चिंतन और मनन की प्रक्रिया चांद्रायण कल्प का मेरुदंड है। इसलिए इन दिनों गंभीरतापूर्वक विचार प्रवाह को भौतिक क्षेत्र से हटाकर अंतर्मुखी रहने के लिए विवश करना चाहिए।
आज के स्वाध्याय में हम सभी जानेंगे चिंतन का विषय क्या हैं और मनन का उद्देश्य क्या है।
चिंतन का विषय है-आत्मशोधन मनन का उद्देश्य है- आत्म-परिष्कार। दोनों को एक-दूसरे का पूरक कहना चाहिए। मल-त्याग के उपरांत पेट खाली होता है तभी भूख लगती है और भोजन गले उतरता है। धुलाई के उपरांत रंगाई होती है। आत्म-परिष्कार प्रथम और आत्म-विकास द्वितीय है।
आध्यात्मिक कल्प-साधना के दिनों में मात्र भोजन में कटौती और जप पूरा करने की बेगार भुगती जाती रहे और आत्म- चिंतन की उपेक्षा होती रहे तो समझना चाहिए कि शरीर श्रम का - जितना लाभ हो सकता है उतना ही मिलेगा। मनोयोग के अभाव में उस उच्चस्तरीय प्रतिफल की आशा न की जा सकेगी, जो शास्त्रकारों, अनुभवी सिद्धपुरुषों द्वारा बताई गई है।
समझा जाना चाहिए कि चिंतन का विषय अनुशासन है इसी को संयम कहा जाता है। इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय-संयम और विचार-संयम ये चार प्रकार के संयम है। अपने वर्तमान स्वभाव- अभ्यास में इन प्रसंगों में कहाँ-क्या त्रुटि रहती है, इसकी निष्पक्ष निरीक्षक एवं कठोर परीक्षक की तरह जाँच-पड़ताल की जानी चाहिए। आत्म-पक्षपात मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण है। दूसरों के दोष ढूंढ़ना- अपने छिपाना आम लोगों की आदत होती है। कड़ाई से आत्म- समीक्षा कर सकने की क्षमता आध्यात्मिक प्रगति का प्रथम चिन्ह है। पाप कर्मों का प्रकटीकरण और प्रायश्चित का साहस इस बात का चिन्ह है कि इस क्षेत्र में प्रगति की आवश्यक शर्त को समझा और अपनाया जा रहा है। इसी श्रृंखला का अगला कदम स्वाध्याय- सत्संग के द्वारा बाहरी प्रकाश-परामर्श प्राप्त करना है उसी प्रक्रिया का सूक्ष्म रूप चिंतन-मनन है। चिंतन में गुण, कर्म, स्वभाव में घुसी हुई अवांछनीयताओं को बारीकी से ढूंढ़ निकालने का पर्यवेक्षण करना होता है। साथ ही उन्हें किस प्रकार निरस्त किया जाए यह न केवल सोचना होता है वरन उसके लिए दिनचर्या का ऐसा ढांचा बनाना होता है जिसे अपनाकर उपरोक्त चारों संयमों का क्रमबद्ध अभ्यास चलता रहे। आदतों को बदलने के लिए उनकी प्रतिद्वंदी आदतों को दैनिक व्यवहार में सम्मिलित करना होता है, असंयम की गुंजाइश जिन कारणों से जिन कार्यक्रमों से बनती है उनको भी बदलवना होता है। व्यवहार बदलने पर ही आदतें बदलने की बात बनती है इसीलिए होना यह चाहिए कि असंयमों का अभ्यास तोड़ने वाला चारों क्षेत्रों का एक निश्चित कार्यक्रम बनाया जाए और उसका परिपालन कठोरतापूर्वक आरंभ कर दिया जाए। कल्पावधि इस अभ्यास के लिए प्रभात काल की तरह सौभाग्य बेला समझी जानी चाहिए। इन दिनों अंतःकरण के आधार पर स्वेच्छा से उपरोक्त चार संयमों के कठोर परिपालन की व्यवस्था बनाई जाए। इन दिनों अंतःकरण के आधार पर स्वेच्छा से उपरोक्त चार संयमों के कठोर परिपालन की व्यवस्था बनाई जाए। साथ ही यह भी निश्चित किया जाए कि इन निर्धारणों को भविष्य में नियमित रूप से जारी रख जाएगा। इस निश्चय पर उसी प्रकार आरूढ़ व्रतशील रहना चाहिए जिस प्रकार विवाह होने पर पति-पत्नी एक-दूसरे का आजीवन निर्वाह करते हैं।
निष्कर्ष:
कल्प साधना में जितना महत्व आहार संयम और जप, ध्यान का है उतना ही महत्व आत्म चिंतन का भी समझना चाहिए। आत्म चिंतन का विषय अनुशासन है जिसमें अपने वर्तमान स्वभाव अभ्यास में चार प्रकार के संयम से संबंधित कहां-कहां त्रुटियां है इसकी निष्पक्ष निरीक्षक एवं कठोर परीक्षक की तरह जांच पड़ताल की जानी चाहे चाहिए, साथ ही उन गलत आदतो को किस प्रकार दूर भगाया जाए इसके लिए दिनचर्या का ऐसा ढांचा बनाना होता है जिसे अपनाकर चारों संयम का क्रमबद्ध अभ्यास चलता रहे।
आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना का तत्व दर्शन
मनुष्य के पास कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संपदाएँ हैं। श्रम, समय, चिंतन एवं साधन के रूप में ये चारों हर किसी के पास समान रूप से विद्यमान हैं। इन्हीं के बदले विभिन्न प्रकार की संपदाएँ, विभूतियों, सफलताएँ अर्जित की जाती हैं । विशेष चातुर्य कौशल न सही, इन चारों की सामान्य मात्रा हर किसी को उपलब्ध है। होना यह चाहिए कि इनका विभाजन उपयोग शरीर के लिए ही नहीं, आत्मा के लिए भी होने लगे। यह तभी संभव है जब उपरोक्त क्षमताएँ मात्र शरीचर्या में ही नियोजित न रहें-इनका लाभ शरीर संबंधी ही न उठाते रहें वरन होना यह भी चाहिए कि आत्म-कल्याण के लिए भी इनका उपयोग होता रहे। मनन का उद्देश्य यही है कि वह निष्पक्ष न्यायाधीश को तरह फैसला करे कि जब जीवन-व्यवसाय में दोनों (शरीर और आत्मा) की पूँजी लगी हुई है, दोनों ही श्रम करते हैं तो लाभ एक पक्ष ही क्यों उठाता रहे। दूसरे को उसका उचित भाग क्यों न मिलने लगे। जो बीत गया उसकी बात छोड़ी भी जा सकती है, पर भविष्य के लिए तो यह विभाजन रेखा बन ही जानी चाहिए कि किसे कितनी मात्रा में लाभांश उपलब्ध होता रहेगा।
पूजा - उपचार, आत्म- जागरण भर की आवश्यकता पूरी करते हैं, उनसे आत्मिक प्रगति की समग्र आवश्यकता पूरी नहीं होती। जिस प्रकार शरीर की स्नान, दाँतों को मंजन, कपड़े को धोना, कमरे को बुहारना आवश्यक है उसी प्रकार मनः क्षेत्र की स्वच्छता का दैनिक प्रयोजन पूरा होता है। जीवन-लक्ष्य की पूर्ति भजन से नहीं हो सकती। उसके लिए आत्मा को श्रद्धा, प्रज्ञा एवं निष्ठा जैसी उच्चस्तरीय आस्थाओं से अभ्यस्त कराना होता है। अभ्यास में उद्देश्य और श्रम का समन्वय होना चाहिए। शरीर को सत्प्रवृत्तियों में नियोजित करने के लिए लोकमंगल की साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मनुष्य जन्म की धरोहर इसीलिए मिली है कि ईश्वर के विश्व को सुविकसित बनाने में कुशल माली की भूमिका निभाई जाए। लोक मानस के भावनात्मक परिष्कार का कार्यक्रम बनाने और उनमें साधनों का महत्त्वपूर्ण भाग लगाते रहने से ही ईश्वर की इच्छा पूरी होती है, साथ-साथ आत्म कल्याण का आत्मोत्सर्ग का प्रयोजन पूरा होता है।
परमार्थ प्रयोजन के दो लाभ हैं। पहले दूसरे की सेवा, साधना, विश्व- व्यवस्था में योगदान ,दूसरे उस आधार पर अपने स्वभाव-अभ्यास में उत्कृष्टता का अभिवर्धन। मात्र सोचते रहने से ही स्वभाव नहीं बनता। संस्कारों में ही शक्ति होती है और वे भावना तथा क्रियाशीलता के समन्वय से ही बनते ढलते हैं। संस्कार ही आत्मा के साथ लिपटते-घुलते हैं और उसकी प्रगति-अवगति के निमित्त कारण बनते हैं। सुसंस्कारिता अर्जित करने के लिए सेवा साधना में निरत होने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं । साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजकों को आत्म लाभ इसीलिए मिलता है कि वे परमार्थ के माध्यम से सच्चे अर्थों में आत्म निर्माण का, आत्म विकास का क्रमबद्ध उद्देश्य पूरा करते रहते हैं और उस राजमार्ग पर चलते हुए चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं । प्रत्येक भगवद्भक्त को अपनी भक्ति भावना का प्रमाण परिचय लोकमंगल की भावना में निरत रहकर देना पड़ता है। व्यस्त व्यक्ति भी यदि भावना संपन्न है तो उस दिशा से मुँह मोड़कर नहीं रह सकता।
संदर्भ : चांद्रायण कल्प साधना
✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।
मनुष्य के पास कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संपदाएँ हैं। श्रम, समय, चिंतन एवं साधन के रूप में ये चारों हर किसी के पास समान रूप से विद्यमान हैं। इन्हीं के बदले विभिन्न प्रकार की संपदाएँ, विभूतियों, सफलताएँ अर्जित की जाती हैं । विशेष चातुर्य कौशल न सही, इन चारों की सामान्य मात्रा हर किसी को उपलब्ध है। होना यह चाहिए कि इनका विभाजन उपयोग शरीर के लिए ही नहीं, आत्मा के लिए भी होने लगे। यह तभी संभव है जब उपरोक्त क्षमताएँ मात्र शरीचर्या में ही नियोजित न रहें-इनका लाभ शरीर संबंधी ही न उठाते रहें वरन होना यह भी चाहिए कि आत्म-कल्याण के लिए भी इनका उपयोग होता रहे। मनन का उद्देश्य यही है कि वह निष्पक्ष न्यायाधीश को तरह फैसला करे कि जब जीवन-व्यवसाय में दोनों (शरीर और आत्मा) की पूँजी लगी हुई है, दोनों ही श्रम करते हैं तो लाभ एक पक्ष ही क्यों उठाता रहे। दूसरे को उसका उचित भाग क्यों न मिलने लगे। जो बीत गया उसकी बात छोड़ी भी जा सकती है, पर भविष्य के लिए तो यह विभाजन रेखा बन ही जानी चाहिए कि किसे कितनी मात्रा में लाभांश उपलब्ध होता रहेगा।
पूजा - उपचार, आत्म- जागरण भर की आवश्यकता पूरी करते हैं, उनसे आत्मिक प्रगति की समग्र आवश्यकता पूरी नहीं होती। जिस प्रकार शरीर की स्नान, दाँतों को मंजन, कपड़े को धोना, कमरे को बुहारना आवश्यक है उसी प्रकार मनः क्षेत्र की स्वच्छता का दैनिक प्रयोजन पूरा होता है। जीवन-लक्ष्य की पूर्ति भजन से नहीं हो सकती। उसके लिए आत्मा को श्रद्धा, प्रज्ञा एवं निष्ठा जैसी उच्चस्तरीय आस्थाओं से अभ्यस्त कराना होता है। अभ्यास में उद्देश्य और श्रम का समन्वय होना चाहिए। शरीर को सत्प्रवृत्तियों में नियोजित करने के लिए लोकमंगल की साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मनुष्य जन्म की धरोहर इसीलिए मिली है कि ईश्वर के विश्व को सुविकसित बनाने में कुशल माली की भूमिका निभाई जाए। लोक मानस के भावनात्मक परिष्कार का कार्यक्रम बनाने और उनमें साधनों का महत्त्वपूर्ण भाग लगाते रहने से ही ईश्वर की इच्छा पूरी होती है, साथ-साथ आत्म कल्याण का आत्मोत्सर्ग का प्रयोजन पूरा होता है।
परमार्थ प्रयोजन के दो लाभ हैं। पहले दूसरे की सेवा, साधना, विश्व- व्यवस्था में योगदान ,दूसरे उस आधार पर अपने स्वभाव-अभ्यास में उत्कृष्टता का अभिवर्धन। मात्र सोचते रहने से ही स्वभाव नहीं बनता। संस्कारों में ही शक्ति होती है और वे भावना तथा क्रियाशीलता के समन्वय से ही बनते ढलते हैं। संस्कार ही आत्मा के साथ लिपटते-घुलते हैं और उसकी प्रगति-अवगति के निमित्त कारण बनते हैं। सुसंस्कारिता अर्जित करने के लिए सेवा साधना में निरत होने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं । साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजकों को आत्म लाभ इसीलिए मिलता है कि वे परमार्थ के माध्यम से सच्चे अर्थों में आत्म निर्माण का, आत्म विकास का क्रमबद्ध उद्देश्य पूरा करते रहते हैं और उस राजमार्ग पर चलते हुए चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं । प्रत्येक भगवद्भक्त को अपनी भक्ति भावना का प्रमाण परिचय लोकमंगल की भावना में निरत रहकर देना पड़ता है। व्यस्त व्यक्ति भी यदि भावना संपन्न है तो उस दिशा से मुँह मोड़कर नहीं रह सकता।
संदर्भ : चांद्रायण कल्प साधना
✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।
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