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पारद रहस्य- औषधि एवं शिवलिंग के परिप्रेक्ष्य में ।।

(पौराणिक एवं वैज्ञानिक कथाओं समेत)

प्रकृति को विविध क्षोभो से त्राण एवं सज्जनों की विविध बाधा शान्ति हेतु औषधिपति पति चन्द्रमा को अपने शीश पर धारण कर गंगा के निर्मल जलधारा के माध्यम से चन्द्रमा के औषधीय गुणों को प्रार्थना से प्रसन्न भुजगपतिहारी पशुपति भगवान शिव ने पृथ्वी को जब प्रदान किया तो पृथ्वी ने भी उन्ही औषधीय तत्वों से सर्वप्रथम जगदम्बा पार्वती का श्रृंगार किया। अपनी निर्धारित तपश्चर्या में भगवती पार्वती के श्रृंगारित अपूर्व सौन्दर्य से भगवान शिव ने व्यवधान पाया। किन्तु ध्यान से देखने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि यह देवी पार्वती का किलोल है। भगवान शिव ने भी किलोल का उत्तर किलोल में ही देते हुए आसन से अपना अमोघ वीर्य स्खलित कर दिया। किन्तु वह वीर्य इतना चमकीला और उग्र विद्युत् ज्योति वाला था कि माता जी को यह आभास तक नहीं हो सका कि भगवान शिव का वीर्य स्खलित हुआ है। उनकी आँखें बंद हो गयी। और उत्तेजना शान्ति के उपरांत जाह्नवी ने अपने दैवीय सुगन्धादि से युक्त नीर से शिव का अभिषेक कर उन्हें पुनः तपश्चर्या के योग्य बना दिया। माता जगदम्बा को इससे बहुत क्षोभ हुआ। वह सोच में बहुत काल तक विचार-चिंता मग्न हो बैठी ही रह गयी। (**रसौदुम्बर्यम का पारद खंड** ) इस बीच उस वीर्य के शीघ्रगामी होने के कारण तथा उसकी उग्रता के कारण उस पर्वत में धँसता हुआ वह वीर्य पत्थरो-शिलाओं को विदीर्ण करता हुआ सौ योजन लम्बे पांच कूप के रूप में परिवर्तित हो गया। रसरत्नसमुच्चय में लिखा है-
" शैले अस्मिन शिवयो: प्रीत्या परस्परजिगीषया ।
 सम्प्रवृत्ते च सम्भोगे त्रिलोकक्षोभकारिणी ।
 विनिवारयितुम वह्निः सम्भोगम प्रेषितः सुरै: 
 कपोतरुपिणं प्राप्त हिमवतः कन्दरे अनलज्म ।
 अपक्षिभावसंक्षुब्धम स्मरलीला विलोकिनम ।
 तम दृष्ट्वा लज्जितः शम्भुर्विरतः सुरतात्तदा ।
 प्रच्युतश्चरमो धातु: गृहितः शूल पाणिना ।
 प्रक्षिप्तो वदने वह्नेगंगायामपि सो अपतत ।
 बहिः क्षिप्तस्तया सो अपि परिदन्दह्यमानया ।
 संजातास्तन्मलाधानाद्धावतः सिद्धि दायकाः ।
 यावदग्निमुखोद्रेतो न्यापद्भुवि सर्वतः ।
 शत योजन निम्नास्ते जाताः कूपास्तु पञ्च च ।
 तदाप्रभृति कूपस्थं तद्रेतः पञ्चधा अभवत ।"
माता पार्वती ने देखा कि इस वीर्य कूप में स्नान कर के तो सब नाग एवं देवता मृत्यु एवं बुढापे से मुक्त होते जा रहे हैं। किन्तु यह वीर्य मेरे किसी प्रयोजन का नहीं रह गया है। अतः नारि सुलभ ईर्ष्या के कारण उन्होंने उस वीर्य को शाप दिया कि -
 हे पर्य दमनक (पर्वत का दमन या उसे विदीर्ण करने वाले)! तुम आज से अष्टांग वक्री हो जाओ। तुम्हारा न तो कोई रूप होगा न आकार। तुम रहते हुए भी इधर उधर भागते रहोगे। हे आशुतोष भगवान शिव के अमोघ वीर्य! जिस तरह तुमने मुझे आलोकित कर ससंभ्रमित कर दिया तुम भी वैसे ही आभाषी (वायु रूप) रूप में रहोगे। तुम्हारे आठो अंग अपँग हो जाएँ । तबसे यह स्थिर न रहने वाला हो गया। इसके अलावा " पर्य दमनक " बाद में पर्यद एवं आज पारद बन गया है। ये आठो दोष निम्न प्रकार है-
" नागो बंगो मलो वह्निश्चापल्यम च विषम गिरिः ।
 असह्याग्निर्महादोषा निसर्गात पारद स्थिताः ।
भगवान शिव ने देखा कि आज देवी औरत सुलभ विकार से युक्त हो गई है। तथा उपयोगी आठो अंगो को विकार रूप में देख रही हैं। और ज्योंही ऐसा विचार भगवान शिव के मन में जन्म लिया तभी से औरतें स्थाई आठ विकारों से युक्त हो गई। तुलसी दास ने अपने रामचरित मानस में इसे बताया है-
"अवगुण आठ सदा उर रहई। नाथ पुराण निगम अस कहई।
साहस अनृत चपलता माया। भय अविवेक अशौच अदाया।
इसके अलावा पारद जैसे जैसे सातो द्वीपों में फैलता गया उसमें वहाँ के विकार समाहित होते गये। और सातो द्वीपों के विकार निम्न प्रकार है-
" औपाधिकाः पुनश्चान्ये कीर्तिताः सप्त कंचुका:
 पर्पटी पाठिनी भेदी द्रावी मलकरी तथा ।
 अंधकारी तथा ध्वांक्षी विज्ञेया: *सप्तकंचुका:" 
हमारे प्राचीन आचार्यो ने जिस किसी भी विषय के ऊपर मनन चिंतन कर जो भी लिख दिया या बता दिया वह अक्षरशः सत्य है। उनके ज्ञान को आज कल के नवयुग के यथार्थवादी वैज्ञानिक अथक परिश्रम कर के भी नहीं प्राप्त कर सके है।बहुत से सत्यप्रिय वैज्ञानिकों ने हमारे आचार्यो के सूत्राशयो को प्रत्यक्ष प्रमाणों से स्वयं प्रत्यक्ष कर के सिद्ध कर लेने पर मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा की है।
हमारे ऋषि महर्षि आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक इन तीनो प्रकार के ज्ञान के यथार्थ महाविज्ञानीथे । इस विषय में इस समय के प्रायः सब देशो के उच्च एवं निस्पृह विचार रखने वाले विद्वानों का एकमत है। आज कल के पाश्चात्य विद्वानों ने हमारे ही ऋषि महर्षि निर्मित विविध सूत्रों के गूढ़ रहस्यों को भली भाँती समझ कर उसी के आधार पर प्रत्येक

पदार्थ का अन्वेषण प्रारम्भ कर दिया। जिसका फल यह हुआ कि उनको इस काम में पर्याप्त सफलता मिली और उन्होंने विश्व भर में अपने मस्तक को ऊँचा कर लिया। किन्तु विज्ञान के मूल जनक उन महर्षियों की सन्तति होकर भी हम लोग अपने महर्षियों के सद्वचनो का भी उपयोग नहीं कर रहे हैं एवं अस्तगत अपने विज्ञान भाष्कर के उदय के लिये कुछ भी उद्योग नहीं कर रहे है, दुःख की बात है।
पौराणिक मतानुसार -औषधि के रूप में पारद का अन्वेषण धरती पर सर्वप्रथम "तन्वाद्रिक" मुनि ने "कायझर" जिसका वर्त्तमान नाम कोकराझार (आसाम) में है, स्थान पर किया था। किन्तु कामाख्या देवी के स्थान "कामरूप" पर्वत पर रहने वाले कुछ दुष्ट कापालिको ने उन्हें मार कर उस पहाड़ी पर डाल दिया। उनका शव बहुत दिनों तक उस पहाड़ी के शिला खंड पर पडा रहा। श्वास चलती रही। शरीर सूखता गया। किन्तु पास ही में एक छोटे खड्ड में शुद्ध पारद पडा था। जिसके कारण उनके शव को कोई भी जंतु क्षति नहीं पहुंचा सका था। उस पारद के विकराल विकिरण (High Radiation) से उनके शव को कीड़े भी नहीं छू सके थे।
बहुत दिनों बाद कलिंग नरेश ब्यावर खारवेल (जिनके पोते शाताजीव खारवेल से अशोक सम्राट का युद्ध हुआ था) को शिकार खेलते समय वह मुनि का अनहत शव दिखाई दिया। उस सूखे कंकाल में कुछ अप्राकृतिक हरक़त एक निश्चित अन्तराल पर निरंतर हो रही थी। पास का खड्ड अत्यंत चमक दार सूर्य से भी ज्यादा तेजवान दिखाई दिया। उन्होंने अपने दरबार के चिकित्सकीय सलाहकारों की सहायता से उस चमकदार परत को सावधानी पूर्वक एकत्र करवाकर तथा उस शव को भी लेकर अपने राज्य में वापस आये। अपने दरबार के कुशल चिकित्सक "महेंद्र" की देख रेख में उस पारद का " वाजश्रुत " योग बनाकर उस शव पर लेप एवं गृहणी कपाट तक पहुंचाया। परिणाम स्वरुप वह मुनि कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गये।
मुनि ने सारी कथा बतायी। तथा उस पारद का बहुत भाग उड़ गया था। जिससे राजा बहुत क्षुब्ध हो गये। उन्हें लगा कि महेन्द्र एवं तन्वाद्रिक ने मिल कर उसे चुरा लिया है। अतः उन्होंने उन दोनों को "अहिसार" नामक अति भयानक विष दिलवा दिया। महेन्द्र तो तत्काल मर गया। किन्तु तन्वाद्रि मुनि नहीं मरे। उन्होंने कहा कि हे राजन! यद्यपि यह दूसरा जन्म आप के ही द्वारा दिया गया था। अतः इस पर अधिकार भी आप का ही था। आप चाहे इसे रखे या नष्ट कर दें। क्योकि प्रथम जन्म तो मैंने पहले ही पूरा कर लिया था। लेकिन इतनी बात अवश्य बता दे रहा हूँ कि जिस तुच्छ पदार्थ के लिये तुमने अपने अति कुशल रसायनज्ञ को मरवा डाला वह तुच्छ पदार्थ अब आप के लिये समूल नाश का कारण बनेगा।
कुछ ही दिन बाद दाक्ष्यांग देश (वर्त्तमान उडिशा) के खूंखार नरेश बर्ह्यंग ने लड़ाई कर के "लिंग पत्तन" अर्थात कैलाश पर्वत के तराई वाले अति समृद्ध राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। अब लिंग पत्तन अर्थात कलिंग (पूर्व में इसका नाम "शिव का लिंग" था। कालान्तर में यह मात्र कलिंग बन कर रह गया। उसके बाद यह दो हिस्सों में बँट गया-अँग एवम बंग। अंग देश वर्त्तमान उडिशा है। तथा बंग देश बंगाल है) सिमट कर रह गया। आज कलिंग का बड़ा हिस्सा बर्ज्यांग एवं ह्युंग दोनों चीन देश के कब्जे में है। पौराणिक मतानुसार भगवान शिव का वीर्य जो शिलाखंड के अवरोध से नीचे छेद कर रुकता गया उसका नाम "बाजी अंग" अर्थात जो अंग का बाजीकरण कर दिया, पडा। जो बाद में "बर्ज्यांग" नाम से आज भी याँगटीसीक्यांग नदी के किनारे चीन देश में है। यह स्थान अनेक अमोघ खनिजो का विशाल भण्डार है।
इधर उस परम शक्ति शाली पारद के कारण जो शिलाखंड, खड्ड समेत राजा ने उठवा लाया था। वह वज्रनाभ में बदल गया था। उससे तेज किरणे निरंतर प्रस्फुटित होती रहती थी। जिसके विकिरण से अन्य धातुओ का स्वर्ण आदि में परिवर्तन होता रहता था। अतः यह देश अति समृद्ध हो गया था।
इस बात का पता कालान्तर में बिन्दुसार के वंशज अशोक को लग गया। उसने भयंकर मार-काट एवं नरसंहारक युद्ध के बाद उस पारद संग्रह को छीन लिया। किन्तु दुर्भाग्य वश उस पदार्थ के बारे में किसी को ज्ञान नहीं था। अतः युद्ध बंदी बनाकर लाये गये खारवेल के रसायनज्ञ "वह्नितुंग" से उसके सेवन विधि के बारे में पूछे। अपने साथ हुए व्यवहार से क्षुब्ध उस रसायनज्ञ ने कुटिलता वश उसका सेवन आहार नाल से करवा दिया। परिणाम स्वरुप अशोक उग्र एवं असाध्य कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गया। और इन सारे कुटिल सांसारिक व्यवहारो से उसका मन उचट गया। तथा वह भिक्षु बन गया।
साउथ अफ्रिका के ट्रांसवाल जिले में, तथा गेलेना में,
तबसे भारत में इस पदार्थ के खोज एवं संग्रह से लोग भयभीत हो गये। इस पदार्थ का कोई भण्डार आज भारत में नहीं है। अभी हाल ही में चित्राल (पंजाब) में नदी के रेत में हिंगुल के अस्तित्व का पता लगा है। और सरकार के द्वारा इस स्थान को सावधानी पूर्वक सुरक्षित कर दिया गया है। यह अदन, अफगानिस्तान,आयरलैंड, बर्मा, तिब्बत, युनियन आफ साउथ अफ्रिका के ट्रांसवाल जिले में, तथा गेलेना में,यूनाईटेड स्टेट्स आफ अमेरिका के

चिली प्रांत में, आस्ट्रेलिया के सिडनी एवं वेलिंग्टन के मध्यवर्ती समुद्री क्षेत्र में, अलवेनिया, चेकोस्लोवाकिया, फ्रांस, कार्सिका, जर्मनी, हंगरी, इटली, पुर्तगाल, रूमानिया, रूस, स्पेन, एसिया माइनर, चीन, जापान, फारस, ट्यूनिसिया, होंडुरास, मेक्सिको, अलास्का, एरिजोना, केलिफोर्निया, कार्नकाउंटी, इडाहो, निवाडा, ओरेगन, लेन, टेक्सास, डच गुयाना, कोलंबिया, पेरू, ज़ुनिन, हुवानुको एवं वेनेजुएला में ज्यादा पाया जाता है किन्तु सबसे ज्यादा चीन उसमें भी तिब्बत तथा जापान में एवं आस्ट्रेलिया में पारद प्राकृतिक रूप में पाया जाता है।
पारद पांच तरह का ही होता है-
" पारदो रसधातुश्च रसेंद्रश्च महारसः ।
 चपलः शिववीर्यश्च रसः सूतः शिवाह्वयः ।
 रसेन्द्र: पारदः सूतः हरजः सूतको रसः ।
 मिश्रकश्चेति नामानि ज्ञेयानि रसकर्मसु ।"
 रस - रस नाम का पारद लाल रंग का होता है। यह सब प्रकार के दोषों से रहित होता है। इसी पारद के सेवन से देवता रोग तथा बुढापा आदि से रहित हो मृत्यु मुक्त हो गए थे।
 रसेन्द्र - यह स्वभाव से ही निर्दोष, श्याव (काला-पीला), रूखा,और अत्यंत निर्मल होता है। इसी पारद के भक्षण से नागदेव ज़रा और मृत्यु से छूट गये। इस पारद के भक्षण से मनुष्य अजर-अमर न हो जाय, इस कारण देवताओं ने माता पार्वती को प्रसन्न कर उनसे इसके उत्पत्ति स्थल वाले कूप को पाट देने का वरदान ले लिया। माता पार्वती तो पहले से ही शिव के वीर्य स्खलन से खिन्न थी। अतः उन्होंने वरदान दे दिया। और देवताओं एवं नागो ने इसके स्रोत को ही निर्मूल कर दिया। और तबसे ये दोनों पारद- रस और रसेन्द्र मनुष्यों के लिये दुर्लभ हो गये।
 सूत - सूत नामक पारद कुछ पीला, रूखा तथा दोषों से मिला होता है। 18 संस्कारों द्वारा शुद्ध होने पर देह एवं लौह सिद्धि के लिये इसका उपयोग किया जाता है।
 पारद - यह चंचल और सफ़ेद होता है। आज कल यही एक पारद मिलता है। और इसी को शुद्ध करके विविध औषधियों का निर्माण किया जाता है।
 मिश्रक - यह पारद मयूर पंख के समान चमकदार तथा पतलापन लिये हुए होता है। इसको भी अट्ठारह संस्कारों द्वारा शुद्ध करके ही काम में लाया जाता है।
ग्रंथो में इस योगिराज भगवान शिव के अत्यंत दुर्लभ वरदान स्वरुप पारद के बारे में बताया गया है कि-
"जिस प्रकार शिवमूर्ति में मग्न हुए योगिराज मोक्ष को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अभ्रक द्वारा जारण किये हुए पारद में सुवर्णादि धातुएं लीन हो जाती हैं। जड़ी-बूटियों के सत्वादिक-क्षार शीशे में लीन हो जाते है। इसी प्रकार शीशा वंग में, वंग ताम्बा में, ताम्बा चांदी में, चाँदी सोने में और सोना पारद में लीन हो जाता है। जिस प्रकार समस्त जीव (प्राणी) ब्रह्म में लीन हो जाते है, उसी प्रकार समस्त रसादि धातुएं पारद में लीन हो जाती है।"
ये ऊपर बताये पारद के पाँच वही प्रकार है जिस आधार पर यूरोप एवं अमेरिका के विद्वान वैज्ञानिक आविष्कार कर के इसे अंग्रेजी नामो से व्यवस्थित कर अपनी विद्वत्ता का डंका सारे संसार में पीट दिये। मेंडलीफ के पीरियाडिक टेबिल (आधुनिक आवर्त सारणी) की व्यवस्था देखने से इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाता है।
अपने मूल रूप में प्रत्येक पदार्थ गैस रूप में ही था। ज्यो ज्यो धरती का सतह ठंडा होता गया इन पदार्थो ने ठोस एवं द्रव रूप धारण किया। अभी आप देखें अत्याधुनिक तत्व सारणी में भी मात्र पांच ही गैसों का ज़िक्र है- हाईड्रोजन (H1), हीलियम(He2), आक्सीजन(O8), नाइट्रोजन(N7) एवं क्लोरिन(Cl17)। सारणी में यदि इसके अलावा कोई और गैस है तो वह इनका समस्थानिक (Isotopes) ही है।
पारद भी मूल रूप में गैस के रूप में या वाष्प के रूप में मिलता है। पुनः उस वाष्प को सांद्रित कर द्रव रूप दिया जाता है। ऊपर के पांचो गैसों से ही उपरोक्त पाँच प्रकार के पारद को प्राप्त किया जाता है। किन्तु जैसा कि सर्व विदित है कि हाईड्रोजन एवं हीलियम का आनयन भयंकर विनाश को जन्म देना ही है। अतः इन दो तरह के पारद की उपलब्धि असंभव है। उपरोक्त रस और रसेन्द्र नामक दो पारद इसीलिए अनुपलब्ध है।

क्योकि एक निश्चित ताप एवं दाब (Normal Temperature & Pressure) उपरांत ही निर्धारित द्रव्यों (गैसों) से पारद को पृथक किया जा सकता है।
इसी ताप एवं दाब के परिणाम स्वरुप पारद धरती के निचे वाष्प में परिवर्तित होकर विविध आग्नेय चट्टानों पर जम जाता है। और उसे अनेक उपायों से संगृहीत किया जाता है।
इसके जमने के क्रम को Dr. C. G. Collis जो Imperial College of London में प्रोफ़ेसर है, के मतानुसार
"सबके निचे पातालिक आग्नेय पाषाण (Granite) और उसके ऊपरी भागो में एक तेज जलज , पारद, तुर्मुली, पुखराज, बंग और टंगस्टन होते हैं। तथा दूसरी और भारी धातुएं जैसे ताम्र, नाग, यशद, सुवर्ण, रजत और रौप्य माक्षिक आदि रहते हैं। जो लोग ऐसी खानों को खोदते है, वे प्रायः एक के बाद दूसरे खनिज पदार्थ को निकाल कर लाभ
उठाते हैं। यह भी निश्चित है कि जहाँ

जहाँ पारद की खाने हैं, वहाँ पर किसी किसी स्थान पर कुवें मिलते हैं। इटली में ऐसे कुवें मौजूद हैं। यूनाइटेड स्टेट्स आफ अमेरिका में भी पारद की खानों में नलाकार कूप मिलते है। इन देशो में पारद के कूप 2450 फुट तक गहरे है। जहाँ पर इन गैसों पर भयंकर दाब एवं तत्परिणाम से ताप पड़ता है। 'लैटिन गैबर" के अनुसार पारद के मिश्रक (गैसों आदि) पर अत्यधिक दबाव पड़ते ही पारद इनसे अलग हो जाता है।"

शंगरी ला घाटी का रहस्य .....

      आज हम एक ऐसी जगह के बारे में बात करेंगे जहाँ हर चीज गायब हो जाती है। वैसे तो दुनिया में कई ऐसे स्थान है जहाँ वायु शून्य है मतलब हवा है ही नहीं हमारे देश में भी एक ऐसा स्थान है जहा न सिर्फ हवा शून्य है बल्कि जो भू हीनता के प्रभाव क्षेत्र में आता है। यहाँ एक बात जान लेते हैं की भू हीनता के प्रभाव क्षेत्र में आने वाले स्थान धरती के वायुमंडल के चौथे आयाम से प्रभावित होते हैं इसलिए ये इस तरह के स्थान बन जाते हैं जो की तीसरी आयाम वाली धरती की किसी भी वस्तु से संपर्क तोड़ देते हैं, यानी कोई भी इन्सान भी अगर किसी ऐसी जगह के संपर्क में जाता है तो वह पृथ्वी से गायब हो जाता है अर्थात् चौथे आयाम में पहुँच जाता है, जहां समय का कोई मूल्य नहीं होता अर्थात् आयु स्थिर हो जाती है !

शंगरी ला घाटी का रहस्य..........
शंगरी ला घाटी ऐसी ही एक जगह है जहाँ कोई वस्तु उसके संपर्क में आने पर गायब हो जाती है। यह घाटी तिब्बत और अरुणांचल प्रदेश की सीमा पर स्थित है यदि आप इस स्थान को देखना चाहते हैं तो इसे आप बिना किसी तकनीक के नहीं देख सकते यह घाटी चौथे आयाम (Fourth dimension) से प्रभावित होने के कारण रहस्यमयी बनी हुई है। बहुत से लोग यह भी कहते हैं की इस जगह का संपर्क अंतरिक्ष में किसी दूसरी दुनिया से भी है यदि आप इस घाटी के बारे में और अधिक जानना चाहते हैं तो आपको एक प्राचीन किताब काल विज्ञान पढनी होगी यह किताब आज भी तिब्बत के तवांग मठ के पुस्तकालय में मौजूद है और यह तिब्बती भाषा में लिखी गयी है। इस किताब में लिखा है कि इस तीन आयाम वाली (third dimension) की दुनिया की हर वस्तु देश, समय और नियति में बंधी हुई है यानी हर वस्तु एक निश्चित स्थान, समय और नियमों के हिसाब से काम करती है लेकिन शंगरी ला घाटी में समय नगण्य है यानी वहां समय ना के बराबर है हम इसे सरल शब्दों में ऐसे समझ सकते हैं की हमारे यहाँ के सैकड़ो साल और वहाँ का एक सेकेण्ड (second)।

शंगरी ला घाटी में प्राण, मन और विचारों की शक्ति एक विशिष्ट सीमा तक बढ़ जाती है अगर इस धरती पर अध्यात्मिक नियंत्रण केंद्र है तो वह शंगरी ला घाटी ही है अगर इस शंगरी ला घाटी में कोई वस्तु या प्राणी अनजाने में चला जाता है तो तीसरे आयाम (third dimension) वाले इस जगत की दृष्टि में उसकी सत्ता गायब हो जाती है। सरल शब्दों में कहे तो जब तक वह वहां से वापस आयेगा तब तक यहाँ ना जाने कितनी सदियाँ बीत गयी होंगी लेकिन शंगरी ला घाटी मे उसका अस्तित्व बना रहता है और यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता की भविष्य में कब उसका अस्तित्व प्रकट हो या न हो यानी कि वहाँ जाने के बाद वह वापस आयेगा या नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि जब तक वह वापस आयेगा तब तक यहाँ सदियाँ बीत चुकी होंगी।

शंगरी ला घाटी में जाने के बाद किसी इन्सान की आयु बहुत धीमी गति से बढती है मान लीजिये किसी इंसान ने इस घाटी में 20 साल की उम्र में प्रवेश किया तो उसका शरीर लम्बे समय तक जवान ही बना रहेगा शंगरी ला एक आम इंसान के लिए अनजान जगह हो सकती है लेकिन उच्च स्तरीय अध्यात्मिक क्षेत्र से जुड़ा व्यक्ति इस जगह से अनजान नहीं रह सकता फिर वह व्यक्ति चाहे योग से या तंत्र से या किसी अन्य तरह के अध्यात्म क्षेत्र से जुड़ा हो, हाँ लेकिन उस इंसान की स्थिति उच्च अवश्य होनी चाहिए।

शंगरी ला घाटी सिर्फ भारत का ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के अध्यात्म जगत का नियंत्रण और पथ प्रदर्शक क्षेत्र है साथ ही इसको आम इंसान की दृष्टि से देखा भी नहीं जा सकता जब तक वहां रहने वाले सिद्ध न चाहें तब तक इस घाटी को न तो कोई देख सकता है और न ही वहां जा सकता है जो लोग इस घाटी से परिचित हैं उनका कहना है कि प्रसिद्ध योगी श्यामाचरण लाहिड़ी के गुरु अवतारी बाबा, जिन्होंने आदि शंकराचार्य को भी दीक्षा दी थी शंगरी ला घाटी के किसी सिद्ध आश्रम में अभी भी निवास कर रहे हैं जो कभी आकाश मार्ग से चलकर अपने शिष्यों को दर्शन भी देते हैं ।

यहाँ पर तीन साधना के केंद्र प्रसिद्ध हैं -

1. ज्ञान गंज मठ

2. सिद्ध विज्ञान आश्रम

3. योग सिद्ध आश्रम

(संभवत: इन तीन रहस्यमय स्थानों का एक रास्ता कैलाश मानसरोवर से हो कर भी जाता है, और दूसरा रास्ता तिब्बत और अरुणांचल प्रदेश की सीमा से हो कर जाता है, कहा जाता है कि कैलाश पर्वत के समीप पहुंचने पर आयु बहुत तेजी से बढ़ने लगती है, वहीं शंगरी ला घाटी, ज्ञानगंज मठ और योग सिद्ध आश्रम में पहुचने पर आयु का बढना रुक जाता है)

1/2 @Sanatan

इन तीनो साधना केंद्रों पर आपको ऐसे अनेक योगी मिल जायेंगे जो जन्म मृत्यु के अधीन ऐसी बहुत सी घटनाएं हैं जो यह साबित करती हैं कि मरने के बाद सब कुछ समाप्त नहीं होता बल्कि किसी न किसी रूप में अस्तित्व बचा रहता है इसे योग की भाषा में सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। मृत्यु के पश्चात आत्मा सूक्ष्म शरीर में वास करती है सामान्यतः यह सूक्ष्म शरीर अल्प
विकसित होते हैं व अधिक कुछ कर पाने में असमर्थ होते हैं। योगी लोग अपने जीवित रहते सूक्ष्म शरीर को विकसित कर लेते हैं जिस से यह बहुत कुछ करने में समर्थ हो जाते हैं। यहाँ की दुर्गम पर्वत श्रृंखला में ऐसी ही सूक्ष्म शरीर धारी आत्माओ का निवास स्थान है जो अपने स्थूल शरीर को छोड़कर सूक्ष्म शरीर में विद्यमान हैं यह अपने सूक्ष्म शरीर से विचरण करते हैं लेकिन कभी कभी स्थूल शरीर भी धारण कर लेते हैं।

शंगरी ला घाटी में प्रवेश करने पर उस स्थान पर न तो सूरज की रौशनी है और न चाँद की चांदनी वातावरण में एक दूधिया प्रकाश फैला हुआ है से आ रहा है इसका कुछ पता नहीं है। यह घाटी एक महान योगी की इच्छाशक्ति की वशीभूत है इस घाटी के बारे में कहा जाता है की यहाँ कोई सामान्य साधक जा नहीं सकता और उच्च साधक भी अपनी इच्छा से इसे नहीं देख सकता।

समय समय पर कई पर्यटको, सैनिको, खोजकर्ताओं और लेखको ने अपने लेखों के द्वारा इस जगह के बारे में लिखा है। उन लोगो के अनुसार यह एक ऐसी दुनिया है जो रहस्य जादू और रोमांस से भरपूर है कई सारी किदवंतिया इस जगह के बारे में प्रचलित हैं। मगर इस जगह को पूरी तरह से समझने में हर इंसान नाकाम है।

क्या आप जानते हैं कि इसी पृथ्वी पर विद्यमान है वह जगह जहां साक्षात भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था।

-- उत्तराखंड का त्रियुगीनारायण मंदिर ही वह पवित्र और विशेष पौराणिक मंदिर है। इस मंदिर के अंदर सदियों से अग्नि जल रही है। शिव-पार्वती जी ने इसी पवित्र अग्नि को साक्षी मानकर विवाह किया था। यह स्थान रुद्रप्रयाग जिले का एक भाग है।👇

-- त्रियुगीनारायण मंदिर के बारे में ही कहा जाता है कि यह भगवान शिव जी और माता पार्वती का शुभ विवाह स्थल है।👇
 
-- मंदिर के अंदर प्रज्वलित अग्नि क ई युगों से जल रही है इसलिए इस स्थल का नाम त्रियुगी हो गया यानी अग्नि जो तीन युगों से जल रही है। 
 
-- त्रियुगीनारायण हिमावत की राजधानी थी। यहां शिव पार्वती के विवाह में विष्णु ने पार्वती के भाई के रूप में सभी रीतियों का पालन किया था। जबकि ब्रह्मा इस विवाह में पुरोहित बने थे। 

--उस समय सभी संत-मुनियों ने इस समारोह में भाग लिया था। विवाह स्थल के नियत स्थान को ब्रहम शिला कहा जाता है जो कि मंदिर के ठीक सामने स्थित है। इस मंदिर के महात्म्य का वर्णन स्थल पुराण में भी मिलता है। 
 
-- विवाह से पहले सभी देवताओं ने यहां स्नान भी किया और इसलिए यहां तीन कुंड बने हैं जिन्हें रुद्र कुंड, विष्णु कुंड और ब्रह्मा कुंड कहते हैं।

 -- इन तीनों कुंड में जल सरस्वती कुंड से आता है। सरस्वती कुंड का निर्माण विष्णु की नासिका से हुआ था और इसलिए ऐसी मान्यता है कि इन कुंड में स्नान से संतानहीनता से मुक्ति मिल जाती है। 
 
-- जो भी श्रद्धालु इस पवित्र स्थान की यात्रा करते हैं वे यहां प्रज्वलित अखंड ज्योति की भभूत अपने साथ ले जाते हैं ताकि उनका वैवाहिक जीवन शिव और पार्वती के आशीष से हमेशा मंगलमय बना रहे। 
 
-- वेदों में उल्लेख है कि यह त्रियुगीनारायण मंदिर त्रेतायुग से स्थापित है। जबकि केदारनाथ व बदरीनाथ द्वापरयुग में स्थापित हुए। यह भी मान्यता है कि इस स्थान पर विष्णु भगवान ने वामन देवता का अवतार लिया था। 
 
-- पौराणिक कथा के अनुसार इंद्रासन पाने के लिए राजा बलि को सौ यज्ञ करने थे, इनमें से बलि 99 यज्ञ पूरे कर चुके थे तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर रोक दिया जिससे कि बलि का यज्ञ भंग हो गया। यहां विष्णु भगवान वामन देवता के रूप में पूजे जाते हैं।
जय भोले नाथ।

देवर्षि नारद (Devrishi Narad)

देवर्षि नारद

भगवान विष्णु के २४ अवतार।
धर्म ग्रंथों के अनुसार देवर्षि नारद भी भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। शास्त्रों के अनुसार नारद मुनि, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक हैं। उन्होंने कठिन तपस्या से देवर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते हैं। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में देवर्षि नारद को भगवान का मन भी कहा गया है। श्रीमद्भागवतगीता के दशम अध्याय के 26वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है- देवर्षीणाम्चनारद:। अर्थात देवर्षियों में मैं नारद हूं।

Devrishi Narad

One of the 24 Avatars Of Parbrahma Vishnu.
Parbrahma Vishnu took his fourth incarnation as Narada. Narada by becoming a 'Devarishi' among all the sages, achieved liberation from all of his Karma's (action). Narada was the one who gave discourses to the Vaishnavas (followers of Lord Vishnu) on 'Pancharatra Tantra'. Parbrahma Vishnu in his incarnation as Narada, showed that, the devotion is the best mean of getting liberated from all the bondages of 'Karma's'. He also said that a devotee of Parbrahma Vishnu is the supreme among the devotees in the same way as Devarishi Narada among the Sages.


हमारा युग निर्माण सत्संकल्प :-

✴Our Yug Nirman Holy Pledge✴


1... WE shall implement in life the discipline of GOD, realizing that He is all pervasive & just.

हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारे गए।

2... WE shall maintain our health treating our body as the temple of GOD by observing self restraint & regularity in life.

शरीर को भगवान का मन्दिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।

3... WE shall maintain the habit of self-study and keeping good company in order to avoid bad thoughts & feelings.

मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।

4... WE shall constantly practise sense organs control, wealth control, time management & thought control.

इन्द्रिय-संयम, अर्थ-संयम, समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।

5... WE shall always treat ourselves as inseparable part of society and consider other's intrests as our own.

अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।

6... WE shall observe the decencies, avoid undesirable acts, perform civil duties and remain loyal to society.

मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओ से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।

7... WE shall always consider WISDOM, HONESTY, RESPONSIBILITY, BRAVERY as
integral part of life.

समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविछिन्न अंग मानेंगे।

8... WE shall create an all around atmosphere of sweetness, cleanliness, simplicity and gentleness.

चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।

9... WE shall accept defeat while following the ethical path rather than success by unethical means.

अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।

10... WE shall consider noble thoughts & virtues deeds as yardstick for evaluating man's greatness rather than his success, merits and achievements.

मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलता, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं , उसके सद्विचारों ओर सत्कर्मों को मानेंगे।

11... WE shall not do anything to others that we ourselves do not like.

दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे , जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।

12... Man & woman will maintain natural pious relation.

नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।

13... WE shall utilize regularly as a part of our earning, time, influence, human values & efforts towards dissemination of the fruits of righteous deeds in the whole world.

संसार में सत्प्रिवार्तियो के पुण्य-प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।

14.. Discretion shall be given more importance than tradition.

परम्पराओं की तुलना में विवेक को अधिक महत्व देंगे।

15. WE pledge to take full interest in uniting good people, activities of novel creation and combating unethical forces.

सज्जनों को संगठित करने , अनीति से लोहा लेने और नव सृजन की गतिविधियों में पूरी रूचि लेंगे।

16... We shall be commited to national integration & equality. We shall not be guided by any feeling of discrimination & mutual differences caused by race, gender, language, province, sect etc.

राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान रहेंगे ! जाति , लिंग, भाषा, प्रान्त , सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।

17... An individual is the architect of one's own destiny, Based on this belief we are confident that if we become excellent and make others great, surely the YUG or ERA shall change.

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे, तो युग अवश्य बदलेगा।

18... WE shall change the era shall change, we shall improve - the era shall be improve, we have full faith in this reality.

"हम बदलेंगे- युग बदलेगा, हम सुधरेंगे - युग सुधरेगा" इस तथ्य हमारा परिपूर्ण विश्वास है।