Follow us for Latest Update

इतना प्राचीन है हिन्दू धर्म ।।

            कोई लाखों वर्ष, तो कोई हजारों वर्ष पुराना मानता है हिन्दू धर्म को। लेकिन क्या यह सच है? आओ हम कुछ महापुरुषों की जन्म तिथियों के आधार पर जानते हैं कि कितना पुराना है हिन्दू धर्म?
हिन्दू धर्म की पुन: शुरुआत वराह कल्प से होती है। इससे पहले पद्म कल्प, ब्रह्म कल्प, हिरण्य गर्भ कल्प और महत कल्प बीत चुके हैं।

गुरु नानक : 500 वर्ष पहले हिन्दू धर्म
सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक का जन्म 15 अप्रैल 1469 को हुआ और 22 सितंबर 1539 को उन्होंने देह छोड़ दी। गुरु परंपरा के सभी 10 गुरुओं द्वारा भारत और हिन्दू धर्म रक्षित हुआ।

बाबा रामदेव : 650 साल पहले हिन्दू धर्म
बाबा रामदेव का जन्म 1352 ईस्वी में हुआ और 1385 ईस्वी में उन्होंने समाधि ले ली। द्वारिका‍धीश के अवतार बाबा को पीरों का पीर 'रामसा पीर' कहा जाता है।
 
झूलेलाल : 1,000 साल पहले हिन्दू धर्म
सिन्ध प्रांत के हिन्दुओं की रक्षार्थ वरुणदेव ने झूलेलाल के रूप में अवतार लिया था। पाकिस्तान में झूलेलालजी को जिंद पीर और लालशाह के नाम से जाना जाता है। इनका जन्म 1007 ईस्वी में हुआ था।

गुरु गोरक्षनाथ : 1,100 साल पहले हिन्दू धर्म
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार महान योगी गुरु गोरक्षनाथ या गोरखनाथ का जन्म 845 ई. को हुआ था। 9वीं शताब्दी में गोरखपुर में गुरु गोरखनाथ के मंदिर के जीर्णोद्धार होने का उल्लेख मिलता है। गोरखनाथ लंबे काल तक जीवित रहे थे।

आदिशंकराचार्य : 507 कालूडी में     
कैलासगमन :ई.पू.475 साल पहले हिन्दू धर्म
आदिशंकराचार्य ने हिन्दू धर्म को पुनर्गठित किया था। उनका जन्म 788 ईस्वी में हुआ और 820 ईस्वी में उन्होंने मात्र 32 वर्ष की उम्र में देह छोड़ दी थी। उन्होंने 4 पीठों की स्थापना की थी। केरल में जन्म और केदारनाथ में उन्होंने समाधि ले ली थी। वैसे चार मठों की गुरु शिष्य परंपरा के अनुसार आदि शंकराचार्य का जन्म 508 ईसा पूर्व हुआ था। 788 ईस्वी को जिन शंकराचार्य का जन्म हुआ था वे अभिनव शंकराचार्य थे।

सम्राट हर्षवर्धन : 1,400 साल पहले हिन्दू धर्म
महान सम्राट हर्षवर्धन का जन्म 590 ईस्वी में और मृत्यु 647 ईस्वी में हुआ था। माना जाता है कि हर्षवर्धन ने अरब पर भी चढ़ाई कर दी थी, लेकिन रेगिस्तान के एक क्षेत्र में उनको रोक दिया गया। इसका उल्लेख भविष्यपुराण में मिलता है। हर्ष के शासनकाल में ही चीन यात्री ह्वेनसांग आया था।

चन्द्रगुप्त द्वितीय : 1,650 साल पहले हिन्दू धर्म
सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय को विक्रमादित्य की उपाधि प्राप्त थी। उनका शासन 380 ईस्वी से 412 ईस्वी तक रहा। महाकवि कालिदास उसके दरबार की शोभा थे।

सम्राट विक्रमादित्य : 2,100 साल पहले हिन्दू धर्म
विक्रमादित्य के पिता गंधर्वसेन और बड़े भाई भर्तृहरि थे। कलिकाल के 3,000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ। उनके काल में हिन्दू धर्म ने महान ऊंचाइयों को प्राप्त किया था। वे एक ऐतिहासिक पुरुष थे।

आचार्य चाणक्य : 2,300 साल पहले हिन्दू धर्म
चाणक्य का जन्म ईस्वी पूर्व 371 में हुआ था जबकि उनकी मृत्यु ईस्वी पूर्व 283 में हुई थी। चाणक्य का उल्लेख मुद्राराक्षस, बृहत्कथाकोश, वायुपुराण, मत्स्यपुराण, विष्णुपुराण, बौद्ध ग्रंथ महावंश, जैन पुराण आदि में मिलता है। चाणक्य के समय ही भारत पर सिकंदर का आक्रमण हुआ था।

भगवान महावीर स्वामी : 2,650 वर्ष पहले हिन्दू धर्म
जैन धर्म के पुनर्संस्थापक महावीर स्वामी का जन्म ईस्वी पूर्व 599 में हुआ था। वे जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे। उनके काल में भी हिन्दू धर्म भारत का प्रमुख धर्म था। उनके काल में ही भगवान बुद्ध (563 ईस्वी पूर्व) ने अपना एक नया धर्म स्थापित किया था।

भगवान पार्श्वनाथ : 2,850 वर्ष पहले हिन्दू धर्म
भगवान महावीर स्वामी के 250 वर्ष पहले 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए थे। माना जाता है कि उनके काल में हिन्दू धर्म भारत का राजधर्म हुआ करता था। पार्श्वनाथ के समय भारत में बहुत शांति और समृद्धि थी।

भगवान श्रीकृष्ण : 5,000 वर्ष पहले हिन्दू धर्म
ऐतिहासिक शोध के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण का जन्म 3112 ईस्वी पूर्व मथुरा में हुआ था। जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्ट नेमिनाथ भगवान कृष्ण के चचेरे भाई थे। गीता हिन्दुओं का प्रमुख धर्मग्रंथ है, जो कि महाभारत एक हिस्सा है।

भगवान श्रीराम : 7,000 वर्ष पहले हिन्दू धर्म
शोधानुसार 5114 ईसा पूर्व भगवान राम का जन्म अयोध्या में हुआ था। राम के जन्म के समय आकाश में पुनर्वसु नक्षत्र के दौरान 5 ग्रह अपने उच्च स्थान में थे। वाल्मीकि द्वारा बताई गई यह स्थिति आज से 7,131 वर्ष पहले निर्मित हुई थी। (शेष आगे)
 
           वैवस्वत मनु : 8,500 वर्ष पहले हिन्दू धर्म
अनुमानित रूप से 6673 ईसा पूर्व वैवस्वत मनु हुए थे। इन मनु के काल में ही जलप्रलय हुई थी। कई माह तक वैवस्वत मनु और उनके लोगों द्वारा नाव में ही गुजारने के बाद उनकी नाव गौरी-शंकर के शिखर से होते हुए जल के उतरने के साथ ही नीचे उतरी। तब फिर से धरती पर मनुष्यों का जीवन चक्र चला। माथुरों के इतिहास में उनके होने की यही तिथि लिखी है।

सम्राट ययाति : 9,000 वर्ष पूर्व हिन्दू धर्म
सम्राट ययाति के प्रमुख 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुहु। इन्हें वेदों में पंचनंद कहा गया है। अनुमानित रूप से 7,200 ईसा पूर्व अर्थात आज से 9,217 वर्ष पूर्व ययाति के इन पांचों पुत्रों का संपूर्ण धरती पर राज था। पांचों पुत्रों ने अपने-अपने नाम से राजवंशों की स्थापना की। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रुहु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुई। ययाति प्रजापति ब्रह्मा की 10वीं पीढ़ी में हुए थे।

स्वायम्भुव मनु : 11,000 वर्ष पहले हिन्दू धर्म
माथुरों के इतिहास के अनुसार स्वायम्भुव मनु अनुमानित 9057 ईसा पूर्व हुए थे। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ स्वायम्भुव मनु से 5वीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वायम्भुव मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और फिर ऋषभ। ऋषभनाथ के 2 पुत्र थे- चक्रवर्ती सम्राट भरत और बाहुबली। स्वायम्भुव मनु को धरती का पहला मानव माने जाने के कई कारण हैं। धर्मशास्त्र और प्राचेतस मनु को अर्थशास्त्र का आचार्य माना जाता है। मनुस्मृति ने सनातन धर्म को आचार संहिता से जोड़ा था।

ब्रह्मा : 14,000 वर्ष पहले हिन्दू धर्म

अनुमानित रूप से लगभग 12,000 ईसा पूर्व भगवान ब्रह्मा के कुल की शुरुआत हुई। ब्रह्मा के प्रमुख पुत्र ये थे- मारिचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, कृतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, कंदर्भ, नारद, सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार, स्वायम्भुव मनु और चित्रगुप्त। मरीचि के पुत्र ऋषि कश्यप थे जिनके देवता, दैत्य, दानव, राक्षस आदि सैकड़ों पुत्र थे। ब्रह्मा को प्रजातियों की उत्पत्ति का श्रेय जाता है।

नील वराह : 16,000 वर्ष पहले हिन्दू धर्म

कहते हैं कि लगभग 14,000 विक्रम संवत पूर्व अर्थात आज से 15,923 वर्ष पूर्व भगवान नील वराह ने अवतार लिया था। नील वराह काल के बाद आदि वराह काल और फिर श्वेत वराह काल हुए। इस काल में भगवान वराह ने धरती पर से जल को हटाया और उसे इंसानों के रहने लायक बनाया था। उसके बाद ब्रह्मा ने इंसानों की जाति का विस्तार किया और शिव ने संपूर्ण धरती पर धर्म और न्याय का राज्य कायम किया। इससे पहले लोग स्वर्ग या कहें कि देवलोक में रहते थे। हालांकि मानव तब भी था लेकिन सभ्यता की शुरुआत यहीं से मानी जाती है। उल्लेखित समय अनुमानित और पुराणों से प्राप्त हैं। हिन्दू धर्म की यह कहानी वराह कल्प से ही शुरू होती है जबकि इससे पहले का इतिहास भी पुराणों में दर्ज है जिसे मुख्य 5 कल्पों के माध्यम से बताया गया है। जम्बूद्वीप का पहला राजा स्वायम्भुव मनु ही था।

पीढ़ियों का उल्लेख
ब्रह्माजी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए। 6673 ईसा पूर्व वैवस्वत मनु हुए थे। वैवस्वत मनु के कुल की 64वीं पीढ़ी में भगवान राम हुए थे और राम के पुत्र कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए, जो महाभारत में कौरवों की ओर से लड़े थे। महाभारत का युद्ध 3000 ईस्वी पूर्व हुआ था।

प्राचीन ग्रंथों में मानव इतिहास को 5 कल्पों में बांटा गया है- 
(1) हमत् कल्प 1 लाख 9,800 वर्ष विक्रम संवत पूर्व से आरंभ होकर 85,800 वर्ष पूर्व तक, 
(2) हिरण्य गर्भ कल्प 85,800 विक्रम संवत पूर्व से 61,800 वर्ष पूर्व तक, ब्राह्म कल्प 60,800 विक्रम संवत पूर्व से 37,800 वर्ष पूर्व तक, 
(3) ब्रह्म कल्प 60,800 विक्रम संवत पूर्व से 37,800 वर्ष पूर्व तक, 
(4) पद्म कल्प 37,800 विक्रम संवत पूर्व से 13,800 वर्ष पूर्व तक और 
(5) वराह कल्प 13,800 विक्रम संवत पूर्व से आरंभ होकर इस समय तक चल रहा है।

अब तक वराह कल्प के स्वायम्भुव मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तामस मनु, रैवत मनु, चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वंतर बीत चुके हैं और अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अंतरदशा चल रही है। सावर्णि मनु का आविर्भाव विक्रमी संवत् प्रारंभ होने से 5,630 वर्ष पूर्व हुआ था।

संदर्भ पुराण और महाभारत
साभार

 गर्व से कहो हम हिन्दू हैं
 
🌹 भारत माता की जय 🌹


जगद्गुरु आदि शंकराचार्य जी की संक्षिप्त परिचय ..

ईसवी सन से 507 वर्ष पूर्व भगवान शिव शंकराचार्य के रुप में भारत के केरल क्षेत्र में उत्पन्न हुऐ । वायुपुराण में , शिव पुराण में शंकराचार्य को शिव का ही अवतार माना गया है । कुल बत्तीस वर्ष की आयु उन्हें प्राप्त थी । बत्तीस वर्ष की आयु की सीमा में उन्होंने ईश , केन , कठ इत्यादि उपनिषदों पर भाष्य लिखा । ब्रह्मसूत्र जिसको वेदान्त दर्शन कहते हैं उस पर उन्होंने भाष्य लिखा । श्रीमदभगवदगीता पर भाष्य लिखा । बहुत से प्रकरण ग्रन्थों की संरचना की । प्रपञ्च सार नामक ग्रन्थ तन्त्र की दृष्टि से उन्होंने लिखा । सनातन देवी देवताओं की उन्होंने स्तुति भी लिखी । कालक्रम से विकृत ज्ञान-विज्ञान को उन्होंने परंपरा प्राप्त अदभुत मेधा शक्ति के बल पर विशुद्ध किया औेर कालक्रम से विलुप्त ज्ञान विज्ञान को प्रकट किया । उस समय बौद्ध , जैन , कापालिक और विविध द्वैतवादियों का बहुत ही प्रभाव था । वेदों के परम तात्पर्य को उन्होंने युक्ति और अनुभूति के बल पर ख्यापित करके वेदों के प्रति और और वेदार्थ के प्रति विद्वान मनीषियों को आस्थान्वित किया । मूर्तिभंजकों के शासनकाल में बद्रीनाथ का दर्शन सुलभ नहीं था । भगवतपाद शिवावतार शंकराचार्य महाभाग ने ही नारदकुण्ड में सन्निहित बद्रीनाथ को प्राप्तकर अपने चिन्मय करकमलों से पुन: प्रतिष्ठित किया , पुरुषोत्तमक्षेत्र पुरी में मूर्तिभंजकों के शासनकाल में अदृष्टिगोचर दारुब्रह्म श्रीजगन्नाथादि को अपने चिन्मय करकमलों से उन्होंने प्रतिष्ठित किया । द्वारका पुरी में भी मूर्तिभंजकों के शासनकाल में अदृष्टिगोचर भगवान द्वारकाधीश को उन्होंने अपने चिन्मय करकमलों से प्रतिष्ठित किया । इसी प्रकार पुष्कर में ब्रह्माजी के अर्चाविग्रह का भी दर्शन सुलभ नहीं था , उन्होंने अपने चिन्मय करकमलों से ब्रह्माजी को पुन:प्रतिष्ठित किया । नेपाल में पशुपतिनाथ किसी और रुप में पूजित हो रहे थे , वैदिक विधा से पुन: शिवलिंग के रुप में ख्यापित और पूजित प्रतिष्ठित किया , साथ ही साथ सनातन वर्णाश्रमम व्यवस्था को पूर्ण रुप से विकसित किया । उस समय के मण्डन मिश्र इत्यादि महानुभावों को शास्त्रार्थ में प्रमुदित कर जीतकर उन्होंने उन्हें सन्यास की दिक्षा दी । योगशिखोपनिषद में अपने शरीर में सात चक्रों के अंतर्गत चार आम्नाय पीठ का वर्णन है उसे आदिदैविक धरातल पर भारत में उन्होंने ख्यापित किया । पूर्व दिशा में पुरुषोत्तमक्षेत्र पुरी में ऋग्वेद से सम्बद्ध पूर्वाम्नाय गोवर्धनमठ की स्थापना उन्होंने पच्चीस सौ एक वर्ष पूर्व की । श्री रामेश्वरम से संलग्न और सम्बद्ध दक्षिण दिशा में श्रृंगेरी में उन्होंने एक पीठ की स्थापना की जो यजुर्वेद से सम्बद्ध है , पश्चिम दिशा में द्वारका पुरी में उन्होंने सामवेद से सम्बद्ध एक पीठ की स्थापना की । उत्तर दिशा में बद्रीवन की सीमा में बद्रिनाथ के क्षेत्र में ज्योर्तिमठ की स्थापना की जो अथर्ववेद से सम्बद्ध है । एक-एक वेद से सम्बद्ध एक-एक पीठ को यह दायित्व दिया की उपवेदादि जो वैदिक वांगमय हैं और उनसे सम्बद्ध जितनी कलाएें हैं , बत्तीस विद्या चौंसठ कला उज्जीवित रहें इसका दायित्व चारों पीठों को उन्होंने प्रदान किया । सन्यास आश्रम जो श्रौत है उसको परखकर उन्होंने चार पीठों के तो एक-एक आचार्य बनाया ही उन्हें शंकराचार्य का पद प्रदान किया , जगदगुरु शंकराचार्य का पद । सत्तर श्लोंकों में उन्होंने चारों मठों के संचालन का संविधान मठाम्नाय सेतु मठाम्नाय महानुशासनम के रुप में व्यक्त किया । कुल सत्तर श्लोक हैं जिनके माध्यम से चारों मठों का पीठों का संचालन होता है । एक एक मठ से सम्बद्ध एक एक देवी , एक एक क्षेत्र , एक एक गोत्र उन्होंने ख्यापित किया , जैसे राजधानी ही राष्ट्र का क्षेत्रफल नहीं मान्य है , इसी प्रकार ये जो चार धार्मिक ,आध्यात्मिक राजधानीयां उन्होंने बनाई ख्यापित की उनके साथ पूरे भूमण्डल को जोड़ा । 

अंग्रेजों ने भगवान शंकराचार्य का जो काल ख्यापित किया है वो उनकी कूटनीति का परिणाम है । सचमुच में जिस समय भगवतपाद शंकराचार्य महाभाग का आविर्भाव हुआ उस समय ना विश्व में ना मोहम्मद साहब हुऐ थे ना ईसा मसीह ना उनके अनुयायी थे कोई । भगवतपाद शंकराचार्य महाभाग ने युधिष्ठिर जी की परंपरा में उत्पन्न सुधन्वा जो की बौद्धों के संसर्ग में आकर बौद्ध सम्राट हो गये थे , वैदिक धर्म के पतन , उच्छेद में अपनी शक्ति का उपयोग कर रहे थे , कुमारिल भट्ट के सहित शंकराचार्य महाभाग ने उनके हृदय और मस्तिष्क का शोधन कर सनातन वैदिकार्य सम्राट के रुप में उन्हें ख्यापित किया । और चारों पीठों की मर्यादा सुरक्षित रहे इसका भी दायित्व प्रदान किया । सुधन्वा जी सार्वभौम पृथ्वी के सम्राट के रुप में उदघोषित किये गये । साथ ही साथ यह भी समझने की आवश्यकता है शंकराचार्य जी ने सन्यासीयों के दस प्रभेद ख्यापित किया । गोवर्धनमठ पुरीपीठ से सम्बद्ध वन और
अरण्य दो प्रकार के सन्यासीयों को यह दायित्व दिया की वन औेर अरण्य सुरक्षित रहें , वनवासी और अरण्यवासी सुरक्षित रहें । विधर्मियों की दाल ना गले । महाभारत में वनपर्व के अंतर्गत अरण्य पर्व है । छोटे वन का नाम अरण्य होता है बृहद अरण्य ना नाम वन होता है । पर्यावरण की दृष्टि से शंकराचार्य जी ने वन अरण्य को बहुत महत्व दिया क्योंकि आप जानते होंगें जो सात द्विपों वाली पृथ्वी है , द्विपों का जो विभाग और नामकरण है , वृक्ष , वनस्पति के नाम पर , स्थावर प्राणी के नाम पर । जम्बूद्वीप , कुशद्वीप इत्यादि , कुश जानते ही हैं और जामुन का फल , इसी प्रकार से पर्वत के नाम पर क्रौंच द्वीप जैसे कहा गया , और सागर में क्षीर सागर भी है और क्षारसिन्धु भी है , तो जल को लेकर, पर्वत को लेकर और वृक्ष वन को लेकर द्विपों का विभाग पहले किया गया था । इसी दृष्टि से भगवतपाद शंकराचार्य महाभाग ने वन और अरण्य तथा वनवासी और अरण्यवासियों को सुरक्षित रखने कि भावना से औेर विधर्मियों की दाल वन में अरण्य मे ना गले , इस भावना से वन अरण्य नामा सन्यासीयों को ख्यापित किया । शिक्षण संस्थान की दृष्टी से सरस्वती और भारती , दो दो सन्यासीयों को ख्यापित किया । उच्च शिक्षण संस्थान की दृष्टि से सरस्वती नामा सन्यासी , मध्यम आवर संस्थान की दृष्टि से भारती नामा सन्यासी को उन्होंने ख्यापित किया ताकि शिक्षण संस्थानों के माध्यम से दिशाहीनता प्राप्त ना हो । नीति आध्यात्म विरुद्ध शिक्षा पद्धति क्रियान्वित ना हो । अयोध्या, मथुरादि जो हमारी पुरीयां हैं उन पुरीयों को सुव्यवस्थित रखने की भावना से पुरीनामा सन्यासी को शंकराचार्य जी ने ख्यापित किया । तीर्थ औेर आश्रम हमारे दिशाहीन ना हों इस भावना से द्वारका पीठ से सम्बद्ध तीर्थ और आश्रम नामा सन्यासीयों को उन्होंने ख्यापित किया । सागर , समुद्र , पर्वत और गिरी । बृहद गिरी का नाम पर्वत , छोटे पर्वत का नाम गिरी होता है मत्स्यपुराण के अनुसार । पर्वत , गिरी , सागर नामा सन्यासियों को शंकराचार्य जी ने उदभासित किया । कुछ वर्ष पहले पाकिस्तान के आतंकवादी सागर के माध्यम से मुंबई में घुसे थे । भगवान शंकराचार्य की शिक्षा क्रियान्वित होती तो हमारे सागर सुरक्षित रहते । सागर के माध्यम से किसी भी अराजक तत्व, विधर्मियों के प्रवेश का मार्ग सर्वथा अविरुद्ध रहता और शंकराचार्य जी ने यह भी कहा ” यथा दैवे तथा गुरो ” श्वेताश्वतरोपनिषद की इस पक्तिं को उद्धृत करके उन्होंने बताया की ” मेरी गद्दी पर जो विधिवत प्रतिष्ठित आचार्य होंगें वो मेरे ही स्वरुप होंगें ” । और शिवपुराण के अनुसार यह भी बताया गया की भगवान चार युगों में चार गुरु का रुप धारण करते हैं । एक प्रक्रिया यह है की कृतयुग सतयुग में ब्रह्माजी गुरु होते हैं सार्वभौम , त्रेता में वशिष्ठ जी होते हैं । द्वापर में व्यास जी होते हैं , कलियुग में शंकराचार्य गुरु होते हैं । दूसरी परंपरा यह है प्रक्रिया , भगवान शिव के अवतार दक्षिणामूर्ति कृतयुग या सतयुग में गुरु होते हैं , दत्तात्रेय महाभाग त्रेता में गुरु होते हैं , वेदव्यास जी द्वापर में गुरु होते हैं , कलियुग के अंतिमचरण तक भगवान शंकराचार्य उसकी और उनके द्वारा ख्यापित पीठों के आचार्य गुरु होते हैं ...

"श्री" ।।

सद्गुरु को तो मालूम है कि जीवन क्षणभंगुर है एवं ब्रह्मांड में केवल शिव को छोड़कर सब कुछ अनित्य है। मृत्यु तो निश्चित है परिवर्तन तो होकर ही रहेगा यही अद्वैतवाद कहता है परंतु जीवन हैं यह भी सच्चाई है। जीवन की द्वैतता शक्ति आधारित है। शक्ति के महत्व को तो शिव भी नहीं नकार सकते हैं। अतः अध्यात्म केवल अद्वैतवाद पर तो नहीं चल सकता इससे तो भीषणता, क्षमता, प्रचंडता और बढ़ जाएगी। कई धर्मों में अद्वैतवाद का बोलबाला है एवं वे अपने सिद्धांतों को इतनी अति में ले जाते हैं कि स्त्री तत्व को ही नकार देते हैं और पूरी तरह से असुर हो जाते हैं। यह एकेश्वरवाद का दुष्परिणाम है एकेश्वरवाद के सिद्धांत में शक्ति उपासना की शून्यता होती है। इस तरह के अध्यात्म से कट्टरवादी एवं हिंसक प्रवृत्ति के मनुष्यों का निर्माण होता है। देवी उपासना इन धर्मों में प्रतिबंधित होती है अतः कालांतर यह पतनोमुखी हो जाते हैं। जिन समाजों में उपासक शक्ति की उपासना नहीं करते वहां का वातावरण विविधता शून्य हो जाता है।समाज में घोर अशांति हिंसा क्लेश द्वंद दरिद्रता इत्यादि का ही सृजन होता है इसके विपरीत सनातन अर्थात सदा नित्य रहने वाला धर्म शक्ति के विविध स्वरूपों की उपासना होती है एवं यह पूर्णता वैज्ञानिक धर्म होता है। शक्ति की उपासना ही "श्री" उपासना है। श्री उपासना के अंतर्गत विभिन्न मात्रृ शक्तियों की समग्रता के साथ श्रेष्ठता के साथ संपूर्णता के साथ उपासना की जाती है श्री उपासना में साधक को प्रेतत्व से मुक्ति मिलती है। श्री यंत्र क्या है?श्री यंत्र के अंतर्गत मातृशक्ति के जितने भी रुप हैं सब के सब एक साथ पुष्पगुच्छ के रूप में समाहित हैं और षोडशी रूपी मात्रृ शक्ति इन सबके बीच क्रियाशील है। अतः इसकी उपासना विभिनता एवं शांति प्रदान करती है। जीवन में प्रचुरता श्रीयंत्र की आराधना से ही आती है। मनुष्य को मालूम है कि मृत्यु निश्चित है परंतु मनुष्य श्री उपासना के द्वारा मृत्यु को ढकेलता है जीवन को स्वरूप सर्वोपयोगी बनाता है एवं मृत्यु के पश्चात भी अमरांश की प्राप्ति करता है।वह सदैव नृत्य और नूतन रूप में जनमानस के बीच अपने श्री कर्मों से स्थापित रहता है। मृत्यु के पश्चात भी क्रियाशीलता संभव है आप देखिए जिन महामानवो, वैज्ञानिकों, तत्व चिंतकों एवं जन सेवकों ने अपने जीवन काल में उपयोगी कर्म सेवाएं लाभ एवं शुभ फल उत्पादित किए हैं वह आज भी जनमानस में पूजनीय प्रशंसनीय बने हुए हैं। श्री विद्या अमरत्व की प्राप्ति है। मनुष्य की मृत्यु निश्चित है तो मनुष्य के द्वारा भी असंख्य जीवो एवं प्राकृतिक की अन्य कृतियों को भी अकाल मृत्यु अवश्यंभावी है। एक अनित्य एवं मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य अपने जीवन काल में असंख्य प्राणियों की मृत्यु का कारण बन सकता है। एक अकेला मनुष्य साक्षात यम बन सकता है एक अकेला मनुष्य महा भयानक दैत्य भी बन सकता है एवं वह अपने क्रियाकलापों सोच अविष्कार इत्यादि से सूर्य से भी ज्यादा प्रचंड ताप उत्पन्न करके इस पृथ्वी को भस्म कर सकता है।एक मनुष्य इतना श्रीवान भी हो सकता है कि असंख्ऊ जीवो को सुरक्षा, पुनर्जीवन, शांति, आनंद जैसे सर्वोपयोगी क्षण भी प्रदान कर सकता है। सूर्य तो इस पृथ्वी पर से जीवन को नहीं मिटा रहा है बल्कि अपनी ऊर्जा से जीवन को शक्ति प्रदान कर रहा है परंतु मनुष्य सृष्टि का विनाश करने पर तुला हुआ है। यहीं पर श्री उपासना की आवश्यकता निरूपित होती है। यह पृथ्वी अनंत काल से जीव का पोषण कर रही है और यहीं पर मनुष्य रूपी श्रेष्ठ अनुकृति तेजी के साथ विकसित हो रही है। पृथ्वी अकारण ही मनुष्य विहीन ना हो जाए पृथ्वी सदैव समस्त प्रकार के जीवो के रहने के लिए बनी रहे यही श्री उपासना के अंदर निहित है। हमने जीवन लिया अपने जीवन काल में श्रेष्ठताके साथ प्राप्ति करें और जाने के बाद इस पृथ्वी को अपने कर्मों के द्वारा अपनी सोच, समझ, ज्ञान इत्यादि के माध्यम से कुछ इस प्रकार का शुभ तत्व प्रदान कर दें कि आने वालोके लिए यह पृथ्वी और अधिक शांति प्रिय आनंद प्रदान करने वाली मनोहारी सृष्टि बनी रहे। हमारे काल के बाद किसी और का काल आएगा एवं वह हमें मूल्यांकन करेगा कि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए क्या उपयोगी कार्य किया? क्या विरासत छोड़ी है? यही स्थिति व्यक्ति को अमरांश प्रदान करेगी। दुष्ट और असुर भी श्रृंखला से ही आते हैं ऊपर से कोई नहीं टपकता। 
                                                 
ऐसी श्रृंखलाएं रुके व्यक्ति चाहे तो मरुस्थल को भी उर्वरक बना सकता है नहीं तो नखलिस्तान भी रेगिस्तान बन सकता है यह है श्री विद्या। सकारात्मक शक्ति का उत्पादन सकारात्मक शक्ति का अनुसंधान एवं शोध। अध्यात्म भागने की कला नहीं है। आप हवाई जहाज देखते हैं दुकानों में समस्त भौतिक वस्तुओं को देखते हैं देखने से तो और असंतुष्टि बढ़ेगी। संतुष्टि तो तभी आएगी जब आप स्वयं हवाई जहाज में बैठ पाएंगे जिस वस्तु को देख रहे हैं उसे प्राप्त कर पाएंगे। इसी प्राप्ति के विधान के लिए श्रीयंत्र का अविष्कार किया गया है। जहां प्राप्ति होगी वही श्री का स्थापत्य होगा। मोक्ष भी प्राप्ति है सिद्धियां भी प्राप्ति है शरीर की प्राप्ति मस्तिष्क की मौजूदगी विभिन्न प्रकार के प्राप्तियो पर ही निर्भर है। अनेकों प्राप्तियों का महा संगठन है शरीर और इसी शरीर द्वारा पुनः प्राप्ति की जाती है। प्रत्येक प्राप्ति संतुष्टि की एक इकाई निर्मित करती है और इन इकाइयों से ही तृप्ति रूपी पवित्र शरीर निर्मित होगा। एक ना एक दिन तो तृप्ति आएगी ही और इसी तृप्ति से श्री की उत्पत्ति होगी। गाय जब तृप्त होगी तभी दूध देगी और यह सभी को मालूम है कि गाय के शरीर में दूध है परंतु वह सींग से नहीं निकलेगा गाय के अंदर पिंन चूभोने से दूध नहीं निकलेगा उसके लिए एक विशेष स्थान निर्धारित है वहीं से दूध का स्त्राव होगा।श्री विद्या के अंतर्गत तृप्ति का कार्य सबसे ज्यादा किया जाता है सभी तृप्त हो तभी सृष्टि में अमृत रूपी श्री शक्ति का उत्सर्जन होगा। सूर्य का प्रकाश तीक्ष्ण होगा तो कुछ दिखाई नहीं देगा बल्कि आंखें चौंधीआ जाएंगी क्षिण होगा तो अंधेरा हो जाएगा और मुश्किल होगी। षोडशी का प्रकाश दूधिया है अर्थात एक विशेष लालिमा लिए हुए इतने अति श्रेष्ठतम स्तर का है कि सब दिशाओं में सब कुछ दृश्य मान है। यही ब्रह्म मुहूर्त की विशेषता है कि तारागण भी दिखाई दे रहे हैं ध्रुव तारा भी चमक रहा है सप्तर्षी मंडल भी दृष्टिगत हो रहा है पशु पक्षी एवं अन्य दृश्य भी स्पष्ट हैं कुछ भी नहीं ऐसा है जो कि विस्मृत हो रहा है। षोडशी काल परम चैतन्य काल होता है यही एक जागृत मस्तिष्क की अवस्था होनी चाहिए दिन के बारह बजे चंद्रमा एवं नक्षत्र गण दिखाई नहीं देते। रात के बारह बजे सूर्य की लालिमा एवं वृक्ष भी दिखाई नहीं देते पर ब्रह्म मुहूर्त में सब कुछ दिखता है। मां त्रिपुर सुंदरी का प्रकाश ही ऐसा है वह तीनों लोकों को प्रकाशित करती है। वे स्वच्छ निर्मल एवं पवित्र प्रकाश है अतः वे साक्षात ब्रह्म विद्या है। श्री यंत्र की उपासना से धन-धान्य रूपी लौकिक एवं समस्त अलौकिक फलों की प्राप्ति होती है।

पूजन संबंधी जानने योग्य बातें ।।

(1). पंचोपचार _गन्ध , पुष्प , धूप , दीप तथा नेवैद्य द्वारा पूजन करने को ‘पंचोपचार’ कहते हैं।

(2). पंचामृत – दूध ,दही , घृत, मधु { शहद } तथा मिश्री [ शक्कर ] इनके मिश्रण को ‘पंचामृत’ कहते हैं।

(3). पंचगव्य – गाय के दूध ,दही,घृत , मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में ‘पंचगव्य’ कहते हैं।

(4). षोडशोपचार – आवाहन् , आसन , पाध्य , अर्घ्य , आचमन , स्नान , वस्त्र , अलंकार , सुगंध , पुष्प , धूप , दीप , नैवैध्य , अक्षत , ताम्बुल तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को ‘षोडशोपचार’ कहते हैं।

(5). दशोपचार – पाध्य , अर्घ्य , आचमनीय , मधुपक्र , आचमन , गंध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने की विधि को ‘दशोपचार’ कहते हैं।

(6). त्रिधातु –सोना , चांदी और लोहा कुछ आचार्य सोना ,चांदी , तांबा इनके मिश्रण को भी ‘त्रिधातु’ कहते हैं।

(7). पंचधातु – सोना , चांदी , लोहा , तांबा और जस्ता।

(8). अष्टधातु – सोना , चांदी, लोहा , तांबा , जस्ता , रांगा ,कांसा और पारा।

(9). नैवैध्य –खीर , मिष्ठान आदि मीठी वस्तुएं।

(10). नवग्रह –सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध , गुरु , शुक्र , शनि , राहु और केतु।

(11). नवरत्न – माणिक्य , मोती ,मूंगा , पन्ना , पुखराज , हीरा , नीलम , गोमेद , और वैदूर्य।

(12). अष्टगंध – अगर , तगर , गोरोचन , केसर , कस्तूरी ,,श्वेत चन्दन , लाल चन्दन और सिन्दूर { देवपूजन हेतु }
      अगर , लाल चन्दन , हल्दी , कुमकुम , गोरोचन , जटामासी , शिलाजीत और कपूर [ देवी पूजन हेतु ]

(13). गंधत्रय – सिन्दूर , हल्दी , कुमकुम।

(14). पञ्चांग – किसी वनस्पति के पुष्प , पत्र , फल , छाल ,और जड़।

(15). दशांश – दसवां भाग। 1/10

(16). सम्पुट –मिट्टी के दो शकोरों को एक-दुसरे के मुंह से मिला कर बंद करना।

(17). भोजपत्र – एक वृक्ष की छाल
मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकडा लेना चाहिए ,जो कटा-फटा न हो।

(18). मन्त्र धारण –किसी भी मन्त्र को स्त्री पुरुष दोनों ही कंठ में धारण कर सकते हैं ,परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहें तो पुरुष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण
करना चाहिए।

(19). मुद्राएँ –हाथों की अँगुलियों को किसी विशेष स्तिथि में लेने कि क्रिया को ‘मुद्रा’ कहा जाता है। मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं।

(20). स्नान –यह दो प्रकार का होता है।बाह्य तथा आतंरिक,बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान जप द्वारा होता है।

(21). तर्पण –नदी , सरोवर आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर , हाथ की अंजुली द्वारा जल गिराने की क्रिया को ‘तर्पण’ कहा जाता है। जहाँ नदी , सरोवर आदि न हो , वहां किसी पात्र में पानी भरकर भी ‘तर्पण’ की क्रिया संपन्न कर ली जाती है।

(22). आचमन – हाथ में जल लेकर उसे अपने मुंह में डालने की क्रिया को आचमन कहते हैं।

(23). करन्यास –अंगूठा , अंगुली , करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को ‘करन्यास’ कहा जाता है।

(24). हृद्याविन्यास –ह्रदय आदि अंगों को स्पर्श करते हुए मंत्रोच्चारण को ‘हृदय्विन्यास’ कहते हैं।

(25). अंगन्यास – ह्रदय ,शिर , शिखा , कवच , नेत्र एवं करतल – इन 6 अंगों से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को ‘अंगन्यास’ कहते हैं।

(26). अर्घ्य – शंख , अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्घ्य देना कहा जाता है घड़ा या कलश में पानी भरकर रखने को अर्घ्य-स्थापन कहते हैं।अर्घ्य पात्र में दूध ,तिल , कुशा के टुकड़े , सरसों , जौ , पुष्प , चावल एवं कुमकुम इन सबको डाला जाता है।

(27). पंचायतन पूजा – इसमें पांच देवताओं – विष्णु , गणेश ,सूर्य , शक्ति तथा शिव का पूजन किया जाता है।

(28). काण्डानुसमय** – एक देवता के पूजाकाण्ड को समाप्त कर ,अन्य देवता की पूजा करने को ‘काण्डानुसमय’ कहते हैं।

(29). उद्धर्तन – उबटन।

(30). अभिषेक** – मन्त्रोच्चारण करते हुए शंख से सुगन्धित जल छोड़ने को ‘अभिषेक’ कहते हैं।

(31). उत्तरीय – वस्त्र।

(32). उपवीत – यज्ञोपवीत [ जनेऊ ]।

(33). समिधा – जिन लकड़ियों को अग्नि में प्रज्जवलित कर होम किया जाता है उन्हें समिधा कहते हैं।समिधा के लिए आक ,पलाश , खदिर , अपामार्ग , पीपल ,उदुम्बर ,शमी , कुषा तथा आम की लकड़ियों को ग्राह्य माना गया है।

(34). प्रणव –ॐ।

(35). मन्त्र ऋषि – जिस व्यक्ति ने सर्वप्रथम शिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर उसे विधिवत सिद्ध किया था ,वह उस मंत्र का ऋषि कहलाता है। उस ऋषि को मन्त्र का आदि गुरु मानकर श्रद्धापूर्वक उसका मस्तक में न्यास किया जाता है।

(36). छन्द – मंत्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को ‘छन्द’ कहते हैं। यह अक्षरों अथवा पदों से बनता है। मंत्र का उच्चारण चूँकि मुख से होता है अतः छन्द का मुख से न्यास किया जाता है।

(37). देवता – जीव मात्र के समस्त क्रिया- कलापों को प्रेरित , संचालित एवं नियंत्रित करने वाली प्राणशक्ति को देवता कहते हैं यह शक्ति मनुष्य के हृदय में स्थित होती है ,अतः देवता का न्यास हृदय में किया जाता है।

(38). बीज– मन्त्र शक्ति को उद्भावित करने वाले तत्व को बीज कहते हैं। इसका न्यास गुह्यांग में किया जाता है।

(39). शक्ति*" – जिसकी सहायता से
बीज मन्त्र बन जाता है वह तत्व ‘शक्ति’
कहलाता है। उसका न्यास पाद स्थान में करते है।

(40). विनियोग**– मन्त्र को फल की दिशा का निर्देश देना विनियोग कहलाता है।

(41). उपांशु जप – जिह्वा एवं होठों को हिलाते हुए केवल स्वयं को सुनाई पड़ने योग्य मंत्रोच्चारण को ‘उपांशुजप’ कहते हैं।

(42). मानस जप – मन्त्र , मंत्रार्थ एवं देवता में मन लगाकर मन ही मन मन्त्र
का उच्चारण करने को ‘मानसजप’ कहते हैं।

(43). अग्नि की जिह्वाएँ – अग्नि की 7 जिह्वाएँ मानी गयी हैं , उनके नाम हैं –
   1. हिरण्या 2. गगना 3. रक्ता 4. कृष्णा 
   5. सुप्रभा 6.बहुरूपा एवं 7. अतिरिक्ता।

(44). प्रदक्षिणा –देवता को साष्टांग दंडवत करने के पश्चात इष्ट देव की परिक्रमा करने को ‘प्रदक्षिणा’ कहते हैं।

विष्णु , शिव , शक्ति , गणेश और सूर्य आदि देवताओं की क्रमशः 4, 1, 2 , 1, 3, अथवा 7 परिक्रमाऐं करनी चाहियें।

(45). साधना – साधना 5 प्रकार
की होती है – 
     1.अभाविनी 2. त्रासी 3. दोवोर्धी
     4. सौतकी 5.आतुरी।

     [1] अभाविनी – पूजा के साधन
तथा उपकरणों के अभाव से , मन से अथवा जल मात्र से जो पूजा साधना की जाती है , उसे‘अभाविनी’ कहा जाता है।
     [2] त्रासी –जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से अथवा मान्सोपचारों से पूजन करता है , उसे ‘त्रासी’कहते हैं। यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है।
     [3] दोवोर्धी – बालक , वृद्ध , स्त्री ,
मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के की जाने वाली पूजा‘दोर्वोधी’ कहलाती है।

[4] सौतकी -- सूतक में व्यक्ति मानसिक संध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें। ऐसी साधना को ‘सौतकी’ कहा जाता है।

[5] आतुरी --रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें 
देवमूर्ति अथवा सूर्यमंडल की ओर देखकर, एक बार मूल मन्त्र का जप कर उस पर पुष्प चढ़ाएं फिर रोग की समाप्ति पर स्नान करके गुरु तथा ब्राह्मणों की पूजा करके, पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगे – ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट देव का पूजनकरे तो इस पूजा को ‘आतुरी’ कहा जाएगा।

(46). अपने श्रम का महत्व –पूजा की वस्तुएं स्वयं लाकर तन्मय भाव से पूजन करने से पूर्ण फल प्राप्त होता है।अन्य व्यक्ति द्वारा दिए गये साधनों से पूजा करने पर आधा फल मिलता है।

(47). वर्जित पुष्पादि –
     [1] पीले रंग की कट सरैया , नाग चंपा तथा दोनों प्रकार की वृहती के फूल पूजा में नही चढाये जाते।
     [2] सूखे ,बासी , मलिन , दूषित तथा उग्र गंध वाले पुष्प देवता पर नही चढाये जाते।
     [3] विष्णु पर अक्षत , आक तथा धतूरा नही चढाये जाते।
     [4] शिव पर केतकी , बन्धुक { दुपहरिया } , कुंद , मौलश्री , कोरैया , जयपर्ण , मालती और
जूही के पुष्प नही चढाये जाते।
     [5]दुर्गा पर दूब , आक , हरसिंगार , बेल तथा तगर नही चढाये जाते।
     [6] सूर्य तथा गणेश पर तुलसी नही चढाई जाती।
     [7] चंपा तथा कमल की कलियों के अतिरिक्त अन्य पुष्पों की कलियाँ नही चढाई जाती।

(48). ग्राह्यपुष्प – 
    ~विष्णु पर श्वेत तथा पीले पुष्प , तुलसी
    ~ सूर्य , गणेश पर लाल रंग के पुष्प , 
    ~लक्ष्मी पर कमल,
    ~शिव के ऊपर आक , धतूरा , बिल्वपत्र तथा कनेर के पुष्प विशेष रूप से चढाये जाते हैं। 
    ~अमलतास के पुष्प तथा तुलसी को निर्माल्य नही माना जाता।

(59). ग्राह्य पत्र- – तुलसी , मौलश्री ,
चंपा , कमलिनी , बेल ,श्वेत कमल , अशोक ,
मैनफल , कुषा , दूर्वा , नागवल्ली , अपामार्ग ,
विष्णुक्रान्ता , अगस्त्य तथा आंवला इनके पत्ते देव पूजन में ग्राह्य हैं।

(50). ग्राह्य फल – जामुन , अनार , नींबू , इमली , बिजौरा , केला , आंवला , बेर , आम तथा कटहल ये फल देवपूजन में ग्राह्य हैं।

(51). धूप – अगर एवं गुग्गुल की धूप विशेष
रूप से ग्राह्य है ,यों चन्दन-चूरा , बालछड़ आदि का प्रयोग भी धूप के रूप में किया जाता है।

(52). दीपक की बत्तियां – यदि दीपक में अनेक
बत्तियां हों तो उनकी संख्या विषम रखनी चाहिए ।
   दायीं ओर के दीपक में सफ़ेद रंग की बत्ती तथा 
बायीं ओर के दीपक में लाल रंग की बत्ती डालनी चाहिए।

हवन ।।

अग्नि-सूक्त" ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त है ।
इसके ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र है। यह विश्वामित्र के पुत्र है ।
इसके देवता "अग्नि" हैं ।
इसका छन्द "गायत्री-छन्द" है ।
इस सूक्त का स्वर "षड्जकृ" है ।
गायत्री-छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन पाद (चरण) होते हैं । इस प्रकार यह छन्द चौबीस अक्षरों (स्वरों) का छन्द होता है ।
अग्नि-सूक्त में कुल नौ मन्त्र है ।
संख्या की दृष्टि से सम्पूर्ण वैदिक संस्कृत में इऩ्द्र (250) के बाद अग्नि (200) का ही स्थान है , किन्तु महत्ता की दृष्टि से अग्नि का सर्वप्रमुख स्थान है ।
स्वतन्त्र रूप से अग्नि का 200 सूक्तों में स्तवन किया गया है । सामूहिक रूप से सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में अग्नि का 2483 सूक्तों में स्तवन किया गया है ।
अग्नि पृथ्वी स्थानीय देवता है । इनका पृथिवीलोक में प्रमुख स्थान है 

अग्नि का स्वरूप
अग्नि शब्द "अगि गतौ" (भ्वादि. 5.2) धातु से बना है । गति के तीन अर्थ हैंः---ज्ञान, गमन और प्राप्ति ।
इस प्रकार विश्व में जहाँ भी ज्ञान, गति, ज्योति, प्रकाश, प्रगति और प्राप्ति है, वह सब अग्नि का ही प्रताप है ।
अग्नि में सभी दोवताओं का वास होता हैः---"अग्निर्वै सर्वा देवता ।" (ऐतरेय-ब्राह्मण---1.1, शतपथ---1.4.4.10) अर्थात् अग्नि के साथ सभी देवताओं का सम्बन्ध है । अग्नि सभी देवताओँ की आत्मा हैः---"अग्निर्वै सर्वेषां देवानाम् आत्मा ।" (शतपथ-ब्राह्मणः--14.3.2.5
आचार्य यास्क ने अग्नि की पाँच प्रकार से निरुक्ति दिखाई हैः---
(क) "अग्रणीर्भवतीति अग्निः ।" मनुष्य के सभी कार्यों में अग्नि अग्रणी होती है ।
(ख) "अयं यज्ञेषु प्रणीयते ।" यज्ञ में सर्वप्रथम अग्निदेव का ही आह्वान किया जाता है ।
(ग) "अङ्गं नयति सन्नममानः ।" अग्नि में पडने वाली सभी वस्तुओं को यह अपना अंग बना लेता है ।
(घ) "अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविः । न क्नोपयति न स्नेहयति ।" निरुक्तकार स्थौलाष्ठीवि का मानना है कि यह रूक्ष (शुष्क) करने वाली होती है, अतः इसे अग्नि कहते हैं ।
(ङ) त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः, इताद् अक्ताद् दग्धाद्वा नीतात् ।" शाकपूणि आचार्य का मानना है कि अग्नि शब्द इण्, अञ्जू या दह् और णीञ् धातु से बना है । इण् से "अ", अञ्जू से या दह् से "ग" और णीञ् से "नी" लेकर बना है (निरुक्तः---7.4.15)
कोई भी याग अग्नि के बिना सम्भव नहीं है । याग की तीन मुख्य अग्नियाँ होती हैंः---गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि । "गार्हपत्याग्नि" सदैव प्रज्वलित रहती है । शेष दोनों अग्नियों को प्रज्वलित किए बिना याग नहीं हो सकता ।
फलतः अग्नि सभी देवताओं में प्रमुख है ।

अग्नि का स्वरूप भौतिक अग्नि के आधार पर व्याख्यायित किया गया है 

(1.) अग्नि का रूप 
अग्नि की पीठ घृत से निर्मित है---"घृतपृष्ठ"। 
इसका मुख घृत से युक्त हैः--"घृतमुख" । इसकी जिह्वा द्युतिमान् है । दाँत स्वर्णिम, उज्ज्वल तथा लोहे के समान है । केश और दाढी भूरे रंग के हैं । जबडे तीखें हैं, मस्तक ज्वालामय है । इसके तीन सिर और सात रश्मियाँ हैं । इसके नेत्र घृतयुक्त हैंः--"घृतम् में चक्षुः ।" इसका रथ युनहरा और चमकदार है । उसे दो या दो से अधिक घोडे खींचते हैं । अग्नि अपने स्वर्णिम रथ में यज्ञशाला में बलि (हवि) ग्रहण करने के लिए देवताओं को बैठाकर लाते हैं । वह अपने उपासकों का सदैव सहायक होता है ।

(2.) अग्नि का जन्म 
अग्नि स्वजन्मा, तनूनपात् है । यह अपने आप से उत्पन्न होता है । अग्नि दो अरणियों के संघर्षण से उत्पन्न होता है । इसके लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है । इसका अभिप्राय है कि अग्नि का जन्म अग्नि से ही हुआ है । प्रकृति के मूल में अग्नि (Energy) है । ऋग्वेद के "पुरुष-सूक्त" में अग्नि की उत्पत्ति "विराट्-पुरुष" के मुख से बताई गई हैः--"मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च ।"

(3.) भोजन
अग्नि का मुख्य भोजन काष्ठ और घृत है । "आज्य" उसका प्रिय पेय पदार्थ है । यह यज्ञ में दी जाने वाली हवि को ग्रहण करता है ।

(4.) अग्नि कविक्रतु है
अग्नि कवि तुल्य है । वह अपना कार्य विचारपूर्वक करता है । कवि का अर्थ हैः--क्रान्तदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, विमृश्यकारी । वह ज्ञानवान् और सूक्ष्मदर्शी है । उसमें अन्तर्दृष्टि है । ऐसा व्यक्ति ही सुखी होता हैः---"अग्निर्होता कविक्रतुः ।" (ऋग्वेदः---1.1.5) क्रमशः

(5.) गमन
अग्नि का मार्ग कृष्ण वर्ण का है । विद्युत् रथ पर सवार होकर चलता है । जो प्रकाशमान्, प्रदीप्त, उज्ज्वल और स्वर्णिम है । वह रथ दो अश्वों द्वारा खींचा जाता है , जो मनोज्ञा, मनोजवा, घृतपृष्ठ, लोहित और वायुप्रेरित है ।

(6.) अग्नि रोग-शोक और पाप-शाप नाशक है :
अग्नि रोग-शोक , पाप-दुर्भाव, दुर्विचार और शाप तथा पराजय का नाश करता है । इसका अभिप्राय यह है कि जिसके हृदय में सत्त्व और विवेकरूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसके हृदय से दुर्भाव, दुर्विचार रोग-शोक के विचार नष्ट हो जाते हैं । वह व्यक्ति पराजित नहीं होता ---"देवम् अमीवचातनम् ।" (ऋग्वेदः--1.12.7) और "प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयः ।" (यजुर्वेदः--1.7)

(7.) यज्ञ के साथ अग्नि का सम्बन्ध :
यज्ञ के साथ अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है । उसे यज्ञ का "ऋत्विक्" कहा जाता है । वह "पुरोहित" और "होता" है । वह देवाताओं का आह्वान करता है और यज्ञ-भाग देवताओं तक पहुँचाता हैः---"अग्निमीऴे पुरोहितम् ।" (ऋग्वेदः--1.1.)

(8.) देवताओं के साथ अग्नि का सम्बन्ध 
अग्नि के साथ अश्विनी और उषा रहते हैं । मानव शरीर में आत्मारूपी अग्नि अपनी ऊर्जाएँ फैलाए हुए हैं । अश्विनी प्राण-अपान वायु है । इससे ही मानव जीवन चलता है 
इसी प्रकार उषाकाल में प्राणायाम, धारणा और ध्यान की क्रियाएँ की जाती हैं । अग्नि वायु का मित्र है । जब अग्नि प्रदीप्त होकर जलती है, तब वायु उसका साथ देता हैः---"आदस्य वातो अनु वाति शोचिः ।" (ऋग्वेदः--1.148.4)

(9.) मानव-जीवन के साथ अग्नि का सम्बन्ध :
अग्नि मनुष्य का रक्षक पिता हैः---"स नः पितेव सूनवेSग्ने सुपायनो भव ।" (ऋग्वेदः--1.1.9) उसे दमूनस्, गृहपति, विश्वपति कहा जाता है 

(10.) पशुओं से तुलना :
यह आत्मारूपी अग्नि हृदय में प्रकट होती है । यह हृदय में हंस के समान निर्लेप भाव से रहती है । यह उषर्बुध (उषाकाल) में जागने वालों के हृदय में चेतना प्रदान करता हैः----"हंसो न सीदन्, क्रत्वा चेतिष्ठो, विशामुषर्भुत्, ऋतप्रजातः, विभुः ।" (ऋग्वेदः--1.65.

(11.) अग्नि अतिथि है 
अग्नि रूप आत्मा शरीर में अतिथि के तुल्य रहता है और सत्यनिष्ठा से रक्षा करता है । इसका अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति सत्य का आचरण, सत्यनिष्ठ और सत्यवादी हैं, वह उसकी रक्षा करता है । यह अतिथि के समान इस शरीर में रहता है, जब उसकी इच्छा होती है, प्रस्थान कर जाता हैः--"अतिथिं मानुषाणाम् ।" (ऋग्वेदः--1.127.8)

(12.) अग्नि अमृत है 
संसार नश्वर है । इसमें अग्नि ही अजर-अमर है । यह अग्नि ज्ञानी को अमृत प्रदान करती है । अग्नि रूप परमात्मा मानव हृदय में वाद्यमान अमृत तत्त्व है । जो साधक और ज्ञानी हैं, उन्हें इस अमृतत्व आत्मा का दर्शन होता हैः---"विश्वास्यामृत भोजन ।" (ऋग्वेदः---1.44.5)

(13.) अग्नि के तीन शरीर :
अग्नि के तीन शरीर हैः--- स्थूल-शरीर सू्क्ष्म-शरीर और कारण-शरीर । हमारा अन्नमय-कोश और प्राणमय कोश वाला शरीर स्थूल शरीर है । मनोमय और विज्ञानमय कोश वाला शरीर सूक्ष्म शरीर है । आनन्दमय कोश वाला शरीर कारण शरीर हैः---"तिस्र उ ते तन्वो देववाता ।" (ऋग्वेदः--3.20.2)
अग्नि-सूक्त के मन्त्र :
(1.) ॐ अग्निमीऴे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ।।
(2.) ॐ अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।
स देवाँ एह वक्षति ।।
(3.) ॐ अग्निना रयिमश्नवत् पोषमिव दिवेदिवे ।
यशसं वीरवत्तमम् ।।
(4.) ॐ अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।
स इद् देवेषु गच्छति ।।
(5.) ॐ अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।
देवो देवेभिरागमत् ।।
(6.) ॐ यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत् सत्यमङ्गिरः ।।
(7.) ॐ उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
मनो भरन्त एमसि ।।
(8.) ॐ राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्धमानं स्वे दमे ।।
(9.) ॐ स नः पितेव सूनवेSग्ने सूपायनो भव ।
सचस्वा नः स्वस्तये ।।
(ऋग्वेदः--1.1.1--9)
१. ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम होतारं रत्नधातमम ॥१॥
हम अग्निदेव की स्तुति करते है (कैसे अग्निदेव?) 
जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले ), 
देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज ( समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवो का आवाहन करनेवाले) और याचको को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से ) विभूषित करने वाले है ॥१॥
२. अग्नि पूर्वेभिॠषिभिरिड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति ॥२॥
जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि ) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करे ॥२॥ 

३. अग्निना रयिमश्न्वत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम् ॥३॥
.
(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं ॥३॥
४. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति ॥४॥

हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है ॥४॥
५. अग्निहोर्ता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: । देवि देवेभिरा गमत् ॥५॥

हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ॥५॥
६. यदग्ङ दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत्तत् सत्यमग्ङिर: ॥६॥
हे अग्निदेव। आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥६॥
७. उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि॥
हे जाज्वलयमान अग्निदेव । हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥७॥
८.राजन्तमध्वराणां गोपांमृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥८॥
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥८॥
९. स न: पितेव सूनवेग्ने सूपायनो भव । सचस्वा न: स्वस्तये ॥९
हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे ॥९॥