख्या समझ में आ गई उसे न केवल कथा समझने में सहजता होगी , बल्कि वह सनातन का एक सच्चा योद्धा बन सकेगा ।

ध्यान से समझिए । मान लीजिए आप किसी वैज्ञानिक के पास जाए । और उससे पूछे कि यह ब्रह्मांड क्या है ? तो वह आपको बिग बैंग थ्योरी बता देगा । 

आप पूछिए कि उस बिग बैंग के पहले क्या था ? तो ब्लैक होल इत्यादि का उत्तर मिल जाएगा । आप पूछिए उसके पहले तो बहुत से वैज्ञानिक कह देंगे एक वैक्यूम था । आप पूछिए कि वैक्यूम कहाँ से आया , और वैक्यूम कैसे बना ? आधे घंटे केवल उसके पहले , उसके पहले करते रहिए आई आई टी वाले मूर्ख किताबी कीड़े भाग खड़े होगे ।

आसमानी किताब वालों से यह प्रश्न करेंगे तो गरदन कट जाएगी । 

बौद्धो से पूछेंगे तो वे मौन रहकर उत्तर दे देंगे । वैयाकरण और सांख्य दर्शन वाले कह देंगे कि यह अज्ञात है । हमारा धर्म “अनादि” पर आधारित है बाकी सबका ( अब्राहमिक पंथों ) प्रारंभ और अंत पर आधारित है ।

हमारे शास्त्र कहते है कि “ आदि” अनुभव का विषय ही नहीं है । आप बैठ करके सोचने लगिए , ब्रह्मांड के पहले कौन सा ब्रह्मांड था , उसके पहले ......उसके पहले तो कोई अर्थ नही निकलेगा ।

जहाँ पर “मै” है वही पर सृष्टि की उत्पत्ति होती है । अर्थात इदम रूप सृष्टि का “ अहम् “है । और जहाँ से अहम का उदय और और जहाँ पर अहम का विलय है वह “राम” है , वही परमात्मा है और वही “ अनादि” है । 

इसी सिद्धांत के आधार पर हम केवल इतिहास की दृष्टि से अपने धर्म को नही देखते । इतिहास, सूकर मुखी होता है और केवल ज़मीन में गड़ी वस्तुओं को नाक से उधेड़ता है । 

हमारी दृष्टि पौराणिक है । रामकथा या भागवत को आप केवल ऐतिहासिक दृष्टि से न देखे । 

राम का जन्म अयोध्या में त्रेता युग में हुआ पर आप रामनवमी को 12 बजे की प्रतीक्षा करते हैं, अपने आँखों से देखने की । राम और सीता सदैव अभिन्न थे । जनकपुर में विवाह के पहले भी वह एक ही थे पर आप अपने जीवन में अपनी आँखों से राम सीता का विवाह देखते हैं । आप अपनी आँखों से रावण वध देखते हैं ।  

इसीलिए कथा में आप देखेंगे कि शिव यह कथा पार्वती को भी सुना रहे हैं और स्वंयम भी सती के साथ दण्डकारण्य में सुन रहे हैं । राम, सर्वत्र हैं । राम कथा सर्वव्यापी है । 

बल क्या होता है ? 
केवल शरीर के बल को बल , संस्कृत भाषा में नही कहा जाता है ।

आप लोग कमेंट में “ जय बजरंग बली “ लिखते है । हनुमान जी को बली कहने के पीछे का रहस्य समझिए ।

इंद्रियों को संस्कृत भाषा में “ अक्ष” भी कहते है । अर्थात् , हनुमान जी का समक्ष पहली शक्ति कौन सी आई ? अक्षकुमार के रूप में आई ।

हनुमान ने इंद्रियों की शक्ति वाले अक्ष का नाश कर दिया ।

मेघनाद में इन्द्रिय बल के साथ साथ “ काम का बल” भी था । अब आप लोग यह भली भाँति जानते हैं की काम का बल भी बहुत भयानक होता है । होता नकारात्मक है पर होता भयंकर है । आप लौकिक जीवन में भी देखेगे की कोई सींक जैसा दिखने वाले ने भी बलात्कार का प्रयास किया । और वह ऐसा “ काम के बल” के कारण कर पाता है ।

हनुमान अर्थात जिसने अपने मान का हनन कर दिया हो ।

हनुमान जी , जैसा की आपको पता ही है ब्रह्मचारी थे अत: उन पर काम के बल का कोई प्रभाव तो पड़ना नहीं था और वह रावण , “जो की इंद्रिय और काम के साथ साथ , अहंकार का रूप था “ के पास पहुँच कर उसका अहंकार डिगाना चाहते थे अत: मोहपाश में बधे ।

अत: वह जो काम को अपने वश में रख सके , इंद्रिय को अपने वश में रख सके और अपने मन बुद्धि चित्त अहंकार को प्रभू के चरणों में डाल दे , वास्तव में “ बली” वही बली है । हाँ , शरीर का बल भी आवश्यक है ।

आशा है , जो लोग नए जुड़े हुए हैं उन्हें “ बल” शब्द का सनातनी अर्थ समझ में आ गया होगा ।

एक छोटी सी कथा हनुमान जी की सुनिए ।

राम-रावण युद्ध हो चुका था और आततायी रावण का बध करके आपके राम, वापस अयोध्या आ चुके थे और राजतिलक हो चुका था और भगवान सबको उपहार दे रहे थे और आभार प्रकट कर रहे थे ।

पर जब हनुमान जी की बारी आई तब भगवान राम ने कहा हनुमान जी, आपको न मैं कुछ दूँगा और न ही भविष्य में आपकी कोई भी सहायता करूँगा । 

अब चूँकि आपलोग अब्राहमिक फेथ और अंग्रेज़ों के थैंक्यू में इतना रम गए हो कि सनातन धर्म का गूढ़ तत्व समझ में ही नही आता ।

इसका अभिप्राय यह था कि कि भगवान उसको कुछ देते जिसके पास कोई कमी हो या कुछ आवश्यकता हो । और भविष्य में सहायता न करने का अभिप्राय यह था कि हे हनुमान जी मेरे उपर संकंट आया तो आपने मेरी सहायता करी पर आपके उपर ऐसा संकट कभी आए ही नहीं जिसके कारण मुझे आपको सहायता देने की आवश्यकता पड़े ।

यह तो थी भगवत कृपा ।

अब भक्ति का रूप देखिए ।

जब हनुमान जी की राम से माँगने की बारी आई तो हनुमान जी ने केवल राम की भक्ति माँग ली । बोला कि हे राम, मैं सदैव आपके बारे में सोचता रहूँ ऐसा आशीर्वाद दे दीजिए ।

अब आप ध्यान से पढ़िए । यदि आपकी राम भक्ति मे मन लगता है तो यह "फल" है , साधना नहीं । 

यदि राम से आप मुक्ति या कैवल्य माँग रहे हैं तो हनुमान जी को नहीं समझा आपने । केवल और केवल राम भक्ति में लीन हो जाईए । 

हनुमत भक्ति के इस अद्भुत स्वरूप को बाकी और रामभक्तों तक पहुँचाया जाय ।
अंत में- 

स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्ड में वेङ्कटाचलमाहात्म्य के अध्याय ३९ तथा ४० में
अञ्जना द्वारा तप किये जाने के प्रसंग में वायुदेव ने वर प्रदान किया, और उस दिन का विवरण इस प्रकार है-

मेषसंक्रमणं भानौ संप्राप्ते मुनिसत्तमाः ।।
पूर्णिमाख्ये तिथौ पुण्ये चित्रानक्षत्रसंयुते ।

सूर्य मेषराशि में तथा चित्रानक्षत्रयुक्त पूर्णिमा तिथि थी।

अगले अध्याय में व्यासजी कहते हैं कि वेंकटाद्रि तीर्थ में -

स्नानार्थं ये समायांति चित्राऋक्षसमन्विते ।। 
मेषं पूषणि संप्राप्ते पूर्णिमायां शुभे दिने ।।

मेषराशि के सूर्य में चित्रा नक्षत्र की पूर्णिमा के दिन स्नानार्थियों को पुण्य प्राप्त होता है।

कदाचित् यही कारण है कि चैत्र मास की पूर्णिमा, हनुमान् जी के जन्मदिवस के रूप में मनाई जाने लगी।

आगे के पोस्ट भारतीय व्याकरण शास्त्र और शब्दकोष की परम्परा पर होंगे, जिससे लोगों को बात और स्पष्ट हो सकेगी....

All external and internal objects are changing:

world, body, senses and mind. All changing objects appear and disappear in unchanging Awareness. When the understanding of essential nature as unchanging Awareness arises, identification with changing objects ceases. Through meditative inquiry all objects are realized to be expressions of, and therefore not separate from, unchanging Awareness. Constant abiding in this realization of the truth of Oneness reveals that everything is only an expression of unchanging Awareness...

​​“One should try to understand the distress of accepting birth, death, old age and disease.

There are descriptions in various Vedic literatures of birth. In the Srimad-Bhagavatam the world of the unborn, the child's stay in the womb of the mother, its suffering, etc., are all very graphically described. It should be thoroughly understood that birth is distressful. 

Because we forget how much distress we have suffered within the womb of the mother, we do not make any solution to the repetition of birth and death. Similarly at the time of death, there are all kinds of sufferings, and they are also mentioned in the authoritative scriptures. These should be discussed. 

And as far as disease and old age are concerned, everyone gets practical experience. No one wants to be diseased, and no one wants to become old, but there is no avoiding these. 

Unless we have a pessimistic view of this material life, considering the distresses of birth, death, old age and disease, there is no impetus for our making advancement in spiritual life.”

-Bhagavad Gita 13, 8-12
Extract from purport by Srila Prabhupada

सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ..

          परम ममतामयी माँ नर्मदा के तट पर मध्यप्रदेश में एक जगह नरसिंहपुर भी है। यहीं पर नाथ सम्प्रदाय के एक महायोगी का आश्रम एवं समाधि स्थल भी है। आज से २५ वर्ष पूर्व नाथ सम्प्रदाय के परम भक्त शिव योगी सशरीर मौजूद थे उनके आस-पास शिष्यों, अनुयायियों एवं दर्शनार्थियों का पूरा का पूरा दल मौजूद रहता था कभी कोई व्यक्ति उन्हें अपने घर पधारने का निमंत्रण देता तो कोई अन्य अपनी समस्या लेकर उनके आश्रम में ही बैठा रहता था। आश्रम के पास ही एक मुस्लिम परिवार भी रहता था इस परिवार की छोटी बालिका जब-जब स्वामीजी बाहर निकलते वह उनसे अपने घर भोजन करने को कहती। स्वामीजी भी उससे किसी और दिन जरूर आने की बात कह चले जाते थे। एक दिन बालिका ने जिद के साथ प्रेमपूर्वक निर्मल आग्रह पुनः किया। स्वामीजी ने पता नहीं क्या सोचा और उस बालिका के साथ भोजन करने चल दिये। यह सब देखते ही शिष्यों, अनुयायियों और तो और मुस्लिमों में भी हड़कम्प मच गया। बालिका के घर उस दिन भोजन में मछली बनी थी। स्वामीजी तो परम ब्रह्मचारी थे मांसहार तो बहुत दूर की बात है। खैर स्वामीजी ने प्रेमपूर्वक भोजन किया जो बालिका के घर में बना था वही उन्होंने ग्रहण किया। घर के बाहर भीड़ लग गई हिन्दुओं के चेहरे देखने लायक थे और तो और शिष्य भी छाती पीट-पीट कर रो रहे थे। 
              स्वामीजी भोजन करके बाहर निकले सबकी तरफ देखा फिर सबको पास बुलाकर बैठने के लिए कहा। योगी के लिये मन की बात जानना छोटा-मोटा कार्य है। वे सबसे बोले आप लोग जानना चाहते हैं कि मैंने अंदर क्या खाया है फिर उन्होंने अपने एक शिष्य से पानी लाने को कहा पानी पीकर उन्होंने जो कुछ खाया था उसे मुख से पुनः बाहर निकाल दिया। आप जानते हैं उनके मुख से बाहर क्या निकला जिसे देखकर सारे लोग शर्म से गड़ गये और उनके चरणों पर लोटन लगे। स्वामीजी के मुख से केवल गुलाब के ढेरों फूल ही बाहर निकले। यह घटना कटु सत्य है और शिव के महात्म्य को दर्शाती है जिसके अंदर शिव विराजमान है वह विष को भी अमृत में बदल देगा बस जरूरत है तो सिर्फ प्रेम की। बालिका ने प्रेम पूर्वक जो कुछ उन्हें अर्पित किया वह सब गुलाब में परिवर्तित हो गये। भगवान शिव तो विष ही पीते हैं अपने भक्तों का । 
          नर्मदा में शिवलिङ्ग निर्माण हजारों वर्षों में होता है। एक सामान्य पत्थर शिवलिङ्ग में परिवर्तित तभी होता है जब नर्मदा की धारा के अनंत थपेड़ों और प्रवाहों को झेलता हुआ निष्काम भाव से पथ में पड़ा रहता है। नर्मदा के प्रत्येक थपेड़े प्रत्येक काल को, क्षण को, वर्ष को इंगित करते हैं। काल, वर्ष, क्षण आते जाते रहते हैं। शिवलिङ्ग बनने के लिए कंकर को इन सबको तो देखना ही पड़ता है। बहुत कुछ त्यागना पड़ता है, विशुद्धता पाने के लिए त्याग नितांत आवश्यक है। अपने उमर कुछ और भी स्थापित नहीं होने देना पड़ता है और न ही नर्मदा की धारा से विचलित होना पड़ता है। नर्मदा के पथ में पड़े-पड़े कंकर शंकर में परिवर्तित होता है तब कहीं जाकर वह प्रतिष्ठित हो पाता है, पूजनीय हो पाता है एवं कालजयी बनता है। शिव चिंतन के मूल में वीतराग है। 
           वास्तव में अध्यात्म का मूल ही वीतराग हैं। वीतराग ही मनुष्य को या कंकर को छोड़ने की कला सिखाता है, उर्ध्वगामी बनाता है। वीतराग ही मोह से मुक्ति दिलाता है। स्तम्भन की कला सिखाता है। वीतराग ही जीवन है, मोह मृत्यु का परिचायक है। कायरता का दूसरा नाम मोह है। शिव भक्तों के लिये वीतराग ही प्राण है। खोल को फाड़कर निकलना वीतराग के कारण ही सम्भव है। जीव में अगर वीतराग न हो तो वह अण्डे के खोल में ही दम तोड़ देगा। इस पृथ्वी पर कोई भी बीज अंकुरित ही नहीं हो सकता वीतराग के अभाव में न ही कोई पर्वत धरती का सीना फाड़कर उँचाइयों को छू सकता है और न ही कोई मनुष्य दुनिया, समाज इत्यादि के कवच को भेदकर कुछ नया प्रस्तुत कर सकता है। नवीनता और वीतराग एक दूसरे के पर्याय हैं। नवीनता तभी सम्भव है जब वीतरागी क्रिया होगी।
            बालक भी नौ महीने पश्चात् माता के गर्भ से बाहर आ ही जाता है। गर्भ तो छोड़ना पड़ेगा ही, बाल्यावस्था भी छोड़नी पड़ेगी, युवावस्था भी छोड़नी पड़ेगी। स्त्री को जन्म देने की शक्ति भी एक दिन त्यागनी पड़ती है। वीतराग सीखने की वस्तु नहीं है। यह तो ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया है सभी जीवों, तत्वों, पिण्डों और शरीरों में स्वयं ही निर्धारित रहती है। लाख कोशिश करो मृत्यु तो आयेगी ही। कितना आप मृत्यु से बचेंगे। एक दिन प्रवचन देने की शक्ति भी चली जायेगी, बोलने और लिखने की शक्ति भी जाती रहेगी। आप कुछ भी पकड़कर नहीं रख सकते। शरीर तो निरंतर लहरों, थपेड़ों को झेलता ही रहता है। 

थपेड़े समय के हो सकते हैं, उम्र के हो सकते हैं, ज्ञान के हो सकते हैं, विज्ञान के हो सकते हैं। सब कुछ आता जाता रहता है। सिद्धियां स्वयं आती हैं, क्षण भर रुकती हैं फिर चली जाती हैं। सिद्धियाँ अजर अमर हैं मनुष्य नश्वर है। आज इस जीव पर सिद्धि कल दूसरे महापुरुष पर उसका हस्तांतरण है। जब आप यह समझ लेंगे तो सब कुछ व्यर्थ लगने लगेगा। पाने की लालसा, अपना बना लेने की लालसा समाप्त हो जायेगी। सत्य से परिचय ही वीतराग है। 
            वीतराग समस्याओं से भागने की कला नहीं है। भगोड़े कभी भी वीतरागी नहीं होते। वीतराग शिव की दुर्लभ कृपा है, उनका आशीर्वाद है और उन्हीं का अंश है जिसमें वीत राग अंशात्मक स्वरूप में जितना ज्यादा होगा वह शिव के उतना ही निकट होगा। शिव और हमारे बीच की दूरी का माप ही वीतराग है जितनी ज्यादा वीतराग की क्रिया प्रबल होगी उतना ही एक व्यक्ति शिव तुल्य होता जायेगा। यही गुरु बनने का रहस्य है। निरंतर कुछ न कुछ त्यागते रहना, बाँटते रहना निःस्वार्थ भाव से, निर्विकार भाव से शिवलिङ्ग निरंतर बांटते रहते हैं सब कुछ। गुरु भी प्रवचन के माध्यम से, सिद्धियों के माध्यम से, दीक्षाओं के माध्यम से आशीर्वाद के माध्यम से और अंत में वरदान के माध्यम से अपनी साधना, तपस्या, ज्ञान, विचार, सिद्धियां इत्यादि सब कुछ लुटाने के लिये सदैव तत्पर रहते हैं। अनेकों ऐसे दिव्य पुरुष होते हैं जिनके पास अमूल्य ज्ञान, सिद्धियां एवं विज्ञान शिव की कृपा से अटूट रूप में मौजूद होता है। शिव मात्र उड़ेलते ही हैं। गुरुओं की समस्या यह है कि वे इसका करें क्या ? किसे बांटे, किसे दें। कभी-कभी उचित व्यक्तियों का मिलना अत्यंत कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में पुनः शम्भु से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! इन्हें लेने वाले भी उत्पन्न करो। जैसे ही लेने वाले मिलते हैं वे उसे बांट देते हैं और अगर नहीं मिलते हैं तो फिर शम्भु का ध्यान करते हुये सभी ज्ञान, विज्ञान, विद्याओं और सिद्धियों को जल में प्रवाहित कर मुक्त हो जाते हैं। यही क्रिया उन्हें अंत में करनी ही पड़ती है। वीतरागी के लिये मात्र सम्प्रेषण ही एकमात्र अस्त्र होता है।
                  जिसके पास वीतराग की शक्ति होती है उसे आने जाने वाले अस्थाई मौसम के थपेड़े परेशान नहीं करते। ज्ञानी पुरुष प्रतिक्षण वीतराग की क्रिया ही करते रहते हैं। दीक्षा प्रदान करने का यही रहस्य है इसमें तृप्ति है। भूलने की प्रवृत्ति है, लेन-देन का व्यवहार नहीं है। लेन-देन का व्यवहार पशुतुल्य सिद्धांत है और पशुतुल्य सिद्धांत धर्मभूमि पर लागू नहीं होते। भारत धर्मभूमि है यहाँ अध्यात्म के शाश्वत् सिद्धांत लागू होते हैं। पाश्चात्य जगत कर्मभूमि है वहाँ पशुतुल्य लेन-देन का सिद्धांत ही लागू होगा। गाय को दो किलो चारा खिलाओ और शाम को दो किलो दूध दुहो। उनके यहाँ सारी सोच, समस्त विकास की जड़ में मात्र यही सिद्धांत समाया हुआ है। इस सिद्धांत की परम अवस्था दो किलो चारा और शाम को दो किलो दूध ही है। वे सारा जीवन इसी सिद्धांत को परिष्कृत करने में लगा देते हैं। आठ घण्टे का काम और फिर आठ घण्टे बाद आठ घण्टे की मजदूरी परन्तु भारतवर्ष में आज तक किसी भी युग में यह सिद्धांत लागू नहीं हो पाया है और न लागू होगा। आठ घण्टे कार्य करने के पश्चात् भला किस युग में उचित पारिश्रमिक मिला है। यहाँ वही व्यक्ति उत्थान कर सकता है जो कि अपने पीछे धर्म की ताकत रखता है। ध्यान रहे कर्म भूमि में दो किलो चारे के बदले दो किलो दूध ही चरम अवस्था में प्राप्त हो सकता है परन्तु धर्म भूमि पर दो किलो चारे के बदले में दो लाख किलो दूध भी प्राप्त होने की पूरी पूरी सम्भावनायें हैं चुनाव आपके हाथ में है। 
            कर्मभूमि में तनाव है, रोग है, अल्प आयु है, हिंसा है, आनंद का अभाव है, और तो और ध्यान, आत्मसुख, प्रेम इन सबका तो नितांत ही अभाव है, जीवन में अनेकों वस्तुयें ऐसी हैं जिनका मूल्य आप लगा ही नहीं सकते। कर्म के सिद्धांत में तो पिता पुत्र होता ही नहीं तो फिर मृत्यु के बाद कंधा देने के लिए भी पैसा देना पड़ेगा। क्रियाकर्म तो बहुत दूर की बात है। जीवन संगिनी तो होती नहीं बस बिस्तर बदलने का खेल होता है। जिस दिन कार्य करने की क्षमता खत्म होती है वृद्ध आश्रम रूपी जेलों में फेंक दिये जाते हैं। जब वृद्धों को जेल में फेंक दोगे तो फिर कहाँ से ऋषि-मुनि और सद्गुरु जैसे दिव्य पुंजों का संस्पर्श आपको प्राप्त होगा। तब आप मनुष्य कहाँ रहे। जब तक जवानी है तब तक जीवन है ऐसी व्यवस्था पशुओं में ही होती है इसीलिये मृत्यु तो कष्टकारी होगी। कर्म भूमि के सिद्धांत वीतरागी का आह्वान नहीं कर सकते। इस प्रकार की भूमि गुरु विहीन होगी, शिव विहीन होगी। शिव अगर साक्षात् नहीं होंगे तो फिर सभी तरफ विष ही विष होगा। 

जिसे देखो उसे विष वमन करता ही मिलेगा एवं सम्पूर्ण समाज विष का महासागर होगा। शिव उर्ध्वगामी है। शिवलिङ्ग हमेशा उपर की तरफ ही उठते हैं। तंत्र और यंत्र के मध्य में विराजमान हमेशा शिव ही होते हैं। प्रत्येक यंत्र के मूल में उर्ध्वगामी त्रिकोण शिव को दर्शाता है। जो उर्ध्वगामी होगा वही ज्योति प्रदान कर सकता है। वेदों में अग्नि को शिव स्वरूप माना गया है। अग्नि हमेशा उर्ध्वगामी ही होती है। ज्योतिर्लिङ्गों का दिव्य प्रकाश समस्त जीवों को अंधेरे से मुक्त कराता है। अंधकार से मुक्ति शिव प्राप्ति है। कर्म की प्रधानता मनुष्य के अंदर नाना प्रकार के ताप को प्रतिष्ठित कर देती है। इन तापों से मुक्ति के लिये ज्योतिर्लिङ्ग ही एकमात्र सहारा है जिनके सानिध्य में हमारे तापों का शमन होता है। आप क्रोधित व्यक्ति को देखें, शोषित व्यक्ति को देखें, रोगी व्यक्ति को देखें आपको झुलसा देने वाला ताप ही दिखाई देगा। इसी ताप से उन कर्मों का उदय होता है जो कि पाप की श्रेणी में आते हैं और जब पाप कर्मों के द्वारा किसी जीव के साथ अनर्थ होता है तो उसके द्वारा मात्र शाप आह और हाय का ही सम्प्रेषण होता है जिसके विकिरण में पाप कर्मों के सम्पन्न करने वाले माध्यम का सर्वनाश निश्चित ही होता है। 
         शिव के पास सम्प्रेषण के लिये जीवों में चीत्कार सबसे अमोघ माध्यम है। इसी के द्वारा शिव की ध्यान मग्न अवस्था भंग होती है और फिर उनके तीसरे नेत्र से प्रवाहित संहारक शक्ति समस्त पापियों का सर्वनाश कर देती है। यह ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया है। शिव इसी प्रक्रिया के द्वारा प्रलय की उत्पत्ति करते हैं। कर्म का सिद्धांत इसीलिये अपूर्ण है। प्रलय के मूल में कर्म का हाहाकारी सिद्धांत है धर्म की संरचना शिव ने इसलिये की है। अनंतकालों से भारत की धर्मभूमि में प्रचुर संख्या में शिवलिंग, ऋषि, देव, अवतार इत्यादि प्रतिष्ठित होते आ रहे हैं। ये हमेशा कर्म के सिद्धांत को खण्डित करते हैं। व्यक्ति को अध्यात्म की परिभाषा सिखाते हैं कर्म की पशुता से पुनः पृथ्वी को बचाते हैं और बदले में जीवों के ताप का हरण कर लेते हैं। ये सबके सब शिव के प्रतिनिधि हैं। शिव वीतरागी है, सिंहासन पर विराजमान नहीं है, कोई राज्य नहीं है, कोई लालसा नहीं है, कहीं कोई भय नहीं है बस देने की प्रक्रिया है। शम्भु को समझा नहीं जा सकता। तत्वचिंतक तत्व के माध्यम से उनके कुछ अंशों को आत्मसात करते हैं । तपस्वी तप के माध्यम से थोड़ा बहुत दर्शन कर लेते हैं। बुद्धिमान पुस्तक के माध्यम से शिव रस का पान कर लेते हैं। वैज्ञानिक विज्ञान के द्वारा थोड़ी बहुत झलक देख लेते हैं इत्यादि इत्यादि परन्तु इन सबमें अपूर्णता है। 
             शिव की व्याख्या सम्भव नहीं है। शिवलिङ्ग पूजन वैश्विक प्रक्रिया है। इस पृथ्वी का कोई ऐसा कोना नहीं है जहाँ शिव पूजन नहीं होता हो। उनके सहस्त्र नामों में से कोई सा भी नाम उस पूजन का हो सकता है। पूजन पद्धति समय और काल की देन है। वेदों में वे रुद्र शक्ति के नाम से पूजित हैं। रौद्र तो सूर्य भी हैं, अग्नि भी है, वायु भी है तो वही मनुष्य भी है। प्रारम्भ में मनुष्य में इतनी शक्ति थी कि वह प्रकृति में मौजूद शिवलिङ्गों से सम्प्रेषण कर सकता था परन्तु धीरे-धीरे पिछले पाँच हजार वर्षों में मनुष्य अपने जीवन का ९० प्रतिशत हिस्सा मनुष्यों के बीच ही गुजार लेता है ऐसी स्थिति में प्राकृतिक शिव सानिध्य का अभाव उत्पन्न होने लगा परन्तु शिवत्व की ललक तो और बढ़ी। एक बार फिर वैश्विक प्रार्थना शुरु हुई शिव प्राप्ति के लिये और फिर कृष्ण, राम, महावीर, बुद्ध इत्यादि इत्यादि अनेकों महामानवों का अस्तित्व सामने आने लगा। इन सब महामानवों ने मूल रूप से आपने अंदर परम ब्रह्माण्डीय शिव की चेतना को वीतराग के रूप में स्थापित कर शम्भु को आत्मसात किया ध्यान रहे शिव रहस्य केवल वेद, पुराण, गीता, रामायण इत्यादि इत्यादि पुस्तकों के अधीन नहीं हुये । शिव की चेतना ने तो उन्हें नदी, पहाड़, वायु, समुद्र, भूमि, नभ-मण्डल, आकाश गंगा इत्यादि पर अंकित कर दिया है। बस पढ़ने वाले में ताकत होनी चाहिये। 
             वेदों को कहीं से भी ग्रहण किया जा सकता है। वे प्राणवान हैं। हर जगह, हर स्वरूप में मौजूद हैं। जिस प्रकार इस पृथ्वी पर आप कहीं भी वायु को ग्रहण कर सकते हैं उसी प्रकार शिव साधक कहीं भी शिव में लीन हो वेद ग्रहण कर सकता है। मनुष्य की ताकत केवल वेदों को ग्रहण करने की ही है तो वह ब्रह्माण्ड से वेद ग्रहण कर सका। वेदों से उपर भी अतिसूक्ष्म परा ब्रह्माण्डीय शिव रहस्य है। शिव का कोई और छोर नहीं है। यहीं से गुरुओं का प्रादुर्भाव हुआ। जब ब्रह्माण्ड से ग्रहण करने की क्षमता का ह्रास हुआ तो फिर शिव रूपी परम व्यवस्था ने गुरु रूपी व्यवस्था का भी निर्माण कर दिया मनुष्यों के कल्याण के लिये।

आदिगुरु शंकराचार्य जी ने जितने भी महाग्रंथ लिखे सबके सब ब्रह्माण्ड से ग्रहण किये। किसी भी वैज्ञानिक खोज को पुस्तक के द्वारा सम्भव नहीं किया जा सकता। अभी वर्तमान काल में गुरु ही शिव के प्रतिनिधि हैं। आगे माध्यम क्या होगा कहना सम्भव नहीं है। 
              आप अव्यवस्था से क्या समझते हैं ? जिसे आप अव्यवस्था कहते हैं वह भी वास्तव में व्यवस्था है। मनुष्य के अनुरूप अगर किसी शक्ति विशेष में तीव्रता हो जाती है तो वह उस पर अव्यवस्था रूपी शब्द चस्पा कर देता है। आकाश में वर्षा के घोर बादलों को देख वह उसे अव्यवस्थित कह देता है । रौद्र जल वृष्टि उसे अव्यवस्था लगती है परंतु वास्तव में इसी से अनेकों व्यवस्थायें जन्म लेती हैं। सड़ी-गली पुरानी व्यवस्थायें पुनः समुद्र में फेंक दी जाती हैं निर्ममता के साथ। अव्यवस्था तो मनुष्य करता है अपनी लिप्तता के कारण कोई कसर नहीं छोड़ता है शिव निर्मित इस जगत को बर्बाद करने में। नर्मदा किनारे एक बार मेला लगा हुआ था। मूर्ख मनुष्यों ने उसके तट पर इतनी गंदगी मचा दी थी कि वहां पैर रखने पर भी सांस लेते नहीं बन रही थी अगर नर्मदा में बाढ़ न आये तो मनुष्यों द्वारा फैलाया गया मल-मूत्र कभी साफ ही न हो पाये। नर्मदा के बारे में स्पष्ट कहा गया है कि इसके जल में उतर कर कभी स्नान मत करो यह आजीवन कुंआरी और मातृ स्वरूपा है। इनका जल अति पवित्र है। नर्मदा तट पर अगर स्नान करना है तो बाल्टी से पानी भरो और बाहर भूमि पर बैठकर स्नान कीजिये। उनकी पवित्रता की रक्षा तो करनी ही पड़ेगी। परन्तु कितने लोग इस बात को समझते हैं इसीलिये कंकर ही रह जाते हैं।
             एक कथा याद आती है दो बड़े-बड़े शिला खण्ड नर्मदा के तट पर अनंत वर्षों से स्थित थे। इन दोनों शिला खण्डों पर धोबी वस्त्रों को पीट-पीटकर नर्मदा के जल से धोते थे। कुछ समय पश्चात् वहां से एक सन्यासी निकले उन्होने शिलाओं को देखा और तुरंत ही उनके मन में शंकर की प्रतिमा निर्मित करने का ख्याल आया। शिल्पी को बुलवाकर एक पत्थर वहां से उठवाया और शिवजी की अद्वितीय मूर्ति का निर्माण कराकर उसे तट पर ही भव्य रूप से प्राण प्रतिष्ठित कर दिया। लोगों की भीड़ आने लगी शिव के दर्शनार्थ। एक दिन रात्रि के समय तट पर पड़ी शिला मंदिर में स्थापित शिला से बोलने लगी तुम तो बहुत भाग्यवान हो मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित हो गईं और मैं यहां पड़ी पड़ी धोबियों के पछीटे खा रही हु । इस पर मंदिर में स्थापित शिला बोली मैरे उपर तो प्रतिदिन न जाने कितने अपना पाप और मैल छोड़ जाते हैं परन्तु तुम तो प्रतिदिन अनेकों वस्त्रों को धो रही हो तो भला मैं भाग्यवान हुई या तुम यही शिव परिवार की व्यथा हैं। 
           शिव को आत्मसात कर गुरु भी बस समाज का कचरा साफ करते हैं। नर्मदा भी शिव सानिध्य में सब कुछ झेल रही है। शिव प्रेम में गंगा भी लोगों के पाप धो रही है। जो गुरु के साथ रहते हैं उनके कदम से कदम मिलाकर कार्य करते हैं उन्हें भी गुरु के समान कुछ हद तक तो जहर पीना ही पड़ता है। शिव का कार्य ही मानस पुत्रों का निर्माण करना है। शिव ने न तो गणेश को, न ही कार्तिकेय को स्वयं के शरीर से उत्पन्न किया है । वे तो प्राणों के देवता हैं, देवाधिदेव हैं। जिसमें चाहें उसमें प्राण प्रतिष्ठित कर दें। गणेश तो मां पार्वती के शरीर के मैल से उत्पन्न हुये हैं। गुरु के गर्भ में भी असंख्य मानस पुत्रों का जन्म छिपा हुआ होता है । वे प्राण प्रतिष्ठित करने की क्रिया में दक्ष होते हैं। शिव शिलाओं में भी अपनी दिव्य ज्योति प्रदर्शित कर ज्योतिर्लिङ्ग बन जाते हैं। परिवार और झगड़ा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहां झगड़ा नहीं वहां परिवार नहीं और जहां झगड़ा वहीं परिवार।

शिव परिवार में गणेश हैं जिनका वाहन मूसक तो वहीं कार्तिकेय हैं जिनका वाहन मयूर माता भगवती सिंह वाहिनी हैं तो वहीं शंकर नंदी पर विराजमान हैं। एक तरफ ऋषि-मुनि हैं दूसरी तरफ असुर ।एक तरफ शुक्राचार्य है तो दूसरी तरफ वशिष्ठ। कहीं देवता स्तुति कर रहें हैं तो कहीं भूत-प्रेत और पिशाच भी शिव के समीप बैठे हुये हैं। इन सब में आपस में 36 का आंकड़ा है । एक पल के लिये शिव अगर हट जायें तो यह सब एक दूसरे को सदा के लिए समाप्त कर देंगे। कुछ भी नहीं बचेगा। परन्तु शिव सानिध्य में सभी शांत बैठे हुये हैं। इनके शांत बैठने से ही ब्रह्मा और विष्णु अपना कार्य सम्पन्न कर पाते हैं एवं लोकरूपी अनंत व्यवस्थायें अनंतकाल से चली आ रही है। आप सोचिये भगवान शिव के कितने अनंत स्वरूप हैं इसीलिये शिव को परम चेतना के स्वरूप में देखना ही श्रेष्ठ है । ज्योतिर्लिङ्गों से प्रतिबिम्बित होते अनंत चेहरे तो बस क्षण, समय और काल का विषय हैं। भारतवर्ष में स्थित ज्योतिर्लिङ्गों के सानिध्य में सभी ऋषियों, महानायकों एवं अवतारियों का प्रादुर्भाव हुआ है। इस चराचर जगत में विविधता ही शिव है। 
           एकांगी मार्ग अत्यंत ही घटिया और संकीर्ण है। मरुस्थल में रेत होती है और कुछ नहीं। ज्यादा से ज्यादा खजूर का पेड़ है। उसी का फल खाओ, उसी के नीचे सोओ। न नदियां हैं, न पहाड़ हैं, न जल है, न वर्षा है, न ही विविध प्रकार के पशु व पक्षी इत्यादि-इत्यादि। ऐसे स्थानों पर उदित धर्म एकांगी ही होगा। एक महापुरुष और एक पुस्तक को हजारों साल तक पूजते रहो। इन स्थानों पर निवास करने वाले व्यक्ति क्या जाने कि शिव परिवार में इन्द्र कौन है, कुबेर कौन है, महालक्ष्मी कौन हैं, कामधेनु कौन हैं, ऋषि कौन है, नदी क्या है, पर्वत क्या है। यही मूल फर्क है सनातन धर्म में और मरुस्थल में उगे धर्म में इसीलिये मरुस्थल के मनुष्य आक्रांता हैं उनके अंदर ललक है शम्भू के विभिन्न स्वरूपों को देखने की। भारतभूमि पर आक्रमण का यही मूल कारण है। यह शिव भूमि है यहां पर शिव ने अपनी समस्त शक्तियों को ज्योतिर्लिङ्ग के माध्यम से जी भरकर लुटाया है। अनंत प्रकार के जीव-जंतु हैं, अनंत प्रकार की वनस्पति है, अनंत प्रकार के पंथ है, असंख्यों विद्यायें हैं, सिद्धियाँ हैं, ज्ञान से मनुष्य पटा पड़ा है, इतनी नदियां हैं कि गिन ही नहीं सकते। 
                आज से 500 वर्ष पूर्व अंग्रेज तो केवल उन मसालों को लेने के लिये आये थे जिन्हें हम सामान्य समझते हैं। हमारी सामान्य वनस्पति ही उनके लिये दुर्लभ और अमूल्य थी। आये तो थे मसाले लेने परन्तु पूजा पद्धति, वेदांत, दर्शन, योग, देवालयों इत्यादि इत्यादि को देख बौरा गये और जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे। जितना ढोकर ले जाते बना ले गये परन्तु फिर भी हमारे यहाँ कोई कमी नहीं है। मूल तत्व में तो आज भी वे नहीं पहुँच सकें हैं। मूल में तो शिव ही है। भारत वासियों पर शिव की अनन्य कृपा है। इसके सामने सभी सभ्यतायें दरिद्र हैं। भारत ने एक बार फिर उन्हें आत्मसात कर लिया वे भी अब शिव पूजक बन रहे हैं। मरुस्थल में तो शिव मंदिर के ऊपर उन्होंने अपने पूजा घर खड़े कर लिये हैं यह सब कुछ मात्र आडम्बर है ज्यादा दिन नहीं चलेगा। इस तरह की क्षदम् पहचान आने वाले 500 वर्षों में स्वतः ही विखण्डित हो जायेगी। एक बार पुनः शैव शक्ति समस्त विश्व में वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जायेगी। शिव रूपी परम चेतना के लिये यह सब कुछ चंद मिनटों का काम है।
            
                                   शिव शासनत: शिव शासनत: