🔺 श्री श्रावण मास का संपूर्ण वैदिक महात्म्य ।
🔺श्री श्रावण सोमवार व्रत विधान ।
🔺 श्रावण सोमवार में भगवान शिव का रुद्राभिषेक द्रव्य पूजन एवं शिववास विचार ।
🔺 भगवान शिव को अतिप्रिय रुद्र पाठ की अभिषेक विधि ?
🔺श्री श्रावण मास वैदिक महात्म्य —
मनुष्य अपने परम कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने हेतु हमारे पुराणों में विभिन्न तिथियों, पर्वों, मासों आदि में अनेकानेक कृत्यों का सविधि प्रेरक वर्णन प्राप्त होता है, जिनका श्रद्धापूर्वक पालन करके मनुष्य भोग तथा मोक्ष दोनों को प्राप्त कर सकता है। निष्काम भाव से किसी भी काल विशेष में जप, तप, दान, अनुष्ठान आदि करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है- यह निश्चित है। पुराणों में प्रायः सभी मासों का माहात्म्य मिलता है, परंतु वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष, माघ तथा पुरुषोत्तम मास का विशेष माहात्य दृष्टिगोचर होता है, इन मासों में श्री श्रावण मास विशेष है।
श्री श्रावण मास के स्वामी आदिदेव भगवान शिव है, सबके आदि में आविर्भूत हुए हैं, अतः उनको आदि देव कहा गया है। जैसे एक की विधि बाधा से अन्य की विधि-बाधा होती है, वैसे ही अन्य देवताओं के अल्प देवत्व के कारण आपको महादेव माना गया है। तीनों देवताओं के निवास स्थान पीपल वृक्ष में सबसे ऊपर शिव जी की स्थिति है। कल्याण रूप होने के कारण वो शिव हैं और पाप समूह को हरने के कारण वो हर हैं, आदि देव होने में शिव जी का शुक्ल वर्ण प्रमाण है क्योंकि प्रकृति में शुक्ल वर्ण ही प्रधान है, अन्य वर्ण विकृत है। आदिदेव कर्पूर के समान गौर वर्ण के है, गणपति के अधिष्ठान रूप चार दल वाले मूलाधार नामक चक्र से, ब्रह्माजी के अधिष्ठान रूप छः दल वाले स्वाधिष्ठान नामक चक्र से और विष्णु के अधिष्ठान रूप दस दल वाले मणिपुर नामक चक्र से भी ऊपर महादेव के अधिष्ठित होने के कारण शिव ब्रह्मा तथा विष्णु के ऊपर स्थित हैं, यह महादेव प्रधानता को व्यक्त करता है। एकमात्र शिव जी ही पूजा से पंचायतन पूजा हो जाती है जो की दूसरे देवता की पूजा से किसी भी तरह संभव नहीं है, आदिदेव शिव की बाईं जाँघ पर शक्ति स्वरूपा दुर्गा, दाहिनी जाँघ पर प्रथम पूज्य गणपति, उनके नेत्र में सूर्य तथा हृदय में भक्तराज भगवान् श्रीहरि विराजमान हैं। सबको विरक्ति की शिक्षा देने हेतु आदिदेव श्मशान में तथा पर्वत पर निवास करते हैं।
श्रावण मास के लिए भगवान् ने स्वयं कहा है-
द्वादशस्वपि मासेषु श्रावणो मेऽतिवल्लभः।
श्रवणाईं यन्माहात्म्यं तेनासौ श्रवणो मतः ॥
श्रवणक्ष पौर्णमास्यां ततोऽपि श्रावणः स्मृतः।
यस्य श्रवणमात्रेण सिद्धिदः श्रावणोऽप्यतः ॥
(स्कन्दमहापु० श्रा० माहा० १।१७-१८)
अर्थात् बारहों मासों में श्रावण मुझे अत्यन्त प्रिय है। इसका माहात्म्य सुनने योग्य है। अतः इसे श्रावण कहा जाता है। इस मास में श्रवण-नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होती है, इस कारण भी इसे श्रावण कहा जाता है। निर्मलता गुण के कारण यह आकाश के सदृश है इसलिए 'नभा' कहा गया है। इसके माहात्म्य के श्रवण मात्र से यह सिद्धि प्रदान करने वाला है, इसलिये भी यह श्रावण संज्ञा वाला है।
श्रावणमास चातुर्मास के अन्तर्गत होने के कारण उस समय वातावरण विशेष धर्ममय रहता है। जगह-जगह प्रवासी संन्यासी- गणों तथा विद्वान् कथावाचकों द्वारा भगवान् की चरित कथाओं का गुणानुवाद एवं पुराणादि ग्रन्थों का वाचन होता रहता है। श्रवणमास भर शिवमन्दिरों में श्रद्धालुजनों की विशेष भीड़ होती है, प्रत्येक सोमवार को अनेक लोग व्रत रखते हैं तथा प्रतिदिन जलाभिषेक भी करते हैं। जगह-जगह कथा सत्रों का आयोजन, काशीविश्वनाथ, वैद्यनाथ, महाकालेश्वर आदि द्वादश ज्योतिर्लिंगों तथा उपलिंगों की ओर जाते काँवरियों के समूह, धार्मिक मेलों के आयोजन, भजन-कीर्तन आदि के दृश्यों के कारण वातावरण परम धार्मिक हो उठता है। महाभारत के अनुशासन पर्व (१०६। २७) में महर्षि अंगिरा का वचन है-
श्रावणं नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्।
यत्र तत्राभिषेकेण युज्यते ज्ञातिवर्धनः ॥
अर्थात् 'जो मन और इन्द्रियों को संयममें रखकर एक समय भोजन करते हुए श्रावणमास को बिताता है, वह विभिन्न तीर्थों में स्नान करनेके पुण्यफल से युक्त होता है और अपने कुटुम्बी जनों की वृद्धि करता है।' स्कन्दमहापुराण में तो भगवान् यहाँ तक कहा है कि श्रावण मास में जो विधान किया गया है, उसमें से किसी एक व्रत का भी करनेवाला मुझे परम प्रिय है-
किं बहूक्तेन विप्रर्षे श्रावणे विहितं तु यत्।
तस्य चैकस्य कर्तापि मम प्रियतरो भवेत् ॥
(स्कन्दमहापु० श्रा०माहा० ३०।३६)
🔺 श्री श्रावण सोमवार व्रत विधान —
सोम चन्द्रमा का नाम है और यह ब्राह्मणों का राजा है, यज्ञों का साधन भी सोम है। क्योंकि यह वार साक्षात शिव का ही स्वरूप है, अतः इसे सोम कहा गया है। इसीलिये यह समस्त संसार का प्रदाता तथा श्रेष्ठ है। सोमवार व्रत करने वाले को यह सम्पूर्ण फल देनेवाला है, बारहों महीनों में सोमवार अत्यन्त श्रेष्ठ है, परंतु श्रावण मास में सोमवार व्रत को करके मनुष्य वर्षभर के व्रत का फल प्राप्त करता है, श्रावण में शुक्लपक्ष के प्रथम सोमवार को यह संकल्प करे कि 'मैं विधिवत् इस व्रत को करूंगा, शिवजी मुझ पर प्रसन्न हों।' इस प्रकार चारों सोमवार के दिन और यदि पाँच हो जायें तो उसमें भी प्रातःकाल यह संकल्प करे और रात्रि में शिवजी का पूजन करे। सोलह उपचारों से सायंकाल में भी शिवजी की पूजा करे और एकाग्रचित्त होकर महादेव की कथा का श्रवण करे।
श्रावण मास के प्रथम सोमवार मनुष्य को चाहिये कि अच्छी तरह स्नान करके पवित्र होकर श्वेत वस्त्र धारण कर ले और काम, क्रोध, अहंकार, द्वेष, निन्दा आदि का त्याग करके मालती, मल्लिका आदि श्वेत पुष्पों को लाये। इनके अतिरिक्त अन्य विविध पुष्पों से तथा अभीष्ट पूजनोपचारों के द्वारा 'त्र्यम्बक०' इस मूलमन्त्र से शिवजी की पूजा करे। तत्पश्चात् यह कहे मैं शर्व, भवनाश, महादेव, उग्र, उग्रनाथ, भव, शशिमौलि, रुद्र, नीलकण्ठ, शिव तथा भवहारी का ध्यान करता हूँ, इस प्रकार अपने विभवके अनुसार मनोहर उपचारों से देवेश शिव का विधिवत् पूजन करे, तदनन्तर एक दिव्य तथा शुभ लिंगतोभद्र मण्डल बनाये और उसमें दो श्वेत वस्त्रों से युक्त एक घट स्थापित करे। घट के ऊपर ताँबे अथवा बाँस का बना हुआ पात्र रखे और उसके ऊपर उमा सहित शिव को स्थापित करे। इसके बाद श्रुति, स्मृति तथा पुराणों में कहे गये मन्त्रों से शिव की पूजा करे, पुष्पों का मण्डप बनाये और उसके साथ ही एक सुंदर छोटा यज्ञ आहुति मंडप बनाए , तत्पश्चात् बुद्धिमान् मनुष्य अपने गृह्यसूत्र में निर्दिष्ट विधानके अनुसार अग्नि-स्थापन करे और फिर शर्व आदि ग्यारह श्रेष्ठ नामों से पलाश को समिधाओं से एक सौ आठ आहुति प्रदान करे; यब, ब्रीहि, तिल आदि की आहुति 'आप्यायस्व०' इस मन्त्रसे दे और बिल्वपत्रोंकी आहुति 'त्र्यम्बक०' अथवा षडक्षर मन्त्र (ॐ नमः शिवाय) से प्रदान करे। तत्पश्चात् स्विष्टकृत् होम करके पूर्णाहुति देकर आचार्य का पूजन करे और बादमें उन्हें गौ प्रदान करे, तदनन्तर ग्यारह श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराये और उन्हें वंशपात्र सहित ग्यारह घट प्रदान करे। इसके बाद पूजित देवता को तथा देवता को अर्पित सभी सामग्री आचार्य को दे और तत्पश्चात् प्रार्थना करे- 'मेरा व्रत परिपूर्ण हो और शिवजी मुझपर प्रसन्न हों।' तदनन्तर बन्धुओंके साथ हर्षपूर्वक भोजन करे ।
इस प्रकार जो लोग सोमवार के दिन पार्वती सहित शिव की पूजा करते हैं, वे पुनरावृत्ति से रहित अक्षय लोक प्राप्त करते हैं , देवताओं तथा दानवो से भी अभेद्य सात जन्मों का अर्जित पाप नष्ट हो जाता है। चाँदी के वृषभ पर विराजमान सुवर्ण निर्मित शिव तथा पार्वती की प्रतिमा अपने सामर्थ्यके अनुसार बनानी चाहिये, इसमें धनकी कृपणता नहीं करनी चाहिये, शुद्ध मिट्टी से बने शिव गौरा परिवार सर्व पुण्यकारी माने जाते है ।
🔺 रुद्राभिषेक द्रव्य पूजन एवं शिववास विचार —
रुद्र अर्थात भूतभावन शिव का अभिषेक। शिव और रुद्र परस्पर एक-दूसरे के पर्यायवाची है। शिव को ही 'रुद्र' कहा जाता है, क्योंकि स्तम्-दुःखम, प्रावयति-नाशयतीति-रुद्र: यानी कि भोले सभी दुःखों को नष्ट कर देते हैं। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दुःखों के कारण है। रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारी कंडली से पातक कर्म एवं महापातक भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वतः हो जाती है।
रुद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि सर्व-देवात्मको रुद्रः सर्वे देवाः शिवात्माका अर्थात सभी देवताओं की आत्मा में रुद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रुद्र की आत्मा है। शास्त्रों में कहा गया है कि 'शिवः अभिषेक प्रियः' अर्थात् कल्याणकारी शिव को अभिषेक अत्यंत प्रिय है। भगवान शिव ऐसे देवता है, जो महज एक लोटा गंगा जल या शुद्ध जल अर्पित करने मात्र से ही प्रसन्न हो जाते हैं।
श्रावण महीने में सोमवार व्रत एवं भगवान शिव के 'रुद्राभिषेक' का विशेष महत्त्व है। इसलिए इस माह में, खासतौर पर सोमवार का व्रत एवं रुद्राभिषेक भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए किये जाता है। व्रत में भगवान शिव का पूजन एवं अभिषेक करके एक समय ही भोजन किया जाता है । जिससे शिव भगवान की कृपा प्राप्त की जा सकती है। हमारे शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक के पूजन के निमित्त अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है। साधक रुद्राभिषेक पूजन विभिन्न विधि से तथा विविध मनोरथ को लेकर करते हैं। किसी खास मनोरथ की पूर्ति के लिए तदनुसार पूजन सामग्री तथा विधि से रुद्राभिषेक किया जाता है।
शिवपुराण अनुसार रुद्राभिषेक के लिए विभिन्न द्रव्य निम्न प्रकार है ।
1. जल द्वारा अभिषेक करने से वर्षा होती है ।
2. तीर्थ जल अभिषेक करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
3. इत्र बल से अभिषेक करने से बीमारी नष्ट होती है ।
4. गंगाजल जल द्वारा अभिषेक करने से ज्वर की शांति होती है।
5. जल+शकर से अभिषेक करने से पुत्र की प्राप्ति होती है ।
6. जल+कुश द्वारा अभिषेक करने से असाध्य रोग (रोग, दुख) शांत होते है।
7. तीर्थ जल द्वारा अभिषेक करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
8. गन्ना रस द्वारा अभिषेक करने से लक्ष्मी प्राप्ति और कर्ज से छुटकारा होता है।
9. दुग्ध+गोदुग्ध द्वारा अभिषेक करने से पुत्र प्राप्ति होती है।
10. दुग्ध द्वारा अभिषेक करने से प्रमेह रोग की शांति होती है।
11. दुग्ध+शकर द्वारा अभिषेक करने से जड़बुद्धि वाला भी विद्वान हो जाता है।
12. गोदग्ध+घी द्वारा अभिषेक करने से आरोग्यता प्राप्त होती है।
13. दही द्वारा अभिषेक करने से मकान, वाहन, पशु आदि कि प्राप्ति होती है ।
14. शहद+घी द्वारा अभिषेक करने से धन-वृद्धि होती है।
15. शहद द्वारा अभिषेक करने से यक्ष्मा (तपेदिक) दूर हो जाती है तथा पापों से मुक्ति मिलती है ।
16. घृत द्वारा अभिषेक करने से वंश वृद्धि होती है।
17. सरसों तेल द्वारा अभिषेक करने से शत्रु पराजित होता है।
परंतु विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों में मंत्र, गोदुग्ध या अन्य दूध मिलाकर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सबको मिलाकर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है। तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है। इस प्रकार विविध द्रव्यों से शिवलिंग का विधिवत अभिषेक करने पर अभीष्ट कामना की पूर्ति होती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी पुराने नियमित रूप से पूजे जाने वाले शिवलिंग का अभिषेक बहुत ही उत्तम फल देता है किंतु यदि पारद के शिवलिंग का अभिषेक किया जाए तो बहुत ही शीघ्र चमत्कारिक शुभ परिणाम मिलता है। रुद्राभिषेक का फल बहुत ही शीघ्र प्राप्त होता है। वेदों में विद्वानों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पुराणों में तो इससे संबंधित अनेक कथाओं का विवरण प्राप्त होता है। वेदों और पुराणों में रुद्राभिषेक के बारे में बताया गया है कि रावण ने अपने दसों सिरों को काटकर उसके रक्त से शिवलिंग का अभिषेक किया था तथा सिरों को हवन की अग्नि को अर्पित कर दिया था जिससे वो त्रिलोकजयी हो गया।
भस्मासुर ने शिवलिंग का अभिषेक अपनी आंखों के आंसुओं से किया तो वह भी भगवान के वरदान का पात्र बन गया। कालसर्प योग, गृहक्लेश, व्यापार में नुकसान, शिक्षा में रुकावट सभी कार्यों की बाधाओं को दूर करने के लिए रुद्राभिषेक आपके अभीष्ट सिद्धि के लिए फलदायक है।
शिववास विचार -किसी कामना से किए जाने वाले रुद्राभिषेक में शिव-वास का विचार करने पर अनुष्ठान अवश्य सफल होता है। ज्योर्तिलिंग क्षेत्र एवं तीर्थस्थान में तथा शिवरात्रि-प्रदोष, श्रावण के सोमवार आदि पर्वो में शिव-वास का विचार किए बिना भी रुद्राभिषेक किया जा सकता है।
शिववास चक्रम् का फल निम्न प्रकार ज्ञात किया जाता है ।
• गौरी सानिध्य शिववास - 1,8,30 (कृष्णपक्ष तिथि), 2,9 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल सुख सम्पदा
• सभा शिववास - 2,9 (कृष्णपक्ष तिथि), 3,10 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल ताप
• क्रीड़ा शिववास - 3,10 (कृष्णपक्ष तिथि), 4,11 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल कष्ट
• कैलाश शिववास - 4,11 (कृष्णपक्ष तिथि), 5,12 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल सुख
• वृषभ शिववास - 5,12 (कृष्णपक्ष तिथि), 6,13 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल अभिष्ठ सिद्धि
• भोजन शिववास - 6,13 (कृष्णपक्ष तिथि), 7,14 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल पीड़ा
• श्मशान शिववास - 7,14 (कृष्णपक्ष तिथि), 1,8,15 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल मरण