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।। श्री हनुमत महामंत्र ।।

ॐ नमो हनुमते रूद्रावताराय वायु सुताय अञ्जनी गर्भ सम्भुताय अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत पालन तत्पराय धवली कृत जगत् त्रितयाया ज्वलदग्नि सूर्यकोटी समप्रभाय प्रकट पराक्रमाय आक्रान्त दिग् मण्डलाय यशोवितानाय यशोऽलंकृताय शोभिताननाय महा सामर्थ्याय महा तेज पुञ्ज:विराजमानाय श्रीराम भक्ति तत्पराय श्रिराम लक्ष्मणानन्द कारकाय कपिसैन्य प्राकाराय सुग्रीव सौख्य कारणाय सुग्रीव साहाय्य कारणाय ब्रह्मास्त्र ब्रह्म शक्ति ग्रसनाय लक्ष्मण शक्ति भेद निबारणाय शल्य लिशल्यौषधि समानयनाय बालोदित भानु मण्डल ग्रसनाय अक्षयकुमार छेदनाय वन रक्षाकर समूह विभञ्जनाय द्रोण पर्वतोत्पाटनाय स्वामि वचन सम्पादितार्जुन संयुग संग्रामाय गम्भिर शव्दोदयाय दक्षिणाशा मार्तण्डाय मेरूपर्वत पीठिकार्चनाय दावानल कालाग्नी रूद्राय समुद्र लङ्घनाय सीताऽऽश्वासनाय सीता रक्षकाय राक्षसी सङ्घ विदारणाय अशोकबन विदारणाय लङ्कापुरी दहनाय दश ग्रीव शिर:कृन्त्तकाय कुम्भकर्णादि वधकारणाय बालि निबर्हण कारणाय मेघनादहोम विध्वंसनाय इन्द्रजीत वध कारणाय सर्व शास्त्र पारङ्गताय सर्व ग्रह विनाशकाय सर्व ज्वर हराय सर्व भय निवारणाय सर्व कष्ट निवारणाय सर्वापत्ती निवारणाय सर्व दुष्टादि निबर्हणाय सर्व शत्रुच्छेदनाय भूत प्रेत पिशाच डाकिनी शाकिनी ध्वंसकाय सर्वकार्य साधकाय प्राणीमात्र रक्षकाय रामदुताय स्वाहा॥

                ।। जय श्री महाकाल।।

रावण के प्रति नख भर का भी सम्मान वैदिक संस्कृति के प्रति द्रोह है।

रावण प्रतीक है व्यभिचार का जिसने अपनी पुत्रवधू तक पर कुदृष्टि डाली, अपनी पत्नी मंदोदरी की बहन के हेमा साथ कुकर्म किया और उसके पति को मारकर उसे उठा लाया।

रावण प्रतीक है अपने सगे संबंधियों को त्रास देने का। उसने अपनी बहन सूर्पनखा के पति विद्युत जिह्वा की हत्या कर दी। उसने अपने भाई से लंका छीन ली, अपने पिता को त्रास दिया, अपने मामा को स्वार्थ में मरवा दिया। अपने कुल खानदान को अपनी महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ा दिया। अपने भाई को लात मार कर भगा दिया।

रावण प्रतीक है अघन्या गाय के हत्यारे का, ऋषियों ब्राह्मणों के सामूहिक नरसंहार का। वैदिक व्यवस्था का परम शत्रु था रावण। यज्ञ और धर्म के किसी भी स्वरूप को अमान्य घोषित करने वाला रावण वैदिक देवताओं के प्रति घोर असभ्य था।

रावण प्रतीक है कृतघ्नता का। उसने भगवान शिव से कृतघ्नता की। वह उतना ही शिवभक्त था जितना भस्मासुर। वस्तुतः उसने महादेव के सामने दीन-हीन होने का ढोंग किया। वह भगवान शिव से भी अहंकार करता था। ब्रह्मा से वर प्राप्त करने के बाद उनके प्रति भी वह कृतघ्न हो गया। अपने मित्रों से भी उसने कृतघ्नता की।

रावण प्रतीक है शक्ति और ज्ञान के दुरुपयोग का। कुसंस्कारित कुपात्र को विद्या मिलने पर वह क्या-कुछ करता है इसका जीता जागता उदाहरण रावण है।

रावण प्रतीक है क्षुद्र बुद्धि और मलिन मानस का, नारी जाति के प्रति घृणा का, सुर धेनु विप्र और मनुष्य के प्रति घृणा रखने वाला रावण प्रतीक है दम्भ, असभ्यता और विध्वंस का।

कुछ घृणित लोग रावण को महान बता रहे। यह ठीक वैसी ही बात है जैसे कुछ नीच लोग महिषासुर को महान बताते हैं। पहले समाज के रावणों और महिषासुरों का सजीव दहन मर्दन होता था पर बलिहारी इस लोकतंत्र की कि हर टुच्चा आदमी अपनी दो कौड़ी की जबान हिला कर कुछ भी बोल सकता है।

पहचानिए ऐसे दुष्टात्माओं को और दहन करिये उनका।

और हां ये ब्रह्महत्या वाला पाप फर्जी नरेटिव है। ब्रह्मा जिसके वध की इच्छा स्वयं रखते हों ऐसे गोघाती, सुर त्रासी, ब्राह्मण द्रोही रावण के वध पर ब्रह्म हत्या लगने की बात कोई घृणित व्यक्ति ही कह सकता है।

जय जय श्रीराम


बुढ़िया माता मंदिर ।।

🔰 आस्था : हजारीबाग का ऐसा मंदिर जहां बिना मूर्ति के होती है माता की पूजा, मिट्टी के पिंड के रूप में होती है माता की आराधना, जानें बुढ़िया माता की कहानी 🔰

हजारीबाग : दुर्गा पूजा के पावन अवसर पर मां दुर्गा के विभिन्न रूपों की पूरे देश में पूजा की जाती है. लेकिन झारखंड के हजारीबाग जिले के इचाक प्रखंड में स्थित बनसटांड़ का बुढ़िया माता मंदिर एक अद्वितीय धार्मिक स्थल है, जहां मां की पूजा बिना किसी प्रतिमा के की जाती है. इस मंदिर की खासियत यह है कि यहां मिट्टी के पिंड के रूप में माता की आराधना की जाती है. भक्तों का मानना है कि माता के दर्शन मात्र से ही उनके कष्ट दूर हो जाते हैं. यही कारण है कि यहां दूर-दूर से श्रद्धालु आकर माता के पिंड रूप के दर्शन करते हैं.

>> बुढ़िया माता मंदिर की अद्भुत कहानी <<

बुढ़िया माता मंदिर का इतिहास बेहद रहस्यमयी और अद्भुत है. मंदिर के पुजारी गौतम कुमार बताते हैं कि साल 1818 में इस क्षेत्र में हैजा महामारी ने कहर बरपाया था. इस महामारी से पंचायत के कई लोगों की मृत्यु हो रही थी और पूरा गांव त्राहिमाम कर रहा था. तभी अचानक जंगल में मिट्टी की एक दिवाल प्रकट हुई, जिसमें कुछ आकृतियाँ उभरी थीं. इस दिवाल को देखने के बाद गांव के कई लोगों ने एक सपना देखा, जिसमें उन्हें पूजा अर्चना करने का संकेत मिला.

उसी दौरान एक वृद्ध महिला, जिसे बाद में बुढ़िया माता कहा गया, ने वहां पूजा शुरू की और धीरे-धीरे पूरे गांव में इस पूजा का प्रसार हुआ. चमत्कारिक रूप से, गांव से महामारी का प्रकोप खत्म हो गया और बुढ़िया माता भी अचानक गायब हो गईं. आज भी उस दिवाल की आकृतियाँ मंदिर में विद्यमान हैं और यह स्थान लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है. मंदिर का पहला भवन वर्ष 1921 में बनाया गया था, जो आज भी सुरक्षित है.

>> पिंड रूप में होती है माता की पूजा <<

बुढ़िया माता के मंदिर में माता की पूजा किसी प्रतिमा के बजाय एक पिंड के रूप में की जाती है. यह पिंड मिट्टी का होता है, जिसे भक्तजन पूरी श्रद्धा के साथ पूजते हैं. नवरात्रि के दौरान इस मंदिर की शोभा और बढ़ जाती है, जब झारखंड, बिहार और उड़ीसा के हजारों भक्त यहां माता के दर्शन और पूजा के लिए पहुंचते हैं. नवरात्रि के समय मंदिर को भव्य रूप से सजाया जाता है, और इस अद्भुत स्थल की धार्मिक महत्ता देखते ही बनती है.

>> मंदिर की लोकप्रियता <<

बुढ़िया माता मंदिर को विशेष स्थान दिया जाता है क्योंकि भक्तों का मानना है कि यहां आने मात्र से उनकी बीमारियां और कष्ट दूर हो जाते हैं. मंदिर के पुजारी बताते हैं कि यह मंदिर रोग हरने वाली शक्तियों के लिए प्रसिद्ध है और लोग यहां अपनी आस्था लेकर आते हैं. श्रद्धालुओं का मानना है कि माता उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी करती हैं. मंदिर के लिए एक विशाल भवन का निर्माण करवाया गया है, लेकिन पिंड से किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की गई है. माता के इस रूप की पूजा में भक्तों की गहरी आस्था जुड़ी हुई है.

>> नवरात्रि में विशेष आकर्षण <<

नवरात्रि के अवसर पर इस मंदिर की भव्यता और भी बढ़ जाती है. इस दौरान हजारों श्रद्धालु दूर-दूर से आकर यहां पूजा अर्चना करते हैं. मंदिर के आस-पास का वातावरण भक्तिमय हो जाता है, और माता के भव्य रूप को देखने के लिए लोग लंबी कतारों में खड़े रहते हैं. भक्तों की मान्यता है कि नवरात्रि के दौरान यहां की गई पूजा विशेष फलदायी होती है और माता का आशीर्वाद प्राप्त करने से जीवन के सारे कष्ट समाप्त हो जाते हैं.

>> आस्था का केंद्र <<

बुढ़िया माता का मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि आस्था और चमत्कार का प्रतीक है. इस मंदिर से जुड़ी कहानियां और माता के चमत्कारिक प्रभाव ने इसे झारखंड के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक बना दिया है. दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालुओं के लिए यह मंदिर उनके विश्वास और भक्ति का अटूट केंद्र है.

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किसी भी बीमारी को नष्ट करने में असरकारक है यह नाम त्रय अस्त्र मंत्र ।।

विष्णु भगवान के तीन नामों को महारोगनाशक अस्त्र कहा गया है। अर्थात् इस तीन नाम के जप से कैंसर, किडनी, पैरालाइसिस आदि जैसी बड़ी से बड़ी बीमारी का संकट भी टल जाता है। 

जो पूरे विष्णु सहस्रनाम को पढ़ने में असमर्थ हैं और किसी भयंकर व्याधि से पीड़ित हैं तो साधना में बैठकर भगवान विष्णु जी के इन तीन नामों का कम से कम 108 बार जाप प्रतिदिन सुबह अथवा शाम में करें। 

जप नहीं कर सकते तो कॉपी या डायरी लेकर इस मंत्र को प्रतिदिन 108 बार लिखें। लिखने के बाद कॉपी को इधर-उधर रखने की जगह अपने पूजा कक्ष में रखें।

कोई बहुत बीमार है, और वो जाप नहीं कर सकता, लिख नहीं सकता, तो उनके परिवार का कोई सदस्य उनके सिरहाने बैठकर कम से कम 108 बार मंत्र जाप करे ताकि उनके कानों में मंत्र जाए।

इस मंत्र के उदय की कथा:- 

मां ललिता त्रिपुरा महासुन्दरी और भंडासुर के मध्य जब युद्ध हुआ उस समय व्याधिनाशक इस महाअस्त्र मंत्र का उदय हुआ था। 

युद्ध में पराजय जानकर भंडासुर ने महारोगास्त्र का प्रयोग किया, जिसे मां त्रिपुरा सुंदरी ने इस नामत्रय अस्त्र मंत्र का निर्माण कर उस महारोगास्त्र को नष्ट कर दिया। उसके बाद से ही किसी भी बीमारी को नष्ट करने में इस मंत्र का उपयोग सनातन धर्म में होता आ रहा है। 
यह नामत्रय मंत्र है:-
अच्युताय नमः
अनंताय नमः
गोविंदाय नमः 

इन तीन नामों की महिमा गाते हुए महर्षि वेदव्यास जी कहते हैं:- 

अच्युतानन्तगोविन्द नामोच्चारण भेषजात्।
नश्यन्ति सकला रोगा: सत्यं सत्यं वदाम्यहम्।

हां, यह मंत्र काम तभी करेगा जब आपको भगवान विष्णु में संपूर्ण आस्था हो, उनके समक्ष आपका संपूर्ण समर्पण हो। 

वंदे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्


मंत्र प्रभाव ।।

जब तक किसी विषय वस्तु के बारे में पूर्ण जानकारी नहीं होती तो व्यक्ति वह कार्य आधे अधूरे मन से करता है और आधे-अधूरे मन से किये कार्य में सफलता नहीं मिल सकती है| मंत्र के बारे में भी पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है, मंत्र केवल शब्द या ध्वनि नहीं है, मंत्र जप में समय, स्थान, दिशा, माला का भी विशिष्ट स्थान है| मंत्र-जप का शारीरिक और मानसिक प्रभाव तीव्र गति से होता है| इन सब प्रश्नों का समाधान आपके लिये -

जिस शब्द में बीजाक्षर है, उसी को 'मंत्र' कहते हैं| किसी मंत्र का बार-बार उच्चारण करना ही 'मंत्र-जप' कहलाता है, लेकिन प्रश्न यह उठता है, कि वास्तव में मंत्र जप क्या है? जप से क्या परिणाम होते निकलता है?

व्यक्त-अव्यक्त चेतना

1. व्यक्त चेतना (Conscious mind)
2. अव्यक्त चेतना (Unconscious mind).
हमारा जो जाग्रत मन है, उसी को व्यक्त चेतना कहते हैं| अव्यक्त चेतना में हमारी अतृप्त इच्छाएं, गुप्त भावनाएं इत्यादि विद्यमान हैं| व्यक्त चेतना की अपेक्षा अव्यक्त चेतना अत्यंत शक्तिशाली है| हमारे संस्कार, वासनाएं - ये सब अव्यक्त चेतना में ही स्थित होते हैं|

किसी मंत्र का जब ताप होता है, तब अव्यक्त चेतना पर उसका प्रभाव पड़ता है| मंत्र में एक लय (Rythm) होता है, उस मंत्र ध्वनि का प्रभाव अव्यक्त चेतना को स्पन्दित करता है| मंत्र जप से मस्तिष्क की सभी नाड़ियों में चैतन्यता का प्रादुर्भाव होने लगता है और मन की चंचलता कम होने लगाती है|

मंत्र जप के माध्यम से दो तरह के प्रभाव उत्पन्न होते हैं -

1. मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological effect)

2. ध्वनि प्रभाव (Sound effect)

मनोवैज्ञानिक प्रभाव तथा ध्वनि प्रभाव के समन्वय से एकाग्रता बढ़ती है और एकाग्रता बढ़ने से इष्ट सिद्धि का फल मिलता ही है| मंत्र जप का मतलब है इच्छा शक्ति को तीव्र बनाना| इच्छा शक्ति की तीव्रता से क्रिया शक्ति भी तीव्र बन जाति है, जिसके परिणाम स्वरुप इष्ट का दर्शन या मनोवांछित फल प्राप्त होता ही है| मंत्र अचूक होते हैं तथा शीघ्र फलदायक भी होते हैं|

मंत्र जप और स्वास्थ्य

लगातार मंत्र जप करने से उछ रक्तचाप, गलत धारणायें, गंदे विचार आदि समाप्त हो जाते हैं| मंत्र जप का साइड इफेक्ट (Side Effect) यही है|
मंत्र में विद्यमान हर एक बीजाक्षर शरीर की नसों को उद्दिम करता है, इससे शरीर में रक्त संचार सही ढंग से गतिशील रहता है|
"क्लीं ह्रीं" इत्यादि बीजाक्षरों का एक लयात्मक पद्धति से उच्चारण करने पर ह्रदय तथा फेफड़ों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है व् उनके विकार नष्ट होते हैं|

जप के लिये ब्रह्म मुहूर्त को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि उस समय पूरा वातावरण शान्ति पूर्ण रहता है, किसी भी प्रकार का कोलाहर या शोर नहीं होता| कुछ विशिष्ट साधनाओं के लिये रात्रि का समय अत्यंत प्रभावी होता है| गुरु के निर्देशानुसार निर्दिष्ट समय में ही साधक को जप करना चाहिए| सही समय पर सही ढंग से किया हुआ जप अवश्य ही फलप्रद होता है|

अपूर्व आभा

मंत्र जप करने वाले साधक के चेहरे से एक अपूर्व आभा आ जाति है| आयुर्वेद की दृष्टि से देखा जाय, तो जब शरीर शुद्ध और स्वास्थ होगा, शरीर स्थित सभी संस्थान सुचारू रूप से कार्य करेंगे, तो इसके परिणाम स्वरुप मुखमंडल में नवीन कांति का प्रादुर्भाव होगा ही|

जप माला

जप करने के लिए माला एक साधन है| शिव या काली के लिए रुद्राक्ष माला, हनुमान के लिए मूंगा माला, लक्ष्मी के लिए कमलगट्टे की माला, गुरु के लिए स्फटिक माला - इस प्रकार विभिन्न मंत्रो के लिए विभिन्न मालाओं का उपयोग करना पड़ता है|

मानव शरीर में हमेशा विद्युत् का संचार होता रहता है| यह विद्युत् हाथ की उँगलियों में तीव्र होता है| इन उँगलियों के बीच जब माला फेरी जाती है, तो लयात्मक मंत्र ध्वनि (Rythmic sound of the Hymn) तथा उँगलियों में माला का भ्रमण दोनों के समन्वय से नूतन ऊर्जा का प्रादुर्भाव होता है|

जप माला के स्पर्श (जप के समय में) से कई लाभ हैं -

1. रुद्राक्ष से कई प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं|

2. कमलगट्टे की माला से शीतलता एव अआनंद की प्राप्ति होती है|

3.स्फटिक माला से मन को अपूर्व शान्ति मिलती है|

दिशा

दिशा को भी मंत्र जप में आत्याधिक महत्त्व दिया गया है| प्रत्येक दिशा में एक विशेष प्रकार की तरंगे (Vibrations) प्रवाहित होती रहती है| सही दिशा के चयन से शीघ्र ही सफलता प्राप्त होती है|

जप-तप

जप में तब पूर्णता आ जाती है, पराकाष्टा की स्थिति आ जाती है, उसे 'तप' कहते हैं| जप में एक लय होता है| लय का सरथ है ध्वनि के खण्ड| दो ध्वनि खण्डों की बीच में निःशब्दता है|  इस  निःशब्दता पर मन केन्द्रित करने की जो कला है, उसे तप कहते हैं| जब साधक तप की श्तिति को प्राप्त करता है, तो उसके समक्ष सृष्टि के सारे रहस्य अपने आप अभिव्यक्त हो जाते हैं| तपस्या में परिणति प्राप्त करने पर धीरे-धीरे हृदयगत अव्यक्त नाद सुनाई देने लगता है, तब वह साधक उच्चकोटि का योगी बन जाता है| ऐसा साधक गृहस्थ भी हो सकता है और संन्यासी भी|

कर्म विध्वंस

मनुष्य को अपने जीवन में जो दुःख, कष्ट, दारिद्य, पीड़ा, समस्याएं आदि भोगनी पड़ती हैं, उसका कारण प्रारब्ध है| जप के माध्यम से प्रारब्ध को नष्ट किया जा सकता है और जीवन में सभी दुखों का नाश कर, इच्छाओं को पूर्ण किया जा सकता है, इष्ट देवी या देवता का दर्शन प्राप्त किया जा सकता है|

गुरु उपदेश

मंत्र को सदगुरू के माध्यम से ही ग्रहण करना उचित होता है| सदगुरू ही सही रास्ता दिखा सकते हैं, मंत्र का उच्चारण, जप संख्या, बारीकियां समझा सकते हैं, और साधना काल में विपरीत परिश्तिती आने पर साधक की रक्षा कर सकते हैं|

साधक की प्राथमिक अवशता में सफलता व् साधना की पूर्णता मात्र सदगुरू की शक्ति के माध्यम से ही प्राप्त होती है| यदि साधक द्वारा अनेक बार साधना करने पर भी सफलता प्राप्त न हो, तो सदगुरू विशेष शक्तिपात द्वारा उसे सफलता की मंजिल तक पहुंचा देते हैं|

इस प्रकार मंत्र जप के माध्यम से नर से नारायण बना जा सकता है, जीवन के दुखों को मिटाया जा सकता है तथा अदभुद आनन्द, असीम शान्ति व पूर्णता को प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि मंत्र जप का अर्थ मंत्र कुछ शब्दों को रटना है, अपितु मंत्र जप का अर्थ है - जीवन को पूर्ण बनाना|


दशहरा ।।

● दशहरा या विजयादशमी सनातन धर्म का एक प्रमुख त्योहार हैं, यह पर्व असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता हैं। पंचांग के अनुसार अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दसवीं तिथि को इसका आयोजन होता है। अश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय विजय नामक मुहूर्त होता हैं। 

दशहरा = दशम + अहर (दसवाँ दिन) 

दशहरे के बीसवें दिन दीपावली पर्व मनाया जाता हैं। दशहरा वर्ष की तीन अत्यंत शुभ तिथियों में से एक हैं, अन्य दो है चैत्र शुक्ल और कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा (प्रथम तिथि)। 

● दशहरा स्वयंसिद्ध अबूझ मुहूर्त हैं। यह समय सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। ऐसा विश्वास है इस दिन जो कार्य आरंभ किया जाता है उसमें सफलता मिलती हैं। दशहरा पर अस्त्रों शस्त्रों का पूजन भी किया जाता हैं इसलिए यह आयुध पूजन दिवस भी कहलाता हैं। प्राचीन समय में राजा इस दिन विजय की प्रार्थना कर युद्ध यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। यदि कभी युद्ध आवश्यक हो तो शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा ना कर उस पर आक्रमण करना ही कुशल राजनीति हैं। छत्रपति शिवाजी ने औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके सनातन धर्म का रक्षण किया था।

● दशहरा पर्व दस प्रकार के पाप
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है।

● दशहरा उत्सव के दौरान प्रदर्शन कला परंपरा, रामलीला को यूनेस्को द्वारा "मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत"  के रूप में अंकित किया हैं। इसमें तुलसीदास रचित रामचरितमानस पर आधारित गीत, कथन, गायन और संवाद सम्मिलित हैं।

● विजयादशमी के दिन हुई दो प्रमुख घटनाएं

1. देवी दुर्गा ने नौ रात और दस दिन के युद्ध के पश्चात महिषासुर (भैंस रूपी असुर, महिष = भैंस) पर विजय प्राप्त की थीं। इस पर्व को माँ भगवती के 'विजया' नाम पर भी विजयादशमी कहते हैं। नवरात्रि पर विशेष तौर पर पूजन के लिए लाई गई देवी माँ की मिट्टी निर्मित मूर्तियों का नवरात्रि समाप्ति पर जल में विसर्जन कर दिया जाता हैं।

2. भगवान राम और रावण के बीच भयंकर युद्ध होता है जिसमें राम रावण को मारते हैं और दुष्ट शासन को समाप्त करते हैं। रावण के दस सिर थे, दस सिर वाले व्यक्ति की हत्या को दशहरा कहा जाता है। बुराई के प्रतीक रावण, कुंभकरण, मेघनाद के पुतलो को जलाकर यह संदेश दिया जाता हैं बुराई विनाश का कारण बनती है तथा हम मनुष्यों को भी समय रहते हुए भीतर की बुराइयों को समाप्त कर देना चाहिए। 

● दशहरा शक्ति पूजा का पर्व
दशहरा दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाए अथवा भगवान राम की विजय के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति पूजा का पर्व हैं। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक हैं, शौर्य की उपासक हैं। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है।

● कुल्लू दशहरा - हिमाचल प्रदेश में कुल्लू दशहरा एक प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय मेगा दशहरा उत्सव है। जिसमें पूरे संसार से कई लाख लोग मेले में आते हैं। यह कुल्लू घाटी में ढालपुर मैदान में मनाया जाता है। कुल्लू में दशहरा उत्सव विजयादशमी के दिन से आरंभ होता है और सात दिनों तक जारी रहता है। इसका इतिहास 17 वीं शताब्दी का है, जब स्थानीय राजा जगत सिंह ने तपस्या के निशान के रूप में रघुनाथ की एक मूर्ति अपने सिंहासन पर स्थापित की थी। इसके पश्चात, भगवान रघुनाथ को घाटी का शासक देवता घोषित किया गया। राज्य सरकार ने कुल्लू दशहरा को अंतर्राष्ट्रीय त्योहार घोषित किया है, जो बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करता है।

● तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक में नवरात्रि / दशहरा उत्सव नौ दिनों तक चलता हैं जिसमें तीन देवियां लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा की जाती हैं। इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।

🚫 दशहरे पर प्रतिबंध

इस्लाम में शिर्क (Shirk in Islam)
शिर्क का अर्थ है महापाप या सबसे बड़ा पाप। इस्लाम में अल्लाह के अलावा किसी अन्य को भगवान मानना और मूर्तिपूजा करना सबसे बड़ा पाप हैं।

इस्लामिक शासकों व आक्रमणकारियों द्वारा दशहरा व अन्य गैर मुस्लिम त्योहारों को इस्लाम विरुद्ध घोषित करके त्योहार मनाने पर रोक और मनाने पर दंड दिया जाता था। औरंगजेब, टीपू सुल्तान आदि ने गैर मुस्लिम त्योहार मनाने पर मृत्यु दंड का विधान (कानून) बनाया था। वर्तमान समय में भी मुस्लिम बहुमत क्षेत्रों में गैर मुस्लिमों को भेदभाव और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता हैं।

सिद्ध महापुरुषों की गुप्त तपस्थलियाँ ---


सिद्धभूमियाँ विशेष एवं रहस्यमय होती हैं। यहाँ की
सत्ता पर देश एवं काल का प्रभाव नहीं पड़ता है।
ये सिद्धों की वासस्थली होती हैं, जिनकी तपस्या की
ऊर्जा से ये भूमियाँ ओत-प्रोत होती हैं। इन भूमियों के
कण-कण में सिद्धों की तपस्या सन्निहित होती है, अत: ये
भूमियाँ सिद्धों की इच्छाओं एवं विचारों से संचालित एवं
परिचालित होती हैं। इस विचित्रता का कारण यह है कि इन भूमियों की स्थिति स्थूल में होकर भी सूक्ष्मसत्ता में होती है। इन भूमियों की प्रभा एवं आभा दिव्य एवं विशिष्ट होती है। तपस्वियों के महातप से उनका निवासस्थल दिव्य एवं सिद्ध बन जाता है। ध्रुवलोक तपस्वी बालक ध्रुव की तपस्या से ओत-प्रोत है। सुखावती पुरी भगवान बुद्ध की तपस्या से परिपूर्ण है। ज्ञानगंज का राजराजेश्वरी स्थल भी सिद्धभूमि माना जाता है। गंगाद्वार से कैलासपर्यंत का विशाल क्षेत्र सिद्धमंडल है। यमुनोत्तरी से लेकर नंदादेवी
तक का क्षेत्र सिद्धक्षेत्र के नाम से परिचित है। श्रीशैल
पर्वत, नंदा देवी, विंध्यांचल, दक्षिण भारत का अरुणाचलम् पर्वत, बिहार स्थित गुह्यकूट पर्वत सिद्धस्थली कहे जाते हैं। कैलास मानसरोवर तो भगवान शिव की विख्यात तपस्थली है। कैलास को तो धरती का ही नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि का केंद्रबिंदु माना जाता है। सारी सृष्टि उसी केंद्र पर आधारित मानी जाती है।

वाल्मीकि रामायण में ऐसे दिव्य एवं सिद्ध क्षेत्रों का
वर्णन प्रचुरता से आया है। किष्किंधाकांड में उल्लेख
मिलता है कि सीता माता की खोज करते-करते हनुमान
जी एवं वानरगण एक अलौकिक स्थान पर पहुँच गए थे।
इसका नाम था ऋक्षबिल, जो मंत्रशक्ति द्वारा नियोजित था और एक दानव इसकी रक्षा करता था। वह गुफा अत्यंत भयानक एवं रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। गुफा में गहन अंधकार था। वानरगण किसी तरह से इस अंधकार को पार करने के बाद जब आगे पहुँचे तो उनको प्रकाश दिखाई दिया। यह प्रकाश स्वर्णिम आभायुक्त था और उसके प्रकाश से लता, वृक्ष, भवन और यहाँ तक कि जलाशय के जलचर भी प्रकाशित हो रहे थे।

हनुमान जी को वहाँ एक तपस्विनी तप करते हुए दिखाई दी। तपस्विनी ने हनुमान जी से कहा कि इस स्थान में प्रवेश करने के बाद यहाँ से अपने प्रयास के बल पर बाहर नहीं जाया जा सकता है। यहाँ के सिद्ध महात्मा ही उन्हें बाहर कर सकते हैं। हनुमान जी के आग्रह पर तपस्विनी ने उनको अपने तपोबल से बाहर निकाला। जब वे बाहर निकले तो समुद्र के पास प्रस्रवण के पर्वत के पास थे; जबकि गुफा में प्रवेश करते समय वे विंध्यपर्वत के नैऋत्य कोण से होते हुए दक्षिण भारत की पर्वतमाला तक पहुँचे थे।
मतंगाश्रम भी इसी प्रकार का दिव्यक्षेत्र था। भगवान
श्रीराम ने वहाँ पर भक्तिमती शवरी से भेंट की थी। उस
दिव्य आश्रम में बहुत सारे ऋषि तपस्यारत थे, परंतु भगवान राम के वनगमन के दस वर्ष पूर्व उच्चस्तरीय लोकों को प्रस्थान कर चुके थे। शबरी श्रीराम को वह स्थल दिखाते हुए कह रही थी कि दस वर्ष पूर्व जो ऋषि स्नान के पश्चात अपने गीले वस्त्र सूखने के लिए फैलाकर छोड़ गए थे, वे अभी तक इसी प्रकार गीले हैं। सिद्धों द्वारा छोड़ी कमल की मालाएँ, कई प्रकार के पुष्प, दूर्वा आदि वैसे ही थे, मुरझाए नहीं थे। इन वस्तुओं से एक विशेष प्रकार की किरणें निकल रही थीं, जो ऋषियों की तपस्या की ऊर्जा से सन्निहित थीं।

महाभारत के वनपर्व में भी ऐसे सिद्ध आश्रमों का उल्लेख मिलता है। दमयंती राजा नल को खोजते-खोजते एक ऐसे वन में चली गई थी, जहाँ का दृश्य अत्यंत मनोरम एवं सुंदर था। उस वन के अंदर एक तपोवन था।
अनेक ऋषि वहाँ तपस्या कर रहे थे। वे वल्कल एवं
मृगछाला धारण किए हुए थे। दमयंती ने जब उनको
प्रणाम किया और अपनी व्यथा सुनाई तो ऋषियों ने
आशीर्वाद दिया कि महाराज नल निषध प्रदेश पर पुनः
सिंहासनारूढ़ होंगे और तुम्हारे साथ उनका पुनर्मिलन
होगा। इसके पश्चात सभी ऋषिगण उस तपोवन के साथ
अदृश्य हो गए। दमयंती तमाम प्रयासों के बावजूद उस
दिव्य तपोवन का पुनः दर्शन नहीं कर सकी।

महाभारत में आए एक अन्य कथानक के अनुसार, 
पांडवों ने भी अपने वनवास काल में महर्षि लोमश तथा
धौम्य के साथ अनेक सिद्धाश्रमों का दर्शन प्राप्त किया
था। कैलास पर्वत के पूर्व में स्थित मणिमंत प्रदेश को भी
सिद्धों की गुप्तस्थली कहते हैं। वर्तमान में इसे माणा
शिखर के नाम से जाना जाता है। भौगोलिक दृष्टि से
गंधमादन पर्वत तथा माणा को अलकनंदा के पश्चिम तट
पर तथा नंदादेवी को अलकनंदा के पूर्व तट पर स्थित
मानते हैं। अलकनंदा के दोनों भागों को सिद्धों का विचरण स्थल माना जाता है। यहाँ पर सिद्ध महात्मा एवं ऋषि अभी भी तपस्यारत हैं और स्वेच्छा एवं अनुग्रहवश कभी- कभी जनसामान्य को दर्शन भी दिया करते हैं।
महाकवि कालिदास ने मंदाकिनी के पार्श्व में स्थित उपत्यका श्रेणी को गौरी का पिता कहा है। यह भी अत्यंत रहस्यावृत प्रदेश है। आदिशंकराचार्य, गोरक्षनाथ, माधवाचार्य, गोस्वामी तुलसीदास, स्वामी रामतीर्थ आदि महापुरुषों को इस क्षेत्र में अलौकिक एवं अद्भुत दर्शन मिल चुके हैं।

यमुनोत्तरी पर आज भी कुछ सिद्ध रहते हैं तथा भीषण
हिमपात में भी वे वह स्थान नहीं छोड़ते। दीपावली के बाद होली तक वहाँ भोजन सामग्री नहीं मिलती और कहते हैं कि इस स्थिति में यक्ष लोग उनके लिए भोजन सामग्री की व्यवस्था कर देते हैं। इस तरह सिद्ध-महात्मा अपनी तपस्या में दीर्घकाल तक निमग्न रह पाते हैं।
एक बार महायोगी त्रिपुरलिंग असम के जयंतिया
पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। वहाँ उनको गहन वन में एक
गुफा दीखी। उन्होंने वहाँ पर रात्रि व्यतीत करना चाही।
अर्द्धरात्रि में संपूर्ण वन गंभीर निस्तब्धता से व्याप्त हो
उठा। तब योगिराज त्रिपुरलिंग भगवान शिव की आराधना में तल्लीन थे। ध्यान से बाहर निकलने के बाद उन्होंने देखा कि गुफा एक दिव्य ज्योति से उद्भासित है और एक जटाजूटधारी तेजोदीप्त महापुरुष उनके सामने खड़े हैं। वे योगिराज को अनेक प्रकार के उपदेश देकर अदृश्य हो गए। योगिराज ने देखा कि महापुरुष के साथ वह गुफा एवं वह सिद्ध भूमि भी सूक्ष्म में समाहित हो गई।

इसी तरह बंगाल के प्रख्यात लेखक प्रमोद कुमार
चट्टोपाध्याय ने प्रयाग क्षेत्र में झूसी के पास एक सिद्ध
गुफा के दर्शन किए थे। यह विवरण उनके बंगाली ग्रंथ
'अवधूत ओ योगिसंग' में उल्लेख है। उन्होंने वहाँ किले
के पास देखा कि किले के भग्नावशेष के नीचे पर्वत पर
कई गुफाएँ थीं, जिनके ऊपर कुछ कमरे थे और ८-१०
सीढ़ियाँ उतरते ही वहाँ एक गली जैसा संकीर्ण मार्ग था।
ऐसी ही एक गुफा में एक दीपक जल रहा था। उस
दीपक के प्रकाश में मृगचर्मासन पर बैठे एक सिद्ध का
दर्शन उन्हें हुआ। कहते हैं कि वे बाबा कल्पनाथ थे।
बाबा ने उस निर्जन गुफा में पूड़ी, साग, अचार तथा
मालपुआ प्रस्तुत किए। सभी वस्तुएँ ताजी लाई गई थीं।
भोजनोपरांत उन्हें उपदेश देकर पूरी गुफा ही अंतर्धान हो
गई। इस प्रकार सिद्ध एवं सिद्धाश्रम होते हैं, जहाँ पर वे
जनकल्याण हेतु तपस्या करते हैं। श्रद्धासिक्त एवं ज्ञानपिपासु को ही उनकी कृपा की प्राप्ति होती है .
                              
                             

पुनर्जन्म रहस्यम् ।।


            आदि गुरु शंकराचार्य जी ने कहा है
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥
अर्थात फिर से जन्म, फिर से मरण और पुनः माता के गर्भ में शयन । इस संसार में कष्ट ही कष्ट हैं। समस्याऐं ही समस्याऐं हैं। हे प्रभु! आप मुझे इस चक्र से मुक्त कीजिए। पृथ्वी पर जन्म लेना ही अत्यधिक कष्टप्रद है। संसारी व्यक्तियों के लिए जन्म केवल माता के गर्भ से बाहर आने पर ही माना जाता है मृत्यु शरीर त्यागने को माना जाता है यह तो एक महाचक्र की कुछ कड़ियाँ हैं। सांसारिक दृष्टिकोण अत्यंत ही सीमित होता है। माता के गर्भ में जीवन के स्पंदन से पहले अनंत कड़ियाँ हैं और मृत्यु के पश्चात् भी अनंत स्थितियाँ हैं। अतः समग्रता के साथ पुनर्जन्म को समझना है, स्वयं की खोज करना है तो सभी कड़ियों को समझना पड़ेगा। उसी के हिसाब से चिंतन को ढालना होगा, कर्मों को सम्पादित करना होगा तब कहीं जाकर हमारे जन्म लेने की वास्तविकता से हम परिचित हो सकेंगे।

            पुनर्जन्म विज्ञान महाविज्ञान है। इसको समझे बिना, इसको परखे बिना हम सामान्य व्यक्ति की श्रेणी से ऊपर नहीं उठ सकते। अध्यात्म की तो बात करना भी मुश्किल है। अतः सभी ऋषियों ने ज्ञानियों ने एवं इस पृथ्वी के सभी धर्मों ने किसी न किसी रूप में पुनर्जन्म की महत्ता स्वीकार की है। विशेषकर इस पृथ्वी के सबसे शाश्वत् एवं मूल वैदिक धर्म ने तो इसकी विस्तृत व्याख्या की है। केवल चर्वाक दर्शन ही सनातन धर्म में एक ऐसा दर्शन हुआ है जिसने कि पुनर्जन्म की व्याख्या नहीं की है। इस कलियुग में अधिकांशतः देशों में चर्वाक दर्शन की निष्कृष्टता के कारण ही मनुष्य अत्यंत भोगी हो गया है। चर्वाक का तो कथन है कि
यावज्जीवं सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबे।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥

          अर्थात घर में घी न हो तो उधार लेकर पियो। जितना हो सके मौज करो, जितना हो सके भोग करो। जो दिल चाहे वह स्वच्छंदतापूर्वक करो। सिर्फ अपने बारे में सोचो। स्वयं स्वार्थ सिद्धि करो एवं सभी रिश्तों को एक ताक पर रख दो जीवन का उद्देश्य भोग एवं केवल भोग है।

          यह है चर्वाक दर्शन जो कि द्वापर में युधिष्ठिर के समक्ष चर्वाक ने रखा था। उस युग के अनुसार इन्हें जीवित चिता पर जला दिया गया था। वह प्रभु श्रीकृष्ण का युग था अधर्म के सम्पूर्ण नाश का युग था। उस युग में सभी अधर्मियों का युधिष्ठिर के नेतृत्व में प्रभु श्रीकृष्ण के द्वारा सर्वनाश हुआ था। चर्वाक का भी सर्वनाश हुआ। इसके पश्चात आज भी अनंत लोग इस पृथ्वी पर चर्वाक के सिद्धांत का अनुसरण जाने अनजाने में करते ही हैं। अंत क्या होता है? यह सबको मालुम है। भोगियों का अंत अत्यंत ही हृदय विदारक होता है। चर्वाक ने वास्तव में जो परम्परा स्थापित करने की कोशिश की उसका दण्ड तो उसे उसके जीवन में मिल ही गया। प्रभु श्रीकृष्ण ने यह दिखा दिया कि जो भी व्यक्ति चर्वाक के सिद्धांतों पर चलेगा उसका अंत उसके तथाकथित गुरु चर्वाक के समान ही होगा।

        इसीलिए इस पृथ्वी पर रुदन है शोक है, धोखा है, रोग है, क्योंकि यह सब चर्वाक सिद्धान्त के फल हैं। कर्म के सार्वभौमिक सिद्धान्त को झुठलाने की प्रक्रिया ही चर्वाक सिद्धान्त है। चर्वाक को समझना अत्यधिक आवश्यक था अन्यथा पुनर्जन्म की व्याख्या संभव नहीं है। जिनके मस्तिष्क में चर्वाक घुसा हुआ हो वे पुर्नजन्म की बात न करें तो अच्छा है। चर्वाक रूपी मस्तिष्क ही इस संसार की समस्त वेदनाओं और समस्याओं की जड़ है। आजकल लोग कहते हैं कि साधु संतों की अत्यधिक भीड़ हो गई है। इसमें क्या बुराई है, यह क्यों हुआ ? इसे आपको समझना होगा। लोगों के दृष्टिकोण अत्यधिक सांसारिक हो गये हैं। इन्द्रियों की गहराई कम हो गई है। इन्द्रियाँ सिकुड़ एवं संकीर्ण हो गई हैं। लोच का हर जगह अभाव मिल रहा है। यंत्रवत जीवन शैली ही हर तरफ दिखाई पड़ती है। साधु संतों में प्रज्ञा का विकास सामान्य लोगों की अपेक्षा अधिक होता है। इसीलिए वे सत्य को अधिकतम सीमा तक पहचानते हैं। मनुष्य के अंदर समझने की शक्ति है। समझने की शक्ति ही ज्ञान प्राप्ति में अत्यधिक सहायक है। जैसे-जैसे समझने की शक्ति विस्तृत एवं सूक्ष्म से सूक्ष्म होती जाती है वैसे- वैसे मनुष्य गूढ़ ज्ञान, गुह्य ज्ञान, तत्व् ज्ञान, महाज्ञान एवं दिव्य ज्ञान और अंत में ब्रह्म ज्ञान की आवृत्तियों में प्रवेश करता जाता है।

         ज्ञान प्राप्ति के अभाव में मुक्ति असम्भव है। साधु-संत अपनी स्थितिनुसार विभिन्न माध्यमों से ज्ञान को सामान्य जनों के सामने उपस्थित करते हैं। मानना न मानना अलग बात है। यह भी ईश्वर का एक विधान है।

जिस प्रकार बरसात से पहले आकाश अचानक मेघमय हो जाता है और समझदार प्राणी अपने आपको सुरक्षित जगहों पर छिपा लेते हैं उसी प्रकार ईश्वर भी ज्ञानी पुरुषों के माध्यम से चेतावनी प्रकट करता है। आपके माता पिता आपको समझाते हैं कि आप पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दो,व्यापार व्यवसाय पर ध्यान दो आप नहीं मानते हैं तो फिर उसका नतीजा भुगतते हैं। नतीजा भोगने वाले भी एक प्रकार से जीते जागते उदाहरण हैं सभी जनमानस के लिए जो कि ईश्वर द्वारा रचित परम सूक्ष्म कर्म व्यवस्था का पालन नहीं करते हैं। चोरी करना महापाप है सभी को मालुम है फिर भी लोग चोरी करते हैं। उन्हें राज्य की तरफ से दण्ड मिलता है वे जीते जागते उदाहरण बन जाते हैं अन्य लोगों के लिए।

          निरपेक्ष भाव से देखें तो इस संसार में दो स्थितियां सामने उभर कर आती हैं। प्रथम जिसमें ईश्वर एक ऐसी व्यवस्था निर्मित करता है जो कि सृष्टि संचालन के लिए अत्यधिक उपयुक्त हो। दूसरी तरफ ईश्वर मनुष्य के साथ-साथ प्रत्येक प्राणी को उसके कर्म सम्पादित करने के लिए एक विस्तृत सीमा तक छूट भी देता है। मनुष्य को पूर्ण स्वतन्त्रता है कर्म सम्पादित करने के लिए। सभी को मालुम है कि भोगवाद उचित नहीं है फिर भी इस पृथ्वी पर ईश्वर ने भोगवादी संस्कृति की भी पूरी छूट दे रखी है। यह प्रमाणीकरण का सबसे उपयुक्त तरीका है। भोग करके भी देख लो। अति में भी भोग करके देख लो। पाश्चात्य मुल्कों में भोग की इतनी अति भी निर्मित कर दी गई है कि वह परम विकृति के अंतिम बिन्दु तक पहुंच गई है।वहां पर भी पहुँचकर मनुष्य को संतुष्टि प्राप्त नहीं होती। यही ईश्वर की मार है। उसकी लाठी जब चलती है। तो दिखाई भी नहीं देती है और न ही आवाज होती है फिर भी चोट तगड़ी लगती है।

         पुनर्जन्म की व्याख्या से पहले वर्तमान की भोग व्याख्या अत्यधिक आवश्यक थी।अब बात करते हैं पुनर्जन्म के कुछ अंतरंग पहलुओं की । पूर्वजन्म क्या है? कुछ भी नहीं सिर्फ जो वर्तमान चल रहा है बस उसी का भूतकाल। वर्तमान की प्राप्ति पूर्वजन्म आधारित है। सामान्य मनुष्य से ऊपर उठने की जैसे ही हम कोशिश करते हैं हमें तुरंत ही पूर्वजन्म की स्थितियों को जानना होगा। वर्तमान का विशेषण ही पूर्वजन्म की व्याख्या है। एक व्यक्ति जैसे अध्यात्म की तरफ बढ़ता है, स्वयं का निरीक्षण शुरू करता है, ध्यानस्थ होने के लिए बैठता है तो उसे क्रोध आने लगता है। कभी-कभी आँखों से आँसू भी आ जाते हैं, बचपन की यादें ताजा हो उठती हैं,उसे अपना अपमान याद आने लगता है। वह घबरा उठता है और तुंरत ही ध्यान से उठकर भागने लगता है। भागने से क्या होगा?अभी तो इसी शरीर से सम्पन्न किए गये कर्मों के अवशेष बाकी हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति निरपेक्ष भाव से अपने मानस पर जमी धूल साफ करता जायेगा उसे अपना पूर्वजन्म दिखलाई पड़ने लगेगा।पूर्व जन्म कुछ भी नहीं है बस सिर्फ कर्मों की श्रंखला है।

         कर्मों से मुक्ति किसी को भी नहीं है। कर्म सभी को सभी योनियों में, सभी लोकों में सम्पन्न करने पड़ते हैं। देवलोक में भी कर्म हैं, नर्क में भी कर्म हैं। श्रंखला सम्पन्न करने के लिए ही आत्मा को शरीर धारण करना पड़ता है। सूर्य के प्रकाश से भोजन बनाने के लिए वृक्ष योनि में ही जाना पड़ेगा। नृत्य कर्म सम्पादित करने के लिए नर्तकी ही बनना पड़ेगा। दिव्य भोगों को भोगने के लिए स्वर्ग लोक में जाकर स्वर्गानुसार दिव्य देह ही धारण करती होगी। जैसा लोक होगा उसी के अनुसार देह की प्राप्ति होगी और उस लोक में लोकानुसार कर्मों को ही सम्पादित करना होगा। स्वर्ग में संतानोत्पत्ति नहीं की जाती।देव लोक में असुरी कर्म सम्पादित नहीं कर सकते।पितृलोक में रहकर अपने वंशजो द्वारा प्रदत्त तर्पण और श्राद्ध रूपी भोजन से ही स्वयं को तृप्त करना पड़ेगा। पूजन का दशांश प्रभु ने केवल देवताओं के लिए ही निश्चित किया है। यज्ञानुष्ठान की आहुतियां केवल देवता ही ग्रहण कर सकते हैं। यही तो मूल कारण है देवताओं और असुरों के बीच युद्ध का।

           देवता और असुर दोनों एक ही पिता से उत्पन्न हुए हैं परन्तु प्रजापति ने असुरों को दिव्यनुष्ठानों एवं पूजन इत्यादि के दशांश से वंचित कर दिया और इसी कारण से असुर शक्तियाँ देवताओं पर कुपित हो उठीं। अनंत काल से बस यही बात युद्ध का कारण बनी हुई है। यही है पुनर्जन्म का मूल कर्म सिद्धान्त इसी कर्म सिद्धान्त की प्रभु श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवत गीता में व्याख्या की है।असुर अपना कर्म सम्पन्न करेंगे, देवता अपना कर्म एवं परम परमेश्वर को भी अपना कर्म सम्पादित करना पड़ता है। जितनी भी दिव्य महा शक्तियां हैं वे सबकी सब अपने मूल कर्मों के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं। महादेव भी प्रतिबद्ध है वरदान देने के लिए, विष्णु भी प्रतिबद्ध है ब्रह्माण्ड के पालन के लिए एवं दुष्टों के दलन के लिए ब्रह्मा भी प्रतिबद्ध हैं सृष्टि की रचना के लिए।

         जब भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि जब-जब इस पृथ्वी पर अधर्म बढ़ेगा मुझे देह धारण करनी ही पड़ेगी। जैसे ही मुझे देह धारण करनी पड़ेगी हे पार्थ। तुझे भी देह धारण करनी ही पड़ेगी। जब- जब मैं इस पृथ्वी पर आऊंगा तुझे भी पृथ्वी पर आना ही पड़ेगा। यह तो निश्चित ही है। अतः तू मुझे पहचान। आगे प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं मैं इस पृथ्वी पर अनेकों बार आया हूँ। तू भी अनेकों बार आया है। तू अपने जन्मों को भूल गया है परन्तु मैं कुछ भी नहीं भूला हूँ। वृक्ष से निकला हुआ नया बीज पुनः पृथ्वी पर नये वृक्ष की रचना कर देता है। वृक्ष में लगे नये पत्ते सोचें कि अगर वे पहली बार उगे हैं तो यह मूर्खता है। अनंतकाल से हर वृक्ष में पत्ते होते हैं। हमारी आकाश गंगा रूपी महावृक्ष से पुनः बीज रूपी जीवन ब्रह्माण्ड में कहीं एक और समान आकाश गंगा उदित कर देगा। बीज सभी के होते हैं। उस आकाश गंगा में भी ठीक इस आकाश गंगा के समान ही सूर्य, चंद्र, ब्रहस्पति, शुक्र इत्यादि जैसे ग्रह नक्षत्रिकाएं अनेकों उपग्रह एवं असंख्य तारागण समूह होंगे। आकाश गंगाओं के भी बीज होते हैं। यही है महाज्ञान यही है ब्रह्मज्ञान । श्रंखलाबद्ध जीवन।

            रामानुजाचार्य के गुरु ब्रह्मज्ञानी थे। मृत्यु के समय जैसे ही उनका प्रिय शिष्य रामानुजाचार्य उनके नजदीक पहुँचा वह देखता है कि गुरु की तीन उँगलियां उठी हुई हैं वह तुरंत ही समझ गये कि गुरु के तीन कार्य अधूरे रह गये हैं। उन्होंने तुरंत ही शपथ ली कि मैं अपने जीवन में ब्रह्मसूत्र, महाज्ञान प्रबंधन एवं वेदान्त दर्शन पर तीन टीकाएं अवश्य लिखूंगा। गुरु अपने अधूरे कार्यों की श्रंखला शिष्य को प्रदान करके चले गये। वैदिक दर्शन पूरी तरह से पुनर्जन्म आधारित है। इस दर्शन की एक एक श्रृंखला में पूर्वजन्म के कर्मों को सम्पादित करने की पूरी व्यवस्था है। वेदान्त दर्शन से भागने में क्या होगा ? जिस दिन मनुष्य भागने में सक्षम हो जायेगा पलायन का सिद्धान्त सफल हो जायेगा और उस दिन ईश्वर का मूल्य ही क्या रह जायेगा। ईश्वर की तो छोड़िये अगर स्थूल कर्मों का सिद्धान्त ही खण्डित हो जाये तो फिर सभी भगवान हो जायेंगे। जब सभी भगवान हो जायेंगे तो फिर भगवान को कौन पूजेगा। सभी भगवान नहीं हो सकते। सभी मनुष्य नहीं हो सकते, सभी देवता भी नहीं हो सकते एवं सभी असुर, पशु या वृक्ष भी नहीं हो सकते। यही तो विशेषता है ईश्वर की।

             एक पेड़ से कई बीज गिरते हैं और कई वृक्ष उगते हैं। सभी के कर्म समान होते हैं और आम के सभी वृक्षों में से आम ही उँगेंगे। यह है देह धारण करने का सिद्धान्त । आपका गोत्र भारद्वाज है तो फिर आपके आदि ऋषि भारद्वाज की चेतनानुसार ही आप देह धारण करेंगे। आप अगर क्षत्रिय कुल में पैदा हुए हैं तो फिर क्षत्रियोचित्त कर्म आपकी जीवन शैली में निश्चित ही दिखाई पड़ेगें। इन कर्मों , को आपको सम्पादित करना ही पड़ेगा। इनसे आप भाग नहीं पायेंगे। कुछ दिन भागने के पश्चात् गड़बड़ होना शुरू हो जायेगी। आपको अपने कर्मों पर पुनः लौटना पड़ेगा। एक जगह राम लीला चल रही थी। रावण जोर से अट्टाहास कर रहा था, सीता हाय राम हाय राम कह विलाप कर रही थी। राम लक्ष्मण और हनुमान रावण से युद्ध कर रहे थे। जनता जनार्दन भावावेश में चिल्ला रही थी। तत्पश्चात् पर्दा गिरता है कुछ लोग पीछे जाकर देखते हैं कि ड्रेसिंग रूम में सीता रावण के पास खड़ी मुस्कुरा रही है। राम और लक्ष्मण हँस-हँस कर रावण से बात कर रहे हैं और हनुमान जी सबको चाय पिला रहें हैं।

           आपके मस्तिष्क में इतनी ताकत होनी चाहिए कि आप राम लीला के पात्रों के इस दृश्य को पचा सकें। अगर इनको भी नहीं पचा पाओगे तो फिर ईश्वर की परम लीला के पीछे के दृश्यों को क्या पचाओगे। जीवन के रंगमंच पर नाटक तो करने ही पड़ते हैं। अभिनय तो जीवन का हिस्सा है। वर्तमान जीवन पूर्वजन्म के कर्मों को अभिनीत करने का अच्छा रंग मंच है। कर्म कष्ट, प्रायश्चितों और पापों को वर्तमान जीवन में ही धोया जा सकता है, काटा जा सकता है। इसके साथ ही वर्तमान के कर्मों को इस प्रकार से सम्पन्न किया जा सकता है कि आने वाला जीवन या जन्म हमारी इच्छानुसार ही प्राप्त हो। यही विधान है उचित लोक, उचित योनि एवं उचित भोग को प्राप्त करने का। जब तक पूर्व जन्मकृत कर्मों का सम्पादन नहीं होगा, पूर्व जन्मकृत ऋणों का भुगतान नहीं होगा तब तक स्वतंत्र और इच्छानुसार योनि प्राप्ति असम्भव है।

         कष्ट, समस्यायें तो सिर्फ परिणाम हैं, भुगतान हैं हमारे पूर्व जन्मकृत कर्मों का। जैसे ही हम सूक्ष्मतम दृष्टिकोण अपनायेंगे हमें हमारी जिम्मेदारियां, हमारे वायदे, हमारे अधूरे कार्य एक-एक कर दिखाई पड़ते जायेंगे। जिन्हे हमने कभी किसी जीवन में अपूर्ण स्थिति में छोड़ दिया था। यही कर्म हमें पूरा करने के लिए बार-बार बाध्य करते हैं। ईश्वर एक पर्दा डालकर रखता है।

           एक कथा सुनाता हूँ। एक बार एक साधु हुए उनके पास अनेकों भक्त गण मिलने आते और सभी अपनी श्रद्धानुसार कुछ न कुछ उनको अर्पित करके जाते। सेठ जी भी उनके अनुयायी थे । वे भी भक्तिभाव से उन्हें कुछ न कुछ अर्पित करते रहते थे। धीरे-धीरे साधु महराज के पास एक लाख रुपया इकट्ठा हो गया। साधु महाराज कहाँ रखते पैसे को उन्होंने अपने विश्वसनीय शिष्य रूपी सेठ को एक लाख रुपये रखने को दे दिए। कालान्तर साधु ने मंदिर बनवाने के लिए सेठ से जब पैसे माँगे तो सेठ की नियत बदल गई। उसने मना कर दिया तुरंत ही साधु की हृदयघात से मृत्यु हो गई। कुछ समय पश्चात् सेठ जी के घर एक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह पुत्र बाल्यावस्था से ही अत्यधिक खर्चीला था। प्रतिदिन सेठ के पैसे उनकी मर्जी के खिलाफ खर्च करता रहता था। जब वह 15 वर्ष का हुआ तो उसने अपने जन्म दिवस पर एक अभूतपूर्व समारोह किया और भरपूर पैसा खर्च किया। समारोह के पश्चात् रात्रि को वह पान खाने गया । जैसे ही उसने पान खाकर पैसा दिया उसकी मृत्यु हो गई इकलौता पुत्र और वह भी युवा, सेठजी पर तो मानो वज्रघात हो गया। कुछ दिन बाद मुनीम ने सेठ जी के सामने हिसाब रखा तो उसमें ठीक एक लाख रुपये उनके पुत्र द्वारा फिजूल खर्च में उड़ाये गये थे। पान की कीमत के पूरा होते ही एक लाख रुपये की फिजूल खर्ची हो गई थी। अचानक सेठ जी को अपने पापकर्म याद आ गये और उनकी मृत्यु भी हृदयघात से हो गई। इसे कहते हैं लेखा जोखा वह भी पूर्व जन्मों का। 

           अगर आप किसी को एक बार अपशब्द भी कहते हैं तो उसका भी लेखा जोखा होता है। वह आपके पक्ष में जाता है या विपक्ष मे यह बात तो लेखा जोख पूर्ण होने पर ही मालुम पड़ेगी पुरन्तु प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म कर्म की भी गणना निश्चित होती है और गणना का परिणाम ही आपके जन्म का कारण या फल बनता है। फल भी कौन देगा यह भी ईश्वर निश्चित करता है। नौकरी तो सभी करते हैं परन्तु तनख्वाह देने वाला मालिक कैसा है वह भी ईश्वर निश्चित कर देता है। स्थूल वेतन के साथ तनाव या सम्मान या संतुष्टि भी प्राप्त होती है। फल एकांगी नहीं होता है। शरीर एकांगी नहीं है। स्थूल देह में लिंग शरीर भी है, अधि भौतिक शरीर भी है, आत्मा भी है। इन सबका भी वेतन अलग-अलग है। प्रत्येक कोष का फल अलग होता है। यह सब भी लेखा जोखा की वृहद व्याख्या के अन्तर्गत आता है। तनख्वाह में प्राप्त होने वाले या व्यापार में प्राप्त होने वाले उस हजार रुपये के साथ-साथ कहीं तनाव मानस को तो नहीं मिल रहा है। अपमान या अपराध बोध से हृदय शक्ति तो कुण्ठित नहीं हो रही है। जिसे हम फल समझ रहें हैं वह कहीं आटे के बीच रखी हुई चूहे मार दवाई के समान विष तो नहीं है यही हमें समझना होगा। 

             कर्मों का सिद्धान्त बड़ा सीधा है। आप किसी को पकड़कर उससे पैसे छिना लीजिए। पैसे आपके पास आ गये। यह तो हुआ कर्म का प्रथम परिणाम अब इस कर्म की द्वितीय आवृत्ति में आपको भय भी मिलेगा, तृतीय आवृत्ति में आपको दण्ड भी भोगना पड़ेगा, चतुर्थ आवृत्ति में पाप का उदय होगा, पंचम आवृत्ति में आपकी छवि कलुषित होगी, छठवीं आवृत्ति में आपकी आत्मशक्ति कमजोर होगी। इस प्रकार से अनंत स्थितियां बनेगी प्रत्येक धरातल पर एवं आपको भिन्न-भिन्न परिणाम प्राप्त होंगे। अंत में आत्मा की स्थिति आयेगी और इस पर अंकित परिणाम मृत्यु के पश्चात् आपको योनि प्रदान करने या लोक प्रदान करने में मदद 'करेगा। तीन तरह की योनियां हैं प्रथम योनि में भोगी जीव आते हैं। जैसा मर्जी चाहे वैसा करते रहो अज्ञानियों के समान, जो योनि मिल जाये ठीक है, पशु बने, वृक्ष बने,नरक में जायें, अधबने हमें क्या करना है ? हमें तो चर्वाक की नीति पर चलना है। दूसरी स्थिति ज्ञानमार्ग की है। यह अतिश्रेष्ठ स्थिति है। इसमें जीव एक-एक करके ज्ञान की आवृत्तियों को समझता हुआ अंत में ब्रह्म सूत्रों को भी समझ जाता है और फिर एकनिष्ठ हो उसके प्राण ब्रह्म में स्थित हो जाते हैं। वह कामनाओं से मुक्त हो जाता है।वह कर्मों को समात कर लेता है। यह निर्बीज स्थिति है। सत्य का मार्ग है।इसमें उसे किसी सहारे की जरूरत ही है न वह बुरा करता है न वह बुरा सहता है।वह जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।कम से कम एक कल्पांत तक के लिए तो अवश्य ही।

           तीसरी स्थिति सद्कर्मों की स्थिति है इसमें व्यक्ति या प्राणी ब्रह्मज्ञानी के समान पुनर्जन्म की सम्पूर्ण संरचना को समझ लेता है परन्तु वह अन्य लोकों में जाकर दिव्य भोगों के लिए सद्कर्म या श्रेष्ठ कर्मों की श्रृंखला को निरंतर सम्पादित करता रहता है।इसे कहते हैं सकाम पूजन।इस मार्ग पर चलने वाले संकल्पित कार्य करते हैं।उनमें संकल्प शक्ति अत्यधिक विकसित होती है।वे अपनी संकल्प शक्ति के सहारे मृत्यु पर्यन्त दिव्य देह धारण कर स्वर्ग लोक में जाकर दिव्यतम' भोगों को सम्पन्न करते हैं, अमृत पान करते हैं और पुनः पुण्य कर्मों के क्षय होने पर योग्यतानुसार इस पृथ्वी पर उच्च कुलों में प्रादुर्भाव लेते हैं। 

           स्वर्ग भी कई प्रकार के हैं। आनंद भी कई प्रकार के हैं। कुछ आनंदों की पूर्ति के लिए तो पृथ्वी लोक ही उपयुक्त है। अनेकों प्रकार के वैभवशाली भोग तो पृथ्वी लोक पर ही सम्पन्न किये जा सकते हैं। देना ईश्वर का कार्य है माँगना आपका कार्य है। जो मागोगे वह आपको मिलेगा। आप चाहते हों कि हमारे पास परम सुन्दरियाँ हों, भोग के लिए खूब पैसा हो तो ऐसा भी इस पृथ्वी पर मिल जाता है कोई बड़ी बात नहीं है। बस आप उस प्रकार के कर्म सम्पन्न कर लीजिए जिन्हे ईश्वर ने इन पारितोषिकों के लिए निमित्त ने कहा किया है। मुख्य रूप से संकल्प शक्ति ही मनुष्य को नव जीवन प्रदान करने का कारण है।

             प्रभु श्री कृष्ण है कि जो मृत्यु के समय मुझे भजता है वह मुझमें लीन हो जाता है और जो मृत्यु के समय जैसी आंकाक्षा रखता है, उसके भाव जैसे होते हैं उसका जन्म भी उसी प्रकार से होता है। अगर किसी व्यक्ति की हत्या होती है तो मृत्यु के समय उसके मन में बदले के भाव होते हैं। ईश्वर तुरंत ही उस व्यक्ति को हत्यारे के घर में या उसके आस-पास जन्म दे देगा और हत्या हुए व्यक्ति को पूरी छूट होगी अपने अपराधी से दण्ड वसूल करने की। अधिकांशत: मनुष्य मृत्यु पश्चात् स्वयं के कुल में ही जन्म लेते हैं। उनकी आत्मायें बहुत ज्यादा दूर नहीं जाती हैं। इसीलिए पूर्व जन्म की स्मृतियां विस्मृत कर दी जाती हैं। एक झीना सा आवरण डाल दिया जाता है। नहीं तो कर्म सम्पादित नहीं हो पायेंगे। 

          एक जन्म के रिश्ते तो हम निभ्रा नहीं पाते हैं पूर्व जन्म के रिश्ते हम क्या निभायेंगें। अगर हमें मालुम चल जाये कि सामने खड़े जिस व्यक्ति को हम दुत्कार रहें हैं वह पूर्व जन्म में हमारा पिता था या सामने खड़ी स्त्री जो कि हमें अकारण ही कष्ट दे रही है वह पूर्व जन्म में हमारी पत्नी थी तो फिर हम कर्म सम्पादित नहीं कर पायेंगे। कर्म बंधनों से हमारी मुक्ति नहीं हो पायेगी। फिर भी अध्यात्म के पथ पर चले साधकों को पूर्व जन्म तो अवश्य ही मालुम करना पड़ेगा। साक्षी भाव सब कुछ देखना पड़ेगा। तभी वह एक विलक्षण पुरुष बन पायेगा एवं निर्लिस भाव से सारी लीलाओं को झेल पायेगा। यह एक प्रकार से दूसरी दुनिया का निर्माण होगा सामान्य दुनिया से बिल्कुल भिन्न । एक नये व्यक्तित्व का उदय होगा ठीक बुद्ध के समान जब वे ज्ञान प्राप्त कर लौटे तो फिर पत्नी शिष्या हो गई और पुत्र भी शिष्य हो गया। कल तक जो पुत्र और पत्नी थे आज वे शिष्य हो गये। सब कुछ बदल गया। 

            ज्ञान प्राप्ति विशेष रूप से पुनर्जन्म ज्ञान नये व्यक्तित्व का उदय है। हम मूर्च्छित हैं। मूर्च्छित व्यक्ति क्या जाने रिश्तों को। मूर्च्छित व्यक्ति तो जड़ है। मूर्च्छा के विभिन्न तल हैं। कभी मानस मूर्च्छित होता है, कभी चेतना मूर्च्छित होती है। कभी हमारा बीता हुआ काल भी मूर्च्छित होता है। हमें उठना ही होगा लक्ष्मण के समान संजीवनी हमें सूंघनी ही होगी। नहीं तो राम रोते रहेंगे और लक्ष्मण मूर्च्छित भाव से पड़ा होगा। क्या कभी चैतन्य अवस्था मे लक्ष्मण राम को विलाप करते हुए देख सकता है कदापि नहीं। कभी-कभी तो आघात के कारण हम अपनी वर्तमान की स्मृति भी खो बैठते हैं। हम स्वयं को पहचानने से इन्कार कर देते हैं अपना नाम भूल जाते हैं। क्या मृत्यु एक आघात है? जो हमें हमारा पूर्व जन्म भुला देती है। निश्चित ही मृत्यु एक आघात है। आघात से ही मूर्च्छा उत्पन्न होगी। मूर्च्छा को दूर करेगी संजीवनी आघात को भरेगी संजीवनी। 

            प्रभु का ध्यान, गुरु का आशीर्वाद, गुरु की दीक्षा ही संजीवनी है। सद्मार्ग, ईश्वर अनुष्ठान ही उपचार है आघातों का और आघातों के जाने के पश्चात् ही पुनर्जन्म का वृत्तान्त सामने आयेगा। इस बात को साधक अच्छी तरह से समझ लें। एक बार नांथ योगी गोरक्षनाथ एक दूसरे नाथ योगी के सामने पहुँचे। उन्हें देह सिद्धि थी। गोरक्षनाथ ने कहा मुझे भी देह सिद्धि है आप मेरे शरीर पर वज्र से प्रहार कीजिए मेरा कुछ नहीं होगा। महायोगी ने गोरक्षनाथ के शरीर पर खड्ग से प्रहार किया सिर्फ ध्वनि उत्पन्न हुई पर उनके शरीर का कुछ नहीं हुआ। तत्पश्चात् महायोगी ने गोरक्षनाथ से कहा आप अब मेरे शरीर पर तलवार से प्रहार कीजिए ध्वनि भी उत्पन्न नहीं होगी। जैसे ही गोरक्षनाथ ने प्रहार किया ध्वनि भी उत्पन्न नहीं हुई। तलवार किसी वस्तु से टकराई ही नहीं गोरक्षनाथ दंग रह गये तुरंत ही महानाथ के चरण पकड़ लिए। पानी में तलवार मारो पानी अलग नहीं होगा। लकड़ी पर तलवार मारोगे तो लकड़ी कट जायेगी।

           जब जीवन पानी के समान होगा आघात विहीन तब फिर पूर्व जन्म और वर्तमान में फर्क ही नहीं होगा परन्तु अगर जीवन शैली लकड़ी की भाँति होगी तो फिर पूर्वजन्म भूल जाओगे। आपको जीवन में ऐसे चेहरे मिलेगें जिन्हें देखकर अपनापन लगेगा। ऐसे व्यक्ति मिलेगें जिनसे बात करके मालुम पड़ेगा कि इनसे पता नहीं कब से सम्बन्ध हैं। कहीं कुछ ऐसा पढ़ोगे तो ऐसा लगेगा कि ये तो हमें मालुम है, यह तो वही विचार है जो हमारे हृदय में भी उत्पन्न होता है। मनुष्य भटकता है क्यों? कौन भटकाता है जीवन में असंख्य नरमुण्डों के बीच रहने के बाद भी वह कुछ तलाशता रहता है। कुछ भूले बिसरे चेहरे निरंतर हमारा मानस जीवन के अंतिम समय तक कहीं कुछ ढूँढ़ता रहता है। हम ढूँढ़ते रहते हैं अपने आदि अनंत सम्बन्धों को जब हम प्रथम बार इस सृष्टि पर उदित हुए थे तो हमारे साथ कौन-कौन थे? उन्हें ही हम ढूँढ़ते रहते हैं। कौन थी हमारी आदि पत्नी ? कौन था हमारा प्रथम आदि पिता? कौन थी हमारी प्रथम आदि माता ? कौन थे हमारे प्रथम आदि गुरु ? जब तक ये नहीं मिल जाते, जब तक हम इनसे साक्षात्कार नहीं कर लेते चाहे ये किसी भी रूप में क्यों न हो हम संतुष्ट नहीं हो सकते। हमारी आत्मा की भूख नहीं मिट सकती। हमारे सम्बन्ध पूर्ण नहीं हो सकते। हम मुक्त नहीं हो सकते। 

            बालक माता की गोद में ही शांत होता है, पिता को देखकर ही खुश होता है। पत्नी ही उसकी वास्तविक अर्धांगिनी होती है। मित्र ही उसके साथ बतियाते हैं वास्तव में । वास्तव में ही सब कुछ होना चाहिए। वास्तव ही समृद्धिकारक है। वास्तव ही पूर्णता देता है। संतुष्टि और पूर्णता में जमीन आसमान का फर्क है। पूर्णता ही आत्मा की शक्ति है। पूर्णता ही आत्मा को सबल करती है। संतुष्टि मन बहलाने की क्रिया है। समय काटने की प्रक्रिया है संतुष्टि तो रोज उगती है रोज मिटती है परन्तु पूर्णता वास्तव देती है। उसके बाद संतुष्टि की मृत्यु हो जाती है। जब तक वास्तविक पत्नी नहीं मिलती मन का भटकना तो निश्चित् है चाहे एक जन्म लगे या सौ जन्म और जब तक वास्तविक गुरु नहीं मिलता गुरु घंटालों से दिल बहलाया जा सकता है। यही है पुनर्जन्म की खोज । वास्तविक वास्तविक है और नकलीनकली। समझौता मत कीजिए। साधकों को समय को लात मारकर दूर फेंक देना चाहिए। असफलता के शब्द साधक के मुख पर नहीं आने चाहिए। यह घटिया मस्तिष्क की पहचान है। असफलता शब्द को चुनौती शब्द में परिवर्तित कर दिजिए। असफलता की मृत्यु हो जायेगी। असफलता काल के अधीन है। चुनौती महाकाल का विषय है। महाकाल ही कालजयी है। अपने अंदर बैठे आदि पुरुष को पहचानना ही पुनर्जन्म विज्ञान का मूल तत्व है। जब स्वयं के अंदर स्थित आदि पुरुष को पहचान जाऐगे तो साक्षात आप के सामने आदि माता, आदि पिता और आदि गुरु खड़े होंगे। बस इतना ही।
  
                         शिव शासनत: शिव शासनत:


शंकरं प्रेमपिण्डम् ।।

श्री गणपति से संस्पर्शित होना ही पड़ेगा। निम्बार्क स्वामी को गणेश जी ने स्वप्न में पान खिलाया और उनके मुख से श्रीकृष्ण के अद्भुत भजन फूट पड़े। मीरा सो रही थीं अचानक उन्होंने देखा कि गणेश जी सूंड से उनके ऊपर जल छिड़क रहे हैं बस कृष्ण भक्ति की प्रेममयी धारा फूट पड़ी। राम कृष्ण परमहंस काली काली चिल्ला रहे थे तभी अचानक गणेश जी प्रकट हो गये और उन्हें सूंड में लपेट लिया बस फिर क्या था रामकृष्ण परमहंस साक्षात् काली के चरणों से लिपट गये। गणेश के दर्शन ही सबसे महत्वपूर्ण हैं शिवाजी सो रहे थे अचानक स्वप्न में गणेश जी ने प्रकट होकर उन्हें तलवार थमा दी बस शिवाजी भवानी की तलवार से युक्त हो गये, कभी नहीं हारे। तुलसीदास रामायण लिख रहे थे कि गणेश जी स्वप्न में प्रकट हो गये त्रिशूल लेकर और त्रिशूल से लिख दिया ॐ श्री गणेशाय नमः तुलसीदास की रामायण अमर हो गई। सर्वप्रथम गणपति ही आते हैं अगर गणपति आ गये तो अन्य शक्तियाँ भी आयेंगी। कालीदास सो रहे थे अचानक गणेश जी ने उनके कान खींच दिए बस कालीदास जागृत हो गये और उन्हें दिव्य शिवलोक में रमण करते हुए शिव शक्ति दिखाई पड़ गये एवं रच दी उन्होंने कुमार सम्भव गणेश जी कभी लड्डू खिलाते हैं, कभी हँस देते हैं, कभी दांत दिखाते हैं, कभी आशीर्वाद देते हैं, कभी प्यार से लिपटा लेते हैं, कभी मुस्कुरा देते हैं, कभी सूंड से पानी छिड़क देते हैं और साधक कृत्य कृत्य हो उठता है, धन्य धन्य हो उठता है।

शंकरं प्रेमपिण्डम्
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        ‌गणेश को लोग सामान्यतः शिव और शिवा का पुत्र समझ लेते हैं इससे आगे नहीं। यही गलती कुबेर ने की उन्हें केवल शिव पुत्र के रूप में भोजन हेतु आमंत्रित कर लिया परन्तु गणेश ने अपनी लीलाओं से यह सिद्ध कर दिया कि वे परम परमेश्वर हैं, अलख निरंजन हैं। कुबेर ने अपने दोनों कान पकड़े और गणेशजी के सामने उठक-बैठक लगाने लगे इसे कहते हैं "दोर्भि कर्ण उपासना" अर्थात न पहचानने की भूल, कम आंकने की भूल, कुछ कम समझने की भूल । गणेश के साथ हमेशा से यही हुआ है कि उन्हें कम समझा गया, कम आंका गया है और जब-जब जिस भी देवता ने ऐसा किया उसे “दोर्भि कर्ण उपासना" करनी पड़ी। यहाँ तक कि शिव को भी "दोर्भि कर्ण उपासना " करनी पड़ी, माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी को भी "दोर्भि कर्ण उपासना" करनी पड़ी, विष्णु को भी "दोर्भि कर्ण उपासना करनी पड़ी, आप सबको भी "दोर्भिकर्ण उपासना करनी पड़ेगी।

          हमारे देश में तामिलनाडू एवं महाराष्ट्र सबसे विकसित प्रदेशों में से आते हैं। अन्य प्रदेशों की अपेक्षा यहाँ पर जन्म लेने वाले लोग ज्यादा सुसम्पन्न, पढ़े-लिखे, संवेदनशील और समझदार हैं। इन दोनों प्रदेशों में धर्म के प्रति निष्ठा, श्रद्धा एवं समर्पण देखने को मिलता है। भारत वर्ष में बच्चों की सबसे ज्यादा देखभाल, प्रेमपूर्ण व्यवहार तामिलनाडू एवं महाराष्ट्र में ही देखने को मिलता है। बच्चे ही देश का भविष्य हैं अगर बच्चों का लालन-पालन, देखभाल, शिक्षा दीक्षा में अपूर्णता रह गई तो कालान्तर अपूर्ण मनुष्य ही उत्पन्न होंगे और यही हो रहा है। उपासना में बड़े गहरे रहस्य छिपे हुए हैं। "दोर्भि कर्ण उपासना " का तात्पर्य है माफी मांगना माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी, शिव, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र समेत सभी देवताओं ने केवल गणपति को यह अधिकार दे रखा है कि वे कर्म श्रृंखला में विघ्न डाल सकते हैं, कर्म श्रृंखला के अंतर्गत किए गये पापों, कुकर्मों, व्याभिचारों को शक्ति कदापि नहीं है। तामिलनाडू एवं महाराष्ट्र में गणेश मंदिरों की भरमार है एवं यहाँ पर आपको भक्तगण दोनों कान पकड़कर श्री गणेश के विग्रह के सामने प्रतिदिन उठक-बैठक लगाकर अपने पापों की क्षमा मांगते हुए मिल जायेंगे और गणेश जी सहर्ष परम पिता के समान सभी भक्त गणों को उनके कुकर्मों के फल से मुक्त करते हुए दिखलाई पड़ेंगे।

             अज्ञानता, मूर्खता, लम्पटता तो जीव का स्वभाव है अतः गणेश जी माफ कर देते हैं। जीव तो बहुत छोटी सी अपूर्ण संरचना है गलती तो बड़े-बड़े देवताओं से भी हो जाती है। माँ भगवती का भंडासुर नामक दैत्य से घोर संग्राम चल रहा था, माँ भगवती कुछ ही क्षण में भंडासुर दैत्य के तीन सौ पुत्रों का संहार कर दिया। भंडासुर दैत्य का सेनापति अत्यंत ही चालाक था उसने रात्रि के अंधेरे में महाविघ्नेश यंत्र की पूजा उपासना की, उसे प्राण-प्रतिष्ठित किया और धीरे से ले जाकर उसे भुगती महात्रिपुर सुन्दरी की दिव्य सेना के शिविर के एक कोने में स्थापित कर दिया। विघ्नेश क्रियाशील हो गये देखते ही देखते माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी की 21000 दिव्य शक्ति से सुसज्जित सेना उच्चाटित हो गई, शिथिल पड़ गई, आलस्य से ग्रसित हो गई, बलहीन हो गई। उनकी सेना में सभी को जम्हाईयाँ आने लगीं, तंद्रा सताने लगी, हाथ-पाँव ढीले पड़ने लगे।

               जिस सेना में काली, महाकाली, कराली, दुर्गा, महिषमर्दिनी, चण्ड-मुण्ड नाशिनी, चामुण्डा, भैरवी, कूष्माण्डा, आग्नेया, कुब्जिका, लंगड़ी, कालरात्रि, रक्तप्रिया, मांसांशा इत्यादि जैसी नायिकाएं हों। जिस सेना में धूमा, बगला, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, बाला, महाकाली, दक्षिणकाली जैसी पराशक्तियाँ हों वह सेना आलस्य, प्रमाद, निकम्मेपन से ग्रसित हो जाय यह तो बड़ी विचित्र बात हुई। माँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी की मुख्य सेनापति दंडनाथा की कुछ समझ में नहीं आया वह सीधे उनके पास पहुँची और समस्त क्रियाकलापों का वर्णन किया। दूसरे ही क्षण मुस्कुराते हुए माँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी ने पुनः एक बार दोनों कान पकड़कर अलख निरंजन की तरफ निहारा और देखते ही देखते अलख निरंजन में से असंख्य मुख असंख्य अस्त्र-शस्त्रों से युक्त: हाथ लिए हुए, मुण्डमाला धारण किए हुए, घोर अट्ठाहास करते हुए, रक्त वर्ण के महागणपति प्रकट हो गये। वे सीधे उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पर भंडासुर के सेनापति ने महाविघ्नेश यंत्र स्थापित कर रखा था अपने दंत घात से उन्होंने उस यंत्र को चूर चूर कर दिया तत्पश्चात् माँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी के साथ मिलकर कुछ ही क्षणों में उन्होंने भंडासुर का समस्त सेना के साथ संहार कर डाला और इस प्रकार महागणपति की उत्पत्ति हुई।

             महागणपति का पूजन भगवती  त्रिपुरसुन्दरी के साथ सम्पन्न किया जाता है, भंडासुर युद्ध के समय शायद भगवती त्रिपुरसुन्दरी ने भी गलती कर दी थी वे गणपति को केवल पुत्र समझ बैठी थीं जबकि वे अलख निरंजन हैं,पूर्ण हैं । त्रिपुर वध के समय शिव से भी भूल हो गई वे भी गणपति का पूजन करना भूल गये थे इसलिए उनका पाशुपतास्त्र लक्ष्य को निर्मूल नहीं कर पा रहा था एवं उनकी सेना पराजित हो रही थी,उनका दिव्य रथ भी कि समस्त देवता के अंशों से बना था,जिसमें कि समस्त देवता पशु रूप में विद्यमान थे चल ही नहीं पा रहा था। शिव का एक नाम पशुपति भी है अर्थात सभी पशुओं के पति,पशु बने देवगणों से सुसज्जित रथ की कभी कील निकल जाती थी, पहिया अलग हो जाते थे,कभी वह उनके भार को सहन नहीं कर पाता था आखिरकार शिव को अपनी गलती का एहसास हुआ उन्होंने अलख निरंजन से उत्पन्न परम पशु स्वरूप धारण किए हुए गणपति के सामने दोर्भिकर्ण उपासना सम्पन्न की तब जाकर वे महापाशुपत अनुसंधान में सफल हुए और पशुपति के रूप में सुपूजित हुए।

              कितनी रहस्यमय स्थिति है पशुओं का पति बनने के लिए पशु मुख धारण किए हुए अलख निरंजन की उपासना । पशुत्व भी सिद्ध नहीं होता गणेशोपासना के अभाव में समुद्र मंथन चल रहा था पर देवता गणपति उपासना भूल गये अतः विघ्न आ गया। मंदराचल पर्वत को उखाड़ने में ही अनेकों देवता लहूलुहान हो गये जैसे ही उसे समुद्र में रखा वह डूबने लगा एवं अनेकों देवता दब गये। वासुकी सर्प भी विष उगल रहा था, विष्णु ने पुनः कच्छप रूपी पशु बन मंदराचल पर्वत को सहारा दिया। विष्णु के कच्छप रूपी पशु स्वरूप में ही दोर्भिकर्ण उपासना सम्पन्न हो गई। देवताओं को अपनी गलती का एहसास हुआ तब जाकर उन्होंने गणपति उपासना की तब समुद्र मंथन सम्पन्न हुआ। सबने गणपति के श्रीविग्रह के सामने उठक-बैठक लगाई। वामन स्वरूप में श्री विष्णु बलि से पराजित हो रहे थे पुनः एक बार उन्हें दोर्भिकर्ण उपासना करनी पड़ी।

              गणेश आदि हैं, अनंत हैं,वे प्रम नाथ हैं, प्रथम के भी प्रथम अलख निरंजन हैं उन्हीं से प्रारम्भ और उन्हीं में अंत यही सृष्टि का सिद्धांत है। अतः प्रत्येक काल प्रारम्भ होने से पूर्व, एक नई सृष्टि होने से पूर्व, एक नया युग प्रारम्भ होने से पूर्व, एक नई कर्म श्रृंखला प्रारम्भ होने से पूर्व मूल का ध्यान आवश्यक है,मूलोपासना आवश्यक है। श्रीहरि ने मात्र सुदर्शन चक्र प्राप्ति हेतु अनेक वर्षों तक शिव की घोर उपासना की, अनेक विधियों से शिवोपासना की पर हर बार कुछ न कुछ विघ्न आ जाता था। एक बार उन्होंने शिव जी को प्रसन्न करने हेतु एक हजार कमल पुष्पों से पूजा करने का संकल्प लिया परन्तु उसमें भी विघ्न आ गया। विघ्नेश्वर ने एक कमल पुष्प गायब कर दिया,श्रीहरि ने अपने कमल नयन निकाल कर ही शिव को अर्पित कर दिए। दोनों कान पकड़कर श्रीगणेश के सामने दोर्भिकर्ण उपासना की अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी तब जाकर उन्हें सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ। मधु-कैटभ वध में असफल होने के बाद श्रीहरि को दोर्भिकर्ण उपासना सम्पन्न करनी पड़ी तब जाकर महामाया उनके साथ क्रियाशील हुईं। चण्ड-मुण्ड वध के समय, शुम्भ-निशुम्भ वध के समय शक्तियों को भी श्रीगणेश उपासना सम्पन्न करनी पड़ी तभी उन्हें सफलता मिली।

              ब्रह्मा जी अचानक स्वप्न अवस्था में आ गये स्वप्न में उन्होंने महाप्रलय होते देखा । उनकी बनाई हुई सृष्टि प्रलय को प्राप्त हो रही थी, चारों तरफ अथाह जल ही जल था परन्तु तभी उन्हें वटवृक्ष के पत्ते के ऊपर बाल्य गणेश दिखाई दिए एवं उन्होंने अपने शुण्डाग्र में समुद्र का जल भरकर ब्रह्मा जी के ऊपर उछाल दिया और ब्रह्मा जी अचानक चैतन्यवान हो उठे और मुस्कुरा दिए। वे समझ गये कि श्रीगणेश प्रलय से भी परे हैं। प्रलय के समय गणपति सूक्ष्म हो जाते हैं और प्रलय उपरांत पुनः क्रियाशील हो उठते हैं।  विघ्न, गणेश के साथ चलते हैं। दिव्य कैलाश पर शिव ध्यानस्थ थे अलख निरंजन की दिव्य ज्योति में तभी सभी देवताओं ने दिव्य कैलाश पर आकर गुहार लगानी शुरु की कि हे शिव कुछ उत्पन्न कीजिए,ऐसा कुछ जो कि असुरों की गति को रोक सके,उनके बल को क्षीण कर सके,हम उनसे पीड़ित हैं, प्रताड़ित हैं।अचानक शिव के हृदय में स्फूरणा हुई और देखते ही देखते एक सुन्दर बालक उनकी गोद में आ बैठा सीधे अलख निरंजन से निकलकर तभी आद्या आ गईं।

            बाला ने बालक नहीं देखा था, ये कौन तीसरा आ गया हम दोनों के बीच ? बस विघ्न उत्पन्न हो गया शिव और शिवा के बीच। शिव की गोद में तो मैं ही बैठती हूँ शिवांगी बनकर, शिव की अर्धांगिनी तो मैं ही हूँ, ये कौन उनके अंग में विराजित हो गया ? जब मैं त्रिपुर सुन्दरी होती हूँ तो उनकी नाभि से निकले कमल पर स्थापित हो जाती जब मैं महाकाली होती हूँ तो इनकी छाती पर सवार होती हूँ,जब मैं त्रिपुरा होती हूँ तो इनके
वामांग का अतिक्रमण कर लेती हूँ, जब मैं धूमा होती हूँ तो इन्हें उदरस्थ कर लेती हूँ, जब मैं कामाख्या होती हूँ तो इन्हें अपने अंदर स्थापित कर लेती हूँ, योनि स्वरूपा बन इनका आराधन कर लेती हूँ, विवाह के समय भी मैं इनके गोद में बैठी हुई थी, जब मैं तपस्विनी होती हूँ तो इनको हृदय में आत्मसात कर लेती हूँ, जब मैं छिन्नमस्ता होती हूँ तो इनके ऊपर सवार होती हूँ अतः इनके सम्पूर्ण अंगों पर केवल मेरा ही अधिकार है। इनके मानस, इनके शरीर, इनके दिव्यांग, इनके हृदय में तो सिर्फ मैं ही विराजती हूँ परन्तु अब ये कौन आ गया और मुझे मालूम ही नहीं चला, मेरी आज्ञा के विरुद्ध हे शिव आपने किसी और की सृष्टि कैसे की ? किसी और पर दृष्टि कैसे डाली ? किसी और को स्पर्श क्यों किया ? शिवा क्रोधित हो गई और जब शिव का ध्यान, शिव की मुग्धता उस बालक पर से नहीं हट रही थी तब उन्होंने उस बालक का मुख गज के समान कर दिया।

             गज मुख गणेश उछलकर शिव की गोद से शिवा की तरफ बढ़ गया। शिव बोल उठे लो गजमुख को, "यह है शंकरम् प्रेम पिण्डम् " अर्थात शंकर का प्रेम पिण्ड तत्काल ही शिवा बोल उठीं नहीं नहीं यह तो "शिव-शिवा प्रेम पिण्डम् " है अर्थात शिव और शिवा दोनों के प्रेम का पिण्ड श्री गणेश और इस प्रकार देवताओं को शिव-शिवा प्रेम पिण्डम् के रूप में श्री गणेश प्राप्त हुए जिन्होंने कालान्तर विघ्न का निर्माण किया। हे गजगामिनी, हे गज योनि, हे गज माते, हे गज मणिधारिणी, हे गजाभिषेका कमले, हे गज मदयुक्ता, हे गजारूढ़ा, हे गजदर्शिनी, हे गज पोषिणी, हे गज सुगंधयुक्ता, हे गज वेमा देखो अपने इस गज मुखि पुत्र को देखो, देखो इसके कोमल पाँवों को इसमें गज रेखा बनी हुई है जो कि मध्य से शुरु होकर अंगुष्ठ तक जाती है। इसे कहते हैं गज केसरी योग यह गणनायक बनेगा, गणों की गिनती करेगा। देखो इसके चरण कमलों को इसमें ध्वजा, शंख, चक्र और पद्म विराजमान हैं अतः यह राज-राजेश्वर बनेगा एवं अनंत ब्रह्माण्डों के राजाओं के ऊपर शासन करेगा। सभी देव इसे पूजेंगे, बड़े-बड़े गजारूढ़ इसके चरणों 

में मस्तक झुकायेंगे शिव कह उठे। हाँ जो गणपति के भक्त होते हैं, जिन पर गणपति कृपावान होते हैं उनके पैरों में गज रेखा होती है उनकी जन्मकुण्डली में गज केसरी योग होता है। देखो इसके पाँव के नाखून ये गज मुक्ता से भी ज्यादा प्रकाशवान हैं तुरंत गजगामिनी बोल उठीं हे गज चर्मधारी, हे गज पूजक, हे गजेश्वर, हे गज पिता, हे ॐकार नादा, हे गं मंत्र रचियता देखो इस बालक के कोमल हाथों की तरफ इसके हाथ में ॐकार बना हुआ है, इसके शुक्र पर्वत पर स्वस्तिक का चिह्न है, अरे इसके चंद्र पर्वत पर अंकुश बना हुआ है, इसके शुरु पर्वत पर पाश का शुभ चिन्ह है, यह तो आदि बृहस्पति है, हे गजासुर हंता अब समय आ गया है कि आप ॐकार नाद को छोड़ नाना प्रकार की उपासना पद्धतियों, पंचम वेद, 54 प्रकार के तंत्र ग्रंथ एवं परम गोपनीय शक्ति मंत्रों इत्यादि को अपने मुखारविंद से उच्चारित करें। मेरा यह गज मुखी पुत्र, मेरा यह मयूरेश्वर अपने दंत से, अपने पंख से उन सबको जन कल्याण के लिए लिपिबद्ध करेगा, शिव उवाच के लिपिबद्ध होने का समय आ गया है। 

            हे गजम्बिके जल्दी करो, इसके कोमल पाँवों में अपनी सदा झनकार करने वाली नूपुर बांध दो क्योंकि यह अब हमारे साथ नृत्य करेगा। जब मैं ताण्डव करूंगा तो यह अपनी शुण्डाग्र से मृदंग का नाद उपस्थित करेगा और जब तुम लास्य करोगी तो यह अपने पैरों में लगे घुंघरूओं को बजाते हुए तुम्हारे साथ सुर ताल मिलायेगा। देखो नारद तुम्बरु से वीणा वादन में हार रहा है। ब्रह्मा का पुत्र है परन्तु ब्रह्म शिष्य से हार रहा है। हे आदि सरस्वती स्वरूपा गजम्बिके उसे इतना नहीं मालूम कि वह गणेशोपासना भूल गया है क्योंकि तुमने अपनी विचित्र वीणा जो इस नृत्य गणपति के हाथ में थमा दी है। हे गजप्रिया देखो वह आदि वेद व्यास सिर धुन रहे हैं उन्हें इतना नहीं मालूम कि गणपति ने शिव उवाच को लिपिबद्ध करने के लिए अपना एक दंत तोड़ लिया है अतः इनकी उपासना के बिना अब कोई लेखक नहीं बन सकता, अब कोई नर्तक नहीं बन सकता, अब कोई गायक नहीं बन सकता, अब कोई कवि नहीं बन सकता, अब कोई वैज्ञानिक नहीं बन सकता, अब कोई जोड़-तोड़कर कुछ नहीं बना सकता। .

            यह तो सृष्टि के प्रथम वैज्ञानिक हैं क्योंकि तुमने और मैंने मिलकर जोड़-तोड़कर इन्हें गज-मुख बनाया है, एक अद्भुत समायोजन किया। है गज की उम्र भी 120 वर्ष और मनुष्य की उम्र भी 120 वर्ष, गज का मुख और मनुष्य का शरीर इन दोनों का अद्भुत समायोजन करके ही हमने प्रथम गणेश विज्ञान का निर्माण किया है कालान्तर ब्रह्मा ऐसे ही जोड़ तोड़कर पता नहीं क्या- क्या बनायेगा पर उसे भी गज मुख अपने यहाँ स्थापित करने पड़ेंगे। समस्त लोकों में चाहे इन्द्रलोक हो, ब्रह्म लोक हो, गौ लोक हो, विष्णु लोक हो, देवी तीर्थ हो, सिद्ध लोक हो इत्यादि सब जगह सबने गणपति को विराजमान किया है, उनकी उपासना की क्योंकि संसार का प्रत्येक कर्म प्रथम बार गणपति ने ही सम्पन्न किया है। वे शिव द्वारा रचित प्रथम ज्ञान के साक्षी हैं, वे प्रथम वाणी के साक्षी हैं, वे भगवती त्रिपुर सुन्दरी के प्रथम सौन्दर्य के साक्षी हैं वे शिव की प्रचण्डता के साक्षी हैं अतः मूलरूपी गणपति की उपासना के अभाव में चारों तरफ विघ्न ही विघ्न हैं। गणपति इसलिए गंभीर हैं क्योंकि उन्होंने जो देखा, उन्होंने जो सुना वह किसी ने नहीं देखा, किसी ने नहीं सुना किसी ने अनुभूत नहीं किया।
 
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

सुसन्तति उत्पादन व निर्माण ।।

नारी का जननी रूप सर्वविदित है। नारी का गौरव मातृत्व में है। सृष्टा ने संसार की निरन्तरता को बनाए रखने के लिए पृथ्वी पर अपनी जगह नारी की रचना की है, इसलिए उसकी जिम्मेदारी है कि वह ईश्वर की प्रतिनिधि बनकर समाज में अपनी कोख से, चरित्र से, व्यवहार से, ज्ञान से देवता गढ़े और देवत्व का संचार करे। इस क्रम में सन्तान उत्पादन उसकी बड़ी जिम्मेदारी है, लेकिन इस जिम्मेदारी की गम्भीरता को न समझने के कारण आज समाज में उद्भिजों की तरह एक्सीडेंटल बच्चे पैदा हो रहे हैं। इसी वजह से व्यसनी, व्यभिचारी, हिंसक, कामुक, विलासी, आलसी बच्चों से समाज भरा पड़ा है। नारी समाज को श्रेष्ठ, संस्कारवान पीढ़ी, श्रेष्ठ नस्ल की सन्तान देने में समर्थ हो सकें इस क्रम में ध्यान देने योग्य बिन्दु है कि कन्या-

1. स्वयं संस्कारवान, चरित्रनिष्ठ बने, ब्रह्मचर्य शिक्षा को जीवन में उतारने का सतत अभ्यास करे।
2. उपासना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के अभ्यास से तपी हुई नारी का व्यक्तित्व देवताओं को भी आकर्षित करती है, अतः वह ऐसे अभ्यास से नर रत्न गढ़ने वाली सांख बने।
3. सतोगुणी प्रवृत्ति प्रधान पवित्र गर्भ को, देवात्माएँ, पवित्र आत्माएँ तलाश कर रही हैं, ताकि पृथ्वी पर अवतरित हो सकें। परन्तु उपयुक्त गर्भ के अभाव में वापस चली जाती हैं। पवित्र चिन्तन, चरित्रवाली एवं आदर्श लक्ष्य वाली कन्या ही ऐसी आत्माओं का जन्म देने योग्य होती हैं। उसके गर्भ में सन्त, शहीद, सूर, आविष्कारक, विचारक अवतरित हो सकेंगे।
4. श्रेष्ठ संतान ही पैदा करने का संकल्प करें और श्रेष्ठ परिवार व श्रेष्ठ समाज के निर्माण में सहयोग करें।

श्रेष्ठ संतान कैसे पाएँ

प्रकृति से ऊपर उठना संस्कृति है तथा प्रकृति से नीचे गिर जाना विकृति है। मनुष्य यदि गिरना चाहे तो वह पशु और दानव से भी नीचे गिर सकता है और उठना चाहे तो देव व उससे भी श्रेष्ठ बन सकता है। इसके लिए भारतीय संस्कृति में संस्कार परम्परा के अन्तर्गत 16 संस्कारों का आविष्कार किया गया है।

संस्कार एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रथम संस्कार गर्भाधान संस्कार है। जिसका आज लोप हो गया है। आज कामज विवाहों की बाढ़ है तथा बिना किसी योजना के सन्तानें पैदा हो जाती है जिससे परिवार व समाज का स्वरूप अपाहिज जैसा हो गया है।

विकलांग, मंदबुद्धि, नीचबुद्धि, हिंसक, पशुतुल्य सन्तान न हो, इस हेतु आवश्यक है कि गर्भाधान संस्कार ठीक से हो। गर्भाधान संस्कार अर्थात् वर- वधू शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, आध्यात्मिक सभी दृष्टि से उन्नत सन्तुष्ट होकर भलीभाँति सोच विचार कर, श्रेष्ठ सन्तान प्राप्ति की इच्छा से, गुरुजन, ईश्वर व माता- पिता से आशीष लेकर श्रेष्ठ तिथि में सन्तानोत्पादन हेतु श्रेष्ठ, श्रद्धापर्ण (कामवासना रहित) मनोभाव के साथ प्रवृत्त होते हैं।

गर्भाधानकाल से सम्बन्धित कुछ बातें विशेष महत्व के हैं-

1. यदि पत्नी के हृदय में पति के प्रति श्रद्धा का अभाव होगा तो अश्रद्धा की स्थिति में गर्भाधान होने पर श्रेष्ठ सन्तान की उत्पत्ति सम्भव नहीं। अतः पत्नी के हृदय में पति के प्रति प्रेम व श्रद्धा हो।

उदा.- महाभारत में वर्णन आता है कि जब रानी सत्यवती के दोनों पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य निःसंतान मर गए, तब माता सत्यवती ने ऋषि वेदव्यास को नियोग परम्परा द्वारा पुत्रवधू अम्बिका व अम्बालिका से एक- एक पुत्र उत्पन्न करने को कहा। गर्भाधान के समय अम्बिका ने ऋषि की जटा, दाढ़ी व तप से काले हुए चेहरे को देखकर घृणा से आँखें बंद कर ली, इसलिए उसका अन्धा पुत्र धृतराष्ट्र हुआ और ऋषि अम्बालिका के पास गए तो वह भय से पीली पड़ गई इसलिए उससे पीले रंग व कमजोर शरीर वाला पाण्डु हुआ। जब इनकी दासी ऋषि के पास गई तब उसने एक ऋषि की सन्तान की माँ बनना अपना अहोभाग्य माना इसलिए उसकी विदुर जैसी श्रेष्ठ संतान हुई।

गर्भाधान शास्त्र में समस्त तिथियों में हो तथा गर्भाधान की अवधि में पति- पत्नी का मनोभाव, प्रेम समर्पण, श्रद्धा, भक्तिपूर्ण हो तथा समाज को श्रेष्ठ सुसंस्कृत, संत, शहीद, सूर, आविष्कारक, बुद्धिमान संतान देने का हो।

2. पुरुष के एक बार के वीर्य में 2 करोड़ से 5 करोड़ शुक्राणु होते हैं। प्रत्येक शुक्राणु में एक जीवात्मा होती है, जो मानव देह धारण करने के लिए आतुर होती है। इनमें अधिकांश जीवात्माएँ सामान्य श्रेणी की होती है, जबकि कुछ तो बहुत ही श्रेष्ठ या पुष्ट होती हैं। गर्भाधान के समय जिस शुक्राणु को सबसे अनुकूल वातावरण मिलता है, वह तेजी से आगे बढ़ता चला जाता है, अन्य मरते व पिछड़ते चले जाते है। श्रद्धा, प्रेम, समर्पण, विवशता, उदासीनता, झुँझलाहट, क्रोध, घृणा, भय, वासना, लोभ, छल आदि भावों के समय शरीर में अलग- अलग प्रकार के हार्मोनों का स्राव होता है। गर्भाधान काल में जिस प्रकार का भाव होगा, उसी प्रकार के हार्मोन्स की प्रधानता होगी और उस वातावरण में जो शुक्राणु सर्वाधिक सक्षम होगा वही डिम्ब का निषेचन करने में सफल होगा।

पाश्चात्य विज्ञान के अनुसार कौन सा शुक्राणु निषेचन करेगा और सन्तान किस प्रकार की होगी यह मात्र संयोग पर आधारित है। उनके अनुसार जानवर और मनुष्य की गर्भाधान क्रिया में कोई अन्तर नहीं है इसलिए पाश्चात्य देशों में गर्भाधान संस्कार नहीं होता। भारतीय ऋषियों ने मनुष्य की नस्ल सुधार के विज्ञान का आविष्कार किया। इस विज्ञान के अनुसार यह पति- पत्नी के हाथ में है कि वे किस प्रकार की सन्तान उत्पन्न करे।

इसके लिए मुहूर्त्त का बड़ा महत्त्व है। महाभारत में एक कथा आती है। पाराशर ऋषि विद्वानों में मतभेदों से उत्पन्न मन भेद के कारण बड़े दुःखी थे। वे दुःखी मन से आकाश की ओर निहार रहे थे कि आकाश में नक्षत्रों की स्थिति देखकर उनके ध्यान में आया कि इस समय ऐसा मुहूर्त्त है, जो हजारों साल में एक बार आता है। इस समय यदि योग्य स्त्री में गर्भाधान हो तो ऐसा पुत्र पैदा होगा जो समस्त मतभेदों को मिटाकर विद्वानों को एक साथ ला सकेगा। उन्होंने अपने सम्मुख खड़ी पवित्र और निश्चल मत्स्य कन्या को देखा और अपना हेतु बताया। उसने ऋषि के उत्कृष्ट हेतु को जानकर स्वयं को ऋषि को समर्पित कर दिया, परिणाम स्वरूप वेदव्यास जी का जन्म हुआ। वेदव्यास जी ने वेदों के बिखरे ज्ञान को चार खण्डों में व्यवस्थित कर विद्वानों में व्याप्त मतभेदों को मिटाया। 18 पुराणों और महाभारत की रचना की।

इसलिए हमारे शास्त्रों में कुछ विशेष दिन वार, तिथियों में गर्भाधान की मनाही है। दिन के समय, रजोदर्शन के बाद प्रथम चार रात्रियाँ, कृष्ण तथा शुक्ल दोनों ही पक्षों की- चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या तिथि। मंगल, शनि, रविवार, मूल, मघा व रेवती नक्षत्र, नक्षत्र की संधि, माता- पिता का श्राद्ध दिवस, स्वयं का जन्म नक्षत्र, जन्मतिथि व जन्मवार आदि में गर्भाधान से श्रेष्ठ सन्तान पैदा नहीं होती।

श्रेष्ठ पुत्र व कन्या के लिए रजोदर्शन के बाद पीछे की रात्रियाँ पहले की रात्रियों से अधिक श्रेष्ठ होती है। विवाह के पश्चात् पहले होने वाले/वाली सन्तान प्रायः वासना की प्रमुखता से होती है। बाद की सन्तानें विचार की प्रमुखता से होती है।

संयम साधना से श्रेष्ठ सन्तान पाना सम्भव है। वर- वधू पहले श्रेष्ठ आदतें, संस्कार अपने व्यक्तित्व में लाएँ तब सन्तान की इच्छा करें। माता- पिता भी शीघ्र सन्तान हेतु दबाव न डालें।

नारी स्वास्थ्य

लड़कियाँ/महिलाएँ यूँ तो सामान्य क्रम में पुरुषों की ही भाँति स्वास्थ्य की समस्याओं से ग्रस्त होती हैं, परन्तु यौवन काल में कुछ समस्याएँ चरम पर होती हैं जैसे- गर्भाशय संबंधी तकलीफें, गर्भाशय में सूजन, सफेद पानी का जाना, प्रदर रोग, मासिक धर्म की अनियमितता, मासिक धर्म से पहले या उसी अवधि में कमर, पेडू आदि में अत्यधिक दर्द होना आदि। ऐसे समय में वे एलोपैथी दवाएँ लेकर तत्काल राहत पाना चाहती हैं, जो कि बहुत खतरनाक दुष्परिणाम पैदा करती है। थोड़ी उम्र में बढ़ने के बाद गर्भाशय से अत्यधिक रक्तस्राव और उसके बाद उसका ऑपरेशन द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिये जाने की डॉक्टरों की सलाह से आज बहुत सी महिलाओं को नई समस्या से जूझना पड़ रहा है।

बहुत सी महिलाएँ मासिक धर्म को समय से पहले या बाद में लाने या टालने हेतु दवाएँ लेती हैं, जो अत्यधिक नुकसान देह होती है। मासिक के समय वाँछित स्वच्छता सफाई न बरतना खान- पान का समय न बरतना भी नई तकलीफों को जन्म देता है।

इस विषय में ध्यान देने योग्य कुछ बिन्दु है-

1. मासिक धर्म काई छूत का रोग नहीं है। प्रकृतिगत स्वाभाविक क्रिया है, जिससे शरीर की सफाई होती है। अतः मासिक धर्म को लेकर लड़कियाँ हीनता ही भाव न लाएँ और न ही परिवार में अन्य सदस्य उनसे हीनतापूर्ण छुआछूत का व्यवहार करें।

2. इस अवधि में शरीर को आराम चाहिए अतः अतिश्रम से बचें। सर्दी गर्मी से बचें। पूजा पाठ सम्बन्धी नियमों का पालन के क्रम में इतना ही पर्याप्त है कि स्थूल पूजा सामग्री को न छुए। मानसिक जप, ध्यान, मन्त्रलेखन से कोई परहेज करने की आवश्यकता नहीं है।

3. मासिक धर्म की अवधि में दर्द होने पर एलोपैथी दवा न लें। योग्य विशेषज्ञ से सलाह लेकर आयुर्वेदिक या होमियोपैथी दवा ले सकते हैं। पेडू व पेट में गरम पानी की थैली या बाटल से सेंक करें ठंडी खट्टी चींजे न खाएँ। गरम पेय, गरम भोजन लें। मिर्च मसालेदार भोजन न लें।

4. मासिक धर्म की अवधि में वस्त्रों की सफाई का पर्याप्त ध्यान रखें। मेडिकल के पैड इस्तेमाल करें। यदि कॉटन कपड़ा इस्तेमाल करते हों तो एक कपड़े को (छः बार) अधिक इस्तेमाल न करें। कपड़े को अच्छी तरह साबुन से धोकर धूप में सुखाएँ तथा कीटाणु रहित स्वच्छ स्थान में रखें। ग्रामीण क्षेत्रों की बहनें विशेष रूप से ध्यान रखें।

5. पूजा- पाठ अनुष्ठान के कारण कभी भी मासिक धर्म के समय को आगे बढ़ाने तथा उसके लिए दवाएँ लेने की गलती न करें। प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया में दखल न दें।

6. विवाहित बहनें अपने दाम्पत्य जीवन में संयम बरतें असंयमित (ब्रह्मचर्य का अभाव) मर्यादाहीन यौन संबंधों के कारण यौन रोग, गर्भाशय संबंधी तकलीफें, अत्यधिक रक्तस्राव की स्थिति आती है।

7. उत्तेजक खान- पान, माँसाहार, टी.वी. के उत्तेजक दृश्य, अश्लील साहित्य तथा अश्लील यौन संबंधी चर्चा से मासिक धर्म संबंधी तकलीफें अधिक बढ़ जाती है।

8. मासिक धर्म संबंधी तकलीफों व अनियमितताओं के लिए मेंहदी बीज (सूखी) का पाउडर बना लें। एक- एक चम्मच सबेरे शाम आधा कप पानी में 6- 8 घण्टे के लिए भिगा दें। सबेरे भिगाया हुआ शाम को एवं शाम को भिगाया हुआ सबेरे के समय खाली पेट लें। ऐसा दो- तीन महीने लगातार देते रह सकते हैं।

9. काले तिल एक पाव, पानी 3 लीटर पानी में मिलाकर उबालें। डेढ़ गिलास बच जाए तो 3 खुराक बनाकर खाली पेट में सबेरे शाम ले लें। यह क्रिया माह में एक बार करें। सीता अशोक की छाल का काढ़ा भी फायदेमन्द होता है।

10. गायनिक समस्या हेतु नियमित रूप से चक्की आसन, तितली आसन, पश्चिमोत्तासन, प्रज्ञायोग तथा कपालभाति प्राणायाम करें।

11. विवाहिताएँ इस अवधि में ब्रह्मचर्य का सख्ती से पालन करें।

संदर्भ पुस्तकें:-

1. ब्रह्मचर्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता।
2. काम तत्त्व ज्ञान विज्ञान।
3. अपने डॉ. स्वयं बनें- डॉ. गौरीशंकर माहेश्वरी, मुम्बई।
4. स्वस्थ एवं सुन्दर बनने की विद्या।
5. ब्रह्मचर्य साधना- स्वामी शिवानन्द।

प्राचीन सनातनी भारत में, शिक्षा और ज्ञान का एक विशाल इतिहास है।


हमारे प्राचीन भारत के 25 प्राचीन विश्वविद्यालय... 

दुनिया भर से हजारों प्रोफेसर और लाखों छात्र यहां रहते थे और कई विज्ञानों और विषयों का अध्ययन और अध्यापन करते थे। यहाँ पर कुछ प्रमुख प्राचीन विश्वविद्यालयों की जानकारी दी जा रही है......

1.#नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University):

स्थान: बिहार
स्थापना: 5वीं शताब्दी ईस्वी
विशेषता: यह बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था और इसमें विभिन्न विज्ञान, दर्शन, और धर्म का अध्ययन किया जाता था। यहाँ पर 10,000 छात्र और 2,000 शिक्षक थे।

2.#तक्षशिला विश्वविद्यालय (Taxila University):

स्थान: #पाकिस्तान
स्थापना: 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व
विशेषता: यह भारत का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय माना जाता है। यहाँ पर चिकित्सा, कानून, कला, सैन्य विज्ञान आदि की शिक्षा दी जाती थी।

3.#विक्रमशिला विश्वविद्यालय (Vikramshila University):

स्थान: बिहार
स्थापना: 8वीं शताब्दी ईस्वी
विशेषता: यह भी बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था।

4.ओदंतपुरी विश्वविद्यालय (Odantapuri University):

स्थान: बिहार
स्थापना: 8वीं शताब्दी ईस्वी
विशेषता: बौद्ध शिक्षा और साहित्य का प्रमुख केंद्र।

5.मिथिला विश्वविद्यालय (Mithila University):

स्थान: #बिहार
विशेषता: न्यायशास्त्र और तंत्र की शिक्षा के लिए प्रसिद्ध।

6.वल्लभी विश्वविद्यालय (Vallabhi University):

स्थान: #गुजरात
स्थापना: 6वीं शताब्दी ईस्वी
विशेषता: यहां पर धर्म, कानून, और चिकित्सा की शिक्षा दी जाती थी।

7.स्रृंगेरी मठ (Sringeri Math):

स्थान: कर्नाटक
विशेषता: अद्वैत वेदांत का प्रमुख केंद्र।

8.#कांचीपुरम विश्वविद्यालय (Kanchipuram University):

स्थान: तमिलनाडु
विशेषता: यहाँ पर तमिल साहित्य और दर्शन का अध्ययन किया जाता था।

9.पुष्पगिरी विश्वविद्यालय (Pushpagiri University):

स्थान: #ओडिशा
विशेषता: यह बौद्ध और जैन शिक्षा का केंद्र था।

10.उज्जयिनी विश्वविद्यालय (Ujjayini University):

स्थान: #मध्यप्रदेश
विशेषता: यहाँ पर ज्योतिष, खगोल विज्ञान, और गणित की शिक्षा दी जाती थी।

11.कृष्णापुर विश्वविद्यालय (Krishnapur University):

स्थान: #पश्चिम_बंगाल
विशेषता: विभिन्न विज्ञानों और संस्कृत की शिक्षा का केंद्र।

12.#नेल्लोर विश्वविद्यालय (Nellore University):

स्थान: आंध्र प्रदेश
विशेषता: यहां पर धर्म और तंत्र की शिक्षा दी जाती थी।

13.#सोमपुरा विश्वविद्यालय (Somapura University):

स्थान: #बांग्लादेश
विशेषता: यह बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था।

14.अमरावती विश्वविद्यालय (Amravati University):

स्थान: आंध्र प्रदेश
विशेषता: बौद्ध और जैन शिक्षा का केंद्र।

15.नागरजुनकोंडा विश्वविद्यालय (Nagarjunakonda University):

स्थान: #आंध्र प्रदेश
विशेषता: बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र।

16.रत्नागिरी विश्वविद्यालय (Ratnagiri University):

स्थान: #ओडिशा
विशेषता: बौद्ध धर्म और तंत्र का केंद्र।

17.माल्कापुरम विश्वविद्यालय (Malkapuram University):

स्थान: #आंध्र प्रदेश
विशेषता: विभिन्न धर्मों और विज्ञानों की शिक्षा।

18.#त्रिसूर विश्वविद्यालय (Trissur University):

स्थान: केरल
विशेषता: कला, साहित्य और ज्योतिष की शिक्षा।

19.#विजयपुरा विश्वविद्यालय (Vijayapura University):

स्थान: कर्नाटक
विशेषता: धर्म, तंत्र, और ज्योतिष की शिक्षा।

20.कादयर विश्वविद्यालय (Kadayar University):

स्थान: #तमिलनाडु
विशेषता: तमिल साहित्य और कला का अध्ययन।

21.#मयंकट विश्वविद्यालय (Manyaket University):

स्थान: कर्नाटक
विशेषता: धर्म और तंत्र का प्रमुख केंद्र।

23.उडीपी मठ (Udipi Math):

स्थान: #कर्नाटक
विशेषता: अद्वैत वेदांत और धर्म की शिक्षा।

23.कण्णूर विश्वविद्यालय (Kannur University):

स्थान: #केरल
विशेषता: साहित्य, कला और ज्योतिष की शिक्षा।

24.अन्नूरधपुर विश्वविद्यालय (Anuradhapura University):

स्थान: श्रीलंका
विशेषता: बौद्ध धर्म और तंत्र का केंद्र।

25.कंथालूर शाला (Kanthaloor Shala):

स्थान: तमिलनाडु
विशेषता: विभिन्न विज्ञानों और तंत्र का प्रमुख केंद्र।

ये #प्राचीन विश्वविद्यालय शिक्षा के उच्चतम मानकों के प्रतीक थे और यहाँ पर #दुनिया भर से छात्र और शिक्षक ज्ञान प्राप्त करने और साझा करने के लिए आते थे। इन संस्थानों में विभिन्न विज्ञान, धर्म, कला, और तंत्र की शिक्षा दी जाती थी, जो #भारत की समृद्ध #सांस्कृतिक और बौद्धिक #धरोहर का हिस्सा हैं।

पूरा पढ़ने के लिए साभार...🙏


बाल्य भाव ।।

        विवेकानंद अमेरिका की यात्रा पर गये हुए थे। वहाँ पर उन्होंने प्रथम बार विशालकाय गुब्बारों को देखा जिसमें कि मनुष्य बैठ कर आकाश की सैर कर सकता था, अचानक उनके अंदर बाल सुलभ भाव जाग उठा। उनके साथ बहुत सारे चेले चपाटे थे जो कि स्वामियों, गुरुओं या आध्यात्मिक व्यक्तित्वों को केवल गम्भीर, मुँह बना कर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले प्राणी समझते थे। विवेकानंद बच्चों के समान सबके सामने गुब्बारे में बैठने के लिये लालायित हो उठे तुरंत दौड़कर गुब्बारे में बैठ गये और बाल सुलभ हो बड़े-बड़े नेत्रों से ऊपर उड़ते हुए विस्मयकारी दृश्य देख कर बच्चों के समान खिलखिलाने लगे। उनके आसपास के चेले चपाटे बोले स्वामी जी आप इतना साधारण व्यवहार मत कीजिए अन्यथा आप की छवि धूमिल हो जायेगी, लोग आप को पाखण्डी कहने लगेंगे,आप सामान्य मनुष्य लगने लगेंगे।

         ‌‌ विवेकानंद ने किसी की नहीं सुनी, बाल सुलभ थे बाल सुलभ बने रहे। बाल सुलभ मन और हृदय ही कौतुहल की दृष्टि प्रदान कर सकता है,बाल सुलभ मन ही विस्मयकारी हो सकता है।बाल सुलभता दुर्गोपासना की प्रथम आवश्यकता है,स्त्री और पुरुष बन कर कृपया कर दुर्गोपासना सम्पन्न न करें अन्यथा कुछ नहीं होने वाला है ।स्त्री और पुरुष बन कर केवल भोग होता है, स्त्री और पुरुष की योगमार्ग में क्या जरूरत? स्त्री और पुरुष एक विशेष अवस्था है। जिन युवाओं में पुरुषत्व की बहुलता है वे केवल स्त्री से आकर्षित होंगे, हर दूसरा युवक सुंदर स्त्री से विवाह मांगता है, हर दूसरी युवती बस वर को ही खोजती है एवं इन्हें अध्यात्म से क्या लेना देना अगर अध्यात्म के - बल पर कुछ स्वार्थ पूर्ति हो जाये तो ठीक है नहीं तो इन्हें एक से बढ़कर एक मार्ग आते हैं। इस सृष्टि में समस्या की जड़ स्त्री और पुरुष के भाव ही हैं।

          विवेकानंद भला क्यों बाल सुलभ नहीं होते आखिरकार उनके गुरु परमहंस तो अति में बाल सुलभ थे। वे तो मिठाई की दुकान पर खड़े हो जाते थे, सभी शिष्यों के बीच मिठाई खाने लगते थे, एक बार खुले में शौच कर रहे थे तभी एक भैरवी साधिका उनकी परीक्षा लेने के लिये अचानक वहाँ पर आकर खड़ी हो गयी। वे बालकों की भांति हँसने लगे और पास पड़े पत्थरों से उसे मार कर दूर भगाने लगे, भैरवी का हृदय परिवर्तन हो गया। परमहंस के एक शिष्य ने उनकी परीक्षा लेने के लिये उन्हें कलकत्ता के वेश्यालय में छोड़ दिया वे क्रिया योग में दक्ष थे दूसरे ही क्षण उन्होंने अपने बाल्यभाव को समग्रता के साथ जाग्रत कर लिया, वेश्याओं को देख माँ-माँ चिल्लाने लगे। वेश्याओं को बहुत घमण्ड होता है क्योंकि वे पुरुषों को पराजित करती है परन्तु बालक भाव से वेश्याएँ हार गयी, घबरा गयी, उनका तो अस्तित्व ही समाप्त हो गया। स्त्री भाव भी मूल प्रकृत्ति ही प्रदान करती है। प्रकृति परमेश्वरी का ही विग्रह है अतः प्रकृति भी नियंत्रिका का काम करती है इसलिए स्त्रियों में नियंत्रण की जन्मजात प्रवृत्ति कूट-कूट कर -भरी हुई होती है। पुरुष या पिण्ड पर नियंत्रण करने के लिये सदैव लालायित रहने वाली शक्ति को ही स्त्री कहते हैं।

          जीवन में भले ही एक क्षण के लिये या फिर सम्पूर्ण जीवनभर स्त्री अंतत: पुरुष को सम्पूर्ण नियंत्रण में ले ही लेती है। नियंत्रण की इस रस्साकशी में वह गोपनीय तौर पर प्रतिक्षण माया का निर्माण करती ही रहती है एवं उसका एकमात्र ध्येय पुरुष पर नियंत्रण प्राप्त करना होता है परन्तु स्त्री बाल्यभाव पर नियंत्रण कभी प्राप्त नहीं कर पाती और यहीं पर वह हारती है। बालक जीतता है माता हारती है, यह निश्चित है। अंतत: माता झुकती है। बालभाव स्त्री कला पर अंकुश है। स्त्री भाव का दम्भ बाल भाव के सामने खण्डित हो ही जाता है। भारत के सभी ऋषि मुनियों ने नियंत्रिका रूपी परमेश्वरी की अंततः मातृ भाव में ही उपासना की है। विश्वामित्र जैसा पुरुष प्रधान व्यक्तित्व दुर्लभ है, उसमें पुरुषत्व बचा था तभी मेनका के हाथों पतोन्मुखी हुए, लम्बा समय लगा तब कहीं जाकर बाल्यभाव जाग्रत हुए अंतत: गायत्री कल्प प्राप्त हुआ।

        दत्तात्रेय विष्णुअवतार माने गये हैं, अखण्ड ब्रह्मचारी थे एवं लक्ष्मी उनके पास में खड़ी रहती थी। एक बार असुरों के हाथ इंद्र समेत देवताओं की दुर्गति हुई। दुर्गति इसलिये हुई क्योंकि रासरंग में डूब गये थे रासरंग में तो स्त्रियाँ चलती हैं। नारद ने कहा जाओ दत्तात्रेय ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। लुटे-पिटे देवता दत्तात्रेय के पास पहुँचे। दत्तात्रेय बोले मैं बहुत परेशान हो गया हूँ इस सुंदर स्त्री को साथ मे लेकर घूमते-घूमते देवता बोले नहीं नहीं यह तो साक्षात् लक्ष्मी हैं, मातेश्वरी हैं बस दत्तात्रेय उनके मुख से मातेश्वरी ही सुनना चाह रहे थे, उन्हें पुनः बाल भाव का अनुभव कराना चाह रहे थे। एक शब्द में ही देवताओं ने मातृ भाव की स्तुति कर ली ।दत्तात्रेय बोले किसी तरह असुरों को यहाँ तक ले आओ।देवता पुनः युद्ध करने गये और दैत्य उनके पीछे-पीछे दत्तात्रेय तक आ पहुँचे। एक मुनि के पास अत्यंत परम शोभावान, रत्नों से सुसज्जित दिव्य विभूति को देख दैत्य मोहित हो गये एवं उनके अंदर पुरुषत्व जाग उठा दैत्य सम्राट बोला अरे मुनि यह तो विलक्षण स्त्री रत्न है इसका यहाँ क्या काम तुम इसे हमें सौंप दो तब दत्तात्रेय ने कहा ले जाओ दैत्य खुशी-खुशी लक्ष्मी को पालकी में बैठाकर ले जाने लगे दत्तात्रेय ने तुरंत देवताओं से कहा कि अब हमला करो यह नियंत्रिका के नियंत्रण में आ गये हैं।देवता शस्त्रों के साथ असुरों पर टूट पड़े और कुछ ही क्षणों में दैत्य पराजित हो गये।

            रामकृष्ण परमहंस आज से 150 वर्ष पूर्व हुए थे अतः समझ गये थे कि स्त्री-पुरुष भाब सत्यानाशी है एवं इनके चक्कर में झंझट ही झंझट है।इसलिए अपनी पत्नी को माता के रूप में स्वीकार कर लिया।परमेश्वरी को उन्हें अपना सानिध्य प्रदान करना था इसीलिये रामकृष्ण की युवा पत्नी में भी मातृत्व के भाव स्वतः प्रकट हो गये एवं रामकृष्ण परमहंस को परिवार की तरफ से कोई कष्ट नहीं हुआ अन्यथा अगर उनकी पत्नी में स्त्री भाव एकांश भी आ जाते तो लेने के देने पड़ जाते।जैसे ही एक युवक में पुरुष ग्रंथि विकसित होती है या फिर एक बालिका में रजोस्त्राव होता है उनकी ऊपर की तरफ बढ़नी वाली लम्बाई स्वत: रूक जाती है।जितने लम्बे हो गये या जितनी कद काठी मिल गयी बस मिल गयी अर्थात अब फैल सकते हैं,मोटे हो सकते हैं, बेडौल हो सकते हैं परन्तु लम्बवत उन्नति नहीं होगी। यही ब्रह्मचर्य का सिद्धांत है।जितना ज्यादा विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण होगा उतनी ही आध्यात्मिक अवनति होगी, उतना ही साधक मातृत्व से दूर हटता जायेगा और जैसे-जैसे मातृत्व के हाथ से निकलकर नियंत्रण स्त्री के हाथ में जाता जायेगा व्यक्ति वृद्ध होता जायेगा इसलिए कामुक स्त्री पुरुष शीघ्र ही ढल जाते हैं, रोगग्रस्त हो जाते हैं, समस्याओं में उलझ जाते हैं, बालों में सफेदी आ जाती है और एक दूसरे का शोषण शुरू हो जाता है।

          दो धाराएं है,दो प्रकार के सम्बन्ध हैं। एक सम्बन्ध में मातृत्व की बहुलता है। एवं यह पुष्टिदायक है यह उन्नति का मार्ग है,यह एक मार्गीय व्यवस्था है,इसमें लेन-देन नहीं है, पुत्र का यह जन्म सिद्ध अधिकार है कि वह माता से प्रेमपूर्वक,हठपूर्वक प्राप्त करता रहे।पुत्र कैसा भी हो, बालक कैसा भी हो फिर भी माता के लिये वह अत्यंत ही प्रिय है, यहाँ पर तुलनात्मक अध्ययन नहीं है पुत्र से माता की अपेक्षा शून्य है। दूसरा विभाग इसके सर्वथा विपरीत है एवं इस मार्ग में पुरुष अगर उपयोगी नहीं है तो फिर दिक्कत हो जायेगी, पुरुष को हर क्षेत्र में स्त्री के लिये उपयोगिता सिद्ध करनी होती है, इसमें लेन-देन है। सम्बन्ध क्या हैं? इस प्रकार अनंत काल से क्यों होता चला आ रहा है? यह सब किसी ने किसी को नहीं सिखाया। सीधी सी बात है मस्तिष्क का निर्माण जिन शक्तियों ने मिलकर किया है एवं जिन शक्तियों के सानिध्य में मस्तिष्क निर्मित हुआ है उनकी मूल प्रकृति ही ऐसी है। मस्तिष्क के अंदर क्रियाशील होने वाली मूल प्रकृति के ही लक्षण सम्बन्धों के रूप में परिलक्षित होते हैं, यह सब आदि व्यवस्था के अंतर्गत आता है।

              मस्तिष्क का विकास,उसकी सक्रियता, उसकी क्रियाशीलता को जो एकमात्र भाव प्रबलता प्रदान करता है वह बालभाव है। मैं ऐसा नहीं कह रहा कि बालभाव ही सब कुछ हैं परन्तु इतना जरूर कह रहा हूँ कि बाल भाव जीवन पर्यन्त विलोप नहीं होना चाहिये एवं इसे त्यागना नहीं चाहिये।सृष्टि काल अनुसार अन्य भाव भी उत्पन्न करती है, सृष्टि भाव आधारित है अगर बाल्य भाव चलता रहा तो सृष्टि पर अतिरिक्त भार बढ़ जायेगा क्योंकि मृत्यु सम्भव नहीं हो पायेगी। बाल्यभाव में मृत्यु सबसे दारूण और कष्टप्रद होती है साथ ही बालभाव की मृत्यु मातृत्व सहन नहीं कर पाता ।मातृत्व में इस सिद्धांत की इतनी प्रबलता है कि वह सर्वप्रथम खुद को मरते हुए देख सकती हैं पर बाल्यभाव को नहीं। हर माता वही चाहती है कि उसकी आँखों के सामने उसके पुत्र सदैव बने रहे वे आँखे मूंद लें पर पुत्र जीवित हो।

           यह मस्तिष्क की परम इच्छा शक्ति है एवं इस शक्ति की तरफ इशारा ही इस का व्येय है कि एक मूल मातेश्वरी शक्ति है जो कि यह कदापि बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है, किसी भी कीमत पर यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि उसकी संतान उससे पहले काल कवलित हो जाये। इसी शक्ति की मनु ने उपासना की, इसी शक्ति को प्रत्येक मनवंतर में मनु ने दुर्गा रूपी कुलदेवी को स्थापित किया,यही वह उर्वरक शक्ति है जिसका कि मार्कण्डेय ने पान किया और चिरंजीवी, हो गये, इसी शक्ति को विभिन्न रूपों में ऋषिगण प्रतिक्षण भजते रहते। हैं। यह शक्ति अत्यंत ही कातर, दयालु और प्रेममयी है, यह भोली है,यह सीधी-साधी एवं एक मार्गीय है।

अतः यही परम विशुद्ध मातृशक्ति है जो कि सर्वस्व लुटा कर पुत्रों को जीवित रखे हुए है । यही भाव ब्रह्मचारी बनाते हैं। इस कातर और दयामयी शक्ति के संस्पर्श से ही काम विकार नष्ट होते हैं एवं मातृभाव जाग्रत होते हैं।

        यह है योगमयी शक्ति, इसी को ढूंढते फिरते हैं तत्व ज्ञानी एवं मुमुक्ष जन पर यह तो बिल्कुल पास खड़ी होती है, अपलक आँखों से बस पुत्र का इन्तजार कर रही होती है। पुरुषार्थ, स्त्री- आकर्षक, जग-संसार के प्रपंचों में उलझे अपने पुत्र को पुनः प्राप्त करने की लम्बी प्रतीक्षा कर रही होती है। समस्त शस्त्रों से युक्त होते हुए भी पुत्र के सामने निशस्त्र होती है, पुत्र को भटकता देख कर भी मोह में लिप्त होती है। मोह इस शक्ति की मुख्य पहचान है एवं केवल पुत्र मोह ही इसके मूल में है। यह जागृत भी पुत्र की आवाज पर ही होती है और सुप्त भी पुत्र के आचरण से ही होती है। इसका कीलन, उत्कीलन केवल पुत्र ही दूर कर सकता है। वाल्यभाव के अधीन दुर्गेश्वरी है। यह समस्त ब्रह्माण्ड की नेत्री हैं, समस्त ब्रह्माण्ड की नियंत्रिका है पर इस पर नियंत्रण बालक का है। यह किसी को कुछ नहीं समझती, सबसे परे है, कोई भी इसकी हद तक नहीं पहुँच सकता सिवा बालक के। बालक पुकारेगा तो जाग जायेगी, समस्त कार्यों को छोड़ सामने खड़ी होगी। आप दस महाविद्या सिद्ध करना चाहते हैं, महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं, दुर्गा के दर्शन चाहते कुछ बनना चाहते हैं तो उसका एक मात्र विधान है "बाल्यभाव।

           बाल्यभाव व्यक्ति की युवा अवस्था लम्बा करने में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिन लोगों में बाल्यभाव होता है वे 18 वर्ष की उम्र से लेकर 50 वर्ष की उम्र तक एक जैसे ही दिखते हैं। बुढ़ापा उन्हें - स्पर्श नहीं कर पाता, वृद्धावस्था की अवधि घट जाती है। योग क्या है? रसेश्वरी विद्या क्या है? रसोत्पादन क्या है? इनके मूल में बाल्य भाव का अनुसंधान ही छिपा हुआ है। शरीर को बच्चो के समान हर दिशा में मोड़ना, शरीर के अंदर प्राण शक्ति का प्रबल संचार होना ही बाल्यभाव का प्रमाण है। बच्चों को चोट लगती है तुरंत ठीक हो जाती है, बच्चे भीषण से भीषण दुर्व्यवहार को भी तुरंत भूल जाते हैं, बच्चे ही सीख सकते हैं। सिखायेगी माता और सीखेगे बच्चे।

            सयानों को क्या सिखाना? सवाल उठता है कि सृष्टि ने सबको भौतिक रूप से एक माता प्रदान की है, उसका सानिध्य दिया है तो फिर मातृोपासना या दुर्गापासना की क्या जरूरत? जन्म देने वाली माता एक कड़ी है, जिसने हमें प्रदुर्भावित किया परंतु सर्व समर्थता एवं विभिन्न कलाएँ जरूरी नहीं है कि हमें वर्तमान की माता से प्राप्त हो गयी हो अतः दुर्गोपासना के द्वारा हम अनंत अव्यक्त संस्कारों, कलाओं एवं साधनो इत्यादि में से अपनी क्षमतानुसार प्राप्त करते रह सकते हैं। दुर्गोपासना का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जितनी बार हम इस साधना को सम्पन्न करेंगे हर बार कुछ नया प्राप्त होगा, हर बार एक नया दृष्टिकोण मिलेगा, हर बार कुछ सीखने को मिलेगा। ये लेख अटपटा, अविकसित और अर्थहीन भी हो सकते हैं क्योंकि दुर्गा पर लिखा गया है। एक बालक के रूप में जो मिल गया उसे प्राप्त कर लेना सहज रूप से आगे फिर कभी देखेंगे।

                         शिव शासनत: शिव शासनत:


प्रकृति से किस प्रकार से जुड़ें, किस प्रकार से सीखें ~

० जहां घोड़े पी रहे हैं वहीं पानी पिएं क्योंकि वे कभी भी दूषित पानी नहीं पीएंगे।


० अपना बिस्तर वहीं लगाएं जहां बिल्ली सोती है,क्योंकि उसे शांति पसंद है।

० जिस भी फल को कीड़े ने छुआ है लेकिन उसमें घुसा नहीं है वह खाएं,कीड़ा हमेशा पके फल की तलाश में रहता है।
और जहाँ छछूँदर खोदे, वहाँ अपना पेड़ लगाओ, क्योंकि वह उपजाऊ भूमि है।

० अपना घर बनाओ वहां जहाँ साँप अपने आप को गर्म करने के लिए बैठता है, क्योंकि वह स्थिर भूमि है जो गिरती नहीं है।

० उस जगह पर पानी को खोजने के लिए खुदाई करें जहां पक्षी गर्मी से छिपते हैं। पक्षी जहां भी खड़े होते हैं, पानी छिप जाता है।

० और सो जाओ पक्षियों के कलरव के साथ और पक्षियों के साथ जागो - यह सफलता की खोज है।

० सब्जियां ज्यादा खाएं-आपके पास मजबूत पैर और जंगल के जानवरों की तरह प्रतिरोधी दिल होगा।

० जब भी आपको समय मिले तैरें तब आपको ऐसा लगेगा जैसे आप पानी में मछली की तरह जमीन पर हैं।

० जितना हो सके आकाश की ओर देखें आपके विचार शुद्ध,उज्ज्वल और नीति और निर्णय स्पष्ट होते जाएंगे।
शांत और मौन रहो तुम्हारे हृदय में शांति छा जाएगी, और तुम्हारी आत्मा को शांति मिलेगी


जय श्री राम 🚩🙏🙏

नवरात्र में व्रत तीन प्रकार से हो सकता है-


• एकभुक्त: आधा दिन व्यतीत हो जाने पर हविष्यान्न भक्षण।
• नक्त: रात्रिकाल में एक समय हविष्यान्न भक्षण।
• उपवास: व्रत के दिन भोजन का पूर्णतः त्याग। 

जो नवरात्र में एकभुक्त अथवा नक्त रूप से व्रक करेंगे वे हविष्यान्न भक्षण करें और आमिष वस्तु का सर्वथा त्याग करें। 
ध्यातव्य- द्विजों के लिए भैंस का दुग्ध आदि निषिद्ध है।

सामान्य दिनों में भी अधिक से अधिक प्रयास रहना चाहिए कि आमिष भक्षण ना हो।

व्रत करने वाले-
• सूर्योदय से पूर्व स्नान इत्यादि समाप्त करें एवं दिन में शयन ना करें।
• भूमि पर ही शयन करें।
• प्यास लगने पर ही जल ग्रहण करें।
• पुरुष और अविवाहित स्त्रियाँ तेल, इत्र, शृंगार इत्यादि का त्याग करें।


● जो नौ दिन का व्रत नहीं कर सकते वे सप्तमी, अष्टमी, नवमी -इन तीन दिनों व्रत करके फल प्राप्त कर सकते हैं।

नवरात्रि विशेष नवार्ण मंत्र साधना ।।

  

   साधना किसी भी शुक्रवार या नवरात्रि से शुरू करे। रोज एक समय पर ही साधना करे। साधना के दिनों मे ब्रम्हचर्य का पालन करे । अगर साधना के दिनों मे स्वप्न हो जाए तब भी साधना शुरू रखे। रोज संकल्प करे की आज मे इतनी माला जाप करूँगा और उसे पुरा करे। अगर स्वप्न मे कोई शक्ति आप को कोई भी मंत्र बताये तो उसका जाप आपको नही करना है वरना आपको जो भी नुकसान होगा उसके जिमेदार आप स्वयं होंगे। अपने साधना के अनुभव गलती से भी किसी को ना बताये। 

माला :- रुद्राक्ष 
दिशा :- उत्तर 
दीपक :- घी या तेल 
आसन , वस्त्र :- लाल 
दिन :- अपने सामर्थ्य अनुसार 9 दिन ,11 दिन , 21 दिन साधना करे। 

॥ विनियोगः ॥
श्रीगणपतिर्जयति। ॐ अस्य श्रीनवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः, गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि, श्रीमहाकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो देवताः, ऐं बीजम्, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकम्, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः॥

विनियोग करके ऋष्यादिन्यास करे :

॥ ऋष्यादिन्यासः ॥
ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः, शिरसि॥ – सिर
गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्छन्दोभ्यो नमः, मुखे॥ – मुख
महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताभ्यो नमः, हृदि॥ – हृदय
ऐं बीजाय नमः, गुह्ये॥ – गुहा
ह्रीं शक्तये नमः, पादयोः॥ – दोनों पैर
क्लीं कीलकाय नमः, नाभौ॥ – नाभि
“ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” – इति मूलेन करौ संशोध्य ॥ – दोनों हाथ धो ले

॥ करन्यास ॥
करन्यास में सभी उंगलियों और करतल एवं करपृष्ठ का न्यास किया जाता है। अन्य सभी न्यासों में तो दाहिने हाथ की उंगलियों से निर्दिष्ट अङ्ग का स्पर्श करके न्यास किया जाता है किन्तु करन्यास में विधि अलग हो जाती है, जिसका निर्देश दिया गया है :

ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ॥ – दोनों हाथों के अंगूठे और तर्जनी को मिलायें।
ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ॥ – पुनः दोनों हाथों के अंगूठे और तर्जनी को मिलायें।
क्लीं मध्यमाभ्यां नमः ॥ – दोनों हाथों के अंगूठे और मध्यमा को मिलायें।
चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नमः ॥ – दोनों हाथों के अंगूठे और अनामिका को मिलायें।
विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ – दोनों हाथों के अंगूठे और कनिष्ठा को मिलायें।
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥ – पहले दोनों करतल को मिलाये फिर दोनों करपृष्ठ को मिलाये।

॥ हृदयादिन्यास ॥
हृदयादिन्यास के लिये दाहिने हाथ की पाँचों उंगुलियों से हृदय आदि अंगों का स्पर्श किया जाता है, कुछ लोग करतल से भी करते हैं :

ऐं हृदयाय नमः ॥ – दाहिने हाथ के पांचों उंगलियों को मिलाकर हृदय स्पर्श करे।
ह्रीं शिरसे स्वाहा ॥ – शिर स्पर्श करे।
क्लीं शिखायै वषट् ॥ – शिखा स्पर्श करे।
चामुण्डायै कवचाय हुम् ॥ – दोनों हाथों परस्पर दाहिने और बायीं बांहों का स्पर्श करे।
विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ – दाहिने हाथ की तर्जनी से दाहिना नेत्र, अनामिका से बांया नेत्र और मध्यमा से तृतीय नेत्र कल्पित करके मध्य मस्तक का स्पर्श करे।
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट् ॥ – दाहिने हाथ को शिर के ऊपर से घुमाकर ताली बजाये। कुछ लोग तर्जनी और मध्यमा दो उंगलियों से ही निर्देश करते हैं तो कुछ लोग अप्रदक्षिण क्रम का भी निर्देश करते हैं।

॥ अंगन्यास ॥
अग्रांकित मंत्रों से क्रमशः शिखा आदि का स्पर्श करें :

नमः, शिखायाम् ॥ – शिखा
ह्रीं नमः, दक्षिणनेत्रे ॥ – दाहिना नेत्र
क्लीं नमः, वामनेत्रे ॥ – बायां नेत्र
चां नमः, दक्षिणकर्णे ॥ – दाहिना कान
मुं नमः, वामकर्णे ॥ – बायां कान
डां नमः, दक्षिणनासापुटे ॥ – दाहिना नासिकापुट
यैं नमः, वामनासापुटे ॥ – बायां नासिकापुट
विं नमः, मुखे ॥ – मुख
च्चें नमः, गुह्ये ॥ – गुहा

॥ दिङ्न्यास ॥

दशों दिशाओं में चुटकी बजाये :

ऐं प्राच्यै नमः ॥ – पूर्व
ऐं आग्नेय्यै नमः ॥ – अग्निकोण
ह्रीं दक्षिणायै नमः ॥ – दक्षिण
ह्रीं नैर्ऋत्यै नमः ॥ – नैर्ऋत्यकोण
क्लीं प्रतीच्यै नमः ॥ – पश्चिम
क्लीं वायव्यै नमः ॥ – वायव्यकोण
चामुण्डायै उदीच्यै नमः ॥ – उत्तर
चामुण्डायै ऐशान्यै नमः ॥ – ईशानकोण
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ऊर्ध्वायै नमः ॥ – ऊपर
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नमः ॥ – नीचे

॥ ध्यानम् ॥
फिर पुष्पादि लेकर देवी का ध्यान करे :

खड्‌गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः
शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्‍तुं मधुं कैटभम्॥१॥

ॐ अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥२॥

ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्‌खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥३॥

फिर “ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः” इस मन्त्र से माला की पूजा करके प्रार्थना करें –

ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणि।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ॥

इस मंत्र से माला को दाहिने हाथ में ग्रहण करे :

ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्णामि दक्षिणेकरे।
जपकाले च सिद्ध्यर्थं प्रसीद मम सिद्धये ॥

ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्वमन्त्रार्थसाधिनि
साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा ॥

मूल मंत्र :- 

“ओम ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे”
Om Aing Hreeng Kling Chamundaye Vicche .

जाप पुरा होने के बाद इस श्‍लोक को पढ़े और भगवती को प्रणाम करे। 

ॐ गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्‍वरि ॥