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अध्यात्मशास्त्र के अनुसार मनुष्य किन घटकों से बना है ?

जीवित मनुष्य आगे दिए अनुसार विविध देहों से बना है ।

१. स्थूल शरीर अथवा स्थूलदेह

२. चेतना (ऊर्जा) अथवा प्राणदेह

३. मन अथवा मनोदेह

४. बुद्धि अथवा कारणदेह

५. सूक्ष्म अहं अथवा महाकारण देह

६. आत्मा अथवा हम सभी में विद्यमान ईश्‍वरीय तत्त्व

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आगे के भागों में हम हम इन विविध देहों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करेंगे ।

३. स्थूलदेह
आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से यह देह सर्वाधिक परिचित है । यह देह अस्थि-ढांचा, स्नायु, ऊतक, अवयव, रक्त, पंच ज्ञानेंद्रिय आदि से बनी है ।

४. चेतनामय अथवा प्राणदेह
यह देह प्राणदेह के नाम से परिचित है । इस देह द्वारा स्थूल तथा मनोदेह के सभी कार्यों के लिए आवश्यक चेतनाशक्ति की (ऊर्जा की) आपूर्ति की जाती है । यह चेतनाशक्ति अथवा प्राण पांच प्रकार के होते हैं :

प्राण : श्‍वास के लिए आवश्यक ऊर्जा

उदान : उच्छवास तथा बोलने के लिए आवश्यक ऊर्जा

समान : जठर एवं आंतों के कार्य के लिए आवश्यक ऊर्जा

व्यान : शरीर की ऐच्छिक तथा अनैच्छिक गतिविधियों के लिए आवश्यक ऊर्जा

अपान : मल-मूत्र विसर्जन, वीर्यपतन, प्रसव आदि के लिए आवश्यक ऊर्जा

मृत्यु के समय यह ऊर्जा पुनश्‍च ब्रह्मांड में विलीन होती है और साथ ही सूक्ष्मदेह की यात्रामें गति प्रदान करने में सहायक होती है । .

५. मनोदेह अथवा मन
मनोदेह अथवा मन हमारी संवेदनाएं, भावनाएं और इच्छाआें का स्थान है । इस पर हमारे वर्तमान तथा पूर्वजन्म के अनंत संस्कार होते हैं । इसके तीन भाग हैं :

बाह्य (चेतन) मन : मन के इस भाग में हमारी वे संवेदनाएं तथा विचार होते हैं, जिनका हमें भान रहता है ।
अंतर्मन (अवचेतन मन) : इसमें वे संस्कार होते हैं, जिन्हें हमें इस जन्म में प्रारब्ध के रूप में भोगकर पूरा करना आवश्यक है । अंतर्मन के विचार किसी बाह्य संवेदना के कारण, तो कभी-कभी बिना किसी कारण भी बाह्यमन में समय-समय पर उभरते हैं । उदा. कभी-कभी किसी के मन में अचानक ही बचपन की किसी संदिग्ध घटना के विषय में निरर्थक एवं असम्बंधित विचार उभर आते हैं ।
सुप्त (अचेतन) मन : मन के इस भाग के संदर्भ में हम पूर्णतः अनभिज्ञ होते हैं । इसमें हमारे संचित से संबंधित सर्व संस्कार होते हैं ।
अंतर्मन तथा सुप्त मन, दोनों मिलकर चित्त बनता है ।

कभी-कभी मनोदेह के एक भाग को हम वासनादेह भी कहते हैं । मन के इस भाग में हमारी सर्व वासनाएं संस्कारूप में होती हैं ।

कृपया संदर्भ के लिए पढें, लेख : ‘हम जो कुछ करते हैं, उसका क्या कारण है ?’ साथ ही मन की कार्यकारी रचना समझने के लिए इसी शीर्षक का ‘इ-ट्यूटोरियल (उप शैक्षणिक वर्ग)’ पढें ।

मनोदेह से सम्बंधित स्थूल अवयव मस्तिष्क है ।

६. बुद्धि
कारणदेह अथवा बुद्धि का कार्य है – निर्णय प्रक्रिया एवं तर्कक्षमता ।

बुद्धि से सम्बंधित स्थूल अवयव मस्तिष्क है ।

७. सूक्ष्म अहं
सूक्ष्म अहं अथवा महाकारण देह मनुष्य की अज्ञानता का अंतिम शेष भाग (अवशेष) है । मैं ईश्‍वर से अलग हूं, यह भावना ही अज्ञानता है ।

८. आत्मा
आत्मा हमारे भीतर का ईश्‍वरीय तत्त्व है और हमारा वास्तविक स्वरूप है । सूक्ष्मदेह का यह मुख्य घटक है, जो कि परमेश्‍वरीय तत्त्व का अंश है । इस अंश के गुण हैं – सत, चित्त और आनंद (शाश्‍वत सुख) । आत्मा पर जीवन के किसी सुख-दुःख का प्रभाव नहीं पडता और वह निरंतर आनंदावस्था में रहती है । वह जीवन के सुख-दुःखों की ओर साक्षीभाव से (तटस्थता से) देखती है। आत्मा तीन मूल सूक्ष्म-घटकों के परे है; तथापि हमारा शेष अस्तित्व स्थूलदेह एवं मनोदेह से बना होता है ।

९. सूक्ष्मदेह
हमारे अस्तित्व का जो भाग मृत्यु के समय हमारे स्थूल शरीर को छोड जाता है, उसे सूक्ष्मदेह कहते हैं । इसके घटक हैं – मनोदेह, कारणदेह अथवा बुद्धि, महाकारण देह अथवा सूक्ष्म अहं और आत्मा । मृत्यु के समय केवल स्थूलदेह पीछे रह जाती है । प्राणशक्ति पुनश्‍च ब्रह्मांड में विलीन हो जाती है ।

सूक्ष्मदेह के कुछ अंग निम्नानुसार हैं ।

सूक्ष्म ज्ञानेंद्रिय : सूक्ष्म ज्ञानेंद्रिय अर्थात हमारे पंचज्ञानेंद्रियों का वह सूक्ष्म भाग जिसके द्वारा हमें सूक्ष्म विश्‍व का बोध होता है । उदा. कोई उत्तेजक न होते हुए भी हम चमेली के फूल जैसी सूक्ष्म सुगंध अनुभव कर सकते हैं । यह भी संभव है कि एक ही कक्ष में किसी एक को इस सूक्ष्म सुगंध की अनुभूति हो और अन्य किसी को न हो । इसका विस्तृत विवरण दिया है । हमारा यह लेख भी पढें – छठवीं ज्ञानेंद्रिय क्या है ?
सूक्ष्म कर्मेंद्रिय : सूक्ष्म कर्मेंद्रिय अर्थात, हमारे हाथ, जिह्वा (जीभ) इ. स्थूल कर्मेंद्रियों का सूक्ष्म भाग । सर्व क्रियाआें का प्रारंभ सूक्ष्म कर्मेंद्रियों में होता है और तदुपरांत ये क्रियाएं स्थूल स्तर पर व्यक्ति की स्थूल कर्मेंद्रियों द्वारा की जाती हैं ।

१०. अज्ञान (अविद्या)
आत्मा के अतिरिक्त हमारे अस्तित्व के सभी अंग माया का ही भाग हैं । इसे अज्ञान अथवा अविद्या कहते हैं, जिसका शब्दशः अर्थ है (सत्य) ज्ञान का अभाव । अविद्या अथवा अज्ञान शब्द का उगम इस तथ्य से है कि हम अपने अस्तित्व को केवल स्थूल शरीर, मन एवं बुद्धि तक ही सीमित समझते हैं । हमारा तादात्म्य हमारे सत्य स्वरूप (आत्मा अथवा स्वयंमें विद्यमान ईश्‍वरीय तत्त्व) के साथ नहीं होता ।

Nescience

अज्ञान (अविद्या) ही दुःख का मूल कारण है । मनुष्य धनसंपत्ति, अपना घर, परिवार, नगर, देश आदि के प्रति आसक्त होता है । किसी व्यक्ति से अथवा वस्तु से आसक्ति जितनी अधिक होती है, उतनी ही इस आसक्ति से दुःख निर्मिति की संभावना अधिक होती है । एक आदर्श समाज सेवक अथवा संतके भी क्रमशः समाज तथा भक्तों के प्रति आसक्त होने की संभावना रहती है । मनुष्य की सबसे अधिक आसक्ति स्वयं के प्रति अर्थात अपने ही शरीर एवं मन के प्रति होती है । अल्पसा कष्ट अथवा रोग मनुष्य को दुःखी कर सकता है । इसलिए मनुष्य को स्वयं से धीर-धीरे अनासक्त होकर अपने जीवन में आनेवाले दुःख तथा व्याधियों को स्वीकार करना चाहिए, इस आंतरिक बोध के साथ कि जीवन में सुख-दुःख प्रमुखतः हमारे प्रारब्ध के कारण ही हैं (हमारे ही पिछले कर्मों का फल हैं ।) आत्मा से तादात्म्य होने पर ही हम शाश्‍वत (चिरस्थायी) आनंद प्राप्त कर सकते हैं ।

आत्मा और अविद्या मिलकर जीवात्मा बनती है । जीवित मनुष्य में अविद्या के कुल बीस घटक होते हैं – स्थूल शरीर, पंचसूक्ष्म ज्ञानेंद्रिय, पंचसूक्ष्म कर्मेंद्रिय, पंचप्राण, बाह्यमन, अंतर्मन, बुद्धि और अहं । सूक्ष्म देह के घटकों का कार्य निरंतर होता है, जीवात्मा का ध्यान आत्मा की अपेक्षा इन घटकों की ओर आकर्षित होता है; अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान की अपेक्षा अविद्या की ओर जाता है ।

दत्तात्रेय ।।

दत्तात्रेय का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारत है । साधु समाज में प्रसिद्ध है कि वे सह्याद्रि की तराई में रेणुकापुर में या मातापुर नामक स्थान में प्रतिदिन विश्राम करते हैं । सह्याद्रि के शिखर पर उनका निवास स्थान है । यह उनका पीठ स्थान है ।भगवान काशीक्षेत्र में प्रतिदिन गङ्गा स्नान करने आते हैं । कुल्हाड क्षेत्र में अर्घ्य दान और प्रातः संध्या करते हैं ।
महालक्ष्मी का पीठस्थान कोल्हापुर या दक्षिण काशी में वे भिक्षा ग्रहण करते हैं और पांचालपुर में उस भिक्षाअन्न का भोजन करते हैं । विट्ठल पुर में यानी चंद्रभागा के किनारे बसे पंढरपुर में (जिला सोलापुर )में ये तिलक धारण करते हैं । भीमा और अमरजा नदी के संगम स्थल गाणगापुर में योग साधना करते हैं । कुरुक्षेत्र के स्यमन्तक तीर्थ में आचमन करते हैं । इस तरह यद्यपि भगवान दत्तात्रेय प्रतिदिन लीला के व्याज से भिन्न भिन्न स्थानों में संचार करते रहते हैं , फिर भी उनका स्मरण करने वाले भक्तों के लिए वे अत्यंत निकट हैं । इससे मालूम पड़ता है कि प्रतिदिन सूर्योदय से दूसरे दिन सूर्योदय तक किसी न किसी कर्म के बहाने से सम्पूर्ण भारत की परिक्रमा करते रहते हैं । इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है ,कारण सिद्ध देह में देश और काल का व्यवधान गति का बाधक नहीं होता ।

अश्विनी-वज्रोली मुद्रा ।।

    हिन्दू सनातन धर्म मे वैदिक , तांत्रोक्त , यौगिक , भक्ति , सेवा आदि अनेक मार्ग है । मन को नियंत्रित कर उच्चतम सिद्धि प्राप्त करना , मंत्रानुष्ठान और तन को नियंत्रित कर शरीरस्थ ऊर्जाओं द्वारा प्रचंड शक्ति प्राप्त करना ।

 तांत्रोक्त मार्ग
 तंत्र मार्ग की अनेक क्रिया ऐसी भी है जो आम इन्सान को तन मन की शक्ति के साथ सुआरोग्य भी प्रदान करती है । योगमार्ग में भी ऐसी अनेक क्रियाएं है । 

   प्रत्येक व्यक्ति को पूजा-साधना, व्रत और उपवास के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए कहा जाता है। लेकिन मनोविज्ञान में एक नियम है जिसमें बताया गया है कि व्यक्ति जिस वस्तु अथवा चीज से जितना भी बचने की कोशिश करेगा, वह वस्तु अथवा चीज उसे उतना ही अधिक परेशान करेगी। यानि आप जितना भी ब्रह्मचर्य का पालन करने की कोशिश करेंगे, उतना ही अधिक काम और गंदे विचार आपके मष्तिष्क में आते चले जाएंगे। और इन काम संबंधित विचारों का दवाब आपके मूलाधार चक्र पर होना शुरू हो जाता है। इससे मूलाधार चक्र पर सप्त धातु का दबाव पड़ना शुरू हो जाता है और आपका मन विचलित होने लगता है। इसलिए साधना-पूजा,व्रत तथा उपवास के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करना परेशानी का सबब बन जाता है। यहां अगर आप शरीर से अपने आपको बचा भी लें तब भी मानसिक रूप से आपका ब्रह्मचर्य व्रत खंडित हो जाता है। ऐसी अवस्था से बचने के लिए अश्वनी या वज्रोली मुद्रा लगाई जाती है। इस अश्वनी या वज्रोली मुद्रा के लगाने से सप्त धातु उर्ध्वगामी होकर यानि सप्तधातु को ऊपर की तरफ खींचने पर ओज बनने लगता है और आपके मूलाधार पर दवाब कम हो जाता है। ऐसा करने से मन नियंत्रण में आने लगता है। और साधक का ध्यान भटकता नहीं है।

 अश्वनी-वज्रोली मुद्रा के लाभ 

 1 . अश्वनी-वज्रोली मुद्रा से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने में साधक को मदद मिलती है।

 2 .अश्वनी-वज्रोली मुद्रा सप्तधातु को ओज में बदल देती है। जिससे मूलाधार पर दवाब कम हो जाता है और व्यक्ति के काम विचार कम हो जाते हैं।

 3 . अश्वनी-वज्रोली मुद्रा को खड़े रहकर नहीं किया जा सकता है। अश्वनी-वज्रोली मुद्रा को लेटकर भी नहीं कर सकते हैं। अश्वनी-वज्रोली मुद्रा को किसी भी आसन में बैठकर अथवा कुर्सी-सोफा आदि पर बैठकर किया जा सकता है।

 40 . अश्वनी-वज्रोली मुद्रा का उपयोग 14 वर्ष की आयु के पश्चात कोई भी महिला-पुरूष कर सकता है।

 5 .अश्वनी-वज्रोली मुद्रा को किसी भी प्रकार की साधना, व्रत, उपवास तथा किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक अनुष्ठान आदि का अभ्यास समाप्त होने के बाद अपनाना चाहिए।

6 . अश्वनी-वज्रोली मुद्रा में 30 सेकेंड से लेकर एक मिनट तक का समय लगता है।

 7 .अश्वनी-वज्रोली मुद्रा से मूलाधार चक्र के आसपास का भाग चैतन्य होने लगता है। तथा वहां की नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होने लगती है।

 8 . अश्वनी-वज्रोली मुद्रा का उपयोग मन पर नियंत्रण पाने के लिए किया जाता है।

 अश्वनी-वज्रोली मुद्रा की विधि 

अश्वनी-वज्रोली मुद्रा की विधि बहुत ही आसान है। जब भी आप योग, साधना आदि का अभ्यास कर रहे हों तो जब आपका अभ्यास समाप्त हो जाए तब आप किसी भी आसन में बैठकर या कुर्सी आदि पर बैठकर गुदा को तीस से पचास बार संकुचित करें । और फिर छोड़ें । इस अभ्यास को करने में तीस सेकेंड से एक मिनट का समय लगता है।

इस अभ्यास को जब स्त्रियां करती हैं तब इसे अश्वनी मुद्रा कहा जाता है । और इस अभ्यास को जब पुरूष करता है तब इसे वज्रोली मुद्रा कहा जाता है ।

 गुदा को संकुचित करने और छोड़ने की यही मुद्रा अश्वनी-वज्रोली मुद्रा कहलाती है। 

जब आप साधना के बाद इस मुद्रा का उपयोग करते हैं अथवा इस अश्वनी-वज्रोली मुद्रा को अपना लेते हैं तो आपने साधना के दौरान जो ऊर्जा अथवा शक्ति जमा की है वह ऊर्जा अथवा शक्ति उर्ध्वगामी होनी शुरू हो जाती है और इसका ओज बनना शुरू हो जाता है । इसके बाद आप जो भी व्रत,साधना,उपवास अथवा अनुष्ठान आदि करते हैं उसमें आपको सफलता मिलनी शुरू हो जाती है और इस तरह से आप कम दिनों और कम समय में साधना की ऊँचाईयों पर पहुंच सकते हैं । इसलिए हमेशा ध्यान रखें कि कोई भी साधना, व्रत और अनुष्ठान आदि करने के बाद आप अश्वनी-वज्रोली मुद्रा का उपयोग जरुर करें।

हिन्दू धर्म में मांस खाना मना है या नहीं?

शाकाहार और मांसाहार को लेकर बहुत बहस चलती है। हिन्दू धर्म में मांस खाना मना है या नहीं है इस संबंध में कई लोगों के मन में भ्रम है। यदि हिन्दू धर्म में मांस खाना वर्जित होता तो सभी वर्ग में यह नियम लागू होता परंतु धर्म का एक वर्ग मांस का सेवन करता है और एक वर्ग नहीं। शाकाहारी भोजन को हिन्दू धर्म में उत्तम माना है लेकिन मांस खाने को लेकर कोई सख्त अनुदेश नहीं दिया गया है।

वेदों के अनुसार:- वेद ही हिन्दू धर्म के धर्म ग्रंथ है। वेदों का सार उपनिषद और उपनिषदों का सार गीता है। यहां तीनों का मत जानेंगे। वेदों में मांस खाने के संबंध में स्पष्ट मना किया गया है। वेदों में पशु हत्या पाप मानी गई है। वेनों में कुछ पशुओं के संबंध में तो सख्‍त अनुदेश (हिदायद) दी गई है।

यः पौरुषेयेण करविषा समङकते यो अश्वेयेन पशुयातुधानः।

यो अघ्न्याया भरति कषीरमग्ने तेषांशीर्षाणि हरसापि वर्श्च॥- (ऋग वेद, मंडल १०, सूक्त ८७, ऋचा १६)

अर्थात- जो मनुष्य नर, अश्व अथवा किसी अन्य पशु का मांस सेवन कर उसको अपने शरीर का भाग बनाता है, गौ की हत्या कर अन्य जनों को दूध आदि से वंचित रखता है, हे अग्निस्वरूप राजा, अगर वह दुष्ट व्यक्ति किसी और प्रकार से न सुने तो आप उसका मस्तिष्क शरीर से विदारित करने के लिए संकोच मत कीजिए।

गीता के अनुसार:- गीता में मांस खाने या नहीं खाने के उल्लेख के बजाय अन्न को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है- 1.सत्व, 2.रज और 3.तम।

गीता के अनुसार अन्न से ही मन और विचार बनते हैं। जो मनुष्य सात्विक भोजन ग्रहण करता है उसकी सोच भी सात्विक होगी। अत: सात्विकता के लिए सात्विक भोजन, राजसिकता के लिए राजसिक भोजन और तामसी कार्यों के लिए तामसी भोजन होता है। यदि कोई सात्विक व्यक्ति तामसी भोजन करने लगेगा तो उसके विचार और कर्म भी तामसी हो जाएंगे।

1. संतों, ब्राह्मणों और धर्म के कार्य में कार्यरत लोगों को सात्विक भोजन करना चाहिए। पूर्णत: शाकाहारी भोजन ही सात्विक भोजन है। कई बार इसमें प्याज और लहसुन को भी छोड़ दिया जाता है।

2. युद्ध, क्रीड़ा और भयंकर कर्म हेतु लोगों को राजसिक भोजन करने की छूट है। राजसिक भोजन में उत्म मांस, लहसुन, प्याज आदि आते हैं।

3. ता‍मसिक भोजन कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह भोजन राक्षस, पिशाच और असुरों का भोजन होता है। तामसिक भोजन में अच्छे से नहीं धोया गया मांस, बासी भोजन, खराब भोजन, बहुत तीखा और मसालेदार भोजन आदि।

सुश्रुत संहिता अनुसार : आयुर्वेदज्ञ सुश्रुत अनुसार रोगोपचार में शरीर की पुष्टि हेतु कभी-कभी मांसाहार करना जरूरी होता है। सुश्रुत संहिता अनुसार मांस, लहसुन और प्याज औषधीय है। औषधि किसी बीमारी के इलाज हेतु होती है आपके जिव्हा के स्वाद के लिए या इसका नियमित सेवन करने के लिए नहीं होती है।


हनुमान की तस्वीरों से जुड़ी विशेष बातें ।।

भगवान हनुमान की तस्वीरों से जुड़ी बातें जिनके बारे में यकीनन हर कोई नहीं जानता है लेकिन अब आप अपनी मनोकामना के लिए उसके मुताबिक हनुमान जी की तस्वीर की पूजा करके उन्हें प्रसन्न कर सकते हैं।

1 जिस तस्वीर में हनुमान जी श्रीराम, सीता और लक्ष्मण की आराधना करते हुए दिखाई देते हैं. ऐसी तस्वीर की पूजा करने से हनुमान जी जल्दी ही भक्तों पर प्रसन्न होते हैं.

2 नौकरी में प्रमोशन और व्यवसाय में तरक्की पाने के लिए हनुमान जी की ऐसी तस्वीर की पूजा करें, जिसमें उनका स्वरुप सफेद रंग का हो.

3 इस बात का हमेशा ख्याल रखें कि हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी हैं इसलिए पति-पत्नी को उनकी तस्वीर बेडरुम में नहीं लगाना चाहिए. हनुमान जी की तस्वीर को हमेशा घर के मंदिर में स्थापित करनी चाहिए.

4 भगवान राम की भक्ति में लीन दिखाई देनेवाली हनुमान जी की तस्वीर की पूजा करने से एकाग्रता बढ़ती है और मानसिक शक्ति का विकास होता है.

5 सेवक हनुमान- जिस तस्वीर में हनुमान जी श्रीराम की भक्ति में लीन दिखाई देते हैं, ऐसी तस्वीर की पूजा करने से सेवा और समर्पण की भावना जागृत होती है. घर और कार्यस्थल पर सम्मान मिलता है.

6 वीर हनुमान स्वरुप में साहस, आत्मबल, पराक्रम दिखाई देता है. हनुमान जी ने कई राक्षसो का वध करके श्रीराम के काज को संवारा था. ऐसी तस्वीर की पूजा से भक्तों को साहस आत्मबल की प्राप्ति होती है.

7 सूर्यदेव हनुमान जी के गुरू हैं. जिस तस्वीर में हनुमान जी सूर्यदेव की पूजा कर रहे हैं या सूर्य की ओर देख रहे हैं, उस स्वरुप की पूजा करने पर ज्ञान, गति और सम्मान मिलता है.

8 देवी देवताओं की दिशा उत्तर मानी गई है, हनुमान जी की जिस तस्वीर में हनुमान जी का मुख उत्तर दिशा की ओर है. वो हनुमान जी का उत्तरामुखी स्वरुप है. उस स्वरुप की पूजा करने से सभी देवी-देवताओं की कृपा मिलती है घर में शुभ वातावरण रहता है.

9 हनुमान जी की तस्वीर में हनुमान जी का मुख दक्षिण दिशा में हो, तो उसे दक्षिणामुखी स्वरुप कहते हैं. दक्षिण दिशा यमराज की दिशा मानी जाती है. इस तस्वीर की पूजा करने से मृत्यु भय और चिंताए समाप्त होती हैं.

10 जिस तस्वीर में हनुमान जी संजीवनी बूटी के पर्वत को उठाए हुए नज़र आते हैं ऐसी तस्वीर की पूजा करने से घरवालों की तरक्की की राह आसान होती है।