🕉 शीतला अष्टमी / बसौडा
शीतला अष्टमी पर्व देवी शीतला के सम्मान में मनाया जाता हैं। यह होली पर्व के आठ दिन पश्चात चैत्र महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता हैं, किंतु कुछ स्थानों पर जनता इस पर्व को होली के पश्चात आने वाले पहले सोमवार या गुरूवार को मनाते हैं। शास्त्रों के अनुसार शनिवार, रविवार को आकरा वार (उग्र दिन) माना जाता हैं इसलिए शीतला माता की पूजा शनिवार, रविवार को नहीं की जाती हैं।
शीतला माता को शीतल आहार, खाद्य पदार्थ रुचिकर हैं। शीतला अष्टमी के दिन घर में आहार नहीं बनता है, एक दिन पहले सप्तमी रात को ही आहार बना लिया जाता हैं। अगले दिन यही ठंडा या बासी आहार (बसौड़ा) शीतला माता को नैवेद्य के रूप में समर्पित किया जाता हैं और सभी जन प्रसाद रूप में ठंडे आहार का सेवन करते हैं। शीतला अष्टमी पर माता शीतला को दही, राबड़ी, दाल, चावल, पूड़ी, मोहनभोग (हलवा), मीठे पुए आदि का भोग लगाया जाता है।
शीतला अष्टमी तक वातावरण में ठंडक बनी हुई होती हैं इसलिए कुछ घंटे पहले निर्मित आहार सेवनीय होता है। शीतला अष्टमी के पश्चात वातावरण में उष्णता (गर्मी) बढ़ने लगती है तथा ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता हैं, ग्रीष्म ऋतु में आहार तुरंत बासी हो जाता हैं इसलिए अब तुरंत पकाया हुआ आहार ही सेवनीय हैं।
शीतला माता
शीतला संस्कृत भाषा का शब्द हैं, इसका अर्थ हैं जो शीतलता या ठंडक दे। शीतला माता शिव पत्नी देवी पार्वती का अवतार या रूप हैं। यह स्वच्छता की देवी हैं। प्राचीनकाल से ही शीतला माता का बहुत अधिक माहात्म्य रहा है। स्कंद पुराण में शीतला देवी वाहन गर्दभ बताया है। ये हाथों में कलश, सूप, मार्जनी (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं। इनका प्रतीकात्मक महत्व है। चेचक का रोगी व्यग्रता में वस्त्र उतार देता है। सूप से रोगी को वायु दी जाती है, झाडू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम के पत्ते फोडों को सड़ने नहीं देते। रोगी को ठंडा जल प्रिय होता है अत: कलश का महत्व है। गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के चिन्ह मिट जाते हैं।
स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना का स्तोत्र शीतलाष्टक के रूप में प्राप्त होता है। इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने लोकहित में की थी। शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा गान करता है, साथ ही उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है। शास्त्रों में भगवती शीतला की वंदना के लिए यह मंत्र बताया गया है:
वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्।।
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्।।
हिंदी अर्थ - गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाडू तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तकवाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। शीतला माता के इस वंदना मंत्र से यह पूर्णत: स्पष्ट हो जाता है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में मार्जनी (झाडू) होने का अर्थ है कि हम जनसमूह को भी स्वच्छता के प्रति जागरूक होना चाहिए। कलश से तात्पर्य है कि स्वच्छता रहने पर ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है।
शीतला माता ग्रीष्म ऋतु से उत्पन्न रोगों की रक्षक देवी है। प्रमुख रूप से चेचक रोग के साथ इनका नाम जोड़ा जाता हैं। देवी महात्यम के अनुसार ज्वारासुर नाम के असुर ने अवयस्कों (बच्चों) में ज्वर (बुखार) के रोगाणु फैला दिए, शीतला माता ने अवयस्कों (बच्चों) के रक्त को शुद्ध करके ज्वर रोगाणुओ को नष्ट किया। इस घटना से माँ शीतला ज्वर देवी के रूप में प्रसिद्ध हुई। कथा के अनुसार शीतला माता और ज्वारासुर में युद्ध होता है, युद्ध हारने के पश्चात ज्वारासुर माता की शरण में जाता है और शीतला माता ज्वारासुर को क्षमा करके ज्वर असुर से ज्वर देवता की उपाधि देती हैं। कई मंदिरों में माँ शीतला की मूर्ति के साथ सेवक रूप में ज्वर देवता की मूर्ति भी पाई जाती हैं। उत्तर भारत में शीतला माता लोकप्रिय हैं तथा दक्षिण भारत में देवी का अवतार मरियममन की पूजा होती है।