Follow us for Latest Update

विभिन्न शिवलिङ्ग ।।

         हमारे देश में प्राय सर्वत्र पार्थिव पूजन प्रचलित है परंतु विशेष विशेष स्थानों मैं शिवलिंग की स्थापना है। यह स्थावर मूर्तियां होती है। बाणलिंग या सोने चांदी के छोटे लिंग जग्ड़ंम कहलाते हैं। इन्हें प्राचीन पाशुमत संप्रदाय वाले एवं आजकल के लिंगायत संप्रदाय वाले पूजा के व्यवहार में लाने के लिए अपने साथ लिए फिरते हैं अथवा बाह गले में बांधे रहते हैं।
  लिंग विविध द्रव्यों के बनाए जाते हैं गरुण पुराण में इसका अच्छा विस्तार है यहां जानकारी के लिए संक्षेप में वर्णन दे रहा हूं।
गंधलिङ्ग --- दो भाग कस्तूरी 4 भाग चंदन और 3 भाग कुमकुम से बनाते हैं। शिवसायुज्यार्थ इसकी अर्चना की जाती है।
पुष्प लिङ्ग -- विविध सौरभमय फूलों से बना कर पृथ्वी के आधिपत्य लाभ के लिए पूजते हैं।
गोशकृल्लिंग --स्वच्छ कपिल वर्ण के गोबर से बनाकर पूजने से ऐश्वर्य मिलता है परंतु जिसके लिए बनाया जाता है वह मर जाता है। मिट्टी पर गिरे गोबर का व्यवहार वर्जित हैं।
रजोमयलिङ्ग -- रज से बना कर पूजने वाला विद्याधरत्व और फिर शिवासायुज्य पता है।
यवगोधूमशालिज -- जौं, गेहूं, चावल के आटे का बना कर श्रीपुष्टि और पुत्र लाभ के लिए पूजते हैं।
सीताखण्डमय लिङ्ग -- से आरोग्य लाभ होता है।
लवणजलिंङ्ग -- हरताल, त्रिकटु को लवण मे मिलाकर बनता है। इससे उत्तम प्रकार का वशीकरण होता है।
तिलपिष्टोत्थलिङ्ग --अभिलाषा सिद्धि करता है।
तुषोत्थलिङ्ग--मारणशील है, भस्ममयलिङ्ग --सर्वफलप्रद, गुडोत्थलिङ्ग --प्रीति बढ़ाने वाला है और शर्करामयलिंग सुखप्रद है।
वंशाङ्कुरमयलिङ्ग--वंशकर है केशास्थिलिङ्ग सर्व शत्रु नाशक है।
द्रुमोद्भूतलिङ्ग--दारिद्र्यकर, पिष्टमय विद्याप्रद और दधीदुग्धोद्भतलिङ्ग कृर्ति, लक्ष्मी और सुख देता है। धात्रीफलजात मुक्तिप्रद नवनीतज कृर्ति और सौभाग्य देता है। दूर्वाकाण्डज अपमृत्युनाशक, कर्पूरज मुक्ति प्रद, अयस्कान्तजमणिज सिद्धि प्रद, मौक्तिक सौभाग्यकर स्वर्ण निर्मित महामुक्ति प्रद, रजत भूति वर्धक है।
पित्तलज तथा कास्यज मुक्ति प्रदान करने वाला, त्रपुज,आयस और सीसकज शत्रु नाशक होता है। अष्टधातुज सर्व सिद्धिप्रद अष्टलोहजात कुष्ठ नाशक, वैदूयर्ज शत्रुदर्पनाशक और स्फटिकलिङ्ग सर्वकामप्रद है। परंतु ताम्र, सिसक, रक्त चंदन, शड़्ख, कांसा लोहा इन के लिङ्गो की पूजा कलयुग में वर्जित है। पारे का शिवलिंग विहित है और ऐश्वर्य दायक है।
         लिङ्ग बनाकर उसका संस्कार पार्थिव लिङ्गो को छोड़ और सब लिङ्गो के लिए करना पड़ता है। स्वर्ण पात्र में दूध के अंदर तीन दिनों तक रखकर त्रयंबक यजामहे आदि मंत्रों से स्नान कराकर वेदी पर पार्वती जी की सर षोडशोपचार से पूजा करनी उचित है। फिर पात्र से उठाकर लिंग को 3 दिन तक गंगाजल में रखना होता है फिर प्राण प्रतिष्ठा करके स्थापना की जाती है।
       पार्थिवलिङ्ग एक या दो तोला मिट्टी लेकर बनाते हैं। ब्राह्मण सफेद, क्षत्रिय लाल, वैश्य पीली और शूद्र काली मिट्टी लेता है परंतु यह जहां अव्यवहार्य हो वहां कोई हर्ज नहीं मिट्टी चाहे जैसी मिले।
     लिङ्ग साधारणतया अङ्गुष्ट प्रमाण का बनाते हैं। पाषाण आदि के लिङ्ग मोटे और बड़े बनते हैं। लिङ्ग से दुगनी वेदी और उसका आधा योनिपीठ करना होता है।
लिङ्ग की लंबाई कम होने से शत्रु की वृद्धि होती है। योनिपीठ बिना या मस्तक आदि अंग बिना लिङ्ग बढ़ाना अशुभ है। पार्थिवलिङ्ग अपने अंगूठे के एक पोरवे भर बनाना होता है। लिङ्ग सुलक्षणा होना चाहिए। लक्षण मंगलकारी होता है।

         लिङ्ग मात्र की पूजा में पार्वती परमेश्वर दोनों की पूजा हो जाती है। लिङ्ग के मूल में ब्रह्मा मध्य देश में त्रिलोकीनाथ विष्णु और ऊपर प्रणव वाख्य महादेव स्थित हैं। वेदी महादेवी है और लिङ्ग महादेव हैं। अतः एक लिङ्ग की पूजा से सब की पूजा हो जाती है (लिङ्ग पुराण)। पारद के लिङ्ग का सबसे अधिक महात्मय है। पारद शब्द में प= विष्णु, आ=कालिका, र=शिव, द=ब्रह्मा इस तरह सभी स्थित हैं। उसके बने लिङ्ग की पूजा से जो जीवन में एक बार भी की जाए तो धन, ज्ञान, सिद्धि और ऐश्वर्य मिलते हैं।
     यहां तक तो लिङ्ग निर्माण की बात हुई परंतु नर्मदा आदि नदियों में भी पाषाण लिङ्ग मिलते हैं। नर्मदा बाणलिङ्ग भुक्ति मुक्ति दोनों देता है। बाणलिङ्ग की पूजा इंद्र आदि देवों ने की थी। इसकी वेदिका बनाकर उस पर स्थापना करके पूजा करते हैं। वेदी तांबा स्फटिक सोना पत्थर चांदी या रुपए की भी बनाते हैं परंतु नदी से बाणलिङ्ग निकाल कर पहले परीक्षा होती है। फिर संस्कार पहले एक बार लिङ्ग के बराबर चावल लेकर तौले। फिर दूसरी बार उसी चावल से तौलने पर लिङ्ग हल्का ठहरे तो गृहस्थों के लिए वह लिङ्ग पूजनीय है। 3-5 या 7 बार तौलने पर भी तौल बराबर निकले तो उस लिङ्ग को जल में फेंक दे। यदि तौल मैं भारी निकले तो वह लिङ्ग उदासीनो के लिए पूजनीय है। तौल मैं कमी बेशी ही बाणलिङ्ग की पहचान है। जब बाणलिङ्ग होना निश्चित हो जाए तब संस्कार करना उचित है। संस्कार के बाद पूजा आरंभ होती है। पहले सामान्य विधि से गणेशादि की पूजा होती है। फिर बाणलिङ्ग को स्नान कराते हैं। स्नान कराकर यह ध्यान मंत्र
ॐ प्रमत्तं शक्तिसंयुक्तं बाणाख्यं च महाप्रभम् ।
कामवाणान्वितं देवं संसारदहनक्षमम् ।
श्रडङ्गारादिसोल्लासं वाणाख्यं परमेश्वरम्।।

पढ़कर मनसोपचार से तथा फिर से ध्यान कर पूजा करनी होती है। भरसक षोडशोपचार पूजा होती है फिर जब करके स्तवन पाठ करने की पद्धति है। बाणलिङ्ग की पूजा में आवाहन और विसर्जन नहीं होती।
     बाणलिङ्ग के प्रकार बहुत हैं। विस्तार भय से यहां हम उनका उल्लेख नहीं करते हैं। हां यह जानना आवश्यक है कि बाणलिङ्ग निन्द्य ना हो। कर्कश होने से पुत्र दारादिक्षय, चिपटा होने से गृह भंग एकपाशर्वस्थि होने से पुत्र- दारादि-धनक्षय शिरोदेश स्फुटित होने से व्याधि छिद्र होने से प्रवास और लिङ्ग ने कर्णिका रहने से व्याधि होती है। ये निन्द्य लिङ्ग है, इनकी पूजा वर्जित है। तीक्ष्णाग्र, वक्र शीर्ष तथा त्रिकोण लिङ्ग भी वर्जित है। अभी स्थूल, अति कृश, स्वल्प, भूषणयुक्त मोक्षार्थियों के लिए है, गृहस्थों के लिए वर्जित है।
    मेघाभ और कपिल वर्ण का लिङ्ग शुभ है परंतु गृहस्थ लघु या स्थूल कपिल वर्ण वाले की पूजा ना करें। भौरे की तरह काला लिङ्ग सपीठ हो गया है अपीठ संस्कात हो या मंत्र संस्कार रोहित भी हो तो गृहस्थ उसकी पूजा कर सकता है। बाणलिङ्ग प्रायः कमलगट्टे की शक्ल का होता है। पकी जामन या मुर्गी के अंडे के अनुरूप भी होता है। सफेद, नीला और शहद के रंग का भी होता है। यही लिङ्ग प्रशस्त है। इन्हें बाणलिङ्ग इसलिए कहते हैं कि बाणासुर ने तपस्या करके महादेव जी से वर पाया था कि वे पर्वत पर सर्वदा लिङ्ग रूप में प्रकट रहे। एक बाणलिङ्ग की पूजा से अनेक और लिङ्गो की पूजा का फल मिलता है। 

महाकुम्भ क्या है?

 कुम्भ परिपूरित करने को कहते हैं।इसका अर्थ हुआ जो अपने प्रभाव से पृथ्वी को
तेज और दिव्यता से भर दे वह कुम्भ है।

-- भारतवर्ष में चार स्थानों पर महाकुम्भ लगते हैं।ये चार स्थान हैं --१. हरिद्वार (माया) २. प्रयाग ३- उज्जयिनी
और ४. नासिक ।

-- महाकुम्भ सूर्य,चंद्र और बृहस्पति के योग से लगते हैं।अतःप्रत्येक स्थान में महाकुम्भ बारह वर्षों के अन्तर पर पड़ता है।कभी कभी यह बारह वर्ष की जगह ग्यारह वर्ष या तेरह वर्ष पर भी पड़ता है पर यह स्थिति बृहस्पति की गति के कारण आती है।
हम यहाँ एक सारिणी दे रहे हैं जिसमें महाकुम्भ की ग्रह स्थिति को देखा जा सकता है।
----------------------------
स्थान सूर्य चन्द्र बृहस्पति नदी
-----------------------------
१.हरिद्वार--- मेष मेष कुम्भ गंगा

२. प्रयाग--- मकर मकर वृष गंगा(त्रिवेणी)

३. उज्जयिनी--मेष मेष सिंह शिप्रा

४. नासिक--- सिंह सिंह सिंह गोदावरी
-----------------------------
-- बृहस्पति प्रायः बारह वर्षों बाद घूम कर पुनः उसी राशि पर आता है।इसी कारण महाकुम्भ बारह वर्षों पर पड़ता है। ८४ वर्षों में यह ११ वर्षों पर ही पुनः उसी राशि पर आता है।यह अपवाद होता है।

-- ध्यानरहे महाकुम्भ में सूर्य और चंद्रमा एक ही राशि पर रहते हैं। यह स्थिति अमावस्या के दिन आती है। सूर्य और चन्द्र की युति ( योग ) ही अमावास्या है।अतःमहा कुम्भ में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्नान अमावस्या के दिन होता है। इसके बाद सूर्य संक्रान्ति के दिन का स्नान होता है।तीसरा स्नान पूर्णिमा का होता है। शेष दो स्नान अन्य दो महत्त्वपूर्ण तिथियों में होते हैं।इस प्रकार महा कुम्भ में पांच महत्त्वपूर्ण स्नान होते हैं।

-- चार महाकुम्भ चार नदियों के तट पर लगते हैं। हरिद्वार का महाकुम्भ भगवतीं गंगा के तट पर लगता है और प्रयाग का महाकुम्भ गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम स्थल तीर्थराज में लगता है।उज्जयिनी का महाकुम्भ शिप्रा नदी के तट पर लगता है।यहनदी अपेक्षाकृत छोटीहै अन्य की अपेक्षा।नासिकका महाकुम्भ गोदावरीके तटपरलगता है।गोदावरीको गंगाकी तरह पवित्र और तारक मानाजाता है।

--उज्जयिनी और नासिक में ज्योतिर्लिंग हैं।महाकाल के कारण उज्जयिनी और त्रयम्बकेश्वर के कारण नासिक के महाकुम्भ का महत्त्व बढ़ जाता है। तीर्थराज प्रयाग भगवान ब्रह्मा की यज्ञभूमि है और हरिद्वार स्वर्गद्वार है।
अंग्रेजों ने १७५० में गंगा को बांधने की योजना बनाई।न रहेगी गंगा न लगेंगे हरिद्वार और प्रयाग के दो महाकुम्भ।
सन २००० के महाकुम्भ के बाद टेहरी बांध में गंगा पूरी तरह रोक दी गयी। फिर भी महाकुम्भ का फैलाव और चकाचौंध बढ़ता ही जा रहा है।

--महाकुम्भ द्वि चान्द्रमास स्पर्शी होता है।अतः यह अधिक से अधिक दो माह के लिए ही लगता है।जो इसे व्यावसायिक बना कर चार माह का लगाते हैं वे गलत करते हैं और प्रकृति द्वारा दंडित भी होते है। मध्यप्रदेश सरकार ने पिछला महाकुम्भ चार मास तक चलाया था।परिणाम अशुभ ही रहा।

-- महाकुम्भ धार्मिक पर्व है।इसे पर्यटन या उत्सवधर्मी प्रधान नहीं बननेदेना चाहिए।सम्पूर्ण भारतकी धर्मपरम्परा
इस मेलेमें एकसाथ देखनेको मिलतीहै।उत्सव औरपर्यटन के अतिरिक्त इसमें भारत और नेपाल के गुमनाम संत भी देखने को मिलते हैं। सरस्वती अन्तःसलिला भले हो पर महाकुम्भ में संस्कृति सलिला नदीतो प्रत्यक्ष दिखलाईदेती है।

-- हरिद्वार,प्रयागऔर उज्जयिनीके महाकुम्भ पूर्णिमा से आरम्भ होते हैं। नासिक का महाकुम्भ अमावस्या से आरम्भ होता है।गोदावरी का प्राचीन नाम गौतमी भी है।
हरिद्वार और उज्जयिनी के कुम्भ अप्रैल मास में लगते हैं।
प्रयाग का महाकुम्भ जनवरी में और नासिक का कुम्भ अगस्त मास में सम्पन्न होते हैं।
      कुम्भके चारों स्थानोंके अनेक दर्शनीय स्थलोंका दर्शन श्रद्धालु गण करते हैं। महाकुम्भ स्नान का फल अश्वमेध और वाजपेय यज्ञके तुल्य कहा गयाहै।आंखों कीसफलता महाकुम्भ को देखने मेंहै जहाँ सहस्रनयन होनेकासुख इन्द्र को शुभ महसूस होता है।

शनिदेव से संबंधित कुछ प्रश्न एवं उनके उत्तर ।।

शनिदेव मानव शरीर के किस स्थान पर निवास करते हैं?
शनिदेव मानव शरीर में उदर स्थान पर निवास करते हैं एवं यहीं पर राहु केतु के साथ मिलकर क्रियाशील होते हैं। शनी स्नायु मंडल के स्वामी हैं।

शनि देव के अधिदेवता एवं प्रत्याधि देवता कौन-कौन हैं?
शनिदेव के अभी देवता यम एवं प्रत्यादी देवता प्रजापति हैं।

शनि का वाहन क्या है?
मुख्य रूप से शनि का वाहन गीद्ध एवं लोहे से बना रथ है परंतु यह काले कुत्ते के ऊपर भी आरुढ़ होते हैं।

शनि देव के अस्त्र-शस्त्र क्या है?
शनि देव मुख्य रूप से गदा, धनुष, बाण एवं त्रिशूल धारण करते हैं। इनका एक हाथ वर मुद्रा में भी होता है इनके शरीर से नीली किरणें उत्सर्जित होती रहती है।

शनि देव एक राशि में कितने समय रुकते हैं।
शनि देव एक एक राशि में 30-30 माह रहते हैं। और 30 वर्ष मैं ही सब राशियों को पार कर जाते हैं। यह मकर और कुंभ राशि के स्वामी हैं।

किन राशियों में उच्च और नीच के होते हैं?
तुला राशि में यह उच्च के होते हैं एवं मेष राशि में नीच स्थान के होते हैं।

शनी की धातु क्या है?
शनि ग्रह की धातु लोहा अनाजों में चना और दालों में उड़द की दाल है। लौह तत्व की कमी से मनुष्य का चलना फिरना भी असंभव हो जाता है। शनि के प्रभाव के कारण शरीर में लौह तत्व की अचानक कमी हो जाती है एवं औषधि खाने पर भी लौह तत्व की कमी पूरी नहीं होती है।

शनि गायत्री मंत्र क्या है?
शनि गायत्री मंत्र "ॐ कृष्णांगाय विद्ममहे रविपुत्राय धीमहि तन्न: शौरि: प्रचोदयात्" हैं।
                 
शनी कितने चरणों में प्रभाव डालते हैं?
शनी अपना प्रभाव तीन चरणों में दिखाते हैं जो साढे सात सप्ताह से साढे वर्ष तक के समय के लिए होता है पहले चरण में जातक का अपना संतुलन बिगड़ जाता है और वह अपने निश्चय विचार से इधर उधर भटक जाता है। अर्थात उसके हर कार्य में उसके विचारों में स्थिरता का अभाव होने लगता है और वह बेकार की परेशानियों से गिरने लगता है। दूसरे चरण में उसे कुछ मानसिक तथा शारीरिक रोग भी घेरने लगते हैं एवं उसका कष्ट भी और भी बढ़ जाता है। तीसरे तथा अंतिम चरण तक पहुंचते जातक का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है और उसमें क्रोध की मात्रा और अधिक हो जाती है इस समय कोई और ग्रह भी प्रताड़ित कर रहा हो तो जातक के दुखों में और बढ़ोतरी हो जाती है।

ब्रह्मांड में शनि किस जगह स्थित है?
बृहस्पति से दो लाख तथा सूर्य से 14 लाख योजन ऊपर शनि ग्रह मंडल स्थित है।यह वहां से काले एवं नीले रंग की किरणें प्रक्षेपित करते हैं। इनके ऊपर 11 लाख योजन के ऊपर दूरी पर सप्त ऋषि मंडल स्थापित है यहां पर शनि का प्रभाव शुन्य है। सप्त ऋषि मंडल भगवान विष्णु के परम धाम ध्रुव लोक की परिक्रमा करता है शनि ग्रह पश्चिम दिशा में स्थित माने जाते हैं।

शनी के अन्य ग्रहों से कैसे संबंध है?
केतु एवं गुरु से इनकी मित्रता है चंद्रमा से समता बुध से प्रेम एवं मंगल और सूर्य से घोर शत्रुता है। अश्विनी, मधा, मूल, विशाखा, पुनर्वसु नक्षत्रों में यह शुभ फल प्रदान करते हैं एवं पुष्य अनुराधा मृगशिरा चित्रा घनिष्ठा तथा भरनी नक्षत्रों में अशुभ फल देते हैं।

एक बार में बताएं कि शनी को कैसे अनुकूल करें?

उच्च कोटि के तीन सात मुखी वृहद आकार के रुद्राक्ष फल चांदी में बनवाकर धारण कर ले। इसे शनि कवच कहते हैं इस प्रकार आप दुर्लभ शनि कवच से सुरक्षित होंगे।

ब्रह्मांड में सबसे कम घनत्व का ग्रह कौन सा है?
शनि ग्रह आकार में तो बहुत बड़ा है परंतु सबसे हल्का ग्रह शनि ग्रह ही है वास्तव में यह विभिन्न ब्रह्मांड गैसों मुख्य रूप से हिलियम और हाइड्रोजन की एक घनीभूत संरचना है इनके चारों तरफ हिम रूप में छोटे छोटे ग्रह नुमा पिंड परिक्रमा करते रहते हैं।

हमारी पृथ्वी की तुलना में शनि कितने वृहद हैं?
शनि ग्रह दूसरे सबसे बड़े ग्रह हैं हमारे ग्रह मंडल में यह पृथ्वी से 750 गुना ज्यादा बड़े हैं एवं इनके अभी तक 17 चंद्रमा ढूंढ निकाले गए हैं कुछ और भी हो सकते हैं।

शनि ग्रह पर कितने घंटे की रात होती है?
प्रत्येक ग्रह का अपना कालचक्र है पृथ्वी के साढे 29 साल शनि ग्रह के 1 वर्ष के बराबर है। सामान्यतः इस ग्रह पर 10 घंटे 14 मिनट का एक दिन होता है।

क्या शनी जीवित जागृत ग्रह हैं?
ब्रह्मांड का प्रत्येक ग्रह जीवन शक्ति से पूर्ण है। प्रत्येक ग्रह पर उसकी संरचना अनुसार जीवन किसी ना किसी विलक्षण रूप में उपस्थित है। हमारी पृथ्वी पर पंचेेंद्रीय जीवन वृहद जीवन संरचना में मात्र राई के बराबर है। शनी क्रियाशील है आंधी तूफान वर्षा सब कुछ यहां पर होता है।

शनि देव के परिवार का परिचय दीजिए?
शनि देव सूर्य पुत्र हैं। इनकी माता का नाम छाया देवी है। इनका गोत्र कश्यप है। इनके भाई का नाम यम है बहन यमुना है पुत्र मंदी, खर, सुप्त, कुंद, वृद्ध, क्षय, विकृति, चौर्य इत्यादि है इन्हें नमकीन चीजें अत्यधिक प्रिय है।

ग्रह बाधा होने से पूर्व मिलते हैं ये संकेत ।।

ग्रह अपना शुभाशुभ प्रभाव गोचर एवं दशा-अन्तर्दशा-प्रत्यन्तर्दशा में देते हैं । जिस ग्रह की दशा के प्रभाव में हम होते हैं, उसकी स्थिति के अनुसार शुभाशुभ फल हमें मिलता है । जब भी कोई ग्रह अपना शुभ या अशुभ फल प्रबल रुप में देने वाला होता है, तो वह कुछ संकेत पहले से ही देने लगता है ।इनके उपाय करके बढ़ी समस्याओं से बचा जा सकता है | ऐसे ही कुछ पूर्व संकेतों का विवरण यहाँ दिया है – 

सूर्य के अशुभ होने के पूर्व संकेत – सूर्य अशुभ फल देने वाला हो, तो घर में रोशनी देने वाली वस्तुएँ नष्ट होंगी या प्रकाश का स्रोत बंद होगा । जैसे – जलते हुए बल्ब का फ्यूज होना, तांबे की वस्तु खोना । किसी ऐसे स्थान पर स्थित रोशनदान का बन्द होना, जिससे सूर्योदय से दोपहर तक सूर्य का प्रकाश प्रवेश करता हो । ऐसे रोशनदान के बन्द होने के अनेक कारण हो सकते हैं । जैसे – अनजाने में उसमें कोई सामान भर देना या किसी पक्षी के घोंसला बना लेने के कारण उसका बन्द हो जाना आदि । सूर्य के कारकत्व से जुड़े विषयों के बारे में अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है । सूर्य जन्म-कुण्डली में जिस भाव में होता है, उस भाव से जुड़े फलों की हानि करता है । यदि सूर्य पंचमेश, नवमेश हो तो पुत्र एवं पिता को कष्ट देता है । सूर्य लग्नेश हो, तो जातक को सिरदर्द, ज्वर एवं पित्त रोगों से पीड़ा मिलती है । मान-प्रतिष्ठा की हानि का सामना करना पड़ता है । किसी अधिकारी वर्ग से तनाव, राज्य-पक्ष से परेशानी । यदि न्यायालय में विवाद चल रहा हो, तो प्रतिकूल परिणाम । शरीर के जोड़ों में अकड़न तथा दर्द । किसी कारण से फसल का सूख जाना । व्यक्ति के मुँह में अक्सर थूक आने लगता है तथा उसे बार-बार थूकना पड़ता है । सिर किसी वस्तु से टकरा जाता है । तेज धूप में चलना या खड़े रहना पड़ता है । 

चन्द्र के अशुभ होने के पूर्व संकेत जातक की कोई चाँदी की अंगुठी या अन्य आभूषण खो जाता है या जातक मोती पहने हो, तो खो जाता है । जातक के पास एकदम सफेद तथा सुन्दर वस्त्र हो वह अचानक फट जाता है या खो जाता है या उस पर कोई गहरा धब्बा लगने से उसकी शोभा चली जाती है । व्यक्ति के घर में पानी की टंकी लीक होने लगती है या नल आदि जल स्रोत के खराब होने पर वहाँ से पानी व्यर्थ बहने लगता है । पानी का घड़ा अचानक टूट जाता है । घर में कहीं न कहीं व्यर्थ जल एकत्रित हो जाता है तथा दुर्गन्ध देने लगता है । उक्त संकेतों से निम्नलिखित विषयों में अशुभ फल दे सकते हैं -> माता को शारीरिक कष्ट हो सकता है या अन्य किसी प्रकार से परेशानी का सामना करना पड़ सकता है । नवजात कन्या संतान को किसी प्रकार से पीड़ा हो सकती है । मानसिक रुप से जातक बहुत परेशानी का अनुभव करता है । किसी महिला से वाद-विवाद हो सकता है । जल से जुड़े रोग एवं कफ रोगों से पीड़ा हो सकती है । जैसे – जलोदर, जुकाम, खाँसी, नजला, हेजा आदि । प्रेम-प्रसंग में भावनात्मक आघात लगता है । समाज में अपयश का सामना करना पड़ता है । मन में बहुत अशान्ति होती है । घर का पालतु पशु मर सकता है । घर में सफेद रंग वाली खाने-पीने की वस्तुओं की कमी हो जाती है या उनका नुकसान होता है । जैसे – दूध का उफन जाना । मानसिक रुप से असामान्य स्थिति हो जाती है 

मंगल के अशुभ होने के पूर्व संकेत भूमि का कोई भाग या सम्पत्ति का कोई भाग टूट-फूट जाता है । घर के किसी कोने में या स्थान में आग लग जाती है । यह छोटे स्तर पर ही होती है । किसी लाल रंग की वस्तु या अन्य किसी प्रकार से मंगल के कारकत्त्व वाली वस्तु खो जाती है या नष्ट हो जाती है । घर के किसी भाग का या ईंट का टूट जाना । हवन की अग्नि का अचानक बन्द हो जाना । अग्नि जलाने के अनेक प्रयास करने पर भी अग्नि का प्रज्वलित न होना या अचानक जलती हुई अग्नि का बन्द हो जाना । वात-जन्य विकार अकारण ही शरीर में प्रकट होने लगना । किसी प्रकार से छोटी-मोटी दुर्घटना हो सकती है । 

बुध के अशुभ होने के पूर्व संकेत व्यक्ति की विवेक शक्ति नष्ट हो जाती है अर्थात् वह अच्छे-बुरे का निर्णय करने में असमर्थ रहता है । सूँघने की शक्ति कम हो जाती है । काम-भावना कम हो जाती है । त्वचा के संक्रमण रोग उत्पन्न होते हैं । पुस्तकें, परीक्षा के कारण धन का अपव्यय होता है । शिक्षा में शिथिलता आती है । 

गुरु के अशुभ होने के पूर्व संकेत अच्छे कार्य के बाद भी अपयश मिलता है । किसी भी प्रकार का आभूषण खो जाता है । व्यक्ति के द्वारा पूज्य व्यक्ति या धार्मिक क्रियाओं का अनजाने में ही अपमान हो जाता है या कोई धर्म ग्रन्थ नष्ट होता है । सिर के बाल कम होने लगते हैं अर्थात् व्यक्ति गंजा होने लगता है । दिया हुआ वचन पूरा नहीं होता है तथा असत्य बोलना पड़ता है ।

चौरासी लाख योनियों का रहस्य ।।

हिन्दू धर्म में पुराणों में वर्णित ८४००००० योनियों के बारे में आपने कभी ना कभी अवश्य सुना होगा। हम जिस मनुष्य योनि में जी रहे हैं वो भी उन चौरासी लाख योनियों में से एक है। अब समस्या ये है कि कई लोग ये नहीं समझ पाते कि वास्तव में इन योनियों का अर्थ क्या है?  

गरुड़ पुराण में योनियों का विस्तार से वर्णन दिया गया है। तो आइये आज इसे समझने का प्रयत्न करते हैं। 

सबसे पहले ये प्रश्न आता है कि क्या एक जीव के लिए ये संभव है कि वो इतने सारे योनियों में जन्म ले सके? तो उत्तर है - हाँ। एक जीव, जिसे हम आत्मा भी कहते हैं, इन ८४००००० योनियों में भटकती रहती है। अर्थात मृत्यु के पश्चात वो इन्ही ८४००००० योनियों में से किसी एक में जन्म लेती है। ये तो हम सब जानते हैं कि आत्मा अजर एवं अमर होती है इसी कारण मृत्यु के पश्चात वो एक दूसरे योनि में दूसरा शरीर धारण करती है। 

अब प्रश्न ये है कि यहाँ "योनि" का अर्थ क्या है? अगर आसान भाषा में समझा जाये तो योनि का अर्थ है जाति (नस्ल), जिसे अंग्रेजी में हम स्पीशीज (Species) कहते हैं। अर्थात इस विश्व में जितने भी प्रकार की जातियाँ है उसे ही योनि कहा जाता है। इन जातियों में ना केवल मनुष्य और पशु आते हैं, बल्कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, जीवाणु-विषाणु इत्यादि की गणना भी उन्ही ८४००००० योनियों में की जाती है।

आज का विज्ञान बहुत विकसित हो गया है और दुनिया भर के जीव वैज्ञानिक वर्षों की शोधों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस पृथ्वी पर आज लगभग ८७००००० (सतासी लाख) प्रकार के जीव-जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती है। इन ८७ लाख जातियों में लगभग २-३ लाख जातियाँ ऐसी हैं जिन्हे आप मुख्य जातियों की उपजातियों के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं। 

अर्थात अगर केवल मुख्य जातियों की बात की जाये तो वो लगभग ८४ लाख है। अब आप सिर्फ ये अंदाजा लगाइये कि हमारे हिन्दू धर्म में ज्ञान-विज्ञान कितना उन्नत रहा होगा कि हमारे ऋषि-मुनियों ने आज से हजारों वर्षों पहले केवल अपने ज्ञान के बल पर ये बता दिया था कि ८४००००० योनियाँ है जो कि आज की उन्नत तकनीक द्वारा की गयी गणना के बहुत निकट है। 

हिन्दू धर्म के अनुसार इन ८४ लाख योनियों में जन्म लेते रहने को ही जन्म-मरण का चक्र कहा गया है। जो भी जीव इस जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है, अर्थात जो अपनी ८४ लाख योनियों की गणनाओं को पूर्ण कर लेता है और उसे आगे किसी अन्य योनि में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती है, उसे ही हम "मोक्ष" की प्राप्ति करना कहते है।

 मोक्ष का वास्तविक अर्थ जन्म-मरण के चक्र से निकल कर प्रभु में लीन हो जाना है। ये भी कहा गया है कि सभी अन्य योनियों में जन्म लेने के पश्चात ही मनुष्य योनि प्राप्त होती है। 

मनुष्य योनि से पहले आने वाले योनियों की संख्या ८०००००० (अस्सी लाख) बताई गयी है। अर्थात हम जिस मनुष्य योनि में जन्मे हैं वो इतनी विरली होती है कि सभी योनियों के कष्टों को भोगने के पश्चात ही ये हमें प्राप्त होती है। और चूँकि मनुष्य योनि वो अंतिम पड़ाव है जहाँ जीव अपने कई जन्मों के पुण्यों के कारण पहुँचता हैं, मनुष्य योनि ही मोक्ष की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना गया है। 

विशेषकर कलियुग में जो भी मनुष्य पापकर्म से दूर रहकर पुण्य करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति की उतनी ही अधिक सम्भावना होती है। किसी भी अन्य योनि में मोक्ष की प्राप्ति उतनी सरल नहीं है जितनी कि मनुष्य योनि में है। 

एक प्रश्न और भी पूछा जाता है कि क्या मोक्ष पाने के लिए मनुष्य योनि तक पहुँचना या उसमे जन्म लेना अनिवार्य है? इसका उत्तर है - नहीं। हालाँकि मनुष्य योनि को मोक्ष की प्राप्ति के लिए सर्वाधिक आदर्श योनि माना गया है क्यूंकि मोक्ष के लिए जीव में जिस चेतना की आवश्यकता होती है वो हम मनुष्यों में सबसे अधिक पायी जाती है।

 इसके अतिरिक्त कई गुरुजनों ने ये भी कहा है कि मनुष्य योनि मोक्ष का सोपान है और मोक्ष केवल मनुष्य योनि में ही पाया जा सकता है। हालाँकि ये अनिवार्य नहीं है कि केवल मनुष्यों को ही मोक्ष की प्राप्ति होगी, अन्य जंतुओं अथवा वनस्पतियों को नहीं। इस बात के कई उदाहरण हमें अपने वेदों और पुराणों में मिलते हैं कि जंतुओं ने भी सीधे अपनी योनि से मोक्ष की प्राप्ति की। महाभारत में पांडवों के महाप्रयाण के समय एक कुत्ते का जिक्र आया है जिसे उनके साथ ही मोक्ष की प्राप्ति हुई थी, जो वास्तव में धर्मराज थे। 

महाभारत में ही अश्वमेघ यज्ञ के समय एक नेवले का वर्णन है जिसे युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ से उतना पुण्य नहीं प्राप्त हुआ जितना एक गरीब के आंटे से और बाद में वो भी मोक्ष को प्राप्त हुआ। विष्णु एवं गरुड़ पुराण में एक गज और ग्राह का वर्णन आया है जिन्हे भगवान विष्णु के कारण मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। वो ग्राह पूर्व जन्म में गन्धर्व और गज भक्त राजा थे किन्तु कर्मफल के कारण अगले जन्म में पशु योनि में जन्मे। 

ऐसे ही एक गज का वर्णन गजानन की कथा में है जिसके सर को श्रीगणेश के सर के स्थान पर लगाया गया था और भगवान शिव की कृपा से उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई। महाभारत की कृष्ण लीला में श्रीकृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में खेल-खेल में "यमल" एवं "अर्जुन" नमक दो वृक्षों को उखाड़ दिया था। वो यमलार्जुन वास्तव में पिछले जन्म में यक्ष थे जिन्हे वृक्ष योनि में जन्म लेने का श्राप मिला था। अर्थात, जीव चाहे किसी भी योनि में हो, अपने पुण्य कर्मों और सच्ची भक्ति से वो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

एक और प्रश्न पूछा जाता है कि क्या मनुष्य योनि सबसे अंत में ही मिलती है। तो इसका उत्तर है - नहीं। हो सकता है कि आपके पूर्वजन्मों के पुण्यों के कारण आपको मनुष्य योनि प्राप्त हुई हो लेकिन ये भी हो सकता है कि मनुष्य योनि की प्राप्ति के बाद किये गए आपके पाप कर्म के कारण अगले जन्म में आपको अधम योनि प्राप्त हो।

 इसका उदाहरण आपको ऊपर की कथाओं में मिल गया होगा। कई लोग इस बात पर भी प्रश्न उठाते हैं कि हिन्दू धर्मग्रंथों, विशेषकर गरुड़ पुराण में अगले जन्म का भय दिखा कर लोगों को डराया जाता है। जबकि वास्तविकता ये है कि कर्मों के अनुसार अगली योनि का वर्णन इस कारण है ताकि मनुष्य यथासंभव पापकर्म करने से बच सके।

हालाँकि एक बात और जानने योग्य है कि मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत ही कठिन है। यहाँ तक कि सतयुग में, जहाँ पाप शून्य भाग था, मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत कठिन थी। कलियुग में जहाँ पाप का भाग १५ है, इसमें मोक्ष की प्राप्ति तो अत्यंत ही कठिन है।

 हालाँकि कहा जाता है कि सतयुग से उलट कलियुग में केवल पाप कर्म को सोचने पर उसका उतना फल नहीं मिलता जितना करने पर मिलता है। और कलियुग में किये गए थोड़े से भी पुण्य का फल बहुत अधिक मिलता है। कई लोग ये समझते हैं कि अगर किसी मनुष्य को बहुत पुण्य करने के कारण स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो इसी का अर्थ मोक्ष है, जबकि ऐसा नहीं है।

 स्वर्ग की प्राप्ति मोक्ष की प्राप्ति नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति केवल आपके द्वारा किये गए पुण्य कर्मों का परिणाम स्वरुप है। स्वर्ग में अपने पुण्य का फल भोगने के बाद आपको पुनः किसी अन्य योनि में जन्म लेना पड़ता है। अर्थात आप जन्म और मरण के चक्र से मुक्त नहीं होते। रामायण और हरिवंश पुराण में कहा गया है कि कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति का सबसे सरल साधन "राम-नाम" है।

पुराणों में ८४००००० योनियों का गणनाक्रम दिया गया है कि किस प्रकार के जीवों में कितनी योनियाँ होती है। पद्मपुराण के ७८/५ वें सर्ग में कहा गया है:

जलज नवलक्षाणी,
स्थावर लक्षविंशति
कृमयो: रुद्रसंख्यकः
पक्षिणाम् दशलक्षणं
त्रिंशलक्षाणी पशवः
चतुरलक्षाणी मानव

अर्थात,
जलचर जीव - ९००००० (नौ लाख)
वृक्ष - २०००००० (बीस लाख)
कीट (क्षुद्रजीव) - ११००००० (ग्यारह लाख)
पक्षी - १०००००० (दस लाख)
जंगली पशु - ३०००००० (तीस लाख)
मनुष्य - ४००००० (चार लाख)
इस प्रकार ९००००० + २०००००० + ११००००० + १०००००० + ३०००००० + ४००००० = कुल ८४००००० योनियाँ होती है। 

जैन धर्म में भी जीवों की ८४००००० योनियाँ ही बताई गयी है। सिर्फ उनमे जीवों के प्रकारों में थोड़ा भेद है। जैन धर्म के अनुसार:
पृथ्वीकाय - ७००००० (सात लाख)
जलकाय - ७००००० (सात लाख)
अग्निकाय - ७००००० (सात लाख)
वायुकाय - ७००००० (सात लाख)
वनस्पतिकाय - १०००००० (दस लाख)
साधारण देहधारी जीव (मनुष्यों को छोड़कर) - १४००००० (चौदह लाख)
द्वि इन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)  
त्रि इन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
चतुरिन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (त्रियांच) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (देव) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (नारकीय जीव) - ४००००० (चार लाख)

पञ्च इन्द्रियाँ (मनुष्य) - १४००००० (चौदह लाख)
इस प्रकार ७००००० + ७००००० + ७००००० + ७००००० + १०००००० + १४००००० + २००००० + २००००० + २००००० + ४००००० + ४००००० + ४००००० + १४००००० = कुल ८४०००००

अतः अगर आगे से आपको कोई ऐसा मिले जो ८४००००० योनियों के अस्तित्व पर प्रश्न उठाये या उसका मजाक उड़ाए, तो कृपया उसे इस शोध को पढ़ने को कहें। साथ ही ये भी कहें कि हमें इस बात का गर्व है कि जिस चीज को साबित करने में आधुनिक/पाश्चात्य विज्ञान को हजारों वर्षों का समय लग गया, उसे हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने सहस्त्रों वर्षों पूर्व ही सिद्ध कर दिखाया था।