ईश्वरकृपा/गुरुकृपा के भरोसे प्रज्ञा नहीं जगती। प्रज्ञा तब अपने आप जग जाती है, जब हम अपनी आध्यात्मिकता में अन्तर्मुख हो जाते हैं, और ज्ञान को जीवन में उतारते हैं, ज्ञान को जीते हैं। और यही हमने आज तक नहीं सीखा। हमने अध्यात्म-ज्ञान इकट्ठा करना सीखा है। हमने ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें करना सीखा है। हमने ज्ञान पर चलना नहीं सीखा। हमारे जीवन में 'ज्ञान ही ज्ञान' है, परन्तु ज्ञान का अनुशीलन ना के बराबर ही है। बस, यही कारण है कि गुरू बनाने के बावजूद भी, जीवन भर गुरू का मंत्र जपने के बावजूद भी, ज्ञानी और विद्वान होने के बावजूद भी हम प्रज्ञावान् नहीं हो पाये।
बड़ी विबम्बना यह है कि हमें 'सद्गुरू' या 'सतगुरू' मिल जाते हैं, परन्तु प्रज्ञा नहीं मिलती। प्रज्ञा कहीं से, किसी से मिलने की वस्तु है भी नहीं। सद्गुणों को जगाकर और चेतना को सतत-उर्ध्वगामिता में रखकर प्रज्ञा का तो हमें स्वयं ही अर्जन करना पड़ता है। परन्तु इतनी जहमत उठाये कौन! हमारा काम तो 'उधार की चेतना' से ही चल जाता है !
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