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क्यों की जाती है भगवान की परिक्रमा ।।

हिन्दू धर्म में परिक्रमा का बड़ा महत्त्व है। परिक्रमा से अभिप्राय है कि सामान्य स्थान या किसी व्यक्ति के चारों ओर उसकी दाहिनी तरफ से घूमना। इसको 'प्रदक्षिणा करना' भी कहते हैं, जो षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रदक्षिणा की प्रथा अतिप्राचीन है।

 वैदिक काल से ही इससे व्यक्ति, देवमूर्ति, पवित्र स्थानों को प्रभावित करने या सम्मान प्रदर्शन का कार्य समझा जाता रहा है। दुनिया के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की देन है। काबा में भी परिक्रमा की जाती है तो बोधगया में भी।

परिक्रमा मार्ग और दिशा : 'प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं’ के अनुसार अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है। प्रदक्षिणा में व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे परिक्रमा के नाम से प्राय: जाना जाता है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ में कहा गया है कि देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है।

प्रदक्षिणा का प्राथमिक कारण सूर्यदेव की दैनिक चाल से संबंधित है। जिस तरह से सूर्य प्रात: पूर्व में निकलते है, दक्षिण के मार्ग से चलकर पश्चिम में अस्त हो जाता है, उसी प्रकार वैदिक विचारकों के अनुसार अपने धार्मिक कृत्यों को बाधा विध्नविहीन भाव से सम्पादनार्थ प्रदक्षिणा करने का विधान किया गया। शतपथ ब्राह्मण में प्रदक्षिणा मंत्र स्वरूप कहा भी गया है, सूर्य के समान यह हमारा पवित्र कार्य पूर्ण हो।

दार्शनिक महत्व :इसका एक दार्शनिक महत्व यह भी है कि संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रत्येक ग्रह-नक्ष‍त्र किसी न किसी तारे की परिक्रमा कर रहा है। यह परिक्रमा ही जीवन का सत्य है। व्यक्ति का संपूर्ण जीवन ही एक चक्र है। इस चक्र को समझने के लिए ही परिक्रमा जैसे प्रतीक को निर्मित किया गया। भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब उत्पन्न हुए हैं, हम उनकी परिक्रमा लगाकर यह मान सकते हैं कि हमने सारी सृष्टि की परिक्रमा कर ली है। परिक्रमा का धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व भी है।

भगवान शिव की अर्ध परिक्रमा क्यों..

शिवजी की आधी परिक्रमा करने का विधान है, वह इसलिए कि शिव के सोमसूत्र को लांघा नहीं जाता है। जब व्यक्ति आधी परिक्रमा करता है तो उसे चंद्राकार परिक्रमा कहते हैं। शिवलिंग को ज्योति माना गया है और उसके आसपास के क्षेत्र को चंद्र। आपने आसमान में अर्ध चंद्र के ऊपर एक शुक्र तारा देखा होगा। यह शिवलिंग उसका ही प्रतीक नहीं है बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड ज्योतिर्लिंग के ही समान है।

'अर्द्ध सोमसूत्रांतमित्यर्थ: शिव प्रदक्षिणीकुर्वन सोमसूत्र न लंघयेत इति वाचनान्तरात।'

सोमसूत्र :शिवलिंग की निर्मली को सोमसूत्र भी कहा जाता है। शास्त्र का आदेश है कि शंकर भगवान की प्रदक्षिणा में सोमसूत्र का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, अन्यथा दोष लगता है। सोमसूत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि भगवान को चढ़ाया गया जल जिस ओर से गिरता है, वहीं सोमसूत्र का स्थान होता है।

क्यों नहीं लांघते सोमसूत्र :सोमसूत्र में शक्ति-स्रोत होता है अत: उसे लांघते समय पैर फैलाते हैं और वीर्य ‍निर्मित और 5 अन्तस्थ वायु के प्रवाह पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे देवदत्त और धनंजय वायु के प्रवाह में रुकावट पैदा हो जाती है जिससे शरीर और मन पर बुरा असर पड़ता है अत: शिव की अर्ध चंद्राकार प्रदक्षिणा ही करने का शास्त्र का आदेश है।

कब लांघ सकते हैं :शास्त्रों में अन्य स्थानों पर मिलता है कि तृण, काष्ठ, पत्ता, पत्थर, ईंट आदि से ढंके हुए सोमसूत्र का उल्लंघन करने से दोष नहीं लगता है, लेकिन ‘शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा’ का मतलब शिव की आधी ही प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

किस ओर से परिक्रमा :भगवान शिवलिंग की परिक्रमा हमेशा बाईं ओर से शुरू कर जलाधारी के आगे निकले हुए भाग यानी जलस्रोत तक जाकर फिर विपरीत दिशा में लौटकर दूसरे सिरे तक आकर परिक्रमा पूरी करें।

किसकी कितनी परिक्रमा

शास्त्रों के अनुसार पूजा के समय सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा करने की परंपरा है। सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा की संख्या अलग-अलग बताई गई है, जैसे दुर्गाजी की एक, ‍सूर्य की सात, गणेश की तीन, विष्णु की चार और शिव की आधी प्रदक्षिणा करना चाहिए।-नारद पुराण

किस देवता की कितनी प्रदक्षिणा करनी चाहिए, इस संदर्भ में ‘कर्म लोचन’ नामक ग्रंथ में लिखा गया है कि- ‘एका चण्ड्या रवे: सप्त तिस्र: कार्या विनायके। हरेश्चतस्र: कर्तव्या: शिवस्यार्धप्रदक्षिणा।’ अर्थात दुर्गाजी की एक, सूर्य की सात, गणेशजी की तीन, विष्णु भगवान की चार एवं शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
तिलक लगाने के बाद यज्ञ देवता अग्नि या वेदी की तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) लगानी चाहिए। ये तीन प्रदक्षिणा जन्म, जरा और मृत्यु के विनाश हेतु तथा मन, वचन और कर्म से भक्ति की प्रतीक रूप, बाएं हाथ से दाएं हाथ की तरफ लगाई जाती है।

श्री गणेश की तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए जिससे गणेशजी भक्त को रिद्ध-सिद्धि सहित समृद्धि का वर देते हैं।

पुराण के अनुसार श्रीराम के परम भक्त पवनपुत्र श्री हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है। भक्तों को इनकी तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए।

माता दुर्गा मां की एक परिक्रमा की जाती है। माता अपने भक्तों को शक्ति प्रदान करती है।

भगवान नारायण अर्थात् विष्णु की चार परिक्रमा करने पर अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

एकमात्र प्रत्यक्ष देवता सूर्य की सात परिक्रमा करने पर सारी मनोकामनाएं जल्द ही पूरी हो जाती हैं।

प्राय: सोमवती अमावास्या को महिलाएं पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करती हैं। हालांकि सभी देववृक्षों की परिक्रमा करने का विधान है।

जिन देवताओं की प्रदक्षिणा का विधान नही प्राप्त होता है, उनकी तीन प्रदक्षिणा की जा सकती है। लिखा गया है कि- ‘यस्त्रि: प्रदक्षिणं कुर्यात् साष्टांगकप्रणामकम्। दशाश्वमेधस्य फलं प्राप्रुन्नात्र संशय:॥'

काशी ऐसी ही प्रदक्षिणा के लिए पवित्र मार्ग है जिसमें यहां के सभी पुण्यस्थल घिरे हुए हैं और जिस पर यात्री चलकर काशीधाम की प्रदक्षिणा करते हैं। ऐसे ही प्रदक्षिणा मार्ग मथुरा, अयोध्या, प्रयाग, चित्रकूट आदि में हैं।

 मनु स्मृति में विवाह के समक्ष वधू को अग्नि के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा करने का विधान बतलाया गया है जबकि दोनों मिलकर 7 बार प्रदक्षिणा करते हैं तो विवाह संपन्न माना जाता है।

पवित्र धर्मस्थानों- अयोध्या, मथुरा आदि पुण्यपुरियों की पंचकोसी (25 कोस की), ब्रज में गोवर्धन पूजा की सप्तकोसी, ब्रह्ममंडल की चौरासी कोस, नर्मदाजी की अमरकंटक से समुद्र तक छ:मासी और समस्त भारत खंड की वर्षों में पूरी होने वाली इस प्रकार की विविध परिक्रमाएं भूमि में पद-पद पर दंडवत लेटकर पूरी की जाती है। यही 108-108 बार प्रति पद पर आवृत्ति करके वर्षों में समाप्त होती है।

प्रदक्षिणा का लाभ

धार्मिक महत्व :भगवान की परिक्रमा का धार्मिक महत्व तो है ही, विद्वानों का मत है भगवान की परिक्रमा से अक्षय पुण्य मिलता है, सुरक्षा प्राप्त होती है और पापों का नाश होता है। पग-पग चलकर प्रदक्षिणा करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। सभी पापों का तत्क्षण नाश हो जाता है। प्रदक्षिणा करने से तन-मन-धन पवित्र हो जाते हैं व मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। जहां पर यज्ञ होता है वहां देवताओं साथ गंगा, यमुना व सरस्वती सहित समस्त तीर्थों आदि का वास होता है।

प्रदक्षिणा या परिक्रमा करने का मूल भाव स्वयं को शारीरिक एवं मानसिक रूप से भगवान के समक्ष समर्पित कर देना भी है।

परिक्रमा करने का व्यावहारिक और वैज्ञानिक पक्ष वास्तु और वातावरण में फैली सकारात्मक ऊर्जा से जुड़ा है। दरअसल, भगवान की पूजा-अर्चना, आरती के बाद भगवान के उनके आसपास के वातावरण में चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है इस सकारात्मक ऊर्जा के घेरे के भीतर चारों और परिक्रमा करके व्यक्ति के भीतर भी सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता और नकारात्मकता घटती है। इससे मन में विश्वास का संचार होकर जीवेषणा बढ़ती है।

परिक्रमा करने का नियम

परिक्रमा प्रारंभ करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए। परिक्रमा वहीं पूर्ण करें, जहां से प्रारंभ की गई थी। परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नहीं मानी जाती। परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत न करें। जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें। इस प्रकार परिक्रमा करने से अभीष्ट एवं पूर्ण लाभ की प्राप्ति होती है

परिक्रमा पूर्ण करने के पश्चात भगवान को दंडवत प्रणाम करना चाहिए। जो लोग तीन प्रदक्षिणा साष्टांग प्रणाम करते हुए करते हैं, वे दश अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करते हैं। जो लोग सहस्रनाम का पाठ करते हुए प्रदक्षिणा करते हैं, वे सप्त द्वीपवती पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त करते हैं।

बृहन्नारदीय में लिखा गया है कि जो भगवान विष्णु की तीन परिक्रमा करते हैं, वे सभी प्रकार के पापों से विमुक्त हो जाते हैं। इसका मतलब यह समझ में आता है कि कामना के अनुसार भी प्रदक्षिणा की संख्या का विचार किया गया है। विष्णु स्मृति में कहा गया है कि एक हाथ से प्रणाम करना, एक प्रदक्षिणा एवं अकाल में विष्णु का दर्शन पूर्व में किए गए पुण्य की हानि करता है।


Maha Lakshmi ।।

Shri Maha Lakshmi is the goddess of wealth, prosperity and fortune. She is the embodiment of love and beauty. She is the consort of Lord Vishnu. She came out of the ocean during the great churning of Milky-Ocean, known as Kshir-Sagara. Shri Lakshmi, herself only, chose Lord Vishnu as Her husbandMaha Lakshmi is also known as Shri.

🙏 Lakshmi Family

According to some religious texts, Maha Lakshmi was the daughter of Bhrigu Maharishi, one of the Saptarshis. She was reborn during the churning of the ocean. Mahalakshmi chose Lord Vishnu as Her husband and resides with Him in Vaikuntha. Shri Lakshmi incarnated as Goddess Sita and Goddess Radha along with Lord Rama and Lord Krishna incarnations of Lord Vishnu.

• It is believed that Goddess Lakshmi has 18 sons named Devasakha, Chiklita, Ananda, Kardam, Shriprada, Jataveda, Anuraga, Samvada, Vijaya, Vallabha, Mada, Harsha, Bala, Teja, Damaka, Salila, Guggula, Kuruntaka.

🙏 Lakshmi Iconography

Shri Lakshmi is depicted with four hands while either sitting or standing on the lotus flower. She holds lotus flowers in two of the upper hands. One of the lower hands is in Varad Mudra through which She bestows wealth and prosperity. The other lower hand is shown in Abhaya Mudra through which She bestows courage and strength to Her devotees.

She is shown wearing red clothes and adorned with gold jewelry. She has calm and soothing expressions. She is shown sitting in a beautiful garden or in blue-ocean.

She is surrounded with either two or four white elephants giving Her Abhishekam with the water. Her Vahana i.e. mounts are white elephant and owl.

🙏 Lakshmi Festivals and Vrats

• Diwali Lakshmi Puja
• Kojagara Puja
• 16 Days Maha Lakshmi Vrat
• Varalakshmi Vrat
• Lakshmi Jayanti
• Lakshmi Panchami

🙏 List of Goddess Lakshmi Mantra

1. Lakshmi Beej Mantra
ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्मीभयो नमः॥

Om Hreem Shreem Lakshmibhayo Namah॥

2. Mahalakshmi Mantra
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मयै नम:॥

Om Shreem Hreem Shreem Kamale Kamalalaye Praseed Praseed
Om Shreem Hreem Shreem Mahalakshmaye Namah॥

3. Lakshmi Gayatri Mantra
ॐ श्री महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि,
तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात् ॐ॥

Om Shree Mahalakshmyai Cha Vidmahe Vishnu Patnyai Cha Dheemahi,
Tanno Lakshmi Prachodayat Om॥

🙏 Lakshmi Incarnations and Swaroop

• Adi Lakshmi - the primal mother goddess
• Dhana Lakshmi - the one who showers wealth
• Dhanya Lakshmi - the one who gives abundance of food/cereals
• Gaja Lakshmi - the one who gives power and strength
• Santana Lakshmi - the one who blesses with off-springs and progeny
• Veera Lakshmi - the one who gives valor and courage
• Vijaya Lakshmi - the one gives victory over all sort of enemies
• Aishwarya Lakshmi - the one gives all sort of comforts and luxuries

The above, 8 forms of Maha Lakshmi are collectively known as Ashtalakshmi. Apart from these 8 forms, Goddess Lakshmi is also worshipped in following Swaroops.

• Vidya Lakshmi - the one who gives wisdom and knowledge
• Saubhagya Lakshmi - the one who blesses with good luck
• Rajya Lakshmi - the one who gives kingdom and property
• Vara Lakshmi - the one who bestows boons
• Dhairya Lakshmi - the one who gives patience

🙏 Lakshmi Temples

• Laxminarayan Temple, New Delhi
• Mahalakshmi Temple, Mumbai
• Mahalakshmi Temple, Kolhapur
• Mahalakshmi Golden Temple, Sripuram
• Lakshmi Devi Temple, Doddagaddavalli
• Ashtalakshmi Kovil Temple, Chennai
• Ashtalakshmi Temple, Hyderabad
• Lakshmi Temple, Khajuraho

तंत्रसाहित्य के विशिष्ट आचार्य ।।

तन्त्र साहित्य अत्यन्त विशाल है। प्राचीन समय के दुर्वासा, अगस्त्य, विश्वामित्र, परशुराम, बृहस्पति, वशिष्ठ, नंदिकेश्वर, दत्तात्रेय महर्षि लोमश ऋषियों ने तन्त्र के अनेकों ग्रन्थों का प्रणयन किया, उनका विवरण देना यहाँ अनावश्यक है।

ऐतिहासिक युग में शंंकराचार्य के परम गुरु गौडपादाचार्य का नाम उल्लेखयोग्य है। उनके द्वारा रचित 'सुभगोदय स्तुति' एवं 'श्रीविद्यारत्न सूत्र' प्रसिद्ध हैं। मध्ययुग में तांत्रिक साधना एवं साहित्य रचना में जितने विद्वानों का प्रवेश हुआ था उनमें से कुछ विशिष्ट आचार्यो का संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जा रहा है- महर्षि आचार्य' '''' लक्ष्मणदेशिक: ये शादातिलक, ताराप्रदीप आदि ग्रथों के रचयिता थे। इनके विषय में यह परिचय मिलता है कि ये उत्पल के शिष्य थे।

आदि शंकराचार्य: वेदांगमार्ग के संस्थापक सुप्रसिद्ध भगवान शंकराचार्य वैदिक संप्रदाय के अनुरूप तांत्रिक संप्रदाय के भी उपदेशक थे। ऐतिहासिक दृष्टि से पंडितों ने तांत्रिक शंकर के विषय में नाना प्रकार की आलोचनाएं की हैं। कोई दोनों को अभिन्न मानते हैं और कोई नहीं मानते हैं। उसकी आलोचना यहाँ अनावश्यक है। परंपरा से प्रसिद्ध तांत्रिक शंकराचार्य के रचित ग्रंथ इस प्रकार हैं-

1-प्रपंचसार, 2-परमगुरु गौडपाद की सुभगोदय स्तुति की टीका, 3-ललितात्रिशतीभाष्य, 4- आनंदलहरी अथवा सौंदर्यलहरी नामक स्तोत्र 5- क्रमस्तुति।
किसी-किसी के मत में 'कालीकर्पूरस्तव' की टीका भी शंकराचार्य ने बनाई थी।

पृथिवीधराचार्य अथवा 'पृथ्वीधराचार्य : यह शंकर के शिष्कोटि में थे। इन्होंने 'भुवनेश्वरी स्तोत्र' तथा 'भुवनेश्वरी रहस्य' की रचना की थी। भुवनेश्वरी स्तोत्र राजस्थान से प्रकाशित है। वेबर ने अपने कैलाग में इसका उल्लेख किया है। भुवनेश्वरी रहस्य वाराणसी में भी उपलब्ध है और उसका प्रकाशन भी हुआ है। पृथ्वीधराचार्य का भुवनेश्वरी-अर्चन-पद्धति नाम से एक तीसरा ग्रंथ भी प्रसिद्ध है।

चरणस्वामी: वेदांत के इतिहास में एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। तंत्र में इन्होंने 'श्रीविद्यार्थदीपिका' की रचना की है। 'श्रीविद्यारत्न-सूत्र-दीपिका' नामक इनका ग्रंथ मद्रास लाइब्रेरी में उपलब्ध है। इनका 'प्रपंच-सार-संग्रह' भी अति प्रसिद्ध ग्रंथ है।

सरस्वती तीर्थ: परमहंस परिब्राजकाचार्य वेदांतिक थे। यह संन्यासी थे। इन्होंने भी 'प्रपंचसार' की विशिष्ट टीका की रचना की।

राधव भट्ट: 'शादातिलक' की 'पदार्थ आदर्श' नाम्नी टीका बनाकर प्रसिद्ध हुए थे। इस टीका का रचनाकाल सं॰ 1550 है। यह ग्रंथ प्रकाशित है। राधव ने 'कालीतत्व' नाम से एक और ग्रंथ लिखा था, परंतु उसका अभी प्रकाशन नहीं हुआ।

पुण्यानंद: हादी विद्या के उपासक आचार्य पुण्यानंद ने 'कामकला विलास' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी। उसकी टीका 'चिद्वल्ली' नाम से नटनानंद ने बनाई थी। पुण्यानंद का दूसरा ग्रंथ 'तत्वविमर्शिनी' है। यह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है।

अमृतानंदनाथ: अमृतानदनाथ ने 'योगिनीहृदय' के ऊपर दीपिका नाम से टीकारचना की थी। इनका दूसरा ग्रंथ 'सौभाग्य सुभगोदय' विख्यात है। यह अमृतानंद पूर्ववर्णित पुणयानंद के शिष्य थे।

त्रिपुरानंद नाथ: इस नाम से एक तांत्रिक आचार्य हुए थे जो ब्रह्मानंद परमहंस के गुरु थे। त्रिपुरानंद की व्यक्तिगत रचना का पता नहीं चलता। परंतु ब्रह्मानंद तथा उनके शिष्य पूर्णानंद के ग्रंथ प्रसिद्ध हैं।

सुंदराचार्य या सच्चिदानंद: इस नाम से एक महापुरुष का आविर्भाव हुआ था। यह जालंधर में रहते थे। इनके शिष्य थे विद्यानंदनाथ। सुंदराचार्य अर्थात् सच्चिदानंदनाथ की 'ललितार्चन चंद्रिका' एवं 'लधुचंद्रिका पद्धति' प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।

विद्यानंदनाथ का पूर्वनाम श्रीनिवास भट्ट गोस्वामी था। यह कांची (दक्षिण भारत) के निवासी थे। इनके पूर्वपुरुष समरपुंगव दीक्षित अत्यंत विख्यात महापुरुष थे। श्रीनिवास तीर्थयात्रा के निमित जालंधर गए थे और उन्होंने सच्चिदानंदनाथ से दीक्षा ग्रहण कर विद्यानंद का नाम धारण किया। गुरु के आदेश से काशी आकर रहने लगे। उन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं- 'शिवार्चन चंद्रिका', 'क्रमरत्नावली', 'भैरवार्चापारिजात', 'द्वितीयार्चन कल्पवल्ली', 'काली-सपर्या-क्रम-कल्पवल्ली', 'पंचमेय क्रमकल्पलता', 'सौभाग्य रत्नाकर' (36 तरंग में),'सौभग्य सुभगोदय', 'ज्ञानदीपिका' और 'चतु:शती टीका अर्थरत्नावली'। सौभाग्यरत्नाकर, ज्ञानदीपिका और अर्थरत्नावली सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय, वाराणसी से प्रकाशित हुई हैं।

नित्यानंदनाथ: इनका पूर्वनाम नाराणय भट्ट है। उन्होंने दुर्वासा के 'देवीमहिम्न स्तोत्र' की टीका की थी। यह तन्त्रसंग्रह में प्रकाशित है। तन्त्रसंग्रह सम्पूर्णानन्दविश्वविद्यालय से प्रकाशित है। उनका 'ताराकल्पलता पद्धति' नामक ग्रंथ भी मिलता है।

सर्वानंदनाथ: इनका नाम उल्लेखनीय है। यह 'सर्वोल्लासतंत्र' के रचयिता थे। इनका जन्मस्थान मेहर प्रदेश (बांग्लादेश) था। ये सर्वविद्या (दस महाविद्याओं) के एक ही समय में साक्षात् करने वाले थे। इनका जीवनचरित् इनके पुत्र के लिखे 'सर्वानंद तरंगिणी' में मिलता है। जीवन के अंतिम काल में ये काशी आकर रहने लगे थे। प्रसिद्ध है कि यह बंगाली टोला के गणेश मोहल्ला के राजगुरु मठ में रहे। यह असाधारण सिद्धिसंपन्न महात्मा थे।

निजानंद प्रकाशानंद मल्लिकार्जुन योगीभद्र: इस नाम से एक महान सिद्ध पुरुष का पता चलता है। यह 'श्रीक्रमोत्तम' नामक एक चार उल्लास से पूर्ण प्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता थे। श्रीक्रमोत्तम श्रीविद्या की प्रासादपरा पद्धति है।

ब्रह्मानंद: इनका नाम पहले आ चुका है। प्रसिद्ध है कि यह पूर्णनंद परमहंस के पालक पिता थे। शिक्ष एवं दीक्षागुरु भी थे। 'शाक्तानंद तरंगिणी' और'तारा रहस्य' इनकी कृतियाँ हैं।

पूर्णानंद : 'श्रीतत्त्वचिंतामणि' प्रभृति कई ग्रंथों के रचयिता थे। श्रीतत्वचिन्तामणि का रचनाकाल 1577 ई॰ है। 'श्यामा अथवा कालिका रहस्य', 'शाक्त क्रम', 'तत्वानंद तरंगिणी', 'षटकर्मील्लास' प्रभृति इनकी रचनाएँ हैं। प्रसिद्ध 'षट्चक्र निरूपण', 'श्रीतत्वचितामणि' का षष्ठ अध्याय है।

देवनाथ ठाकुर तर्कपंचानन : ये 16वीं शताब्दी के प्रसिद्ध ग्रंथकार थे। इन्होंने 'कौमुदी' नाम से सात ग्रंथों की रचना की थी। ये पहले नैयायिक थे और इन्होंने 'तत्वचिंतामणि' की टीका आलोक पर परिशिष्ट लिखा था। यह कूचविहार के राजा मल्लदेव नारायण के सभापंडित थे। इनके रचित 'सप्तकौमुदी' में 'मंत्रकौमुदी' एवं 'तंत्र कौमुदी' तंत्रशास्त्र के ग्रंथ हैं। इन्होंने 'भुवनेश्वरी कल्पलता' नामक ग्रंथ की भी रचना की थी।

गोरक्ष: प्रसिद्ध विद्वान् एवं सिद्ध महापुरुष थे। 'महार्थमंजरी' नामक ग्रंथरचना से इनकी ख्याति बढ़ गई थी। इनके ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं- "महार्थमंजरी' और उसकी टीका 'परिमल', 'संविदुल्लास', 'परास्तोत्र', 'पादुकोदय', 'महार्थोदय' इत्यादि। 'संवित्स्तोत्र' के नाम से गोरक्ष के गुरु का भी एक ग्रंथ था। गोरक्ष के गुरु ने 'ऋजु विमर्शिनी' और 'क्रमवासना' नामक ग्रंथों की भी रचना की थी।

सुभगानंद नाथ और प्रकाशानंद नाथ: सुभगांनंद केरलीय थे। इनका पूर्वनाम श्रीकंठेश था। यह कश्मीर में जाकर वहाँ के राजगुरु बन गए थे। तीर्थ करने के लिये इन्होंने सेतुबंध की यात्रा भी की जहाँ कुछ समय नृसिंह राज्य के निकट तंत्र का अध्ययन किया। उसके बाद कादी मत का 'षोडशनित्या' अर्थात् तंत्रराज की मनोरमा टीका की रचना इन्होंने गुरु के आदेश से की। बाईस पटल तक रचना हो चुकी थी, बाकी चौदह पटल की टीका उनके शिष्य प्रकाशानंद नाथ ने पूरी की। यह सुभगानंद काशी में गंगातट पर वेद तथा तंत्र का अध्यापन करते थे। प्रकाशानंद का पहला ग्रंथ 'विद्योपास्तिमहानिधि' था। इसका रचनाकाल 1705 ई॰ है। इनका द्वितीय ग्रंथ गुरु कृत मनोरमा टीका की पूर्ति है। उसका काल 1730 ई॰ है। प्रकाशानंद का पूर्वनाम शिवराम था। उनका गोत्र 'कौशिक' था। पिता का नाम भट्टगोपाल था। ये त्र्यंबकेश्वर महादेव के मंदिर में प्राय: जाया करते थे। इन्होंने सुभगानंद से दीक्षा लेकर प्रकाशानंद नाम ग्रहण किया था।

कृष्णानंद आगमबागीश : यह बंग देश के सुप्रसिद्ध तंत्र के विद्वान् थे जिनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'तंत्रसार' है। किसी किसी के मतानुसार ये पूर्णनंद के शिष्य थे परंतु यह सर्वथा उचित प्रतीत नहीं होता। ये पश्वाश्रयी तांत्रिक थे। कृष्णानंद का तंत्रसार आचार एवं उपासना की दृष्टि से तंत्र का श्रेष्ठ ग्रंथ है।

महीधर: काशी में वेदभाष्यकार महीधर तंत्रशास्त्र के प्रख्यात पंडित हुए हैं। उनके ग्रंथ 'मन्त्रमहोदधि' और उसकी टीका अतिप्रसिद्ध हैं (रचनाकाल 1588 ई॰)।

नीलकंठ: महाभारत के टीकाकार रूप से महाराष्ट्र के सिद्ध ब्रह्मण ग्रंथकार। ये तांत्रिक भी थे। इनकी बनाई 'शिवतत्वामृत' टीका प्रसिद्ध हैं। इसका रचनाकाल 1680 ई॰ है।
आगमाचार्य गौड़ीय शंकर: आगमाचार्य गौड़ीय शंकर का नाम भी इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। इनके पिता का नाम कमलाकर और पितामह का लंबोदर था। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ तारा-रहस्य-वृत्ति और शिवार्च(र्ध)न माहात्म्य (सात अध्याय में) हैं। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित और भी दो-तीन ग्रंथों का पता चलता है जिनकी प्रसिद्धि कम है।

भास्कर राय : 18वीं शती में भास्कर राय एक सिद्ध पुरुष काशी में हो गए हैं जो सर्वतंत्र स्वतंत्र थे। इनकी अलौकिक शक्तियाँ थी। इनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं- सौभाग्य भास्कर' (यह ललिता सहस्र-नाम की टीका है, रचनाकाल 1729 ई0) 'सौभाग्य चंद्रोदय' (यह सौभाग्यरत्नाकर की टीका है।) 'बरिबास्य रहस्य', 'बरिबास्यप्रकाश' ; 'शांभवानंद कल्पलता'(भास्कर शाम्भवानन्दकल्पलता के अणुयायी थे - ऐसा भी मत है), 'सेतुबंध टीका' (यह नित्याषोडशिकार्णव पर टीका है, रचनाकाल 1733 ई॰); 'गुप्तवती टीका' (यह दुर्गा सप्तशती पर व्याख्यान
है, रचनाकाल 1740 ई॰); 'रत्नालोक' (यह परशुराम 'कल्पसूत्र' पर टीका है); 'भावनोपनिषद्' पर भाष्य प्रसिद्ध है कि 'तंत्रराज' पर भी टीका लिखी थी। इसी प्रकार 'त्रिपुर उपनिषद्' पर भी उनकी टीका थी। भास्कर राय ने विभिन्न शास्त्रों पर अनेक ग्रंथ लिखे थे।

प्रेमनिधि पंथ : इनका निवास कूर्माचल (कूमायूँ) था। यह घर छोड़कर काशी में बस गए थे। ये कार्तवीर्य के उपासक थे। थोड़ी अवस्था में उनकी स्त्री का देहांत हुआ। काशी आकर उन्होंने बराबर विद्यासाधना की। उनकी 'शिवतांडव तंत्र' की टीका काशी में समाप्त हुई। इस ग्रंथ से उन्हें बहुत अर्थलाभ हुआ। उन्होने तीन विवाह किए थे। तीसरी पत्नी प्राणमंजरी थीं। प्रसिद्व है कि प्राणमंजरी ने 'सुदर्शना' नाम से अपने पुत्र सुदर्शन के देहांत के स्मरणरूप से तंत्रग्रंथ लिखा था। यह तंत्रराज की टीका है। प्रेमनिधि ने 'शिवतांडव' टीका ' मल्लादर्श', 'पृथ्वीचंद्रोदय' और 'शारदातिलक' की टीकाएँ लिखी थीं। उनके नाम से 'भक्तितरंगिणी', 'दीक्षाप्रकाश' (सटीक) प्रसिद्ध है। कार्तवीर्य उपासना के विषय में उन्होंने 'दीपप्रकाश नामक' ग्रथ लिखा था। उनके 'पृथ्वीचंद्रोदय' का रचनाकाल 1736 ई॰ है। कार्तवीर्य पर 'प्रयोग रत्नाकर' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ है। 'श्रीविद्या-नित्य-कर्मपद्धति-कमला' तंत्रराज से संबंध रखता है। वस्तुत: यह ग्रंथ भी प्राणमंजरी रचित है।

उमानंद नाथ: यह भास्कर राय के शिष्य थे और चोलदेश के महाराष्ट्र राजा के सभापंडित थे। इनके दो ग्रंथ प्रसिद्ध हैं- 1. हृदयामृत (रचनाकाल 1742 ई॰), 2- नित्योत्सवनिबंध (रचनाकाल 1745 ई॰)।

रामेश्वर: तांत्रिक ग्रंथकार। इन्होंने 'परशुराम-कल्पसूत्र-वृति' की रचना की थी जिसका नाम 'सौभागयोदय' है। यह नवीन ग्रंथ है जिसका रचनाकाल 1831 ई॰ है।

शंकरानंद नाथ: 'सुंदरीमहोदय' के रचयिता थे। यह प्रसिद्ध मीमांसक थे। सुप्रसिद्ध पंडित भट्ठ दीपिकादिकर्ता खंडदेव के शिष्य थे। इनका नाम पहले कविमंडन था। इनके मीमांसाशास्त्र का ग्रंथ भी प्रसिद्ध हैं। इन्होंने धर्मशास्त्र में भी अच्छी गति प्राप्त की थी। यह त्रिपुरा के उपासक थे। शाक्त दीक्षा लेने के अनंतर यह शंकरानंद नाथ नाम से प्रसिद्ध हुए।

अप्पय दीक्षित: शैव मत में अप्पय दीक्षित के बहुत से ग्रंथ हैं। समष्टि में शताधिक ग्रंथों की इन्होंने विभिन्न विषयों से संबंधित रचनाएँ की थी। 'शिवाद्वैत निर्णय' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ इन्हीं का है।

माधवानंद नाथ: इस नाम से एक तंत्राचार्य लगभग 100 वर्ष पूर्व काशी में प्रकट हुए थे इनके गुरू यादवानंद नाथ थे। इन्होंने 'सौभागय कल्पद्रुम' की रचना की थी जो 'परमानंद तंत्र' के अनुकूल ग्रंथ है। यह ग्रंथ काशी में लिखा गया था।

क्षेमानंद: इन्होंने पूर्वोक्त 'सौभाग्य कल्पद्रुम' के ऊपर 'कल्पलतिका' नाम की टीका लिखी थी। इनका 'कल्पद्रुम सौरभ' टीका रूप से प्रसिद्ध है।

गीर्वाणेन्द्र सरस्वती और शिवानंद योगींद्र: ये दोनों संन्यासी 'प्रपंचसार' के टीकाकार के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं। यह प्रकाशित है। गीर्वाणेन्द्र के ग्रंथ का नाम 'प्रपंचसार संग्रह' और शिवानंद के ग्रंथ का नाम 'प्रपंच उद्योतारूण' है।

रघुनाथ तर्कवाशीग: वंग देश में इस नाम के तंत्र के एक प्रसिद्ध आचार्य थे। ये पूर्व बंगाल में नपादी स्थान के थे। इनका ग्रंथ है 'आगम-तर्क-विलास' जो पाँच अध्यायों में विभक्त है। इसका रचनाकाल 1609 शकाब्द (1687) है।

महादेव विद्यावागीश: प्रसिद्ध बंगीय आचार्य जिन्होंने 'आनंदलहरी' पर 'तत्वबोधिनी' शीर्षक टीका की रचना की। (रचनाकाल 1605 ई0)।

यदुनाथ चक्रवर्ती: बंगीय विद्वान् यदुनाथ चक्रवर्ती के 'पंचरत्नाकर' और ' आगम कल्पलता' किसी समय पूर्व भारत में अति प्रसिद्ध ग्रंथ माने जाते थे।

नरसिंह ठाकुर: मिथिला के नरसिंह ठाकुर 'तारामुक्ति सुधार्णाव' लिखकर जगद्विख्यात हुए यह प्राय: तीन सौ वर्ष पूर्व मिथिला में तंत्रविद्या की साधना करते थे।

गोविद न्यायवागीश: यह 'मंत्रार्थ दीपिका' नामक ग्रंथ के लिये प्रसिद्ध हैं।

काशीनाथ तर्कालंकार: इनका 'श्यामा सपर्याविधि' प्रसिद्ध ग्रंथ है। यह काशी में रहे और एक महाराष्ट्रीय तांत्रिक ब्राह्मण विद्वान् थे। उनका दीक्षांत नाम शिवानंद नाथ है। ये दक्षिणाचारावलंबी थे और वामाचार का उन्होंने घोर विरोध किया। अनके ग्रंथों में 'ज्ञानार्णाव' की टीका (23 पटल में) गूढार्थ आदर्श हौर दक्षिणाचार की 'तंत्रराज टीका' प्रसिद्ध हैं। इनका 'चक्रसंकेत चंद्रिका' 'योगिनीहृदय दीपिका' का संक्षिप्त विवरण है। इन्होंने छोटे-बड़े बहुसंख्यक ग्रंथ लिखे थे जिनमें से 'तंत्रसिद्धांत कौमुदी', 'मंत्रसिद्धांत मंजरी', 'तंत्रभूषा', 'त्रिपुरसुंदरी अर्चाक्रम', 'कर्पूंरंस्तवदीपिका', 'श्रीविद्यामंत्रदीपिका', 'वामाचारमत-खंडन', मंत्रचंद्रिकाफ (11 उल्लास में), 'संभवाचार्य कौमुदी' (पाँच प्रकाश में), 'शिवभक्ति रसायन', 'शिवाद्वैत प्रकाशिका' (तीन उल्लास में), 'शिवपूजा तरंगिणी', 'कौलगजमर्दन', 'मंत्रराज समुच्चय',
इत्यादि प्रसिद्ध हैं।

शिवानन्द गोस्वामी (अनुमानित संवत् 1710-1797) तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र-ज्योतिष, होरा शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के जाने-माने विद्वान थे। इनके पूर्वज मूलतः तेलंगाना के तेलगूभाषी उच्चकुलीन पंचद्रविड़ वेल्लनाडू ब्राह्मण थे, जो उत्तर भारतीय राजा-महाराजाओं के आग्रह और निमंत्रण पर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों में आ कर कुलगुरु, राजगुरु, धर्मपीठ निर्देशक, आदि पदों पर आसीन हुए| शिवानन्द गोस्वामी त्रिपुरसुन्दरी के अनन्य साधक और शक्ति-उपासक थे। एक चमत्कारिक मान्त्रिक और तांत्रिक के रूप में उनकी साधना और सिद्धियों की अनेक घटनाएँ उल्लेखनीय हैं| श्रीमद्भागवत के बाद सबसे विपुल ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु लिखने का श्रेय शिवानंद गोस्वामी को है|

तंत्रसाहित्य और उसके साधकों का यह अत्यंत संक्षिप्त विवरण है। इसमें बहुत से ग्रंथों के नाम छूटे हुए हैं, परंतु मुख्य एवं विशिष्ट नाम दे दिए गए हैं।

रुद्राभिषेक हेतु महत्वपूर्ण बातें ।।

रुद्राभिषेक के लिए शिव जी की उपस्थिति देखना बहुत जरूरी है.

 शिव जी का निवास देखे बिना कभी भी रुद्राभिषेक न करें, बुरा प्रभाव होता है.

 शिव जी का निवास तभी देखें जब मनोकामना पूर्ति के लिए अभिषेक करना हो.

शिव जी का निवास कब मंगलकारी होता है?

 महादेव ब्रह्माण्ड में घूमते रहते हैं. महादेव कभी माँ गौरी के साथ होते हैं तो कभी-कभी कैलाश पर विराजते हैं. रुद्राभिषेक तभी करना चाहिए जब शिव जी का निवास मंगलकारी हो…

 हर महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीया और नवमी को शिव जी मांँ गौरी के साथ रहते हैं.

 हर महीने कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी और अमावस्या को भी शिव जी मांँ गौरी के साथ रहते हैं.

 कृष्ण पक्ष की चतुर्थी और एकादशी को महादेव कैलाश पर वास करते हैं.

 शुक्ल पक्ष की पंचमी और द्वादशी तिथि को भी महादेव कैलाश पर ही रहते हैं.

 कृष्ण पक्ष की पंचमी और द्वादशी को शिव जी नंदी पर सवार होकर पूरा विश्व भ्रमण करते हैं.

 शुक्ल पक्ष की षष्ठी और तिथि को भी शिव जी विश्व भ्रमण पर होते हैं.

 रुद्राभिषेक के लिए इन तिथियों में महादेव का निवास मंगलकारी होता है.

शिव जी का निवास कब “”””अनिष्टकारी””” होता है?

शिव आराधना का सबसे उत्तम तरीका है रुद्राभिषेक लेकिन रुद्राभिषेक करने से पहले शिव के अनिष्‍टकारी निवास का ध्यान रखना बहुत जरूरी है…

 कृष्णपक्ष की सप्तमी और चतुर्दशी को भगवान शिव””” श्मशान “””में समाधि में रहते हैं.

 शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी और पूर्णिमा को भी शिव श्मशान में समाधि में रहते हैं.

 कृष्ण पक्ष की द्वितीया और नवमी को महादेव देवताओं की समस्याएं सुनते हैं.

 शुक्लपक्ष की तृतीया और दशमी में भी महादेव देवताओं की समस्याएं सुनते हैं.

 कृष्णपक्ष की तृतीया और दशमी को नटराज क्रीड़ा में व्यस्त रहते हैं.

 शुक्लपक्ष की चतुर्थी और एकादशी को भी नटराज क्रीड़ा में व्यस्त रहते हैं.

 कृष्णपक्ष की षष्ठी और त्रयोदशी को रुद्र भोजन करते हैं.

 शुक्लपक्ष की सप्तमी और चतुर्दशी को भी रुद्र भोजन करते हैं.

 इन तिथियों में मनोकामना पूर्ति के लिए अभिषेक नहीं किया जा सकता है.

कब तिथियों का विचार नहीं किया जाता?

शिवरात्री, प्रदोष और सावन के सोमवार को शिव के निवास पर विचार नहीं करते.

सिद्ध पीठ या ज्योतिर्लिंग के क्षेत्र में भी शिव के निवास पर विचार नहीं करते.

हर हर महादेव.               

 शिव शासनत: शिव शासनत:


सहस्रनाम और रहस्य

श्री ललिता सहस्रनाम में-"अक्षरों" के साथ एक अद्भुत जादूगरी की गयी है।

श्लोक लिखने की पद्धतिया होती है वह एक प्रकार के लेखन शैली का अनुशरण करती है जैसे गायत्री (24 अक्षर), उशनिक (28), अनुष्टुप (32), बृहथी (36), पंक्ति (40), त्रिष्टुप (44), और जगथी (48) ।

अधिकांश प्रसिद्ध कार्यों की तरह, श्री ललिता सहस्रनाम भी अनुष्टुप शैली में रचा गया था। प्रत्येक पंक्ति में 16 अक्षर होते है , इस प्रकार दो पंक्ति वाले श्लोक में 32 अक्षर होते हैं।

एक अन्य रहस्य यह है कि उपोधगतम (परिचय) में 51 श्लोक, नामा (182-1/2) और फल श्रुति (86) है। कुल 319-1 / 2 स्लोक। ध्यान स्लोक पर ध्यान नहीं दिया गया।

यह कहना है कि मैग्नम ओपस में 10,224 अक्षर (319-1 / 2 x 32 अक्षर) हैं। आमतौर पर, कोई भी प्रतिदिन पूर्वा और उत्तरा पीतिका का पाठ नहीं करता है। मान लें कि कोई व्यक्ति मुख्य ललिता सहस्रनाम का पाठ करता है, तो यह ध्यान में रखा जाता है कि उसने 5,824 अक्षर बोले ।

51 अक्षरों में से केवल 32 अक्षरों का उपयोग किया गया और अन्य स्वर और व्यंजन उपयोग नहीं किया गया । इससे यह संकेत मिलता है की कोई भी अपनी मर्ज़ी से और अपने हिसाब से शब्दों को परिवर्तित नहीं कर सकता, जैसा कि वह पसंद करता है। प्रत्येक अक्षर और शब्द का मूल अक्षर और उसकी ध्वनि समान होनी चाहिए।

आप "का " को "गा" या इसके विपरीत नहीं पढ़ सकते। जैसे की सा और चा..... शरणम् और चरणम में - एक शरण लेना है मतलब किसी का सानिध्य लेना है और दूसरे का मतलब पैर है। इसलिए इस अंतर और असमान्ता के बारे में पता होना चाहिए और ठीक से बोलना होना चाहिए। यदि वह फिर भी नहीं बोल पा रहा , तो उसे केवल "लघु " छोटे और आसान शब्दों को चुनना चाहिए और मंत्र पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

2, 3, 4, 5, 6 8, 9, 12 और 16 अक्षरों में नाम आते हैं। किसी भी समय किसी भी नाम के क्रम को नहीं तोड़ना चाहिए, या तुकबंदी के लिए दूसरे को जोड़ना नहीं चाहिए ।

"निजारुना -प्रभा-पूरा -मज्जत-ब्रह्माण्ड-मंडला" को एक नाम के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। यह 16 अक्षरों का है। आपको इसे अपने लिए सुविधाजनक बनाने के लिए नहीं तोड़ना चाहिए।
                                                  
कुरु-विन्द-मणि-श्रेणी-कणठ-कोटिरा-मण्डिता भी 16 अक्षरों का है।
अष्टमी-चन्द्र-विभ्राजा-धलिका-स्थला-सोभित भी 16 अक्षरों का है।
ऐसे 27 नाम और हैं पुरे सहश्रनाम में ।
इस संकलन/संग्रह की एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि यह आधे लाइन में ही समाप्त हो जाता है। इसमें श्री माता से श्रीमत त्रिपुरसुंदरी तक 182 श्लोक हैं। हालाँकि, 16 अक्षरों की अंतिम पंक्ति श्री-शिव शिव- सकतेका रूपिनी ललिताम्बिका (3 नाम) एक स्वतंत्र ( standalone ) विवरण है।

हम सभी जानते हैं कि ललिता प्रदेवता जगत माता हैं और सब कुछ की निर्माता है वो ही विधाता है , जिनमें ब्रह्मा शब्द भी शामिल हैं। जिसमें से वेद निकले और इस तरह उन्हें "श्रुति" और "स्मृति" कहा गया क्यों की यहाँ पे जो भी लिखा गया वह याद कर के स्मरणशक्ति द्वारा लिखा गया ।

वह वेदों का सार है और इसका व्याकरण "छंद - सारा" है। वह सभी शास्त्रों का सार है "शास्त्र सारा " । वह सभी मंत्रों का मूल है "मंत्र सारा"। "सर्व मन्त्र स्वारूपिणी"। वह सभी मन्त्रों का मूर्त रूप है। एक या कोई हजार मंत्र नहीं, वह सप्त कोटि मंत्रों (7,00,00,000) का भंडार है। हर अक्षर एक मंत्र है। वह सभी मंत्रों का आधार है "मूल मंत्रात्मिका" ।

जो हम अपने मन्न और बुद्धि से सोच सकते है वह उस सोच से भी परे है। 
 "मनो-वाचम -गोचरा " मनस , वाक् , अनुभव, समझ और विचार। 
"मनोन्मनी" - वह आप में आपके विचार है, और कार्यों का परिणाम भी हैं ।
"वैखरी रूपा"- वह एक तरह से बातचीत करने का तरीका है।
नाद रूपा- वह आपके विचारों को एक आकार देती है और आपको बात करने के काबिल बना ती है । हमारा सारा ज्ञान सूखे घाँस के ढेर की तरह है जब तक हमारे पास माँ की कृपा नहीं है जिसे "वाग वाधिनी" कहते है । शब्दों को प्रभावशाली बनाने में वह आपकी मदद करती है। वाक् चातुर्य , वाक् पातिमा ।

मत सोचो कि मंत्र एक कठिन अभ्यास है। मनन त्रायते इति मंत्र। जो भी आप बार-बार सुनते/पढ़ते/पाठ करते हैं वह मंत्र बन जाता है। आप सभी को माँ पर अत्यंत विश्वास होना चाहिए । वह आप की कोई भी बात सुन सकती है (सुभाषश्री) ।

यही बात श्रीकृष्ण ने उधव को बताया था, जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने जुआ (डाइस प्ले) के समय युद्ध को सही तरीके से क्यों नहीं रोका। कृष्ण कहते हैं कि धर्मराज ने उनकी मदद नहीं ली और उन्हें लगा कि उन्हें पासा के खेल में सब कुछ पता है। अज्ञानता और अहंकार मनुष्य को बर्बाद कर देता है। ईमानदार रहें जब आप कुछ भी नहीं जानते हैं, भगवान की मदद लेने में कोई बुराई नहीं है - चाहे वह बड़ा या छोटा काम हो।
हर समय आप ईश्वर की कृपा के बारे में सोचें । वह आपके साथ रहेंगे ।
यह सब उनकी कृपा के कारण हो रहा है । वह चाहती है की उन्हें ज्यादा से ज्यादा जाना जाए ।