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कौन सा रत्न किस राशि या ग्रह के लिए लाभदायक या किस परिस्थिति में हानिकारक है?

 प्राचीन ग्रंथों में 84 से अधिक प्रकार के रत्नों का उल्लेख किया गया है। इनमें से कई अब उपलब्ध नहीं हैं। मुख्य रूप से 9 रत्न ही अधिक प्रचलित हैं ! 

जानिए इन 9 रत्नों का व्यक्ति के जीवन में क्या प्रभाव पड़ता हैं !

🔹 1. मूंगा (Coral) - मंगल की राशि मेष और वृश्चिक वाले लोगों को मूंगा पहनने की सलाह दी जाती है। मूंगा पहनने से साहस और आत्मविश्वास बढ़ता है। पुलिस, सेना, डॉक्टर, प्रॉपर्टी डीलर, हथियार निर्माता, सर्जन, कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर इंजीनियर आदि को मूंगा पहनने से विशेष लाभ मिलता है। रक्त संबंधी रोग, मिर्गी और पीलिया में भी इसे लाभकारी माना जाता है।

❗️कौन सी स्थिति में मूंगा पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

अगर कुंडली के अनुसार मूंगा नहीं पहना जाए तो यह नुकसान भी पहुंचा सकता है। इससे दुर्घटना भी हो सकती है। कहा जाता है कि इसका भार जीवनसाथी पर रहता है। इससे पारिवारिक विवाद, परिजनों से मनमुटाव और वाणी दोष भी हो सकता है। अगर कहीं भी शनि और मंगल की युति हो तो मूंगा नहीं पहनना चाहिए!

2. हीरा(Diamond)- शुक्र की राशि वृषभ और तुला वालों को हीरा पहनने की सलाह दी जाती है। हीरा उन्हें अमीर भी बना सकता है और गरीब भी। इसे पहनने से सुंदरता, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा मिलती है। कहा जाता है कि यह मधुमेह में लाभकारी होता है। 

❗️कौन सी स्थिति में हीरा पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

लाल किताब के अनुसार, यदि शुक्र तीसरे, पांचवें और आठवें स्थान पर हो तो हीरा नहीं पहनना चाहिए। इसके अलावा टूटा हुआ हीरा भी नुकसानदायक होता है। यदि कुंडली में शुक्र मंगल या बृहस्पति की राशि में हो या इनमें से किसी एक से दृष्ट हो या इनकी राशियों से स्थान परिवर्तन हो रहा हो तो हीरा मारकेश की तरह व्यवहार करता है और व्यक्ति को आत्महत्या या पाप की ओर ले जाता है।

3. पन्ना(Emerald)- बुध की राशि मिथुन और कन्या के लोगों को पन्ना पहनने की सलाह दी जाती है। पन्ना पहनने से याददाश्त बढ़ती है। पाचन क्रिया को बेहतर बनाने के लिए भी इसे पहना जाता है। नौकरी और व्यापार में तरक्की के लिए भी इसे पहनने की सलाह दी जाती है।

❗️कौन सी स्थिति में पन्ना पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

 लाल किताब के अनुसार अगर बुध तीसरे या 12वें भाव में हो तो पन्ना नहीं पहनना चाहिए। ज्योतिष के अनुसार अगर बुध 6वें, 8वें, 12वें भाव का स्वामी हो तो पन्ना पहनने से अचानक नुकसान हो सकता है। अगर बुध की महादशा चल रही हो और बुध 8वें या 12वें भाव में बैठा हो तो भी पन्ना पहनने से परेशानी हो सकती है।

4. मोती(Pearl)- जिन लोगों की राशि कर्क है और बृहस्पति की राशि मीन है, उनके लिए मोती पहनना उचित है। इसे पहनने से मन में सकारात्मक विचार उत्पन्न होते हैं। मन की बेचैनी दूर होती है। इसे पहनने से सर्दी-खांसी से राहत मिलती है, भयमुक्त जीवन मिलता है और सुख-समृद्धि बढ़ती है।

❗️कौन सी स्थिति में मोती पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

 लाल किताब के अनुसार, अगर कुंडली में चंद्रमा 12वें या 10वें भाव में हो तो मोती नहीं पहनना चाहिए। यह भी कहा जाता है कि जिन लोगों की राशि शुक्र, बुध, शनि है, उन्हें भी मोती नहीं पहनना चाहिए। अत्यधिक भावुक लोगों और गुस्सैल लोगों को मोती नहीं पहनना चाहिए।

5. माणिक(Ruby) - सूर्य की राशि सिंह के लोगों के लिए माणिक धारण करना उचित है। माणिक सरकारी और प्रशासनिक कार्यों में सफलता दिलाता है। अगर आपको इसका लाभ मिल रहा है तो आपके चेहरे पर चमक रहेगी, अन्यथा आपको सिर दर्द रहेगा और पारिवारिक परेशानियां भी बढ़ेंगी। आपको बदनामी का सामना करना पड़ सकता है।

6. पुखराज( Topaz)- बृहस्पति या गुरु की राशि धनु और मीन वालों के लिए पुखराज पहनना उचित रहता है। पुखराज पहनने से यश मिलता है। यश से मान-सम्मान बढ़ता है। शिक्षा और करियर में यह लाभकारी होता है। मेष, कर्क, सिंह, वृश्चिक, धनु और मीन राशि के लोग यदि पुखराज धारण करें तो इन्हें संतान, शिक्षा, धन और यश में सफलता मिलती है। 

❗️कौन सी स्थिति में पुखराज पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

लाल किताब के अनुसार यदि धनु लग्न में गुरु हो तो पुखराज या सोना केवल गले में ही पहनना चाहिए, हाथों में नहीं। यदि हाथों में पहना जाए तो ये ग्रह कुंडली के तीसरे भाव में स्थित होंगे। लेकिन ज्योतिष के अनुसार यदि कुंडली की जांच न कराई जाए और मन से पुखराज धारण किया जाए तो यह नुकसान भी पहुंचा सकता है। वृष, मिथुन, कन्या, तुला और मकर राशि वालों को पुखराज धारण नहीं करना चाहिए।

7. नीलम(Blue Sapphire)- शनि की राशि कुंभ और मकर राशि वालों के लिए नीलम धारण करने की सलाह दी जाती है। शनि लग्न, पंचम या 11वें स्थान पर हो तो नीलम नहीं धारण करना चाहिए। नीलम आसमान पर उठाता है और खाक में मिला भी देता है। इसीलिए कुंडली की जांच करने के बाद नीलाम धारण करे !

यह व्यक्ति में दूरदृष्टि, कार्यकुशलता और ज्ञान को बढ़ाता है। यह बहुत जल्दी से व्यक्ति को प्रसिद्ध कर देता है। परन्तु यदि नीलम सूट नहीं हो रहा है तो इसके प्रारंभिक लक्षणों में अकारण ही हाथ-पैरों में जबर्दस्त दर्द रहेगा, बुद्धि विपरीत हो जाएगी, धीरे-धीरे संघर्ष बढ़ेगा और व्यक्ति जीवन में खुद के ही बुने हुए जाल में उलझ जाएगा।


8. गोमेद(Hassonite)- राहु के लिए गोमेद पहनने की सलाह दी जाती है। गोमेद पहनने से नेतृत्व क्षमता बढ़ती है। ऐसा कहा जाता है कि गोमेद काले जादू से बचाता है। यह अचानक लाभ दिलाता है और अचानक होने वाले नुकसान से भी बचाता है। 

❗️कौन सी स्थिति में गोमेद पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

लाल किताब के अनुसार, अगर राहु 12वें, 11वें, 5वें, 8वें या 9वें स्थान पर हो तो गोमेद नहीं पहनना चाहिए अन्यथा नुकसान होगा। लेकिन ज्योतिष के अनुसार, दोषपूर्ण गोमेद नुकसान पहुंचा सकता है। पेट के रोग, आर्थिक नुकसान, पुत्र की हानि, व्यापार में नुकसान, रक्त विकार के अलावा यह भी कहा जाता है कि यह अचानक मृत्यु का कारण भी बन सकता है।

9. लहसुनिया( Cat’s eye stone)- केतु के लिए लहसुनिया पहनने की सलाह दी जाती है। इसे संस्कृत में वैदुर्य कहते हैं। व्यापार और कार्य में लहसुनिया पहनने से फायदा मिलता है। यह किसी की नजर नहीं लगने देता है।
 
 ❗️कौन सी स्थिति में लहसुनिया पहनने से लाभ नहीं अपितु नुक़सान होगा :-

लाल किताब के अनुसार तीसरे और छठे भाव में केतु है तो लहसुनिया नहीं पहनना चाहिए वर्ना नुकसान होगा। ज्योतिष के अनुसार दोषयुक्त लहसुनिया वैसा ही नुकसान पहुंचाता है, जैसा कि गोमेद।

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- व्यावहारिक संस्कृत शब्दावली -

  खराब मनुष्य - दुर्जन: / खलः / कापुरूष: 

परस्त्री के साथ संबंध रखनेवाला – पारदारिक

आगे रहनेवाला – पुरश्चर: / अग्रेसर: / पुरोग: / पुरोगमः / नायक: / नेतृ / पुरोगामीन्

शिष्य का शिष्य - प्रशिष्य 

दारू नशाखोर - मद्यपः

व्यभिचारी पुरुष – लम्पट: / लुब्धकः

परदेशी - वैदेशिक: 

नया छात्र – शैक्षः

कदर करनेवाला - रसज्ञ: / सहृदय: 

आग बुझानेवाला - अग्निशामक: 

स्टेनोग्राफर – आशुलिपिक: 

फासी देनेवाला - वधकः 

इलाका = क्षेत्रम् / विस्तार: 

इकाई – घटक:

अजब - विचित्रम् 

मरनेवाला - मरणासन्न:

मरम्मत – समीकरणम्

जंजाल – व्यामोह:

मरीज – रोगी 

बापदादा - पूर्वजा:

बालिग - वयस्क: 

नाबालिग – किशोरावस्था 

दिक्कत - काठिन्यम्

कुर्बानी - त्याग 

कुली – भारिक:

कैदी - बंधक:

                ।। संस्कृत - हिन्दी शब्दकोश: ।।

एतदीयः - इसका,
 तदीयः - उसका, 
यदीयः - जिसका,
 परकीयः (अन्यदीयः) - दूसरे का,
 आत्मीयः (स्वकीयः, स्वीयः) - अपना।

महत् - महान्, 
यावत् - जितना
 तावत् - उतना,
 कियत् - कितना, 
एतावत् (इयत्) - इतना।

तत्र - वहाँ, 
अत्र - यहाँ,
 कुत्र - कहाँ,
 यत्र - जहाँ, 
कुत्रापि - कहीं भी, 
अन्यत्र - दूसरे स्थान पर,
 सर्वत्र - सब स्थानों पर,
उभयत्र - दोनों स्थानों पर,
 अत्रैव - यहीं पर
तत्रैव - वहीं पर,
यत्र-कुत्रापि - जहाँ कहीं भी,

इतः - यहाँ से,
 ततः - वहाँ से,
 कुतः - कहाँ से,
 कुतश्चित् - कहीं से, 
यतः - जहाँ से,
 इतस्ततः - इधर-उधर, 
सर्वतः - सब ओर से,
 उभयतः - दोनों ओर से,

उपरि - ऊपर, 
अधः - नीचे,
अग्रे, (पुरः, पुरस्तात्) - आगे, 
पश्चात् - पीछे, 
बहिः - बाहर,
 अन्तः - भीतर
उपरि-अधः - ऊपर-नीचे,

इदानीम् (सम्प्रति, अधुना) - अब / इस समय,
 तदा / तदानीम् - तब / उस समय, 
कदा - कब
यदा - जब,
 सदा (सर्वदा) - हमेशा, 
एकदा - एक समय
कदाचित् - कभी,
 क्व - कब
 क्वापि - कभी भी,
सद्यः - तत्काल (अतिशीघ्र)
 पुनः - फिर
 अद्य - आज
 अद्यैव - आज ही, 
अद्यापि - आज भी,

श्वः - आने वाला कल
 ह्यः - बीता हुआ कल,
 परश्वः - आने वाला परसों
 परह्य: - बीता हुआ परसों
 प्रपरश्वः - आने वाला नरसों
प्रपरह्य: - बीता हुआ नरसों,

शीघ्रम् - जल्दी, 
शनैः शनैः - धीरे-धीरे,
 पुनः पुनः - बार-बार,
 युगपत् - एक ही समय में, 
सकृत् - एक बार
असकृत् - अनेक बार, 
अनन्तरम् - इसके बाद, 
कियत् कालम् - कब तक, 
एतावत् कालम् - अब तक,
 तावत् कालम् - तब तक,
 यावत् कालम् - जब तक, 
अद्यावधि - आज तक,

कथम् - कैसे / किस प्रकार
 इत्थम् - ऐसे / इस प्रकार,
यथा - जैसे,
 तथा - वैसे / उस प्रकार,
सर्वथा - सब तरह से, 
अन्यथा - नहीं तो / अन्य प्रकार से,
 कथञ्चित्, कथमपि - किसी भी प्रकार से,
 यथा यथा - जैसे-जैसे,
 तथा-तथा - वैसे-वैसे, 
यथा-कथञ्चित् - जिस किसी प्रकार से,
 तथैव - उसी प्रकार,
बहुधा / प्रायः - अक्सर।

स्वयम् - खुद,
 वस्तुतः - असल में,
कदाचित् (सम्भवतः) - शायद
, सम्यक् - अच्छी तरह, 
सहसा (अकस्मात्) - अचानक, 
वृथा - व्यर्थ, 
समक्षम् (प्रत्यक्षम्) - सामने
, मन्दम् - धीरे,
 च - और,
 अपि - भी
, वा / अथवा - या
, किम् - क्या, 
प्रत्युत (अपितु) - बल्कि,
 यतः - चूँकि,
यत् - कि, 
यदि - अगर, 
तथापि - तो भी / फिर भी, 

हि - क्योंकि,
 विना - बिना, 
ऋते - सिवाय / के बिना,
कृते - के लिए / वास्त
सह - साथ,
 प्रभृति - से लेकर,
पर्यन्तम् - तक, (यहाँ से यहाँ तक), 
ईषत् - थोडा,

न - नहीं, 
मा - मत, 
अलम् - बस,
 आम् - हाँ, 
बाढम् - बहुत अच्छा,
 अथ किम् - और क्या ?

शंख -

🔹शंख की उत्पति
🔹शंख के प्रकार
🔹शंखनाद का हमारे जीवन में प्रभाव
🔹शंख पर प्रसिद्ध वैज्ञानिक वैज्ञानिक आचार्य जगदीश चन्द्र बोस का मत 🧵 

शंख सदैव से ही सनातन संस्कृति के अनेक प्रतीकों में से एक प्रतीक रहा हैं । प्राचीन काल में शंख सब घरों में होता था। इसे दैनिक पूजा-अर्चना में स्थान दिया गया था। साधु समाज ही नहीं, गृहस्थों के घरों में भी शंख अनिवार्य रूप से रहता था। 

♦️शंखध्वनि मानव के लिए श्रवणोपयोगी है। इसमें वायु प्रदूषण दूर करने की अद्भुत क्षमता है। यही कारण है कि कथा-पूजा-आरती व प्रवचन के समय एकत्रित सदस्य समुदाय की श्वास-प्रश्वास क्रिया द्वारा फैलने वाले प्रदूषण को दूर करने के लिये सर्व प्रथम शंख-ध्वनि करने की प्रथा है। इससे एकत्रित जन समुदाय का ध्यान भी एक ओर आकृष्ट कर केंद्रित किया जाता है। प्राचीन काल में शंख सब घरों में होता था। इसे दैनिक पूजा-अर्चना में स्थान दिया गया था। l आज भी सभी साधु समाज और देवताओं में शंख को प्रमुख स्थान प्राप्त है। 

♦️शंख की उत्पति

शंख की उत्पति देवासुरों द्वारा किये गये समुद्र मंथन के दौरान चौदह रत्नों में से प्राप्त एक रत्न के रूप में हुई। पांचजन्य नामक शंख समुद्र मंथन के क्रम में प्राप्त हुआ था जो अद्भुत स्वर, रूप और गुणों से सम्पन्न था। उसे भगवान् विष्णु ने स्वयं ही धारण कर लिया। तब से विष्णु के आयुध के रूप में शंख की पूजा होने लगी। शंख समुद्र की घोंघा जाति का एक प्राणिज द्रव्य है। 


♦️शंख के प्रकार:

यह मुख्यतः दो प्रकार का-दक्षिणावर्ती तथा वामवर्ती होता है।

▪️ दक्षिणावर्ती शंख का पेट दक्षिण की ओर खुला होता है। यह बजाने के काम में नहीं आता क्योंकि इसका मुंह बन्द होता है। इसका बजना अशुभ माना जाता है। इसका प्रयोग अघ्य देने के लिए विशेषतः किया जाता है।

▪️वामवर्ती शंख का पेट बायीं ओर खुला होता है। इसको बजाने के लिए छिद्र होता है। इसकी ध्वनि से रोगोत्पादक कीटाणु कमजोर पड़ जाते हैं और अनेकानेक बीमारियां भाग खड़ी होती हैं। यह जिस घर में रहता है, वहां लक्ष्मी का निवास माना जाता है। 

♦️शंखनाद का हमारे जीवन में प्रभावः

अथर्ववेद के अनुसार शंख-ध्वनि व शंख जल के प्रभाव से बाधा आदि अशान्ति कारक तत्वों का पलायन हो जाता है। रणवीर भक्ति रत्नाकर में शंखनाद के विषय में लिखा गया है कि ध्वनि (नाद) से बड़ा कोई मंत्र नहीं है। ध्वनि के निस्सारण की विधि जानकर उसका यथोचित समय पर प्रयोग करने के समान कोई पूजा नहीं है। विधि विहीन स्वर हानिप्रद भी हो सकता है।

♦️ शंख पर प्रसिद्ध वैज्ञानिक वैज्ञानिक आचार्य जगदीश चन्द्र बोस का मत 

विश्वविख्यात भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु ने अपने यंत्रों द्वारा यह खोज की थी कि एकबार शंख फूंकने पर उसकी ध्वनि जहाँ तक जाती है, वहाँ तक अनेक बीमारियों के कीटाणु ध्वनि स्पंदन से वे मूर्छित हो जाते हैं। यदि निरन्तर प्रतिदिन यह क्रिया चालू रखी जाय तो फिर वहाँ का वायुमंडल ऐसे कीटाणुओं से सर्वथा मुक्त हो जाता है। शंख ध्वनि से क्षयरोग, हैजा आदि के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रति सैकेण्ड 27 घनफुट वायु शक्ति की तीव्रता से बजाये हुए शंख के प्रभाव से 1200 घनफुट दूरी तक स्थित कीटाणु समाप्त हो जाते हैं जबकि 260 घनफुट दूर तक के कीटाणु का नाश होता हैं।

🔺 रुद्र पाठ अभिषेक के भेद —

शास्त्रों और पुराणों में शिव पूजन के कई प्रकार बताए गए हैं, लेकिन जब हम शिवलिंग स्वरूप महादेव का अभिषेक करते हैं तो उस जैसा पुण्य अश्वमेघ जैसे यज्ञों से भी प्राप्त नहीं होता। स्वयं सृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है कि, 'जब हम अभिषेक करते हैं तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करने लगते हैं। संसार में ऐसी कोई वस्तु, कोई भी वैभव, कोई भी सुख, ऐसी कोई भी वास्तु या पदार्थ नहीं है जो हमें अभिषेक से प्राप्त न हो सके। मुख्य पांच प्रकार निम्न है - 

(1) रूपक या षडंग पाठ—रुद्र के छह अंग कहे गए हैं। इन छह अंग का यथा विधि पाठ षडंग पाठ कहा गया है।
शिव कल्प सूक्त— प्रथम हृदय रूपी अंग है 
पुरुष सूक्त — द्वितीय सिर रूपी अंग है ।
उत्तरनारायण सूक्त — शिखा है।
अप्रतिरथ सूक्त — कवचरूप चतुर्थ अंग है ।
मैत्सुक्त — नेत्र रूप पंचम अंग कहा गया है ।
शतरुद्रिय — अस्तरूप षष्ठ अंग कहा गया है।

इस प्रकार सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायी के दस अध्यायों का षडंग रूपक पाठ कहलाता है षडंग पाठ में विशेष बात है कि इसमें आठवें अध्याय के साथ पांचवें अध्याय की आवृति नहीं होती है कर्मकाण्डी भाषा में इसे ही नमक-चमक से अभिषेक करना कहा जाता है। 

(2) रुद्री या एकादशिनी - रुद्राध्याय की ग्यारह आवृति को रुद्री या एकादिशिनी कहते हैं। रुद्रों की संख्या ग्यारह होने के कारण ग्यारह अनुवाद में विभक्त किया गया है।

(3) लघुरुद्र- एकादशिनी रुद्री की ग्यारह आवृत्तियों के पाठ को लघुरुद्र पाठ कहा गया है। यह लघु रुद्र अनुष्ठान एक दिन में ग्यारह ब्राह्मणों का वरण करके एक साथ संपन्न किया जा सकता है तथा एक ब्राह्मण द्वारा अथवा स्वयं ग्यारह दिनों तक एक एकादशिनी पाठ नित्य करने पर भी लघु रुद्र अनुष्ठान संपन्न होते हैं।

(4) महारुद्र- लघु रुद्र की ग्यारह आवृति अर्थात एकादशिनी रुद्री की 121 आवृति पाठ होने पर महारुद्र अनुष्ठान होता है । यह पाठ ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा 11 दिन तक कराया जाता है।

(5) अतिरुद्र - महारुद्र की 11 आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री की 1331 आवृति पाठ होने से अतिरुद्र अनुष्ठान संपन्न होता है ये 

(1)अनुष्ठात्मक 
(2) अभिषेकात्मक 
(3) हवनात्मक , 

तीनो प्रकार से किये जा सकते हैं। शास्त्रों में इन अनुष्ठानों का अत्यधिक फल है व तीनोंं का फल समान है। 

रुद्राष्टाध्यायी के प्रत्येक अध्याय मे - प्रथमाध्याय का प्रथम मन्त्र "गणानां त्वा गणपति गुम हवामहे " बहुत ही प्रसिद्ध है । यह मन्त्र ब्रह्मणस्पति के लिए भी प्रयुक्त होता है।

द्वितीय एवं तृतीय मन्त्र मे गायत्री आदि वैदिक छन्दो तथा छन्दों में प्रयुक्त चरणों का उल्लेख है। पाँचवें मन्त्र "यज्जाग्रतो से सुषारथि" पर्यन्त का मन्त्रसमूह शिवसंकल्पसूक्त कहलाता है। इन मन्त्रो का देवता "मन" है। इन मन्त्रों में मन की विशेषताएँ वर्णित हैँ। परम्परानुसार यह अध्याय गणेश जी का है।

द्वितीयाध्याय में सहस्रशीर्षा पुरुषः से यज्ञेन यज्ञमय तक 16 मन्त्र पुरुषसूक्त से हैं, इनके नारायण ऋषि एवं विराट पुरुष देवता हैं। 17 वें मन्त्र अद्भ्यः सम्भृतः से श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च ये छह मन्त्र उत्तरनारायणसूक्त रूप में प्रसिद्ध है। द्वितीयाध्याय भगवान विष्णु का माना गया है।

तृतीयाध्याय के देवता देवराज इन्द्र हैं तथा अप्रतिरथ सूक्त के रूप मे प्रसिद्ध है। कुछ विद्वान आशुः शिशानः से अमीषाज्चित्तम् पर्यन्त द्वादश मन्त्रों को स्वीकारते हैं तो कुछ विद्वान अवसृष्टा से मर्माणि ते पर्यन्त 5 मन्त्रों का भी समावेश करते हैं। इन मन्त्रों के ऋषि अप्रतिरथ है। इन मन्त्रों द्वारा इन्द्र की उपासना द्वारा शत्रुओं, स्पर्शाधकों का नाश होता है।

प्रथम मन्त्र "ऊँ आशुः शिशानो .... त्वरा से गति करके शत्रुओं का नाश करने वाला, भयंकर वृषभ की तरह, सामना करने वाले प्राणियोँ को क्षुब्ध करके नाश करने वाला। मेघ की तरह गर्जना करने वाला। शत्रुओं का आवाहन करने वाला, अति सावधान, अद्वितीय वीर, एकाकी पराक्रमी, देवराज इन्द्र शतशः सेनाओ पर विजय प्राप्त करता है।

चतुर्थाध्याय में सप्तदश मन्त्र हैं, जो मैत्रसूक्त के रूप मे प्रसिद्ध है। इन मन्त्रों में भगवान सूर्य की स्तुति है " ऊँ आकृष्णेन रजसा " में भुवनभास्कर का मनोरम वर्णन है। यह अध्याय सूर्यनारायण का है ।

पंचमाध्याय मे 66 मन्त्र हैं। यह अध्याय प्रधान है, इसे शतरुद्रिय कहते हैं।
"शतसंख्यात रुद्रदेवता अस्येति शतरुद्रियम्। इन मन्त्रों में रुद्र के शतशः रूप वर्णित है। कैवल्योपनिषद मे कहा गया है कि शतरुद्रिय का अध्ययन से मनुष्य अनेक पातकों से मुक्त होकर पवित्र होता है। इसके देवता महारुद्र शिव है। 

षष्ठाध्याय को महच्छिर के रूप मेँ माना जाता है। प्रथम मन्त्र में सोम देवता का वर्णन है। प्रसिद्ध महामृत्युञ्जय मन्त्र "ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे" इसी अध्याय में है। इसके देवता चन्द्रदेव हैं।

सप्तमाध्याय को जटा कहा जाता है । उग्रश्चभीमश्च मन्त्र मे मरुत् देवता का वर्णन है। इसके देवता वायुदेव हैं।

अष्टमाध्याय को चमकाध्याय कहा जाता है । इसमे 29 मन्त्र है। प्रत्येक मन्त्र मे "च "कार एवं "मे" का बाहुल्य होने से कदाचित चमकाध्याय अभिधान रखा गया है । इसके ऋषि "देव"स्वयं है तथा देवता अग्नि है। प्रत्येक मन्त्र के अन्त मे यज्ञेन कल्पन्ताम् पद आता है।

रुद्री के उपसंहार मे "ऋचं वाचं प्रपद्ये " इत्यादि 24 मन्त्र शान्तयाध्याय के रुप मे एवं "स्वस्ति न इन्द्रो " इत्यादि 12 मन्त्र स्वस्ति प्रार्थना के रुप मे प्रसिद्ध है।


सर्वेभ्यः अद्य श्री श्रावण पर्वणः हार्दिक्यः शुभकामनाः।
ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव 


🕉️ श्री श्रावण मास 🕉️


🔺 श्री श्रावण मास का संपूर्ण वैदिक महात्म्य ।
🔺श्री श्रावण सोमवार व्रत विधान ।
🔺 श्रावण सोमवार में भगवान शिव का रुद्राभिषेक द्रव्य पूजन एवं शिववास विचार ।
🔺 भगवान शिव को अतिप्रिय रुद्र पाठ की अभिषेक विधि ?

🔺श्री श्रावण मास वैदिक महात्म्य —

मनुष्य अपने परम कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने हेतु हमारे पुराणों में विभिन्न तिथियों, पर्वों, मासों आदि में अनेकानेक कृत्यों का सविधि प्रेरक वर्णन प्राप्त होता है, जिनका श्रद्धापूर्वक पालन करके मनुष्य भोग तथा मोक्ष दोनों को प्राप्त कर सकता है। निष्काम भाव से किसी भी काल विशेष में जप, तप, दान, अनुष्ठान आदि करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है- यह निश्चित है। पुराणों में प्रायः सभी मासों का माहात्म्य मिलता है, परंतु वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष, माघ तथा पुरुषोत्तम मास का विशेष माहात्य दृष्टिगोचर होता है, इन मासों में श्री श्रावण मास विशेष है। 

श्री श्रावण मास के स्वामी आदिदेव भगवान शिव है, सबके आदि में आविर्भूत हुए हैं, अतः उनको आदि देव कहा गया है। जैसे एक की विधि बाधा से अन्य की विधि-बाधा होती है, वैसे ही अन्य देवताओं के अल्प देवत्व के कारण आपको महादेव माना गया है। तीनों देवताओं के निवास स्थान पीपल वृक्ष में सबसे ऊपर शिव जी की स्थिति है। कल्याण रूप होने के कारण वो शिव हैं और पाप समूह को हरने के कारण वो हर हैं, आदि देव होने में शिव जी का शुक्ल वर्ण प्रमाण है क्योंकि प्रकृति में शुक्ल वर्ण ही प्रधान है, अन्य वर्ण विकृत है। आदिदेव कर्पूर के समान गौर वर्ण के है, गणपति के अधिष्ठान रूप चार दल वाले मूलाधार नामक चक्र से, ब्रह्माजी के अधिष्ठान रूप छः दल वाले स्वाधिष्ठान नामक चक्र से और विष्णु के अधिष्ठान रूप दस दल वाले मणिपुर नामक चक्र से भी ऊपर महादेव के अधिष्ठित होने के कारण शिव ब्रह्मा तथा विष्णु के ऊपर स्थित हैं, यह महादेव प्रधानता को व्यक्त करता है। एकमात्र शिव जी ही पूजा से पंचायतन पूजा हो जाती है जो की दूसरे देवता की पूजा से किसी भी तरह संभव नहीं है, आदिदेव शिव की बाईं जाँघ पर शक्ति स्वरूपा दुर्गा, दाहिनी जाँघ पर प्रथम पूज्य गणपति, उनके नेत्र में सूर्य तथा हृदय में भक्तराज भगवान् श्रीहरि विराजमान हैं। सबको विरक्ति की शिक्षा देने हेतु आदिदेव श्मशान में तथा पर्वत पर निवास करते हैं।
श्रावण मास के लिए भगवान् ने स्वयं कहा है- 

द्वादशस्वपि मासेषु श्रावणो मेऽतिवल्लभः। 
श्रवणाईं यन्माहात्म्यं तेनासौ श्रवणो मतः ॥
श्रवणक्ष पौर्णमास्यां ततोऽपि श्रावणः स्मृतः। 
यस्य श्रवणमात्रेण सिद्धिदः श्रावणोऽप्यतः ॥
(स्कन्दमहापु० श्रा० माहा० १।१७-१८)

अर्थात् बारहों मासों में श्रावण मुझे अत्यन्त प्रिय है। इसका माहात्म्य सुनने योग्य है। अतः इसे श्रावण कहा जाता है। इस मास में श्रवण-नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होती है, इस कारण भी इसे श्रावण कहा जाता है। निर्मलता गुण के कारण यह आकाश के सदृश है इसलिए 'नभा' कहा गया है। इसके माहात्म्य के श्रवण मात्र से यह सिद्धि प्रदान करने वाला है, इसलिये भी यह श्रावण संज्ञा वाला है। 

श्रावणमास चातुर्मास के अन्तर्गत होने के कारण उस समय वातावरण विशेष धर्ममय रहता है। जगह-जगह प्रवासी संन्यासी- गणों तथा विद्वान् कथावाचकों द्वारा भगवान्‌ की चरित कथाओं का गुणानुवाद एवं पुराणादि ग्रन्थों का वाचन होता रहता है। श्रवणमास भर शिवमन्दिरों में श्रद्धालुजनों की विशेष भीड़ होती है, प्रत्येक सोमवार को अनेक लोग व्रत रखते हैं तथा प्रतिदिन जलाभिषेक भी करते हैं। जगह-जगह कथा सत्रों का आयोजन, काशीविश्वनाथ, वैद्यनाथ, महाकालेश्वर आदि द्वादश ज्योतिर्लिंगों तथा उपलिंगों की ओर जाते काँवरियों के समूह, धार्मिक मेलों के आयोजन, भजन-कीर्तन आदि के दृश्यों के कारण वातावरण परम धार्मिक हो उठता है। महाभारत के अनुशासन पर्व (१०६। २७) में महर्षि अंगिरा का वचन है-

श्रावणं नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्। 
यत्र तत्राभिषेकेण युज्यते ज्ञातिवर्धनः ॥
अर्थात् 'जो मन और इन्द्रियों को संयममें रखकर एक समय भोजन करते हुए श्रावणमास को बिताता है, वह विभिन्न तीर्थों में स्नान करनेके पुण्यफल से युक्त होता है और अपने कुटुम्बी जनों की वृद्धि करता है।' स्कन्दमहापुराण में तो भगवान् यहाँ तक कहा है कि श्रावण मास में जो विधान किया गया है, उसमें से किसी एक व्रत का भी करनेवाला मुझे परम प्रिय है-

किं बहूक्तेन विप्रर्षे श्रावणे विहितं तु यत्। 
तस्य चैकस्य कर्तापि मम प्रियतरो भवेत् ॥
(स्कन्दमहापु० श्रा०माहा० ३०।३६)


🔺 श्री श्रावण सोमवार व्रत विधान —

सोम चन्द्रमा का नाम है और यह ब्राह्मणों का राजा है, यज्ञों का साधन भी सोम है। क्योंकि यह वार साक्षात शिव का ही स्वरूप है, अतः इसे सोम कहा गया है। इसीलिये यह समस्त संसार का प्रदाता तथा श्रेष्ठ है। सोमवार व्रत करने वाले को यह सम्पूर्ण फल देनेवाला है, बारहों महीनों में सोमवार अत्यन्त श्रेष्ठ है, परंतु श्रावण मास में सोमवार व्रत को करके मनुष्य वर्षभर के व्रत का फल प्राप्त करता है, श्रावण में शुक्लपक्ष के प्रथम सोमवार को यह संकल्प करे कि 'मैं विधिवत् इस व्रत को करूंगा, शिवजी मुझ पर प्रसन्न हों।' इस प्रकार चारों सोमवार के दिन और यदि पाँच हो जायें तो उसमें भी प्रातःकाल यह संकल्प करे और रात्रि में शिवजी का पूजन करे। सोलह उपचारों से सायंकाल में भी शिवजी की पूजा करे और एकाग्रचित्त होकर महादेव की कथा का श्रवण करे। 

श्रावण मास के प्रथम सोमवार मनुष्य को चाहिये कि अच्छी तरह स्नान करके पवित्र होकर श्वेत वस्त्र धारण कर ले और काम, क्रोध, अहंकार, द्वेष, निन्दा आदि का  त्याग करके मालती, मल्लिका आदि श्वेत पुष्पों को लाये। इनके अतिरिक्त अन्य विविध पुष्पों से तथा अभीष्ट पूजनोपचारों के द्वारा 'त्र्यम्बक०' इस मूलमन्त्र से शिवजी की पूजा करे। तत्पश्चात् यह कहे मैं शर्व, भवनाश, महादेव, उग्र, उग्रनाथ, भव, शशिमौलि, रुद्र, नीलकण्ठ, शिव तथा भवहारी का ध्यान करता हूँ, इस प्रकार अपने विभवके अनुसार मनोहर उपचारों से देवेश शिव का विधिवत् पूजन करे, तदनन्तर एक दिव्य तथा शुभ लिंगतोभद्र मण्डल बनाये और उसमें दो श्वेत वस्त्रों से युक्त एक घट स्थापित करे। घट के ऊपर ताँबे अथवा बाँस का बना हुआ पात्र रखे और उसके ऊपर उमा सहित शिव को स्थापित करे। इसके बाद श्रुति, स्मृति तथा पुराणों में कहे गये मन्त्रों से शिव की पूजा करे, पुष्पों का मण्डप बनाये और उसके साथ ही एक सुंदर छोटा यज्ञ आहुति मंडप बनाए , तत्पश्चात् बुद्धिमान् मनुष्य अपने गृह्यसूत्र में निर्दिष्ट विधानके अनुसार अग्नि-स्थापन करे और फिर शर्व आदि ग्यारह श्रेष्ठ नामों से पलाश को समिधाओं से एक सौ आठ आहुति प्रदान करे; यब, ब्रीहि, तिल आदि की आहुति 'आप्यायस्व०' इस मन्त्रसे दे और बिल्वपत्रोंकी आहुति 'त्र्यम्बक०' अथवा षडक्षर मन्त्र (ॐ नमः शिवाय) से प्रदान करे। तत्पश्चात् स्विष्टकृत् होम करके पूर्णाहुति देकर आचार्य का पूजन करे और बादमें उन्हें गौ प्रदान करे, तदनन्तर ग्यारह श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराये और उन्हें वंशपात्र सहित ग्यारह घट प्रदान करे। इसके बाद पूजित देवता को तथा देवता को अर्पित सभी सामग्री आचार्य को दे और तत्पश्चात् प्रार्थना करे- 'मेरा व्रत परिपूर्ण हो और शिवजी मुझपर प्रसन्न हों।' तदनन्तर बन्धुओंके साथ हर्षपूर्वक भोजन करे ।

इस प्रकार जो लोग सोमवार के दिन पार्वती सहित शिव की पूजा करते हैं, वे पुनरावृत्ति से रहित अक्षय लोक प्राप्त करते हैं , देवताओं तथा दानवो से भी अभेद्य सात जन्मों का अर्जित पाप नष्ट हो जाता है। चाँदी के वृषभ पर विराजमान सुवर्ण निर्मित शिव तथा पार्वती की प्रतिमा अपने सामर्थ्यके अनुसार बनानी चाहिये, इसमें धनकी कृपणता नहीं करनी चाहिये, शुद्ध मिट्टी से बने शिव गौरा परिवार सर्व पुण्यकारी माने जाते है ।

🔺 रुद्राभिषेक द्रव्य पूजन एवं शिववास विचार —

रुद्र अर्थात भूतभावन शिव का अभिषेक। शिव और रुद्र परस्पर एक-दूसरे के पर्यायवाची है। शिव को ही 'रुद्र' कहा जाता है, क्योंकि स्तम्-दुःखम, प्रावयति-नाशयतीति-रुद्र: यानी कि भोले सभी दुःखों को नष्ट कर देते हैं। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दुःखों के कारण है। रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारी कंडली से पातक कर्म एवं महापातक भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वतः हो जाती है।

रुद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि सर्व-देवात्मको रुद्रः सर्वे देवाः शिवात्माका अर्थात सभी देवताओं की आत्मा में रुद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रुद्र की आत्मा है। शास्त्रों में कहा गया है कि 'शिवः अभिषेक प्रियः' अर्थात् कल्याणकारी शिव को अभिषेक अत्यंत प्रिय है। भगवान शिव ऐसे देवता है, जो महज एक लोटा गंगा जल या शुद्ध जल अर्पित करने मात्र से ही प्रसन्न हो जाते हैं।

श्रावण महीने में सोमवार व्रत एवं भगवान शिव के 'रुद्राभिषेक' का विशेष महत्त्व है। इसलिए इस माह में, खासतौर पर सोमवार का व्रत एवं रुद्राभिषेक भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए किये जाता है। व्रत में भगवान शिव का पूजन एवं अभिषेक करके एक समय ही भोजन किया जाता है । जिससे शिव भगवान की कृपा प्राप्त की जा सकती है। हमारे शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक के पूजन के निमित्त अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है। साधक रुद्राभिषेक पूजन विभिन्न विधि से तथा विविध मनोरथ को लेकर करते हैं। किसी खास मनोरथ की पूर्ति के लिए तदनुसार पूजन सामग्री तथा विधि से रुद्राभिषेक किया जाता है।

शिवपुराण अनुसार रुद्राभिषेक के लिए विभिन्न द्रव्य निम्न प्रकार है ।

1. जल द्वारा अभिषेक करने से वर्षा होती है ।
2. तीर्थ जल अभिषेक करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
3. इत्र बल से अभिषेक करने से बीमारी नष्ट होती है ।
4. गंगाजल जल द्वारा अभिषेक करने से ज्वर की शांति होती है।
5. जल+शकर से अभिषेक करने से पुत्र की प्राप्ति होती है ।
6. जल+कुश द्वारा अभिषेक करने से असाध्य रोग (रोग, दुख) शांत होते है।
7. तीर्थ जल द्वारा अभिषेक करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
8. गन्ना रस द्वारा अभिषेक करने से लक्ष्मी प्राप्ति और कर्ज से छुटकारा होता है।
9. दुग्ध+गोदुग्ध द्वारा अभिषेक करने से पुत्र प्राप्ति होती है।
10. दुग्ध द्वारा अभिषेक करने से प्रमेह रोग की शांति होती है।
11. दुग्ध+शकर द्वारा अभिषेक करने से जड़बुद्धि वाला भी विद्वान हो जाता है।
12. गोदग्ध+घी द्वारा अभिषेक करने से आरोग्यता प्राप्त होती है।
13. दही द्वारा अभिषेक करने से मकान, वाहन, पशु आदि कि प्राप्ति होती है ।
14. शहद+घी द्वारा अभिषेक करने से धन-वृद्धि होती है।
15. शहद द्वारा अभिषेक करने से यक्ष्मा (तपेदिक) दूर हो जाती है तथा पापों से मुक्ति मिलती है ।
16. घृत द्वारा अभिषेक करने से वंश वृद्धि होती है।
17. सरसों तेल द्वारा अभिषेक करने से शत्रु पराजित होता है।

परंतु विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों में मंत्र, गोदुग्ध या अन्य दूध मिलाकर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सबको मिलाकर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है। तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है। इस प्रकार विविध द्रव्यों से शिवलिंग का विधिवत अभिषेक करने पर अभीष्ट कामना की पूर्ति होती है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी पुराने नियमित रूप से पूजे जाने वाले शिवलिंग का अभिषेक बहुत ही उत्तम फल देता है किंतु यदि पारद के शिवलिंग का अभिषेक किया जाए तो बहुत ही शीघ्र चमत्कारिक शुभ परिणाम मिलता है। रुद्राभिषेक का फल बहुत ही शीघ्र प्राप्त होता है। वेदों में विद्वानों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पुराणों में तो इससे संबंधित अनेक कथाओं का विवरण प्राप्त होता है। वेदों और पुराणों में रुद्राभिषेक के बारे में बताया गया है कि रावण ने अपने दसों सिरों को काटकर उसके रक्त से शिवलिंग का अभिषेक किया था तथा सिरों को हवन की अग्नि को अर्पित कर दिया था जिससे वो त्रिलोकजयी हो गया।
भस्मासुर ने शिवलिंग का अभिषेक अपनी आंखों के आंसुओं से किया तो वह भी भगवान के वरदान का पात्र बन गया। कालसर्प योग, गृहक्लेश, व्यापार में नुकसान, शिक्षा में रुकावट सभी कार्यों की बाधाओं को दूर करने के लिए रुद्राभिषेक आपके अभीष्ट सिद्धि के लिए फलदायक है।

शिववास विचार -किसी कामना से किए जाने वाले रुद्राभिषेक में शिव-वास का विचार करने पर अनुष्ठान अवश्य सफल होता है। ज्योर्तिलिंग क्षेत्र एवं तीर्थस्थान में तथा शिवरात्रि-प्रदोष, श्रावण के सोमवार आदि पर्वो में शिव-वास का विचार किए बिना भी रुद्राभिषेक किया जा सकता है।
शिववास चक्रम् का फल निम्न प्रकार ज्ञात किया जाता है ।
• गौरी सानिध्य शिववास - 1,8,30 (कृष्णपक्ष तिथि), 2,9 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल सुख सम्पदा
• सभा शिववास - 2,9 (कृष्णपक्ष तिथि), 3,10 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल ताप 
• क्रीड़ा शिववास - 3,10 (कृष्णपक्ष तिथि), 4,11 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल कष्ट 
• कैलाश शिववास - 4,11 (कृष्णपक्ष तिथि), 5,12 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल सुख
• वृषभ शिववास - 5,12 (कृष्णपक्ष तिथि), 6,13 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल अभिष्ठ सिद्धि 
• भोजन शिववास - 6,13 (कृष्णपक्ष तिथि), 7,14 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल पीड़ा 
• श्मशान शिववास - 7,14 (कृष्णपक्ष तिथि), 1,8,15 (शुक्ल पक्ष तिथि) – फल मरण