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तज मन हरि विमुखन को संग भावार्थ सहित।।


तज मन हरि विमुखन को संग।
जिनके संग कुमति उपजत है, परत भजन में भंग॥ [1]
कहा होत पय पान कराए विष, नहिं तजत भुजंग।
कागहि कहा कपूर चुगाये, स्वान न्हवाऐ गंग॥ [2]
स्वर को कहा अरगजा लेपन, मरकट भूपन अंग।
गज को कहा सरित अन्हवाऐ, बहुरि धरै वह ढंग॥ [3]
पाहन पतित बान नहिं बेधत, रीतो करौ निषंग।
'सूरदास' कारी काँमरि पे चढ़त न दूजौ रंग॥ [4]
- श्री सूरदास जी, सूर सागर, वीनय तथा भक्ति (44)


भावार्थ:

हे मेरे मन ! जो जीव हरि भक्ति से विमुख हैं, उन प्राणियों का संग न कर। उनकी संगति के माध्यम से तेरी बुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी क्योंकि वे तेरी भक्ति में रुकावट पैदा करते हैं, उनके संग से क्या लाभ? [1]

आप चाहे कितना ही दूध साँप को पिला दो, वो ज़हर बनाना बंद नहीं करेगा एवं आप चाहे कितना ही कपूर कौवे को खिला दो वह सफ़ेद नहीं होगा, कुत्ता (स्वान) कितना ही गंगा में नहा ले वह गन्दगी में रहना नहीं छोड़ता। [2]

आप एक गधे को कितना ही चन्दन का लेप लगा लो वह मिट्टी में बैठना नहीं छोड़ता, मरकट (बन्दर) को कितने ही महंगे आभूषण मिल जाए वह उनको तोड़ देगा। एक हाथी द्वारा नदी में स्नान करने के बाद भी वह रेत खुद पर छिड़कता है। [3]

भले ही आप अपने पूरे तरकश के तीर किसी चट्टान पर चला दें, चट्टान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। श्री सूरदास जी कहते हैं कि "एक काले कंबल दूसरे रंग में रंगा नहीं जा सकता (अर्थात् जिस जीव ने ठान ही लिया है कि उसे कुसंग ही करना है तो उसे कोई नहीं बदल सकता इसलिए ऐसे विषयी लोगों का संग त्यागना ही उचित है)।" [4]

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