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।। श्री हनुमत महामंत्र ।।
रावण के प्रति नख भर का भी सम्मान वैदिक संस्कृति के प्रति द्रोह है।
बुढ़िया माता मंदिर ।।
किसी भी बीमारी को नष्ट करने में असरकारक है यह नाम त्रय अस्त्र मंत्र ।।
मंत्र प्रभाव ।।
दशहरा ।।
● दशहरा या विजयादशमी सनातन धर्म का एक प्रमुख त्योहार हैं, यह पर्व असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता हैं। पंचांग के अनुसार अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दसवीं तिथि को इसका आयोजन होता है। अश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय विजय नामक मुहूर्त होता हैं।
सिद्ध महापुरुषों की गुप्त तपस्थलियाँ ---
पुनर्जन्म रहस्यम् ।।
आदि गुरु शंकराचार्य जी ने कहा है
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥
अर्थात फिर से जन्म, फिर से मरण और पुनः माता के गर्भ में शयन । इस संसार में कष्ट ही कष्ट हैं। समस्याऐं ही समस्याऐं हैं। हे प्रभु! आप मुझे इस चक्र से मुक्त कीजिए। पृथ्वी पर जन्म लेना ही अत्यधिक कष्टप्रद है। संसारी व्यक्तियों के लिए जन्म केवल माता के गर्भ से बाहर आने पर ही माना जाता है मृत्यु शरीर त्यागने को माना जाता है यह तो एक महाचक्र की कुछ कड़ियाँ हैं। सांसारिक दृष्टिकोण अत्यंत ही सीमित होता है। माता के गर्भ में जीवन के स्पंदन से पहले अनंत कड़ियाँ हैं और मृत्यु के पश्चात् भी अनंत स्थितियाँ हैं। अतः समग्रता के साथ पुनर्जन्म को समझना है, स्वयं की खोज करना है तो सभी कड़ियों को समझना पड़ेगा। उसी के हिसाब से चिंतन को ढालना होगा, कर्मों को सम्पादित करना होगा तब कहीं जाकर हमारे जन्म लेने की वास्तविकता से हम परिचित हो सकेंगे।
पुनर्जन्म विज्ञान महाविज्ञान है। इसको समझे बिना, इसको परखे बिना हम सामान्य व्यक्ति की श्रेणी से ऊपर नहीं उठ सकते। अध्यात्म की तो बात करना भी मुश्किल है। अतः सभी ऋषियों ने ज्ञानियों ने एवं इस पृथ्वी के सभी धर्मों ने किसी न किसी रूप में पुनर्जन्म की महत्ता स्वीकार की है। विशेषकर इस पृथ्वी के सबसे शाश्वत् एवं मूल वैदिक धर्म ने तो इसकी विस्तृत व्याख्या की है। केवल चर्वाक दर्शन ही सनातन धर्म में एक ऐसा दर्शन हुआ है जिसने कि पुनर्जन्म की व्याख्या नहीं की है। इस कलियुग में अधिकांशतः देशों में चर्वाक दर्शन की निष्कृष्टता के कारण ही मनुष्य अत्यंत भोगी हो गया है। चर्वाक का तो कथन है कि
यावज्जीवं सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबे।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थात घर में घी न हो तो उधार लेकर पियो। जितना हो सके मौज करो, जितना हो सके भोग करो। जो दिल चाहे वह स्वच्छंदतापूर्वक करो। सिर्फ अपने बारे में सोचो। स्वयं स्वार्थ सिद्धि करो एवं सभी रिश्तों को एक ताक पर रख दो जीवन का उद्देश्य भोग एवं केवल भोग है।
यह है चर्वाक दर्शन जो कि द्वापर में युधिष्ठिर के समक्ष चर्वाक ने रखा था। उस युग के अनुसार इन्हें जीवित चिता पर जला दिया गया था। वह प्रभु श्रीकृष्ण का युग था अधर्म के सम्पूर्ण नाश का युग था। उस युग में सभी अधर्मियों का युधिष्ठिर के नेतृत्व में प्रभु श्रीकृष्ण के द्वारा सर्वनाश हुआ था। चर्वाक का भी सर्वनाश हुआ। इसके पश्चात आज भी अनंत लोग इस पृथ्वी पर चर्वाक के सिद्धांत का अनुसरण जाने अनजाने में करते ही हैं। अंत क्या होता है? यह सबको मालुम है। भोगियों का अंत अत्यंत ही हृदय विदारक होता है। चर्वाक ने वास्तव में जो परम्परा स्थापित करने की कोशिश की उसका दण्ड तो उसे उसके जीवन में मिल ही गया। प्रभु श्रीकृष्ण ने यह दिखा दिया कि जो भी व्यक्ति चर्वाक के सिद्धांतों पर चलेगा उसका अंत उसके तथाकथित गुरु चर्वाक के समान ही होगा।
इसीलिए इस पृथ्वी पर रुदन है शोक है, धोखा है, रोग है, क्योंकि यह सब चर्वाक सिद्धान्त के फल हैं। कर्म के सार्वभौमिक सिद्धान्त को झुठलाने की प्रक्रिया ही चर्वाक सिद्धान्त है। चर्वाक को समझना अत्यधिक आवश्यक था अन्यथा पुनर्जन्म की व्याख्या संभव नहीं है। जिनके मस्तिष्क में चर्वाक घुसा हुआ हो वे पुर्नजन्म की बात न करें तो अच्छा है। चर्वाक रूपी मस्तिष्क ही इस संसार की समस्त वेदनाओं और समस्याओं की जड़ है। आजकल लोग कहते हैं कि साधु संतों की अत्यधिक भीड़ हो गई है। इसमें क्या बुराई है, यह क्यों हुआ ? इसे आपको समझना होगा। लोगों के दृष्टिकोण अत्यधिक सांसारिक हो गये हैं। इन्द्रियों की गहराई कम हो गई है। इन्द्रियाँ सिकुड़ एवं संकीर्ण हो गई हैं। लोच का हर जगह अभाव मिल रहा है। यंत्रवत जीवन शैली ही हर तरफ दिखाई पड़ती है। साधु संतों में प्रज्ञा का विकास सामान्य लोगों की अपेक्षा अधिक होता है। इसीलिए वे सत्य को अधिकतम सीमा तक पहचानते हैं। मनुष्य के अंदर समझने की शक्ति है। समझने की शक्ति ही ज्ञान प्राप्ति में अत्यधिक सहायक है। जैसे-जैसे समझने की शक्ति विस्तृत एवं सूक्ष्म से सूक्ष्म होती जाती है वैसे- वैसे मनुष्य गूढ़ ज्ञान, गुह्य ज्ञान, तत्व् ज्ञान, महाज्ञान एवं दिव्य ज्ञान और अंत में ब्रह्म ज्ञान की आवृत्तियों में प्रवेश करता जाता है।
ज्ञान प्राप्ति के अभाव में मुक्ति असम्भव है। साधु-संत अपनी स्थितिनुसार विभिन्न माध्यमों से ज्ञान को सामान्य जनों के सामने उपस्थित करते हैं। मानना न मानना अलग बात है। यह भी ईश्वर का एक विधान है।
जिस प्रकार बरसात से पहले आकाश अचानक मेघमय हो जाता है और समझदार प्राणी अपने आपको सुरक्षित जगहों पर छिपा लेते हैं उसी प्रकार ईश्वर भी ज्ञानी पुरुषों के माध्यम से चेतावनी प्रकट करता है। आपके माता पिता आपको समझाते हैं कि आप पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दो,व्यापार व्यवसाय पर ध्यान दो आप नहीं मानते हैं तो फिर उसका नतीजा भुगतते हैं। नतीजा भोगने वाले भी एक प्रकार से जीते जागते उदाहरण हैं सभी जनमानस के लिए जो कि ईश्वर द्वारा रचित परम सूक्ष्म कर्म व्यवस्था का पालन नहीं करते हैं। चोरी करना महापाप है सभी को मालुम है फिर भी लोग चोरी करते हैं। उन्हें राज्य की तरफ से दण्ड मिलता है वे जीते जागते उदाहरण बन जाते हैं अन्य लोगों के लिए।
निरपेक्ष भाव से देखें तो इस संसार में दो स्थितियां सामने उभर कर आती हैं। प्रथम जिसमें ईश्वर एक ऐसी व्यवस्था निर्मित करता है जो कि सृष्टि संचालन के लिए अत्यधिक उपयुक्त हो। दूसरी तरफ ईश्वर मनुष्य के साथ-साथ प्रत्येक प्राणी को उसके कर्म सम्पादित करने के लिए एक विस्तृत सीमा तक छूट भी देता है। मनुष्य को पूर्ण स्वतन्त्रता है कर्म सम्पादित करने के लिए। सभी को मालुम है कि भोगवाद उचित नहीं है फिर भी इस पृथ्वी पर ईश्वर ने भोगवादी संस्कृति की भी पूरी छूट दे रखी है। यह प्रमाणीकरण का सबसे उपयुक्त तरीका है। भोग करके भी देख लो। अति में भी भोग करके देख लो। पाश्चात्य मुल्कों में भोग की इतनी अति भी निर्मित कर दी गई है कि वह परम विकृति के अंतिम बिन्दु तक पहुंच गई है।वहां पर भी पहुँचकर मनुष्य को संतुष्टि प्राप्त नहीं होती। यही ईश्वर की मार है। उसकी लाठी जब चलती है। तो दिखाई भी नहीं देती है और न ही आवाज होती है फिर भी चोट तगड़ी लगती है।
पुनर्जन्म की व्याख्या से पहले वर्तमान की भोग व्याख्या अत्यधिक आवश्यक थी।अब बात करते हैं पुनर्जन्म के कुछ अंतरंग पहलुओं की । पूर्वजन्म क्या है? कुछ भी नहीं सिर्फ जो वर्तमान चल रहा है बस उसी का भूतकाल। वर्तमान की प्राप्ति पूर्वजन्म आधारित है। सामान्य मनुष्य से ऊपर उठने की जैसे ही हम कोशिश करते हैं हमें तुरंत ही पूर्वजन्म की स्थितियों को जानना होगा। वर्तमान का विशेषण ही पूर्वजन्म की व्याख्या है। एक व्यक्ति जैसे अध्यात्म की तरफ बढ़ता है, स्वयं का निरीक्षण शुरू करता है, ध्यानस्थ होने के लिए बैठता है तो उसे क्रोध आने लगता है। कभी-कभी आँखों से आँसू भी आ जाते हैं, बचपन की यादें ताजा हो उठती हैं,उसे अपना अपमान याद आने लगता है। वह घबरा उठता है और तुंरत ही ध्यान से उठकर भागने लगता है। भागने से क्या होगा?अभी तो इसी शरीर से सम्पन्न किए गये कर्मों के अवशेष बाकी हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति निरपेक्ष भाव से अपने मानस पर जमी धूल साफ करता जायेगा उसे अपना पूर्वजन्म दिखलाई पड़ने लगेगा।पूर्व जन्म कुछ भी नहीं है बस सिर्फ कर्मों की श्रंखला है।
कर्मों से मुक्ति किसी को भी नहीं है। कर्म सभी को सभी योनियों में, सभी लोकों में सम्पन्न करने पड़ते हैं। देवलोक में भी कर्म हैं, नर्क में भी कर्म हैं। श्रंखला सम्पन्न करने के लिए ही आत्मा को शरीर धारण करना पड़ता है। सूर्य के प्रकाश से भोजन बनाने के लिए वृक्ष योनि में ही जाना पड़ेगा। नृत्य कर्म सम्पादित करने के लिए नर्तकी ही बनना पड़ेगा। दिव्य भोगों को भोगने के लिए स्वर्ग लोक में जाकर स्वर्गानुसार दिव्य देह ही धारण करती होगी। जैसा लोक होगा उसी के अनुसार देह की प्राप्ति होगी और उस लोक में लोकानुसार कर्मों को ही सम्पादित करना होगा। स्वर्ग में संतानोत्पत्ति नहीं की जाती।देव लोक में असुरी कर्म सम्पादित नहीं कर सकते।पितृलोक में रहकर अपने वंशजो द्वारा प्रदत्त तर्पण और श्राद्ध रूपी भोजन से ही स्वयं को तृप्त करना पड़ेगा। पूजन का दशांश प्रभु ने केवल देवताओं के लिए ही निश्चित किया है। यज्ञानुष्ठान की आहुतियां केवल देवता ही ग्रहण कर सकते हैं। यही तो मूल कारण है देवताओं और असुरों के बीच युद्ध का।
देवता और असुर दोनों एक ही पिता से उत्पन्न हुए हैं परन्तु प्रजापति ने असुरों को दिव्यनुष्ठानों एवं पूजन इत्यादि के दशांश से वंचित कर दिया और इसी कारण से असुर शक्तियाँ देवताओं पर कुपित हो उठीं। अनंत काल से बस यही बात युद्ध का कारण बनी हुई है। यही है पुनर्जन्म का मूल कर्म सिद्धान्त इसी कर्म सिद्धान्त की प्रभु श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवत गीता में व्याख्या की है।असुर अपना कर्म सम्पन्न करेंगे, देवता अपना कर्म एवं परम परमेश्वर को भी अपना कर्म सम्पादित करना पड़ता है। जितनी भी दिव्य महा शक्तियां हैं वे सबकी सब अपने मूल कर्मों के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं। महादेव भी प्रतिबद्ध है वरदान देने के लिए, विष्णु भी प्रतिबद्ध है ब्रह्माण्ड के पालन के लिए एवं दुष्टों के दलन के लिए ब्रह्मा भी प्रतिबद्ध हैं सृष्टि की रचना के लिए।
जब भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि जब-जब इस पृथ्वी पर अधर्म बढ़ेगा मुझे देह धारण करनी ही पड़ेगी। जैसे ही मुझे देह धारण करनी पड़ेगी हे पार्थ। तुझे भी देह धारण करनी ही पड़ेगी। जब- जब मैं इस पृथ्वी पर आऊंगा तुझे भी पृथ्वी पर आना ही पड़ेगा। यह तो निश्चित ही है। अतः तू मुझे पहचान। आगे प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं मैं इस पृथ्वी पर अनेकों बार आया हूँ। तू भी अनेकों बार आया है। तू अपने जन्मों को भूल गया है परन्तु मैं कुछ भी नहीं भूला हूँ। वृक्ष से निकला हुआ नया बीज पुनः पृथ्वी पर नये वृक्ष की रचना कर देता है। वृक्ष में लगे नये पत्ते सोचें कि अगर वे पहली बार उगे हैं तो यह मूर्खता है। अनंतकाल से हर वृक्ष में पत्ते होते हैं। हमारी आकाश गंगा रूपी महावृक्ष से पुनः बीज रूपी जीवन ब्रह्माण्ड में कहीं एक और समान आकाश गंगा उदित कर देगा। बीज सभी के होते हैं। उस आकाश गंगा में भी ठीक इस आकाश गंगा के समान ही सूर्य, चंद्र, ब्रहस्पति, शुक्र इत्यादि जैसे ग्रह नक्षत्रिकाएं अनेकों उपग्रह एवं असंख्य तारागण समूह होंगे। आकाश गंगाओं के भी बीज होते हैं। यही है महाज्ञान यही है ब्रह्मज्ञान । श्रंखलाबद्ध जीवन।
रामानुजाचार्य के गुरु ब्रह्मज्ञानी थे। मृत्यु के समय जैसे ही उनका प्रिय शिष्य रामानुजाचार्य उनके नजदीक पहुँचा वह देखता है कि गुरु की तीन उँगलियां उठी हुई हैं वह तुरंत ही समझ गये कि गुरु के तीन कार्य अधूरे रह गये हैं। उन्होंने तुरंत ही शपथ ली कि मैं अपने जीवन में ब्रह्मसूत्र, महाज्ञान प्रबंधन एवं वेदान्त दर्शन पर तीन टीकाएं अवश्य लिखूंगा। गुरु अपने अधूरे कार्यों की श्रंखला शिष्य को प्रदान करके चले गये। वैदिक दर्शन पूरी तरह से पुनर्जन्म आधारित है। इस दर्शन की एक एक श्रृंखला में पूर्वजन्म के कर्मों को सम्पादित करने की पूरी व्यवस्था है। वेदान्त दर्शन से भागने में क्या होगा ? जिस दिन मनुष्य भागने में सक्षम हो जायेगा पलायन का सिद्धान्त सफल हो जायेगा और उस दिन ईश्वर का मूल्य ही क्या रह जायेगा। ईश्वर की तो छोड़िये अगर स्थूल कर्मों का सिद्धान्त ही खण्डित हो जाये तो फिर सभी भगवान हो जायेंगे। जब सभी भगवान हो जायेंगे तो फिर भगवान को कौन पूजेगा। सभी भगवान नहीं हो सकते। सभी मनुष्य नहीं हो सकते, सभी देवता भी नहीं हो सकते एवं सभी असुर, पशु या वृक्ष भी नहीं हो सकते। यही तो विशेषता है ईश्वर की।
एक पेड़ से कई बीज गिरते हैं और कई वृक्ष उगते हैं। सभी के कर्म समान होते हैं और आम के सभी वृक्षों में से आम ही उँगेंगे। यह है देह धारण करने का सिद्धान्त । आपका गोत्र भारद्वाज है तो फिर आपके आदि ऋषि भारद्वाज की चेतनानुसार ही आप देह धारण करेंगे। आप अगर क्षत्रिय कुल में पैदा हुए हैं तो फिर क्षत्रियोचित्त कर्म आपकी जीवन शैली में निश्चित ही दिखाई पड़ेगें। इन कर्मों , को आपको सम्पादित करना ही पड़ेगा। इनसे आप भाग नहीं पायेंगे। कुछ दिन भागने के पश्चात् गड़बड़ होना शुरू हो जायेगी। आपको अपने कर्मों पर पुनः लौटना पड़ेगा। एक जगह राम लीला चल रही थी। रावण जोर से अट्टाहास कर रहा था, सीता हाय राम हाय राम कह विलाप कर रही थी। राम लक्ष्मण और हनुमान रावण से युद्ध कर रहे थे। जनता जनार्दन भावावेश में चिल्ला रही थी। तत्पश्चात् पर्दा गिरता है कुछ लोग पीछे जाकर देखते हैं कि ड्रेसिंग रूम में सीता रावण के पास खड़ी मुस्कुरा रही है। राम और लक्ष्मण हँस-हँस कर रावण से बात कर रहे हैं और हनुमान जी सबको चाय पिला रहें हैं।
आपके मस्तिष्क में इतनी ताकत होनी चाहिए कि आप राम लीला के पात्रों के इस दृश्य को पचा सकें। अगर इनको भी नहीं पचा पाओगे तो फिर ईश्वर की परम लीला के पीछे के दृश्यों को क्या पचाओगे। जीवन के रंगमंच पर नाटक तो करने ही पड़ते हैं। अभिनय तो जीवन का हिस्सा है। वर्तमान जीवन पूर्वजन्म के कर्मों को अभिनीत करने का अच्छा रंग मंच है। कर्म कष्ट, प्रायश्चितों और पापों को वर्तमान जीवन में ही धोया जा सकता है, काटा जा सकता है। इसके साथ ही वर्तमान के कर्मों को इस प्रकार से सम्पन्न किया जा सकता है कि आने वाला जीवन या जन्म हमारी इच्छानुसार ही प्राप्त हो। यही विधान है उचित लोक, उचित योनि एवं उचित भोग को प्राप्त करने का। जब तक पूर्व जन्मकृत कर्मों का सम्पादन नहीं होगा, पूर्व जन्मकृत ऋणों का भुगतान नहीं होगा तब तक स्वतंत्र और इच्छानुसार योनि प्राप्ति असम्भव है।
कष्ट, समस्यायें तो सिर्फ परिणाम हैं, भुगतान हैं हमारे पूर्व जन्मकृत कर्मों का। जैसे ही हम सूक्ष्मतम दृष्टिकोण अपनायेंगे हमें हमारी जिम्मेदारियां, हमारे वायदे, हमारे अधूरे कार्य एक-एक कर दिखाई पड़ते जायेंगे। जिन्हे हमने कभी किसी जीवन में अपूर्ण स्थिति में छोड़ दिया था। यही कर्म हमें पूरा करने के लिए बार-बार बाध्य करते हैं। ईश्वर एक पर्दा डालकर रखता है।
शंकरं प्रेमपिण्डम् ।।
शंकरं प्रेमपिण्डम्
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गणेश को लोग सामान्यतः शिव और शिवा का पुत्र समझ लेते हैं इससे आगे नहीं। यही गलती कुबेर ने की उन्हें केवल शिव पुत्र के रूप में भोजन हेतु आमंत्रित कर लिया परन्तु गणेश ने अपनी लीलाओं से यह सिद्ध कर दिया कि वे परम परमेश्वर हैं, अलख निरंजन हैं। कुबेर ने अपने दोनों कान पकड़े और गणेशजी के सामने उठक-बैठक लगाने लगे इसे कहते हैं "दोर्भि कर्ण उपासना" अर्थात न पहचानने की भूल, कम आंकने की भूल, कुछ कम समझने की भूल । गणेश के साथ हमेशा से यही हुआ है कि उन्हें कम समझा गया, कम आंका गया है और जब-जब जिस भी देवता ने ऐसा किया उसे “दोर्भि कर्ण उपासना" करनी पड़ी। यहाँ तक कि शिव को भी "दोर्भि कर्ण उपासना " करनी पड़ी, माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी को भी "दोर्भि कर्ण उपासना" करनी पड़ी, विष्णु को भी "दोर्भि कर्ण उपासना करनी पड़ी, आप सबको भी "दोर्भिकर्ण उपासना करनी पड़ेगी।
हमारे देश में तामिलनाडू एवं महाराष्ट्र सबसे विकसित प्रदेशों में से आते हैं। अन्य प्रदेशों की अपेक्षा यहाँ पर जन्म लेने वाले लोग ज्यादा सुसम्पन्न, पढ़े-लिखे, संवेदनशील और समझदार हैं। इन दोनों प्रदेशों में धर्म के प्रति निष्ठा, श्रद्धा एवं समर्पण देखने को मिलता है। भारत वर्ष में बच्चों की सबसे ज्यादा देखभाल, प्रेमपूर्ण व्यवहार तामिलनाडू एवं महाराष्ट्र में ही देखने को मिलता है। बच्चे ही देश का भविष्य हैं अगर बच्चों का लालन-पालन, देखभाल, शिक्षा दीक्षा में अपूर्णता रह गई तो कालान्तर अपूर्ण मनुष्य ही उत्पन्न होंगे और यही हो रहा है। उपासना में बड़े गहरे रहस्य छिपे हुए हैं। "दोर्भि कर्ण उपासना " का तात्पर्य है माफी मांगना माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी, शिव, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र समेत सभी देवताओं ने केवल गणपति को यह अधिकार दे रखा है कि वे कर्म श्रृंखला में विघ्न डाल सकते हैं, कर्म श्रृंखला के अंतर्गत किए गये पापों, कुकर्मों, व्याभिचारों को शक्ति कदापि नहीं है। तामिलनाडू एवं महाराष्ट्र में गणेश मंदिरों की भरमार है एवं यहाँ पर आपको भक्तगण दोनों कान पकड़कर श्री गणेश के विग्रह के सामने प्रतिदिन उठक-बैठक लगाकर अपने पापों की क्षमा मांगते हुए मिल जायेंगे और गणेश जी सहर्ष परम पिता के समान सभी भक्त गणों को उनके कुकर्मों के फल से मुक्त करते हुए दिखलाई पड़ेंगे।
अज्ञानता, मूर्खता, लम्पटता तो जीव का स्वभाव है अतः गणेश जी माफ कर देते हैं। जीव तो बहुत छोटी सी अपूर्ण संरचना है गलती तो बड़े-बड़े देवताओं से भी हो जाती है। माँ भगवती का भंडासुर नामक दैत्य से घोर संग्राम चल रहा था, माँ भगवती कुछ ही क्षण में भंडासुर दैत्य के तीन सौ पुत्रों का संहार कर दिया। भंडासुर दैत्य का सेनापति अत्यंत ही चालाक था उसने रात्रि के अंधेरे में महाविघ्नेश यंत्र की पूजा उपासना की, उसे प्राण-प्रतिष्ठित किया और धीरे से ले जाकर उसे भुगती महात्रिपुर सुन्दरी की दिव्य सेना के शिविर के एक कोने में स्थापित कर दिया। विघ्नेश क्रियाशील हो गये देखते ही देखते माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी की 21000 दिव्य शक्ति से सुसज्जित सेना उच्चाटित हो गई, शिथिल पड़ गई, आलस्य से ग्रसित हो गई, बलहीन हो गई। उनकी सेना में सभी को जम्हाईयाँ आने लगीं, तंद्रा सताने लगी, हाथ-पाँव ढीले पड़ने लगे।
जिस सेना में काली, महाकाली, कराली, दुर्गा, महिषमर्दिनी, चण्ड-मुण्ड नाशिनी, चामुण्डा, भैरवी, कूष्माण्डा, आग्नेया, कुब्जिका, लंगड़ी, कालरात्रि, रक्तप्रिया, मांसांशा इत्यादि जैसी नायिकाएं हों। जिस सेना में धूमा, बगला, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, बाला, महाकाली, दक्षिणकाली जैसी पराशक्तियाँ हों वह सेना आलस्य, प्रमाद, निकम्मेपन से ग्रसित हो जाय यह तो बड़ी विचित्र बात हुई। माँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी की मुख्य सेनापति दंडनाथा की कुछ समझ में नहीं आया वह सीधे उनके पास पहुँची और समस्त क्रियाकलापों का वर्णन किया। दूसरे ही क्षण मुस्कुराते हुए माँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी ने पुनः एक बार दोनों कान पकड़कर अलख निरंजन की तरफ निहारा और देखते ही देखते अलख निरंजन में से असंख्य मुख असंख्य अस्त्र-शस्त्रों से युक्त: हाथ लिए हुए, मुण्डमाला धारण किए हुए, घोर अट्ठाहास करते हुए, रक्त वर्ण के महागणपति प्रकट हो गये। वे सीधे उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पर भंडासुर के सेनापति ने महाविघ्नेश यंत्र स्थापित कर रखा था अपने दंत घात से उन्होंने उस यंत्र को चूर चूर कर दिया तत्पश्चात् माँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी के साथ मिलकर कुछ ही क्षणों में उन्होंने भंडासुर का समस्त सेना के साथ संहार कर डाला और इस प्रकार महागणपति की उत्पत्ति हुई।
महागणपति का पूजन भगवती त्रिपुरसुन्दरी के साथ सम्पन्न किया जाता है, भंडासुर युद्ध के समय शायद भगवती त्रिपुरसुन्दरी ने भी गलती कर दी थी वे गणपति को केवल पुत्र समझ बैठी थीं जबकि वे अलख निरंजन हैं,पूर्ण हैं । त्रिपुर वध के समय शिव से भी भूल हो गई वे भी गणपति का पूजन करना भूल गये थे इसलिए उनका पाशुपतास्त्र लक्ष्य को निर्मूल नहीं कर पा रहा था एवं उनकी सेना पराजित हो रही थी,उनका दिव्य रथ भी कि समस्त देवता के अंशों से बना था,जिसमें कि समस्त देवता पशु रूप में विद्यमान थे चल ही नहीं पा रहा था। शिव का एक नाम पशुपति भी है अर्थात सभी पशुओं के पति,पशु बने देवगणों से सुसज्जित रथ की कभी कील निकल जाती थी, पहिया अलग हो जाते थे,कभी वह उनके भार को सहन नहीं कर पाता था आखिरकार शिव को अपनी गलती का एहसास हुआ उन्होंने अलख निरंजन से उत्पन्न परम पशु स्वरूप धारण किए हुए गणपति के सामने दोर्भिकर्ण उपासना सम्पन्न की तब जाकर वे महापाशुपत अनुसंधान में सफल हुए और पशुपति के रूप में सुपूजित हुए।
कितनी रहस्यमय स्थिति है पशुओं का पति बनने के लिए पशु मुख धारण किए हुए अलख निरंजन की उपासना । पशुत्व भी सिद्ध नहीं होता गणेशोपासना के अभाव में समुद्र मंथन चल रहा था पर देवता गणपति उपासना भूल गये अतः विघ्न आ गया। मंदराचल पर्वत को उखाड़ने में ही अनेकों देवता लहूलुहान हो गये जैसे ही उसे समुद्र में रखा वह डूबने लगा एवं अनेकों देवता दब गये। वासुकी सर्प भी विष उगल रहा था, विष्णु ने पुनः कच्छप रूपी पशु बन मंदराचल पर्वत को सहारा दिया। विष्णु के कच्छप रूपी पशु स्वरूप में ही दोर्भिकर्ण उपासना सम्पन्न हो गई। देवताओं को अपनी गलती का एहसास हुआ तब जाकर उन्होंने गणपति उपासना की तब समुद्र मंथन सम्पन्न हुआ। सबने गणपति के श्रीविग्रह के सामने उठक-बैठक लगाई। वामन स्वरूप में श्री विष्णु बलि से पराजित हो रहे थे पुनः एक बार उन्हें दोर्भिकर्ण उपासना करनी पड़ी।
गणेश आदि हैं, अनंत हैं,वे प्रम नाथ हैं, प्रथम के भी प्रथम अलख निरंजन हैं उन्हीं से प्रारम्भ और उन्हीं में अंत यही सृष्टि का सिद्धांत है। अतः प्रत्येक काल प्रारम्भ होने से पूर्व, एक नई सृष्टि होने से पूर्व, एक नया युग प्रारम्भ होने से पूर्व, एक नई कर्म श्रृंखला प्रारम्भ होने से पूर्व मूल का ध्यान आवश्यक है,मूलोपासना आवश्यक है। श्रीहरि ने मात्र सुदर्शन चक्र प्राप्ति हेतु अनेक वर्षों तक शिव की घोर उपासना की, अनेक विधियों से शिवोपासना की पर हर बार कुछ न कुछ विघ्न आ जाता था। एक बार उन्होंने शिव जी को प्रसन्न करने हेतु एक हजार कमल पुष्पों से पूजा करने का संकल्प लिया परन्तु उसमें भी विघ्न आ गया। विघ्नेश्वर ने एक कमल पुष्प गायब कर दिया,श्रीहरि ने अपने कमल नयन निकाल कर ही शिव को अर्पित कर दिए। दोनों कान पकड़कर श्रीगणेश के सामने दोर्भिकर्ण उपासना की अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी तब जाकर उन्हें सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ। मधु-कैटभ वध में असफल होने के बाद श्रीहरि को दोर्भिकर्ण उपासना सम्पन्न करनी पड़ी तब जाकर महामाया उनके साथ क्रियाशील हुईं। चण्ड-मुण्ड वध के समय, शुम्भ-निशुम्भ वध के समय शक्तियों को भी श्रीगणेश उपासना सम्पन्न करनी पड़ी तभी उन्हें सफलता मिली।
ब्रह्मा जी अचानक स्वप्न अवस्था में आ गये स्वप्न में उन्होंने महाप्रलय होते देखा । उनकी बनाई हुई सृष्टि प्रलय को प्राप्त हो रही थी, चारों तरफ अथाह जल ही जल था परन्तु तभी उन्हें वटवृक्ष के पत्ते के ऊपर बाल्य गणेश दिखाई दिए एवं उन्होंने अपने शुण्डाग्र में समुद्र का जल भरकर ब्रह्मा जी के ऊपर उछाल दिया और ब्रह्मा जी अचानक चैतन्यवान हो उठे और मुस्कुरा दिए। वे समझ गये कि श्रीगणेश प्रलय से भी परे हैं। प्रलय के समय गणपति सूक्ष्म हो जाते हैं और प्रलय उपरांत पुनः क्रियाशील हो उठते हैं। विघ्न, गणेश के साथ चलते हैं। दिव्य कैलाश पर शिव ध्यानस्थ थे अलख निरंजन की दिव्य ज्योति में तभी सभी देवताओं ने दिव्य कैलाश पर आकर गुहार लगानी शुरु की कि हे शिव कुछ उत्पन्न कीजिए,ऐसा कुछ जो कि असुरों की गति को रोक सके,उनके बल को क्षीण कर सके,हम उनसे पीड़ित हैं, प्रताड़ित हैं।अचानक शिव के हृदय में स्फूरणा हुई और देखते ही देखते एक सुन्दर बालक उनकी गोद में आ बैठा सीधे अलख निरंजन से निकलकर तभी आद्या आ गईं।
बाला ने बालक नहीं देखा था, ये कौन तीसरा आ गया हम दोनों के बीच ? बस विघ्न उत्पन्न हो गया शिव और शिवा के बीच। शिव की गोद में तो मैं ही बैठती हूँ शिवांगी बनकर, शिव की अर्धांगिनी तो मैं ही हूँ, ये कौन उनके अंग में विराजित हो गया ? जब मैं त्रिपुर सुन्दरी होती हूँ तो उनकी नाभि से निकले कमल पर स्थापित हो जाती जब मैं महाकाली होती हूँ तो इनकी छाती पर सवार होती हूँ,जब मैं त्रिपुरा होती हूँ तो इनके
सुसन्तति उत्पादन व निर्माण ।।
प्राचीन सनातनी भारत में, शिक्षा और ज्ञान का एक विशाल इतिहास है।
बाल्य भाव ।।
विवेकानंद अमेरिका की यात्रा पर गये हुए थे। वहाँ पर उन्होंने प्रथम बार विशालकाय गुब्बारों को देखा जिसमें कि मनुष्य बैठ कर आकाश की सैर कर सकता था, अचानक उनके अंदर बाल सुलभ भाव जाग उठा। उनके साथ बहुत सारे चेले चपाटे थे जो कि स्वामियों, गुरुओं या आध्यात्मिक व्यक्तित्वों को केवल गम्भीर, मुँह बना कर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले प्राणी समझते थे। विवेकानंद बच्चों के समान सबके सामने गुब्बारे में बैठने के लिये लालायित हो उठे तुरंत दौड़कर गुब्बारे में बैठ गये और बाल सुलभ हो बड़े-बड़े नेत्रों से ऊपर उड़ते हुए विस्मयकारी दृश्य देख कर बच्चों के समान खिलखिलाने लगे। उनके आसपास के चेले चपाटे बोले स्वामी जी आप इतना साधारण व्यवहार मत कीजिए अन्यथा आप की छवि धूमिल हो जायेगी, लोग आप को पाखण्डी कहने लगेंगे,आप सामान्य मनुष्य लगने लगेंगे।
विवेकानंद ने किसी की नहीं सुनी, बाल सुलभ थे बाल सुलभ बने रहे। बाल सुलभ मन और हृदय ही कौतुहल की दृष्टि प्रदान कर सकता है,बाल सुलभ मन ही विस्मयकारी हो सकता है।बाल सुलभता दुर्गोपासना की प्रथम आवश्यकता है,स्त्री और पुरुष बन कर कृपया कर दुर्गोपासना सम्पन्न न करें अन्यथा कुछ नहीं होने वाला है ।स्त्री और पुरुष बन कर केवल भोग होता है, स्त्री और पुरुष की योगमार्ग में क्या जरूरत? स्त्री और पुरुष एक विशेष अवस्था है। जिन युवाओं में पुरुषत्व की बहुलता है वे केवल स्त्री से आकर्षित होंगे, हर दूसरा युवक सुंदर स्त्री से विवाह मांगता है, हर दूसरी युवती बस वर को ही खोजती है एवं इन्हें अध्यात्म से क्या लेना देना अगर अध्यात्म के - बल पर कुछ स्वार्थ पूर्ति हो जाये तो ठीक है नहीं तो इन्हें एक से बढ़कर एक मार्ग आते हैं। इस सृष्टि में समस्या की जड़ स्त्री और पुरुष के भाव ही हैं।
विवेकानंद भला क्यों बाल सुलभ नहीं होते आखिरकार उनके गुरु परमहंस तो अति में बाल सुलभ थे। वे तो मिठाई की दुकान पर खड़े हो जाते थे, सभी शिष्यों के बीच मिठाई खाने लगते थे, एक बार खुले में शौच कर रहे थे तभी एक भैरवी साधिका उनकी परीक्षा लेने के लिये अचानक वहाँ पर आकर खड़ी हो गयी। वे बालकों की भांति हँसने लगे और पास पड़े पत्थरों से उसे मार कर दूर भगाने लगे, भैरवी का हृदय परिवर्तन हो गया। परमहंस के एक शिष्य ने उनकी परीक्षा लेने के लिये उन्हें कलकत्ता के वेश्यालय में छोड़ दिया वे क्रिया योग में दक्ष थे दूसरे ही क्षण उन्होंने अपने बाल्यभाव को समग्रता के साथ जाग्रत कर लिया, वेश्याओं को देख माँ-माँ चिल्लाने लगे। वेश्याओं को बहुत घमण्ड होता है क्योंकि वे पुरुषों को पराजित करती है परन्तु बालक भाव से वेश्याएँ हार गयी, घबरा गयी, उनका तो अस्तित्व ही समाप्त हो गया। स्त्री भाव भी मूल प्रकृत्ति ही प्रदान करती है। प्रकृति परमेश्वरी का ही विग्रह है अतः प्रकृति भी नियंत्रिका का काम करती है इसलिए स्त्रियों में नियंत्रण की जन्मजात प्रवृत्ति कूट-कूट कर -भरी हुई होती है। पुरुष या पिण्ड पर नियंत्रण करने के लिये सदैव लालायित रहने वाली शक्ति को ही स्त्री कहते हैं।
जीवन में भले ही एक क्षण के लिये या फिर सम्पूर्ण जीवनभर स्त्री अंतत: पुरुष को सम्पूर्ण नियंत्रण में ले ही लेती है। नियंत्रण की इस रस्साकशी में वह गोपनीय तौर पर प्रतिक्षण माया का निर्माण करती ही रहती है एवं उसका एकमात्र ध्येय पुरुष पर नियंत्रण प्राप्त करना होता है परन्तु स्त्री बाल्यभाव पर नियंत्रण कभी प्राप्त नहीं कर पाती और यहीं पर वह हारती है। बालक जीतता है माता हारती है, यह निश्चित है। अंतत: माता झुकती है। बालभाव स्त्री कला पर अंकुश है। स्त्री भाव का दम्भ बाल भाव के सामने खण्डित हो ही जाता है। भारत के सभी ऋषि मुनियों ने नियंत्रिका रूपी परमेश्वरी की अंततः मातृ भाव में ही उपासना की है। विश्वामित्र जैसा पुरुष प्रधान व्यक्तित्व दुर्लभ है, उसमें पुरुषत्व बचा था तभी मेनका के हाथों पतोन्मुखी हुए, लम्बा समय लगा तब कहीं जाकर बाल्यभाव जाग्रत हुए अंतत: गायत्री कल्प प्राप्त हुआ।
दत्तात्रेय विष्णुअवतार माने गये हैं, अखण्ड ब्रह्मचारी थे एवं लक्ष्मी उनके पास में खड़ी रहती थी। एक बार असुरों के हाथ इंद्र समेत देवताओं की दुर्गति हुई। दुर्गति इसलिये हुई क्योंकि रासरंग में डूब गये थे रासरंग में तो स्त्रियाँ चलती हैं। नारद ने कहा जाओ दत्तात्रेय ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। लुटे-पिटे देवता दत्तात्रेय के पास पहुँचे। दत्तात्रेय बोले मैं बहुत परेशान हो गया हूँ इस सुंदर स्त्री को साथ मे लेकर घूमते-घूमते देवता बोले नहीं नहीं यह तो साक्षात् लक्ष्मी हैं, मातेश्वरी हैं बस दत्तात्रेय उनके मुख से मातेश्वरी ही सुनना चाह रहे थे, उन्हें पुनः बाल भाव का अनुभव कराना चाह रहे थे। एक शब्द में ही देवताओं ने मातृ भाव की स्तुति कर ली ।दत्तात्रेय बोले किसी तरह असुरों को यहाँ तक ले आओ।देवता पुनः युद्ध करने गये और दैत्य उनके पीछे-पीछे दत्तात्रेय तक आ पहुँचे। एक मुनि के पास अत्यंत परम शोभावान, रत्नों से सुसज्जित दिव्य विभूति को देख दैत्य मोहित हो गये एवं उनके अंदर पुरुषत्व जाग उठा दैत्य सम्राट बोला अरे मुनि यह तो विलक्षण स्त्री रत्न है इसका यहाँ क्या काम तुम इसे हमें सौंप दो तब दत्तात्रेय ने कहा ले जाओ दैत्य खुशी-खुशी लक्ष्मी को पालकी में बैठाकर ले जाने लगे दत्तात्रेय ने तुरंत देवताओं से कहा कि अब हमला करो यह नियंत्रिका के नियंत्रण में आ गये हैं।देवता शस्त्रों के साथ असुरों पर टूट पड़े और कुछ ही क्षणों में दैत्य पराजित हो गये।
रामकृष्ण परमहंस आज से 150 वर्ष पूर्व हुए थे अतः समझ गये थे कि स्त्री-पुरुष भाब सत्यानाशी है एवं इनके चक्कर में झंझट ही झंझट है।इसलिए अपनी पत्नी को माता के रूप में स्वीकार कर लिया।परमेश्वरी को उन्हें अपना सानिध्य प्रदान करना था इसीलिये रामकृष्ण की युवा पत्नी में भी मातृत्व के भाव स्वतः प्रकट हो गये एवं रामकृष्ण परमहंस को परिवार की तरफ से कोई कष्ट नहीं हुआ अन्यथा अगर उनकी पत्नी में स्त्री भाव एकांश भी आ जाते तो लेने के देने पड़ जाते।जैसे ही एक युवक में पुरुष ग्रंथि विकसित होती है या फिर एक बालिका में रजोस्त्राव होता है उनकी ऊपर की तरफ बढ़नी वाली लम्बाई स्वत: रूक जाती है।जितने लम्बे हो गये या जितनी कद काठी मिल गयी बस मिल गयी अर्थात अब फैल सकते हैं,मोटे हो सकते हैं, बेडौल हो सकते हैं परन्तु लम्बवत उन्नति नहीं होगी। यही ब्रह्मचर्य का सिद्धांत है।जितना ज्यादा विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण होगा उतनी ही आध्यात्मिक अवनति होगी, उतना ही साधक मातृत्व से दूर हटता जायेगा और जैसे-जैसे मातृत्व के हाथ से निकलकर नियंत्रण स्त्री के हाथ में जाता जायेगा व्यक्ति वृद्ध होता जायेगा इसलिए कामुक स्त्री पुरुष शीघ्र ही ढल जाते हैं, रोगग्रस्त हो जाते हैं, समस्याओं में उलझ जाते हैं, बालों में सफेदी आ जाती है और एक दूसरे का शोषण शुरू हो जाता है।
दो धाराएं है,दो प्रकार के सम्बन्ध हैं। एक सम्बन्ध में मातृत्व की बहुलता है। एवं यह पुष्टिदायक है यह उन्नति का मार्ग है,यह एक मार्गीय व्यवस्था है,इसमें लेन-देन नहीं है, पुत्र का यह जन्म सिद्ध अधिकार है कि वह माता से प्रेमपूर्वक,हठपूर्वक प्राप्त करता रहे।पुत्र कैसा भी हो, बालक कैसा भी हो फिर भी माता के लिये वह अत्यंत ही प्रिय है, यहाँ पर तुलनात्मक अध्ययन नहीं है पुत्र से माता की अपेक्षा शून्य है। दूसरा विभाग इसके सर्वथा विपरीत है एवं इस मार्ग में पुरुष अगर उपयोगी नहीं है तो फिर दिक्कत हो जायेगी, पुरुष को हर क्षेत्र में स्त्री के लिये उपयोगिता सिद्ध करनी होती है, इसमें लेन-देन है। सम्बन्ध क्या हैं? इस प्रकार अनंत काल से क्यों होता चला आ रहा है? यह सब किसी ने किसी को नहीं सिखाया। सीधी सी बात है मस्तिष्क का निर्माण जिन शक्तियों ने मिलकर किया है एवं जिन शक्तियों के सानिध्य में मस्तिष्क निर्मित हुआ है उनकी मूल प्रकृति ही ऐसी है। मस्तिष्क के अंदर क्रियाशील होने वाली मूल प्रकृति के ही लक्षण सम्बन्धों के रूप में परिलक्षित होते हैं, यह सब आदि व्यवस्था के अंतर्गत आता है।
मस्तिष्क का विकास,उसकी सक्रियता, उसकी क्रियाशीलता को जो एकमात्र भाव प्रबलता प्रदान करता है वह बालभाव है। मैं ऐसा नहीं कह रहा कि बालभाव ही सब कुछ हैं परन्तु इतना जरूर कह रहा हूँ कि बाल भाव जीवन पर्यन्त विलोप नहीं होना चाहिये एवं इसे त्यागना नहीं चाहिये।सृष्टि काल अनुसार अन्य भाव भी उत्पन्न करती है, सृष्टि भाव आधारित है अगर बाल्य भाव चलता रहा तो सृष्टि पर अतिरिक्त भार बढ़ जायेगा क्योंकि मृत्यु सम्भव नहीं हो पायेगी। बाल्यभाव में मृत्यु सबसे दारूण और कष्टप्रद होती है साथ ही बालभाव की मृत्यु मातृत्व सहन नहीं कर पाता ।मातृत्व में इस सिद्धांत की इतनी प्रबलता है कि वह सर्वप्रथम खुद को मरते हुए देख सकती हैं पर बाल्यभाव को नहीं। हर माता वही चाहती है कि उसकी आँखों के सामने उसके पुत्र सदैव बने रहे वे आँखे मूंद लें पर पुत्र जीवित हो।
यह मस्तिष्क की परम इच्छा शक्ति है एवं इस शक्ति की तरफ इशारा ही इस का व्येय है कि एक मूल मातेश्वरी शक्ति है जो कि यह कदापि बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है, किसी भी कीमत पर यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि उसकी संतान उससे पहले काल कवलित हो जाये। इसी शक्ति की मनु ने उपासना की, इसी शक्ति को प्रत्येक मनवंतर में मनु ने दुर्गा रूपी कुलदेवी को स्थापित किया,यही वह उर्वरक शक्ति है जिसका कि मार्कण्डेय ने पान किया और चिरंजीवी, हो गये, इसी शक्ति को विभिन्न रूपों में ऋषिगण प्रतिक्षण भजते रहते। हैं। यह शक्ति अत्यंत ही कातर, दयालु और प्रेममयी है, यह भोली है,यह सीधी-साधी एवं एक मार्गीय है।
अतः यही परम विशुद्ध मातृशक्ति है जो कि सर्वस्व लुटा कर पुत्रों को जीवित रखे हुए है । यही भाव ब्रह्मचारी बनाते हैं। इस कातर और दयामयी शक्ति के संस्पर्श से ही काम विकार नष्ट होते हैं एवं मातृभाव जाग्रत होते हैं।
यह है योगमयी शक्ति, इसी को ढूंढते फिरते हैं तत्व ज्ञानी एवं मुमुक्ष जन पर यह तो बिल्कुल पास खड़ी होती है, अपलक आँखों से बस पुत्र का इन्तजार कर रही होती है। पुरुषार्थ, स्त्री- आकर्षक, जग-संसार के प्रपंचों में उलझे अपने पुत्र को पुनः प्राप्त करने की लम्बी प्रतीक्षा कर रही होती है। समस्त शस्त्रों से युक्त होते हुए भी पुत्र के सामने निशस्त्र होती है, पुत्र को भटकता देख कर भी मोह में लिप्त होती है। मोह इस शक्ति की मुख्य पहचान है एवं केवल पुत्र मोह ही इसके मूल में है। यह जागृत भी पुत्र की आवाज पर ही होती है और सुप्त भी पुत्र के आचरण से ही होती है। इसका कीलन, उत्कीलन केवल पुत्र ही दूर कर सकता है। वाल्यभाव के अधीन दुर्गेश्वरी है। यह समस्त ब्रह्माण्ड की नेत्री हैं, समस्त ब्रह्माण्ड की नियंत्रिका है पर इस पर नियंत्रण बालक का है। यह किसी को कुछ नहीं समझती, सबसे परे है, कोई भी इसकी हद तक नहीं पहुँच सकता सिवा बालक के। बालक पुकारेगा तो जाग जायेगी, समस्त कार्यों को छोड़ सामने खड़ी होगी। आप दस महाविद्या सिद्ध करना चाहते हैं, महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं, दुर्गा के दर्शन चाहते कुछ बनना चाहते हैं तो उसका एक मात्र विधान है "बाल्यभाव।
बाल्यभाव व्यक्ति की युवा अवस्था लम्बा करने में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिन लोगों में बाल्यभाव होता है वे 18 वर्ष की उम्र से लेकर 50 वर्ष की उम्र तक एक जैसे ही दिखते हैं। बुढ़ापा उन्हें - स्पर्श नहीं कर पाता, वृद्धावस्था की अवधि घट जाती है। योग क्या है? रसेश्वरी विद्या क्या है? रसोत्पादन क्या है? इनके मूल में बाल्य भाव का अनुसंधान ही छिपा हुआ है। शरीर को बच्चो के समान हर दिशा में मोड़ना, शरीर के अंदर प्राण शक्ति का प्रबल संचार होना ही बाल्यभाव का प्रमाण है। बच्चों को चोट लगती है तुरंत ठीक हो जाती है, बच्चे भीषण से भीषण दुर्व्यवहार को भी तुरंत भूल जाते हैं, बच्चे ही सीख सकते हैं। सिखायेगी माता और सीखेगे बच्चे।
सयानों को क्या सिखाना? सवाल उठता है कि सृष्टि ने सबको भौतिक रूप से एक माता प्रदान की है, उसका सानिध्य दिया है तो फिर मातृोपासना या दुर्गापासना की क्या जरूरत? जन्म देने वाली माता एक कड़ी है, जिसने हमें प्रदुर्भावित किया परंतु सर्व समर्थता एवं विभिन्न कलाएँ जरूरी नहीं है कि हमें वर्तमान की माता से प्राप्त हो गयी हो अतः दुर्गोपासना के द्वारा हम अनंत अव्यक्त संस्कारों, कलाओं एवं साधनो इत्यादि में से अपनी क्षमतानुसार प्राप्त करते रह सकते हैं। दुर्गोपासना का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जितनी बार हम इस साधना को सम्पन्न करेंगे हर बार कुछ नया प्राप्त होगा, हर बार एक नया दृष्टिकोण मिलेगा, हर बार कुछ सीखने को मिलेगा। ये लेख अटपटा, अविकसित और अर्थहीन भी हो सकते हैं क्योंकि दुर्गा पर लिखा गया है। एक बालक के रूप में जो मिल गया उसे प्राप्त कर लेना सहज रूप से आगे फिर कभी देखेंगे।
प्रकृति से किस प्रकार से जुड़ें, किस प्रकार से सीखें ~
० जहां घोड़े पी रहे हैं वहीं पानी पिएं क्योंकि वे कभी भी दूषित पानी नहीं पीएंगे।