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सनातन धर्म की अदभुत गाथा : -

शंकराचार्य जी सुबह-सुबह गंगा स्नान करने के लिए जा रहे थे। देखा कि एक नवयुवती विधवा का वेश बनाए बीच रास्ते में विलाप कर रही है और एक लाश उसकी गोद में पड़ा है। चूड़ियाँ उसने तोड़ दी हैं और मांग का सिंदूर भी पोछ दिया है। “हाय मेरा पति चला गया है। अब मैं जीकर क्या करूंगी? अरे कोई इसकी अंत्येष्टि के लिए तो आए”- ऐसा कहकर वो नवयौवना विलाप कर रही थी। वस्त्रों एवं आभूषण से ऐसा लगा रहा था कि कुछ दिन पहले ही इसका विवाह हुआ है। सुबह-सुबह यह हृदय विदारक दृष्य देख शंकराचार्य जी भी दुःखी हो गए। उनका गंगा स्नान का समय हो रहा था। अतः उस युवती से उन्होंने कहा - माता इस संसार में जो आया है, उसे जाना ही पड़ेगा। तु व्यर्थ विलाप क्यों करती है? तुम्हारा क्या था, जो तुमने खो दिया? अब जरा रास्ता दे, मुझे गंगा स्नान को जाना है। कह उठे पोथी पढ़ कर विद्वान हुए शंकराचार्य जी। बार-बार कहने पर भी जब उस युवती ने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया,तो शंकराचार्य जी खीझ उठे – “माता मेरी बात पर ध्यान क्यों नहीं देती, जरा इस शव को बगल कर मुझे रास्ता दे।” इस पर वह युवती बोली - देखते नहीं मेरा पति अभी-अभी मरा है। मुझ असहाय युवती से अकेले यह कैसे हटेगा? मेरे परिवार वाले आते होंगे, वे इसकी अंत्येष्टि के लिए ले जायेंगे।

मेरे पास इतना समय नहीं है, माँ।

तु तो बलिष्ठ है, तु ही इन्हें एक किनारे कर दे।

मैं संन्यासी हुँ माँ, किसी सांसारिक व्यक्ति के लाश को भला मैं कैसे स्पर्ष करूं?- शंकराचार्य जी बोले।

अब उस युवती का चेहरा तमतमा उठा। बोली – “तब तो केवल एक ही रास्ता है, संन्यासी जी, आप खुद इस शव को कह दीजिए कि यह रास्ते से एक ओर हट जाए।”

शंकराचार्य जी और भी विस्मय में पड़ गए। ‘भला ऐसे कैसे हो सकता है। कहीं लाश भी स्वयं चल सकती है। तब वह युवती बोल उठी – “क्यों शंकर के शिष्य शंकराचार्य जी। आप ही तो कहते थे, ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। जिस प्रकार मिट्टी से बनी हुई वस्तु मिट्टी की ही कही जाएगी, उसी प्रकार ब्रह्म की कृति भी तो ब्रह्म ही है। तो फिर अपने ब्रह्म से क्यों नहीं कह देते कि एक ओर हट जाए। शक्ति नहीं रही इसके शरीर में तो क्या हुआ? अब भी तो यह शिव की ही कृति है।”

अब शंकराचार्य जी की आंखें खुली। गिर उठे उस युवती के चरणों में क्षमा मांगते हुए। “पहचान नहीं पाया माँ। क्षमा करो। तुम्हीं एक मात्र इस संसार समेत संपूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करने वाली हो। यह जगत मिथ्या नहीं माँ, तेरी लीला का विलास मात्र है। तू शिव के अधीन नहीं जगदम्बा, बल्कि शिव तेरे अधीन हैं। मैं जान गया माँ कि शक्ति जब शिव से निकल जाए तो वह केवल शव रह जाता है। शिव तेरे बिना स्वतंत्र कुछ भी करने में असमर्थ है, माँ। बार-बार क्षमा मांगता हूँ महादेवी। क्षमस्व अपराधम्-क्षमस्व अपराधम्। ऐसा कहते हुए बार-बार रोने लगे, उस युवती के चरणों में गिरकर शंकराचार्य जी। जो ज्ञान उन्हें पूरी जींदगी में प्राप्त न हुआ था, वह कुछ ही देर में उन्हें प्राप्त हो गया और कह उठे – “त्वमेका भवानी त्वमेका।” अब तक का प्राप्त सारा ज्ञान उन्हें तुच्छ प्रतीत होने लगा। अब वहाँ न वह युवती थी और न वह शव। वहाँ साक्षात् त्रिशुल एवं चक्र धारण किए जगदम्बा थीं। शिव की नगरी में शक्ति ने लीला दिखा ही दी और सत्य-सनातन वैदिक धर्म की रक्षा हेतु मठों की स्थापना की आज्ञा दी। कालांतर में भगवती की आज्ञा पाकर शंकराचार्य जी ने भारत वर्ष में चारों दिषाओं में चार मठों एवं अनेक उपमठों की स्थापना की और वहाँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी एवं उनके विविध स्वरूपों की पूजा का विधान किया। सर्वप्रथम कांचीकामपुरम् पीठ की स्थापना हुई। इस मठ की स्थापना के पूर्व माता जगदम्बा ने फिर एक बार लीला रची। जहाँ आज कांचीकामपुरम् का मठ है, वहाँ शंकराचार्य जी ने एक आधी रात को बड़ी विचित्र लीला देखी। देखा कि एक विशाल महान विषधर सर्प फन ताने बैठा है, और वह एक गर्भिनी मेंढकी की रक्षा कर रहा है। समझ गए शंकराचार्य जी आदि शक्ति माता जगदम्बा की लीला को, कि सत्य-सनातन धर्म की रक्षा स्वयं भगवती ही कर रही हैं। बस हो गया सनातन धर्म की रक्षा हेतु सर्वोत्तम भूमि का चयन, जिसे स्वयं भगवती ने ही चुन कर दिया था। जिस जगह पर भय प्रदाता भी रक्षात्मक हो जाए, वही है सनातन धर्म की स्थापना का केंद्र बिंदु। मृत्यु भी जहाँ जीवन में परिवर्तित हो जाए। भक्षक भी रक्षक हो जाए।

अगर महालक्ष्मी न हो तो भला विष्णु की पूजा कौन करेगा? चंद्रमा में शीतल चांदनी न हो तो चंद्रमा का क्या महत्व? अग्नि में दाहक शक्ति न हो तो अग्नि की क्या आवष्यकता? और फिर शंकराचार्य जी ने सौन्दर्य लहरी की रचना कर माता त्रिपुरसुन्दरी के महातिशय अगम्य महासौन्दर्य का दिव्य वर्णन् किया और उनकी प्रंशसा में यह लिखा कि – “हे माँ, माता महात्रिपुरसुन्दरी, अगर तुम न हो तो भस्म रमाये, बुढ़े बैल की सवारी करने वाले शिव
को भला कौन पूजेगा?भगवान शिव का वास्तविक सौन्दर्य हे माँ बस आप ही हैं।
यह सही है कि आज धर्म में कुछ अवांछनीय तत्वों का प्रवेश हो गया है। जेल से छूटे हुए अपराधी भी संत होने का स्वांग रच रहे हैं। चोरी एवं पॉकेटमारी करने वाले लोग भी माया अति ठगिनी का संदेश दे रहे हैं। जीवन भर लड़कियों के पीछे घुमने वाले पापी भी बुढ़ापे में ब्रह्मचर्य का उपदेश दे रहे हैं। कुछ पैसे के लिए किसी का भी गला काट लेने वाले जेल से छूटने के बाद सत्य-अहिंसा का संदेश देते हैं। ऐसे कुछ मुठ्ठी भर पापियों के कारण पूरे संत समाज को बदनाम करना कतई उचित नहीं। अगर कुछ नाले गंगा में मिल जाये, तो गंगा की पवित्रता समाप्त नहीं होगी। हाँ समाज से ऐसे पापियों को निकालना ही होगा।

भगवती त्रिपुरसुन्दरी पंचप्रेतासिना हैं। ब्रह्मा, विष्णु,रुद्र एवं ईश्वर स्तम्भ हैं, तथा सदाशिव फलक हैं, और इन सबके ऊपर भगवती त्रिपुरसुन्दरी आसीन हैं। इसी प्रकार भारतीय सभ्यता संस्कृति के पांच आधार स्तम्भ हैं – गंगा, गाय, गीता, गायत्री और गुरू। इनके बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

जितनी महिमा "नाम जप" की शास्त्र में कही गयी है, उतनी वास्तव में क्यों नहीं दिखती?

तुम बड़ी बहकी बात करते हो। खीर में मीठा नही डाला और कह रहे हो कि खीर में स्वाद नही है। ये बहकी बात ही तो है। तुम भी वही कर रहे हो। तुम ही नही, मैं भी यही करता था। सब यही कर रहे है। लेकिन कोई मीठा डालता ही कहा है खीर में।

देखो, नाम जप में उतनी तो महिमा है ही जितनी शास्त्रों में कही गयी है, बल्कि उससे भी अधिक है। परन्तु आज जो ये महिमा देखने मे नही आती वो सिर्फ और सिर्फ इसीलिए क्योंकि तुम नाम जप सही नही कर रहे हो। उस तरह से नही कर रहे हो जैसे शास्त्र में कहा गया है। जैसा सिद्धान्त कहता है वैसा नही कर रहे हो। तुम अपनी बुद्धि दौडाकर कर रहे हो। विवेकशून्य होकर कर रहे हो। फिर कहते हो कि लाभ नही होता। अनुभव नही होता। अनुभव कोई बड़ी बात नही। आज और इसी क्षण अनुभव हो जाये। इसी क्षण मुक्ति हो जाये। इसी क्षण कल्याण हो जाये। लेकिन तुम सिद्धान्त और शास्त्र की सुनते ही कहा हो।

देखो, यदि एक नाम भी भगवान का अच्छे से ले लिया जाए तो फिर कहना ही क्या? लेकिन तुम कहोगे की हम तो दिन में सेकड़ो नाम लेते है। हजारो नाम लेते है। फिर अनुभव क्यों नही होता?

तुम्हे अनुभव होगा भी नही। हो ही नही सकता। कोई करा भी नही सकता। अब अनुभव की बात करते हो तो मैं तुम्हे एक तरीका बता सकता हूँ।

नाम जप का प्रभाव तुरन्त देखने को मिलेगा। अनुभव भी होगा। रस भी आएगा। लेकिन सब तुम पर निर्भर है।

देखो, तुम जब तक सांसारिक होकर नाम जप करोगे तो जल्दी अनुभव नही होगा। बहुत देर हो जाएगी। यदि तुम पारमार्थिक होकर एक नाम भी पुकार लो तो उन भगवान की इतनी हिम्मत नही की वो तुम्हारे पास आने से मना कर दे। पर समस्या यही है। तुम सांसारिक होकर नाम जपते हो। संसार से सम्बंध मानकर जप करते हो। शरीर से सम्बंध मानकर जप करते हो। फिर ऊपर से दोष देते हो कि अनुभव नही होता।

अब जरा काम की बात करते है। सिद्धान्त और शास्त्र की बात करते है। अनुभव की बात करते है। देखो, तुम सांसारिक होकर जप कर रहे हो लेकिन रस नही आ रहा। अब पारमार्थिक हो जाओ, परमात्मा के होकर जप करो। फिर देखो, रस की धार शुरू होगी। अनन्त रस आना शुरू होगा। अनुभव भी होगा।

अब प्रश्न आता है कि पारमार्थिक कैसे बने?

देखो, इसमे बनने जैसा कुछ है ही नही। करने जैसा कुछ है ही नही। बनता तो वो है जो पहले से नही है। तुम तो पहले से ही परमात्मा के हो तो फिर इसमे बनना कैसा। बस तुम्हे मान्यता बदल लेनी है। मान्यता बदलते ही सब बदल जायेगा। अनुभव हो जाएगा।

जैसे पहले तुम संसार और शरीर से सम्बंध मानकर जप कर रहे थे वैसे अब खुद को परमात्मा का मान कर जप करो तो इसी क्षण लाभ होगा।

मीरा कहती है कि-

मेरो तो गिरधर गोपाल, दूजा न कोई।

देखो, मीरा ने कितनी सुंदर बात कही है। उसने संकेत कर दिया कि अनुभव कैसे हो। एक ही पंक्ति में मीरा सब बता गयी।

अब इस पंक्ति को देखो-

"मेरो तो गिरधर गोपाल"

ये बात तो तुम भी मानते हो। मैं भी मानता हूं। सब मानते है। सब कहते है कि मेरा तो भगवान है। लेकिन अब अगली पंक्ति में मीरा ने जो बात कही है वो तुम मानते ही नही। तुम स्वीकार ही नही करते। मीरा कहती है कि गिरधर के अलावा मेरा दूसरा कोई नही है। कोई नही है। कोई नही है।

अब तुम्हारी बात करे तो दूसरे के नाम तुम्हारे माता पिता, पुत्र, स्त्री, भाई, बहन, धन, दौलत और पता नही क्या क्या मान रखा है। यही समस्या है कि अनुभव नही होता। यदि दूजे के नाम पर जिस कोई न रहकर भगवान को अपना लो तो इसी क्षण कल्याण सम्भव है। लेकिन तुमने संसार से तो सम्बन्ध बांध रखा है और पुकार भगवान को रहे हो।

जैसे कोई बच्चा रोता है और माँ माँ चिल्लाता है तो आस पास बैठी दूसरे बच्चो की माँ उसे लेने नही आती। बल्कि उसकी माँ ही उसे संभालती है ।

क्योंकि दूसरे बच्चो की माँ को पता है कि वो अपना नही है। और जो अपना है उसे वो रोने नही देती।

यही बात तुम्हारे साथ है। परमात्मा ही हमारा है। संसार हमारा नही है। न ही शरीर हमारा है। सिर्फ ईश्वर ही हमारा है। उसके अलावा कुछ भी हमारा नही है। जिस दिन इस बात को बुद्धि में बिठा लिया उस दिन नाम जप का तुरन्त मज़ा आ जायेगा।

अब तुम कहोगे की ऐसी मान्यता एक ही बार में बिठाना बड़ा मुश्किल है। सालो पुराना रिश्ता जो संसार से मान रखा है वो अचानक कैसे बदल जाये?

देखो, जैसे किसी लड़की का विवाह होता है तो वह ससुराल की बहू बन जाती है। कोई कहे कि बहु इधर आना, तो वो तुरन्त समझ जाती है कि उसे ही कहा जा रहा है। कोई रात को भी कहे कि बहु जरा ये काम देख लेना तो वो तुरन्त उठकर काम देखती है। अभी दो दिन शादी को हुए है।

और उस लड़की की मान्यता बदल गयी। मान्यता बदल गयी। दो ही दिन में वो खुद को बहु मानने लगी है। उसे सोचना नही पड़ता कि वो बहु है या नही? बस, जैसे ही बहु कहा तो तुरंत सक्रिय हो गयी।

दो ही दिन में इतनी मान्यता बदल गयी तो फिर तुम तो ईश्वर के हो। तुम्हे तो अपने घर की तरफ जाना है। आज और इसी क्षण मान लो कि भगवान ही हमारा है, हम सिर्फ भगवान के है। भगवान के अलावा हमारा कोई नही है। फिर एक बार नाम जप करके देखो।

बस, तत्काल लाभ होगा। अनुभव होगा। बरसो से जो साधना अटकी पड़ी थी वो इसी क्षण सिद्ध हो जाएगी। बस तुम एक बार भगवान के होकर भगवान को पुकारो, सब काम हो जाएगा।

बाकी ऐसी बाते पढ़ने जरूर अच्छी लगती है। लगनी भी चाहिए। लेकिन यदि समय पर अनुसरण नही किया इन बातों का, तो यह जन्म भी जा रहा है। यह जन्म भी जा रहा है। यह जन्म भी जा रहा है। जा रहा है। जा रहा है। जा रहा है। अब पता नही कौनसी जीव योनि में जाओगे?

बैठे मत रहो। शुरू करो।

हे नाथ! मैं आपको भूलूँ नही।🙏🙏🙏


नोट- कुछ लोग मुझसे मार्गदर्शन के लिए पूछते है उनसे मैं दो पुस्तको का नाम बताना चाहूँगा-

साधन सुधा सिंधु - स्वामी रामसुखदास जी महाराज

साधक संजीवनी - स्वामी रामसुख दास जी महाराज।

हमारी भारतीय संस्कृति।।

आजकल संस्कृति का अर्थ बहुत सीमित रूप में लिया जाना लगा है। भारतीय जीवन,कला-कौशल, ज्ञान विज्ञान, हमारे सामाजिक जीवन, व्यापार, संगठनों, उत्सव, पर्व, त्यौहार आदि जिनके सम्मिलित स्वरूप से हमारी संस्कृति का बोध होता था वहाँ आज संस्कृति का अर्थ खुदाई में प्राप्त प्राचीन खण्डहरों के स्मृति-चिह्न, नृत्यांगनाओं के कार्य-क्रम, या कुछ प्राचीन तथ्यों के पढ़ने लिख लेने तक ही संस्कृति की सीमा समझ ली जाती है। प्राचीन ध्वंसावशेषों की खुदाई करके संस्कृति के बारे में तथ्य निर्णय करने के प्रयत्न पर्याप्त रूप में होते जा रहे हैं। यह सब प्राचीन इतिहास और हमारे साँस्कृतिक गौरव की जानकारी के लिए आवश्यक भी है लेकिन इन्हीं तथ्यों को संस्कृति मान लेना भारी भूल है। भारतीय संस्कृति तो एक निरन्तर विकासशील जीवनपद्धति रही है, उसे इन संकीर्णताओं में नहीं बाँधा जा सकता। इतिहास के रूप में उसे एक अंग अवश्य माना जा सकता है। 

 आजकल साँस्कृतिक कार्य-क्रमों के नाम पर नृत्य-संगीत के कार्य-क्रम होते देखे जाते है। यद्यपि नृत्य-संगीत कला, आमोद-प्रमोद भी हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं लेकिन इन्हें ही साँस्कृतिक आदर्श मानकर चलना संस्कृति के बारे में अज्ञान प्रकट करना ही है। हमारी संस्कृति केवल नाच गाने तक ही सीमित नहीं है। इसमें जहाँ आनन्द उल्लास का जीवन बिताने की छूट है वहाँ जीवन के गम्भीर दर्शन से मनुष्य को महा-मानव बनने का विधान भी है। हमारे यहाँ का ऋषि कला का साधक भी होता था, तो जीवन और जगत के सूक्ष्मतम रहस्यों का उद्गाता-दृष्टा भी । पर्व त्यौहारों के रूप में सामूहिक आनन्द उल्लास का जीवन भी बताया जाता था तो सामाजिक, राजनैतिक सुधारों पर ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में गम्भीर विचार विमर्श भी होता था। ऐसी थी हमारी संस्कृति । उसे केवल नृत्य संगीत के कार्य -क्रमों तक सीमित रखना उसके महत्व को न समझना ही है। बहुत कुछ अर्थों में संस्कृति, इतिहास की तरह पढ़ने लिखने की वस्तु मान ली गई है। हमारे दैनिक जीवन में साँस्कृतिक मूल्य नष्ट होते जा रहे हैं। संस्कृति के सम्बन्ध में खोज करने वाले स्वयं साँस्कृतिक जीवन नहीं बिताते। उनका रहन-सहन आहार-विहार जीवन-क्रम सब विपरीत ही देखे जाते हैं। 

 भारतीय संस्कृति के लिये एक सबसे बड़ा खतरा है, वह है—पाश्चात्य संस्कृति का प्रचार अभियान। इसकी शुरुआत तभी से हो गई थी जब से अंग्रेज यहाँ पर आए थे। अपने शासन काल में उन्होंने सभी प्रकार अपनी संस्कृति के प्रसार की नींव मजबूत करली। ईसाई मिशनरियों के द्वारा प्रचार और स्कूल कालेजों में शिक्षा के माध्यम से ईसाइयत का प्रसार भारत में शुरू किया और यह आज के स्वतन्त्र भारत में बढ़ा ही है कम नहीं हुआ है। 

 संस्कृति के इस प्रचार अभियान के कारण प्रतिवर्ष लाखों भारतीय ईसाई बन रहे हैं। स्वदेशी रहन-सहन, भाषा,भाव विचारों का परित्याग करके वे अपने साँस्कृतिक गौरव को भुला रहे हैं। उधर विदेशी लोग अपनी संस्कृति के प्रसार के लिए चलाए जाने वाले समस्त ईसाई चर्च, स्कूल, अस्पताल सेवा संस्थायें आदि मूल रूप में ईसाइयत के प्रचार संस्थान हैं। ये लोग भारतीयों की आस्थाओं को नष्ट करके, बहका-फुसलाकर, नौकरी, विवाह, शिक्षा तथा, अन्य वस्तुओं का लोभ देकर उन्हें अपनी संस्कृति में रंग रहे हैं। आसाम, बम्बई, महाराष्ट्र,बिहार, उड़ीसा, केरल, मध्य प्रदेश, मद्रास के आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरी पूरे जोर-शोर के साथ अपना काम कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में जाँच,पड़ताल करने पर बड़े सनसनी पूर्ण तथ्य मिलते है। 

 ईसाई स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली बहुत सी पुस्तकों में हमारी संस्कृति के आदर्श नायक राम और कृष्ण के सम्बन्ध में घृणित विचार मिलते हैं। एक पुस्तक के अनुसार वह (श्रीकृष्ण ) चोर था, उसने निरपराध धोबी का वध किया। ऐसे देवताओं की पूजा करना मूर्खता है।” इसी तरह भगवान राम के बारे में-” राम बड़ा पापी था उसने रावण का वध किया।” फिर इस तरह हिन्दू-संस्कृति के आधारों के प्रति आस्था नष्ट करके वे ईसा के प्रति भक्ति जगाते हैं। उसे मानव का कल्याणकारी बताकर लोगों को उसकी पूजा करने, ईसाई बनने का कूटनीतिक प्रयत्न इन ईसाई मिशनरियों द्वारा हमारे देश में कम नहीं चल रहा। इससे हमारी संस्कृति की नींव ही खोखली होती जा रही है। भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा भाग आज ईसाई बनकर अपनी प्रेरणा और जीवन-पद्धति का आधार पश्चिम को मानकर चलता है। ये लोग भारत में इस तरह रहते हैं मानो ये विदेशी हों। कैसी विडंबना है? 

हमारी संस्कृति के लिए विदेशियों द्वारा जहाँ ईसाइयत के प्रचार का खतरा है, उससे कम खतरा अपने स्वयं के पश्चिम अनुकरण के प्रयास का भी नहीं है। हम लोग अपने रहन-सहन जीवन-पद्धति, विचारों की प्रेरणा के लिए पश्चिम की ओर देखते हैं। उनका अनुकरण करते हैं। जहाँ तक अपनी संस्कृति का सवाल है हम उसे भूलते जा रहे हैं । आज हमारी बोली भाषा वस्त्र, रहने का ढंग विदेशी बनता जा रहा है।

स्वच्छ और सादा ढीले वस्त्र जो हमारी भौगोलिक स्वास्थ्य सम्बन्धी परिस्थितियों के अनुकूल थे उनकी जगह पश्चिम का अनुकरण करके भारी गर्मी में भी कोट पैन्ट पहनते हैं। आज का शिक्षित समाज वस्त्रों की दृष्टि से पूरा पश्चिमी बन गया है। धोती-कुर्ता पहनने में बहुत से लोगों को शर्म और संकोच महसूस होती है। पढ़े लिखे लोगों में अँग्रेजी बोलना एक फैशन बन गया है। हिन्दी, संस्कृत या अन्य देशी भाषा बोलने में मानों अपना छोटापन मालूम होता है। दिवाली आदि पर्व त्योहारों पर, किन्हीं साँस्कृतिक मेलों पर, हममें वह उत्साह नहीं रहा, लेकिन ‘फर्स्ट अप्रैल फूल’ ‘बड़ा दिन’ जैसे पश्चिमी पर्व-त्यौहार मनाने में हम अपना बड़प्पन समझते हैं। 

 एक समय था जब विश्व के विचारक साहित्यकार भारत से प्रेरणा और मार्ग-दर्शन प्राप्त करते थे। इसे अपना आदिगुरु मानते थे। इसे सभी विदेशी विद्वानों ने स्वीकार किया है। लेकिन आज हमारे देश में इससे विपरीत हो रहा है। आज हम साहित्यिक विचार साधना, के क्षेत्र में पश्चिम का अनुकरण करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हमें वहाँ के साहित्य का अध्ययन नहीं करना चाहिए यह तो किसी भी विचारशील व्यक्ति के लिए आवश्यक है, किन्तु अपने मौलिक-साँस्कृतिक तथ्यों प्रेरणाओं को भुलाकर पश्चिम का अन्धानुकरण करना हमारी संस्कृति के लिए बड़ा खतरा है। इससे वह कमजोर होती है। 

 एक सबसे बड़ी बात यह है कि हममें भारतीयता का, अपनी संस्कृति का, गौरव नष्ट होता जा रहा है। भारतीय कहलाने में हमारा सीना तन नहीं जाता। अपनी संस्कृति के प्रति हममें भक्ति भावना, निष्ठा आज नहीं रही है, ऐसी निष्ठा, जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने अनगिनत कष्ट सहे थे, बड़े-बड़े प्रलोभनों को ठोकर मार दी थी। 

 पाश्चात्य देशों ने जहाँ अपनी संस्कृति, सभ्यता के प्रचार के लिए करोड़ों रुपया बहाया है, अनेकों कष्ट सहे हैं, वहाँ हमने अपनी संस्कृति के प्रति पूरी-पूरी वफादारी भी नहीं निभायी है। काश! हमने इस सम्बन्ध में थोड़ा भी प्रयत्न किया होता तो आज संसार की स्थिति इससे भिन्न होती । ईसाइयत के स्थान पर आज भारतीय संस्कृति- मानव- संस्कृति का प्रभुत्व होता, जो संसार को तोड़ने के बजाय जोड़ती, विनाश के बजाय पालन पोषण के साधनों की खोज करती। विघटन के स्थान पर एक-सूत्रता पैदा करती। बुद्धि चातुर्य, छल छद्म कूटनीति के स्थान पर हार्दिकता बढ़ती। 

 आज के युग में हमारे लिए बहुत बड़ी चुनौती है कि हम अपनी संस्कृति को नष्ट होने से बचायें। इसके प्रति आस्थावान् बनें। साँस्कृतिक मूल्यों को अपने जीवन में उतारें। साथ ही इसका प्रचार- प्रसार भी करें। 

कृष्ण के बांसुरी बजाने पर इंसान से लेकर पशु भी मोहित ही जाते थे, तो क्या वास्तव में ध्वनि इतनी शक्तिशाली है।

इटली के तानाशाह मुसोलिनी के जीवन प्रसंग में एक ऐसी घटना है जिसे जानकर आप हिंदुत्व पर गर्व करेंगे
इटली में बसे हिंदुओं ने भारत के महान संगीतकार पंडित ओमकारनाथ ठाकुर को इटली में आमंत्रित किया था और उस वक्त इटली के तानाशाह मुसोलिनी ने पंडित ओमकारनाथ ठाकुर के सम्मान में डिनर का आयोजन किया था।

मुसोलिनी की कई प्रेमिकाओं में एक प्रेमिका बंगाली थी. जिसे संगीत का बहुत अच्छा ज्ञान था. उसने कई बार मुसोलिनी से कहा कि उसकी अनिद्रा का इलाज संगीत में है तो वो इसे मजाक मानता

 डिनर टेबल पर ही मुसोलिनी ने हिंदू धर्म का मजाक बनाते हुए कहा ओमकारनाथ ठाकुर जी मैंने सुना है कि आप के देवता भगवान श्री कृष्ण जब बांसुरी बजाते थे तब तमाम गाय उनके पास दौड़कर चली जाती थी यह कैसे सच हो सकता है आपके हिंदू धर्म में कितना गप्प लिखा गया है ?

क्योंकि मुसोलिनी बहुत क्रूर तानाशाह था इसीलिए वहां 2 मिनट के लिए सन्नाटा पसर गया

 उसके बाद पंडित ओमकारनाथ ठाकुर ने बेहद शांति से कहा यहां ना बासुरी है ना गाये हैं लेकिन मैं आपको हिंदू धर्म और हिंदू धर्म के संगीत की थोड़ी झलक दिखाता हूं

पंडित ओमकारनाथ ठाकुर जी ने डाइनिंग टेबल पर ही तमाम कप और गिलास में पानी भरकर एक जलतरंग जैसा उपकरण बनाया और राग पूरिया बजाना शुरू किया वातावरण में संगीत की ऐसी मीठी धुन पसरी की मुसोलिनी गहरी निद्रा में चला गया और 10 मिनट तक वह गहरी नींद में सोता रहा वहां उपस्थित हर सज्जन मदहोशी की अवस्था में चले गए थे

 फिर जैसे ही पंडित ओमकारनाथ ठाकुर ने राग पुरिया बजाना बंद किया मुसोलिनी नींद से जगा और पंडित जी के पैरों को पकड़कर माफी मांगी और कहा सच में आपके हिंदू धर्म में जो लिखा गया है वह सच है।

उसके बाद मुसोलिनी ने पंडित ओमकारनाथ ठाकुर को इटली नहीं छोड़ने की अपील किया उन्हें रोम में ही बसने की अपील किया और उन्हें बड़ा पद के साथ-साथ काफी बड़ी जागीर देने की पेशकश थी लेकिन पंडित ओमकारनाथ ठाकुर ने मना कर दिया

 मित्रों यह है हमारे हिंदुत्व की ताकत यह हमारे धर्म की ताकत। मुसोलिनी जैसे तानाशाह के सामने पंडित ओमकारनाथ ठाकुर ने एक ऐसा हिंदुत्व का राग बजाया जिसे मुसोलिनी भी हिंदू धर्म का लोहा मान गया

संगीत केवल मनोरंजन के लिए नहीं ये कई बीमारियों के इलाज के लिए भी प्रयोग में लाया जाता था।

अपनी इस हीन प्रवृत्ति के कारण ही मनुष्य प्रायः अशुभ विचारों और अप्रिय अवस्थाओं का चिन्तन करते रहते हैं। इसी कारण उनके मस्तिष्क में निरन्तर द्वंद्व छिड़ा रहता है। कामुकतापूर्ण विचारों वाला व्यक्ति सदैव वैसे ही विचारों से घिरा रहता है, थोड़े से विचार आत्म-कल्याण के बनाता भी है तो अनिश्चयात्मक बुद्धि के कारण तरह-तरह के संशय उठते रहते हैं। जब तक एक तरह के विचार परिपक्व नहीं होते, तब तक उस दिशा में अपेक्षित प्रयास भी नहीं बन पाते। यही कारण है कि मनुष्य किसी भी क्षेत्र में प्रगति नहीं कर पाता। 

 सद्विचार जब जागृत होते हैं तो मनुष्य का जीवन स्वस्थ, सुन्दर और सन्तोषयुक्त बनता है। अपना संकल्प जितना बलवान् बनेगा उतना ही मन की चंचलता दूर रहेगी और संयम बना रहेगा। इससे शक्ति जो मनुष्य को उत्कृष्ट बनाती है विश्रृंखलित न होगी और मनुष्य दृढ़तापूर्वक अपने निश्चय पथ पर बढ़ता चला चलेगा। 

 आप सदैव ऐसे ही काम करें जिससे आपकी आत्मा की अभिव्यक्ति हो। जिन कार्यों में आपको सन्तोष न होता हो उन्हें अपने जीवन का अंग न बनाइये। जब तक मनुष्य अपने कार्यों में मानवोचित स्वतन्त्रता की भावना का विकास नहीं करता तब तक उसकी आत्मा व्यक्त नहीं होती। दूसरों के लिये सही मार्ग-दर्शन वही दे सकता है जिसमें स्वतन्त्र रूप से विचार करने की शक्ति हो। इस शक्ति का उद्रेक मनुष्य के नैतिक साहस और उसके प्रबुद्ध मनोबल से ही होता है। बलवान् मन जब किसी शुभकर्म में संलग्न होता है तो मनुष्य का जीवन सुख और सम्पदाओं से ओत-प्रोत कर देता है। उसकी भावनायें संकीर्णताओं के बन्धन तोड़कर अनन्त तक अपने सम्बन्धों का विस्तार करती हैं। वह लघु न रहकर महान बन जाता है। अपनी इस महानता का लाभ अनेक दूसरों को दे पाने का यश-लाभ प्राप्त करता है। 

 इसलिये जीवन साधना का प्रमुख कर्तव्य यही होना चाहिये कि हमारी मानसिक चेष्टायें पतनोन्मुख न हों। मन जितना उदात्त बनेगा, जीवन उतना ही विशाल बनेगा। सुख और शान्ति मनुष्य जीवन की इसके विशालता में ही सन्निहित हैं दुःख तो मनुष्य स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों के कारण पाता है। 

 अतः अपने आपको सुधारने का प्रयत्न कीजिए। वश में किया हुआ मन ही मनुष्य का सहायक है और उससे बढ़कर अपना उद्धारकर्त्ता संसार में शायद ही कोई हो। इस परम हितैषी मन पर अनुकूल न होने का दोषारोपण लगाना उचित नहीं लगता। जिस मन पर ही मनुष्य की उन्नति या अवनति आधारित है उसे सुसंस्कारित बनाने का प्रयत्न सावधानी से करते रहना चाहिये। मन को विवेकपूर्वक समझायें तो वह माना जाता है और कल्याणकारी विषयों में रुचि लेने लगता है। यह प्रक्रिया अपने जीवन में प्रारम्भ हो तो हम जीवन लक्ष्य प्राप्ति के सही मार्ग पर चल रहे हैं, यही मानना चाहिये।

संकल्प का पौराणिक महत्व --

वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंच मण्डल क्रम वाली है। चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल, सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मण्डल का चक्कर लगा रहे हैं।
जैसी चन्द्र पृथ्वी के, प्रथ्वी सूर्य के , सूर्य परमेष्ठी के, परमेष्ठी स्वायम्भू के।

चन्द्र द्वारा पृथ्वी की एक परिक्रमा > एक मास

पृथ्वी द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा > एक वर्ष

सूर्य की परमेष्ठी (आकाश गंगा) की एक परिक्रमा >एक मन्वन्तर

परमेष्ठी (आकाश गंगा) की स्वायम्भू (ब्रह्मलोक ) की एक परिक्रमा >एक कल्प

स्वायम्भू मंडल ही ब्रह्मलोक है । स्वायम्भू का अर्थ स्वयं (भू) प्रकट होने वाला । यही ब्रह्माण्ड का उद्गम स्थल या केंद्र है ।

  ऋषियों की अद्भुत खोज

जैसा की हम उपर देख चुके है :-
अभी हम "ब्रह्मा के 51वे वर्ष के 1(पहले) दिन के 7 वे मन्वन्तर के 28 वे महायुग के 4थे युग (कलियुग)" में है ।

संकल्प

हमारे पूर्वजों ने जहां खगोलीय गति के आधार पर काल का मापन किया, वहीं काल की अनंत यात्रा और वर्तमान समय तक उसे जोड़ना तथा समाज में सर्वसामान्य व्यक्ति को इसका ध्यान रहे इस हेतु एक अद्भुत व्यवस्था भी की थी, जिसकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं जाता है। हमारे देश में कोई भी कार्य होता हो चाहे वह भूमिपूजन हो, वास्तुनिर्माण का प्रारंभ हो गृह प्रवेश हो, जन्म, विवाह या कोई भी अन्य मांगलिक कार्य हो, वह करने के पहले कुछ धार्मिक विधि करते हैं। उसमें सबसे पहले संकल्प कराया जाता है। यह संकल्प मंत्र यानी अनंत काल से आज तक की समय की स्थिति बताने वाला मंत्र है। इस दृष्टि से इस मंत्र के अर्थ पर हम ध्यान देंगे तो बात स्पष्ट हो जायेगी।-
संकल्प मंत्र में कहते हैं....

ॐ अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राहृणां द्वितीये परार्धे

अर्थात् महाविष्णु द्वारा प्रवर्तित अनंत कालचक्र में वर्तमान ब्रह्मा की आयु का द्वितीय परार्ध वर्तमान ब्रह्मा की आयु के 50 वर्ष पूरे हो गये हैं।
श्वेत वाराह कल्पे कल्प याने ब्रह्मा के 51वें वर्ष का पहला दिन है।

श्री वैवस्वतमन्वंतरे

 ब्रह्मा के दिन में 14 मन्वंतर होते हैं उसमें सातवां मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।
अष्टाविंशतितमे कलियुगे एक मन्वंतर में 71 चतुर्युगी होती हैं, उनमें से 28वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है।

कलियुगे कलि प्रथमचरणे

कलियुग का प्रारंभिक समय है।

कलिसंवते या युगाब्दे- कलिसंवत् या युगाब्द वर्तमान में 5104 चल रहा है।
जम्बु द्वीपे, ब्रह्मावर्त देशे, भारत खंडे- देश प्रदेश का नाम
अमुक स्थाने - कार्य का स्थान
अमुक संवत्सरे - संवत्सर का नाम
अमुक अयने - उत्तरायन/दक्षिणायन
अमुक ऋतौ - वसंत आदि छह ऋतु हैं
अमुक मासे - चैत्र आदि 12 मास हैं
अमुक पक्षे - पक्ष का नाम (शुक्ल या कृष्ण पक्ष)
अमुक तिथौ - तिथि का नाम
अमुक वासरे - दिन का नाम
अमुक समये - दिन में कौन सा समय

उपरोक्त में अमुक के स्थान पर क्रमश : नाम बोलने पड़ते है ।

जैसे अमुक स्थाने : में जिस स्थान पर अनुष्ठान किया जा रहा है उसका नाम बोल जाता है ।
उदहारण के लिए दिल्ली स्थाने, ग्रीष्म ऋतौ आदि |

अमुक - व्यक्ति - अपना नाम, फिर पिता का नाम, गोत्र तथा किस उद्देश्य से कौन सा काम कर रहा है, यह बोलकर संकल्प करता है।
इस प्रकार जिस समय संकल्प करता है, सृष्टि आरंभ से उस समय तक का स्मरण सहज व्यवहार में भारतीय जीवन पद्धति में इस व्यवस्था के द्वारा आया है।