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हनुमंत साधना के कुछ नियम ।।
आत्मसमर्पण ।।
नारद जी ने उग्र तपस्या प्रारम्भ की, इन्द्र को लगा कि कहीं मेरा पद न चला जाय तुरंत ही कामदेव को आदेश दिया जाओ नारद की तपस्या भंग करो। कामदेव ने समस्त प्रपंच अपने पाँच बाणों के द्वारा रचे पर नारद की तपस्या भंग नहीं हुई। कालान्तर नारद गर्व से भर उठे सीधे ब्रह्मा के पास पहुँचे और बोले मैंने काम पर विजय पा ली है। ब्रह्मा अंतर्यामी हैं सब कुछ समझ गये बोले जाओ शिव से आशीर्वाद ले लो। नारद जी शिव लोक पहुँच गये और अपनी तपस्या का बखान करने लगे। परम परमेश्वर आदि देव बोले बेटा इस बात को गोपनीय रखना किसी के सामने अपनी सिद्धि का बख़ान मत करना विशेषकर विष्णु के सामने तो कभी नहीं। इसे गोपनीय रखना परम आवश्यक है। शिव सब कुछ समझ गये थे। खैर नारद के पेट में कहाँ बात पंचती है वे बैकुण्ठ धाम पहुँच गये और विष्णु के सामने भी बखान करने लगे। विष्णु तो लीलाधारी हैं, मायावी हैं तुरंत ही एक नगरी रच दी और वहाँ के राजा के यहाँ महालक्ष्मी को पुत्री के रूप में भेज दिया।
कमला का कमनीय सौन्दर्य, प्रत्येक अंग कमल के समान आकर्षक एवं आकर्षित, करने वाला। यहाँ पर महालक्ष्मी का नाम पड़ा श्रीमती आजकल हम श्रीमती का मतलब विवाहित स्त्री से लगाते हैं परन्तु महालक्ष्मी श्रीमती के रूप में कुंवारी ही थीं। विष्णु की लीला विष्णु ही जाने। नारद फिसल गये महालक्ष्मी का सौन्दर्य ही ऐसा है। उनके अंदर स्त्री प्राप्ति की इच्छा जाग उठी सीधे विष्णु के पास पहुँचे बोले मुझे अपना रूप दें दो स्वयंवर में जाना हैं। विष्णु मुस्कुरा दिए अपने रूप की जगह वानर का रूप दे दिया। स्त्री मोह में अंधे नारद सीधे स्वयंवर स्थल पर पहुँचे श्रीमती उन्हें देख कुपित हो उठीं। स्वयंवर में उन्होंने किसी को पसंद नहीं किया। महालीलाधारी शिव, विष्णु की इस लीला को देख रहे थे तुरंत अपने दो पार्षद भेजे नारद को समझाने के लिए पर मोहिनी का जादू सर चढ़कर बोल रहा था। नारद की बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी थी शिव पार्षदों को भी श्राप दे दिया, विष्णु को भी श्राप दे बैठे, बहुत कुछ भला बुरा कहा। विष्णु शांत भाव से शापित होते रहे पर जब नारद पुनः चेतना में लौटे तो भारी पश्चाताप हुआ।
वास्तविकता यह थी कि वे कामशून्य नहीं हुए थे बल्कि यह तो कामशून्य दिव्य शिव तीर्थ की ही महिमा थी कि कामदेव निष्फल हो गये थे। नारद ने आत्मसमर्पण कर दिया, फूट-फूटकर श्री हरि के चरणों में गिड़गिड़ाने लगे। ब्रह्मा के पास जाकर भी भारी पश्चाताप करने लगे, शिव सानिध्य में जा प्राणोत्सर्ग करने की ठान बैठे। खैर जब आत्मसमर्पण सम्पूर्ण हुआ तब पुनः त्रिदेवों ने नारद 'को आशीर्वचन प्रदान किए। एक बार नारद की बुद्धि पुनः शुद्ध हुई, वे पवित्र मुनि । पद पर गतिमान हुए।
आत्म समर्पण तो करना ही पड़ेगा । अध्यात्म के क्षेत्र में मुँह से बोलने से काम नहीं चलेगा। नौटंकी बाजी से कुछ नहीं होगा। 90 प्रतिशत व्यक्ति बोलते हैं हम बीस साल से पूजा कर रहे हैं, घण्टे बजा रहे हैं, मंत्र जप कर रहे हैं, यज्ञानुष्ठान कर रहे हैं फिर भी मजा नहीं आ रहा है, हमारे गुरु महाराज भी हैं पर वे भी बेकार हैं हमें तो लगता है उन्हें कुछ नहीं आता है, वे ढोंगी हैं' इत्यादि इत्यादि । इस तरह के विचार, संशय-असंशय । अधिकांशत: लोगों के मन में घुमड़ते रहते हैं। पूजा, उपासना, मंत्र जप, योग क्रिया के साथ-साथ अध्यात्म के क्षेत्र में सम्पन्न किए गये प्रत्येक कर्म के पीछे व्यक्ति विशेष को आत्मसमर्पण की तरफ गतिमान होने देने का ही लक्ष्य होता है। आत्मसमर्पण में समय लगता है। यह एक प्रकार से एक विशेष परा अवस्था है जो कि परमानंद प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है। जो साधक अपने ईष्ट के प्रति आत्मसमर्पित हो जाता है वही साक्षात् ईष्ट में विलीन हो पाता है अन्यथा दूरियाँ बनी रहती हैं।
मतभेद और मनः भेद कहीं न कहीं दिखाई पड़ते हैं। "काली" रामकृष्ण परमहंस के सामने जैसे ही बोला जाता था वे मूच्छित हो जाते थे, एक क्षण में पंचेन्द्रिय नियंत्रण शिथिल हो जाता था, सारे बदन में झटके आने लगते थे, सभी चक्र जागृत हो जाते थे, मुँह से जम्हाइयाँ और फेन निकलने लगता था। इसे कहते हैं आत्मसमर्पण । शिष्य लोग डर के मारे उनके सामने काली शब्द का उच्चारण ही नहीं करते थे। ले काली खाना खा रामकृष्ण परमहंस हाथ में कौर लेकर काली से बोलते थे और दूसरे ही क्षण काली साक्षात् प्रकट होकर भोजन कर रही होती थीं। इसे कहते हैं आत्मसमर्पण नहीं तो ढोंगियों के समान सौ अक्षर के दक्षिण काली का मंत्र जप करते रहो काली बिल्ली भी प्रकट नहीं होगी। यह है क्रिया योग । यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है हमारे गुरु के भी एक से एक शिष्य हैं उनके सामने बस कह दो निखिल दूसरे ही क्षण भाव जगत का अनुभव ले लो। ईश्वर भाव जगत के अधीन है, गुरु भाव जगत के अधीन गमन करता है। ऐसे ही शिष्य उनके दर्शन करते हैं, उनसे बाते करते हैं, उनकी लीला को साक्षात् प्रकट होते देखते हैं।
समग्रता के साथ देखना है, कुछ प्राप्त करना है, अनुभवातीत मस्तिष्क का मालिक बनना है तो फिर आत्मसमर्पण की कला सीखनी पड़ेगी। आइसटाइन का नौकर उनसे ज्यादा बना ठन कर रहता था। आइसटाइन तो बस अनंत ब्रह्माण्ड में रमे रहते थे उन्हें कहाँ फुरसत थी नहाने की, दाढ़ी बनाने की या वस्त्र बदलने की। लोग उनके नौकर को आइसटाइन समझ फूलमाला पहना देते थे। वास्तविकता क्या है? सत्य क्या है? यह बिना आत्मसमर्पण किए समझ में नहीं आयेगा नहीं तो ऊपरी तल पर देखते रहोगे। आत्मसमर्पित होने का मतलब है ढलने की प्रक्रिया। आत्मसमर्पण ही व्यक्ति को अहिंसक बनाता है यही कमलात्मिका रहस्य है।
मैं उस आत्मसमर्पण की बात नहीं कर रहा हूँ जो दुनियादारी में होता है। सौ खून करके अपनी जान बचाने के लिए ढोंग करना आत्म समर्पण नहीं है। स्वार्थ के लिए या फिर दबाववश धर्म परिवर्तन कर लेना आत्मसमर्पण नहीं है। यह आत्मसमर्पण की गलत परिभाषा है। आत्मसमर्पण व्यक्तिगत विषय है, दुसरे का इससे कोई भी लेना देना नहीं है। इसे कहते हैं सोखने की कला। स्वयं के अस्तित्व को मिटाकर लीन होने की प्रक्रिया। जे कृष्णमूर्ति, आदि गुरु शंकराचार्य जी इत्यादि जितने भी ब्रह्मज्ञानी हुए उन्होंने वेदान्त के प्रति अपने आपको आत्मसमर्पित कर दिया, वे ही वेदान्त हो गये और वेदान्त ही इन विभूतियों के मुख से पुन: वाणीमय हुआ। आत्मसमर्पण दुर्लभ स्थिति । आप जीवन में आत्मसमर्पित हो जाये बस यही प्रार्थना है, आपको आत्मसमर्पित मित्र, पत्नी या कोई और मिल जाये तो आपका पृथ्वी पर आना धन्य हो जायेगा । खोज करने के लिए कुछ और नहीं है, कमल नयनों से देखने के लिए कुछ और नहीं हैं, करकमलों से किसी को छूने के लिए कुछ और नहीं बस आत्मसमर्पित पिण्ड चाहिए। चाहे वह शिष्य के रूप में हो या फिर किसी अन्य रूप में। जब तक आत्म समर्पित व्यक्ति नहीं मिलेगा, जब तक आत्म समर्पण की क्रिया सम्पन्न नहीं होगी न बाबा मिलेंगे, न राम और न ही कृष्ण । यही गीता का रहस्य है, यही कृष्ण की वेदना है।
अपने 63 साल के अवतारी एवं शारीरिक जीवन में कृष्ण ने समस्त पृथ्वी पर स्थित मानवों को संस्पर्शित किया। मात्र द्रोपदी को छोड़ कोई भी कृष्ण के प्रति आत्म समर्पित नहीं था। द्रोपदी के लिए ही कृष्ण ने युद्ध लड़ा, द्रोपदी की एक पुकार पर कृष्ण भागे चले आये, द्रोपदी के लिए ही कौरव कुल का सर्वनाश कर दिया। द्रोपदी ने पुकारा दुर्वासा सामने खड़े थे चॉवल के कुछ दाने में हीं महाअसंतुष्ट दुर्वासा संतुष्ट हो गये। द्रोपदी के लिए ही कृष्ण सारथी बनें, अर्जुन के ताप को झेला। अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाया। घमण्डी क्षत्रिय को भी आत्मसमर्पण का स्वाद चखाया, द्रोपदी के साथ रासलीला नहीं की थी फिर भी वह आत्मसमर्पित थी । हृदय से कृष्ण को भगवान मानती थी। राधा, रुक्मिणी और दस बीस हजार स्त्रियाँ तो कृष्ण सानिध्य का भोग कर रही थी पर द्रोपदी वन में विचर रही थी पाँच क्षत्रियों के साथ । आत्मसमर्पण अत्यंत ही गूढ़तम रहस्य है।
गुरु की आँखें क्या खोजती हैं? कुछ नहीं बस आत्म समर्पण और कुछ नहीं। कोई ज्ञानी कहेगा, कोई विज्ञानी कहेगा, किसी को सिद्धि चाहिए, किसी को लेन-देन करना है, किसी को कुछ और चाहिए पर आत्मसमर्पणू किसी को नहीं चाहिए। कौन किसके प्रति समर्पित होता है? साधक साध्य के प्रति या साध्य साधक के प्रति। ईश्वर आत्मसमर्पित है, ईश्वर को साधने वाला आत्मसमर्पित है या नहीं यह अलग बात है। ईश्वर सदैव आत्म समर्पित होता है वह एक क्षण के लिए भी किसी से विमुख नहीं होता है पश्चात् भी साथ होता है वह अविभाज्य है यही आपको समझना है इसलिए ईश्वर की मृत्यु नहीं होती वह नित्य है हर रूप में है। रूप उसके अधीन है वह रूपों के अधीन नहीं है। वह कहाँ नहीं है यही तो विराट स्वरूप है यही तो कृष्ण दिखा रहे हैं। मैं ही तो सब कुछ हूँ, मैं ही सारा कर्ता-धर्ता हूँ, अच्छा बुरा, पसंद, नापसंद, उत्थान, पतन, यश-अपयश इन सबके पीछे मैं ही तो छिपा हूँ। एक भी क्षण तुम मुझसे दूर नहीं हो।
जैसे ही गोताखोर समुद्र की गहराइयों में डुबकी लगाते हैं भारी दबाव के कारण शरीर के अंदर उपस्थित विभिन्न प्रकार की वायु बुलबुलों के रूप में शरीर के एक-एक रोम से विसर्जित होने लगती है और गोताखोर चकरा जाता है एवं उसे लगता है जैसे । वह तो गैस का गोला हो इसीलिए गोताखोर धीरे-धीरे ऊपर आता है अन्यथा मृत्यु हो सकती है। रक्त में बुलबुले पड़ने लगते हैं यही हाल अंतरिक्ष का है वहाँ पर अगर शरीर का एक हिस्सा विशेष कवच से बाहर निकाल दिया जाय तो ऐसा लगता है मानों किसी हवा से भरे गुब्बारे में छेद करें दिया हो इतनी तेजी के साथ शरीरस्थ वायु निष्कासित होने लगती है। क्या मतलब है? इन स्थितियों का। यह स्थितियाँ ठीक वैसी ही हैं जैसे कि शिव क्षेत्र में नारद ने अनुभूत की थीं। वे वहाँ पर कवचित थे ठीक इसी प्रकार आप भी ईश्वर के द्वारा सदैव कवचित रहते हैं अन्यथा दो मिनट लगते हैं अस्तित्व मिटने में ईश्वर आपको कवचित करके रखे हुए है यही उसकी महानता है जिस स्थिति में ईश्वर मौजूद है उस स्थिति के अनुसार जीव को ढलना होता है अर्थात आत्मसमर्पित होना होता है।
क्यों प्रत्यारोपित अंग ज्यादा दिन तक क्रियाशील नहीं रहते? क्योंकि आत्मसमर्पण नहीं होता, दोनों तरफ से अस्वीकृति होती है इसीलिए गठबंधन टूट जाता है, जितनी ज्यादा अस्वीकृति होगी, उतना ही गठबंधन कमजोर होगा, जितना ज्यादा मस्तिष्क में द्वंद होगा उतना ही शरीर कमजोर होता जायेगा। जैसे-जैसे मस्तिष्क द्वंद्वात्मकता और विरोधाभास से ग्रसित होता जायेगा मृत्यु जल्दी आयेगी। रोग और बुढ़ापा सामने खड़ा होगा। द्वंद धूमावती का क्षेत्र है, सब कुछ धुंआ । आत्मसमर्पण विष्णु और कमलात्मिका का क्षेत्र है। एक युगल स्थिति । युग्मता ही जीवन है। युग्मता से ही सृष्टि की रचना होती है युग्मता ही नवजीवन की सहायिका हैं माता पिता क्या है? कौन किसके माता पिता ? यह सब तो एक सामान्य सोच है इसका ब्रह्मज्ञानियों से क्या लेना देना । वास्तव में जन्म देने वाले तो सहायक और सहायिका हैं। सहायता देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। गुरु भी सहायक हैं रास्ता दिखाने के लिए चरण स्पर्श जीवन की सत्यता बताने के लिए शत्-शत् नमन। यही भाव होने चाहिए तभी अध्यात्म के क्षेत्र में प्रविष्ठि का कोई तात्पर्य है अन्यथा भौतिक दुनिया भी बुरी नहीं है। दोनों रास्ते खुले हुए हैं, हर प्रकार के दृश्य ईश्वर ने बनाये हैं, हर दृश्य के पीछे कमला और विष्णु हैं जो मर्जी चाहे चुन लो। पूर्ण अधिकार जीव को प्रदान किया गया है।
जया विजया के साथ माता पार्वती शिव से विवाह कर शिव लोक आती हैं अब शिव जी के साथ भूत-प्रेत, नंदी, आड़े तिरछे, एक आँख वाले, उल्टी खोपड़ी वाले जीव बैठे हुए हैं। भैरव भी हैं, चण्डी भी हैं, चामुण्डा भी हैं और भी पता नहीं कितने ऊट-पटांग, निष्कासित, बेसिर पैर के जीव जंतुं । अभी ये सब माता पार्वती के प्रति समर्पित नहीं हैं पर अब शिव ने विवाह कर लिया है तो फिर आधे-अधूरे मन से आज्ञा का पालन तो करते ही हैं, हाँ - शिव के प्रति आत्मसमर्पित हैं। एक दिन दुखी हो जया विजया माता पार्वती से बोली इस लोक में अपना कोई नहीं है, हमें तो एक भी विश्वसनीय नहीं लगते हैं आप कुछ कीजिए। जिसे देखो वह महल में घुसा चला आता है। पार्वती जी ने अपने मैल से एक अत्यंत ही रूपवान युवक का निर्माण कर दिया और नाम रख दिया गुणेश, पूर्ण रूप से माता के प्रति आत्मसमर्पित गणेश । पार्वती जी ने उनके हाथ में एक छड़ी पकड़ा दी और द्वार पर खड़ा कर दिया बोली किसी को अंदर आने मत देना।
शिवकृत जयदुर्गास्तोत्रम् ।।
शिव के मुख से जगदम्बा की स्तुति। शांत शिव के मुख से से बहुत कम ही कुछ उत्पाद होता है। यह अमृत है एवं इस स्तोत्र का जप कर परम शांति का अनुभव होता है।
रक्ष रक्ष महादेवि दुर्गे दुर्गतिनाशिनि ।
मां भक्तमनुरक्तं च शत्रुग्रस्तं कृपामयि ॥
विष्णुमाये महाभागे नारायणि सनातनि।
ब्रह्मस्वरूपे परमे नित्यानन्दस्वरूपिणि ॥
त्वं च ब्रह्मादिदेवानामम्बिके जगदम्बिके ।
त्वं साकारे च गुणतो निराकारे च निर्गुणात् ॥
मायया पुरुषस्त्वं च मायया प्रकृतिः स्वयम् ।
तयोः परं ब्रह्म परं त्वं विभर्षि सनातनि ॥
वेदानां जननी त्वं च सावित्री च परात्परा ।
वैकुण्ठे च महालक्ष्मीः सर्वसम्पत्स्वरूपिणी ॥
मर्त्यलक्ष्मीश्च क्षीरोदे कामिनी शेषशायिनः ।
स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं राजलक्ष्मीश्च भूतले ॥
नागादिलक्ष्मीः पाताले गृहेषु गृहदेवता ।
सर्वशस्यस्वरूपा त्वं सर्वैश्वर्यविधायिनी ॥
रागाधिष्ठातृदेवी त्वं ब्रह्मणश्च सरस्वती ।
प्राणानामधिदेवी त्वं कृष्णस्य परमात्मनः ॥
गोलोके च स्वयं राधा श्रीकृष्णस्यैव वक्षसि ।
गोलोकाधिष्ठिता देवी वृन्दावनवने वने ॥
श्रीरासमण्डले रम्या वृन्दावनविनोदिनी ।
शतशृङ्गाधिदेवी त्वं नाम्ना चित्रावलीति च ॥
दक्षकन्या कुत्र कल्पे कुत्र कल्पे च शैलजा ।
देवमातादितिस्त्वं च सर्वाधारा वसुन्धरा ॥
त्वमेव गङ्गा तुलसी त्वं च स्वाहा स्वधा सती ।
त्वदंशांशांशकलया सर्वदेवादियोषितः ॥
स्त्रीरूपं चापिपुरुषं देवि त्वं च नपुंसकम् ।
वृक्षाणां वृक्षरूपा त्वं सृष्टा चाङ्कररूपिणी ॥
वह्नौ च दाहिकाशक्तिर्जले शैत्यस्वरूपिणी ।
सूर्ये तेज: स्वरूपा च प्रभारूपा च संततम् ॥
गन्धरूपा च भूमौ च आकाशे शब्दरूपिणी ।
शोभास्वरूपा चन्द्रे च पद्मसङ्गे च निश्चितम् ॥
सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा च पालने परिपालिका ।
महामारी च संहारे जले च जलरूपिणी ॥
क्षुत्त्वं दया तवं निद्रा त्वं तृष्णा त्वं बुद्धिरूपिणी ।
तुष्टिस्त्वं चापि पुष्टिस्त्वं श्रद्धा त्वं च क्षमा स्वयम् ॥
शान्तिस्त्वं च स्वयं भ्रान्तिः कान्तिस्त्वं कीर्तिरेवच ।
लज्जा त्वं च तथा माया भुक्ति मुक्तिस्वरूपिणी ॥
सर्वशक्तिस्वरूपा त्वं सर्वसम्पत्प्रदायिनी ।
वेदेऽनिर्वचनीया त्वं त्वां न जानाति कश्चन ॥
सहस्रवक्त्रस्त्वां स्तोतुं न च शक्तः सुरेश्वरि ।
वेदा न शक्ताः को विद्वान न च शक्ता सरस्वती ॥
स्वयं विधाता शक्तो न न च विष्णु सनातनः ।
किं स्तौमि पञ्चवक्त्रेण रणत्रस्तो महेश्वरि ॥
॥ कृपां कुरु महामाये मम शत्रुक्षयं कुरु ॥