श्रीविद्या साधना के अंतर्गत अप्सरा सिद्धि जातक को प्राप्त होती है। अप्सराएं दयालू प्रवृत्ति की अहिंसक शक्तिपुंज हैं। खगोल के माध्यम से ही सभी कुछ इस पृथ्वी पर आता है। समस्त संवेग खगोल अर्थात आकाश के माध्यम से ही मानव मस्तिष्क को उत्प्रेरित करते हैं, अप्सराएं वो जीवन शक्ति का प्रचण्ड माध्यम हैं जिनके द्वारा मस्तिष्क का पोषण होता है। ये मस्तिष्क के रस विज्ञान को परम संतुलित रखती हैं एवं उसे सदैव रसमयी बनाये रखती हैं। साधनाकाल में जातक खगोलीय मस्तिष्क एवं खगोलीय शरीर को प्राप्त कर लेता है, वह आकाश की अनंत ऊंचाईयों में विचरण करने लगता है। ऐसे खगोलीय मस्तिष्क अत्यधिक क्रियाशील हो जाते हैं उनमें नित नये विचार, चिंतन, सृजनात्मकता इत्यादि अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। इन असामान्य परिस्थितियों में अप्सराएं ही जातक के खगोलीय मस्तिष्क का वास्तविक पोषण करने में सक्षम होती है।
हे सागर कन्याओं, हे सागर की पुत्रियों, हे लक्ष्मी की बहिनों, हे भगवान धन्वन्तरी की बहनों, हे रत्न प्रियाओं, हे अमृत-युक्ताओं तुम सबको मेरा बारम्बार नमस्कार है। अप्सराएं श्रीहरि की सालियाँ हैं, श्रीहरि की परम प्रियायें हैं क्योंकि वे सब भगवती लक्ष्मी की बहिनें हैं और सागर मंथन के समय लक्ष्मी जी से पहले उत्पन्न हुई हैं। भगवान धन्वन्तरी जो कि देवताओं को भी आरोग्य प्रदान करते हैं वे अप्सराओं के भाई हैं। समस्त रत्न अप्सराओं के साथ ही समुद्र मंथन के समय उत्पन्न हुए हैं अतः अप्सराओं में रत्नों सी चमक है। ये अप्सराएं कल्प- वृक्ष स्वरूपा हैं क्योंकि कल्पवृक्ष भी समुद्र मंथन में उत्पन्न हुआ है। कल्पवृक्ष का तात्पर्य है समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला वृक्ष।
समुद्र मंथन में जब कामधेनु उत्पन्न हुईं तो ऋषियों ने उन्हें ले लिया, कामधेनु के दुग्ध का पान करके ही ऋषि-मुनि अपने मस्तिष्क एवं शरीर का पोषण करते हैं अतः अप्सराएं भी दिव्य वृक्ष-स्थल की मल्लिकाएं हैं। तप से तपे हुए विश्वामित्र का मस्तिष्क मेनका रूपी अप्सरा के वक्ष स्थल पर ही स्थित होकर शीतल हुआ। जिस प्रकार इन्द्र का ऐरावत हाथी जो कि समुद्र मंथन के समय अप्सराओं के साथ उत्पन्न हुआ है द्रुत गति से ब्रह्माण्ड में कहीं भी विचरण कर सकता है ठीक उसी प्रकार अप्सरा भी द्रुत गति से समस्त लोकों में विचरण करने हेतु सक्षम हैं। अप्सराओं की उत्पत्ति के समय ही ब्रह्मा ने उन्हें समस्त लोकों में विचरण का अधिकार दिया, ब्रह्मा ने स्वयं अप्सराओं को परम स्वतंत्रता प्रदान की। समुद्र मंथन में जो-जो भी उत्पन्न हुआ उन सब पर वर्ग विशेष का अधिकार रहा परन्तु केवल अप्सराओं को वर्ग विशेष के अधिकार से मुक्त रखा गया उन्हें किसी भी प्रकार से बंधन-युक्त नहीं किया गया।
भगवती लक्ष्मी श्रीहरि धाम चली गईं परन्तु अप्सराएं आज भी सभी जगह विचरण करती हैं। समुद्र मंथन में अमृत भी प्रकट हुआ, समुद्र मंथन में मदिरा भी प्रकट हुई इसलिए अप्सराओं का सौन्दर्य मादक है, इसलिए अप्सराओं का सौन्दर्य अमृतमयी है। विश्व के सभी धर्मों ने एक स्वर में अप्सराओं की उपस्थिति का प्रमाणीकरण किया है। ईसाई धर्म में इन्हें ऐन्जल कहा गया, इस्लाम में इन्हें जन्नत की हूर कहा गया, बौद्ध धर्म में इन्हें देव-कन्या कहा गया, सनातन धर्म में इन्हें अप्सरा कहा गया इत्यादि-इत्यादि। कहीं पर भी इनके अस्तित्व को नकारा नहीं गया। समुद्र मंथन क्यों किया गया ? समुद्र मंथन का एकमात्र उद्देश्य था ब्रह्मा द्वारा सृजित सृष्टि की रुग्णता, शिथिलता, बोझिलता एवं लकवा-ग्रस्तता को दूर करना। सृष्टि की रचना एक बात है, सृष्टि चलाना एवं उसे क्रियाशील करना दूसरी बात है जिसमें ब्रह्मा जी सर्वथा असमर्थ सिद्ध हो रहे थे। जीवन प्राप्त करने से क्या होगा ? निराशा युक्त, लक्ष्यहीन, आनंदहीन, शक्तिहीन, बोझिल, ढला हुआ, वृद्धता की ओर अग्रसर होता हुआ जीवन किस काम का। इस स्थिति में तो जीवन की उत्पत्ति पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। ब्रह्मा जी की सृष्टि पर तो अनेकों प्रश्न चिन्ह लगे हुए हैं अतः भगवती त्रिपुर सुन्दरी एवं देवाधिदेव महादेव भगवान शिव की अंतःप्रेरणा से समुद्र मंथन का प्रयोजन किया गया जिससे कि जीवन- दायिनी शक्तियों का, जीवन के प्रवाह को सुगम बनाने वाली शक्तियों का, जीवन को आनंददायी, मधुरतम एवं क्रियाशील करने वाली शक्तियों का उत्पादन किया जा सके।
कर्म के ताप को नियंत्रित किया जा सके और इसके साथ-साथ जीवन जीने के प्रति लालसा, उत्साह के भाव बने रहे इस हेतु अप्सराओं की उत्पत्ति की गई। शक्ति का एक विशेष रूप में अनुसंधान किया गया। जब-जब जीवन उत्साहहीन एवं निरर्थक होने लगता है तब-तब अप्सराएं उसमें पुनः प्राण फूंकती हैं।
भगवती महाअप्सरा हैं और अप्सराओं का निर्माण करती हैं। अप्सरा साधना पूर्णिमा या फिर चंद्रकला की उपस्थिति में करनी चाहिए। अप्सराएं चंद्र मण्डल के माध्यम से ही चंद्र रश्मियों के द्वारा ही गमन करती हैं। ध्यान रहे चंद्रमा की उत्पत्ति भी समुद्र मंथन के दौरान हुई है। ग्रह नक्षत्र मण्डलों में भगवान शनि के पास सबसे ज्यादा अप्सराएं हैं, 16 अप्सराओं का समूह शनि मण्डल में गमन करता है। ये अप्सराएं अगर शनि मण्डल में नहीं होती तो न जाने शनि महाराज कब के वृद्ध होकर परलोक सिधार गये होते। निरंतर कर्मशील भगवान सूर्य के रथ के आगे अप्सराएं चलती रहती हैं और सूर्य देव को प्रसन्नता प्रदान करती रहती हैं। अप्सरा साधना कभी भी उन्हें माता समझकर न करें, अप्सराएं संतान उत्पत्ति नहीं करती हैं, वे किसी बंधन में नहीं बंधती, वे किसी की पत्नी नहीं बनती अपितु वे एक अच्छी मित्र, अच्छी सहयोगी, अच्छी प्रेयसी के रूप में सब कुछ प्रदान करती हैं। स्त्री सौन्दर्य का विकास तभी सम्भव है जब उसके साथ किसी अप्सरा विशेष का गमन अवश्यम्भावी हो। रूप, लावण्य, ऐश्वर्य, नृत्य, मुस्कान, पवित्र हृदयता, छलकता हुआ यौवन बाजार में नहीं मिलता, औषधि की दुकान पर नहीं मिलता अपितु इसकी एकमात्र प्रदात्री हैं अप्सराएं।
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