आप किसी जल से भरे पात्र में एक बूंद पानी डालिए आपको तुरंत ही कुछ बुलबुले उठते हुए दिखाई देंगे। किसी भी वस्तु को पानी में फेंकिए नीचे से एक साथ बुलबुलों का गुच्छा उठेगा। एक बुलबुले से सेकेण्ड के सौवें हिस्से में अनेकों बुलबुले उत्पन्न हो जायेंगे। बस इसी सिद्धांत को BIG-BANG सिद्धांत कहते हैं। अभी हाल में वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि की है जबकि वेदान्त कई कल्प पहले ओंकार नाद के द्वारा सृष्टि के उत्पत्तिकरण की सटीक रूप से व्याख्या कर चुका है। बुलबुला प्रारम्भिक जीवन है। यह जीवन की प्रथम अवस्था है। जीवन सर्वप्रथम बुलबुले के रूप में ही विकसित होगा, यही ओंकारनाद है। यही एक से अनेक होने की ब्रह्मा की प्रक्रिया है। इसे ही कहते हैं एको बहुष्याम। सारे बुलबुले नष्ट नहीं हो जायेंगे कुछ एक बर्तन के तल पर चिपके हुए होंगे। कालान्तर यही बुलबुले ग्रह नक्षत्र का रूप लेंगे। इन्हीं से सूर्य का निर्माण होगा। ब्रह्माण्ड में ऐसा ही होता है। यही बुलबुले स्वरूप परिवर्तन कर अणु-परमाणु और उनके भी न्यूनतम अंशों के रूप में दिखाई देंगे। बुलबुले उठते ही रहते हैं और धीरे-धार जीव में परिवर्तित हो जाते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों में भी सब कुछ 'आंतरिक रूप से बुलबुलों के समान ही होता है। हृदय की धड़कन हो, मस्तिष्क की क्रियाशीलता हो इत्यादि सब जगह बस बुलबुले ही धड़कते हैं। वे ही उठते और मिटते हैं।
मैंने बुलबुले को जीवन कहा, उसे जीवित कहा। इस सृष्टि में जो भी एक से अनेक होगा वह जीवित है। जीवन की सबसे प्रारम्भिक अवस्था बुलबुला ही है वह आपकी आँखों के सामने एक से अनेक हुआ। इससे पहले की प्रक्रिया तो शक्ति की धारा है। वह भी किसी बुलबुले से, बनी होगी। यहीं रहस्य है लिंगार्चन का अर्थात रुद्राभिषेक का। शिव के ऊपर गिरती निरंतर जलधारा का। जीवन के लिए जरूरी प्राण विद्युत की उत्पत्ति का बुलबुला बना अर्थात किसी एक क्रिया ने प्राण को सक्रिय किया। जलधारा गिरती है विद्युत का निर्माण होता है एवं सारा विश्व प्रकाशवान होता है। यह मनुष्य करता है एवं इससे कृत्रिम प्रकाश का निर्माण होता है परन्तु प्राकृतिक प्रकाश अर्थात प्राण का निर्माण भी ऐसी ही गिरती हुई जलधारा से होता है। प्राण ही प्राण को शक्ति प्रदान करेगा। प्राणतत्व- प्राणतत्व को ही ग्रहण करेगा एवं प्राणतत्व की शिथिलता को प्राणतत्व ही दूर करेगा बस इतनी सी कहानी है ब्रह्मविद्या की। प्राणों को समझने की क्रिण, प्राणों के उत्पत्तिकरण को जानने की क्रिया प्राणों को मजबूत बनाने की विद्या ही ब्रह्म विद्या है। प्राणों को निरंतर चलायमान रखना ही ब्रह्मविद्या का कार्य है। प्राणों का स्थापन ही सीखना पड़ेगा।
प्रत्येक पिण्ड का मूल अर्क है प्राण शक्ति। हम तो अभी तक (मैं वैज्ञानिकों की बात कर रहा हूँ) सूर्य ऊर्जा को भी संचय करने में सफल नहीं हो पाये हैं। सूर्य के द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा अभी भी हम पूर्ण रूप से मानव निर्मित यंत्रों में संचित नहीं कर पा रहे हैं। जो प्राण तत्व सूर्य से उत्सर्जित हो रहे हैं उन्हें जिस दिन मानव अपने अंत्रों में संचित करने में सक्षम हो जायेगा तो सारी दुनिया एक क्षण में ही परिवर्तित हो जायेगी। एक क्षण में ही वर्तमान यंत्र प्रागैऐतिहासिक हो जायेंगे। ऊर्जा के समस्त संसाधन व्यर्थ हो जायेंगे परन्तु जीव अनंत काल से अपने अंदर सूर्य के द्वारा उत्सर्जित प्राण शक्ति को कुछ काल सीमा के लिए संचित, स्तम्भित, कीलित और परिवर्तित करने में सक्षम हो गया है। यही जैविक यंत्रों की कहानी है। कम से कम 24 घण्टे तो साधारण से साधारण जीव भी अपने अंदर प्राण शक्ति को आवृत्ति प्रदान करने में सक्षम है। संचय कैसे होगा? संचय तभी सम्भव है जब प्राण शक्ति आवृत्ति में गतिमान हो एक चक्र के रूप में गतिशील बनी हुई हो। ऐसा ही शरीर में होता है तभी जैविक शरीरों में बुलबुले के समान हृदय फूलता एवं पिचकता है और धमनियों के माध्यम से रक्त प्रवाह पूरे शरीर में प्राण शक्ति को चक्राकार स्थिति में घुमाता रहता है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शरीर के अंदर प्राण शक्ति आवृत्ति बद्ध होती है और इसी आवृत्ति में से घूमते-घूमते एक और आवृत्ति जन्म ले लेती है। यह ब्रह्म कला है। एक माध्यम जब थक जाये तो अपने अंदर स्थित प्राण शक्ति को दूसरे माध्यम में स्थानांतरित कर देना या स्वयं के अंदर से एक नया शरीर उत्पन्न कर देना जो कि पुनः प्राण शक्ति को आवृत्ति में गति प्रदान करता रहे। इस प्रकार अनंत काल से जीव संरचनायें अपने आपको प्राण शक्ति से आबद्ध रखे हुए हैं। इसलिए प्रत्येक जीव में बला की इच्छा होती है स्वयं के द्वारा संरचना करने की अर्थात सृष्टि करने की। स्वयं के शरीर से स्वयं के समान संतति उत्पन्न करने की।
इसी बह्य कला के कारण जीव भी अजर-अमर है। सभी प्रारम्भिक लक्षण अजर-अमर है। सभी तत्व बस इसी आदि इच्छा के कारण आज तक अजर-अमर एवं अपने अस्तित्व को बरकरार रखे हुए हैं।
शत्रुत्व को मालुम है कि वह एक समय तक एक माध्यम में क्रियाशील रह सकता है और जैसे ही माध्यम अक्रियाशील होने की तरफ बढ़ेगा शत्रुत्व दूसरा शरीर ग्रहण कर चुका होगा या कहीं और पर विकसित हो रहा होगा। नष्ट होने से पहले ही विकास प्रारम्भ हो चुका होता है। 16 वर्ष की उम्र में ही संतान उत्पन्न की जा सकती है। स्वयं पिता अपनी संतान को अपने अस्तित्व के साथ-साथ, अपने द्वारा प्रदान किये गये तत्वों के अस्तित्व की रक्षा हेतु अस्तित्व प्रदान करता है। पिता का शरीर नष्ट हो जायेगा पर उससे पहले ही अनेकों पुत्रों के रूप में अस्तित्व पूर्ण रूप से विकसित हो चुका होगा। यहाँ तक कि पुत्र के पुत्र भी उत्पन्न हो चुके होंगे। यही ब्रह्म विद्या है। ब्रह्म विद्या मूल में स्थित है बाहर से नहीं लगाई जाती। स्वतः ही क्रियाशील होती रहती है। स्वतः ही व्यक्ति या जीव को उत्प्रेरित करती रहती है। स्वतः ही जीव के शरीर में परिवर्तन कर देती है एवं उसे परिवर्तन की ओर अग्रसर भी करती है। ब्रह्म विद्या मुँह से बांचने की विद्या नहीं है। यह आम विद्याओं के अंतर्गत नहीं आती है। ब्रह्म विद्या हर किसी को समझाने के लिए नहीं बनी हुई है। यह ब्रह्म ज्ञानियों का विषय है। जिन्हें विराट संरचना करनी होती है वे ही ब्रह्म विद्या में निपुण हो पाते हैं।
जीव उत्पन्न हुआ, उसने मुख खोला और भोजन को स्वतः ही ग्रहण कर लिया। किसी ने उसे भोजन ग्रहण करना नहीं सिखाया। देखने में यह बात बहुत सामान्य लगती है परन्तु यह कदापि सामान्य नहीं है अगर उसके अंदर भोजन ग्रहण करने की जानकारी नहीं होती तो फिर जीवन की कड़ी आगे नहीं बढ़ पाती। कुछ ज्ञान ऐसा होता हे जिसे सीखने और सिखाने लग जाये तब तो फिर हो चुका। जब तक भोजन ग्रहण करना सिखाओगे तब तक तो प्राण उड़ चुके होंगे। सीखने सिखाने के लिए बहुत कुछ बकवास है। ये सब ब्रह्म विद्या के अंतर्गत नहीं आता। ब्रह्म विद्या का जो आवश्यक हिस्सा है वह तो सभी को प्राप्त हो जाता है। इसके पश्चात वाला भाग पुस्तकों में नहीं मिलता। यह ब्रह्म ज्ञानियों के पास होता है। ब्रह्म ज्ञानी गिने चुने होते हैं और वह यह ज्ञान केवल उन्हीं को देते हैं जो कि ब्रह्म ज्ञानी होने वाले हैं। बाकी सब पूजन पाठ, उपासना, सामान्य व्यवहार, सामान्य दक्षता इत्यादि दे दिया जाता है। ऐसा क्यों? मैंने पहले कहा एक पिता अपने जीवनकाल में पुत्र उत्पन्न कर लेता है। ठीक्र वैसे ही ब्रह्म ज्ञानी भी अपने जीवन काल में दूसरा ब्रह्म ज्ञानी रच लेता है। ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म ज्ञानी ही रचेगा भूगोल का अध्यापक नहीं बनायेगा अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो फिर श्रृंखला टूट जायेगी।
बगलामुखी की आराधना खण्डित हो जायेगी। बगलामुखी क्रियाशील इसलिए है कि श्रृंखला न टूटने पाये। देखिए दो मार्ग हैं प्राप्त करने के। एक मार्ग है तप का मार्ग। यह मार्ग सबके लिए खुला हुआ है। तप करके, तपस्या करके पूर्ण निष्ठा के साथ सेवा करके कोई भी कुछ भी प्राप्त कर सकता है। यह तपोनिष्ठ होने की प्रवृत्ति है। इसमें खूब बाधायें आयेंगी, खूब अवरोध आयेंगे फिर भी तपोनिष्ठ साधक लगा रहेगा। तप को अस्त्र बनाकर वह असुरों के समान ब्रह्मा और शिव से कुछ भी प्राप्त कर सकता है। उन्हें प्रसन्न कर सकता है। यह भी एक विधान है। तपोनिष्ठ के आगे उन्हें झुकना ही पड़ता है परन्तु यह जरूरी नहीं कि तपोनिष्ठ व्यक्ति अपने आपमें एक उत्कृष्ट संरचना हो। लंकेश भी तपोनिष्ठ था बहुत कुछ प्राप्त कर लिया था। तप से सिद्धि तो प्राप्त हो ही जाती है। इसमें, आदि शक्तियों की भी परीक्षा होती है। यह पूर्ण स्वतंत्रता का मार्ग है। हर जीव तप करने के लिए स्वतंत्र है परन्तु इसमें कृपा का अभाव हो जाता है। यह दुनिया तपनिष्ठों से भरी हुई है। तपानुसार, कर्मानुसार ये कुछ काल के लिए शक्तिशाली तो हो ही जाते हैं बाद में चाहे जो कुछ भी हो। दूसरा मार्ग है कृपा का मार्ग। इसमें कृपा प्राप्त होती है यह मूक मार्ग है। यह मांगने की प्रक्रिया नहीं है। कृपा मार्ग का प्रमाणीकरण भी नहीं होता है। इसमें जीव विशेष माध्यम होता है पराशक्ति की इच्छा का। वह अपने कृपाचारी को जीवित देखना चाहता है, विकसित देखना चाहता है, उसे पूर्ण रूप में देखना चाहता है।
अब एक वृतांत देता हूँ लंकेश तपोनिष्ठ थे उनके अंदर भी क्रियाशील थी रुद्र की शक्ति, ब्रह्म ज्ञान उनके अंदर भी था। उन्होंने इसे घोर तपस्या से प्राप्त किया था, स्व अर्जित किया था। देवाधिदेव महादेव की लंकापुरी में उन्हें गद्दी पर बिठाया गया था। प्रभु श्री राम पर कृपा हुई उनके साथ रुद्रांश हनुमंत थे। हनुमंत के रूप में बगलामुखी क्रियाशील हुई।
लांगुलास्त्र बगलामुखी की ही एक प्रक्रिया है। अंत में विजय कृपा की ही हुई। इसका क्या कारण है? कृपा क्यों हर बार विजयी होती है? तप क्यों हर बार हारता है? सीधी सी बात है तप सौदा है, इसमें मांग होती है, इसमें वरदान होता है, इसे पूर्ण करने के लिए प्रतिबद्धता होती है। यह एक तरह से कीलन है परन्तु इसके विपरीत कृपा में स्वेच्छा चारिता होती है, गुरु की इच्छा होती है। केकैयी के बंधन में भरत को राजगद्दी मिल गई थी। दशरथ कीलित थे, प्रतिबंधित थे, केकैयी को वरदान देकर। इसमें उनकी इच्छा नहीं चली। कृपा का मार्ग श्रेयस्कर है लम्बे समय में विजयी होता है। बगलामुखी ब्रह्म विद्या के अंतर्गत आती है। युद्ध सभी करते हैं। जीवन में शत्रु सभी के होते हैं। यह सब जीवन का ही एक अंग है परन्तु विजय महत्वपूर्ण है। विजय की प्राप्ति ही बगलामुखी की आराधना में सफलता का द्योतक है। अतः अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं को साधनाओं के माध्यम से कभी भी सौदेबाजी नहीं करनी चाहिए सिर्फ कृपा प्राप्ति का ही ध्येय रखना चाहिए। विजय कृपा के अंदर ही निहित है। तपोनिष्ठ तो हारता है, हार तपोनिष्ठों के लिए ही बनी है, हार तपोनिष्ठ को परिवर्तित करती है सद्मार्ग अपनाने के लिए। हार तपोनिष्ठ को उद्वेलित करती है यह सोचने के लिए कि कृपा प्राप्ति ही श्रेष्ठ विधान है। यही ब्रह्म वर्चस्व की कहानी है। तपोनिष्ठ विश्वामित्र से ब्रह्मऋषि में परिवर्तित होने की प्रक्रिया है।
18 वीं शताब्दी में एक महान सिद्ध हुए उन्हें कच्चे बाबा के नाम से जाना जाता था। वो जो कुछ भी खाते थे सिर्फ कच्चा ही खाते थे अगर कोई मुट्ठी भर गेंहूँ दे आता तो उसी को कच्चा खा लेते थे। किसी ने सब्जी दे दी तो कच्ची खा ली। अद्भुत बात है। जार्ज पंचम जो कि इंग्लैण्ड के राजा थे एक बार हिन्दुस्तान आये। काशी आकर उन्होंने किसी सिद्ध संत से मिलने की इच्छा प्रकट की, लोग उन्हें कच्चे बाबा के पास ले गये, बाबा ने अपनी कुटिया में कुर्सी लगा दी साफ सफाई भी करवा दी, आखिर कार उनसे मिलने विश्व का सम्राट आ रहा था। जार्ज पंचम उस समय युवा थे फिर भी भारतीय संस्कृति से भली- भांति परिचित थे और गरिमानुकूल व्यवहार भी करते थे। वे कुर्सी पर नहीं बैठे जमीन पर ही बैठे जब सम्राट जमीन पर बैठ गया तो भारतीय नौकर चाकर और चाटुकार भी -बाबा के सामने लोटने लगे।
जार्ज पंचम ने बाबा से कहा आप जो चाहे मांग लीजिए आपके सामने सम्राट बैठा हुआ है। बाबा ने कहा मैं क्या मांगू? तू चलकर मेरे पासा आया । मैं तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि तू राज कर। मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि ब्रह्म विद्या के धनी भिखारी नहीं होते। आज का कोई चाटुकार साधु संत होता तो तुरंत ही आश्रम के लिए जमीन मांग बैठता। मैं रोज ऐसे घटिया साधु-संतों को देखता हूँ जो कि राजनेताओं के सामने, कुबेर पतियों के सामने सिर्फ ट्रस्ट, संस्था और मठ के लिए भिक्षा मांगते रहते हैं। जो स्वयं भिखमंगा है वह किसी को क्या देगा? जो राजदरबार में आश्रम के लिए जमीन मांगने की याचना करता है उसे कहाँ ब्रह्म विद्या सिद्ध होगी?
हरि गोस्वामी जी एक संत हुए हैं वे काशी में निवास करते थे, प्रतिदिन भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते और फिर वहीं पास की झाड़ियों में जाकर छिप जाते । वे झाड़ी में रहते थे उनका एकमात्र कार्य था भगवान विश्वनाथ का दर्शन करना। अचानक एक दिन काशी से गायब हो गये कहाँ गये किसी को पता ही नहीं चला। यह है ब्रह्म ज्ञानियों की पहचान। उनका एकमात्र कार्य था भगवान विश्वनाथ का दर्शन करना न कि पण्डाल बांधना। ऐसे ही एक और महात्मा हुए विश्वेश्वरदास जी वे छतरी वाले बाबा के नाम से जाने जाते थे। उनके पास बस एक छतरी थी छतरी गाड़ी और उसी के नीचे बैठ गये उन्हें विष्णु का वामन अवतार सिद्ध था। अब जिसे स्वयं वामन अवतार सिद्ध हो जो कि ढाई कदम में ही समस्त ब्रह्माण्ड के छोर को लांग दे उसे क्या जरूरत पड़ी मठ बनाने की। छतरी ही बहुत है। अयोध्या में एक ब्रह्म ज्ञानी हुए रामकृपा जी महाराज वह सारा जीवन एक छटाक चना ही खाते थे। उसके अलावा जीवन में उन्होंने कुछ खाया ही नहीं। प्रतिदिन बस एक छटाक चना खाते थे। जो भी आता था उसे चने के कुछ दाने दे देते थे।
आज भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने उनके द्वारा प्राप्त चने के दाने सुरक्षित रखे हुए हैं। अस्सी वर्ष बीत गये उन्हें शरीर त्यागे फिर भी चने के दाने ऐसे लगते हैं जैसे कि इसी वर्ष उत्पन्न हुए हों। ये अयोध्या में ही रहते थे। इनका जबर्दस्त कीलन कर रखा था प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में। ये अंत तक अवधवासी ही रहे। एक बार इन्होंने अयोध्या छोड़कर जाने की कोशिश की। रात्रि को चुपचाप अयोध्या छोड़कर जाने लगे। ये तंग आ चुके थे जनता की भीड़-भाड़ से। जैसे ही अयोध्या छोड़कर निकले एक लम्बे चौड़े सिपाही ने आकर इनका रास्ता रोक लिया और इन्हें पुनः अयोध्या में भगा दिया। सारी रात यह दसों दिशाओं से अयोध्या छोड़कर जाने की कोशिश करते रहे पर हर बार वही सिपाही इन्हें डांट डपटकर पुनः भगा देता। अंत में ये समझ गये कि प्रभु श्री राम की इच्छा ही नहीं है कि मैं अयोध्या छोहूँ। इसे कहते हैं कृपा।
आध्यात्मिक लोगों का जबर्दस्त कीलन होता है। वे अपने गुरुओं की बगलामुखी साधना के द्वारा पूरी तरह से स्तंभित होते हैं। जब तक वे अपने कार्यों को सम्पन्न नहीं कर लेंगे गुरु उन्हें नहीं छोड़ते। वे ही सारी व्यवस्था करते हैं। चारों तरफ से कीलन करके रख देते हैं। जब आप बगलामुखी यंत्र का तांत्रोक्त पूजन करेंगे तो उसमें पायेंगे कि इस ब्रह्म विद्या के द्वारा तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों के मुखों को स्तम्भित कर दिया गया है। ब्रह्मास्त्र, शिवास्त्र, महासुदर्शन चक्र सब के सब महादेवी ने कीलित कर दिए हैं अपने भक्त के लिए। यमास्त्र,कुबेरास्त्र, वायुअस्त्र, आयास्त्र इत्यादि सभी कीलित हैं। इन सभी पराशक्तियों से वह अपने भक्त को कवचित कर रही हैं। अर्थात अब भक्त के ऊपर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी कुपित नहीं हो सकते तो फिर अन्य किसी शक्ति की क्या औकात। यह सब क्यों? क्योंकि इन्हीं क्रियाओं के द्वारा अहं ब्रह्माऽस्मि का अभ्युदय होगा अर्थात मैं ही ब्रह्मा हूँ। यही बगलामुखी महाविद्या का सारांश है। जो कुछ हूँ वह मैं ही हूँ। अब कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। यही है ब्रह्मऋषियों की पहचान।
देखिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कुबेर, यम इत्यादि इत्यादि मानवाकृति के रूप में अत्यधिक मात्रा में क्रियाशील मिल सकते हैं। ऐसे भी मनुष्य हैं जिनके पास अकूत धन सम्पदा है साक्षात कुबेर के विग्रह। ऐसे भी मनुष्य हैं जो साक्षात चाण्डाल हैं। ऐसे भी मनुष्य है जो सिर्फ निदर्यता के साथ प्राण हरने को तैयार रहते हैं। ब्रह्मा के समान मनुष्य भी हैं जो कि नवीन संरचना करने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं। उनमें इतना ब्रह्मत्व विकसित हो जाता है कि चालीस वर्ष में करोड़ों ऋषि पुत्र एवं ऋषि पुत्रियाँ उत्पन्न कर देते हैं। जैसे कि निखिलेश्वरानंद जी ने किया है। बस दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है सब कुछ यहीं पर दिखलाई दे जायेगा। संकट मोचन मनुष्यों के जीवन में ऐसे ही क्षण आते हैं कि अगर उसके ऊपर गुरु कृपा नहीं है तो वह पतनोन्मुख हो जायेगा। मैंने अपने जीवन में ऐसे स्त्री-पुरुषों को देखा है कि जिनके जीवन में अगर निखिलेश्वरानंद जी नहीं आते तो वे पतनोन्मुख हो गये होते, नर्क की गर्त में चले गये होते, कहीं सड़ रहे होते। ऐसे ही क्षणों में रक्षा करती है बगलामुखी। सर्वदुष्टानां, सर्वशत्रुनां का कीलन, उच्चाटन, मारण एवं मोहन ब्रह्म विद्या बगलामुखी के द्वारा ही गुरु करते हैं। ब्रह्म विद्या वह है जो लाखों करोड़ों पीड़ित शोषित और कुण्ठित जीवों का पुनः उद्धार कर सके। चाहे माध्यम कुछ भी क्यों न हो? गुरु, गणेश, शिव, रुद्र, सूर्य, चन्द्र, अग्नि देव इत्यादि सभी कल्याणकारी एवं सौम्य माहेश्वरी बगलामुखी के कारण ही बने है।
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