हमारे देश में प्राय सर्वत्र पार्थिव पूजन प्रचलित है परंतु विशेष विशेष स्थानों मैं शिवलिंग की स्थापना है। यह स्थावर मूर्तियां होती है। बाणलिंग या सोने चांदी के छोटे लिंग जग्ड़ंम कहलाते हैं। इन्हें प्राचीन पाशुमत संप्रदाय वाले एवं आजकल के लिंगायत संप्रदाय वाले पूजा के व्यवहार में लाने के लिए अपने साथ लिए फिरते हैं अथवा बाह गले में बांधे रहते हैं।
लिंग विविध द्रव्यों के बनाए जाते हैं गरुण पुराण में इसका अच्छा विस्तार है यहां जानकारी के लिए संक्षेप में वर्णन दे रहा हूं।
गंधलिङ्ग --- दो भाग कस्तूरी 4 भाग चंदन और 3 भाग कुमकुम से बनाते हैं। शिवसायुज्यार्थ इसकी अर्चना की जाती है।
पुष्प लिङ्ग -- विविध सौरभमय फूलों से बना कर पृथ्वी के आधिपत्य लाभ के लिए पूजते हैं।
गोशकृल्लिंग --स्वच्छ कपिल वर्ण के गोबर से बनाकर पूजने से ऐश्वर्य मिलता है परंतु जिसके लिए बनाया जाता है वह मर जाता है। मिट्टी पर गिरे गोबर का व्यवहार वर्जित हैं।
रजोमयलिङ्ग -- रज से बना कर पूजने वाला विद्याधरत्व और फिर शिवासायुज्य पता है।
यवगोधूमशालिज -- जौं, गेहूं, चावल के आटे का बना कर श्रीपुष्टि और पुत्र लाभ के लिए पूजते हैं।
सीताखण्डमय लिङ्ग -- से आरोग्य लाभ होता है।
लवणजलिंङ्ग -- हरताल, त्रिकटु को लवण मे मिलाकर बनता है। इससे उत्तम प्रकार का वशीकरण होता है।
तिलपिष्टोत्थलिङ्ग --अभिलाषा सिद्धि करता है।
तुषोत्थलिङ्ग--मारणशील है, भस्ममयलिङ्ग --सर्वफलप्रद, गुडोत्थलिङ्ग --प्रीति बढ़ाने वाला है और शर्करामयलिंग सुखप्रद है।
वंशाङ्कुरमयलिङ्ग--वंशकर है केशास्थिलिङ्ग सर्व शत्रु नाशक है।
द्रुमोद्भूतलिङ्ग--दारिद्र्यकर, पिष्टमय विद्याप्रद और दधीदुग्धोद्भतलिङ्ग कृर्ति, लक्ष्मी और सुख देता है। धात्रीफलजात मुक्तिप्रद नवनीतज कृर्ति और सौभाग्य देता है। दूर्वाकाण्डज अपमृत्युनाशक, कर्पूरज मुक्ति प्रद, अयस्कान्तजमणिज सिद्धि प्रद, मौक्तिक सौभाग्यकर स्वर्ण निर्मित महामुक्ति प्रद, रजत भूति वर्धक है।
पित्तलज तथा कास्यज मुक्ति प्रदान करने वाला, त्रपुज,आयस और सीसकज शत्रु नाशक होता है। अष्टधातुज सर्व सिद्धिप्रद अष्टलोहजात कुष्ठ नाशक, वैदूयर्ज शत्रुदर्पनाशक और स्फटिकलिङ्ग सर्वकामप्रद है। परंतु ताम्र, सिसक, रक्त चंदन, शड़्ख, कांसा लोहा इन के लिङ्गो की पूजा कलयुग में वर्जित है। पारे का शिवलिंग विहित है और ऐश्वर्य दायक है।
लिङ्ग बनाकर उसका संस्कार पार्थिव लिङ्गो को छोड़ और सब लिङ्गो के लिए करना पड़ता है। स्वर्ण पात्र में दूध के अंदर तीन दिनों तक रखकर त्रयंबक यजामहे आदि मंत्रों से स्नान कराकर वेदी पर पार्वती जी की सर षोडशोपचार से पूजा करनी उचित है। फिर पात्र से उठाकर लिंग को 3 दिन तक गंगाजल में रखना होता है फिर प्राण प्रतिष्ठा करके स्थापना की जाती है।
पार्थिवलिङ्ग एक या दो तोला मिट्टी लेकर बनाते हैं। ब्राह्मण सफेद, क्षत्रिय लाल, वैश्य पीली और शूद्र काली मिट्टी लेता है परंतु यह जहां अव्यवहार्य हो वहां कोई हर्ज नहीं मिट्टी चाहे जैसी मिले।
लिङ्ग साधारणतया अङ्गुष्ट प्रमाण का बनाते हैं। पाषाण आदि के लिङ्ग मोटे और बड़े बनते हैं। लिङ्ग से दुगनी वेदी और उसका आधा योनिपीठ करना होता है।
लिङ्ग की लंबाई कम होने से शत्रु की वृद्धि होती है। योनिपीठ बिना या मस्तक आदि अंग बिना लिङ्ग बढ़ाना अशुभ है। पार्थिवलिङ्ग अपने अंगूठे के एक पोरवे भर बनाना होता है। लिङ्ग सुलक्षणा होना चाहिए। लक्षण मंगलकारी होता है।
लिङ्ग मात्र की पूजा में पार्वती परमेश्वर दोनों की पूजा हो जाती है। लिङ्ग के मूल में ब्रह्मा मध्य देश में त्रिलोकीनाथ विष्णु और ऊपर प्रणव वाख्य महादेव स्थित हैं। वेदी महादेवी है और लिङ्ग महादेव हैं। अतः एक लिङ्ग की पूजा से सब की पूजा हो जाती है (लिङ्ग पुराण)। पारद के लिङ्ग का सबसे अधिक महात्मय है। पारद शब्द में प= विष्णु, आ=कालिका, र=शिव, द=ब्रह्मा इस तरह सभी स्थित हैं। उसके बने लिङ्ग की पूजा से जो जीवन में एक बार भी की जाए तो धन, ज्ञान, सिद्धि और ऐश्वर्य मिलते हैं।
यहां तक तो लिङ्ग निर्माण की बात हुई परंतु नर्मदा आदि नदियों में भी पाषाण लिङ्ग मिलते हैं। नर्मदा बाणलिङ्ग भुक्ति मुक्ति दोनों देता है। बाणलिङ्ग की पूजा इंद्र आदि देवों ने की थी। इसकी वेदिका बनाकर उस पर स्थापना करके पूजा करते हैं। वेदी तांबा स्फटिक सोना पत्थर चांदी या रुपए की भी बनाते हैं परंतु नदी से बाणलिङ्ग निकाल कर पहले परीक्षा होती है। फिर संस्कार पहले एक बार लिङ्ग के बराबर चावल लेकर तौले। फिर दूसरी बार उसी चावल से तौलने पर लिङ्ग हल्का ठहरे तो गृहस्थों के लिए वह लिङ्ग पूजनीय है। 3-5 या 7 बार तौलने पर भी तौल बराबर निकले तो उस लिङ्ग को जल में फेंक दे। यदि तौल मैं भारी निकले तो वह लिङ्ग उदासीनो के लिए पूजनीय है। तौल मैं कमी बेशी ही बाणलिङ्ग की पहचान है। जब बाणलिङ्ग होना निश्चित हो जाए तब संस्कार करना उचित है। संस्कार के बाद पूजा आरंभ होती है। पहले सामान्य विधि से गणेशादि की पूजा होती है। फिर बाणलिङ्ग को स्नान कराते हैं। स्नान कराकर यह ध्यान मंत्र
ॐ प्रमत्तं शक्तिसंयुक्तं बाणाख्यं च महाप्रभम् ।
कामवाणान्वितं देवं संसारदहनक्षमम् ।
श्रडङ्गारादिसोल्लासं वाणाख्यं परमेश्वरम्।।
पढ़कर मनसोपचार से तथा फिर से ध्यान कर पूजा करनी होती है। भरसक षोडशोपचार पूजा होती है फिर जब करके स्तवन पाठ करने की पद्धति है। बाणलिङ्ग की पूजा में आवाहन और विसर्जन नहीं होती।
बाणलिङ्ग के प्रकार बहुत हैं। विस्तार भय से यहां हम उनका उल्लेख नहीं करते हैं। हां यह जानना आवश्यक है कि बाणलिङ्ग निन्द्य ना हो। कर्कश होने से पुत्र दारादिक्षय, चिपटा होने से गृह भंग एकपाशर्वस्थि होने से पुत्र- दारादि-धनक्षय शिरोदेश स्फुटित होने से व्याधि छिद्र होने से प्रवास और लिङ्ग ने कर्णिका रहने से व्याधि होती है। ये निन्द्य लिङ्ग है, इनकी पूजा वर्जित है। तीक्ष्णाग्र, वक्र शीर्ष तथा त्रिकोण लिङ्ग भी वर्जित है। अभी स्थूल, अति कृश, स्वल्प, भूषणयुक्त मोक्षार्थियों के लिए है, गृहस्थों के लिए वर्जित है।
मेघाभ और कपिल वर्ण का लिङ्ग शुभ है परंतु गृहस्थ लघु या स्थूल कपिल वर्ण वाले की पूजा ना करें। भौरे की तरह काला लिङ्ग सपीठ हो गया है अपीठ संस्कात हो या मंत्र संस्कार रोहित भी हो तो गृहस्थ उसकी पूजा कर सकता है। बाणलिङ्ग प्रायः कमलगट्टे की शक्ल का होता है। पकी जामन या मुर्गी के अंडे के अनुरूप भी होता है। सफेद, नीला और शहद के रंग का भी होता है। यही लिङ्ग प्रशस्त है। इन्हें बाणलिङ्ग इसलिए कहते हैं कि बाणासुर ने तपस्या करके महादेव जी से वर पाया था कि वे पर्वत पर सर्वदा लिङ्ग रूप में प्रकट रहे। एक बाणलिङ्ग की पूजा से अनेक और लिङ्गो की पूजा का फल मिलता है।