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गुरुभक्तियोग कथा अमृत ।।

गुरु जब कोई भी चीज करने की आज्ञा करें तब शिष्य को हृदयपूर्वक उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। गुरु के प्रति इस प्रकार की आज्ञाकारिता आवश्यक है। यह निष्काम कर्म की भावना है। इस प्रकार का कर्म किसी भी फल की आशा के लिए नहीं किया जाता अपितु गुरु की पवित्र आज्ञा के लिए ही किया जाता है। तभी मन की अशुद्धियाँ, जैसे कि काम, क्रोध और लोभ नष्ट होते हैं। जो शिष्य चार प्रकार के साधनों से सज्जग है वही ईश्वर से अभिन्न ब्रह्मनिष्ठ गुरु के समक्ष बैठने के एवं उनसे महावाक्य सुनने के लिए लायक है।

चार प्रकार के साधन यानी साधनचतुष्टय इस प्रकार हैं-
विवेक -- आत्मा-अनात्मा, नित्य-अनित्य, कर्म-अकर्म आदि का भेद समझने की शक्ति। 
दूसरा वैराग्य -- इन्द्रियजन्य सुख और सांसारिक विषयों से विरक्ति। 
तीसरा षट्संपत्ति -- शम यानी वासनाओं एवं कामनाओं से मुक्त निर्मल मन की शान्ति , दम यानी इन्द्रियों पर काबू , उपरति यानी विषय-विकारी जीवन से उपरामता , तितिक्षा माने हरेक स्थिति में स्थिरता एवं धैर्य के साथ सहनशक्ति, श्रद्धा और समाधान बाह्य आकर्षणों से अलिप्त मन की एकाग्र स्थिति।
चौथा साधन है मुमुक्षत्व -- मोक्ष अथवा आत्म-साक्षात्कार के लिए तीव्र आकांक्षा। आपको मार्ग दर्शन देने के लिए आत्मसाक्षत्कारी गुरु होने ही चाहिएं I 

हमने कल पढ़ा कि सदगुरु जनार्दन स्वामी ने एका को पुरस्कार स्वरूप अपना एकांत स्थान वरसा डोंगर ले जाने का प्रस्ताव रखा I तब एका को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ I जबसे एका जनार्दन स्वामी की शरण में आया था तब से सैकड़ों बार उसके होठों पर यही आया था कि एक बार गुरुदेव के साथ एकांत स्थान में जायें पर वह आशा आज प्रत्यक्ष रूप से फलीभूत हुई थी I 

जब एका ने गुरुदेव का वह मनोरम स्थान देखा तब वह हर्ष से प्रफुल्लित हो गया I वन्यजीवों के प्रति गुरुदेव का प्रेम देखकर उसकी आंखें आल्हादित हो गयीं I एका स्तब्ध हुआ सब देख रहा था I सद्गुरु का ऐसा आकर्षक आभामंडल जो विवेकहीन हिंसक जीवों के ह्रदयों तक को अपनी ओर खींच लेता है I यह दृश्य एका के लिए अनिर्वचनीय था I जनार्दन स्वामी के नेत्र मूंदने लगे वे आत्मलीन होने वाले हैं उसने दौड़ कर उनके चरणों को थाम लिया और भावावेश में एका बोला गुरुदेव स्वामी !  
मला घडेल नात्यांचे दर्शन मूळ स्वरूपात I 
मुझे यहां सच में दत्तात्रेय स्वामी का दर्शन प्राप्त होगा न बताइये न गुरुवर वो आएँगे न यहां ?

अवश्य ! तेरी भावनाओं का प्रबल प्रवाह उन्हें यहां आने का आमंत्रण देगा ही देगा वे स्वयं को रोक नहीं पाएंगे वो अवश्य आएंगे I परंतु परंतु क्या गुरुदेव एका ने उत्सुकता से पूछा ? वे यहां विचित्र रूप में आएंगे यदि तूने भक्ति की आंख से पहचान पाया तब ही वे अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर तुझे दर्शन देंगे I जनार्दन स्वामी ने रहस्य उद्घाटन कियाI

इतना कहकर जनार्दन स्वामी ध्यानलीन हो गए I एका वहीं पर श्री चरणों की छाया में बैठ गया I अपने सद्गुरु की चिदानंद मूरत को एकटक निहारने लगा I महाभाग्य होते हैं वो क्षण जब सकल साधनाओं के साध्य आंखों के सामने होते हैं I निसंदेह गुरुदर्शन खुली आंखों की महा साधना है I एका इसी दर्शन साधना में लीन था I 

तभी एका एक जनार्दन स्वामी की अंतर चेतना से नाम स्मरण प्रस्फुटित हुआ गुरुदेव दत्त, गुरुदेव दत्त, श्री दत्त, श्री दत्त, श्री दत्त I

गुरु सख्या तुझ्या विना जाऊ पाहे ज्यासीं माझा प्राण काहो कठीण केले म्हणून पाहिले नेत्र उघडून I

हे गुरु राया, आत्मसखा, तुम बिन मेरे प्राण फड़फड़ाने लगे हैं I मैं जानता हूं तुम यहीं कहीं मेरे आस पास आ चुके हो I कठोर ह्रदय न रखो ममता के सरोवर में मेरे सामने आ जाओ और अपनी एक दृष्टि डालकर मुझे निहाल करो प्रभु I 

आतां यावे लवकरी । भेट द्यावी बा सत्वरी।
शीघ्र आओ शीघ्र आओ मुझे भेंट का सुख दो भगवन I उसी समय कदमों की आहट सुनाई दी I दो कदम चिमटे की ताल से ताल मिला कर आगे बढ़ रहे थे I सहसा हवाओं में सुगंध घुल गयी सामने में एक मस्त फ़क़ीर मलंग आते दिखाई दिए I उनका सर्वांग चमड़े से ढका हुआ था, नेत्र लाल थे, सफेद दाढ़ी, मूंछ लहरा रही थी I एक हाथ में चिमटा था दूसरे में कटोरा था पाँव में चप्पल नहीं थी साथ में उनके एक कुतिया चल रही थी I एकदम फक्क्ड़ फकीर स्वरुप तनिक भयावह भी उन्हें देख एका थोड़ा सिकुड़ सा गया I 

परंतु उधर जनार्दन स्वामी उस फकीर के कदमों में दंडवत लेट गए I उन्होंने चिमटा बजाया और आल्हाद प्रकट किया फिर दोनों हाथों से जनार्दन स्वामी को उठाया और अपने ह्रदय से लगा लिया I एका मंत्रमुग्ध हुआ यह विचित्र दृश्य देखकर I ज्यों ज्यों चिमटा बजता त्यों त्यों उसके अंतःकरण में नाद की भांति गूँज जाता I पता नहीं कैसे पर एक प्रकार का मानस सुमिरन उसके भीतर सतत चल रहा था I गुरुदेव दत्त, गुरुदेव दत्त, गुरुदेव दत्त I 

एका ने देखा बड़ी गूढ़ विसिमित मुस्कान मलंग के मुख पर फैली थी I मुस्कुराकर चिमटा खड़खड़ाकर वे मलंग कीर्तन करने लगे I 
खाने से भूख बढ़ी, पीने से प्यास बढ़ी, दरसन से आस बढ़ी I 
इसलिए सोते-सोते जागो अपने आप से भागो, आओ साईं छुटकारे की खीर मेरे संग खाओ I

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