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योग का विषय परिचय:

बिन्दुकी यह ऊर्ध्व-गति प्रबुद्ध कुण्डलिनी के सहस्त्रार के आकर्षण से ऊध्व प्रवाह का नामान्तर है।

 बिन्दु क्रमशः स्थूल-भाव छोड़कर सूक्ष्म, 
सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम अवस्था को प्राप्त होता है और अन्त में सहस्रदल-कमल की कर्णिका में स्थित महाबिन्दु के साथ मिल जाता है।

 यही चित्-चन्द्रमा का षोडशी कलारूप अमृत-बिन्दु है। 

 नाभी ग्रंथि का भेद करके बिन्दुको ऊर्ध्वस्रोत में समाहित कर देना ही उपनयन या दीक्षा का यथार्थ रहस्य है। 

नाभि चक्र से ऊपर उठे बिना बिन्दु मध्याकर्षण के चक्र के अन्दर रहना संसार का ही दूसरा नाम है।

 ओजस की ऊर्ध्व साधना के द्वारा बिन्दु को विषय-जगत् से पृथक् करके,
 उसे पवित्र बनाकर, ब्रह्ममार्ग में लगाना ही संसार से मुक्ति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है।

- महामहोपाध्याय श्री गोपीनाथ कविराज

हनुमंत भक्तों के लिए विशेष ।।

        अधिकांश पवन पुत्र के भक्त व साधक उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए परेशान रहते हैं। कारण कि उन्हें हनुमान जी को प्रसन्न करने का राज नहीं मालूम। हनुमान जी की शक्ति है श्री राम यदि आप यह शक्ति प्राप्त कर लें श्री राम रक्षा यंत्र के माध्यम से तो हनुमान जी अवश्य कृपा करेंगे। बिना श्री राम रक्षा यंत्र के हनुमनत साधना या उपासना सफल नहीं होती है। अतः प्रत्येक हनुमान मंदिर में इस यंत्र की स्थापना होनी चाहिए क्योंकि अगस्त्यसंहिता के अनुसार वज्र पंजर नामक शास्त्र में श्री राम रक्षा यंत्र को धारण करने से सर्व कृपा एवं सिद्धियां उपलब्ध होती है। पाप व विपत्तियां समूल नष्ट हो जाती हैं। क्रूर ग्रह भी प्रसन्न एवं शांत हो जाते हैं। इस यंत्र का वर्णन अगस्त्य संहिता में दिया हुआ है इस यंत्र को धारण व स्थापित किया जाता है।
          यह यंत्र किसी पवित्र जगह पर रखा जाता है या हनुमान मंदिर में स्थापित किया जाता है। अगस्त्य ऋषि के अनुसार स्वर्ण पत्र पर अंकित यंत्र जीवन पर्यन्त, चांदी पत्र पर 20 वर्ष, भोजपत्र पर 12 वर्ष तथा ताम्रपत्र पर 6 वर्ष तक प्रभावी रहता है। उपासक अपनी शक्ति के अनुसार यंत्र राज बना कर या लिखकर प्राण प्रतिष्ठा कर धारण करें।
             सुबह स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण कर आसन पर उत्तर या पूर्व की ओर मुख करके श्री राम दरबार का चित्र सामने रखें। चित्र के निकट चावल बिछाकर उस पर यंत्र राज रामरक्षा यंत्र सम्मान सहित रखें। यंत्र का पंचोपचार पूजन कर धूप दीप को साक्षी मानकर 108 तुलसी के दल चढ़ावे। प्रति तुलसी पत्र के साथ श्री राम जय राम जय जय राम बोलते हुए यंत्र पर तुलसी पत्र चढ़ावें। दूसरे दिन से 21 तुलसी पत्र प्रति पत्ति पर श्री राम जय राम जय जय राम बोलते हुए चढ़ाए। यह प्रक्रिया 8 दिन तक करें वह यंत्र के ऊपर मध्यमा और अनामिका उंगली (दाएं हाथ की) श्री राम रक्षा स्तोत्र का एक बार उच्चारण करें। पूर्ण चैतन्य इस यंत्र के दर्शन कर हनुमान जी का कोई भी मंत्र जप करें (हनुमान चालीसा, बजरंग बाण भी कर सकते हैं)। इसे त्वरित अच्छा परिणाम मिलना शुरू हो जाता है।



              आशा करता हूं की इससे आप सभी जो हनुमान भक्त है अवश्य लाभ उठाएंगे।

महाशक्ति का शाश्वत जाग्रत पीठ विन्ध्याचल ।।

एक ओर पतित पावनी मां गंगा की शांत स्निग्ध मधुर स्वर में कल-कल करती छलकती तरंगों की प्रवाहमान अजस्र धारा तो दूसरी ओर प्राकृतिक सुरम्य सुषमा से अलंकृत विराट विन्ध्य पर्वतमाला के मध्य स्थित आदि शक्ति पराम्बा विन्ध्यवासिनी का शाश्वत महापीठ, सिद्ध पीठ अनादि काल से ही ऋषियों-महर्षियों, मनीषियों, महात्माओं, योगियों, सिद्धों आदि के लिए न केवल प्रेरणा का ही अपितु अध्यात्म एवं आकर्षण का केंद्र रहा है। भूगर्भ शास्त्रियों एवं अनेक वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा यह प्रमाणित हो चुका है कि विन्ध्य पर्वतमाला भारत की सर्वप्राचीन पर्वत शृंखला है।
भारत के 108 शक्तिपीठों एवं 12 महापीठों में विंध्याचल सर्वाधिक प्राचीन महत्वपूर्ण शाश्वत जागृति पीठ है जहां की अधिष्ठात्री मां विन्ध्यावासिनी ( महालक्ष्मी/वन दुर्गा) ऋषियों-महर्षियों, शाक्त साधकों की अराध्या है। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के मिरजापुर जनपद की नगर सीमा में स्थित यह पावन धाम सदैव से ही महाशक्ति का वासस्थल रहा है। श्रीमद्देवी भागवत की कथा के अनुसार ब्रह्मï जी के मानस पुत्र मनु ने सृष्टिï के आरंभ में देवी जगदम्बा की मृण्मूर्ति निर्मित कर जब उनकी आराधना-उपासना की तब देवी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें वंशवृद्धि का वरदान दिया तथा यहीं विन्ध्य क्षेत्र में स्थित हो गयीं।
वाङ मयों के अनुसार विन्ध्याचल हिमालय का पितामह है जो कभी इतना विशाल था कि सूर्य की रश्मियां तक उसके उत्तंग शिखरों में उलझकर ठहर जाती थीं जिसे महर्षि अगस्त्य ने बौना बना दिया (श्रीमद्देवी भागवत, दशम स्कन्ध, अध्याय-1-7), इसी तपोभूमि में भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति हुई तथा मनु को सृष्टि सृजन का आशीर्वाद भी। इसी तपभूमि में तपलीन पार्वती ने शिव को प्राप्त करने हेतु कठोर साधना की थी।
वैसे तो विन्ध्य की शिलाएं तक अपनी ऐतिहासिकता को मुखरित करती हैं, इसके शिखर उसकी अस्थि-अंश हैं, उसका वैभव हैं, इसी के सुरम्य अंचल में त्रिमहाशक्तियों (महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती) ने अपना आवास बनाया। महाभारत-विराट पर्व के युधिष्ठिर कृत दुर्गास्रोत के अनुसार यही जगदम्बिके का शाश्वत स्थान है (विन्ध्ये चैव नग श्रेष्ठï’ तव स्थानं हि शाश्वतम्)।
शाक्तागमों में त्रिमहाशक्तियों को दुर्गा कहा गया है जिसका एक अर्थ दुर्गम स्थान वासिनी है और ये त्रिशक्तियां हैं हिमवासिनी पार्वती (शैलपुत्री), समुद्रवासिनी पद्माआसना कमला (लक्ष्मी), अरण्यवासिनी वन दुर्गा (विन्ध्यवासिनी)।
पौराणिक वाङ्मयों में विन्ध्याचल को सिद्धपीठ, महापीठ, शक्तिपीठ, संज्ञाओं से विभूषित करने के साथ-साथ इसे मणिद्वीप भी कहा गया है। श्रीमद्देवी भागवत के अनुसार वह स्थान जहां पर विन्ध्य पर्वत तथा सुरसरि गंगा का संगमन होता है और जहां गंगा विन्ध्य का पद प्रक्षालन करके पुन: वापस हो जाती है वह स्थल मणिद्वीप है तथा वहां भगवती सदैव वास करती है। ज्ञातव्य है कि विन्ध्याचल में ही गंगा उत्तर से आ विन्ध्य का पद प्रक्षालन कर पुन: उत्तर की ओर वापस होती है और यहीं पर दक्षिण से आकर विन्ध्य पर्वत का गंगा से संगमन होता है और गंगा दक्षिणमुखी हो वापस लौटती है। वृहन्नील तंत्र के अनुसार विन्ध्य पर्वत तथा गंगा का संगमन विन्ध्याचल में ही होता है। विन्ध्याचल की अधिष्ठात्री मां विंध्यवासिनी अनादि काल से शबर, बर्वर, पुलिन्दों के साथ-साथ ऋषियों-महर्षियों की भी उपास्य रही है। मार्कण्डेय पुराण (दुर्गासप्तशती) में अम्बे का वचन है कि 28वें मन्वन्तर में शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों के वध के लिये वह नंदगोप गृह में अवतरित होकर विन्ध्याचल में वास करेंगी। (वैवश्वत मन्वन्तरे प्राप्ते अष्टïविशंति तमे युगे/शुम्भो निशुम्भोश्रैवा न्यावुत्पत्सेपते महासुरौ। नंद गोप गृहे जाता यशोदा गर्भ सम्भवा/ततस्तौ नारायिण्यामि विन्ध्याचल निवासिनी॥)। विन्ध्याचल की महिमा का वर्णन करते हुए श्री विष्णु ने महालक्ष्मी से बताया कि इस क्षेत्र में साधकों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है और विन्ध्याचल के समान शक्तिमान स्थान इस ब्रह्मïण्ड में अन्यत्र कहीं नहीं है (तव प्रविशतां पुंसाम दुर्लभं नहि किंचन्। विन्ध्यक्षेत्र समं क्षेत्रंनाऽस्ति ब्रह्मïण्ड गोलके॥)।      
ज्येष्ठï शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को यहां अरण्यषष्ठी मनाया जाता है क्योंकि विंध्यवासिनी को अरण्यानि वन दुर्गा भी कहा जाता है और यह पावन तिथि उनकी विशिष्ट पूजा अर्चना के लिए प्रख्यात है। अनादि काल से ही योगियों, महर्षियों, साधकों के श्रद्धा, विश्वास, आस्था की ऊर्जा से समन्वित यह केंद्र शांति, सौख्य, सुख-सम्पदा, मोक्ष प्रदायक रहा है। ऋग्वेद के अनुसार ऐसे अवसरों पर जब मानवीय भद्रता उस परम ज्योति की आराधना करता है तब उसे वांछित फल की प्राप्ति होती है।
शाक्तागमों के अनुसार यह महापीठ श्री यंत्र पर स्थित है। इतना ही नहीं, यह क्षेत्र त्रिमहाशक्तियों का वासस्थान होने से भी अति महत्वपूर्ण है। इससे त्रिकोण बनता है—उत्तर में महालक्ष्मी/ वनदुर्गा (विंध्यवासिनी), दक्षिण में महाकाली (कालीखोह), पश्चिम में महासरस्वती (अष्ट्भुजा) स्कंद पुराण (32/1) में भी इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
 "महालक्ष्मी पूर्वभागे महाकाली च दक्षिणे महासरस्वती प्रत्यक कोणे यंत्रस्थ संस्थिता" 
इस प्रकार त्रिमहाशक्तियों के एक साथ विराजने से यह अद्वितीय क्षेत्र तथा उपासना के लिए सर्वश्रेष्ठ कहा गया है 

"विन्ध्याचल निवासिन्या: स्थानं सर्वोत्तमम्— श्रीमद्देवीभागवत"

 इसी से ऐसी मान्यता है कि विन्ध्याचल यात्रा की पूर्णता इसकी त्रिकोणयात्रा से ही होती है। आस्थावानों के लिए त्रिकोण ऐसा सत्य है जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। त्रिकोण यात्रा का प्रारंभ मुख्य धाम विन्ध्याचल से होता है। इसके दक्षिण कोण स्थित अरण्य परिवेश में भूतल पर ही स्थित है। महाकाली का धाम कालीखोह जहां मां काली की विस्तीर्णवदना आसीनमुद्रा में उर्ध्वमुखी प्रतिमा है। यह स्थान आध्यात्मिक ऊर्जा हेतु प्रख्यात है।

नाद योग द्वारा दिव्य ध्वनियो की संसिद्धि ।।

             प्रकृति और पुरुष का जिस स्थल पर संयोग होता है वहाँ से एक अनाहत ध्वनि निरन्तर प्रसृत और निनादित होती रहती है। योगियों, ऋषियों ने उस ध्वनि प्रवाह को ॐ कार गुँजन–ब्रह्मनाद कहा है। उसी से सप्त−स्वर प्रस्फुटित हुए। श्रुति−शास्त्रों में प्रयुक्त होने वाले उदात्त अनुदान स्वरूप उसी के आरोह−अवरोह हैं। संगीत शास्त्र में वे ही आगे चलकर सा, रे, ग, म, प, ध, नि के स्वर सप्तक बन गये। जिस प्रकार सूर्यरथ के सप्तअश्व उसके प्रभा किरणों में सन्निहित रंग हैं, उसी तरह ब्रह्मनाद का ध्वनि गुँजन सप्तधा स्वर लहरी में निनादित होता रहता है। प्रकृति के अन्तराल में एक प्रकार का ध्वनि स्पन्दन होता रहता है जिसकी तुलना घड़ियाल में हथौड़ी मारने से उत्पन्न होने वाली टंकार से कर सकते हैं। टंकार के उपरान्त जो झनझनाहट होती है उसे दिव्यदर्शियों ने ॐ कार ध्वनि कहा है। उनका मत है कि प्रकृति और ब्रह्म के संयोग से निस्मृत होने वाले ध्वनि प्रवाह के आघात प्रतिघात से ही सृष्टि की समस्त हलचलों का आरम्भ एवं अग्रगमन होता है। अणु सत्ता की गति यहीं से मिलती है। ऊर्जा की तरंग शृंखला इसी केन्द्र से उत्पन्न होकर ब्रह्माण्डव्यापी बनती है।

एकोऽहम् बहुस्यामि की उक्ति का आरम्भ इसी गर्म बिन्दु से आरम्भ होता है। नादयोग की नाभि यही है। शब्द ब्रह्म का अपनी माया स्फुरणा इच्छा के साथ चल रहा यही संयोग ॐ कार के रूप में निस्मृत होकर परा और अपरा प्रकृति के गह्वर में जड़ चेतन की हलचलों एवं गतिविधियों का कारण बनता है।

दीवार में लटकी घड़ी का पेन्डुलम एक बार हिला दिया जाय तो घड़ी की चाबी रहते वह अपने क्रम में निरन्तर हिलता रहता है। ठीक इसी प्रकार एक बार आरम्भ हुई सृष्टि एवं संचालित प्रक्रिया के अनुसार अपना कार्य करती अपनी धुरी पर एक बार घुमाये गये लट्टू की तरह देरी तक घूमती रहती है। इसकी संचालक सत्ता शब्द ब्रह्म की वह ध्वनि है जिसे ॐ कार कहते हैं। यों सुनने में ध्वनि के सप्त स्वर और उनके आरोह−अवरोह शब्दों का उतार−चढ़ाव भर प्रतीत होते हैं। उनका उपयोग वाद्य−गायन में प्रयुक्त होना भर लगता है पर वस्तुतः उनकी सीमा इतनी स्वल्प नहीं है। मनुष्यकृत स्वर लहरी के अतिरिक्त प्रकृतिगत स्वर प्रवाह और जीवधारियों द्वारा विविध प्रकार के उच्चारण भी कम महत्व के नहीं हैं। मेघ गर्जन, समुद्र की लहरों का विद्युत शोर की कड़क, वायु की सनसनाहट तथा पक्षियों का कलरव सुनकर ऐसा लगता है कि स्वर ब्रह्म अपने अगणित ध्वनि प्रवाहों में न जाने कितने भाव भरे संकेतों और सन्देशों को इस विश्व ब्रह्माण्ड में भरता रहता है।

यह सब आहत ध्वनियाँ हैं जो कानों से सुनी जा सकती हैं। वे ध्वनियाँ भी विज्ञान की पकड़ में आ गयी हैं जो मनुष्य के कानों से सुनी जा सकने वाली मर्यादा से या तो ऊँची हैं या नीची। आविष्कृत साधन उपकरणों द्वारा उन्हें उसी प्रकार सुना जा सकता है जैसे खुली आँख से न दिखने वाले लघु जीवाणु सूक्ष्म दर्शक यन्त्रों से भली प्रकार देखे जा सकते हैं। ये प्रकृतिगत ध्वनियाँ हैं जो जड़ अणुओं के परस्पर आघात से उत्पन्न होती हैं।

इससे उच्चस्तर की ध्वनियाँ वे हैं जिन्हें जड़ परमाणुओं द्वारा स्पन्दित नहीं कहा जा सकता। उनका सीधा सम्बन्ध चेतना जगत के जीवन प्रवाह से है–मूल स्रोत चेतना तत्व है। इसलिए उन्हें ब्रह्म वाणी भी कहते हैं। इसी का अलंकारिक वर्णन कृष्ण की वंशी, शंकर के डमरू, सरस्वती की वीणा के रूप में किया जाता है। सरस्वती की वीणा मानवी काया का मेरुदण्ड, कृष्ण वंशी की कण्ठ स्थित स्वर नलिका, शंकर का डमरू धड़कता हुआ हृदय कहा जा सकता है। लप−डप को, धड़कन को शंकर का डिमडिम घोष कहा जाता है। श्वास नलिका में वायु का आवागमन ‘सोऽहम्’ की ध्वनि में कृष्ण−बांसुरी के रूप में निनादित होता है। 

कृष्ण द्वारा रात्रि की नीरवता में वंशी बजाये जाने और गोपियों के घर−बार छोड़कर उस रास आह्वान को सुनकर निकल पड़ने का सविस्तार वर्णन भागवत आदि पुराणों में मिलता है। यह सामाजिक एवं व्यावहारिक मर्यादाओं की दृष्टि से प्रतिकूल लगता है, पर अध्यात्म परम्परा के सर्वथा अनुकूल है। वस्तुतः कथा–गाथाओं में रहस्यमय पहेली की तरह गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों का उद्घाटन किया गया है। रास−लीला के पीछे नादयोग की व्याख्या विवेचना ही सन्निहित है। भगवान वंशी बजाते हैं अर्थात् मधुर दिव्य रसास्वादन के लिए आह्वान करते हैं। गोपियाँ समस्त साँसारिक बन्धनों को तोड़कर उस ओर दौड़ पड़ती हैं। संकेत आह्वान का स्वागत करती हैं और उसी के लिए आकुल व्याकुल होकर अपना समर्पण कर देती हैं। अपना आपा खोकर दिव्य ध्वनि के साथ थिरकना, नाचना आरम्भ कर देती हैं। यही रासलीला है। कृष्ण अर्थात् परमात्मा, वंशी ध्वनि अर्थात् ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए चल पड़ने का संकेत, गोपियाँ अर्थात् जीव सत्ता की भौतिक एवं आत्मिक सम्पदाएँ रास−नृत्य अर्थात् दिव्य संकेतों के अनुरूप कठपुतली जैसा भाव विभोरआचरण एवं समर्पण।

वर्णन मिलता है कि रासलीला में सम्मिलित गोपियाँ आनन्द विलग्न हो जाती थीं। यों एक पुरुष के साथ इतनी नारियों का सहवास एवं नृत्य न तो अभिनन्दनीय हो सकता है और न ही सामाजिक मर्यादाओं के अनुकूल। पर आत्मा और परमात्मा के बीच आदान−प्रदान का जो भावभरा अलंकारिक चित्रण रासलीला में किया गया है वह पहेली जैसा लगते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि से अर्थपूर्ण तथा तथ्यपूर्ण है। रास की प्रधान नायिका राधा हैं और अन्य सभी सखियाँ सहेलियाँ। वे उनके साथ पूर्ण स्नेह–सहयोग के साथ नृत्य में तल्लीन होती हैं। राधा अर्थात् आत्मा, उनकी सहयोगिनी सखियाँ, अन्तरंग की सत्प्रवृत्तियाँ, बौद्धिक विभूतियाँ और साँसारिक सम्पदाएँ। ये सभी आत्मा का आकांक्षा में सहयोग देती हैं। आत्मा और परमात्मा के मिलन सत्प्रयत्नों में कोई अवरोध नहीं उत्पन्न करतीं वरन् उसे सफल बनाने के लिए अपना पूर्ण समर्पण प्रस्तुत करती हैं। आत्मा की दिव्य आकाँक्षा की पूर्ति में उनका पूरा−पूरा सहयोग मिलता है। यह स्थिति प्राप्त हो सके तो हर राधा को–हर आत्मा को रासलीला का–जीव ब्रह्म मिलन का दिव्य आनन्द मिल सकता है। नादयोग की साधना इसी उपलब्धि के लिए की जाती है।

नादयोग के साधक सूक्ष्म कर्णेन्द्रियों के माध्यम से घण्टा, शंख, नाद, बाँसुरी, वेणु, मेघनाद, निर्झर प्रवाह आदि के रूप में सुनने का प्रयास करते हैं और उसी आधार पर सूक्ष्म प्रकृति के अन्तराल में चल रही अगणित गतिविधियों के ज्ञाता बन जाते हैं। इन स्वर निनादों के साथ जो अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है वह प्रकृति पर आधिपत्य स्थापित करने और उसके अनुदानों का लाभ उठाने में सफल हो जाता है। नादयोग की साधना में कानों की सूक्ष्म चेतना की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। कई बार ये मन्द होती हैं और कई बार अत्यन्त प्रखर। ध्वनियों को श्रवण करने के साथ−साथ उच्चस्तरीय विचारों एवं भावनाओं का समन्वय भी उनके साथ होना चाहिए। कृष्ण की बाँसुरी सुनने की भाव भूमिका का वर्णन किया जा चुका है। बंशी के अतिरिक्त भी कई प्रकार की ध्वनियाँ साधकों को सुनाई पड़ती हैं। उनका तत्व दर्शन समझना भी नादयोग के साधकों के लिए आवश्यक है।

अन्य स्वर लहरियों की भी तात्विक संगति बिठायी जाती है। भगवती सरस्वती अपनी वीणा झंकृत करते हुए ऋतंभरा प्रज्ञा और अनासक्त भूमा के मृदुल मनोरमा तारों को झनझना रही हैं और अपनी अन्तःचेतना में वही दिव्य तत्व उभर रहे हैं। साधक को वीणा की झंकार सुनते समय यह भावना करनी चाहिए। भगवान शंकर का डमरू बज रहा है–उससे प्रलय के –मरण के संकेत आ रहे हैं और सुझाया जा रहा है कि इस नश्वर काया का अन्त करने वाला ताण्डव किसी भी सम्मुख आ सकता है, इसलिए प्रमाद में न उलझा जाय। माया−मोह से निकला एवं यथार्थता को समझा जाता। शंखनाद की ध्वनि को महाभारत के पाञ्चजन्य का, महाकाल में भैरव नाद का उद्घोष माना जाय और ऐसा अनुभव किया जाय कि अब महाप्राण का ऐसा समय आ पहुँचा है जिसमें आनाकानी करने की गुँजाइश नहीं है। युग की–कर्त्तव्य की–पुकार गुँजित हो रही है कि अविलम्ब जीवनोद्देश्य की दिशा में कदम बढ़ाया जाय। 

नादयोग का अभ्यास जब परिपक्व होने लगता है तो भावोत्कर्ष से आगे बढ़कर सुविस्तृत अन्तरिक्ष में संव्याप्त हलचलों को समझने का अवसर मिलता है। ‘ब्रह्माण्ड में संसार को प्रभावित करने वाली अगणित ब्रह्म प्रेरणाओं के प्रवाह बहते रहते हैं। उनके स्पन्दन हमारी कर्णेन्द्रियों से शब्द रूप में टकराते हैं। उन्हें पहचानने और पकड़ने की क्षमता साधना में परिपक्वता के साथ−साथ सहज ही बढ़ने लगती है। सूक्ष्म जगत की अदृश्य घटनाओं का बोध होने लगता है। क्या हो रहा है और क्या होने वाला है, उसकी जानकारी नादयोग के साधक को मिल जाती है। इस अविज्ञात स्तर को ज्ञात स्तर पर उतारने में नादयोग की साधना बहुत ही उपयोगी एवं प्रभावशाली सिद्ध होती है।

नाद साधना में मिलने वाले संकेत सूत्र ऐसे होते हैं जिनके सहारे परमात्मा के विभिन्न शक्ति स्रोतों के साथ आदान−प्रदान कर सकना सम्भव है। जिस प्रकार टेलीग्राम, टेलीफोन, वायरलैस, टेलीविजन पद्धतियों का आश्रय लेकर हम दूरवर्ती व्यक्तियों से संपर्क साध सकते तथा परस्पर विचार विनिमय कर सकते हैं ठीक उसी तरह ईश्वर के विभिन्न शक्ति केंद्रों के साथ इन ध्वनियों के माध्यम से सम्बन्ध मिला सकते हैं और उस स्थिति पर पहुँच सकते हैं कि अपनी बात ईश्वर तक पहुँचा सकें और उससे आवश्यक निर्देश प्राप्त कर सकें। सिद्ध पुरुषों एवं योगियों में यह विशेषता दिखायी पड़ती है। वे ऐसे ही माध्यमों के आधार पर अपने को परमेश्वर के साथ जोड़कर अभीष्ट आदान−प्रदान का लाभ प्राप्त करते हैं।

नादयोग की महिमा से शास्त्रों के पन्ने भरे पड़े हैं–

उक्त त्ममानतः पूर्व पश्चात् च विविधः कंपे। अभिव्यंजन्त एतस्य नादास्तत्सिद्धि सूचकाः॥
अनाहतमनुच्चार्य शब्द ब्रह्म परं शिवम्। ब्रह्मरधंर गतेवायौ नादश्चोत्पद्यतेऽनघ॥ शंख ध्वनि निभश्चादो मध्ये मेघध्वनिर्यथा॥

पवने व्यौम सम्प्राप्ते ध्वनि रुत्पद्यते महान्। घण्टादीनाँ प्रवाद्यानाँ ततः सिद्धिरदूरतः॥ 

भावार्थ यह कि जब अन्तर में ज्योति स्वरूप आत्मा का प्रकाश जागता है तब साधक को कई प्रकार के नाद सुनाई पड़ते हैं। इसमें से एक व्यक्त होते हैं दूसरे अव्यक्त। जिन्हें किसी बाहर के शब्द से उपमा न दी जा सके उन्हें अव्यक्त कहते हैं, यह अन्तर में सुनायी पड़ते हैं और उनकी अनुभूति मात्र होती है। जो घण्टा आदि की तरह कर्णेन्द्रियों द्वारा अनुभव में आवें उन्हें व्यक्त कहते हैं। अव्यक्त ध्वनियों को अनाहत अथवा शब्दब्रह्म भी कहा जाता है।

‘चित्त की चंचलता’ की रोकथाम करने में नादयोग की साधना विशेष रूप से सहायक सिद्ध होती है। नादयोग चंचल मन के निग्रह एवं प्राणों के निरोध में उसी प्रकार सफल सिद्ध होता है जिस तरह सपेरा विषधर चपल सर्प को पकड़ने में। इस अभ्यास में चित्तवृत्ति नाद श्रवण में लीन हो जाती है। फलस्वरूप मन की चंचलता अपने आप रुक जाती है। इससे चित्त में शास्त्र भाव प्रबल होता है और वासना की मादकता से विरक्ति होती चली जाती है। शास्त्रकार इसी तथ्य को स्पष्ट करता है–

बुद्धः सुनाद−गन्धेन सधः संत्यक्त चापलम्। नाद ग्रहणतश्चिन्तमतरंग भुजंगम्॥

विस्मृत्य विश्वमेकाग्र कुत्रचिन्निहि धावति। मदोन्मत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यान चारिणः॥
नियामन समर्थोज्यं निनादो निशिताँकुशः।

अर्थात्– सपेरे की बीन से सुध−बुध खो देने वाले सर्प की तरह नाद साधना से चित्त स्थिर हो जाता है और अपनी चपलताएँ भूल जाता है। वह कहीं दौड़ता भागता नहीं। विषय वासनाओं के उद्यान में मदोन्मत्त गजेन्द्र की तरह विचरण करने वाले मन के नियमन में यह नाद का अंकुश ही समर्थ हैं।

पंचदेव पूजा ।।

पूजा करना हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। हिंदू धर्म शास्त्रों में वैदिक काल से पंचदेव की पूजा करना अनिवार्यतः बताया गया है। इनमें गणेश, सूर्य, विष्णु, शिव और दुर्गा ये पांच देव पूजने का विधान है। इन्हें पंचायतन कहा जाता है। शास्त्रानुसार प्रत्येक गृहस्थ के पूजागृह में इन पांच देवों के विग्रह होना अनिवार्य है। लेकिन अक्सर देखने को आता है कि लोग पंचदेव की पूजा तो करते हैं, लेकिन वे उनकी पूजा का सही क्रम नहीं जानते। इन पांच देवों के विग्रहों को अपने ईष्ट देव के अनुसार सिंहासन में स्थापित करने का एक निश्चित क्रम है। आइए जानते हैं किस देव का पंचायतन सिंहासन में किस प्रकार रखा जाता है।

गणेश पंचायतन यदि आपके ईष्ट देव गणेश हैं तो आप अपने पूजागृह में गणेश पंचायतन की स्थापना करें। इसके लिए आप सिंहासन के ईशान कोण में विष्णु, आग्नेय कोण में शिव, मध्य में गणेश, नैर्ऋत्य कोण में सूर्य एवं वायव्य कोण में देवी विग्रह को स्थापित करें।

शिव पंचायतन यदि आपके ईष्ट देवता शिव हैं तो आप अपने पूजागृह में शिव पंचायतन की स्थापना करें। इसके लिए आप सिंहासन के ईशान कोण में विष्णु, आग्नेय कोण में सूर्य, मध्य में शिव, नैर्ऋत्य कोण में गणेश एवं वायव्य कोण में देवी विग्रह को स्थापित करें।

विष्णु पंचायत यदि आपके ईष्ट देव विष्णु हैं तो आप अपने पूजागृह में विष्णु पंचायतन की स्थापना करें। इसके लिए आप सिंहासन के ईशान कोण में शिव, आग्नेय कोण में गणेश, मध्य में विष्णु, नैर्ऋत्य कोण में सूर्य एवं वायव्य कोण में देवी विग्रह को स्थापित करें।

दुर्गा (देवी) पंचायतन यदि आपकी ईष्ट देव दुर्गा देवी हैं तो आप अपने पूजागृह में देवी पंचायतन की स्थापना करें। इसके लिए आप सिंहासन के ईशान कोण में विष्णु, आग्नेय कोण में शिव, मध्य में दुर्गा (देवी), नैर्ऋत्य कोण में गणेश एवं वायव्य कोण में सूर्य विग्रह को स्थापित करें।

सूर्य पंचायतन यदि आपके ईष्ट देव सूर्य देवता हैं तो आप अपने पूजागृह में सूर्य पंचायतन की स्थापना करें। इसके लिए आप सिंहासन के ईशान कोण में शिव, आग्नेय कोण में गणेश, मध्य में सूर्य, नैर्ऋत्य कोण में विष्णु एवं वायव्य कोण में देवी विग्रह को स्थापित करें।

क्यों जरूरी है पंचदेव पूजा: पंच देव की पूजा का निर्देश हमारे वेदों में मिलता है। गणेश, सूर्य, विष्णु, शिव और दुर्गा इन पांच देवों की पूजा का नियम इसलिए बनाया गया है, क्योंकि यही पांच देव प्रत्येक मनुष्य को जीवित अवस्था में और मृत्यु के बाद मोक्ष प्रदान करते हैं। इनमें गणेश तो हमारे प्रथम पूज्य देवता हैं ही। गणेश की पूजा से ज्ञान, बुद्धि, विवेक की प्राप्ति होती है। जीवन के लिए स्वस्थ रहना आवश्यक है और सूर्य की पूजा से मनुष्य को आरोग्यता प्राप्त होती है। विष्णु की पूजा से धन, संपदा और सत्गुणों की प्राप्ति होती है। दुर्गा साहस और बल प्रदान करती है। और शिव की पूजा से इस लोक और परलोक में मनुष्य शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करता है।
शास्त्रोमें पंचदेवों की उपासना करने का विधान हैं।

आदित्यं गणनाथं च देवीं रूद्रं च केशवम्।
पंचदैवतमित्युक्तं सर्वकर्मसु पूजयेत्।। (शब्दकल्पद्रुम)

भावार्थ :– पंचदेवों कि उपासना का ब्रह्मांड के पंचभूतों के साथ संबंध है। पंचभूत पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश से बनते हैं। और पंचभूत के आधिपत्य के कारण से आदित्य, गणनाथ(गणेश), देवी, रूद्र और केशव ये पंचदेव भी पूजनीय हैं। हर एक तत्त्व का हर एक देवता स्वामी हैं :-

आकाशस्याधिपो विष्णुरग्नेश्चैव महेश्वरी।
वायोः सूर्यः क्षितेरीशो जीवनस्य गणाधिपः।।

भावार्थ :- क्रम इस प्रकार हैं महाभूत अधिपति

1. क्षिति (पृथ्वी) शिव
2. अप् (जल) गणेश
3. तेज (अग्नि) शक्ति (महेश्वरी)
4. मरूत् (वायु) सूर्य (अग्नि)
5. व्योम (आकाश) विष्णु

१. भगवान् श्रीशिव पृथ्वी तत्त्व के अधिपति होने के कारण उनकी शिवलिंग के रुप में पार्थिव-पूजा का विधान हैं।

२. भगवान् विष्णु के आकाश तत्त्व के अधिपति होने के कारण उनकी शब्दों द्वारा स्तुति करने का विधान हैं।

३. भगवती देवी के अग्नि तत्त्व का अधिपति होने के कारण उनका अग्निकुण्ड में हवनादि के द्वारा पूजा करने का विधान हैं।

४. श्रीगणेश केजलतत्त्व के अधिपति होने के कारण उनकी सर्वप्रथम पूजा करने का विधान हैं, क्योंकि ब्रहमांड में सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाले जीव तत्व् ‘जल’ का अधिपति होने के कारण गणेशजी ही प्रथम पूज्य के अधिकारी होते हैं। 

पंचोपचार पूजन क्रम / विधि :-

१. गणपति ध्यान :-

खर्वं स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरं
प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम्‌ ।

दन्ताघातविदारितारिरुधिरैः सिन्दूरशोभाकरं
वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम्‌ ॥

ॐ गं गणपतये गंधम समर्पयामि

ॐ गं गणपतये पुष्पं समर्पयामि

ॐ गं गणपतये धूपं समर्पयामि

ॐ गं गणपतये दीपं समर्पयामि।

ॐ गं गणपतये नैवेद्यं समर्पयामि

ॐ गं गणपतये ताम्बूलं समर्पयामि

२. विष्णु का ध्यान :-

उद्यत्कोटिदिवाकराभमनिशं शंख गदां पंकजं
चक्रं बिभ्रतमिन्दिरावसुमतीसंशोभिपार्श्वद्वयम्‌।

कोटीरांगदहारकुण्डलधरं पीताम्बरं कौस्तुभै-
र्दीप्तं श्विधरं स्ववक्षसि लसच्छीवत्सचिह्रं भजे॥

ॐ श्री विष्णवे गंधम समर्पयामि

ॐ श्री विष्णवे पुष्पं समर्पयामि

ॐ श्री विष्णवे धूपं समर्पयामि

ॐ श्री विष्णवे दीपं समर्पयामि

ॐ श्री विष्णवे नैवेद्यं समर्पयामि

ॐ श्री विष्णवे ताम्बूलं समर्पयामि

३. शिव का ध्यान :-

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारूचंद्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलांग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्‌ ।

पद्मासीनं समन्तात्‌ स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं
विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभय हरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्‌ ।

ॐ नमः शिवाय गंधम समर्पयामि

ॐ नमः शिवाय पुष्पं समर्पयामि

ॐ नमः शिवाय धूपं समर्पयामि

ॐ नमः शिवाय दीपं समर्पयामि

ॐ नमः शिवाय नैवेद्यं समर्पयामि

ॐ नमः शिवाय ताम्बूलं समर्पयामि

४. सूर्य का ध्यान :-

रक्ताम्बुजासनमशेषगुणैकसिन्धुं
भानुं समस्तजगतामधिपं भजामि।

पद्मद्वयाभयवरान्‌ दधतं कराब्जै-
र्माणिक्यमौलिमरुणांगरुचिं त्रिनेत्रम्‌॥

ॐ श्री सूर्याय गंधम समर्पयामि

ॐ श्री सूर्याय पुष्पं समर्पयामि

ॐ श्री सूर्याय धूपं समर्पयामि

ॐ श्री सूर्याय दीपं समर्पयामि

ॐ श्री सूर्याय नैवेद्यं समर्पयामि

ॐ श्री सूर्याय ताम्बूलं समर्पयामि

५. दुर्गा का ध्यान :-

सिंहस्था शशिशेखरा मरकतप्रख्यैश्चतुर्भिर्भुजैः
शंख चक्रधनुः शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता।

आमुक्तांगदहारकंकणरणत्काञ्चीरणन्नूपुरा
दुर्गा दुर्गतिहारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला॥

ॐ दुं दुर्गायै गंधम समर्पयामि

ॐ दुं दुर्गायै पुष्पं समर्पयामि

ॐ दुं दुर्गायै धूपं समर्पयामि

ॐ दुं दुर्गायै दीपं समर्पयामि

ॐ दुं दुर्गायै नैवेद्यं समर्पयामि

ॐ दुं दुर्गायै ताम्बूलं समर्पयामि

इस प्रकार पूजन प्रक्रिया पूरी करने के पश्चात दक्षिणा – प्रदक्षिणा एवं आरती संपन्न करें और पंचदेवों से अपने तथा परिवार के कल्याण की कामना करें -!

￰ये हमारे पांच सनातन देव है इनकी ये तस्वीर हर सनातन धर्म के घर के पूजा स्थल पर होनी चाहिए सभी वास्तु ग्रह और दैहिक देविक भौतिक तापो और पाप को हर लेगी समस्त पुण्य देने वाला है ....ये ही हमारे पांच परमेश्वर है 
गणेश शिव भगवती सूर्य नारायण जो इनकी नित्य पूजा करे उनको धर्म अर्थ काम इच्छा क्रिया शक्ति बुद्धि सिद्धि और मोक्ष प्राप्त होता है .....आप भी इसको अपने घर में विराजमान करे 

ॐ सनातनाय नमः