(पौराणिक एवं वैज्ञानिक कथाओं समेत)
प्रकृति को विविध क्षोभो से त्राण एवं सज्जनों की विविध बाधा शान्ति हेतु औषधिपति पति चन्द्रमा को अपने शीश पर धारण कर गंगा के निर्मल जलधारा के माध्यम से चन्द्रमा के औषधीय गुणों को प्रार्थना से प्रसन्न भुजगपतिहारी पशुपति भगवान शिव ने पृथ्वी को जब प्रदान किया तो पृथ्वी ने भी उन्ही औषधीय तत्वों से सर्वप्रथम जगदम्बा पार्वती का श्रृंगार किया। अपनी निर्धारित तपश्चर्या में भगवती पार्वती के श्रृंगारित अपूर्व सौन्दर्य से भगवान शिव ने व्यवधान पाया। किन्तु ध्यान से देखने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि यह देवी पार्वती का किलोल है। भगवान शिव ने भी किलोल का उत्तर किलोल में ही देते हुए आसन से अपना अमोघ वीर्य स्खलित कर दिया। किन्तु वह वीर्य इतना चमकीला और उग्र विद्युत् ज्योति वाला था कि माता जी को यह आभास तक नहीं हो सका कि भगवान शिव का वीर्य स्खलित हुआ है। उनकी आँखें बंद हो गयी। और उत्तेजना शान्ति के उपरांत जाह्नवी ने अपने दैवीय सुगन्धादि से युक्त नीर से शिव का अभिषेक कर उन्हें पुनः तपश्चर्या के योग्य बना दिया। माता जगदम्बा को इससे बहुत क्षोभ हुआ। वह सोच में बहुत काल तक विचार-चिंता मग्न हो बैठी ही रह गयी। (**रसौदुम्बर्यम का पारद खंड** ) इस बीच उस वीर्य के शीघ्रगामी होने के कारण तथा उसकी उग्रता के कारण उस पर्वत में धँसता हुआ वह वीर्य पत्थरो-शिलाओं को विदीर्ण करता हुआ सौ योजन लम्बे पांच कूप के रूप में परिवर्तित हो गया। रसरत्नसमुच्चय में लिखा है-
" शैले अस्मिन शिवयो: प्रीत्या परस्परजिगीषया ।
सम्प्रवृत्ते च सम्भोगे त्रिलोकक्षोभकारिणी ।
विनिवारयितुम वह्निः सम्भोगम प्रेषितः सुरै:
कपोतरुपिणं प्राप्त हिमवतः कन्दरे अनलज्म ।
अपक्षिभावसंक्षुब्धम स्मरलीला विलोकिनम ।
तम दृष्ट्वा लज्जितः शम्भुर्विरतः सुरतात्तदा ।
प्रच्युतश्चरमो धातु: गृहितः शूल पाणिना ।
प्रक्षिप्तो वदने वह्नेगंगायामपि सो अपतत ।
बहिः क्षिप्तस्तया सो अपि परिदन्दह्यमानया ।
संजातास्तन्मलाधानाद्धावतः सिद्धि दायकाः ।
यावदग्निमुखोद्रेतो न्यापद्भुवि सर्वतः ।
शत योजन निम्नास्ते जाताः कूपास्तु पञ्च च ।
तदाप्रभृति कूपस्थं तद्रेतः पञ्चधा अभवत ।"
माता पार्वती ने देखा कि इस वीर्य कूप में स्नान कर के तो सब नाग एवं देवता मृत्यु एवं बुढापे से मुक्त होते जा रहे हैं। किन्तु यह वीर्य मेरे किसी प्रयोजन का नहीं रह गया है। अतः नारि सुलभ ईर्ष्या के कारण उन्होंने उस वीर्य को शाप दिया कि -
हे पर्य दमनक (पर्वत का दमन या उसे विदीर्ण करने वाले)! तुम आज से अष्टांग वक्री हो जाओ। तुम्हारा न तो कोई रूप होगा न आकार। तुम रहते हुए भी इधर उधर भागते रहोगे। हे आशुतोष भगवान शिव के अमोघ वीर्य! जिस तरह तुमने मुझे आलोकित कर ससंभ्रमित कर दिया तुम भी वैसे ही आभाषी (वायु रूप) रूप में रहोगे। तुम्हारे आठो अंग अपँग हो जाएँ । तबसे यह स्थिर न रहने वाला हो गया। इसके अलावा " पर्य दमनक " बाद में पर्यद एवं आज पारद बन गया है। ये आठो दोष निम्न प्रकार है-
" नागो बंगो मलो वह्निश्चापल्यम च विषम गिरिः ।
असह्याग्निर्महादोषा निसर्गात पारद स्थिताः ।
भगवान शिव ने देखा कि आज देवी औरत सुलभ विकार से युक्त हो गई है। तथा उपयोगी आठो अंगो को विकार रूप में देख रही हैं। और ज्योंही ऐसा विचार भगवान शिव के मन में जन्म लिया तभी से औरतें स्थाई आठ विकारों से युक्त हो गई। तुलसी दास ने अपने रामचरित मानस में इसे बताया है-
"अवगुण आठ सदा उर रहई। नाथ पुराण निगम अस कहई।
साहस अनृत चपलता माया। भय अविवेक अशौच अदाया।
इसके अलावा पारद जैसे जैसे सातो द्वीपों में फैलता गया उसमें वहाँ के विकार समाहित होते गये। और सातो द्वीपों के विकार निम्न प्रकार है-
" औपाधिकाः पुनश्चान्ये कीर्तिताः सप्त कंचुका:
पर्पटी पाठिनी भेदी द्रावी मलकरी तथा ।
अंधकारी तथा ध्वांक्षी विज्ञेया: *सप्तकंचुका:"
हमारे प्राचीन आचार्यो ने जिस किसी भी विषय के ऊपर मनन चिंतन कर जो भी लिख दिया या बता दिया वह अक्षरशः सत्य है। उनके ज्ञान को आज कल के नवयुग के यथार्थवादी वैज्ञानिक अथक परिश्रम कर के भी नहीं प्राप्त कर सके है।बहुत से सत्यप्रिय वैज्ञानिकों ने हमारे आचार्यो के सूत्राशयो को प्रत्यक्ष प्रमाणों से स्वयं प्रत्यक्ष कर के सिद्ध कर लेने पर मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा की है।
हमारे ऋषि महर्षि आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक इन तीनो प्रकार के ज्ञान के यथार्थ महाविज्ञानीथे । इस विषय में इस समय के प्रायः सब देशो के उच्च एवं निस्पृह विचार रखने वाले विद्वानों का एकमत है। आज कल के पाश्चात्य विद्वानों ने हमारे ही ऋषि महर्षि निर्मित विविध सूत्रों के गूढ़ रहस्यों को भली भाँती समझ कर उसी के आधार पर प्रत्येक
पदार्थ का अन्वेषण प्रारम्भ कर दिया। जिसका फल यह हुआ कि उनको इस काम में पर्याप्त सफलता मिली और उन्होंने विश्व भर में अपने मस्तक को ऊँचा कर लिया। किन्तु विज्ञान के मूल जनक उन महर्षियों की सन्तति होकर भी हम लोग अपने महर्षियों के सद्वचनो का भी उपयोग नहीं कर रहे हैं एवं अस्तगत अपने विज्ञान भाष्कर के उदय के लिये कुछ भी उद्योग नहीं कर रहे है, दुःख की बात है।
पौराणिक मतानुसार -औषधि के रूप में पारद का अन्वेषण धरती पर सर्वप्रथम "तन्वाद्रिक" मुनि ने "कायझर" जिसका वर्त्तमान नाम कोकराझार (आसाम) में है, स्थान पर किया था। किन्तु कामाख्या देवी के स्थान "कामरूप" पर्वत पर रहने वाले कुछ दुष्ट कापालिको ने उन्हें मार कर उस पहाड़ी पर डाल दिया। उनका शव बहुत दिनों तक उस पहाड़ी के शिला खंड पर पडा रहा। श्वास चलती रही। शरीर सूखता गया। किन्तु पास ही में एक छोटे खड्ड में शुद्ध पारद पडा था। जिसके कारण उनके शव को कोई भी जंतु क्षति नहीं पहुंचा सका था। उस पारद के विकराल विकिरण (High Radiation) से उनके शव को कीड़े भी नहीं छू सके थे।
बहुत दिनों बाद कलिंग नरेश ब्यावर खारवेल (जिनके पोते शाताजीव खारवेल से अशोक सम्राट का युद्ध हुआ था) को शिकार खेलते समय वह मुनि का अनहत शव दिखाई दिया। उस सूखे कंकाल में कुछ अप्राकृतिक हरक़त एक निश्चित अन्तराल पर निरंतर हो रही थी। पास का खड्ड अत्यंत चमक दार सूर्य से भी ज्यादा तेजवान दिखाई दिया। उन्होंने अपने दरबार के चिकित्सकीय सलाहकारों की सहायता से उस चमकदार परत को सावधानी पूर्वक एकत्र करवाकर तथा उस शव को भी लेकर अपने राज्य में वापस आये। अपने दरबार के कुशल चिकित्सक "महेंद्र" की देख रेख में उस पारद का " वाजश्रुत " योग बनाकर उस शव पर लेप एवं गृहणी कपाट तक पहुंचाया। परिणाम स्वरुप वह मुनि कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गये।
मुनि ने सारी कथा बतायी। तथा उस पारद का बहुत भाग उड़ गया था। जिससे राजा बहुत क्षुब्ध हो गये। उन्हें लगा कि महेन्द्र एवं तन्वाद्रिक ने मिल कर उसे चुरा लिया है। अतः उन्होंने उन दोनों को "अहिसार" नामक अति भयानक विष दिलवा दिया। महेन्द्र तो तत्काल मर गया। किन्तु तन्वाद्रि मुनि नहीं मरे। उन्होंने कहा कि हे राजन! यद्यपि यह दूसरा जन्म आप के ही द्वारा दिया गया था। अतः इस पर अधिकार भी आप का ही था। आप चाहे इसे रखे या नष्ट कर दें। क्योकि प्रथम जन्म तो मैंने पहले ही पूरा कर लिया था। लेकिन इतनी बात अवश्य बता दे रहा हूँ कि जिस तुच्छ पदार्थ के लिये तुमने अपने अति कुशल रसायनज्ञ को मरवा डाला वह तुच्छ पदार्थ अब आप के लिये समूल नाश का कारण बनेगा।
कुछ ही दिन बाद दाक्ष्यांग देश (वर्त्तमान उडिशा) के खूंखार नरेश बर्ह्यंग ने लड़ाई कर के "लिंग पत्तन" अर्थात कैलाश पर्वत के तराई वाले अति समृद्ध राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। अब लिंग पत्तन अर्थात कलिंग (पूर्व में इसका नाम "शिव का लिंग" था। कालान्तर में यह मात्र कलिंग बन कर रह गया। उसके बाद यह दो हिस्सों में बँट गया-अँग एवम बंग। अंग देश वर्त्तमान उडिशा है। तथा बंग देश बंगाल है) सिमट कर रह गया। आज कलिंग का बड़ा हिस्सा बर्ज्यांग एवं ह्युंग दोनों चीन देश के कब्जे में है। पौराणिक मतानुसार भगवान शिव का वीर्य जो शिलाखंड के अवरोध से नीचे छेद कर रुकता गया उसका नाम "बाजी अंग" अर्थात जो अंग का बाजीकरण कर दिया, पडा। जो बाद में "बर्ज्यांग" नाम से आज भी याँगटीसीक्यांग नदी के किनारे चीन देश में है। यह स्थान अनेक अमोघ खनिजो का विशाल भण्डार है।
इधर उस परम शक्ति शाली पारद के कारण जो शिलाखंड, खड्ड समेत राजा ने उठवा लाया था। वह वज्रनाभ में बदल गया था। उससे तेज किरणे निरंतर प्रस्फुटित होती रहती थी। जिसके विकिरण से अन्य धातुओ का स्वर्ण आदि में परिवर्तन होता रहता था। अतः यह देश अति समृद्ध हो गया था।
इस बात का पता कालान्तर में बिन्दुसार के वंशज अशोक को लग गया। उसने भयंकर मार-काट एवं नरसंहारक युद्ध के बाद उस पारद संग्रह को छीन लिया। किन्तु दुर्भाग्य वश उस पदार्थ के बारे में किसी को ज्ञान नहीं था। अतः युद्ध बंदी बनाकर लाये गये खारवेल के रसायनज्ञ "वह्नितुंग" से उसके सेवन विधि के बारे में पूछे। अपने साथ हुए व्यवहार से क्षुब्ध उस रसायनज्ञ ने कुटिलता वश उसका सेवन आहार नाल से करवा दिया। परिणाम स्वरुप अशोक उग्र एवं असाध्य कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गया। और इन सारे कुटिल सांसारिक व्यवहारो से उसका मन उचट गया। तथा वह भिक्षु बन गया।
साउथ अफ्रिका के ट्रांसवाल जिले में, तथा गेलेना में,
तबसे भारत में इस पदार्थ के खोज एवं संग्रह से लोग भयभीत हो गये। इस पदार्थ का कोई भण्डार आज भारत में नहीं है। अभी हाल ही में चित्राल (पंजाब) में नदी के रेत में हिंगुल के अस्तित्व का पता लगा है। और सरकार के द्वारा इस स्थान को सावधानी पूर्वक सुरक्षित कर दिया गया है। यह अदन, अफगानिस्तान,आयरलैंड, बर्मा, तिब्बत, युनियन आफ साउथ अफ्रिका के ट्रांसवाल जिले में, तथा गेलेना में,यूनाईटेड स्टेट्स आफ अमेरिका के
चिली प्रांत में, आस्ट्रेलिया के सिडनी एवं वेलिंग्टन के मध्यवर्ती समुद्री क्षेत्र में, अलवेनिया, चेकोस्लोवाकिया, फ्रांस, कार्सिका, जर्मनी, हंगरी, इटली, पुर्तगाल, रूमानिया, रूस, स्पेन, एसिया माइनर, चीन, जापान, फारस, ट्यूनिसिया, होंडुरास, मेक्सिको, अलास्का, एरिजोना, केलिफोर्निया, कार्नकाउंटी, इडाहो, निवाडा, ओरेगन, लेन, टेक्सास, डच गुयाना, कोलंबिया, पेरू, ज़ुनिन, हुवानुको एवं वेनेजुएला में ज्यादा पाया जाता है किन्तु सबसे ज्यादा चीन उसमें भी तिब्बत तथा जापान में एवं आस्ट्रेलिया में पारद प्राकृतिक रूप में पाया जाता है।
पारद पांच तरह का ही होता है-
" पारदो रसधातुश्च रसेंद्रश्च महारसः ।
चपलः शिववीर्यश्च रसः सूतः शिवाह्वयः ।
रसेन्द्र: पारदः सूतः हरजः सूतको रसः ।
मिश्रकश्चेति नामानि ज्ञेयानि रसकर्मसु ।"
रस - रस नाम का पारद लाल रंग का होता है। यह सब प्रकार के दोषों से रहित होता है। इसी पारद के सेवन से देवता रोग तथा बुढापा आदि से रहित हो मृत्यु मुक्त हो गए थे।
रसेन्द्र - यह स्वभाव से ही निर्दोष, श्याव (काला-पीला), रूखा,और अत्यंत निर्मल होता है। इसी पारद के भक्षण से नागदेव ज़रा और मृत्यु से छूट गये। इस पारद के भक्षण से मनुष्य अजर-अमर न हो जाय, इस कारण देवताओं ने माता पार्वती को प्रसन्न कर उनसे इसके उत्पत्ति स्थल वाले कूप को पाट देने का वरदान ले लिया। माता पार्वती तो पहले से ही शिव के वीर्य स्खलन से खिन्न थी। अतः उन्होंने वरदान दे दिया। और देवताओं एवं नागो ने इसके स्रोत को ही निर्मूल कर दिया। और तबसे ये दोनों पारद- रस और रसेन्द्र मनुष्यों के लिये दुर्लभ हो गये।
सूत - सूत नामक पारद कुछ पीला, रूखा तथा दोषों से मिला होता है। 18 संस्कारों द्वारा शुद्ध होने पर देह एवं लौह सिद्धि के लिये इसका उपयोग किया जाता है।
पारद - यह चंचल और सफ़ेद होता है। आज कल यही एक पारद मिलता है। और इसी को शुद्ध करके विविध औषधियों का निर्माण किया जाता है।
मिश्रक - यह पारद मयूर पंख के समान चमकदार तथा पतलापन लिये हुए होता है। इसको भी अट्ठारह संस्कारों द्वारा शुद्ध करके ही काम में लाया जाता है।
ग्रंथो में इस योगिराज भगवान शिव के अत्यंत दुर्लभ वरदान स्वरुप पारद के बारे में बताया गया है कि-
"जिस प्रकार शिवमूर्ति में मग्न हुए योगिराज मोक्ष को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अभ्रक द्वारा जारण किये हुए पारद में सुवर्णादि धातुएं लीन हो जाती हैं। जड़ी-बूटियों के सत्वादिक-क्षार शीशे में लीन हो जाते है। इसी प्रकार शीशा वंग में, वंग ताम्बा में, ताम्बा चांदी में, चाँदी सोने में और सोना पारद में लीन हो जाता है। जिस प्रकार समस्त जीव (प्राणी) ब्रह्म में लीन हो जाते है, उसी प्रकार समस्त रसादि धातुएं पारद में लीन हो जाती है।"
ये ऊपर बताये पारद के पाँच वही प्रकार है जिस आधार पर यूरोप एवं अमेरिका के विद्वान वैज्ञानिक आविष्कार कर के इसे अंग्रेजी नामो से व्यवस्थित कर अपनी विद्वत्ता का डंका सारे संसार में पीट दिये। मेंडलीफ के पीरियाडिक टेबिल (आधुनिक आवर्त सारणी) की व्यवस्था देखने से इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाता है।
अपने मूल रूप में प्रत्येक पदार्थ गैस रूप में ही था। ज्यो ज्यो धरती का सतह ठंडा होता गया इन पदार्थो ने ठोस एवं द्रव रूप धारण किया। अभी आप देखें अत्याधुनिक तत्व सारणी में भी मात्र पांच ही गैसों का ज़िक्र है- हाईड्रोजन (H1), हीलियम(He2), आक्सीजन(O8), नाइट्रोजन(N7) एवं क्लोरिन(Cl17)। सारणी में यदि इसके अलावा कोई और गैस है तो वह इनका समस्थानिक (Isotopes) ही है।
पारद भी मूल रूप में गैस के रूप में या वाष्प के रूप में मिलता है। पुनः उस वाष्प को सांद्रित कर द्रव रूप दिया जाता है। ऊपर के पांचो गैसों से ही उपरोक्त पाँच प्रकार के पारद को प्राप्त किया जाता है। किन्तु जैसा कि सर्व विदित है कि हाईड्रोजन एवं हीलियम का आनयन भयंकर विनाश को जन्म देना ही है। अतः इन दो तरह के पारद की उपलब्धि असंभव है। उपरोक्त रस और रसेन्द्र नामक दो पारद इसीलिए अनुपलब्ध है।
क्योकि एक निश्चित ताप एवं दाब (Normal Temperature & Pressure) उपरांत ही निर्धारित द्रव्यों (गैसों) से पारद को पृथक किया जा सकता है।
इसी ताप एवं दाब के परिणाम स्वरुप पारद धरती के निचे वाष्प में परिवर्तित होकर विविध आग्नेय चट्टानों पर जम जाता है। और उसे अनेक उपायों से संगृहीत किया जाता है।
इसके जमने के क्रम को Dr. C. G. Collis जो Imperial College of London में प्रोफ़ेसर है, के मतानुसार
"सबके निचे पातालिक आग्नेय पाषाण (Granite) और उसके ऊपरी भागो में एक तेज जलज , पारद, तुर्मुली, पुखराज, बंग और टंगस्टन होते हैं। तथा दूसरी और भारी धातुएं जैसे ताम्र, नाग, यशद, सुवर्ण, रजत और रौप्य माक्षिक आदि रहते हैं। जो लोग ऐसी खानों को खोदते है, वे प्रायः एक के बाद दूसरे खनिज पदार्थ को निकाल कर लाभ
उठाते हैं। यह भी निश्चित है कि जहाँ
जहाँ पारद की खाने हैं, वहाँ पर किसी किसी स्थान पर कुवें मिलते हैं। इटली में ऐसे कुवें मौजूद हैं। यूनाइटेड स्टेट्स आफ अमेरिका में भी पारद की खानों में नलाकार कूप मिलते है। इन देशो में पारद के कूप 2450 फुट तक गहरे है। जहाँ पर इन गैसों पर भयंकर दाब एवं तत्परिणाम से ताप पड़ता है। 'लैटिन गैबर" के अनुसार पारद के मिश्रक (गैसों आदि) पर अत्यधिक दबाव पड़ते ही पारद इनसे अलग हो जाता है।"