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गरुण पुराण के अध्याय 23 में एक श्लोक है —

भज इत्येव वै धातुः सेवायां परिकीर्तिता ।
तस्मात्सेवावुधै प्रोक्ता भक्तिः साधन भृयसी ।।

श्लोक का तात्पर्य है कि—‘भज’ धातु का अर्थ सेवा है (भज-सेवायां) इसलिए बुध जनों ने भक्ति का साधन सेवा कहा है। ‘भजन’ शब्द भज धातु से बना है जिसका स्पष्ट अर्थ सेवा है। ‘ईश्वर का भजन करना चाहिए’ जिन शास्त्रों ने इस महामंत्र का मनुष्य को उपदेश दिया है उनका तात्पर्य ईश्वर की सेवा में मनुष्य को प्रवृत्त करा देना था। जिस विधि व्यवस्था से मनुष्य प्राणी ईश्वर की सेवा में तल्लीन हो जाय वही भजन है। इस भजन के अनेक मार्ग हैं। अध्यात्म मार्ग के आचार्यों ने देश काल और पात्र के भेद को ध्यान में रख कर भजन के अनेकों कार्यक्रम बनाये और बताये हैं। विश्व के इतिहास में जो जो अमर विभूतियां, महान आत्माएं, सन्त, सिद्ध, जीवन मुक्त, ऋषि एवं अवतार हुए हैं उन सभी ने भजन किये हैं और कराये हैं पर उन सबके भजनों की प्रणाली एक दूसरे के समान नहीं है। देश काल और परिस्थिति के अनुसार उन्हें भेद करना पड़ा है, यह भेद होते हुए भी मूलतः भजन के आदि भूत तथ्य में किसी ने अन्तर नहीं आने दिया है।

भजन (ईश्वर की सेवा) करने का तरीका ईश्वर की इच्छा और आज्ञा का पालन करना है। सेवक लोग अपने मालिकों की सेवा इसी प्रकार किया करते हैं। एक राजा के शासन तंत्र में हजारों कर्मचारी काम करते हैं। इन सबके जिम्मे काम बंटे होते हैं। हर एक कर्मचारी अपना अपना नियत काम करता है। अपने नियम कार्य को उचित रीति से करने वालों की राजा की कृपा पात्र होती है, उसके वेतन तथा पद में वृद्धि होती है, पुरस्कार मिलता है, खिताब आदि दिये जाते हैं। जो कर्मचारी अपने नियम कार्य में प्रमाद करता है वह राजा का कोप भाजन बनता है, जुर्माना, मुअत्तिली, तनुख्वाह में तनज्जुली, बर्खास्तगी या अन्य प्रकार की सजाएं पाता है। इन नियुक्त कर्मचारियों की सेवा का उचित स्थान उन्हीं कार्यों में है जो उनके लिए नियम हैं। रसोइये, महतर, पंखा झलने वाले, कहार, धोबी, चौकीदार, चारण, नाई आदि सेवक भी राजा के यहां रहते हैं। वे भी अपना नियत काम करते हैं। परन्तु इन छोटे कर्मचारियों में से कोई ऐसा नहीं सोचता कि राजा की सर्वोपरि कृपा हमारे ही ऊपर है। बात ठीक भी है राजा के अभीष्ट उद्देश्य को सुव्यवस्थित रखने वाले राज मंत्री, सेनापति, अर्थमंत्री, व्यवस्थापक न्यायाध्यक्ष आदि उच्च कर्मचारी जितना आदर, वेतन, और आत्मभाव प्राप्त करते हैं, बेचारे मेहतर, रसोइये आदि को वह जीवन भर स्वप्न में भी प्राप्त नहीं होता।

राज्य के समस्त कर्मचारी यदि अपने नियम कार्यों में अरुचि प्रकट करते हुए राजा के रसोइये, मेहतर, कहार, धोबी, चारण आदि बनने के लिए दौड़ पड़ें तो राजा को इससे तनिक भी प्रसन्नता और सुविधा न होगी। हजारों लाखों रसोइयों द्वारा पकाया और परोसा हुआ भोजन अपने सामने देख कर राजा को भला क्या प्रसन्नता हो सकती है? यद्यपि इन सभी कर्मचारियों का राजा के प्रति अगाध प्रेम है और प्रेम से प्रेरित होकर ही उन्होंने व्यक्तिगत शरीर सेवा की ओर दौड़ लगाई है, पर ऐसा विवेक रहित प्रेम करीब-करीब द्वेष जैसा ही हानिकर जान पड़ता है। राज्य के आवश्यक कार्य में हर्ज और अनावश्यक कार्य की वृद्धि यह कार्य प्रणाली किसी बुद्धिमान राजा को प्रिय नहीं हो सकती।

ईश्वर राजाओं का महाराज है। हम सब उसके राज्य कर्मचारी हैं, सबके लिए नियम कर्म उपस्थित हैं। अपने-अपने उत्तरदायित्व की उचित रीति में पालन करते हुए हम ईश्वर की इच्छा और आज्ञा को पूरा करते हैं और इस प्रकार सच्ची सेवा करते हुए स्वभावतः उसके प्रिय पात्र बन जाते हैं। राजाओं को व्यक्तिगत सेवा की आवश्यकता भी है, परन्तु परमात्मा को रसोइये, मेहतर, कहार, चारण, चौकीदार आदि की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। वह सर्वव्यापक है, वासना और विकारों से रहित है, ऐसी दशा में उसके लिए भोजन, कपड़ा, पंखा, रोशनी आदि का कुछ उपयोग भी नहीं है।

ध्यान, जप, स्मरण, कीर्तन, व्रत पूजन, अर्चन, वन्दन, यह सब आध्यात्मिक व्यायाम हैं। इनके करने से आत्मा का बल और सतोगुण बढ़ता है। आत्मोन्नति के लिए इन सबका करना आवश्यक और उपयोगी भी है। परन्तु इतना मात्र ही ईश्वर भजन या ईश्वर भक्ति नहीं है। यह भजन का एक बहुत छोटा अंश मात्र है। सच्ची ईश्वर सेवा उसकी इच्छा और आज्ञाओं को पूरा करने में है, उसकी फुलवारी को अधिक हराभरा फलाफूला बनाने में है। अपने नियम कर्त्तव्य करते हुए अपनी और दूसरों की सात्विक उन्नति में लगे रहना प्रभु को प्रसन्न करने का सर्वोत्तम उपाय हो सकता है।

धर्म पुस्तकों में एक कथा मिलती है कि एक ऋषि के आगे से देवदूत निकला। उसके हाथ में एक बहुत बड़ी पुस्तक थी। ऋषि ने पूछा—भाई देवदूत, यह पुस्तक कैसी है? उसने उत्तर दिया—इसमें दुनिया भर के ईश्वर भक्तों के नाम लिखे हैं। ऋषि ने पूछा—क्या इसमें मेरा भी नाम है? देवदूत ने सारी पुस्तक खोल डाली पर कहीं भी उनका नाम न मिला। इस प्रकार ऋषि को बड़ा दुःख हुआ कि मैंने ईश्वर की आज्ञा पालन करने में सारा जीवन लगा दिया पर मेरा नाम भक्तों की सूची में शामिल न हो पाया। कुछ दिन बाद एक दूसरा देवदूत एक छोटी पुस्तक लिए हुए उधर से निकला। ऋषि ने पूछा—इसमें क्या लिखा है? देवदूत ने उन्हें बताया कि इसमें कुछ ऐसे आदमियों के नाम हैं जिनकी भक्ति स्वयं ईश्वर करता है। ऋषि के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि—क्या ऐसे भी लोग हैं जिनकी भक्ति ईश्वर को करनी पड़ती है? पुस्तक पढ़ी गई उसमें सबसे ऊपर उन्हीं ऋषि का नाम लिखा हुआ था। महात्मा कबीर ने भी ऐसा ही कहा है—

कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर ।
पीछे लागे हरि फिरत, कहत कबीर कबीर ।।
कबीर माला ना जपों, जिह्वा कहों न राम ।
सुमिरन मेरा हरि करें, मैं पावों विश्राम ।।

ईश्वर को प्रसन्न करने की इच्छा से भगवद् भजन करने वालों को भजन का वास्तविक तात्पर्य समझना चाहिए। भजन सेवा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। परमात्मा की सेवा उसकी चलती फिरती प्रतिमाओं की सेवा में है। उसके बगीचे को—संसार को—अधिक सुन्दर सुख शान्तिमय बनाने का प्रयत्न करने में है, अपने कर्त्तव्य धर्म को उत्तरदायित्व को एक ईमानदार और सच्चे मनुष्य की तरह पालन करने में है। ईश्वर की इच्छा और आज्ञा है कि ‘अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना की जाय’’ अपने भीतर, बाहर और सर्वत्र जो इस तथ्य को ध्यान में रखकर कार्य करता है उसी का भजन सच्चा है। लोक कल्याण की दृष्टि से जो अपने और दूसरों के जीवन को उत्तम बनाने के प्रयत्न में तत्परतापूर्वक जुटे हुए हैं वे ही सच्चे भजनानन्दी हैं, वे ही सच्चे भक्त हैं। इसी प्रकार की भक्ति और ऐसा ही भजन करना भक्तियोग का वास्तविक प्रयोजन है।

मंत्र जप प्रभाव ।।

             जब तक किसी विषय वस्तु के बारे में पूर्ण जानकारी नहीं होती तो व्यक्ति वह कार्य आधे अधूरे मन से करता है और आधे-अधूरे मन से किये कार्य में सफलता नहीं मिल सकती है| मंत्र के बारे में भी पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है, मंत्र केवल शब्द या ध्वनि नहीं है, मंत्र जप में समय, स्थान, दिशा, माला का भी विशिष्ट स्थान है| मंत्र-जप का शारीरिक और मानसिक प्रभाव तीव्र गति से होता है| इन सब प्रश्नों का समाधान आपके लिये -

जिस शब्द में बीजाक्षर है, उसी को 'मंत्र' कहते हैं| किसी मंत्र का बार-बार उच्चारण करना ही 'मंत्र-जप' कहलाता है, लेकिन प्रश्न यह उठता है, कि वास्तव में मंत्र जप क्या है? जप से क्या परिणाम होते निकलता है?

व्यक्त-अव्यक्त चेतना

१. व्यक्त चेतना (Conscious mind). २. अव्यक्त चेतना (Unconscious mind).

हमारा जो जाग्रत मन है, उसी को व्यक्त चेतना कहते हैं| अव्यक्त चेतना में हमारी अतृप्त इच्छाएं, गुप्त भावनाएं इत्यादि विद्यमान हैं| व्यक्त चेतना की अपेक्षा अव्यक्त चेतना अत्यंत शक्तिशाली है| हमारे संस्कार, वासनाएं - ये सब अव्यक्त चेतना में ही स्थित होते हैं|

 
किसी मंत्र का जब जाप होता है, तब अव्यक्त चेतना पर उसका प्रभाव पड़ता है| मंत्र में एक लय (Rythm) होता है, उस मंत्र ध्वनि का प्रभाव अव्यक्त चेतना को स्पन्दित करता है| मंत्र जप से मस्तिष्क की सभी नाड़ियों में चैतन्यता का प्रादुर्भाव होने लगता है और मन की चंचलता कम होने लगाती है|

मंत्र जप के माध्यम से दो तरह के प्रभाव उत्पन्न होते हैं -
१. मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological effect)
२. ध्वनि प्रभाव (Sound effect)

मनोवैज्ञानिक प्रभाव तथा ध्वनि प्रभाव के समन्वय से एकाग्रता बढ़ती है और एकाग्रता बढ़ने से इष्ट सिद्धि का फल मिलता ही है| मंत्र जप का मतलब है इच्छा शक्ति को तीव्र बनाना| इच्छा शक्ति की तीव्रता से क्रिया शक्ति भी तीव्र बन जाति है, जिसके परिणाम स्वरुप इष्ट का दर्शन या मनोवांछित फल प्राप्त होता ही है| मंत्र अचूक होते हैं तथा शीघ्र फलदायक भी होते हैं|

मंत्र जप और स्वास्थ्य 
लगातार मंत्र जप करने से उच्च रक्तचाप, गलत धारणायें, गंदे विचार आदि समाप्त हो जाते हैं| मंत्र जप का साइड इफेक्ट (Side Effect) यही है|
मंत्र में विद्यमान हर एक बीजाक्षर शरीर की नसों को उद्दिम करता है, इससे शरीर में रक्त संचार सही ढंग से गतिशील रहता है|

"क्लीं ह्रीं" इत्यादि बीजाक्षरों का एक लयात्मक पद्धति से उच्चारण करने पर ह्रदय तथा फेफड़ों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है व उनके विकार नष्ट होते हैं|

जप के लिये ब्रह्म मुहूर्त को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि उस समय पूरा वातावरण शान्ति पूर्ण रहता है, किसी भी प्रकार का कोलाहर या शोर नहीं होता| कुछ विशिष्ट साधनाओं के लिये रात्रि का समय अत्यंत प्रभावी होता है| गुरु के निर्देशानुसार निर्दिष्ट समय में ही साधक को जप करना चाहिए| सही समय पर सही ढंग से किया हुआ जप अवश्य ही फलप्रद होता है|

अपूर्व आभा
         मंत्र जप करने वाले साधक के चेहरे से एक अपूर्व आभा आ जाति है| आयुर्वेद की दृष्टि से देखा जाय, तो जब शरीर शुद्ध और स्वास्थ होगा, शरीर स्थित सभी संस्थान सुचारू रूप से कार्य करेंगे, तो इसके परिणाम स्वरुप मुखमंडल में नवीन कांति का प्रादुर्भाव होगा ही|

जप माला 
जप करने के लिए माला एक साधन है| शिव या काली के लिए रुद्राक्ष माला, हनुमान के लिए मूंगा माला, लक्ष्मी के लिए कमलगट्टे की माला, गुरु के लिए स्फटिक माला - इस प्रकार विभिन्न मंत्रो के लिए विभिन्न मालाओं का उपयोग करना पड़ता है|

मानव शरीर में हमेशा विद्युत् का संचार होता रहता है| यह विद्युत् हाथ की उँगलियों में तीव्र होता है| इन उँगलियों के बीच जब माला फेरी जाती है, तो लयात्मक मंत्र ध्वनि (Rythmic sound of the Hymn) तथा उँगलियों में माला का भ्रमण दोनों के समन्वय से नूतन ऊर्जा का प्रादुर्भाव होता है|

जप माला के स्पर्श (जप के समय में) से कई लाभ हैं - 
-- रुद्राक्ष से कई प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं|
-- कमलगट्टे की माला से शीतलता एव अआनंद की प्राप्ति होती है|
-- स्फटिक माला से मन को अपूर्व शान्ति मिलती है|

दिशा 
दिशा को भी मंत्र जप में आत्याधिक महत्त्व दिया गया है| प्रत्येक दिशा में एक विशेष प्रकार की तरंगे (Vibrations) प्रवाहित होती रहती है| सही दिशा के चयन से शीघ्र ही सफलता प्राप्त होती है|

जप-तप
       जप में तब पूर्णता आ जाती है, पराकाष्ठा की स्थिति आ जाती है, उस 'तप' कहते हैं| जप में एक लय होता है| लय का अर्थ है ध्वनि के खण्ड| दो ध्वनि खण्डों की बीच में निःशब्दता है| इस निःशब्दता पर मन केन्द्रित करने की जो कला है, उसे तप कहते हैं| जब साधक तप की स्थिति को प्राप्त करता है, तो उसके समक्ष सृष्टि के सारे रहस्य अपने आप अभिव्यक्त हो जाते हैं| तपस्या में परिणति प्राप्त करने पर धीरे-धीरे
हृदयगत अव्यक्त नाद सुनाई देने लगता है, तब वह साधक उच्चकोटि का योगी बन जाता है| ऐसा साधक गृहस्थ भी हो सकता है और संन्यासी भी|

कर्म विध्वंस 
मनुष्य को अपने जीवन में जो दुःख, कष्ट, दारिद्य, पीड़ा, समस्याएं आदि भोगनी पड़ती हैं, उसका कारण प्रारब्ध है| जप के माध्यम से प्रारब्ध को नष्ट किया जा सकता है और जीवन में सभी दुखों का नाश कर, इच्छाओं को पूर्ण किया जा सकता है, इष्ट देवी या देवता का दर्शन प्राप्त किया जा सकता है|

गुरु उपदेश 
मंत्र को सदगुरू के माध्यम से ही ग्रहण करना उचित होता है| सदगुरू ही सही रास्ता दिखा सकते हैं, मंत्र का उच्चारण, जप संख्या, बारीकियां समझा सकते हैं, और साधना काल में विपरीत परिश्तिती आने पर साधक की रक्षा कर सकते हैं|

साधक की प्राथमिक अवशता में सफलता व साधना की पूर्णता मात्र सदगुरू की शक्ति के माध्यम से ही प्राप्त होती है| यदि साधक द्वारा अनेक बार साधना करने पर भी सफलता प्राप्त न हो, तो सदगुरू विशेष शक्तिपात द्वारा उसे सफलता की मंजिल तक पहुंचा देते हैं|

इस प्रकार मंत्र जप के माध्यम से नर से नारायण बना जा सकता है, जीवन के दुखों को मिटाया जा सकता है तथा अदभुद आनन्द, असीम शान्ति व् पूर्णता को प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि मंत्र जप का अर्थ मंत्र कुछ शब्दों को रचना है, अपितु मंत्र जप का अर्थ है - जीवन को पूर्ण बनाना हैं।

भक्ति की अग्निपरीक्षा ।।

एक बरहमन समूची दिल्ली में कुफ्र फैल रहा है, आने वाले ने तीखे स्वरों में और हिकारत भरे अंदाज में शाही दरबार में अपनी शिकायत दर्ज की।

कुफ्र? बादशाह के माथे पर बल पड़े।

शिकायत है जहाँपनाह! उस बरहमन की बातों में आकर कई इस्लाम के बन्दे भी बहक गये है, गुमराह हो गये है। दूसरे ने शिकायत का समर्थन किया।

कौन है वह गुस्ताख़? बादशाह ने जानना चाहा।

एक पागल है, बुतपरस्त है। हर वक्त वह बुत उसके साथ रहता है। शहर के आम जगहों में भी खुलेआम बुतपरस्ती में मशगूल रहता है।

किसी ने उसे रोका नहीं?

पागल समझकर लापरवाही की गई, लेकिन हुजूर-कुफ्र के साथ ही वह बगावत का जहर भी उड़ेलता है।

वह कैसे?

कहता है बरहमन किसी की हुकूमत में नहीं रहता, किसी का हुक्म नहीं मनाता, क्योंकि उसका बादशाह राम है-बरहमन उसी की बादशाहत में रहता है।

क्या बकते हो? मेरी ही सल्तनत में बादशाह भी पैदा हो गया?

जहाँपनाह! वह तो बुत्परास्तो का ही एक देव है। वही राम-रावण के किस्से वाला.........। इतना कहकर बादशाह कुछ सोचने लगा। बोला- वाकई पागल है, लेकिन फिर इस्लाम के बन्दों को उसने कैसे बहकाया?

शहर में अफवाह गरम है की वह बुत हर एक मुराद पूरी करता है। इस झूठ के शिकार बनकर कई मुसलमान औरतें और नौजवान भी बरहमन के मुकाम पर जाने लगे है, उस बुत को सिजदा करते हैं।

तोबा! तोबा! खास मेरी दारुल सल्तनत में यह गुनाह। बुतपरस्त को हम माफ कर सकते....।

आलीजाह! शाहीहुक्म के बमुजिब बुतपरस्ती पर सख्त पाबन्दी है, इसी कानून के खिलाफ वह अपने आँगन में एक जश्न करता है, तमाम हिंदुओं को इकठ्ठा करता है, उनके बीच बुत को संवारता है, सजाता है, फिर इबादत का दिखावा करता है। कई मुसलमान भी उस जलसे में नजर आये है।

उन मुसलमानों को भला यह क्या सूझी है?

गरीब परवर! बरहमन बहुत मक्कार है। बना हुआ पागल है। बुतपरस्ती के बाद वहाँ आये हुए मुसलमान मर्द, औरतों और बच्चों को भी बुत की जूठन बांटता है।

बुत की जूठन?

जूठन ही कहिये। काफ़िर उसे प्रसाद कहते हैं। उनका अकीदा है की बुत को जो चीज नजर करो, वह उसे मंजूर करता है, फिर जो बच रहा, वही जूठन उनके लिए प्रसाद होती है। आलिम ने अपनी जानकारी सबको बताने की कोशिश की।

कुफ्र! और दिल्ली में! जासूसों को हाजिर करो। जासूस बुलाये गये। ये लोग वेश बदलकर जनता की खबरें सुल्तान को पहुँचाया करते थे। जासूसों ने कोर्निश बजाई। सुल्तान ने पूछा-तुम लोगों को उस काफ़िर के कारनामे की कुछ भी खबर नहीं?

है जहाँपनाह!

बयान करो!

आलीजाह! उस बरहमन ने बुत की एक तस्वीर बने है। वह लकड़ी एक तख्ते पर कई रंग मिलकर बनाई गयी है। बुत बाहर नहीं निकालता, तस्वीर ही वह बाहर ले जाता है। बरहमन उसे साथ लिए घूमता है, जहाँ जाता है वही उसको सिजदा करता है, इबादत का ढोंग करता है। उस पर पानी-फूल चढ़ाता है।

तुम लोगों ने इसकी इत्तिला हाकिमो को क्यों नहीं की?

की थी हुजूरे आला! लेकिन उन्होंने कुछ तव्वजो नहीं की। फरमाया की किसी पागल के पीछे पड़ने से क्या फायदा?

पागल! कैसा पागल? बुतपरस्ती का दीवानगी नहीं, वह गुनाह है। कानूनन जुर्म है। हाकिमो से कहो, बुतपरस्त को गिरफ्तार करके बुत समेत हाजिर किया जाये।

जो हुक्म शहंशाह!

अब तक साँझ झुक आई थी। ब्राह्मण के घर थोड़ा ही आटा बचा था। ब्राह्मणी भूसी से प्रसाद बनाने का उपक्रम कर रही थी। इस घर में दो समय से अधिक संचय कभी रहा ही नहीं। ब्राह्मण कल की फिक्र नहीं करता था। बड़े मजे से वह इस वाक्य को जब-तब दुहरा लिया करता था। उसे किसी ने एक दिन चेतावनी दी- पंडित जी! फिरोजशाह तुगलक का जमाना है, मूर्तिपूजा पर रोक लगी है। क्यों संकट मोल लेते हो?

ब्राह्मण ने आनंद भरे मन से उत्तर दिया- भाई! इस शरीर का कुछ मोह नहीं। सुल्तान शरीर ही छीन सकता है, आत्मा तो राम की है, राम ही उसकी गति है। फिर कैसा भय?

एक दिन उसके पड़ोस के एक मुसलमान लड़के ने आकर उसका घड़ा छू लिया। कहने लगा- जनाब यह पानी तो बेकार हो गया। अब अपने खुदा को क्या पिलाओगे?

ब्राह्मण हा-हा करके हंसने लगा। बोला- बेटा! पानी तो सबको पवित्र करता है। वह तुम्हारे छूने से अपवित्र कैसे हो सकता है? राम की सब संतानें है, वह संसार का पिता है। तुम्हारे खेल-कूद से वह चिढ़ता थोड़े ही है।

मुसलमान लड़का उस निश्छल मुँह को ताकता रह गया। पूछने लगा धीरे से- पंडित जी अभी प्रसाद नहीं बनाया गया?

बन रहा है बेटा! आरती का समय आए, तब आना। प्रसाद ले जाना।

एक दिन दोपहरी में मैला-कुचैला एक डोम का लड़का आँगन में आ खड़ा हुआ डरा-सा। वह अपरिचित इस ओर कभी नहीं आया था? कहीं दूर का अनाथ बालक था। ब्राह्मण ने देखा, लड़का भयभीत है। कहा- आओ पुत्र! मेरे पास आओ। प्यार भारी आवाज़ से आकृष्ट हो, हिम्मत करके वह लड़का आगे बढ़ा। ब्राह्मण में उठ कर उसके हाथ-मुँह धोए। अपने अँगोछे से उसका मुँह पोंछा। अपने पास चौकी पर बिठाया। ब्रह्माणी से कहा- अरे, आओ देखो। तुम्हारे घर अतिथि भगवन् आयें हैं, बाल भगवान।

ब्राह्मणी उत्सुक हो दौड़ी आई। देखा एक किशोर लड़का पति के पास बैठा है।

पत्नी को देखते ही ब्राह्मण देवता बोल उठे- बड़े भाग्य! बाल-भगवान कृपा करके आए हैं। इनकी सेवा करो। जल्दी से कुछ बनाओ, इन्हें जिमाओ।

ब्राह्मणी ने जो कुछ रूखा-सूखा था, बनाया। बालक को अपनी गोद में बैठाकर भोजन कराया। कहा- भैया! रोज आया करो। अपने माता-पिता से कह देना की हम वहाँ जाते हैं। आओगे न? बालक ने प्रसन्नता से सिर हिलाकर विदा ली। ऐसी घटनाएँ उस आँगन में आए दिन होती रहती थीं। सबका आलय था वह आँगन और वह ब्राह्मण सचराचर जगत को राममय देखता था। पूरी दिल्ली में वही अकेला नागरिक था, हाथ उठा कर नितांत निर्भयता से कहा करता था- "मैं राम के राज्य में रहता हूँ, सुल्तान हमारा राजा नहीं। "

यह वाक्य सुनते-सुनते कुछ लोग उसे सनकी या पागल समझने लगे थे, तो क्या आश्चर्य! भीर भी आरती के समय उसका आँगन प्रायः भरा-भरा रहता था।

आज भी आरती का समय हो गया था। ब्राह्मणी प्रसाद बना लायी। ब्राह्मण रामलला को स्नान करने गया।दोनों समय स्नान-विधि होती थी, फिर एक स्वच्छ कपड़े से वह मूर्ति पोंछता। पश्चात नैवेद्य चढ़ाता था, जो भी घर में प्राप्त हो। आज जैसे ही आरती समाप्त हुई- सुल्तान के सिपाहियों ने घर घेर लिया। ब्राह्मण को गिरफ्तार कर लिया गया। उसकी मुश्कें कास दी गयीं। सिपाही मूर्ति भी उठाकर ले चले।

ब्राह्मण ज़रा भी घबड़ाया नहीं, रोया चिल्लाया नहीं। सब कुछ देखता रहा-सहता रहा। चलते समय पत्नी से कहा- देवी! धीरज रखना, मूर्ति लौटेगी नहीं, शायद मैं भी न लौट सकूँ... किन्तु मूर्ति के स्थान पर तुम आरती व प्रसाद का नियम भंग न करना, जब तक जीवन रहे। मूर्ति मिट्टी की भी बना सकती हो। मिट्टी माता है। सब खनिज उसी से उपजते हैं। ताँबा-पीतल न सही, माटी-मूरत सही। उसी में मोद मानो। राम के सेवक कैसे होते हैं, इसकी आन निभाना। ब्राह्मणी ने बहुत रोका, फिर भी दो आँसू की बूँदें नीचे ढुलक पड़ी, पति की अर्चना में। विदा वेला की अर्चना थी वह। इतने दिन साथ रहे, साथ जिए। राम की सेवा साथ-साथ की। दुःख को भी सुख माना। कभी कोई शिकायत नहीं की। अब कब मिलेंगे कुछ ठीक नहीं। कहते हैं- " राम के सेवक की आन निभाना। "

"निभाऊँगी-निभाऊँगी? अकेले भी निभाऊँगी।" रोते हुए हृदय से यही आश्वासन मुख पर मूर्त हो उठा- पति के संतोष के लिए। वे चले गए, बँधे हुए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ फिरोजशाह तुगलक का दरबार था।

मसनद के सहारे तलवार टिकाकर बैठा था सुल्तान। जिरह बख्तर से सज्जित सिपाही और सिपहसालार दोनों तरफ पंक्तिबद्ध खड़े थे। हृदय से यही आश्वासन मुख पर मूर्त हो उठा- पति के संतोष के लिए। वे चले गए, बँधे हुए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ फिरोजशाह तुगलक का दरबार था।

मसनद के सहारे तलवार टिकाकर बैठा था सुल्तान। जिरह बख्तर से सज्जित सिपाही और सिपहसालार दोनों तरफ पंक्तिबद्ध खड़े थे।वजीर एक तरफ बैठा था। जहाँपनाह! पागल काफ़िर हाजिर है। सिपाहियों ने निवेदन किया।

सुल्तान ने दृष्टि किया, मुंह से कुछ बोला नहीं। दूसरे ही क्षण रस्सों से जकड़ा वह ब्राह्मण उपस्थित किया गया। उसकी मुश्कें बँधी थीं। सुल्तान की दृष्टि उस पर पड़ी। साथ शाही फरमान हुआ, इसकी मुश्कें खोल दी जाएँ। फिर कैदी से पूछा क्यों! यह किसकी सल्तनत है?

तमाम दुनिया का साम्राज्य उसी की लीला है। वही सबका सम्राट है?

वह कौन है?

जिसने जगत सिरजा।

खुदा की बात करते हो?

आप खुदा कह लें मैं राम कह लेता हूँ।

गलत! खुदा को कोई कैद नहीं कर सकता। तुम्हारा राम मेरे यहाँ कैदी बनकर हाजिर है।

झूठ यह मूर्ति राम की पहचान है। हजारों पहचानों में से एक। मूर्ति का कुछ भी करो राम की तुम धुल भी नहीं पा सकते। हाँ, यह सच है की राम की ही तरह उसकी पहचान भी पवित्र है, लेकिन उनके लिए जो इसे पहचाने, नहीं तो पत्थर है ......?

तुम्हारा यह अफसाना मैं नहीं समझ पाया।

समझना चाहें तो देर नहीं लगेगी। आपके अन्तः पुर में ही गुरु मिल जायेगा। कहीं खोजना नहीं होगा।
क्या मतलब? सुल्तान चौंका।

आप नाराज़ न हों, मेरा तात्पर्य श्रीमान की मातुश्री से था। मैं उन्हें जनता हूँ, वे राजपूत की बेटी हैं , राम और उनकी मूर्ति की महिमा आप उनसे भलीप्रकार समझ सकते हैं।

वदज़ुबान बरहमन! तिलमिला उठा सुल्तान। उसका चेहरा उतर गया।

मैंने कोई बदजुबानी नहीं की। हर एक की माँ मेरी भी माँ है। आप इसे गलत नहीं समझें।

तुम तो पागल नहीं लगते। फिर भी कानून तोड़ने की जुर्रत करते हो?

मैंने कोई कानून नहीं तोड़ा।

क्यों क्या तुम नहीं जानते, मेरी सल्तनत में बुतपरस्ती जुर्म है।

मैं इसे कानून नहीं मानता। जोर-जुल्म का नाम कानून नहीं है।

यह बगावत है और तुम जिसके राज्य में हो ..........।

कैदी ने बीच में टोककर कहा- ब्राह्मण किसी के राज्य में नहीं रहता। वह स्वतंत्र रहकर ही मृत्यु को प्राप्त होता है।

हूँ,काजी और उलेमा अपना फतवा दे की इस बागी काफ़िर को कौन -सी सजा दी जानी चाहिए।

काजियो ने अपनी पुरानी पोथियाँ उलटनी-पलटनी शुरू की। इसके बाद उलेमा आपस में कानाफूसी करके सजा तजवीज करने लगे। फिरोजशाह तुगलक दांतों से मूंछें कुतरता रहा। थोड़ी ही देर में उलेमाओ ने फ़तवा दे दिया -जहाँपनाह!इस काफ़िर को सजाए मौत से कम तो कोई सजा नहीं दी जा सकती।

शरिअत कहती है की काफ़िर की गर्दन उड़ा दी जाये। काजियो ने भी हामी भरी।

एक रास्ता है, जाँ बख्शी का,बशर्ते यह इस्लाम काबूल कर ले।

शर्म करो। मेरे शरीर के दो टुकड़े कर दो। इस्लाम की बात क्यों करते हो? मैं हिन्दू रहकर ही मरूँगा। ब्राह्मण की आवाज़ में बड़ा वजन था।

ठीक है। इसे जिन्दा जला दो। हुक्म देते हुए एक क्षण सुतन की निगाह राम की मूर्ति पर गयी, बोला यह बुत भी इसके साथ आग के हवाले कर दिया जाए।

जो,हुक्म,जल्लाद जो उसका कत्ल करने के लिए बुलाई गए थे,ब्राह्मण को ले चले। मूर्ति को भी उसके साथ ले जाया गया। ब्राह्मण का चेहरा अलौकिक तेज़ से उद्भासित हो उठा। प्रसन्न मन से बार बार घूमकर वह मूर्ति को देखता जा रहा था,मानो कह रहा हो-"ओ प्रभु!सेवक तुम्हारे साथ ही है "।


लकड़ियों का एक बड़ा सा पहाड़ खड़ा कर दिया गया। ब्राह्मण के हाथ पैर बांध कर उस पर डाल दिया गया। वह जोर लगा कर किसी तरह उठ कर बैठ गया?मूर्ति भी उसके साथ फेंक दी गयी। बंधे हाथों से उसने मूर्ति को जैसे-तैसे उठाकर अपने पास ही रखा। तभी जल्लाद ने आवाज़ दी-होशियार आखिरी वक्त आ गया, खुदा को याद कर ले।


ब्राह्मण ने सर उठाया। एक बार नीले आकाश को देखा।अहा! कितना स्वच्छ गगन है। सूर्य कैसे देदीप्यमान है। दूर पर हरियाली की साड़ी लिए क्षितिज किसकी प्रतीक्षा में खड़ा है। धरती किसकी वंदना में तनमुख बैठी है।

भावविभोर हो वह कहने लगा, मेरे मन में राम हैं, तुम सर्वत्र हो। आज मैं देह की इस तुच्छ दीवार को तोड़कर तुममें सामने आ रहा हूँ। प्रभु! तब तक आग लकड़ियों में तेजी से धधक उठी। अग्नि की उठती उभरती ज्वाला के साथ उसकी भक्ती भी प्रचंड और प्रखर होती गयी। ऐसी घटना को युग बीत गए, फिर भी भक्ती की अग्नि -परीक्षा की इस अनोखी दास्तान को कोई नहीं भुला सकता।

संक्षेप में गायत्री मंत्र लेखन के नियम निम्न प्रकार हैं -

१. गायत्री मंत्र लेखन करते समय गायत्री मंत्र के अर्थ का चिन्तन करना चाहिए।

२. मंत्र लेखन में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए।

३. स्पष्ट व शुद्ध मंत्र लेखन करना चाहिए।

४. मंत्र लेखन पुस्तिका को स्वच्छता में रखना चाहिए। साथ ही उपयुक्त स्थान पर ही रखना चाहिए।

५. मंत्र लेखन किसी भी समय किसी भी स्थिति में व्यस्त एवं अस्वस्थ व्यक्ति भी कर सकते हैं। एकबार में कम से कम ३३ मंत्र लेखन से शुरू करते हुए बढाते जाइए।

गायत्री मंत्र लेखन से लाभ-

१. मंत्र् लेखन में हाथ, मन, आँख एवं मस्तिष्क रम जाते हैं। जिससे चित्त एकाग्र हो जाता है और एकाग्रता बढ़ती चली जाती है।

२. मंत्र लेखन में भाव चिन्तन से मन की तन्मयता पैदा होती है इससे मन की उच्छृंखलता समाप्त होकर उसे वशवर्ती बनाने की क्षमता बढ़ती है। इससे आध्यात्मिक एवं भौतिक कार्यों में व्यवस्था व सफलता की सम्भावना बढ़ती है।

३. मंत्र के माध्यम से ईश्वर के असंख्य आघात होने से मन पर चिर स्थाई आध्यात्मिक संस्कार जम जाते हैं जिनसे साधना में प्रगति व सफलता की सम्भावना सुनिश्चित होती जाती है।

४. जिस स्थान पर नियमित मंत्र लेखन किया जाता है उस स्थान पर साधक के श्रम और चिन्तन के समन्वय से उत्पन्न सूक्ष्म शक्ति के प्रभाव से एक दिव्य वातावरण पैदा हो जाता है जो साधना के क्षेत्र में सफलता का सेतु सिद्ध होता है।

५. मानसिक अशान्ति चिन्तायें मिट कर शान्ति का द्वार स्थायी रूप से खुलता है।

६. मंत्र योग का यह प्रकार मंत्र जप की अपेक्षा सुगम है। इससे मंत्र सिद्धि में अग्रसर होने में सफलता मिलती है।

७. इससे ध्यान करने का अभ्यास सुगम हो जाता है।

८. मंत्र लेखन का महत्त्व बहुत है। इसे जप की तुलना में दस गुना अधिक पुण्य फलदायक माना गया है।

साधारण कापी और साधारण कलम स्याही से गायत्री मंत्र लिखने का नियम उसी प्रकार बनाया जा सकता है जैसा कि दैनिक जप एवं अनुष्ठान का व्रत लिया जाता है। सरलता यह है कि नियत समय पर- नियत मात्रा में करने का उसमें बन्धन नहीं है और न यही नियम है कि इसे स्नान करने के उपरान्त ही किया जाय।


इन सरलताओं के कारण कोई भी व्यक्ति अत्यन्त सरलता पूर्वक इस साधना को करता रह सकता है।

हनुमान जी की पत्नी के साथ दुर्लभ फोटो ।।

कहा जाता है कि हनुमान जी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद घर में चल रहे पति पत्नी के बीच के सारे तनाव खत्म हो जाते हैं।
आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले में बना हनुमान जी का यह मंदिर काफी मायनों में खास है। यहां हनुमान जी अपने ब्रह्मचारी रूप में नहीं बल्कि गृहस्थ रूप में अपनी पत्नी सुवर्चला के साथ विराजमान है।
हनुमान जी के सभी भक्त यही मानते आए हैं की वे बाल ब्रह्मचारी थे और वाल्मीकि, कम्भ, सहित किसी भी रामायण और रामचरित मानस में बालाजी के इसी रूप का वर्णन मिलता है। लेकिन पराशर संहिता में हनुमान जी के विवाह का उल्लेख है। इसका सबूत है आंध्र प्रदेश के खम्मम ज़िले में बना एक खास मंदिर जो प्रमाण है हनुमान जी की शादी का।
यह मंदिर याद दिलाता है रामदूत के उस चरित्र का जब उन्हें विवाह के बंधन में बंधना पड़ा था। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि भगवान हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी नहीं थे। पवनपुत्र का विवाह भी हुआ था और वो बाल ब्रह्मचारी भी थे।
कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह बंधन में बंधना पड़ा। दरअसल हनुमान जी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था।
हनुमान, सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमान जी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ साथ उड़ना पड़ता और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान देते। लेकिन हनुमान जी को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया।
कुल 9 तरह की विद्या में से हनुमान जी को उनके गुरु ने पांच तरह की विद्या तो सिखा दी लेकिन बची चार तरह की विद्या और ज्ञान ऐसे थे जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे।
हनुमान जी पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वो मानने को राजी नहीं थे। इधर भगवान सूर्य के सामने संकट था कि वह धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखला सकते थे।
ऐसी स्थिति में सूर्य देव ने हनुमान जी को विवाह की सलाह दी। और अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमान जी भी विवाह सूत्र में बंधकर शिक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गए। लेकिन हनुमान जी के लिए दुल्हन कौन हो और कहां से वह मिलेगी इसे लेकर सभी चिंतित थे।
सूर्य देव ने अपनी परम तपस्वी और तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमान जी के साथ शादी के लिए तैयार कर लिया। इसके बाद हनुमान जी ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई।
इस तरह हनुमान जी भले ही शादी के बंधन में बंध गए हो लेकिन शारीरिक रूप से वे आज भी एक ब्रह्मचारी ही हैं।
पाराशर संहिता में तो लिखा गया है की खुद सूर्यदेव ने इस शादी पर यह कहा की – यह शादी ब्रह्मांड के कल्याण के लिए ही हुई है और इससे हनुमान जी का ब्रह्मचर्य भी प्रभावित नहीं हुआ।

🙏जय श्री बालाजी की🙏