Follow us for Latest Update

दुर्गा जी के सोलह नामों की व्याख्या ।।

वेद की कौथुमी शाखा में :---

             दुर्गा,नारायणी,ईशाना,विष्णुमाया,शिवा (दुर्गा)।
 
              सती,नित्या,सत्या,भगवती,सर्वाणी,सर्वमंगला।

              अम्बिका,वैष्णवी,गौरी,पार्वती,सनातनी।

ये सोलह नाम बताये गये हैं,वे सबके लिये कल्याणदायक हैं।
भगवान विष्णु ने वेद में इन सोलह नामों का अर्थ किया है------

1- दुर्गा :----        
       शब्द का पदच्छेद यो है–-
                             दुर्ग+आ।
 ‘दुर्ग’ शब्द---
           दैत्य,महाविघ्न,भवबन्धन,कर्म,शोक,दुःख, नरक,यमदण्ड,जन्म,महान भय तथा अत्यन्त रोग के अर्थ में आता है। 
‘आ’ शब्द----
       ‘हन्ता’ का वाचक है।
      जो देवी इन दैत्य और महाविघ्न आदि का हनन करती है, उसे ‘दुर्गा’ कहा गया है।

 2- नारायणी :---
              यह दुर्गा यश,तेज,रूप और गुणों में नारायण के समान है तथा नारायण की ही शक्ति है। 
             इसलिये ‘नारायणी’ कही गयी है।

 3- ईशाना :---
             पदच्छेद इस प्रकार है--
                                  ईशान+आ।
 ‘ईशान’ शब्द----
           सम्पूर्ण सिद्धियों के अर्थ में प्रयुक्त होता है और 
‘आ’ शब्द----- 
            दाता का वाचक है।
               जो सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाली है,
               वह देवी ‘ईशाना’ कही गयी है।

4- विष्णु माया :----
              पूर्वकाल में सृष्टि के समय परमात्मा विष्णु ने माया की सृष्टि की थी और अपनी उस माया द्वारा सम्पूर्ण विश्व को मोहित किया। 
              वह मायादेवी विष्णु की ही शक्ति है।
               इसलिये ‘विष्णुमाया’ कही गयी है।

5- ‘शिवा’ : ---
          शब्द का पदच्छेद है---
                                 शिव+आ। 
‘शिव’ शब्द ----
          शिव एवं कल्याण अर्थ में प्रयुक्त होता है।
 ‘आ’ शब्द---
         प्रिय और दाता-अर्थ में। 
            वह देवी कल्याणस्वरूपा है।
            शिवदायिनी है और शिवप्रिया है।
             इसलिये ‘शिवा’ कही गयी है।

 6- सती :-----
          देवी दुर्गा सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं।
           प्रत्येक युग में विद्यमान हैं।
            पतिव्रता एवंसुशीला हैं। 
             इसीलिये उन्हें ‘सती’ कहते हैं। 

7- नित्या :----
           जैसे भगवान नित्य हैं, उसी तरह भगवती भी ‘नित्या’ हैं।
             प्राकृत प्रलय के समय वे अपनी माया से परमात्मा श्रीकृष्ण में तिरोहित रहती हैं।

8- सत्या :-----
         ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत कृत्रिम होने के कारण मिथ्या ही है।
परंतु दुर्गा सत्यस्वरूपा हैं। 
     जैसे भगवान सत्य हैं,उसी तरह प्रकृति देवी भी ‘सत्या’ हैं। 

9- भगवती :-----
           सिद्ध, ऐश्वर्य आदि के अर्थ में ‘भग’ शब्द का प्रयोग होता है, ऐसा समझना चाहिये।
   वह सम्पूर्ण सिद्ध,ऐश्वर्यादिरूप भग प्रत्येक युग में जिनके भीतर विद्यमान है, वे देवी दुर्गा ‘भगवती’ कही गयी हैं। 

10- सर्वाणी :----
            जो विश्व के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों को जन्म, मृत्यु, जरा आदि की तथा मोक्ष की भी प्राप्ति कराती हैं।
वे देवी अपने इसी गुण के कारण ‘सर्वाणी’ कही गयी हैं। 

11- सर्वमंगला :-----
                 ‘मंगल’ शब्द मोक्ष का वाचक है।
                  ‘आ’ शब्द दाता का।
 जो सम्पूर्ण मोक्ष देती हैं,वे ही देवी ‘सर्वमंगला’ हैं।
 
‘मंगल’ शब्द---
             हर्ष सम्पत्ति और कल्याण के अर्थ में प्रयुक्त होता है।जो उन सबको देती हैं।
           वे ही देवी ‘सर्वमंगला’ नाम से विख्यात हैं। 

12- अम्बिका :----
           ‘अम्बा’ शब्द--
                        माता का वाचक है तथा वन्दन और पूजन-अर्थ में भी ‘अम्ब’ शब्द का प्रयोग होता है।
वे देवी सबके द्वारा पूजित और वन्दित हैं तथा तीनों लोकों की माता हैं।
इसलिये ‘अम्बिका’ कहलाती हैं। 

13- वैष्णवी :----
             देवी श्रीविष्णु की भक्ता, विष्णुरूपा तथा विष्णु की शक्ति हैं।
साथ ही सृष्टिकाल में विष्णु के द्वारा ही उनकी सृष्टि हुई है।
 इसलिये उनकी ‘वैष्णवी’ संज्ञा है।

14- गौरी :----
          ‘गौर’ शब्द---
                 पीले रंग, निर्लिप्त एवं निर्मल परब्रह्म परमात्मा के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
 उन ‘गौर’ शब्द वाच्य परमात्मा की वे शक्ति हैं।
           इसलिये वे ‘गौरी’ कही गयी हैं। 

भगवान शिव सबके गुरु हैं और देवी उनकी सती-साध्वी प्रिया शक्ति हैं।
इसलिये ‘गौरी’ कही गयी हैं।
श्रीकृष्ण ही सबके गुरु हैं और देवी उनकी माया हैं। इसलिये भी उनको ‘गौरी’ कहा गया है।

15 - पार्वती :-----
            ‘पर्व’ शब्द---
                     तिथिभेद (पूर्णिमा),पर्वभेद,कल्पभेद तथा अन्यान्य भेद अर्थ में प्रयुक्त होता है।
            
             ‘ती’ शब्द---
                     ख्याति के अर्थ में आता है। 
                 उन पर्व आदि में विख्यात होने से उन देवी की ‘पार्वती’ संज्ञा है। 

‘पर्वन’ शब्द---
           महोत्सव-विशेष के अर्थ में आता है। 
उसकी अधिष्ठात्री देवी होने के नाते उन्हें ‘पार्वती’ कहा गया है। 
वे देवी पर्वत (गिरिराज हिमालय) की पुत्री हैं। 
पर्वत पर प्रकट हुई हैं तथा पर्वत की अधिष्ठात्री देवी हैं। इसलिये भी उन्हें ‘पार्वती’ कहते हैं।

 
16- सनातनी :----
                सना’ का अर्थ है--
                                        सर्वदा।
                ‘तनी’ का अर्थ है---
                                 विद्यमाना।

 सर्वत्र और सब काल में विद्यमान होने से वे देवी ‘सनातनी’ कही गयी हैं।

प्रातः स्मरणीय मंत्र एवं स्तोत्र ।।

ॐ गुं गुरूभ्यो नमः
ॐ गं गणपतये नमः 
 ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत्पुंडरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः॥

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ।
निर्विघ्नं कुरू मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।। 

ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्।
द्वंद्वातीतं गगनसदृशं, तत्त्वमस्यादिलक्षम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधी: साक्षीभूतम्।
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरूं तं नमामि।।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवै नम:।। 

शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। 

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥
एतेशां दर्शनादेव पातकं नैव तिष्ठति।
कर्मक्षयो भवेत्तस्य यस्य तुष्टो महेश्वराः॥

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। 

भावार्थ:- 
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें।

ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःख नाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्गः (पाप नाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करें) धियो (बुद्धि) यः (जो) नः (हमारी)प्रचोदयात (प्रेरित करें)।

अर्थात् - उस प्राण स्वरूप, दुखनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमंकालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।

या कुन्देन्दु तुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्ड मण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा।।

जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फटिक मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥

शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत् में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान् बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥

सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके
शरण्ये त्र्यंबके गौरि नारायणि नमोsस्तुते।।

सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी, कल्याण करने वाली, सब के मनोरथ को पूरा करने वाली, तुम्हीं शरण ग्रहण करने योग्य हो, तीन नेत्रों वाली यानी भूत भविष्य वर्तमान को प्रत्यक्ष देखने वाली हो, तुम्ही शिव पत्नी, तुम्ही नारायण पत्नी अर्थात भगवान के सभी स्वरूपों के साथ तुम्हीं जुडी हो, आप को नमस्कार है।

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते।।
अहिल्या द्रौपदी सीता तारा मंदोदरी तथा।
पंचकन्या ना स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम्।। 

गीता गंगा च गायत्री सीता सत्या सरस्वती।
ब्रह्मविद्या ब्रह्मवल्ली त्रिसंध्या मुक्तगेहिनी।।

अर्धमात्रा चिदानन्दा भवघ्नी भयनाशिनी।
वेदत्रयी पराऽनन्ता तत्त्वार्थज्ञानमंजरी।।
इत्येतानि जपेन्नित्यं नरो निश्चलमानसः।
ज्ञानसिद्धिं लभेच्छीघ्रं तथान्ते परमं पदम्।।
                                     गीता, गंगा, गायत्री, सीता, सत्या, सरस्वती, ब्रह्मविद्या, ब्रह्मवल्ली, त्रिसंध्या, मुक्तगेहिनी, अर्धमात्रा, चिदानन्दा, भवघ्नी, भयनाशिनी, वेदत्रयी, परा, अनन्ता और तत्त्वार्थज्ञानमंजरी (तत्त्वरूपी अर्थ के ज्ञान का भंडार) इस प्रकार (गीता के) अठारह नामों का स्थिर मन से जो मनुष्य नित्य जप करता है वह शीघ्र ज्ञानसिद्धि और अंत में परम पद को प्राप्त होता है |

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमानश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविन:।।
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम ये सात महामानव चिरंजीवी हैं।

यदि इन सात महामानवों और आठवे ऋषि मार्कण्डेय का नित्य स्मरण किया जाए तो शरीर के सारे रोग समाप्त हो जाते है और 100 वर्ष की आयु प्राप्त होती है।

हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे॥
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्।
दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्।
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥

मनोजवं मारुत तुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्I
वातात्मजं वानर यूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये।।, 

मैं मन के समान शीघ्रगामी एवं वायुके समान वेगवाले, इन्द्रियोंको जीतनेवाले, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ, वायुपुत्र, वानरसमूहके प्रमुख, श्रीरामदूत हनुमानजीकी शरण ग्रहण करता हूँ I

कर्पूर गौरम करुणावतारं,
संसार सारं भुजगेन्द्र हारं।
सदा वसंतं हृदयार विन्दे,
भवं भवानी सहितं नमामि।

ध्यान साधना के दौरान प्रकाश का दिखाई देना ।

ध्यान के दौरान आपको विभिन्न प्रकार के प्रकाश दिखाई दे सकते है । सफेद, पीला, लाल, मटमैला, नीला, हरा, मिश्रित, बिजली की चौंध की तरह, चमकते सुर्य की तरह, भभकती अग्नि की तरह, भड़कती चिंगारियों की तरह अथवा चमकते चाँद तारों जैसा प्रकाश आपको दिखाई दे सकता है ये सभी प्रकाश हमे भीतर के चिदाकाश मे अपने मानसिक पटल पर दिखाई देते है । यह सभी तरह के प्रकाश हमारे शरीर मे स्थित पंच तत्वों के प्रकाश होते है । 

हमारा शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है और हर तत्व का अपना एक रंग है । पृथ्वी तत्व का रंग पीला, जल तत्व का रंग सफेद, अग्नि तत्व का रंग लाल, वायु तत्व का रंग मटमैला और आकाश तत्व का रंग नीला होता है । अतः आपके शरीर मे जिस तत्व की भी प्रधानता होगी आपको अधिकतर उसी तत्व के रंग का प्रकाश ध्यान के दौरान नज़र आयेगा । पीला और सफेद प्रकाश मुख्यतः सभी साधक अनुभव करते है किन्तु लाल ओर नीला प्रकाश कम ही लोगो को दिखता है । 

ध्यान की आंरभिक अवस्था मे आपको अपनी भृकुटी पर, तृतीय नेत्र पर, सूई की नोक की आकार का सफेद प्रकाश दिखाई पड़ सकता है अथवा आपको अपने मानसिक पटल पर सफेद प्रकाश के छोटे छोटे पुंज अथवा गोले दिखाई दे सकते है । 

धीरे धीरे जब आप ध्यान मे आगे बढेगे तो प्रकाश का ये दर्शन छोटे से बडे रूप मे परिवर्तित होता जायेगा । आपको विशाल रूप मे सफेद प्रकाश दिखाई दे सकता है । आरंभ मे यह प्रकाश दिखाई देना स्थाई नही होगा अपितु जैसे ही प्रकाश दिखाई देगा वैसे ही तुरंत वह गायब भी हो जायेगा । किन्तु फिर धीरे धीरे यह प्रकाश अधिक समय के लिये स्थाई रूप से दिखाई देने लगेगा । 

जैसे ही आपको इस प्रकाश के दर्शन होगे आपका अंग अंग रहस्य व रोमांच से भर जायेगा, आपको असिमित आनंद की अनुभुति होगी और आपका दिल होगा की आप इस प्रकाश के दर्शन मे खोये रहे । 

जब आपका ध्यान साधना मे उच्च विकास होने लगेगा तो उसी अनुपात मे आपको प्रकाश दर्शन भी होने लगेगा । अतः जब भी आपको अपनी ध्यान की अवस्था मे प्रकाश दिखाई दे तो समझ जाये की आपकी साधना सही चल रही है और इसको तरक्की का एक चिन्ह माने । 

प्रकाश का दिखाई देना ये चिन्हित करता है की आप भौतिक चेतना से आगे बढ़ कर सूक्ष्म चेतना मे प्रवेश कर रहे है । यह अति शुभ लक्षण है ।

आर्शग्रंथों मे गायत्री मन्त्र ।।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।।

यह महामन्त्र वेदों में कई- कई बार आया है ।।
ऋग्वेद में ६ ।६२ ।१०,
‍सामवेद में २ ।८ ।१२,
यर्जुवेद वा० सं० में ३ ।३५- २२ ।९ -३० ।। २- ३६ ।३,
अथर्व वेद में १९ ।। ७१ ।१
में गायत्री की महिमा विस्तार पूर्वक गाई गई है ।।

ब्राह्मण ग्रन्थों में गायत्री मन्त्र का उल्लेख अनेक स्थानोंपर है ।। यथा-
ऐतरेय ब्राह्मण ४ ।३२ ।२- ५ ।५ ।६- १३ ।८, १९ ।८,
‍कौशीतकी ब्राह्मण २२ ।३- २६ ।१०,
गोपथ ब्राह्मण १ ।१ ।३४,
दैवत ब्राह्मण ३ ।२५,
शतपथ ब्राह्मण २ ।३ ।४ ।३९- २३ ।६ ।२ ।९- १४ ।९ ।३ ।११,
तैतरीय सं० १ ।५ ।६ ।४- ४ ।१ ।१,
मैत्रायणी सं० ४ ।१० ।३- १४९ ।१४

आरण्यकों में गायत्री का उल्लेख इन स्थानों पर है-
तैत्तरीय आरण्यक १ ।१ ।२१० ।२७ ।१,
वृहदारण्यक ६ ।३ ।११ ।४ ।८,

उपनिषदों में इस महामन्त्र की चर्चा निम्न प्रकरणों में है-

नारायण उपनिषद् १५- २,
मैत्रेय उपनिषद् ६ ।७ ।३४,
जैमिनी उपनिषद् ४ ।। २८ ।१,
श्वेताश्वतर उपनिषद् ४ ।१८ ।।

सूत्र ग्रंथों में गायत्री का विवेचन निम्न प्रसंगों में आया है-

आश्वालायन श्रोत सूत्र ७ ।। ६ ।। ६- ८ ।। १ ।। १८,
शांखायन श्रौत सूत्र २ ।। १० ।२- १२ ।७- ५ ।५ ।२- १० ।६ ।१०- ९ ।१६,
आपस्तम्भ श्रौत सूत्र ६ ।। १८ ।। १,
शांखायन गृह्य सूत्र २ ।। ५ ।१२,७ ।। १९,६ ।। ४ ।। ८,
कौशीतकी सूत्र ९१ ।। ६,
खगटा गृह्य सूत्र २ ।। ४ ।। २१,
आपस्तम्भ गृह्य सूत्र २ ।। ४ ।। २१,
बोधायन ध० शा० २ ।। १० ।। १७ ।। १४,
ऋग्विधान १ ।। १२ ।। ५
मान० गृ० सू० १ ।। २ ।। ३- ४ ।। ४ ।८- ५ ।२ ।।

गायत्री का शीर्ष भाग :: ॐ भूर्भुवः स्वः
गायत्री, वैदिक संस्कृत का एक छन्द है जिसमें आठ- आठ अक्षरों के तीन चरण- कुल २४ अक्षर होते हैं ।। गायत्री शब्द का अर्थ है- प्राण- रक्षक ।। गय कहते हैं प्राण को, त्री कहते हैं त्राण- संरक्षण करने वाली को ।। जिस शक्ति का आश्रय लेने पर प्राण का, प्रतिभा का, जीवन का संरक्षण होता है उसे गायत्री कहा जाता है ।। और भी कितने अर्थ शास्त्रकारों ने किये हैं ।। इन सब अर्थों पर विचार करने पर यह कहा जा सकता है कि यह छोटा- सा मन्त्र भारतीय संस्कृति, धर्म एवं तत्त्वज्ञान का बीज है ।। इसी के थोड़े से अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं की व्याख्या स्वरूप चारों वेद बने ।। 

'ॐ भूर्भुवः स्वः' यह गायत्री का शीर्ष कहलाता है ।। शेष आठ- आठ अक्षरों के तीन चरण हैं जिनके कारण उसे त्रिपदा कहा गया है ।। एक शीर्ष ,, तीन चरण, इस प्रकार उसके चार भाग हो गये, इन चारों का रहस्य एवं अर्थ चारों वेदों में है ।। कहा जाता है कि ब्रह्माजी ने अपने चार मुखों से गायत्री के इन चारों भागों का व्याख्यान चार वेदों के रूप में दिया ।। इस प्रकार उनका नाम वेदमाता पड़ा ।। 'गायत्री तत्त्वबोध'- श्लोक ४- ७ में कहा गया है-

ॐकारस्तु परंब्रह्म व्याप्तो ब्रह्माण्डमण्डले ।।
यः स एवोच्यते शब्द ब्रह्माथो नादब्रह्म च ॥
र्सवेषां वेदमन्त्राणां पूर्वं चोच्चारणादयम् ।।
ॐकारः कथ्यते सर्वैः पाठान्तेऽपि च सर्वदा॥

अर्थात्- ॐकार परब्रह्म है ।। वह निखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, उसे शब्द ब्रह्म और नाद ब्रह्म के नाम से भी जाना जाता है ।। प्रत्येक वेदमन्त्र के उच्चारण के पूर्व तथा पाठ- समाप्ति के बाद इसे लगाया जाता है ।।

ॐकारस्यैव वर्णेभ्यस्त्रिभ्यस्तु व्याहृतित्रयम् ।।
भूर्भुवः स्वरयं शीर्षो भागो मन्त्रस्य विद्यते ।।
पृथक्त्वैऽप्यस्य मन्त्रस्य प्रारम्भेऽस्ति नियोजनम्॥
अर्थात्- ॐकार के तीन अक्षरों (अ, उ ,म्) से तीन व्याहृतियाँ उत्पन्न हुई ।।

उन्हें भी गायत्री महामंत्र के साथ ॐ के उपरान्त जोड़ा जाता है ।। 'ॐ भूर्भुवः स्वः' यह गायत्री- मंत्र का शीर्ष भाग है ।। पृथक होते हुए भी इसका मंत्र के आदि में नियोजन होता है ।।

शब्दों की दृष्टि से गायत्री महामन्त्र का भावार्थ सरल है-

ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःख नाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्गः (पाप नाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करें) धियो (बुद्धि) यः (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात् (प्रेरित करें) ।।

उस सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, प्राण स्वरूप ब्रह्म को हम धारण करते हैं, जो हमारी बुद्धि को (सन्मार्ग की ओर) प्रेरणा देता है ।।

ॐ प्रणव

ॐकार को ब्रह्म कहा गया है ।। वह परमात्मा का स्वयं सिद्ध नाम है ।। योग विद्या के आचार्य समाधि अवस्था में पहुँच कर जब ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं, तो उन्हें प्रकृति के उच्च अन्तराल में ध्वनि होती हुई परिलक्षित होती है ।। जैसे घड़ियाल पर चोट मार देने से वह बहुत देर तक झनझनाती रहती है, इसी प्रकार बार- बार एक ही कम्पन उन्हें सुनाई देते हैं ।। यह नाद 'ॐ' ध्वनि से मिलता- जुलता होता है ।। उसे ही ऋषियों ने ईश्वर का स्वयंसिद्ध नाम बताया है और उसे 'शब्द' कहा है ।।

इस शब्द ब्रह्म से रूप बनता है ।। इस शब्द के कम्पन सीधे चलकर दाहिनी ओर मुड़ जाते हैं ।। शब्द अपने केन्द्र की धुरी पर भी घूमता है, इस प्रकार वह चारों तरफ घूमता रहता है ।। इस भ्रमण, कम्पन, गति और मोड़ के आधार पर स्वस्तिक बनता है, यह स्वस्तिक ॐकार का रूप है ।।

ॐकार को प्रणव भी कहते हैं ।। यह सब मंत्रों का सेतु है, क्योंकि इसी से समस्त शब्द और मंत्र बनते हैं ।। प्रणव से व्याहृतियाँ उत्पन्न हुई और व्याहृतियों में से वेदों का आविर्भाव हुआ ।।

प्रणव की श्रेष्ठता को ध्यान में रखते हुए आचार्यों ने समस्त श्रेष्ठ कर्मों में ओंकार को प्राथमिकता देने का विचार किया है ।। यह मंत्रों का सेतु है, इस पुल पर चढ़कर मंत्र मार्ग को पार किया जा सकता है ।। बिना आधार के, नाव पुल आदि अवलम्बन के किसी बड़े जलाशय को पार करना जिस प्रकार संभव नहीं, उसी प्रकार मंत्रों की सफलता के लिए ,बिना प्रणव के सफलता मिलना दुस्तर है ।। इसलिए आमतौर से सब मंत्रों में और विशेष रूप से गायत्री मंत्र में सर्वप्रथम प्रणव का उच्चारण आवश्यक बताया गया है ।। 

क्षारन्ति सर्वा चैव यो जुहोति यजति क्रियाः ।।

अर्थात् बिना ॐ के समस्त कर्म, यज्ञ, जप आदि निष्फल होते हैं ।। ॐ को अविनाशी, प्रजापति ब्रह्म जानना चाहिये ।।

प्रणवं मंत्राणां सेतुः ।। -व्यास

प्रणव मंत्रों का पुल है अर्थात् मंत्र पार करने के लिए प्रणव की आवश्यकता अपरित्याज्य है ।।

यदोंकारमकृत्वा किंचिदारभ्यते तद्वज्रो भवति ।।
तस्माद्वज्रभयाद्भीतओंकारं पूर्वमारंभेदिति॥

अर्थात्- बिना ओंकार का उच्चारण किये, सभी कार्य वज्रवत् अर्थात् निष्फल हो जाते हैं ।। अतः वज्र- भय से डर कर प्रथम ॐ का उच्चारण करें ।।

गायत्री मंत्र में सबसे प्रथम ॐ को इसलिए नियोजित किया है कि इस शक्ति की धारा को इस पुल पर चढ़कर पार किया जा सके ।। ॐ जिन अर्थों का बोधक है उन अर्थों की, गुणों की, आदर्शों की स्फुरणा साधक की अन्र्तभूमि में होती है, फलस्वरूप आध्यात्मिक साधना का मार्ग सुगम हो जाता है ।। ॐ की शिक्षायें यदि साधक के मन पर जम जावें तो उसका कल्याण होने में देर नहीं लगती है ।।

ॐ शब्द ब्रह्म है ।। गायत्री ब्रह्म की ही महाशक्ति ब्रह्म है ।। नाद, बिन्दु और कला की त्रिपुटी प्रणव में सन्निहित है ।। त्रिपदा गायत्री के तीन चरणों में उस त्रिपुटी का जब सम्मिलन होता है तो अपार आनन्द की अनुभूति होती है ।। दक्षिणमार्गी और वाममार्गी अपने- अपने ढंग से इन आनन्दों का आस्वादन करते हैं।

तीन व्याहृतियाँ (भूः भुवः स्वः)

गायत्री में ॐकार के पश्चात् 'भूः भुवः स्वः' यह तीन व्याहृतियाँ आती हैं ।। इन तीनों व्याहृतियों का त्रिक् अनेकार्थ बोधक हैं, वे अनेकों भावनाओं का, अनेकों दिशाओं का संकेत करती हैं, अनेकों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं ।।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन तीन उत्पादक, पोषक, संहारक शक्तियों का नाम भूः भुवः स्वः है ।। सत्, रज, तम, इन तीनों गुणों को भी त्रिविध गायत्री कहा गया है ।। भूः को ब्रह्म, भुवः को प्रकृति और स्वः को जीव भी कहा जाता है ।। अग्नि, वायु और सूर्य, इन प्रधान देवताओं का प्रतिनिधित्व तीन व्याहृतियाँ करती हैं ।। तीनों लोकों का भी इनमें संकेत है ।। इस प्रकार के अनेकों संकेत व्याहृतियों के त्रिक् में भरे हुए हैं ।।

यह तीन व्याहृतियाँ जिन तीन क्षेत्रों पर प्रकाश डालती हैं वे तीनों ही अत्यन्त विचारणीय एवं ग्रहणीय हैं ।। ईश्वर, जीव, प्रकृति के गुँथन की गुत्थी को व्याहृतियाँ ही सुलझाती हैं ।। भूः लोक, भुवः लोक और स्वः लोक यद्यपि लोक विशेष भी हैं, पर अध्यात्म प्रयोजनों में 'भूः' स्थूल शरीर के लिए, 'भुवः' सूक्ष्म शरीर के लिए और 'स्वः' कारण शरीर के लिए प्रयुक्त होता है ।' बाह्य जगत् और अन्तर्जगत् के तीनों लोकों में ॐकार अर्थात् परमेश्वर सर्वव्याप्त है ।। व्याहृतियों में इसी तथ्य का प्रतिपादन है ।। इसमें विशाल विश्व को विराट् ब्रह्म के रूप में देखने की वही मान्यता है, जिसे भगवान् ने अर्जुन को अपना विराट् रूप दिखाते हुए हृदयंगम कराया था ।। ॐ व्याहृतियों का समन्वित शीर्ष भाग इसी अर्थ और इसी प्रकाश को प्रकट करता है ।।

एक ॐ की तीन संतान हैं- (१) भूः (२) भुवः (३) स्वः ।। इन व्याहृतियों से त्रिपदा गायत्री का एक- एक चरण बना है ।। उसके एक- एक चरण में तीन पद हैं ।। इस प्रकार यह त्रिगुणित सूक्ष्म परम्पराएँ चलती हैं ।। इनके रहस्यों को जानकार तत्त्वज्ञानी लोग निर्वाण के अधिकारी बनते हैं ।। ॐ भूर्भुवः स्वः- इस शीर्ष भाग के पश्चात् गायत्री मंत्र प्रारंभ होता है ।। गायत्री तत्त्वबोध में स्पष्ट उल्लेख है ।।

अस्यानन्तरमेषोऽस्ति प्रारब्धो मंत्र उत्तमः ।।
विद्यन्ते यत्र वर्णास्तु चतुवशतिसंख्यकाः॥

अर्थात्- इसके उपरान्त उत्तम गायत्री मंत्र प्रारंभ होता है ।।

गायत्री के चौबीस अक्षर हैं ।। गायत्री महामंत्र में अक्षरों की गणना इस प्रकार की जाती है-

तदादिवर्णगानर्धान् वर्णानगण्यस्तु तान् ।।
'ण्यं' वर्णस्य च द्वौ भागौ 'णि' 'यं' कर्तु च छान्दसे॥
इयादिपूरणे सूत्रे ध्वनिभेदतया पुनः ।।
चतुर्विशतिरेवं च वर्णा मंत्रे भवन्त्यतः॥

अर्थात्- गणना में 'तत्' आदि वर्णों में अर्धाक्षरों को नगण्य मानकर, उन्हें एक ही अक्षर गिना जाता है ।। ऐसी स्थिति में ध्वनि भेद के आधार पर छन्दः प्रयोग में 'इयादिपूरणे' सूत्रानुसार 'ण्यं' वर्ण को 'णि' और 'यं' इन दो भागों में बाँट लिया जाता है ।। इस प्रकार चौबीस की संख्या पूरी हो जाती हैं-

१- तत्, २- स, ३- वि, ४- तु, ५- र्व, ६- रे, ७- णि, ८- यं, ९- भ, १०- र्गो, ११- दे, १२- व, १३- स्य, १४- धी, १५- म, १६- हि, १७- धि, १८- यो, १९- यो, २०- नः, २१- प्र, २२- चो, २३- द, २४- यात् ।।

गायत्री मंत्र लेखन संकटमोचन... रक्षाकवच है ।।

ॐ भूर्भूव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्॥

-- आद्यशक्ति माँ गायत्री बुद्धि की है। गायत्री मंत्र के जप से ज्यादा लाभ साधक को गायत्री मंत्र लेखन से होता हैं।

-- जो भी व्यक्ति प्रतिदिन एक पेज यानी की सिर्फ 33 बार गायत्री मंत्र लिखता है, उसके विचारों में, उसके कार्यों में, गजब की ताकत आती है।

-- अगर कोई गर्भिणी स्त्री नियमित एक पेज गायत्री मंत्र का लेखन करती हैं तो.. उनकी आने वाली संतान आज्ञाकारी, श्रेठ, संस्कारित, ओजस्वी, तेजस्वी, प्रखर बुद्धिवान होगा।

-- व्यवसायी, नौकरी पेशा, बीमार को उत्तम स्वास्थ्य, परिवारिक संकट हो चाहे अन्य कोई भी जटिल से जटिल समस्या क्यों न हो मुक्ति मिलती ही है।

-- जब हम गायत्री मंत्र लिखने बैठते हैं... तब लिखते-लिखते बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर हमें स्वतः ही मिलने लगते हैं, लगता हैं जैसे... मानो स्वयं माँ गायत्री से ही बात हो रही हो..

-- यदि कोई बच्चा पढ़ाई में कमजोर है, ध्यान नहीं लगता, तो उससे नित्य 15 लाइने गायत्री मंत्र लेखन के लिखवाएं, आदत में लाने के लिए चाहे 5 लाइनों से शुरुआत करे, फिर ऐसी कोई पुस्तक नहीं, जो वह फिर नहीं पढ़ सके, ऐसा कोई उत्तर नहीं जो उसे याद न हो सके और आत्मबल तो गजब का आता है।

-- पूज्य गुरुदेव युगऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा जी कहते थे ....तुम लोग गायत्री मंत्र लिखकर देखों और विश्वास रखोगें तो.. तुम्हारी सभी समस्या का हल अवश्य ही होगी।

गायत्री मंत्र का अर्थ इस प्रकार है—ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःखनाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्गः (पापनाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करे) धियो (बुद्धि) यो (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात् (प्रेरित करे)।

अर्थात् उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें।

इस अर्थ का विचार करने से उसके अंतर्गत तीन तथ्य प्रकट होते हैं।(1) ईश्वर का दिव्य चिंतन (2) ईश्वर को अपने अंदर धारण करना (3) सद्बुद्धि की प्रेरणा के लिए प्रार्थना। ये तीनों ही बातें असाधारण महत्त्व की हैं।

(1) ईश्वर के प्राणवान, दुःख रहित आनंदस्वरूप तेजस्वी श्रेष्ठ पाप रहित, देवगुण संपन्न स्वरूप का ध्यान करने का तात्पर्य यह है कि इन्हीं गुणों को हम अपने में लावें। अपने विचार और स्वभाव को ऐसा बनावें कि उपयुक्त विशेषताएं हमारे व्यावहारिक जीवन में परिलक्षित होने लगें। इस प्रकार की विचारधारा, कार्य-पद्धति एवं अनुभूति मनुष्य की आत्मिक और भौतिक स्थिति को दिन-दिन समुन्नत एवं श्रेष्ठतम बनाती चलती हैं।

(2) गायत्री मंत्र के दूसरे भाग में परमात्मा को अपने अंदर धारण करने की प्रतिज्ञा है। उस ब्रह्म, उस दिव्य गुण संपन्न परमात्मा को संसार के कण-कण में व्याप्त देखने से मनुष्य को हर घड़ी ईश्वर-दर्शन का आनंद प्राप्त होता रहता है और वह अपने को ईश्वर के निकट स्वर्गीय स्थिति में रहता हुआ अनुभव करता है।

(3) मंत्र के तीसरे भाग में सद्बुद्धि का महत्त्व सर्वोपरि होने की मान्यता का प्रतिपादन है। भगवान से यही प्रार्थना की गई है कि आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दीजिए, क्योंकि यह एक ऐसी महान भगवत् कृपा है कि इसके प्राप्त होने पर अन्य सब सुख-संपदाएं अपने आप प्राप्त हो जाती हैं।

इस मंत्र के प्रथम भाग में ईश्वरीय दिव्य गुणों को प्राप्त करने दूसरे भाग में ईश्वरीय दृष्टिकोण धारण करने और तीसरे में बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा है। गायत्री की शिक्षा है—अपनी बुद्धि को सात्त्विक बनाओ, आदर्शों को ऊंचा रखो, उच्च दार्शनिक विचारधाराओं में रमण करो और तुच्छ तृष्णाओं एवं वासनाओं के लिए हमें नचाने वाली कुबुद्धि को मानस लोक में से बहिष्कृत कर दो। जैसे-जैसे कुबुद्धि का कल्मष दूर होगा वैसे ही वैसे दिव्य गुण-संपन्न परमात्मा के अंशों की अपने में वृद्धि होती जाएगी और उसी अनुपात से लौकिक और पारलौकिक आनंद की अभिवृद्धि होती जायेगी।

गायत्री मंत्र में सन्निहित उपर्युक्त तथ्य में ज्ञान, भक्ति, कर्म, उपासना तीनों हैं। सद्गुणों का चिंतन ज्ञानयोग है। ब्रह्म की धारणा भक्तियोग है और बुद्धि की सात्त्विकता एवं अनासक्ति का कर्मयोग है। वेदों में ज्ञान, कर्म, उपासना ये तीनों विषय हैं। गायत्री में बीज रूप से ये तीनों ही तथ्य सर्वांगीण ढंग से प्रतिपादित हैं।

इन भावनाओं का एकांत में बैठकर नित्य अर्थ-चिंतन करना चाहिए। यह ध्यान-साधना मनन के लिए अतीव उपयोगी है। मनन के लिए तीन संकल्प नीचे दिए जाते हैं। इन संकल्पों को शांत चित्त से स्थिर आसन पर बैठकर, नेत्र बंद रखकर मन ही मन ठुकराना चाहिए और कल्पना शक्ति की सहायता से इन संकल्पों का ध्यान मनःक्षेत्र में भली प्रकार अंकित करना चाहिए।

(1) परमात्मा का ही पवित्र अंश-अविनाशी राजकुमार मैं आत्मा हूं। परमात्मा प्राणस्वरूप है, मैं भी अपने को प्राणवान आत्मशक्ति संपन्न बनाऊंगा। प्रभु दुःख रहित है—मैं दुखदायी मार्ग पर न चलूंगा। ईश्वर आनंद स्वरूप है। अपने जीवन को आनंद स्वरूप बनाना तथा दूसरों के आनंद में वृद्धि करना मेरा कर्त्तव्य है। भगवान तेजस्वी है, मैं भी निर्भीक, साहसी, वीर, पुरुषार्थी और प्रतिभावान बनूंगा। ब्रह्म श्रेष्ठ है, श्रेष्ठता, आदर्शवादिता एवं सिद्धांतमय जीवन नीति अपनाकर मैं भी श्रेष्ठ ही बनूंगा। जगदीश्वर निष्पाप है—मैं भी पापों से कुविचारों और कुकर्मों से बचकर रहूंगा। ईश्वर दिव्य हैं—मैं भी अपने को दिव्य गुणों से सुसज्जित करूंगा, संसार को कुछ देते रहने की देव-नीति अपनाऊंगा। इसी मार्ग पर चलने से मेरा मनुष्य जीवन सफल हो सकता है।

(2) उपयुक्त गुण वाले परमात्मा को मैं अपने अंदर धारण करता हूं। इस विश्व ब्रह्मांड के कण-कण में प्रभु समाए हैं। वे मेरे चारों ओर भीतर बाहर सर्वत्र फैले हुए हैं। मैं स्मरण करूंगा। उन्हीं के साथ हँसूगा और खेलूंगा। वे ही मेरे चिर सहचर हैं। लोभ, मोह, वासना और तृष्णा का प्रलोभन दिखाकर पतन के गहरे गर्त में धकेल देने वाली दुर्बुद्धि से, माया से बचकर अपने को अंतर्यामी परमात्मा की शरण में सौंपता हूं। उन्हें ही अपने हृदयासन पर अवस्थित करता हूं, अब वे मेरे हैं और मैं केवल उन्हीं का हूं। ईश्वरीय आदर्शों का पालन करना और विश्वमानव-परमात्मा की सेवा करना ही अब मेरा लक्ष्य रहेगा।

(3) सद्बुद्धि से बढ़कर और कोई दैवी वरदान नहीं। इस दिव्य संपत्ति को प्राप्त करने के लिए मैं घोर तप करूंगा। आत्मचिंतन करके अपने अंतःकरण चतुष्टय में (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार में) छिपकर बैठी हुई कुबुद्धि को बारीकी के साथ ढूंढूंगा और उसे बहिष्कृत करने में कोई कसर न रहने दूंगा। अपनी आदतों, मान्यताओं, भावनाओं और विचारधाराओं में जहां भी कुबुद्धि पाऊंगा, वहीं से हटाऊंगा। असत्य को त्यागने और सत्य को ग्रहण करने में रत्ती भर भी दुराग्रह नहीं करूंगा। अपनी भूलें मानने और विवेक-संगत बातों को मानने में तनिक भी दुराग्रह नहीं करूंगा। अपने स्वभाव, विचार और कर्मों की सफाई करना, सड़े-गले, कूड़े-कचरे को हटाकर सत्यं, शिवं, सुंदर की भावना से अपनी मनोभूमि को सजाना अब मेरी प्रधान पूजा पद्धति होगी। इसी पूजा पद्धति से प्रसन्न होकर भगवान मेरे अंतःकरण में निवास करेंगे, तब मैं उनकी कृपा-से-जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होऊंगा।

इन संकल्पों में अपनी रुचि के अनुसार शब्दों का हेर-फेर किया जा सकता है, पर भाव यही होना चाहिए। नित्य शांत चित्त से भावनापूर्वक इन संकल्पों को देर तक अपने हृदय में स्थान दिया जाय तो गायत्री के मंत्रार्थ की सच्ची अनुभूति हो सकती है। उस अनुभूति से मनुष्य दिन-दिन अध्यात्म मार्ग में ऊंचा उठ सकता है।