शंकराचार्य जी सुबह-सुबह गंगा स्नान करने के लिए जा रहे थे। देखा कि एक नवयुवती विधवा का वेश बनाए बीच रास्ते में विलाप कर रही है और एक लाश उसकी गोद में पड़ा है। चूड़ियाँ उसने तोड़ दी हैं और मांग का सिंदूर भी पोछ दिया है। “हाय मेरा पति चला गया है। अब मैं जीकर क्या करूंगी? अरे कोई इसकी अंत्येष्टि के लिए तो आए”- ऐसा कहकर वो नवयौवना विलाप कर रही थी। वस्त्रों एवं आभूषण से ऐसा लगा रहा था कि कुछ दिन पहले ही इसका विवाह हुआ है। सुबह-सुबह यह हृदय विदारक दृष्य देख शंकराचार्य जी भी दुःखी हो गए। उनका गंगा स्नान का समय हो रहा था। अतः उस युवती से उन्होंने कहा - माता इस संसार में जो आया है, उसे जाना ही पड़ेगा। तु व्यर्थ विलाप क्यों करती है? तुम्हारा क्या था, जो तुमने खो दिया? अब जरा रास्ता दे, मुझे गंगा स्नान को जाना है। कह उठे पोथी पढ़ कर विद्वान हुए शंकराचार्य जी। बार-बार कहने पर भी जब उस युवती ने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया,तो शंकराचार्य जी खीझ उठे – “माता मेरी बात पर ध्यान क्यों नहीं देती, जरा इस शव को बगल कर मुझे रास्ता दे।” इस पर वह युवती बोली - देखते नहीं मेरा पति अभी-अभी मरा है। मुझ असहाय युवती से अकेले यह कैसे हटेगा? मेरे परिवार वाले आते होंगे, वे इसकी अंत्येष्टि के लिए ले जायेंगे।
मेरे पास इतना समय नहीं है, माँ।
तु तो बलिष्ठ है, तु ही इन्हें एक किनारे कर दे।
मैं संन्यासी हुँ माँ, किसी सांसारिक व्यक्ति के लाश को भला मैं कैसे स्पर्ष करूं?- शंकराचार्य जी बोले।
अब उस युवती का चेहरा तमतमा उठा। बोली – “तब तो केवल एक ही रास्ता है, संन्यासी जी, आप खुद इस शव को कह दीजिए कि यह रास्ते से एक ओर हट जाए।”
शंकराचार्य जी और भी विस्मय में पड़ गए। ‘भला ऐसे कैसे हो सकता है। कहीं लाश भी स्वयं चल सकती है। तब वह युवती बोल उठी – “क्यों शंकर के शिष्य शंकराचार्य जी। आप ही तो कहते थे, ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। जिस प्रकार मिट्टी से बनी हुई वस्तु मिट्टी की ही कही जाएगी, उसी प्रकार ब्रह्म की कृति भी तो ब्रह्म ही है। तो फिर अपने ब्रह्म से क्यों नहीं कह देते कि एक ओर हट जाए। शक्ति नहीं रही इसके शरीर में तो क्या हुआ? अब भी तो यह शिव की ही कृति है।”
अब शंकराचार्य जी की आंखें खुली। गिर उठे उस युवती के चरणों में क्षमा मांगते हुए। “पहचान नहीं पाया माँ। क्षमा करो। तुम्हीं एक मात्र इस संसार समेत संपूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करने वाली हो। यह जगत मिथ्या नहीं माँ, तेरी लीला का विलास मात्र है। तू शिव के अधीन नहीं जगदम्बा, बल्कि शिव तेरे अधीन हैं। मैं जान गया माँ कि शक्ति जब शिव से निकल जाए तो वह केवल शव रह जाता है। शिव तेरे बिना स्वतंत्र कुछ भी करने में असमर्थ है, माँ। बार-बार क्षमा मांगता हूँ महादेवी। क्षमस्व अपराधम्-क्षमस्व अपराधम्। ऐसा कहते हुए बार-बार रोने लगे, उस युवती के चरणों में गिरकर शंकराचार्य जी। जो ज्ञान उन्हें पूरी जींदगी में प्राप्त न हुआ था, वह कुछ ही देर में उन्हें प्राप्त हो गया और कह उठे – “त्वमेका भवानी त्वमेका।” अब तक का प्राप्त सारा ज्ञान उन्हें तुच्छ प्रतीत होने लगा। अब वहाँ न वह युवती थी और न वह शव। वहाँ साक्षात् त्रिशुल एवं चक्र धारण किए जगदम्बा थीं। शिव की नगरी में शक्ति ने लीला दिखा ही दी और सत्य-सनातन वैदिक धर्म की रक्षा हेतु मठों की स्थापना की आज्ञा दी। कालांतर में भगवती की आज्ञा पाकर शंकराचार्य जी ने भारत वर्ष में चारों दिषाओं में चार मठों एवं अनेक उपमठों की स्थापना की और वहाँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी एवं उनके विविध स्वरूपों की पूजा का विधान किया। सर्वप्रथम कांचीकामपुरम् पीठ की स्थापना हुई। इस मठ की स्थापना के पूर्व माता जगदम्बा ने फिर एक बार लीला रची। जहाँ आज कांचीकामपुरम् का मठ है, वहाँ शंकराचार्य जी ने एक आधी रात को बड़ी विचित्र लीला देखी। देखा कि एक विशाल महान विषधर सर्प फन ताने बैठा है, और वह एक गर्भिनी मेंढकी की रक्षा कर रहा है। समझ गए शंकराचार्य जी आदि शक्ति माता जगदम्बा की लीला को, कि सत्य-सनातन धर्म की रक्षा स्वयं भगवती ही कर रही हैं। बस हो गया सनातन धर्म की रक्षा हेतु सर्वोत्तम भूमि का चयन, जिसे स्वयं भगवती ने ही चुन कर दिया था। जिस जगह पर भय प्रदाता भी रक्षात्मक हो जाए, वही है सनातन धर्म की स्थापना का केंद्र बिंदु। मृत्यु भी जहाँ जीवन में परिवर्तित हो जाए। भक्षक भी रक्षक हो जाए।
अगर महालक्ष्मी न हो तो भला विष्णु की पूजा कौन करेगा? चंद्रमा में शीतल चांदनी न हो तो चंद्रमा का क्या महत्व? अग्नि में दाहक शक्ति न हो तो अग्नि की क्या आवष्यकता? और फिर शंकराचार्य जी ने सौन्दर्य लहरी की रचना कर माता त्रिपुरसुन्दरी के महातिशय अगम्य महासौन्दर्य का दिव्य वर्णन् किया और उनकी प्रंशसा में यह लिखा कि – “हे माँ, माता महात्रिपुरसुन्दरी, अगर तुम न हो तो भस्म रमाये, बुढ़े बैल की सवारी करने वाले शिव
को भला कौन पूजेगा?भगवान शिव का वास्तविक सौन्दर्य हे माँ बस आप ही हैं।
यह सही है कि आज धर्म में कुछ अवांछनीय तत्वों का प्रवेश हो गया है। जेल से छूटे हुए अपराधी भी संत होने का स्वांग रच रहे हैं। चोरी एवं पॉकेटमारी करने वाले लोग भी माया अति ठगिनी का संदेश दे रहे हैं। जीवन भर लड़कियों के पीछे घुमने वाले पापी भी बुढ़ापे में ब्रह्मचर्य का उपदेश दे रहे हैं। कुछ पैसे के लिए किसी का भी गला काट लेने वाले जेल से छूटने के बाद सत्य-अहिंसा का संदेश देते हैं। ऐसे कुछ मुठ्ठी भर पापियों के कारण पूरे संत समाज को बदनाम करना कतई उचित नहीं। अगर कुछ नाले गंगा में मिल जाये, तो गंगा की पवित्रता समाप्त नहीं होगी। हाँ समाज से ऐसे पापियों को निकालना ही होगा।
भगवती त्रिपुरसुन्दरी पंचप्रेतासिना हैं। ब्रह्मा, विष्णु,रुद्र एवं ईश्वर स्तम्भ हैं, तथा सदाशिव फलक हैं, और इन सबके ऊपर भगवती त्रिपुरसुन्दरी आसीन हैं। इसी प्रकार भारतीय सभ्यता संस्कृति के पांच आधार स्तम्भ हैं – गंगा, गाय, गीता, गायत्री और गुरू। इनके बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती।