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हमारी भारतीय संस्कृति।।

आजकल संस्कृति का अर्थ बहुत सीमित रूप में लिया जाना लगा है। भारतीय जीवन,कला-कौशल, ज्ञान विज्ञान, हमारे सामाजिक जीवन, व्यापार, संगठनों, उत्सव, पर्व, त्यौहार आदि जिनके सम्मिलित स्वरूप से हमारी संस्कृति का बोध होता था वहाँ आज संस्कृति का अर्थ खुदाई में प्राप्त प्राचीन खण्डहरों के स्मृति-चिह्न, नृत्यांगनाओं के कार्य-क्रम, या कुछ प्राचीन तथ्यों के पढ़ने लिख लेने तक ही संस्कृति की सीमा समझ ली जाती है। प्राचीन ध्वंसावशेषों की खुदाई करके संस्कृति के बारे में तथ्य निर्णय करने के प्रयत्न पर्याप्त रूप में होते जा रहे हैं। यह सब प्राचीन इतिहास और हमारे साँस्कृतिक गौरव की जानकारी के लिए आवश्यक भी है लेकिन इन्हीं तथ्यों को संस्कृति मान लेना भारी भूल है। भारतीय संस्कृति तो एक निरन्तर विकासशील जीवनपद्धति रही है, उसे इन संकीर्णताओं में नहीं बाँधा जा सकता। इतिहास के रूप में उसे एक अंग अवश्य माना जा सकता है। 

 आजकल साँस्कृतिक कार्य-क्रमों के नाम पर नृत्य-संगीत के कार्य-क्रम होते देखे जाते है। यद्यपि नृत्य-संगीत कला, आमोद-प्रमोद भी हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं लेकिन इन्हें ही साँस्कृतिक आदर्श मानकर चलना संस्कृति के बारे में अज्ञान प्रकट करना ही है। हमारी संस्कृति केवल नाच गाने तक ही सीमित नहीं है। इसमें जहाँ आनन्द उल्लास का जीवन बिताने की छूट है वहाँ जीवन के गम्भीर दर्शन से मनुष्य को महा-मानव बनने का विधान भी है। हमारे यहाँ का ऋषि कला का साधक भी होता था, तो जीवन और जगत के सूक्ष्मतम रहस्यों का उद्गाता-दृष्टा भी । पर्व त्यौहारों के रूप में सामूहिक आनन्द उल्लास का जीवन भी बताया जाता था तो सामाजिक, राजनैतिक सुधारों पर ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में गम्भीर विचार विमर्श भी होता था। ऐसी थी हमारी संस्कृति । उसे केवल नृत्य संगीत के कार्य -क्रमों तक सीमित रखना उसके महत्व को न समझना ही है। बहुत कुछ अर्थों में संस्कृति, इतिहास की तरह पढ़ने लिखने की वस्तु मान ली गई है। हमारे दैनिक जीवन में साँस्कृतिक मूल्य नष्ट होते जा रहे हैं। संस्कृति के सम्बन्ध में खोज करने वाले स्वयं साँस्कृतिक जीवन नहीं बिताते। उनका रहन-सहन आहार-विहार जीवन-क्रम सब विपरीत ही देखे जाते हैं। 

 भारतीय संस्कृति के लिये एक सबसे बड़ा खतरा है, वह है—पाश्चात्य संस्कृति का प्रचार अभियान। इसकी शुरुआत तभी से हो गई थी जब से अंग्रेज यहाँ पर आए थे। अपने शासन काल में उन्होंने सभी प्रकार अपनी संस्कृति के प्रसार की नींव मजबूत करली। ईसाई मिशनरियों के द्वारा प्रचार और स्कूल कालेजों में शिक्षा के माध्यम से ईसाइयत का प्रसार भारत में शुरू किया और यह आज के स्वतन्त्र भारत में बढ़ा ही है कम नहीं हुआ है। 

 संस्कृति के इस प्रचार अभियान के कारण प्रतिवर्ष लाखों भारतीय ईसाई बन रहे हैं। स्वदेशी रहन-सहन, भाषा,भाव विचारों का परित्याग करके वे अपने साँस्कृतिक गौरव को भुला रहे हैं। उधर विदेशी लोग अपनी संस्कृति के प्रसार के लिए चलाए जाने वाले समस्त ईसाई चर्च, स्कूल, अस्पताल सेवा संस्थायें आदि मूल रूप में ईसाइयत के प्रचार संस्थान हैं। ये लोग भारतीयों की आस्थाओं को नष्ट करके, बहका-फुसलाकर, नौकरी, विवाह, शिक्षा तथा, अन्य वस्तुओं का लोभ देकर उन्हें अपनी संस्कृति में रंग रहे हैं। आसाम, बम्बई, महाराष्ट्र,बिहार, उड़ीसा, केरल, मध्य प्रदेश, मद्रास के आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरी पूरे जोर-शोर के साथ अपना काम कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में जाँच,पड़ताल करने पर बड़े सनसनी पूर्ण तथ्य मिलते है। 

 ईसाई स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली बहुत सी पुस्तकों में हमारी संस्कृति के आदर्श नायक राम और कृष्ण के सम्बन्ध में घृणित विचार मिलते हैं। एक पुस्तक के अनुसार वह (श्रीकृष्ण ) चोर था, उसने निरपराध धोबी का वध किया। ऐसे देवताओं की पूजा करना मूर्खता है।” इसी तरह भगवान राम के बारे में-” राम बड़ा पापी था उसने रावण का वध किया।” फिर इस तरह हिन्दू-संस्कृति के आधारों के प्रति आस्था नष्ट करके वे ईसा के प्रति भक्ति जगाते हैं। उसे मानव का कल्याणकारी बताकर लोगों को उसकी पूजा करने, ईसाई बनने का कूटनीतिक प्रयत्न इन ईसाई मिशनरियों द्वारा हमारे देश में कम नहीं चल रहा। इससे हमारी संस्कृति की नींव ही खोखली होती जा रही है। भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा भाग आज ईसाई बनकर अपनी प्रेरणा और जीवन-पद्धति का आधार पश्चिम को मानकर चलता है। ये लोग भारत में इस तरह रहते हैं मानो ये विदेशी हों। कैसी विडंबना है? 

हमारी संस्कृति के लिए विदेशियों द्वारा जहाँ ईसाइयत के प्रचार का खतरा है, उससे कम खतरा अपने स्वयं के पश्चिम अनुकरण के प्रयास का भी नहीं है। हम लोग अपने रहन-सहन जीवन-पद्धति, विचारों की प्रेरणा के लिए पश्चिम की ओर देखते हैं। उनका अनुकरण करते हैं। जहाँ तक अपनी संस्कृति का सवाल है हम उसे भूलते जा रहे हैं । आज हमारी बोली भाषा वस्त्र, रहने का ढंग विदेशी बनता जा रहा है।

स्वच्छ और सादा ढीले वस्त्र जो हमारी भौगोलिक स्वास्थ्य सम्बन्धी परिस्थितियों के अनुकूल थे उनकी जगह पश्चिम का अनुकरण करके भारी गर्मी में भी कोट पैन्ट पहनते हैं। आज का शिक्षित समाज वस्त्रों की दृष्टि से पूरा पश्चिमी बन गया है। धोती-कुर्ता पहनने में बहुत से लोगों को शर्म और संकोच महसूस होती है। पढ़े लिखे लोगों में अँग्रेजी बोलना एक फैशन बन गया है। हिन्दी, संस्कृत या अन्य देशी भाषा बोलने में मानों अपना छोटापन मालूम होता है। दिवाली आदि पर्व त्योहारों पर, किन्हीं साँस्कृतिक मेलों पर, हममें वह उत्साह नहीं रहा, लेकिन ‘फर्स्ट अप्रैल फूल’ ‘बड़ा दिन’ जैसे पश्चिमी पर्व-त्यौहार मनाने में हम अपना बड़प्पन समझते हैं। 

 एक समय था जब विश्व के विचारक साहित्यकार भारत से प्रेरणा और मार्ग-दर्शन प्राप्त करते थे। इसे अपना आदिगुरु मानते थे। इसे सभी विदेशी विद्वानों ने स्वीकार किया है। लेकिन आज हमारे देश में इससे विपरीत हो रहा है। आज हम साहित्यिक विचार साधना, के क्षेत्र में पश्चिम का अनुकरण करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हमें वहाँ के साहित्य का अध्ययन नहीं करना चाहिए यह तो किसी भी विचारशील व्यक्ति के लिए आवश्यक है, किन्तु अपने मौलिक-साँस्कृतिक तथ्यों प्रेरणाओं को भुलाकर पश्चिम का अन्धानुकरण करना हमारी संस्कृति के लिए बड़ा खतरा है। इससे वह कमजोर होती है। 

 एक सबसे बड़ी बात यह है कि हममें भारतीयता का, अपनी संस्कृति का, गौरव नष्ट होता जा रहा है। भारतीय कहलाने में हमारा सीना तन नहीं जाता। अपनी संस्कृति के प्रति हममें भक्ति भावना, निष्ठा आज नहीं रही है, ऐसी निष्ठा, जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने अनगिनत कष्ट सहे थे, बड़े-बड़े प्रलोभनों को ठोकर मार दी थी। 

 पाश्चात्य देशों ने जहाँ अपनी संस्कृति, सभ्यता के प्रचार के लिए करोड़ों रुपया बहाया है, अनेकों कष्ट सहे हैं, वहाँ हमने अपनी संस्कृति के प्रति पूरी-पूरी वफादारी भी नहीं निभायी है। काश! हमने इस सम्बन्ध में थोड़ा भी प्रयत्न किया होता तो आज संसार की स्थिति इससे भिन्न होती । ईसाइयत के स्थान पर आज भारतीय संस्कृति- मानव- संस्कृति का प्रभुत्व होता, जो संसार को तोड़ने के बजाय जोड़ती, विनाश के बजाय पालन पोषण के साधनों की खोज करती। विघटन के स्थान पर एक-सूत्रता पैदा करती। बुद्धि चातुर्य, छल छद्म कूटनीति के स्थान पर हार्दिकता बढ़ती। 

 आज के युग में हमारे लिए बहुत बड़ी चुनौती है कि हम अपनी संस्कृति को नष्ट होने से बचायें। इसके प्रति आस्थावान् बनें। साँस्कृतिक मूल्यों को अपने जीवन में उतारें। साथ ही इसका प्रचार- प्रसार भी करें। 

कृष्ण के बांसुरी बजाने पर इंसान से लेकर पशु भी मोहित ही जाते थे, तो क्या वास्तव में ध्वनि इतनी शक्तिशाली है।

इटली के तानाशाह मुसोलिनी के जीवन प्रसंग में एक ऐसी घटना है जिसे जानकर आप हिंदुत्व पर गर्व करेंगे
इटली में बसे हिंदुओं ने भारत के महान संगीतकार पंडित ओमकारनाथ ठाकुर को इटली में आमंत्रित किया था और उस वक्त इटली के तानाशाह मुसोलिनी ने पंडित ओमकारनाथ ठाकुर के सम्मान में डिनर का आयोजन किया था।

मुसोलिनी की कई प्रेमिकाओं में एक प्रेमिका बंगाली थी. जिसे संगीत का बहुत अच्छा ज्ञान था. उसने कई बार मुसोलिनी से कहा कि उसकी अनिद्रा का इलाज संगीत में है तो वो इसे मजाक मानता

 डिनर टेबल पर ही मुसोलिनी ने हिंदू धर्म का मजाक बनाते हुए कहा ओमकारनाथ ठाकुर जी मैंने सुना है कि आप के देवता भगवान श्री कृष्ण जब बांसुरी बजाते थे तब तमाम गाय उनके पास दौड़कर चली जाती थी यह कैसे सच हो सकता है आपके हिंदू धर्म में कितना गप्प लिखा गया है ?

क्योंकि मुसोलिनी बहुत क्रूर तानाशाह था इसीलिए वहां 2 मिनट के लिए सन्नाटा पसर गया

 उसके बाद पंडित ओमकारनाथ ठाकुर ने बेहद शांति से कहा यहां ना बासुरी है ना गाये हैं लेकिन मैं आपको हिंदू धर्म और हिंदू धर्म के संगीत की थोड़ी झलक दिखाता हूं

पंडित ओमकारनाथ ठाकुर जी ने डाइनिंग टेबल पर ही तमाम कप और गिलास में पानी भरकर एक जलतरंग जैसा उपकरण बनाया और राग पूरिया बजाना शुरू किया वातावरण में संगीत की ऐसी मीठी धुन पसरी की मुसोलिनी गहरी निद्रा में चला गया और 10 मिनट तक वह गहरी नींद में सोता रहा वहां उपस्थित हर सज्जन मदहोशी की अवस्था में चले गए थे

 फिर जैसे ही पंडित ओमकारनाथ ठाकुर ने राग पुरिया बजाना बंद किया मुसोलिनी नींद से जगा और पंडित जी के पैरों को पकड़कर माफी मांगी और कहा सच में आपके हिंदू धर्म में जो लिखा गया है वह सच है।

उसके बाद मुसोलिनी ने पंडित ओमकारनाथ ठाकुर को इटली नहीं छोड़ने की अपील किया उन्हें रोम में ही बसने की अपील किया और उन्हें बड़ा पद के साथ-साथ काफी बड़ी जागीर देने की पेशकश थी लेकिन पंडित ओमकारनाथ ठाकुर ने मना कर दिया

 मित्रों यह है हमारे हिंदुत्व की ताकत यह हमारे धर्म की ताकत। मुसोलिनी जैसे तानाशाह के सामने पंडित ओमकारनाथ ठाकुर ने एक ऐसा हिंदुत्व का राग बजाया जिसे मुसोलिनी भी हिंदू धर्म का लोहा मान गया

संगीत केवल मनोरंजन के लिए नहीं ये कई बीमारियों के इलाज के लिए भी प्रयोग में लाया जाता था।

अपनी इस हीन प्रवृत्ति के कारण ही मनुष्य प्रायः अशुभ विचारों और अप्रिय अवस्थाओं का चिन्तन करते रहते हैं। इसी कारण उनके मस्तिष्क में निरन्तर द्वंद्व छिड़ा रहता है। कामुकतापूर्ण विचारों वाला व्यक्ति सदैव वैसे ही विचारों से घिरा रहता है, थोड़े से विचार आत्म-कल्याण के बनाता भी है तो अनिश्चयात्मक बुद्धि के कारण तरह-तरह के संशय उठते रहते हैं। जब तक एक तरह के विचार परिपक्व नहीं होते, तब तक उस दिशा में अपेक्षित प्रयास भी नहीं बन पाते। यही कारण है कि मनुष्य किसी भी क्षेत्र में प्रगति नहीं कर पाता। 

 सद्विचार जब जागृत होते हैं तो मनुष्य का जीवन स्वस्थ, सुन्दर और सन्तोषयुक्त बनता है। अपना संकल्प जितना बलवान् बनेगा उतना ही मन की चंचलता दूर रहेगी और संयम बना रहेगा। इससे शक्ति जो मनुष्य को उत्कृष्ट बनाती है विश्रृंखलित न होगी और मनुष्य दृढ़तापूर्वक अपने निश्चय पथ पर बढ़ता चला चलेगा। 

 आप सदैव ऐसे ही काम करें जिससे आपकी आत्मा की अभिव्यक्ति हो। जिन कार्यों में आपको सन्तोष न होता हो उन्हें अपने जीवन का अंग न बनाइये। जब तक मनुष्य अपने कार्यों में मानवोचित स्वतन्त्रता की भावना का विकास नहीं करता तब तक उसकी आत्मा व्यक्त नहीं होती। दूसरों के लिये सही मार्ग-दर्शन वही दे सकता है जिसमें स्वतन्त्र रूप से विचार करने की शक्ति हो। इस शक्ति का उद्रेक मनुष्य के नैतिक साहस और उसके प्रबुद्ध मनोबल से ही होता है। बलवान् मन जब किसी शुभकर्म में संलग्न होता है तो मनुष्य का जीवन सुख और सम्पदाओं से ओत-प्रोत कर देता है। उसकी भावनायें संकीर्णताओं के बन्धन तोड़कर अनन्त तक अपने सम्बन्धों का विस्तार करती हैं। वह लघु न रहकर महान बन जाता है। अपनी इस महानता का लाभ अनेक दूसरों को दे पाने का यश-लाभ प्राप्त करता है। 

 इसलिये जीवन साधना का प्रमुख कर्तव्य यही होना चाहिये कि हमारी मानसिक चेष्टायें पतनोन्मुख न हों। मन जितना उदात्त बनेगा, जीवन उतना ही विशाल बनेगा। सुख और शान्ति मनुष्य जीवन की इसके विशालता में ही सन्निहित हैं दुःख तो मनुष्य स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों के कारण पाता है। 

 अतः अपने आपको सुधारने का प्रयत्न कीजिए। वश में किया हुआ मन ही मनुष्य का सहायक है और उससे बढ़कर अपना उद्धारकर्त्ता संसार में शायद ही कोई हो। इस परम हितैषी मन पर अनुकूल न होने का दोषारोपण लगाना उचित नहीं लगता। जिस मन पर ही मनुष्य की उन्नति या अवनति आधारित है उसे सुसंस्कारित बनाने का प्रयत्न सावधानी से करते रहना चाहिये। मन को विवेकपूर्वक समझायें तो वह माना जाता है और कल्याणकारी विषयों में रुचि लेने लगता है। यह प्रक्रिया अपने जीवन में प्रारम्भ हो तो हम जीवन लक्ष्य प्राप्ति के सही मार्ग पर चल रहे हैं, यही मानना चाहिये।

संकल्प का पौराणिक महत्व --

वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंच मण्डल क्रम वाली है। चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल, सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मण्डल का चक्कर लगा रहे हैं।
जैसी चन्द्र पृथ्वी के, प्रथ्वी सूर्य के , सूर्य परमेष्ठी के, परमेष्ठी स्वायम्भू के।

चन्द्र द्वारा पृथ्वी की एक परिक्रमा > एक मास

पृथ्वी द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा > एक वर्ष

सूर्य की परमेष्ठी (आकाश गंगा) की एक परिक्रमा >एक मन्वन्तर

परमेष्ठी (आकाश गंगा) की स्वायम्भू (ब्रह्मलोक ) की एक परिक्रमा >एक कल्प

स्वायम्भू मंडल ही ब्रह्मलोक है । स्वायम्भू का अर्थ स्वयं (भू) प्रकट होने वाला । यही ब्रह्माण्ड का उद्गम स्थल या केंद्र है ।

  ऋषियों की अद्भुत खोज

जैसा की हम उपर देख चुके है :-
अभी हम "ब्रह्मा के 51वे वर्ष के 1(पहले) दिन के 7 वे मन्वन्तर के 28 वे महायुग के 4थे युग (कलियुग)" में है ।

संकल्प

हमारे पूर्वजों ने जहां खगोलीय गति के आधार पर काल का मापन किया, वहीं काल की अनंत यात्रा और वर्तमान समय तक उसे जोड़ना तथा समाज में सर्वसामान्य व्यक्ति को इसका ध्यान रहे इस हेतु एक अद्भुत व्यवस्था भी की थी, जिसकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं जाता है। हमारे देश में कोई भी कार्य होता हो चाहे वह भूमिपूजन हो, वास्तुनिर्माण का प्रारंभ हो गृह प्रवेश हो, जन्म, विवाह या कोई भी अन्य मांगलिक कार्य हो, वह करने के पहले कुछ धार्मिक विधि करते हैं। उसमें सबसे पहले संकल्प कराया जाता है। यह संकल्प मंत्र यानी अनंत काल से आज तक की समय की स्थिति बताने वाला मंत्र है। इस दृष्टि से इस मंत्र के अर्थ पर हम ध्यान देंगे तो बात स्पष्ट हो जायेगी।-
संकल्प मंत्र में कहते हैं....

ॐ अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राहृणां द्वितीये परार्धे

अर्थात् महाविष्णु द्वारा प्रवर्तित अनंत कालचक्र में वर्तमान ब्रह्मा की आयु का द्वितीय परार्ध वर्तमान ब्रह्मा की आयु के 50 वर्ष पूरे हो गये हैं।
श्वेत वाराह कल्पे कल्प याने ब्रह्मा के 51वें वर्ष का पहला दिन है।

श्री वैवस्वतमन्वंतरे

 ब्रह्मा के दिन में 14 मन्वंतर होते हैं उसमें सातवां मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।
अष्टाविंशतितमे कलियुगे एक मन्वंतर में 71 चतुर्युगी होती हैं, उनमें से 28वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है।

कलियुगे कलि प्रथमचरणे

कलियुग का प्रारंभिक समय है।

कलिसंवते या युगाब्दे- कलिसंवत् या युगाब्द वर्तमान में 5104 चल रहा है।
जम्बु द्वीपे, ब्रह्मावर्त देशे, भारत खंडे- देश प्रदेश का नाम
अमुक स्थाने - कार्य का स्थान
अमुक संवत्सरे - संवत्सर का नाम
अमुक अयने - उत्तरायन/दक्षिणायन
अमुक ऋतौ - वसंत आदि छह ऋतु हैं
अमुक मासे - चैत्र आदि 12 मास हैं
अमुक पक्षे - पक्ष का नाम (शुक्ल या कृष्ण पक्ष)
अमुक तिथौ - तिथि का नाम
अमुक वासरे - दिन का नाम
अमुक समये - दिन में कौन सा समय

उपरोक्त में अमुक के स्थान पर क्रमश : नाम बोलने पड़ते है ।

जैसे अमुक स्थाने : में जिस स्थान पर अनुष्ठान किया जा रहा है उसका नाम बोल जाता है ।
उदहारण के लिए दिल्ली स्थाने, ग्रीष्म ऋतौ आदि |

अमुक - व्यक्ति - अपना नाम, फिर पिता का नाम, गोत्र तथा किस उद्देश्य से कौन सा काम कर रहा है, यह बोलकर संकल्प करता है।
इस प्रकार जिस समय संकल्प करता है, सृष्टि आरंभ से उस समय तक का स्मरण सहज व्यवहार में भारतीय जीवन पद्धति में इस व्यवस्था के द्वारा आया है।

हवन शब्द की परिभाषा महत्वपूर्ण व्याख्या ।।

हवन अथवा यज्ञ भारतीय परंपरा अथवा हिंदू धर्म में शुद्धीकरण का एक कर्मकांड है। कुण्ड में अग्नि के माध्यम से ईश्वर की उपासना करने की प्रक्रिया को यज्ञ कहते हैं। हवि, हव्य अथवा हविष्य वह पदार्थ हैं जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है (जो अग्नि में डाले जाते हैं).हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित करने के पश्चात इस पवित्र अग्नि में फल, शहद, घी, काष्ठ इत्यादि पदार्थों की आहुति प्रमुख होती है। वायु प्रदूषण को कम करने के लिए भारत देश में विद्वान लोग यज्ञ किया करते थे और तब हमारे देश में कई तरह के रोग नहीं होते थे । शुभकामना, स्वास्थ्य एवं समृद्धि इत्यादि के लिए भी हवन किया जाता है। अग्नि किसी भी पदार्थ के गुणों को कई गुना बढ़ा देती है । जैसे अग्नि में अगर मिर्च डाल दी जाए तो उस मिर्च का प्रभाव बढ़ कर कई लोगो को दुख पहुंचाता है उसी प्रकार अग्नि 

 हवन कुंड 
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हवन कुंड का अर्थ है हवन की अग्नि का निवास-स्थान। 

कितना बडा हो हवन कुंड ❓

प्राचीन काल में कुण्ड चौकोर खोदे जाते थे, उनकी लम्बाई, चौड़ाई समान होती थी। यह इसलिए था कि उन दिनों भरपूर समिधाएँ प्रयुक्त होती थीं, घी और सामग्री भी बहुत-बहुत होमी जाती थी, फलस्वरूप अग्नि की प्रचण्डता भी अधिक रहती थी। उसे नियंत्रण में रखने के लिए भूमि के भीतर अधिक जगह रहना आवश्यक था। 

उस स्थिति में चौकोर कुण्ड ही उपयुक्त थे। पर आज समिधा, घी, सामग्री सभी में अत्यधिक मँहगाई के कारण किफायत करनी पड़ती है। ऐसी दशा में चौकोर कुण्डों में थोड़ी ही अग्नि जल पाती है और वह ऊपर अच्छी तरह दिखाई भी नहीं पड़ती। ऊपर तक भर कर भी वे नहीं आते तो कुरूप लगते हैं। 

अतएव आज की स्थिति में कुण्ड इस प्रकार बनने चाहिए कि बाहर से चौकोर रहें, लम्बाई, चौड़ाई गहराई समान हो। पर उन्हें भीतर तिरछा बनाया जाय। लम्बाई, चौड़ाई चौबीच-चौबीस अँगुल हो तो गहराई भी 24 अँगुल तो रखना चाहिये पर उसमें तिरछापन इस तरह देना चाहिये कि पेंदा छः-छः अँगुल लम्बा चौड़ा रह जाय। 

इस प्रकार के बने हुए कुण्ड समिधाओं से प्रज्ज्वलित रहते हैं, उनमें अग्नि बुझती नहीं। थोड़ी सामग्री से ही कुण्ड ऊपर तक भर जाता है और अग्निदेव के दर्शन सभी को आसानी से होने लगते हैं। 

 पचास अथवा सौ आहुति देनी हो तो 
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कुहनी से कनिष्ठा तक के माप का (१ फुट ३ इंच) कुण्ड बनाना, एक हजार आहुति में एक हस्तप्रमाण (१ फुट ६ इंच) का, एक लक्ष आहुति में चार हाथ का (६ फुट), दस लक्ष आहुति में छः हाथ (९ फुट) का तथा कोटि आहुति में ८ हाथ का (१२ फुट) अथवा सोलह हाथ का कुण्ड बनाना चाहिये। भविष्योत्तर पुराण में पचास आहुति के लिये मुष्टिमात्र का भी र्निदेश है। 

 कितने हवन कुंड बनाये जायें ?
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कुण्डों की संख्या अधिक बनाना इसलिए आवश्यक होता है कि अधिक व्यक्ति यों को कम समय में निर्धारित आहुतियाँ दे सकना सम्भव हो, एक ही कुण्ड हो तो एक बार में नौ व्यक्ति बैठते हैं। 

यदि एक ही कुण्ड होता है, तो पूर्व दिशा में वेदी पर एक कलश की स्थापना होने से शेष तीन दिशाओं में ही याज्ञिक बैठते हैं। 

प्रत्येक दिशा में तीन व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं। यदि कुण्डों की संख्या 5 हैं तो प्रमुख कुण्ड को छोड़कर शेष 4 पर 12-12 व्यक्ति भी बिठाये जा सकते हैं। 

संख्या कम हो तो चारों दिशाओं में उसी हिसाब से 4, 4 भी बिठा कर कार्य पूरा किया जा सकता है। यही क्रम 9 कुण्डों की यज्ञशाला में रह सकता है। 

प्रमुख कुण्ड पर 9 और शेष ८ पर 12x8 अर्थात 96+ 9 =105 व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं। संख्या कम हो तो कुण्डों पर उन्हें कम-कम बिठाया जा सकता है। 

  समिधा (लकड़ी) 
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समिधा का अर्थ है वह लकड़ी जिसे जलाकर यज्ञ किया जाए अथवा जिसे यज्ञ में डाला जाए . 

 नवग्रह(शान्ति) के लिये 
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यदि नवग्रहों की शांति के लिए हवन किया जा रहा है तो प्रत्येक ग्रह के अनुसार अलग-अलग समिधा का उपयोग किया जाता है। 

--- सूर्य के लिए मदार, 
--- चंद्र के लिए पलाश,  
--- मंगल के लिए खेर, 
--- बुध के लिए चिड़चिड़ा, 
--- गुरु के लिए पीपल, 
--- शुक्र के लिए गूलर, 
--- शनि के लिए शमी, 
--- राहु के लिए दूर्वा और 

--- केतु के लिए कुशा की समिधा हवन में प्रयुक्त की जाती है। 
--- मदान की समिधा रोगों का नाश करती है। 

--- पलाश की समिधा सभी कार्यों में उन्नति, लाभ देने वाली है। 

--- पीपल की समिधा संतान, वंश वृद्धि 
--- गूलर की स्वर्ण प्रदान करने वाली, 
--- शमी की पाप नाश करने वाली, 
--- दूर्वा की दीर्घायु प्रदान करती है और 

--- कुशा की समिधा सभी मनोरथ सिद्ध करने के लिए प्रयोग की जानी चाहिए।

अन्य समस्त देवताओं के लिए आम, पलाश, अशोक, चंदन आदि वृक्ष की समिधा हवन में डाली जाती है।
इनके अतिरिक्त देवताओं के लिए पलाश वृक्ष की समिधा जाननी चाहिए।

ऋतुओं के अनुसार समिधा (लकड़ी)
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यज्ञीय पद्धति में ऋतुओं के अनुसार समिधा उपयोग करने के लिए भी स्पष्ट नियम बताए गए हैं। जैसे 

--- वसंत ऋतु में शमी, 
--- ग्रीष्म में पीपल, 
--- वर्षा में ढाक या बिल्व, 
--- शरद में आम या पाकर, 
--- हेमंत में खेर, 
--- शिशिर में गूलर या बड़ 

की समिधा उपयोग में लाना जानी चाहिए। अग्नि में मूलतः शुद्धिकरण का गुण होता है। वह अपनी उष्णता से समस्त बुराइयों, दोषों, रोगों का नाश करती है। अग्नि के संपर्क में जो भी आता है वह उसे शुद्ध कर देती है। इसीलिए सनातन काल से यज्ञ, हवन की परंपरा चली आ रही है। पाश्वात्य देशों के अनेक शोधकर्ता यह साबित कर चुके हैं कि जिस जगह नियति अग्निहोत्र या हवन होता है, वहां की वायु अन्य जगह की वायु की अपेक्षा अधिक स्वच्छ होती है। 

हवन में डाली जाने वाली वस्तुएं न सिर्फ पर्यावरण को शुद्द रखती हैं, बल्कि रोगाणुओं को भी नष्ट कर देती है। इससे कई बीमारियां ठीक हो जाती हैं। हवन में डाले जाने वाले कपूर और सुगंधित दृव्य वातावरण में एक विशेष प्रकार का आरोमा फैला देते हैं जिसका मन-मस्तिष्क पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

 स्वास्थ्य के लिए हवन का महत्त्व 
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प्रत्येक ऋतु में आकाश में भिन्न-भिन्न प्रकार के वायुमण्डल रहते हैं। सर्दी, गर्मी, नमी, वायु का भारीपन, हलकापन, धूल, धुँआ, बर्फ आदि का भरा होना। विभिन्न प्रकार के कीटणुओं की उत्पत्ति, वृद्धि एवं समाप्ति का क्रम चलता रहता है। इसलिए कई बार वायुमण्डल स्वास्थ्यकर होता है। कई बार अस्वास्थ्यकर हो जाता है। इस प्रकार की विकृतियों को दूर करने और अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने के लिए हवन में ऐसी औषधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं, जो इस उद्देश्य को भली प्रकार पूरा कर सकती हैं। 

 हव्य (आहुति) 
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आहुति अथवा हव्य अथवा होम-द्रव्य अथवा हवन सामग्री वह जल सकने वाला पदार्थ है जिसे यज्ञ (हवन/होम) की अग्नि में मन्त्रों के साथ डाला जाता है।

सुगंध देने वाली वनस्पतियां 
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छड़ीला 
कपूर 
काचरी 
बालछड़ 
हाऊ 
बेर 
सुगंध बरमी 
तोमर बीज 
पानड़ी नागर मोथा, 
बावची,
कोकिला 

औषधीय वनस्पतियां 
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ब्राह्मी 
तुलसी 
गिलोई 

बहुधा खोटे दुकानदार सड़ी-गली, घुनी हुई, बहुत दिन की पुरानी, हीन वीर्य अथवा किसी की जगह उसी शकल की दूसरी सस्ती चीज दे देते हैं। इस गड़बड़ी से बचने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए। 

सामग्री को भली प्रकार धूप में सुखाकर उसे जौकुट कर लेना चाहिए। 

 स्रुवा 
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वह चम्मच-नुमा बर्तन जिसमें (घी इत्यादि) हवन-सामग्री भरकर हवन-कुंड में आहुति दी जाती है। यह लकड़ी का भी हो सकता है एवं धातु का भी. इसके अतिरिक्त हाथों से भी आहुतियां दी जा सकती हैं। 

 आहुतियां देते समय हाथों की मुद्रा 
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हवन करते समय किन-किन उँगलियों का प्रयोग किया जाय, इसके सम्बन्ध में मृगी और हंसी मुद्रा को शुभ माना गया है। 

मृगी मुद्रा वह है जिसमें अँगूठा, मध्यमा और अनामिका उँगलियों से सामग्री होमी जाती है। 

हंसी मुद्रा वह है, जिसमें सबसे छोटी उँगली कनिष्ठका का उपयोग न करके शेष तीन उँगलियों तथा अँगूठे की सहायता से आहुति छोड़ी जाती है। 

शान्तिकर्मों में मृगी मुद्रा, पौष्टिक कर्मों में हंसी और अभिचार कर्मों में सूकरी मुद्रा प्रयुक्त होती है। 

किसी भी ऋतु में सामान्य हवन सामग्री 
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दैनिक या मासिक होम में सामान्यतः नित्य हवन सामग्री का प्रयोग किया जाता है जिसमें जौ (यव), अक्षत, घी, शहद, तिल, पंचमेवा, एवं ऋतुफलों को काटकर प्रयोग किया जाता है इनकी मात्राएं निर्धारित होती है। 

यज्ञ करते समय इनका विशेष ध्यान रखें 
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 प्रायश्चित 

होम- जप आदि करते हुए, आपन वायु निकल पड़ने, हँस पड़ने, मिथ्या भाषण करने बिल्ली, मूषक आदि के छू जाने, गाली देने और क्रोध के आ जाने पर, हृदय तथा जल का स्पर्श करना ही प्रायश्चित है। 

 हवन के विज्ञान-सम्मत लाभ 

राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान द्वारा किये गये एक शोध में पाया गया है कि पूजा —पाठ और हवन के दौरान उत्पन्न औषधीय धुआं हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट कर वातावरण को शुद्ध करता है जिससे बीमारी फैलने की आशंका काफी हद तक कम हो जाती है। 

लकड़ी और औषधीय जडी़ बूटियां जिनको आम भाषा में हवन सामग्री कहा जाता है को साथ मिलाकर जलाने से वातावरण में जहां शुद्धता आ जाती है वहीं हानिकारक जीवाणु 94 प्रतिशत तक नष्ट हो जाते हैं। 

उक्त आशय के शोध की पुष्टि के लिए और हवन के धुएं का वातावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के लिए बंद कमरे में प्रयोग किया गया।

इस प्रयोग में पांच दजर्न से ज्यादा जड़ी बूटियों के मिश्रण से तैयार हवन सामग्री का इस्तेमाल किया गया। यह हवन सामग्री गुरकुल कांगड़ी हरिद्वार संस्थान से मंगाई गयी थी।

हवन के पहले और बाद में कमरे के वातावरण का व्यापक विश्लेषण और परीक्षण किया गया, जिसमें पाया गया कि हवन से उत्पन्न औषधीय धुंए से हवा में मौजूद हानिकारक जीवाणु की मात्र में 94 प्रतिशत तक की कमी आयी। 

इस औषधीय धुएं का वातावरण पर असर 30 दिन तक बना रहता है और इस अवधि में जहरीले कीटाणु नहीं पनप पाते। 

धुएं की क्रिया से न सिर्फ आदमी के स्वास्थ्य पर अच्छा असर पड़ता है बल्कि यह प्रयोग खेती में भी खासा असरकारी साबित हुआ है। 

वैज्ञानिक का कहना है कि पहले हुए प्रयोगों में यह पाया गया कि औषधीय हवन के धुएं से फसल को नुकसान पहुंचाने वाले हानिकारक जीवाणुओं से भी निजात पाई जा सकती है। 

मनुष्य को दी जाने वाली तमाम तरह की दवाओं की तुलना में अगर औषधीय जड़ी बूटियां और औषधियुक्त हवन के धुएं से कई रोगों में ज्यादा फायदा होता है और इससे कुछ नुकसान नहीं होता जबकि दवाओं का कुछ न कुछ दुष्प्रभाव जरूर होता है। 

धुआं मनुष्य के शरीर में सीधे असरकारी होता है और यह पद्वति दवाओं की अपेक्षा सस्ती और टिकाउ भी है। 

 यज्ञाग्नि की शिक्षा तथा प्रेरणा 
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अग्नि भगवान से ऐसी प्रार्थना यजमान करता है कि- 

ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदसे इध्मस्वचवर्धस्व इद्धय वर्धय। -आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/10/17 
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यज्ञ को अग्निहोत्र कहते हैं। अग्नि ही यज्ञ का प्रधान देवता हे। हवन-सामग्री को अग्नि के मुख में ही डालते हैं। अग्नि को ईश्वर-रूप मानकर उसकी पूजा करना ही अग्निहोत्र है। अग्नि रूपी परमात्मा की निकटता का अनुभव करने से उसके गुणों को भी अपने में धारण करना चाहिए एवं उसकी विशेषताओं को स्मरण करते हुए अपनी आपको अग्निवत् होने की दिशा में अग्रसर बनाना चाहिए। नीचे अग्नि देव से प्राप्त होने वाली शिक्षा तथा प्रेरणा का कुछ दिग्दर्शन कर रहे हैं 

अग्नि का स्वभाव उष्णता है। हमारे विचारों और कार्यों में भी तेजस्विता होनी चाहिए। आलस्य, शिथिलता, मलीनता, निराशा, अवसाद यह अन्ध-तामसिकता के गण हैं, अग्नि के गुणों से यह पूर्ण विपरीत हैं। 

जिस प्रकार अग्नि सदा गरम रहती है, कभी भी ठण्डी नहीं पड़ती, उसी प्रकार हमारी नसों में भी उष्ण रक्त बहना चाहिए, हमारी भुजाएँ, काम करने के लिए फड़कती रहें, हमारा मस्तिष्क प्रगतिशील, बुराई के विरुद्ध एवं अच्छाई के पक्ष में उत्साहपूर्ण कार्य करता रहे। 

अग्नि में जो भी वस्तु पड़ती है, उसे वह अपने समान बना लेती है। निकटवर्ती लोगों को अपना गुण, ज्ञान एवं सहयोग देकर हम भी उन्हें वैसा ही बनाने का प्रयत्न करें। अग्नि के निकट पहुँचकर लकड़ी, कोयला आदि साधारण वस्तुएँ भी अग्नि बन जाती हैं, हम अपनी विशेषताओ से निकटवर्ती लोगों को भी वैसा ही सद्गुणी बनाने का प्रयत्न करें। 

अग्नि जब तक जलती है, तब तक उष्णता को नष्ट नहीं होने देती। हम भी अपने आत्मबल से ब्रह्म तेज को मृत्यु काल तक बुझने न दें। 

हमारी देह, भस्मान्तं शरीरम् है। वह अग्नि का भोजन है। न मालूम किस दिन यह देह अग्नि की भेट हो जाय, इसलिए जीवन की नश्वरता को समझते हुए सत्कर्म के लिये शीघ्रता करें। 

अग्नि पहले अपने में ज्वलन शक्ति धारण करती हैं, तब किसी दूसरी वस्तु को जलाने में समर्थ होती है। 

हम पहले स्वयं उन गुणों को धारण करें जिन्हें दूसरों में देखना चाहते हैं। उपदेश देकर नहीं, वरन् अपना उदाहरण उपस्थिति करके ही हम दूसरों को कोई शिक्षा दे सकते हैं। 

जो गुण हम में वैसे ही गुण वाले दूसरे लोग भी हमारे समीप आवेंगे और वैसा ही हमारा परिवार बनेगा। इसलिये जैसा वातावरण हम अपने चारों ओर देखना चाहते हों, पहले स्वयं वैसा बनने का प्रयत्न करें। 

अग्नि, जैसे मलिन वस्तुओं को स्पर्श करके स्वयं मलिन नहीं बनती, वरन् दूषित वस्तुओं को भी अपने समान पवित्र बनाती है, वैसे ही दूसरों की बुराइयों से हम प्रभावित न हों। स्वयं बुरे न बनने लगें, वरन् अपनी अच्छाइयों से उन्हें प्रभावित करके पवित्र बनावें। 

अग्नि जहाँ रहती है वहीं प्रकाश फैलता है। हम भी ब्रह्म-अग्नि के उपासक बनकर ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलावें, अज्ञान के अन्धकार को दूर करें। तमसो मा ज्योतर्गमय हमारा प्रत्येक कदम अन्धकार से निकल कर प्रकाश की ओर चलने के लिये बढ़े। 

अग्नि की ज्वाला सदा ऊपर को उठती रहती है। मोमबत्ती की लौ नीचे की तरफ उलटें तो भी वह ऊपर की ओर ही उठेगी। उसी प्रकार हमारा लक्ष्य, उद्देश्य एवं कार्य सदा ऊपर की ओर हो, अधोगामी न बने।

अग्नि में जो भी वस्तु डाली जाती है, उसे वह अपने पास नहीं रखती, वरन् उसे सूक्ष्म बनाकर वायु को, देवताओं को, बाँट देती है। हमें जो वस्तुएँ ईश्वर की ओर से, संसार की ओर से मिलती हैं, उन्हें केवल उतनी ही मात्रा में ग्रहण करें, जितने से जीवन रूपी अग्नि को ईंधन प्राप्त होता रहे। शेष का परिग्रह, संचय या स्वामित्व का लोभ न करके उसे लोक-हित के लिए ही अर्पित करते रहें।

आत्मा - जन्मयात्रा - पूर्णब्रह्म = गूढ़ रहस्य

   आत्मा एक प्रकाश पुंज है जो की परम्प्रकाश पुंज का अंश है. पुरे ब्रह्मांड ब्रह्म उर्जा से चालित है. जिसमे यह पूरी सृष्टि निहित है. इस ब्रह्म उर्जा का न कोई आदि न अंत है. इस अनंत उर्जा को हम परमात्मा कहते हैं. आत्मा इसी परमात्मा से निकली हुयी एक प्रकाश पुंज है.
परमब्रह्म उर्जा जब एक प्रकाश पुंज के रूप में निकल कर एक शरीर को धारण करती है तो वह आत्मा कहलाती है. जिस पल उर्जा एक आत्मा के रूप में शरीर को धारण करती है वही से उसकी अध्यात्मिक यात्रा शुरू हो जाती है. जब यह आत्मा परमात्मा रूपी उर्जा से निकल कर कई शरीरो से होते हुए वापिस परमात्मा से जाकर मिलती है तो आत्मा को मोक्ष की उपलब्धि होती है और उसकी अध्यात्मिक यात्रा का अंत हो जाता है.

      मनुष्य योनि उभय योनि अर्थात् कर्म व भोग योनि दोनों है और अन्य पशु, पक्षी, कीट व पतंग आदि योनियां केवल भोग योनि है। परमात्मा ने मनुष्य को अन्य इन्द्रियों व सामर्थ्य के साथ एक बुद्धि जैसी सत्यासत्य का विवेचन करने वाली शक्ति बुद्धि दी है। इस बुद्धि से मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को जान सकता है। वेद, दर्शन, उपनिषद व सत्यार्थपकाश आदि ग्रन्थ बतातें हैं कि जीवात्मा को मनुष्य जन्म पाप व पुण्यों के समान वा पुण्य कर्मों के अधिक होने पर मिलता है। मनुष्य योनि में जहां वह अपने पूर्व कर्मों के सुख-दुःख रूपी फल भोगता है वहीं नये शुभ व अशुभ कर्मों को करता भी है। यदि मनुष्य वेदों व वैदिक विचारधारा के सम्पर्क में आ जाये तो उसे अपने जीवन का उद्देश्य आसानी से समझ में आ जाता है और साथ ही उद्देश्य, जो कि मोक्ष व मुक्ति है, को प्राप्त करने के साधनों का ज्ञान भी हो जाता है। मनुष्य जन्म का उद्देश्य बुरे कर्मों का त्याग व शुभ कर्मों का अनुष्ठान है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर व जीवात्मा आदि पदार्थों के स्वरूप व संसार को अच्छी प्रकार से जानकर ईश्वर का ध्यान, स्तुति, प्रार्थना और उपासना आदि करते हुए तथा यज्ञादि शुभकर्मों को करते हुए ईश्वर साक्षात्कार करना है जिससे मनुष्य बुरी वासनाओं व बुरे कर्मों में प्रवृत्ति से बच जाता है और ईश्वर को प्राप्त होता है। समाधि ही मोक्ष का द्वार है जिससे मनुष्य जन्म व मरण के चक्र से लम्बी अवधि तक के लिए मुक्त हो जाता है। यह मुक्ति योगी, ऋषि मुनि व विद्वानों को ही प्राप्त होती है। असत् कर्म करने वालों को, चाहे वह किसी भी मत को मानते हों, मोक्ष की प्राप्ति कभी सम्भव नहीं है। वैदिक धर्म की शरण में आकर ही जीवन के स्वरूप को यथार्थ रूप में जानकर ही मनुष्य अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है।

   परम तत्व को दो भागों में बांटा गया है: एक भाग है भगवान् और दूसरा है आत्मा। आत्मा को भी दो भागों में विभाजित किया गया है -- पुरुष और स्त्री। इस से यह निश्चित हो जाता है कि हर स्त्री आत्मा अथवा पुरुष आत्मा का एक संगत भाग अर्थात निर्धारित अंश होता है । ये निर्धारित अंश ही मिलकर एक दूसरे को सम्पूर्ण बनाते है। आत्मा के दोनों विभाजित अंशो में एक दुसरे से मिलने के लिए आकर्षण और व्याकुलता होती है । ऐसा इसलिए होता है क्योकि हर आत्मा का लक्ष्य पुनः परमात्मा से मिलना होता है किन्तु इसके पहले एक ही आत्मा के विभाजित अंशो को आपस में मिलना होता है। समय के चलते यह दोनों अंश एक दूसरे से अलग हो गए हैं. ये अलग हुए अंश पूर्णता के लिए एक दूसरे से मिलने को आतुर होते हैं। पुरुष और स्त्री के बीच मिलने के लिए ये घबराहट और उत्तेजना इस सहज आकर्षण के कारण ही है। हम शरीर का रूप बार बार तब तक धारण करते हैं जब तक हमें हमारा खोया हुआ अंश मिल नहीं जाता। जब आत्मा पूर्ण होती है तभी परमात्मा से मिलने की यात्रा शुरू होती है।
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हर आत्मा का उर्जा स्तर भिन्न होता है । किन्तु एक ही आत्मा के विभाजित अंशो में उर्जा का स्तर सामान होता है। सम्पूर्णता के लिए दोनों समान उर्जा वाले ध्रुवों का मिलन आवश्यक है। सही ध्रुवों के मिलन से एक सर्किट/ चक्र पूरा हो जाता है जिससे एक बहुत शक्तिशाली चुम्बकीय ऊर्जा उत्त्पन्न होती है जो थिरकन तथा तीव्र गर्मी पैदा करती है। इस ऊर्जा का अगर सही प्रयोग किया जाए तो यह शरीर के चक्रों का विच्छेदन करके कुण्डलिनी जागरूक करने में सहायक होती है। जैसे जैसे यह ऊर्जा ऊपर की ओर बढती है तो मनुष्य शांत होता जाता है। ऊर्जा के ऊपर बढ़ने का उपोत्पाद शांति होती है तथा नीचे जाने का उपोत्पाद तनाव होता है।

कोई व्यक्ति जब किसी समस्या से ग्रसित होता है तो वह पूजा-पाठ की तरफ देखता है और यथामति उपाय करता भी है बहुतों को लाभ होता है तथा कई को लाभ नहीं भी होता है तो वो परेशान होते है कि आखिर ऐसा क्यों है? तो इस सम्बन्ध में कई कारण हो सकते हैं-

1- समस्या के अनुकूल उपाय न होना 
2-संयम और श्रद्धा से न करना 
3- मन्त्र अथवा स्तोत्र का अशुद्ध उच्चारण 
4- उत्कट कोटि का प्रारब्ध, जो आपको भोगना ही है ।
5-गुरु अथवा मन्त्र पर संशय 
6-समस्या के अनुरूप मन्त्र जप की बहुत कम संख्या 
7-पितृदोष या कुलदेवता की तटस्थता 
8-साधना की उर्जा का आपके पास संचय न हो पाना 
9-गुरु अथवा साधक से छल द्वारा साधना प्राप्त करना 
10-मनमाना साधना करना         
             
       यदि आपको भी लगता है कि आपकी साधना से आपको लाभ नहीं हो रहा तो स्वयं के प्रति ईमानदारी से निष्पक्ष निर्णय कीजिए कि गलती कहाँ है और उसको सुधार कर साधना का लाभ प्राप्त करें ।

मन्त्र के बार-बार जपने से उसका प्रभाव होता है। मन्त्र शब्द के कम्पन से प्रकम्पित होकर मनुष्य के कोष उसके अनुकूल हो जाते हैं। जो कोष अनुकूल होते हैं, उनसे सम्बंधित विषय का बोध मनुष्य को स्वयं अपने आप होने लगता है।
 
मन्त्र का कार्य श्रद्धा पर आधारित है। मन्त्रों की क्रिया उनके उच्चारण पर निर्भर है। मंत्रोच्चारण उनके अर्थ पर निर्भर होते हैं।

मन्त्र के उच्चारण से जो कम्पन पैदा होता है, पहले कुछ समय तक वह वायु में रह कर धीरे-धीरे उसी में विलीन हो जाता है। लेकिन मन्त्र-जप की संख्या जब अधिक हो जाती है तो उसके कम्पन वायु की पर्तों का भेदन कर सूक्ष्मतम वायु मंडल में चले जाते हैं और वहां से उस देवता का आकार-प्रकार बनाने लग जाते हैं जिस देवता का वह मन्त्र होता है। इसीलिए मन्त्र-जप की संख्या निश्चित होती है। 

उस संख्या से जब अधिक जप होती है तभी सूक्ष्मतम वायुमंडल में देवता का आकार-प्रकार बनता है। जब वह पूर्णरूप से बन जाता है तो देवता अपने लोक से आकर उसमें स्वयं प्रतिष्ठित होते हैं। आकार-प्रकार का बनना मन्त्र-चैतन्य का लक्षण है। देवता का अपने आकार-प्रकार में प्रतिष्ठित होना ही मन्त्र-सिद्धि है। मन्त्र सिद्ध होने पर सम्बंधित देवता मन्त्र जपने वाले को उसका फल प्रदान करते हैं। 

    अगर विषयको ध्यानपूर्वक समज लिया जाय तो अध्यात्म क्षेत्रमें आगे बढ़ने , पूजा , उपासना ओर जीवन का मार्ग निर्धारण करनेमे कोई गुंच नही रहती । हरेक जीव का यही लक्ष्य होता है । पूर्णब्रह्म के महतत्व अंश हरेक आत्मा पूर्ण बनकर फिरसे ब्रह्म में ही विलीन हो जाती है । परमपिता महादेव आप सभी धर्मप्रेमी जनो पर सदैव कृपा करें यही प्रार्थना .. अस्तु ..श्री मात्रेय नमः