जिस प्रकार ईश्वर समस्त सृष्टि की रचना कर सकते हैं, उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य के लिए नये प्रारब्ध की भी रचना कर सकते हैं ।
लेकिन ध्यान रहे, गुरु कभी भी प्रकृति के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते हैं । पर ऐसे शिष्य के लिए क्या जो बूंद बनकर गुरु रुपी समुद्र में अपने आप को ही विलीन कर दे । जिसका स्वयं का कोई अस्तित्व ही न रहे, जिसका अपने प्रारब्ध से भी कोई लेना देना न रहे । जो रहता तो इसी संसार में है लेकिन अपने सारे कार्यों को गुरु का कार्य समझकर ही अंजाम दे और जो प्रकृति में ही अपने आप को समाहित कर दे ।
ऐसे शिष्य के लिए तो गुरु स्वयं लक्ष्मी रुप में अवतरण लेते हैं ।
हम लोग सोचते हैं कि ऐसे शिष्य शायद विरले ही होते हैं । पर जरा सोचकर देखिये कि हमारे जीवन के बहुत से असाध्य कार्य कभी - कभी बहुत आसानी से संपन्न हो जाते हैं । तब हम सोचते हैं कि ये तो हमने किया है । पर गुरु महाराज कभी भी शिष्य का भ्रम नहीं तोड़ते हैं । वो कहते हैं कि हां ये काम तूने ही किया है ।
लेकिन सच इसके उलट होता है । जो शिष्य के प्रारब्ध में नहीं भी होता है तब गुरु वह स्वरुप धारण करके शिष्य के जीवन में आ जाते हैं । कभी संतान हीन के यहां पुत्र बनकर, कभी दरिद्र के यहां लक्ष्मी बनकर, कभी अनपढ़ के यहां विद्या बनकर । न जाने कितने - कितने रुप धारण करने पड़ते हैं एक गुरु को ।
ये सब चमत्कार तो हम अपने चारों तरफ होते हुये देखते हैं, बस कोई कोई विरला ही होता है जो इनको पहिचान पाता है ।
साभार....
0 comments:
Post a Comment