वर्तमान के समाज पर नजर डालें तो बस बड़े-बड़े मकान, एक से एक सुसज्जित बंगले, कीमती वस्त्रों से सुसज्जित स्त्री-पुरुष सर्वत्र दिखाई पड़ते हैं इसके अलावा घोर दरिद्रता, अभाव ग्रस्त जीवन, दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद करते हुए लोग भी दिखाई पड़ते हैं। इन दोनों धाराओं में जीवन जी रहे मनुष्यों को अगर जरा सी भी सुई चुभोई जाय तो सिर्फ मवाद ही मवाद निकलता हुआ दिखाई पड़ता है। पुष्प के पास जाओगे तो खुशबू मिलेगी, वृक्ष के पास जाओगे तो फल मिलेंगे। पशु भी आपको उपयोगी उत्पादन प्रदान कर देंगे परंतु मनुष्य सिर्फ मवाद ही उत्पादित कर रहा है। मवाद विष का प्रतीक है, मवाद दुर्गन्ध युक्त है। यहाँ पर मैं मवाद को घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, छल-कपट, लटका हुआ मुँह, हिंसा, प्रपंच इत्यादि के रूप में व्यक्त कर रहा हूँ। कहने को तो ये भी उत्पादन है। विष भी उत्पादन ही है। विष रूपी उत्पादन का लक्ष्य मृत्यु है, दर्द है, पीड़ा है। घर आजकल कारागृह बन गए हैं जिसमें पति-पत्नी को प्रताड़ित करता है और पत्नी पति को कारावास देती है। बुजुर्ग तानाशाही पूर्वक शासन चलाते हैं और ग्रसित नव युवक फाँसी के फंदे पर झूलते हैं इत्यादि-इत्यादि यही सब कुछ झोपड़ पट्टी से लेकर आलीशान महलों में हो रहा है। सब एक-दूसरे का गला घोट रहे हैं, हिंसक पशुओं के समान एक-दूसरे को नोंच रहे हैं और सबके सब लहूलुहान एवं दिग्भ्रमित हैं।
समाज की प्रत्येक क्रिया मनुष्य की शक्ति को बिखेर रही है। बिखरना एक बात है और उर्ध्वगामी होना दूसरी बात है। गुरु इन्हीं सब विडम्बनाओं के बीच खड़ा रहता हुआ आपको निरंतर उर्ध्वगामी बनाने की कोशिश में लगा रहता है। उर्ध्वगामी बनने के लिए बिखरने की क्रिया रोकनी होगी या तो फैला लो लता के समान या फिर ऊँचे उठ लो वृक्ष के समान। घास बनोंगे तो पैरों तले रौंदे जाओगे, वृक्ष बनोंगे तो छाया प्रदान करोगे मनुष्यों को आश्रय प्रदान करोगे पक्षियों को । मवाद तभी बनता है जब आप घायल होते हैं और आपकी सिमटने की शक्ति क्षीण होती है। मवाद भौतिक तल पर भी है और मानस पर भी निर्मित होता है। अवचेतन में भी विषाद उत्पन्न होता है।
गुरु गणेश का प्रतीक होता है वह सर्वप्रथम घाव की, जो कि आपको आपके तथाकथित समाज ने प्रदान किया हैं, शल्य क्रिया करता है। घाव को सुखाता है और पुनः जख्म प्राप्त न हो इस प्रकार की व्यवस्था करता है। साथ ही साथ आप भी दूसरों को जख्म न प्रदान कर सकें इसलिए वह आपके नाखून और दाँत भी तोड़ता है। गणपति एक दन्तेश्वर हैं दो दाँत वाले तो असुर प्रवृत्ति के होते हैं। जब प्रत्येक घर में अराजकता व अव्यवस्था फैली हो तो वहाँ गुरु सूक्ष्म रूप से प्रवेश कर विघ्नों का नाश करते हुए देव शक्तियों को प्रतिष्ठित करते हैं। आज का मनुष्य मात्र बाहरी दिखावों में उलझ कर रह गया है। निमंत्रण-पत्र, शुभकामना संदेश इत्यादि इत्यादि का आदान-प्रदान कर इति श्री कर लेता है परन्तु वास्तव में आशीर्वादों का उत्पादन दुर्लभ होता जा रहा है। आशीर्वाद, शुभकामना, मंगलमय वचन, दीक्षाऐं इत्यादि हृदय-पक्ष के द्वारा सृजन की जाती है। यही इस ब्रह्माण्ड की सबसे तीक्ष्ण साधना है।
अति शीघ्र परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं परन्तु इनके द्वारा उत्पादन के लिए योग्यता तो अवश्य चाहिए। शिव का पुत्र तो बनना ही होगा। देव गणों का अधिपति तो होना ही होगा, विष का पान करना ही होगा । बुद्धि व सिद्धि को अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार करना होगा। क्षेम व कुशल रूपी मानसपुत्र उत्पन्न करने होंगे। गणपति की एक और अर्धांगिनी हैं एवं उनका नाम पुष्टि है। कहने का तात्पर्य यह है कि गुरु मात्र अकेला कुछ नहीं करता। वह भी वास्तव में शिव परिवार का ही निर्माण करता है, जिस प्रकार शिव के परिवार में भैरव, गणेश, कार्तिकेय एवं अनेकों गण व अनुचर शिव पुत्रों के समान निवास करते हैं उसी प्रकार गुरु के सानिध्य में शिष्य शिव के मानस पुत्रों की तरह सत्कर्मों में क्रियाशील होते हैं। माता पार्वती सब के प्रति समान भाव रखती हैं। साधक का निर्माण आसान क्रिया नहीं है।
एक सामान्य व्यक्ति को आध्यात्मिक साधक में परिवर्तित करने के लिए गुरु को उतना ही प्रयत्न करना पड़ता है जितना कि कृष्ण ने अर्जुन के लिए किया था उसे पूर्ण योद्धा बनाने के लिए। साधक का निर्माण एक दिन की बात नहीं है और न ही एकाध संस्कार से कुछ होने वाला है। एक साधक का निर्माण लगभग 64 करोड़ संस्कारों के बाद ही सम्पन्न होता है। आप सोचिए गुरु को प्रतिक्षण के 100 वें हिस्से में भी संस्कार सम्पन्न करना पड़ता है। संस्कारों की क्रिया प्रवचनों, दीक्षाओं, साधनाओं एवं अन्य अतिसूक्ष्म; अदृश्य गूढ़ क्रियाओं के द्वारा सम्पन्न करनी पड़ती हैं। गणेश का स्थापन इतना आसान नहीं है।
कभी- कभी संस्कार पूर्ण होने से पहले ही साधक शरीर त्याग बैठता है तत्पश्चात् पुनः गुरु को जन्म लेकर एक बार फिर शिष्य को ढूंढना पड़ता है और फिर टूटी हुई कड़ी जोड़नी पड़ती है। अधिकांशत: शिष्यों को ये भी मालूम नहीं होता कि गुरु क्या क्रिया सम्पन्न कर रहे हैं और फिर गुरु को बताना भी नहीं चाहिए। इस प्रकार धीरे-धीरे साधक मण्डल का निर्माण हो जाता है।
मंत्र की सफलता क्या है? मंत्र वही सिद्ध है जिसका कि जाप या अनुष्ठान अखण्ड रूप से ब्रह्माण्ड या विश्व के किसी कोने में निरन्तरता के साथ जारी रहे। आप गायत्री मंत्र नहीं पढ़ रहे हैं तो इस का मतलब यह नहीं है कि कोई अन्य साधक भी इसे नहीं उच्चारित कर रहा होगा। साधक तो बस एक इकाई है। वास्तव में तो गणेश रूपी फल समग्रता के साथ ही उपस्थित होता है। सवा लाख मंत्रों से प्राप्त होने वाला फल निश्चित ही सीमित होगा परन्तु अरबों-खरबों बार मंत्र जाप से उपस्थित हुआ मंगलमय फल अत्यंत ही विस्तृत एवं विश्व के साथ-साथ ब्रह्माण्ड के लिए भी कल्याणकारी होता है। यही सनातन धर्म में प्रचलित शांति पाठ का निचोड़ है। पृथ्वी पर शांति होनी चाहिए, अंतरिक्ष में शांति होनी चाहिए, देवलोक में शांति होनी चाहिए, समुद्र में शांति होनी चाहिए, वायु में शांति होनी चाहिए इत्यादि तभी जीवों में भी शांति होगी। यही शांति की समग्रता है।
कल्याणकारी अनुष्ठान, मंत्र जाप, आध्यात्मिक क्रियाऐं गुरुवाणी इत्यादि सभी तलों पर शांति एवं मंगलमय स्थितियाँ उत्पन्न करते हैं। शिव और पार्वती मंदिर के गर्भ में स्थित होते हैं तो वहीं गणेश द्वार पर स्थापित होते हैं अर्थात मंदिर में जाओ और शिव-शक्ति की उपासना करो और अंत में गणेश रूपी मंगलमय फल की प्राप्ति करो । शिव के हाथ में भिक्षा पात्र है तो वहीं गणेश के हाथ में मोदक है। पिता भिक्षावृत्ति करता है और पुत्र मोदक रूपी फल प्रदान करता है अर्थात भिक्षा के रूप में शिव आपका जहर मांग रहे हैं। जहर ही शिव का भोज्य है। जहर के बदले मोदक की प्राप्ति यही महानता है शिव परिवार की, गुरु परम्परा की।
साधक तो बनना ही पड़ेगा नहीं तो भटक जाओगे। साधक बनना इतना आसान नहीं है। गुरु की शरण में तो जाना ही पड़ेगा। गुरु के पास जमीन पर नहीं बैठोगे तो राजनीतिज्ञों की सभाओं में जमीन पर बैठना पड़ेगा। हर जगह बिकाऊ माल के समान तुम्हारा इस समाज में दुरुपयोग होगा। चुनाव आपके हाथ में है। घर के सोफे और कुर्सियाँ भी आरामदायक महसूस नहीं होंगी। यह सब गुरु के अभाव में जगह-जगह देखने को मिलता है। आपकी अनंत शक्तियों को एक सूत्र में पिरोकर केन्द्रीयकृत करना गुरु को ही आता है। यही 'कृष्ण ने किया है अन्यथा अर्जुन तो भटक ही गया था। पाँच पाण्डवों को एकीकृत करने के लिए कृष्ण ने द्रोपदी का भी सहारा लिया। वही केन्द्र बिन्दु बनी पाँच पाण्डवों की तेजस्विता को एक सूत्र में बांधकर रखने हेतु अन्यथा महभारत का अंत कुछ और ही होता। यही उस वक्त की पुकार थी। जरूरी नहीं है कि जो युक्ति द्वापर में कारगर साबित हुई वही कलयुग में भी कारगर साबित होगी क्योंकि युक्ति के साथ युक्तिनिर्माता प्रभु श्री कृष्ण भी मौजूद थे। कृष्ण ही गणेश हैं। कृष्ण ही शिव हैं गणेश और शिव अभेद हैं। गुरु को गणेश भी बनना पड़ता है, शिव भी और कृष्ण भी।
जिन्हें अष्टक वर्ग ज्योतिष सीखना है अध्यात्म से जुड़ना है साधनाओं के विषय में जानकारी चाहिए साधना करना है, कौन सी साधना करें ? गुरु कैसे प्राप्त हो ? गुरु से अपनी चेतना कैसे जुड़ा जाए?
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